3 भारतीय योग दर्शन में पूर्व जन्म को जानने के सिद्धांत और यौगिक क्रियाओं का युक्ति पूर्ण वर्णन किया है । सिद्धांत कुछ इस तरह है - किसी एक ध्येय पदार्थ में धारणा । ध्यान । और समाधि । इन तीनों का पूर्णत: एकत्व होने से ’संयम’ हो जाता है । संयम करते करते योगी संयम पर आरूढ हो जाता है । अर्थात उसका चित्त पूर्णत: उसके अधीन हो जाता है । चित्त परिपक्व व निर्मल होने से उसकी ऋतंभरा बुद्धि में अलौकिक ज्ञान का प्रकाश आ जाता है । जिससे योगी को बाह्य और आंतरिक प्रत्येक वस्तु के स्वरूप का यथार्थ । और पूर्ण ज्ञान हो जाता है । पूर्व जन्म का ज्ञान होना संभव है ?
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जीव की मोहजनित अज्ञानतावश योग योगत्व और अलौकिकता जैसे शब्द भारी भरकम रहस्यमय और अति दूरी वाले दुर्लभ प्रतीत होने लगे । पर वास्तव में ये सत्य नहीं है । योग योगत्व और अलौकिकता हर आत्मा की निजी संपत्ति है । उसकी असली पहचान है ।
जीवन होने का एक मूलभूत सिद्धांत । मूल जरूरत ऊर्जा है । प्रकाश में निहित ऊर्जा । प्रकाश और ऊर्जा के बिना कुछ भी संभव नहीं है । भौतिक जगत में इसका रूपांतरित रूप - बिजली । पेट्रोलियम पदार्थ । कोयला । लकङी । गैसें आदि ऊर्जा स्रोत हैं । अतः ऊर्जा के बिना मंच पर कोई नाटक नहीं हो सकता । कोई सिनेमा नहीं चल सकता । और जीवन के इस रंगमंच पर यह सब नाटक ही हो रहा है । रमता राम की
रामलीला । इसलिये जो लोग योग भक्ति को ज्ञान बिज्ञान से अलग करके देखते हैं । वे महामूर्ख ही हैं । भौतिक बिज्ञान आंतरिक ज्ञान और बिज्ञान से ही निकलता है । और ये उसका स्थूल । आकारी । 3D पदार्थ रूप ही है ।
धारणा । ध्यान । और समाधि - ये तीन अंग सिर्फ़ पूर्व जन्म और अलौकिक विषयों के लिये ही नहीं हैं । बल्कि जीवन में कदम कदम पर इन्हीं तीन से काम होता है । चाहे वह एक साल का बच्चा हो । या मरणासन्न वृद्ध । आप मकान बनायें । शादी । बच्चा पैदा । अध्ययन । व्यापार । झगङा आदि कुछ भी विचार करें । ये तीन अवश्य मौजूद होंगे ।
एक उदाहरण देखिये - आपने मकान बनाने का विचार किया । ख्याल आया । यानी चाह बनी । चेतना का ये प्रथम स्फ़ुरण ( विचार वायु से प्रेरित बुलबुला सा उठना ) है । यानी आपके शान्त सागर में ( अभी तक इस विचार से रहित जिन्दगी में ) इच्छा का हल्का सा बुलबुला बना । अब ये चाह - स्थिति । बीज बनने लगी । और ये तभी तो संभव हुआ । अब आप में ऊर्जा मौजूद है । बिना ऊर्जा के प्रथम बुलबुला ही नहीं बनता । तब आगे की बात ही क्या हो ।
अब इसी विचार वायु बुलबुले से धारणा पक्की होने लगी कि - भाई एक मकान जरूरी है । ध्यान रहे । इसकी संभावनायें आपके अन्दर मौजूद होंगी । तभी ऐसा विचार उठेगा । वरना उठेगा ही नहीं । अब गौर से समझना । धारणा । ध्यान । और समाधि
तीनों अलग अलग होते हुये भी एक दूसरे में घुसे हुये हैं । पूरक हैं । एक दूसरे में गति कर रहे हैं । इनके % का घट बढ हो रहा है । और तीनों में क्रियाशीलता ऊर्जा से ही हो रही है । चेतना से हो रही है । बिजली से हो रही है ।
तो अब मकान की धारणा मजबूत हुयी । और आगे ध्यान में उसके अनेक रंग विरंगे चित्र बनने लगे । यानी सिर्फ़ विचार से आगे अंतर में मकान बनने लगा । अगर गौर करेंगे । तो पायेंगे । मकान जैसी चीज में भी अनेक चित्र बनते हैं । तब कोई अंतिम निर्णय हो पाता है । और पूरा होते होते भी परिवर्तित हो सकता है ।
इसका अगला चरण समाधि है । समाधि मुख्यतया सविकल्प और बाद में निर्विकल्प होती है । इसके बहुत गहन भेद हैं । इसलिये मुख्य बात पर ही बात करते हैं ।
सविकल्प समाधि यानी इच्छित कार्य को ऊर्जा देना । जब बात पक्की हो गयी । तो फ़िर उसे विभिन्न रूपा गतियों से आकार देने लगे ।
यानी धारणा ध्यान समाधि तीनों का पूर्णत: एकत्व होने से ’संयम’ हो गया । और संयम होते ही इच्छा साकार होने लगी । अब सोचिये । जो क्रिया बाहर से होती लग रही है । वो दरअसल अन्दर से हो रही है ।
पूर्व जन्म जिज्ञासा हेतु संसार में फ़ैली हुयी वृति ( बहिर्मुखता ) को एकाग्र कर अन्दर ले जाना ( अंतर्मुखी )
और फ़िर पिण्ड से ऊपर की ओर ( ऊर्ध्वमुखी ) उन्मुख करना होगा । आपकी इच्छा ( वासना ) से ये कारण ( शरीर ) में चली जायेगी । और इच्छित का ज्ञान होने लगेगा ।
वैसे संयम का बिज्ञान अपने आप में बहुत कुछ समेटे है । यूँ समझो । कोई उत्तम योगी हो । तो वो जलाकर राख कर दिये गये मुर्दे को फ़िर से सशरीर चला देगा । मतलब उसके राख कण आदि बन चुके अणु परमाणु वापिस देह कणों में परिवर्तित होकर देह खङी हो जायेगी । और जीवन वायु का संचार भी हो जायेगा । ऐसे कुछ उदाहरण हुये भी हैं । सरलता से यूँ समझो । ऐसा योगी जमे हुये दही को वापिस दूध में बदल सकता है । क्योंकि ये सारी क्रिया हुयी तो कहीं आंतरिक प्रकृति में ही । और वह वहीं स्थिति होकर वस्तु के घटकों में इच्छित बदलाव करता है । इसलिये संयम का बिज्ञान बहुत बङा है । इससे बङे बङे कार्य होते हैं । पूरे द्वैत योग का आधार ही एक तरह से संयम है ।
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जीव की मोहजनित अज्ञानतावश योग योगत्व और अलौकिकता जैसे शब्द भारी भरकम रहस्यमय और अति दूरी वाले दुर्लभ प्रतीत होने लगे । पर वास्तव में ये सत्य नहीं है । योग योगत्व और अलौकिकता हर आत्मा की निजी संपत्ति है । उसकी असली पहचान है ।
जीवन होने का एक मूलभूत सिद्धांत । मूल जरूरत ऊर्जा है । प्रकाश में निहित ऊर्जा । प्रकाश और ऊर्जा के बिना कुछ भी संभव नहीं है । भौतिक जगत में इसका रूपांतरित रूप - बिजली । पेट्रोलियम पदार्थ । कोयला । लकङी । गैसें आदि ऊर्जा स्रोत हैं । अतः ऊर्जा के बिना मंच पर कोई नाटक नहीं हो सकता । कोई सिनेमा नहीं चल सकता । और जीवन के इस रंगमंच पर यह सब नाटक ही हो रहा है । रमता राम की
रामलीला । इसलिये जो लोग योग भक्ति को ज्ञान बिज्ञान से अलग करके देखते हैं । वे महामूर्ख ही हैं । भौतिक बिज्ञान आंतरिक ज्ञान और बिज्ञान से ही निकलता है । और ये उसका स्थूल । आकारी । 3D पदार्थ रूप ही है ।
धारणा । ध्यान । और समाधि - ये तीन अंग सिर्फ़ पूर्व जन्म और अलौकिक विषयों के लिये ही नहीं हैं । बल्कि जीवन में कदम कदम पर इन्हीं तीन से काम होता है । चाहे वह एक साल का बच्चा हो । या मरणासन्न वृद्ध । आप मकान बनायें । शादी । बच्चा पैदा । अध्ययन । व्यापार । झगङा आदि कुछ भी विचार करें । ये तीन अवश्य मौजूद होंगे ।
एक उदाहरण देखिये - आपने मकान बनाने का विचार किया । ख्याल आया । यानी चाह बनी । चेतना का ये प्रथम स्फ़ुरण ( विचार वायु से प्रेरित बुलबुला सा उठना ) है । यानी आपके शान्त सागर में ( अभी तक इस विचार से रहित जिन्दगी में ) इच्छा का हल्का सा बुलबुला बना । अब ये चाह - स्थिति । बीज बनने लगी । और ये तभी तो संभव हुआ । अब आप में ऊर्जा मौजूद है । बिना ऊर्जा के प्रथम बुलबुला ही नहीं बनता । तब आगे की बात ही क्या हो ।
अब इसी विचार वायु बुलबुले से धारणा पक्की होने लगी कि - भाई एक मकान जरूरी है । ध्यान रहे । इसकी संभावनायें आपके अन्दर मौजूद होंगी । तभी ऐसा विचार उठेगा । वरना उठेगा ही नहीं । अब गौर से समझना । धारणा । ध्यान । और समाधि
तीनों अलग अलग होते हुये भी एक दूसरे में घुसे हुये हैं । पूरक हैं । एक दूसरे में गति कर रहे हैं । इनके % का घट बढ हो रहा है । और तीनों में क्रियाशीलता ऊर्जा से ही हो रही है । चेतना से हो रही है । बिजली से हो रही है ।
तो अब मकान की धारणा मजबूत हुयी । और आगे ध्यान में उसके अनेक रंग विरंगे चित्र बनने लगे । यानी सिर्फ़ विचार से आगे अंतर में मकान बनने लगा । अगर गौर करेंगे । तो पायेंगे । मकान जैसी चीज में भी अनेक चित्र बनते हैं । तब कोई अंतिम निर्णय हो पाता है । और पूरा होते होते भी परिवर्तित हो सकता है ।
इसका अगला चरण समाधि है । समाधि मुख्यतया सविकल्प और बाद में निर्विकल्प होती है । इसके बहुत गहन भेद हैं । इसलिये मुख्य बात पर ही बात करते हैं ।
सविकल्प समाधि यानी इच्छित कार्य को ऊर्जा देना । जब बात पक्की हो गयी । तो फ़िर उसे विभिन्न रूपा गतियों से आकार देने लगे ।
यानी धारणा ध्यान समाधि तीनों का पूर्णत: एकत्व होने से ’संयम’ हो गया । और संयम होते ही इच्छा साकार होने लगी । अब सोचिये । जो क्रिया बाहर से होती लग रही है । वो दरअसल अन्दर से हो रही है ।
पूर्व जन्म जिज्ञासा हेतु संसार में फ़ैली हुयी वृति ( बहिर्मुखता ) को एकाग्र कर अन्दर ले जाना ( अंतर्मुखी )
और फ़िर पिण्ड से ऊपर की ओर ( ऊर्ध्वमुखी ) उन्मुख करना होगा । आपकी इच्छा ( वासना ) से ये कारण ( शरीर ) में चली जायेगी । और इच्छित का ज्ञान होने लगेगा ।
वैसे संयम का बिज्ञान अपने आप में बहुत कुछ समेटे है । यूँ समझो । कोई उत्तम योगी हो । तो वो जलाकर राख कर दिये गये मुर्दे को फ़िर से सशरीर चला देगा । मतलब उसके राख कण आदि बन चुके अणु परमाणु वापिस देह कणों में परिवर्तित होकर देह खङी हो जायेगी । और जीवन वायु का संचार भी हो जायेगा । ऐसे कुछ उदाहरण हुये भी हैं । सरलता से यूँ समझो । ऐसा योगी जमे हुये दही को वापिस दूध में बदल सकता है । क्योंकि ये सारी क्रिया हुयी तो कहीं आंतरिक प्रकृति में ही । और वह वहीं स्थिति होकर वस्तु के घटकों में इच्छित बदलाव करता है । इसलिये संयम का बिज्ञान बहुत बङा है । इससे बङे बङे कार्य होते हैं । पूरे द्वैत योग का आधार ही एक तरह से संयम है ।
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