20 सितंबर 2010

श्री राजेश जी का संशय




ओशो रजनीश पोस्ट कपिल जी मैं वाकई INFLUENCE हो गया । पर ।बढ़िया प्रस्तुति । इसे भी पढ़कर कुछ कहे । ( आपने भी कभी तो जीवन में बनाये होंगे नियम ? )oshotheone.blogspot.com ।
बेनामी पोस्ट कुछ गूढ रहस्य की बातें...? 2 पर Maharaj ji । Pranam ।Main aapse yah jaanna chahta hun ki kya ek kabirpanthi mandir mein ja sakata hai ? kya ek brahaman kabirpanthi ban jane ke baad bhi devtaon ki pooja-archna kar sakta hai ? kya kabir saheb pooja-paath dainik dincharya mein bhagvan ya kisi devi ya devta ki pooja karte the? sansay mein hun. Kripa kar ke jald aur sahi uttar batayein । aapke uttar ki prateeksha mein । rajesh ।
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प्रिय राजेश जी । हमारे पास आने वाले लोगों में से ज्यादातर लोगों के ऐसे ही संशय और ऐसे ही शंका के सवाल होते हैं । सबसे पहले आपको कबीरपंथी का ही मतलब बताता हूं । जिसको कबीरपंथ कहते हैं । वो वास्तव में संत मत sant mat है । और ये सिर्फ़ सतगुरु कबीर साहेब का ही नहीं हैं । रैदास । दादू । पलटू । मीरा । नानक आदि अनेक संत हुये हैं । जिनका यही मत था । अब उल्लेखनीय बात जो में आपको बताता हूं । केवल संत मत sant mat ही परमात्मा की भक्ति और ग्यान और आत्म दर्शन बताता है । बाकी किसी ग्यान की पहुंच परमात्मा तक नहीं है । इसलिये इसको किसी भी पंथ का नाम देना एकदम गलत है । क्योंकि पंथ कहते ही परमात्मा के एक निश्चित दायरे में आने का आभास होता है । जबकि वह दायरे से मुक्त है । असीम है । इसको मत संत मत sant mat कहा जाता है । अन्य भगवान या देवता आदि जिनकी सीमाएं होती हैं । उनके लिये पंथ शब्द का प्रयोग होता है । क्योंकि उनके लिये रास्ता निर्धारित है । नियम निर्धारित हैं । पर परमात्मा जो सबका मालिक है । इन सब बातों से परे है । अन्य मतों में पंथ उचित शब्द है । उसी की देखादेखी लोगों ने सतगुरु कबीर साहेब के साथ पंथ शब्द जोड दिया । अब आईये मन्दिर की बात करते हैं । मन्दिर किसने बनाया । इंसान ने । मूर्ति किसने बनायी इंसान ने । एक पत्थर को लेकर मूर्ति कारीगर ने उसे पांव आदि के नीचे दबाते हुये छेनी हथोडे से खुरचकर कान । आंख । नाक । आदि बना डाले । उसे रंग से पोत पातकर मन्दिर में लगा दिया । अब बडा कौन हुआ । मूर्ति । या मूर्ति बनाने वाला ? एक शेर की मूर्ती शेर वाले कार्य कर सकती है ? मूर्ति पहचान मात्र है । उन लोगों के लिये । जिन्होंने शेर नहीं देखा । जिन्होंने देवता नहीं देखा । कि देखो वो ऐसा है ? और उसके कार्य यह हैं । आपका घर भी ईंट गारे से बना है । आपका मन्दिर भी ईंट गारे से बना है । फ़र्क सिर्फ़ आपके भाव का है । आप एक को घर मान बैठे । दूसरे को मन्दिर मान बैठे । आप अपने मानने से ही सब कुछ तय करते हैं । तो भी आप उससे बडे हुये । 1 ( सबसे बडा आत्मदेव ) 3 ( बृह्मा । विष्णु । महेश ) 33 ( शरीर के 5 तत्व के देवता । 25 प्रकृतियों के देवता । और 3 गुण । इस प्रकार ये तैतीस हुये । ) 33 करोड । शरीर के तैतीस करोड व्यवहार हैं । जिनसे तैतीस करोड आवृतियां बनती हैं । जिनका उनके महत्व के अनुसार छोटा बडा देवता नियुक्त है । इसलिये 33 करोड देवता । यानी एक पूर्ण मनुष्य का व्यवहार । तैतीस करोड आवृतियां पर अधिकार या उन्हें जानने वाला एक पूर्ण मनुष्य । जैसे श्रीकृष्ण दिव्य साधना DIVY SADHNA । लेकिन राम नहीं । 33 करोड देवता की अपेक्षा 33 देवता प्रमुख हैं । क्योंकि नये पैदा हुये बच्चे से प्राण निकलने की सीमा पर पहुंचे व्यक्ति को इनसे हर समय काम होता है । 33 देवता की अपेक्षा 3 ( बृह्मा । विष्णु । महेश ) का महत्व ज्यादा है । लेकिन ये तीन भी तभी हैं जब आप 1 ( सबसे बडा आत्मदेव स्वरूप दर्शन..आत्मस्थिति ) स्वयं हो । तो आप सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो । बशर्ते अपने आपको आत्म दर्शन जान लो तो । और यही जानने के लिये आदमी संत मत sant mat में आता है । महामन्त्र को अनुसंधान करता है । तुलसी के मानस में लिखा है । मन्त्र परम लघु जासु बस विधि हरि हर सुर सर्व । मदमत्त गजराज को अंकुश कर ले खर्ब । पहले लाइन देखे । उस लघु ढाई अक्षर के मंत्र के वश में बृह्मा । विष्णु । महेश और सभी देवता है । अब आईये ब्राह्मण की बात करते हैं । आप ये बात स्वयं जानते होंगे । कि पंडित से ब्राह्मण बडा होता है ? पंडित का वास्तविक अर्थ विद्वान और ब्राह्मण का वास्तविक अर्थ ब्रह्म और अणि यानी ब्रह्म में स्थित ब्रह्म में रहने वाला । ब्रह्म को जानने वाला । ब्रह्मलोक तक जिसकी पहुंच हो । जो ब्रह्म को तात्विक स्तर पर जान गया हो दिव्य साधना DIVY SADHNA । वह असली ब्राह्मण है । इसलिये आप सिर्फ़ जन्म से ब्राह्मण हो । वास्तविक अर्थ में ब्राह्मण नहीं हो । अब बात ये है कि यदि आपने वाकई सच्चे गुरु से ग्यान या नाम उपदेश लिया है । तो संत मत sant mat ब्रह्म से आगे की बात करता है । यह पारब्रह्म को ले जाने वाला है । ध्यान रखें । यदि आपको माला फ़ेरना । और वाणी से मंत्र जपना बताया गया है । यदि नाम आपके अन्दर प्रकट नहीं हुआ । यदि दिव्य प्रकाश उपदेश हो जाने के बाद भी आपने नहीं देखा । तो आपको दीक्षा उपदेश से दीक्षित करने वाला फ़र्जी है । जलते हुये दिये से ही दूसरा दिया जलाया जा सकता है आत्म दर्शन । बुझे हुये से नहीं ? वैसे मैं आपको सुझाव दूंगा । इन सब बातों की खुली पोल आप जानना चाहते हैं । तो मात्र 100 रु मूल्य की पुस्तक । अनुराग सागर । एक बार पढ लें । आपके तमाम संशय का समाधान हो जायेगा । अब मैं आपके प्रश्नों के उत्तर देता हूं । सतगुरु कबीर साहेब जो थे । जिस स्थिति में थे । वहां कोई देवी देवता है ही नहीं । वहां स्त्री पुरुष भी नहीं है । सिर्फ़ आत्मदेव है । सिर्फ़ सबसे परे परमात्मा है । ये सब देवता स्वयं चाहते हैं कि एक बार उन्हें मनुष्य जन्म मिल जाय । फ़िर सदगुरु की प्राप्ति हो जाय । तो वो असली आनन्द अविनाशी स्थिति को पा सकें स्वरूप दर्शन..आत्मस्थिति । बृह्मा । विष्णु । महेश जैसे देवता सच्चे संत के दर्शन हो जाने पर खुद को धन्य समझते हैं । कोटि प्रणाम करते हैं । तो सतगुरु कबीर साहेब भला उनकी पूजा किस आधार पर करेंगे ? अब रही बात आपके मन्दिर जाने या पूजा करने की । तो अभी मैंने ऊपर बताया ही है कि देवता आपके जैसा शरीर और संत मत sant mat का खुद ग्यान पाकर यही सुमरन करना चाहते है । बडे भाग मानुष तन पावा । सुर दुर्लभ सद ग्रन्थन गावा । यानी मानुष तन देवताओं के लिये भी दुर्लभ है ? यानी आप ये पूजा वगैरह करो तो । और न करो तो । ये अर्थहीन है । इनका कोई रिजल्ट नहीं हैं । यदि और भी संतुष्टि पूर्ण जबाब चाहें तो कृपया श्री महाराज जी सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज...परमहँस से फ़ोन न 0 9639892934 पर बात कर सकते हैं ।

तंत्र मंत्र सब झूठ है मत भरमों संसार । 1


vinay पोस्ट सहज योग साधिका मधु श्रीवास्तव पर ।बहुत अच्छा काम किया । आपने पतन के रास्ते से बचा लिया ।kapil पोस्ट सभी देवताओं में श्रेष्ठ कौन है ? पर ।MAIN BHAGWAAN KO NI MAANTA । MERA BLOG PAD KAR SHAYAD AAP BHI KUCH INFLUENSE HO JAAO । isitindya.blogspot.com ।
गजेन्द्र सिंह पोस्ट अगर आपको ब्लाग लिखने का शौक है...? पर ।badhia lekh likha hai aapne .....
vinay पोस्ट जानों । जानने से लाभ होता है । मानो मत । पर ।बहुत अच्छा वेग्यानिक तरीका था ।
ओमप्रकाश ग्रोवर पोस्ट क्या कुलदीप जी के प्रश्न का जबाब है । आपके पास ? 1 पर ।
आदरणीय श्री राजीव जी । आपका ब्‍लाग पढ़ा । आपने बड़ी गहन बातें लिखी । आपके ब्लाग में गुरूदेव कबीर की बाणी भी है । तंत्र का ज्ञान भी है । लेकिन कबीर साहब ने कहा है कि तंत्र मंत्र सब झूठ है मत भरमों संसार । संभव हो तो स्पष्ट करने का कष्‍ट करें । ओम ग्रोवर ।
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सम्मानीय ओमप्रकाश जी । यदि बहुत कम शब्दों में आपके प्रश्न का उत्तर दूं । तो आपने सतगुरु कबीर साहेब की जो बात लिखी है । तंत्र मंत्र सब झूठ है मत भरमों संसार । बिल्कुल सही है । लेकिन इसमें जो अर्थ है । यानी आपने इसका अर्थ ये लगाया है कि तंत्र मंत्र का कोई अस्तित्व ही नहीं है । यानी ये निराधार है । महज कल्पना है । तो ये बात सही नहीं है । आईये तंत्र मंत्र को देखते हैं । तंत्र यानी तन और त्र । यानी शरीर और तीन गुण । सत । रज । तम । इन्हीं तीन गुणों को प्रतीक रूप में बृह्मा विष्णु महेश कहा जाता है । यानी शरीर या किसी आकृति को आधार बनाकर किसी शक्ति का ( अस्त्र शस्त्र आदि रूप में ) निर्माण किया जाय । उदाहरण । जैसे कोई तांत्रिक कपडे या मिट्टी की गुडिया या पुरुष आकृति बनाकर उसे प्रतीक रूप में माध्यम मानते हुये तंत्र प्रयोग करे । इसको तंत्र कहते हैं । ये मैंने सिर्फ़ एक उदाहरण दिया है । किसी पेड की जड आदि में बनने वाली आकृति । किसी गुप्त स्थान पर बनाया गया चित्र । किसी को अपहरण या सम्मोहन द्वारा विवश करके सफ़ल तांत्रिक द्वारा तंत्र क्रिया की जा सकती है । इसके अलावा भी हजारों अन्य तरीके हो सकते है । जो प्रयोगकर्ता की रुचि और उसके ग्यान पर निर्भर है । अब मन्त्र की बात । इसमें भी वही बात है । मन और त्र । शेष वही तंत्र वाली बात । अंतर इतना है कि इसमें मांत्रिक की विकसित की गयी मानसिक शक्ति मंत्र या उसके संकल्प द्वारा मंत्र भाव से कार्य करती है दिव्य साधना DIVY SADHNA । यंत्र याने य ( यह । उद्देश्य ) और त्र । शेष वही तंत्र मंत्र वाला matter । अब आईये । इसको बैग्यानिक दृष्टिकोण से देखें । चाहें यंत्र तंत्र मंत्र कुछ भी हो । इसमें बिग्यान की तरह । पहला लक्ष्य । कार्य उद्देश्य । फ़िर इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु साधन और सुविधा । प्रयोगकर्ता का ग्यान और उसकी खुद की स्थिति । ये सब मिलकर कार्य करते हैं । इसको कर्मयोग और द्वैत ग्यान कहते हैं । यानी एक इंसान परमात्म शक्ति को यदि व्यवहारिक रूप से ( संत मत sant mat भक्तियोग जो सबसे श्रेष्ठ है ) किसी भी कारणवश ( उसकी रुचि नहीं है । ऐसे ग्यान के सम्पर्क में नहीं आया । दुर्भाग्य से सच्चे संत या सतगुरु से उसका भेंटा नहीं हुआ । या उसके संस्कार उसको प्रेरित कर रहें हैं । आदि लाखों कारण हो सकते हैं । क्योंकि सच्चे संत या सतगुरु कोटि जन्मों के पुण्य से मिलते हैं । और हरेक को नहीं मिलते । भले ही वह आपके बगल के मकान में रहते हों । परन्तु बिना हरि कृपा के आपको ग्यान नही मिलेगा । ) उपयोग में नहीं ला पा रहा । तब उसका दूसरा विकल्प यंत्र तंत्र मंत्र हैं । जो तुरन्त कार्य करते हैं । इसीलिये आदमी अपने अच्छे या बुरे कार्यों को सिद्ध करने के लिये इनकी तरफ़ आकृष्ट होता है । लेकिन ? इसमें एक बडा लेकिन भी लगा हुआ है । इस तरह की समस्त क्रियायें । समस्त साधनायें । चाहे वो अच्छे कार्य के लिये उपयोग हो । अथवा बुरे कार्य के लिये । अन्त में दुर्गति और लाखों वर्ष के लिये नरक में ले जाने वाली ही होती है । इसका कारण ? बताने के लिये बहुत बातें बतानी पडेगी । क्योंकि वह अभी बात का विषय नहीं है । इसलिये आपको कबीर के बारे में बताते हुये आगे बात करता हूं । क्रमशः । कृपया आगे पढने के लिये blog की साइड में । तंत्र मंत्र सब झूठ है मत भरमों संसार । 2 पर क्लिक करें ।

तंत्रमंत्र सब झूठ है मत भरमों संसार । 2




kapil पोस्ट कपिल जी मैं वाकई INFLUENCE हो गया । पर Sir thanx for viewing my article .... aapne apne vichaar to diye ni ? Chalo mera ek aur article vrat ( fasts) par । मेरे दोस्त के व्रत का सोलवां सोमवार । isitindya.blogspot.com ।
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अब आप कबीर के बारे में जानिये । काया में जो रमता वीर । कहते उसका नाम कबीर । परमात्मा चेतन रूप में शरीरी होकर जब सनातन सत्य का बोध कराने स्वरूप दर्शन..आत्मस्थिति शरीर युक्त होकर प्रकट होता है । उसको कबीर कहते हैं । इसको स्पष्ट मैंने इसलिये किया । कि चेतन वीर तो प्रत्येक काया में हैं । तो सब कबीर थोडे ही हो जायेंगे । अब जिस तरह आज भी भारत के बडे बडे विद्वान । ढाई अक्षर प्रेम के पढे सो...। कबीर के इस दोहे में ढाई अक्षर का मतलब प्रेम से लगा लेते हैं । और लगा क्या लेते हैं । दोहा पढकर ऐसा ही लगता है कि कबीर प्रेम के ही बारे में बात कर रहे हैं । क्योंकि प्रेम शब्द में ढाई अक्षर ही हैं । लेकिन सतगुरु कबीर साहेब ढाई अक्षर के गूढ महामन्त्र की बात कर रहे हैं । जिसको सदगुरु द्वारा आग्या चक्र से उठाकर । विहंगम मार्ग । दिव्य साधना DIVY SADHNA या विहंगम गति से अनन्त में ले जाया जाता है । कबीर साहब ने जिस समय यह बात कही वाममार्गी और तंत्र साधनाओं का बोलबाला था । यहां मैं एक बात स्पष्ट कर दूं कि घटिया साधनायें करके प्रेत पिशाच डाकिनी शाकिनी आदि को सिद्ध करने वाले अघोरी ओर अन्य मत के साधु नाम तो शिव या किसी अन्य देवता का लेते हैं कि हम उनके उपासक हैं । लेकिन यह एकदम सफ़ेद झूठ है । आज से 500 साल पहले इन निकृष्ट साधनाओं का बेहद बोलबाला हो गया था । और इसका सबसे बडा कारण इन साधनाओं में मदिरापान और संभोग की खुली छूट होना था । निर्वस्त्र साधक और साधिका साधना के नाम पर किसी नीच बुरे आचरण शक्तियों की साधना करते । और तदुपरान्त झूठे और मनमाने नियम के अनुसार उन्मुक्त संभोग करते । जिन आदमियों औरतों को साधना से कोई दिली वास्ता न था । वे भी खुले मदिरापान और किसी से भी संभोग करने की स्वतंत्रता के चलते इस ओर आकृष्ट हो जाते थे । मैंने पहले ही स्पष्ट किया । तंत्र की अच्छी साधना भी अंतिम परिणाम नरक पहुंचाने का ही देती है । अब आपके प्रश्न के मूलबिंदु पर बात करते हैं । @ आपके ब्लाग में गुरूदेव कबीर की बाणी भी है । तंत्र का ज्ञान भी है । लेकिन कबीर साहब ने कहा है कि तंत्र मंत्र सब झूठ है मत भरमों संसार ।....एक बात बेहद प्रसिद्ध है । ब्रह्म सत्य । जगत मिथ्या ? यानी संसार झूठा है । और ब्रह्म सत्य है । शास्त्रों का ये प्रसिद्ध वाक्य है । हालांकि ये बात सत्य है । लेकिन तात्विक स्तर पर है । व्यवहार स्तर पर जगत भी सत्य है । बल्कि आपके लिये ब्रह्म से ज्यादा जगत सत्य है । ब्रह्म की आप सिर्फ़ बात कर पाते हो । जगत को बिना कोशिश व्यवहार करते हो । तो उस अवस्था में आपके लिये बडा सत्य कौन सा है ? निश्चय ही जगत । आत्मा सत्य है । आत्मा अविनाशी है । शरीर झूठा है । शरीर नाशवान है । पर कब ? जब आप आत्मा को जान लो तो ? वरना तो शरीर ही ज्यादा सत्य है । और शरीर से ही आत्मा को जाना जा सकता है । तो अभी तो आपके लिये शरीर का ज्यादा महत्व है ।..मैं आपके प्रश्न में छिपे आशय को समझ गया । मैं आत्मग्यान या संत मत sant mat का साधक होने के बाद भी तंत्र के बारे में क्यों बात करता हूं ? मन्दिरी पूजा । बाद में तंत्र ग्यान या और बाद में कुन्डलिनी ग्यान की दिव्य साधना DIVY SADHNA और सबसे बाद में आत्मग्यान ये एक प्रकार की सीढियां हैं । जिनसे कोई भी साधक ऊंचाईयों पर चढता है । अपने 25 वर्ष के साधु जीवन में मेरे पहले 18 वर्ष तंत्र मंत्र साधना में ही बीते । क्योंकि समय नहीं आया था । आत्मग्यान के सदगुरु से मुलाकात नही हो पाई थी । गत 7 वर्षों से सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज...परमहँस की शरण में आने के बाद मैं तंत्र मंत्र के तिलिस्मी मायाजाल से बाहर आ गया । जिसको मैं स्वयं को ऊपर परमात्मा की अपार कृपा ही मानता हूं । अब जहां तक मेरे blogs में तंत्र ग्यान की बात है । मैंने पहले ही कहा । सबको तो आत्मग्यान आत्म दर्शन मुश्किल ही मिल पाता है । भले ही ब्रह्म को सत्य कहने की परम्परा बन गयी हो । पर मेरी दृष्टि में जब तक संसार से प्रयोजन है । संसार भी उतना ही सत्य है । आपने तंत्र ग्यान की बात कुछ लेखों और प्रेत विवरण की कहानियों में देखी होगी । जरा विचार करें । कोई तंत्र से पीडित है । कोई प्रेत से पीडित है । मैं उसको बोलूं । कि तुम संत मत sant mat की दीक्षा ले लो । सुमरन करो । ये सब कष्ट भाग जायेंगे । तब उस पर क्या असर होगा ? दरअसल ये बाद की बात है । पहली समस्या उसकी सर पर खडी मुसीबत है । तो जैसा रोग वैसी दवा । बुद्ध का एक शिष्य । चार दिन से भूखे एक बेहद कमजोर व्यक्ति को लेकर उनके पास पहुंचा । और बोला । देखो कैसा नालायक है । मैं इसको आत्मग्यान की बात बता रहा हूं और ये है कि सुनता ही नहीं ? बुद्ध ने उसकी हालत देखकर । उसे भरपेट भोजन कराया । और जाने को कहा । फ़िर उस शिष्य से कहा । उसे अभी आत्मग्यान की नहीं । भोजन की बेहद जरूरत है ।सतगुरु कबीर साहेब ने पहले चक्र से लेकर आखिर तक की बात कही है । वेद हजारों पन्ने लिखकर भी नेति नेति कहता है । इसको नहीं जाना जा सकता है । इसको जानने की मेरी सामर्थ्य नहीं है । कबीर दो पन्ने में ही कह देता है कि इसको मात्र ढाई अक्षर पढकर जान सकते हो । समय के सतगुरु से मिलो । इसको जानना । जन्मों का खेल नहीं है । मृत्यु के बाद भी नहीं है । जीयत मुक्त सोय मुक्ता भाई । मर के मुक्ति किसने पाई । मरने के बाद की मुक्ति झूठ है । भुलावा है । मुक्ति प्रसाद तुम्हारी हथेली पर रखा है । यदि तुम सतगुरु की चौखट पर पहुंच जाओ । जहां मैं तंत्र आदि की बात कहता हूं । यह जगत व्यवहार है । जहां मैं आत्मग्यान की बात कहता हूं । वह मेरा ब्रह्म व्यवहार है । जहां मैं परमात्मा की स्वरूप दर्शन..आत्मस्थिति की बात कहता हूं । वह पारब्रह्म व्यवहार है । वही परमात्मा अनेक रूप में खेल रहा है । मैं मेरा महज एक झूठ है । राम जन्म के हेत अनेका । अति विचित्र एक ते एका । हरि व्यापक सर्वत्र समाना । प्रेम ते प्रगट होत । मैं । जाना । परमात्मा सब जगह है । बस तुम्हारी मैं उसको देखने में परदा बनी हुयी है । ये " मैं " जाते ही परमात्मा नजर आने लगता है । हंसा परमहंस जब होय जावे । पारब्रह्म परमात्मा साफ़ साफ़ दिखलावे । जय गुरुदेव की । जय जय श्री गुरुदेव ।

16 सितंबर 2010

क्या कुलदीप जी के प्रश्न का जबाब है । आपके पास ? 1




kuldeep singh पोस्ट श्री कुलदीप सिंह का उत्तम प्रश्न..? पर jawab ke liye dhanyawad rajeev jipar apke jawab me asal bindu kahin kho gya hai kyonki maine apni post me aisa to nahi kaha ke main maas khane ka ichhuk hun ya khana chahta hun ya maas khana thek baat hai, ye sab mere dwara uthaya gya ek point hai jis se mere man me uthe prashno ka samadhan ho .
@ सच कह रहा हूं । कुलदीप जी । अपने 25 साल के साधु जीवन में आज तक मुझे ऐसा ( आप के समान ) व्यक्ति या दूसरे शब्दों में साधु आत्मा नहीं मिला । जो आपकी तरह प्रकृति को पूरी संवेदना से महसूस करता हो । पेड पौधों और पत्थर आदि में भगवान की बात प्रायः अनजाने में कह तो बहुत लोग जाते हैं । पर उनको भी कष्ट होता है । ये कोई बिरला ही महसूस कर सकता है । कुछ समय पहले वृन्दावन में एक साधु थे । अभी पता नहीं । हैं या शरीर छोड गये । वे अपने आश्रम में लगी एक टहनी भी नही तोडने देते थे । भले ही उससे कितनी भी दिक्कत क्यों न हो रही हो । संक्षिप्त में कहूं । तो उनके बाद मैंने आपके ऐसे भाव जाने । और सत्य कहूं । तो इतना संवेदनशील मैं खुद भी नहीं हूं । प्रथमदृष्टया मैंने यही समझा कि आप नानवेज होंगे । मगर पूर्व संस्कारों के कारण आपकी आत्मा आपको मांस खाने पर कचोटती होगी । और मुझे आपके नानवेज होने का आभास इसलिये हुआ था । ( आपका वाक्य ) ..ke agar chicken ko khane se paap lagta hai to gobhi ko khane se paap kyo nahi lagta..? आपके दूसरे कमेंट से मुझे आत्मिक खुशी हुयी । इसमें कोई संदेह नहीं है ।
main aisa keh kar apko dosh nahi de raha hun aur na hi apko kashat dena chahta hun, aap mujhse kahin zyada gyaani hai . par kuch vishay ab bhi mere man me hai, kirpya iska samadhan kijiye .
@ आपने तो फ़िर भी बेहद तार्किक और उच्चस्तर की बात कही है । प्रायः मूढमति लोग भी अगर कुछ कह देते हैं । तो सच्चे साधुओं को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता । साधु संत का कार्य ही जीव को चेताना है । उसे सही गलत बताना है । सच्चे साधु को गाली देने पर भी साधु को खुशी ही होती है । कि चलो भाई मुझे गाली देकर ये शांति सकून महसूस कर रहा है । मुझे तो इस गाली से क्रोध आयेगा नहीं । ये गाली इसने अगर दूसरे को दी होती । तो अकारण उसे क्रोध आता । झगडा होता । क्या फ़ायदा था । चंदन विष व्यापत नहीं लपटे रहत भुजंग । सर्प अपना विष रूपी ताप चन्दन को देता है । और चन्दन स्वभाव अनुसार उसे शीतलता ही देता है । फ़िर आपने तो जो प्रश्न उठाये हैं । वो निसंदेह मानव हित के हैं । मैंने ऊपर कहा है कि इस तरह की बात आमतौर पर करते हुये तो मैंने साधुओं को भी नही सुना । आपका दूसरा कमेंट आपके ग्यान की गहराई को बताता है ।1- apne kaha ke swas-swas ka karo vichara, bina swaas ka karo ahara .ab mujhje bataye ke kon si aisi cheej hai jo swaas nahi leti ?per-podhe, jeev-jantu, vanaspatiya, kand-mul, pathar, jungle, aur bhi bahut jinka varnan karna shayad abhi sambhav na ho, ye sab swaas lete hai aur chorte haijaise jeev-jantu oxygen lekar carbondioxide chorte hai .per-podhe din me carbon dioxside lekar oxygen chorte hai aur raat me oxygen lekar carbon dioxside chorte hai .vanaspatiya, sabjiya, fruit, ye sabhi swaas lete hai aur chorte hai . yahan tak ki ek nirjeev pathar bhi pani ya dharti me se urja sokh kar khud ko jeevit rakhta hai apne akaar ko badhata rehta hai .to hum kaise keh sakte hai inhe kasht nahi hota aur ye swaas nahi lete aur hum inhe kha sakte hai.?@ दरअसल कुलदीप जी । यहां आप उस प्वाइंट पर पहुंच गये । जहां पुरुष और प्रकृति दो ही होते हैं । आपकी बात सही भी है । और गलत भी है । स्वांस लेना और चेतन क्रिया ये दोनों एक बात नहीं हैं । उदाहरण के लिये कोई भी जीव मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । तब भी उसके शरीर में सडने आदि की क्रिया होती रहती है । तो क्या उसको कष्ट होता है ? धूप में पानी रखने से उसमें परिवर्तन होने लगता है । तो क्या उसको कष्ट होता है ? हरगिज नहीं । चलो थोडी देर के लिये मान लेते हैं कि कष्ट होता है । फ़िर कष्ट देने वाला कौन है ? और जिसको कष्ट दिया जा रहा है । वो कौन है ? क्या ये दो है ? हरगिज नहीं । पुरुष यानी चेतन और प्रकृति यानी जड माया । वो चेतन स्वयं ही ये सब खेल खेल रहा है । इसको समझने के लिये आपको जड माया के बारे में जानना होगा । माया मन से उत्पन्न विचार को कहते हैं । यानी एक चेतन के विचार मात्र से ये समस्त सृष्टि बन बिगड रही है । तभी मैंने पहले उत्तर में कहा कि ग्यान योग में पाप पुन्य नहीं होता । यानी वो परमात्मा अकेला ही है । दूसरा है ही नहीं । दूसरी उसके मन रूपी विचारों से बनी जड प्रकृति है । थोडा और समझे । इस तरह आप एक कार या बाइक को जीव नहीं मानेंगे क्या ? अगर एक पेड का चेतना स्रोत प्रथ्वी हवा पानी आदि है । तो कार को भी पेट्रोल हवा पानी सब चाहिये । भले ही वह दूसरे तरह से ये चीज उपयोग करता है । इसलिये चेतन स्वांस वही लेते है । जिनमें स्वांस क्रिया होती है । एक मनुष्य की तरह । या एक पक्षी आदि की तरह । और वही चेतन जीव हैं । पेड पौधे आदि जड जीव हैं । सुख दुख हमें मन से महसूस होता है । और पेड पौधों में मन नहीं होता । तो आपने जिस चीज को स्वांस लेना छोडना बताया है । वह चेतन क्रिया है । स्वांस लेना नहीं । ये कम्प्यूटर जिस पर इस वक्त आप उत्तर पड रहे हैं । इसमें चेतनता के । एक मनुष्य के बहुत से कार्य मौजूद हैं । पर ये जीव हरगिज नहीं हैं । इसलिये आप चेतन क्रिया और स्वांस क्रिया के अंतर को गहराई से समझें । क्रमशः ।

15 सितंबर 2010

क्या कुलदीप जी के प्रश्न का जबाब है । आपके पास ? 2




2- apne kaha ke ek chinti ko marne se kam paap lagta hai aur ek chidiya ko marne se adhik paap lagta hai aur ek kutte ke sharir ke brabar janwar ko marne se aur adhik paap lagta hai aur sabse zyada paap manushya ko marne se lagta haiab aap ye bataye ke chahe jeev atma 84 lakh yoniyo me se kisi bhi roop me ho, chahe wo chinti jaisa chota roop ho . ya kutte jaisa roop ho . aur ya manushya roop ho . un sabme parmeshwar ke ansh ke roop me jeev-atma vidyaman hai .to hum kaise keh sakte hai ke ek choti c chinti ko marne se kam lagega aur ek bade janwar ko marne se zyada paap lagega .jab ye nashwar sharir nashwan hi hai to kyon hum paap-punya ka lekha-jokha karte samay es sharir ka maapdand dekhte hai.?
@ एक चिडिया की आयु में चींटी के सौ और हजार जन्म हो सकते हैं । वहीं हाथी आदि की तुलना में लाख जन्म हो सकते हैं । इनमें तत्वों का अंतर है । किसी में जलतत्व प्रमुख होता है । किसी में अग्नितत्व प्रमुख होता है । चींटी पलक झपकते मर जायेगी । और कुत्ता आदि जानवर गोली से भी मारा जाय तो दस मिनट से दो घण्टा तक ले सकता है । इस दौरान उसको कष्ट की अनुभूति होगी । आत्मा सबमें समान है । पर उपयोग के आधार पर पाप पुन्य को तय किया गया है । मैं आपको एक सत्य घटना बताता हूं । एक राजाके लगभग हजार रानियां थी । फ़िर भी वो निसंतान था । बडे प्रयास के बाद सबसे छोटी रानी के पुत्र हुआ । तब अन्य रानियों ने जलन के कारण उस पुत्र को जहर देकर चुपचाप मार दिया कि पुत्रवती होने से छोटी की वैल्यू बढ जायेगी । राजा अपने इकलौते पुत्र की रहस्यमय मृत्यु के बारे में जानना चाहता था । उसने आत्माओं से सम्पर्क कराने वाले साधुओं से सम्पर्क किया । तो उसका पुत्र स्वर्ग में था । स्वयं उस पुत्र ने बताया कि मैं पिछले जन्म में भी राजकुमार था । और पूर्णतः धर्म आचरण वाला था । किन्तु बालकपन की अवस्था में खेलते समय मैंने चींटियों के बिल में पानी डाल दिया । जिससे हजार चीटिंया मर गयी । और उन्होंने जहर देकर अपना बदला एक साथ चुका लिया । अब यदि आपके सिद्धांत से सोचा जाय । तो प्रत्येक चीटीं को अलग अलग बदला लेना चाहिये ? लेकिन यहां valuation वाली बात लागू हुयी । दरअसल आपका पूरा प्रश्न जिसका केन्द्र बिन्दु चेतन और प्रकृति के border पर पहुंच जाता है । और जहां answer मौखिक नहीं बल्कि अनुभव या प्रक्टीकल से दिया जा सकता है । गो गोचर जंह लगि मन जाई । सो सब माया जानो भाई । गहराई से समझिये । जिस तरह सिनेमा के पर्दे पर दुख सुख साक्षात महसूस होता है । पर वास्तव में होता नहीं है । उसी तरह सुख दुख शरीर द्वारा मन से अनुभूति होती है । वास्तव में यह सब प्रपंच मात्र है । ये आत्मा का महज खेल मात्र है । हां सौभाग्य से मैं वो तरीका जानता हूं कि जिस border की मैं बात कर रहा हूं । वहां की यात्रा आपको करा सकूं । तब फ़िर कोई संशय की बात रह ही नहीं जायेगी । कबीर ने कहा है । तू कहता । कागज की लेखी । मैं कहता । आंखिन की देखी ।3- main apki baat se sehmat hun ke atma ka bhojan amiras hai par mera kendar bindu ye dehik sharir hai .es sharir ko jeevit banaye rakhne ke liye ise urja ki jarurat hoti hai jo sabjiyyo, kand-mul,fruits,etc aadi se prapat hoti hai .aur jab hum apne es sharir ki jarurato ko pura karne ke liye parmeshwar ke ansh rupi sabjiyo ko todte hai to ve bhi roti hai unhe bhi kashat hota hai .aur es tarah hum na chahte huye bhi jeev hatya ke paap se grast ho jate hai .kyoki ye sab bhi ek jeev hatya jaisa hi hai ya yun kahe ki ek prakar ki jeev hatya hi hai, jaise kisi maa ke bache ko china kar pka kar kha jana. agar apko lagta hai ke meri ye sabhi baate jayaz hai to kirpya apne gyaan se en par prakash daliye . mujhe apke jawab ki pratiksha rahegi .
@ अगर आपने हिन्दू सतसंग सुना हो । तो सम्भव है । ये प्रसंग आपके सुनने में आया हो । श्रीकृष्ण के परमात्म ग्यान के गुरु दुर्वासा एक बार वृन्दावन से यमुना पार मथुरा आये हुये थे । कुछ गोपियों को उनसे मिलने जाना था । पर यमुना बेहद चढी हुयी थी । यानी बाढ की तरह उसका जलस्तर बहुत ऊंचा था । ग्वालिनों ने सोचा कि यमुना पार जाने में श्रीकृष्ण ही कोई मदद कर सकते हैं । उन्होंने श्रीकृष्ण से मदद करने को कहा । तब श्रीकृष्ण बोले । बस इतनी सी बात । यमुना से कह देना । यदि श्रीकृष्ण लंगोट का पक्का हो । यानी पूरी तरह बृह्मचारी हो । तो यमुना हमें मार्ग दे दे । ग्वालिनों को बेहद आश्चर्य हुआ । दिन भर जवान गोपिकाओं से रास रचाने वाला लंगोट का पक्का कैसे हो सकता है ? पर उन्होंने उस समय कुछ कहा नहीं । खैर । यमुना ने यह सत्य बात सुनते ही तुरन्त मार्ग दे दिया । गोपियां दुर्वासा के पास पार चली गयीं । दुर्वासा केवल दूर्व या दूव घास का रस सेवन करके ही शरीर को भोजन देते थे । इसीलिये उनका नाम दूर्व आसा हुआ । खैर । दुर्वासा जी गोपियों द्वारा सेवा सत्कार हेतु लाया गया लड्डू मिष्ठान आदि लगभग 50 kg मिष्ठान स्वाद ले लेकर साफ़ कर गये । गोपियां आश्चर्य से दूर्व आसा को खाते देखती रहीं । और कुछ नहीं बोली । लेकिन उफ़नती हुयी यमुना को पार करना फ़िर एक समस्या थी । उधर से तो श्रीकृष्ण ने जुगाड कर दी थी । उन्होंने दुर्वासा से कहा । हम यमुना के पार कैसे जायें ? उन्होंने कहा । यमुना से कह देना । यदि दुर्वासा सिर्फ़ दूव के रस पर जीवित रहता हो । तो ये बात सत्य होने पर यमुना हमें मार्ग दे दे । गोपियों ने सोचा । 50 kg मिष्ठान तो हमारे सामने ही साफ़ कर गये । और कह रहे हैं कि सिर्फ़ दूव के रस पर ? जीवित रहता हो । लेकिन और कोई उपाय भी नहीं था । गोपियों ने यमुना से यही कहा । और यमुना ने तुरन्त मार्ग दे दिया । अब गोपियों के पेट में खलबली मची हुयी थी । एक दिन भर युवा सुन्दर बृज नारियों के साथ रास रचाता है । और खुद को बृह्मचारी कहता है । दूसरा हमारे सामने ही 50 kg मिष्ठान चट कर जाता है । और खुद को सिर्फ़ दूर्व रस सेवन करने वाला कहता है ।*******
..par mera kendar bindu ye dehik sharir hai .es sharir ko jeevit banaye rakhne ke liye ise urja ki jarurat hoti hai jo sabjiyyo, kand-mul,fruits,etc aadi se prapat hoti hai @ ये भी अनजाने में ही सही आप रहस्यमय बात पूछ गये । वास्तव में भोजन की जरूरत शारीरिक वासनाओं की वजह से होती है । अगर आपकी तरह तरह की वासनायें मर जांय । तो इस भोजन की जरूरत नहीं होगी । वासना से ही संस्कारों का निर्माण होता है । और संस्कार ही पाप पुण्य का कारण होते हैं । कहने का आशय यही है कि भूख वासनाओं को लगती है । आपको नहीं । अगर यकीन नहीं होता तो आप एक साधुई प्रयोग करके देखें । लपा @ अपामार्ग के एक मुठ्ठी चावलों की खीर खा के देखें । भूख गायब हो जायेगी । विभिन्न योग संयम द्वारा भूख प्यास जीतना चाहते हैं । तो कुछ दिन साधना करनी होगी । और न खाने के बाबजूद शरीर स्वस्थ और हष्टपुष्ट ही रहेगा । मैं फ़िर से अंत में एक ही बात कहूंगा । ये सब मैं कह ही नहीं रहा हूं । हकीकत में क्रियान्वित करके भी दिखा सकता हूं । than..are you ready..?from . kuldeep singhkuldeep_zk@yahoo.co.in
लेखकीय - अभी कुछ दिनों से आगरा में ट्रांसफ़ार्मर फ़ुक जाने के कारण internet relative कार्य बन्द ही रहा । कुछ और लोगों के उत्तर देने भी शेष हैं । मेरे अन्दाज से इन उत्तर में लगभग आठ दिन का बिलम्ब हो गया ।

क्यों लोगो को अज्ञान और नर्क की आग में झोंक रहे हो ।




सौरभ आत्रेय पोस्ट शंकराचार्य को कामकला का ग्यान कैसे हुआ पर वाह भाई वाह क्यों लोगो को असत्य बताकर अपनी दूकान चला रहे हो महाराज । इस कहानी में बिलकुल भी सत्य नहीं है और ना ही ऐसा कहीं इतिहास में लिखा है । सबसे पहले तो कामकला नाम की कोई चीज़ धर्मशास्त्रों में नहीं है । यह कामकला निकृष्ट वाममार्गियों की देन है । धर्मशास्त्रों में और महापुरुषों ने स्त्री और पुरुष का सयोंग सन्तान उत्पत्ति के लिये बताया है । न कि मनोरंजन के लिये । इस तरह की कहानियाँ और कामकला सब पाखण्डियों की देन है । चलो मैं इस लेख से सम्बन्धित आपसे कुछ प्रश्न करता हूँ ।1 यह कहानी आपने कहाँ पढ़ी । और किस महापुरुष द्वारा लिखी गयी है ? इसकी क्या प्रमाणिकता है ?2 कर्म का भोक्ता कौन होता है । आत्मा या शरीर ? यदि आत्मा होती है । तो इस झूठी कहानी के अनुसार 3 क्या परस्त्री से सम्भोग करना व्यभिचार और पाप के अन्तर्गत नहीं आता ?कृपया लोगो में अन्धविश्वास और भ्रम न बढ़ाएं । यह मेरी आप से विनती है। और लोगो से यह विनती है । कि बिना सोचे समझे । बिना प्रमाण के । बिना तर्क वितर्क के किसी की बातों पर ऐसे ही विश्वास न करें ।
@ सबसे पहले तो कामकला नाम की कोई चीज़ धर्मशास्त्रों में नहीं है ?
@ धर्मशास्त्रों में और महापुरुषों ने स्त्री और पुरुष का सयोंग सन्तान उत्पत्ति के लिये बताया है । न कि मनोरंजन के लिये ?
@ शंकराचार्य ने सम्भोग करने के लिये राजा के शरीर में प्रवेश क्यों किया ?
सौरभ आत्रेय पोस्ट भगवान का मन्त्रालय । ministry of god पर क्यों पुराणों के गपोडे सुना के लोगो को अज्ञान और नर्क की आग में झोंक रहे हो । इन बकवासबाजियों के चक्कर में हिन्दूधर्म का सर्वनाश हो गया । अब तो आँखे खोल लो । क्या बताये इस अज्ञानता के अन्धकार और स्वार्थी लोगो के चंगुलता और मूर्खता से हमारा देश कब बाहर निकलेगा । पुराण हमारी मान्य पुस्तकें नहीं हैं । उनमें कितनी ही बेसिर पैर की कितनी ही अनेक अतार्किक बातें लिखी हैं । इस बात को समझो।

निर्विचार तुम्हारी वह अवस्था है



ल्यौ लागी तब जाणिए । जे कबहूं छूटि न जाई । वह लौ भी क्या । जो लगे । और छूटे ? वह तो मन का ही खेल रहा होगा । इसे थोड़ा समझो । जो लगे । और छूटे । वह 1 विचार ही रहा होगा । विचार आते हैं । चले जाते हैं । लौ तो वही है । जो निर्विचार में लग जाए । फिर आना जाना नहीं है । फिर छूटेगा क्या ? फिर तो तुम्हारा स्वभाव बन गई लौ । विचार की तरंगें तो आती हैं । जाती हैं । आज है । कल नहीं है । लगती है । छूट जाती है । क्षण भर को रहती है । चली जाती है । विचार के लिए । तो तुम 1 धर्मशाला हो । वे रुकते हैं इसलिए कि कुछ देते भी नहीं । मुफ्त रुकते है । भीड़ भड़क्का किए रहते हैं तुम्हारे भीतर । फिर चले जाते हैं । तुम तो बीच का 1 पड़ाव हो ।
इसलिए अगर यह लौ भी 1 यात्री की तरफ ही तुम्हारे पास आए । रात भर रुके । और सुबह चली जाए । तो यह लौ ही नहीं है । दादू कहते हैं - इसको तुम लौ मत कहना । लौ तो वही है - लौ लागी तब जाणिए । जे कबहूं छूटि न जाइ । वह उसका लक्षण है । असली लौ का लक्षण है कि - वह छूटे न ।
तब इसका अर्थ हुआ कि असली लौ तभी लग सकती है । जब विचार से ज्यादा गहरे तल पर उसकी चोट हो । निर्विचार में लगे । क्योंकि निर्विचार आता न जाता । सदा है । निर्विचार तुम्हारी वह अवस्था है । जो आती जाती नहीं । वह तुम्हारा स्वभाव है ।
जीवन यौ लागी रहे । मूवा मंझि समाइ । और जीते जी तो लगी ही रहेगी । मरकर भी नहीं मिटती । तुम मिट जाओगे । लौ अनंत में समा जाएगी ।
यह बड़ी प्यारी बात है । भक्त जब खोता है । तो भक्त तो खो जाता है । उसकी लौ का क्या होता है ? लौ तो सारे संसार में लग जाती है । भक्त की लौ भटकती रहती है संसार में । और न मालूम कितने सोयों को जगाती है । न मालूम कितने अंधों की आंखें खोलती है । न मालूम कितने बंद हृदयों को धड़काती है । न मालूम कितनों को प्रेम में उठाती है । प्रार्थना में जगाती है । भक्त तो खो जाता है । पर उसकी लौ संसार में बिखर जाती है । वह भटकती है । घूमती है ।
बुद्ध कृष्ण क्राइस्ट जरथुस्त्र तो खो जाते हैं । लेकिन उनकी आग उनकी आग आज भी जलती है । तुम बुद्ध को तो न पा सकोगे । अब वह बात गई । वह बूंद तो समा गई सागर में । बुद्ध में जो जली थी प्यास । बुद्ध में जो जला था ज्ञान । वह अब भी मौजूद है । वह अब भी संसार में समाया हुआ है । तुम्हारे पास अगर थोड़ी भी समझ हो । तुम उससे आज भी जुड़ सकते हो । अगर तुम्हारा प्रेम हो । तो आज भी तुम बुद्ध से उतना ही लाभ ले सकते हो । जितना बुद्ध के साथ उनके जीवन में उनके शिष्यों ने लिया होगा । लौ तो समा जाती है संसार में । अस्तित्व में ।
मन ताजी दादू कहते हैं - मन को घोड़ा करो । वह सवार बनकर बैठ गया है । मन पर चढ़ो । चेतन चढ़े । चढ़ाओगे कैसे चेतन को मन पर ? अगर चेतन जग जाए । तो चढ़ जाता है । जागना । चढ़ना है । अगर तुम होश से भर जाओ । अगर तुम मन को देखने वाले बन जाओ । अगर मन के साक्षी बन जाओ । चेतन चढ़ जाता है । जब तक तुम्हारा साक्षी नहीं है मौजूद । तब तक मन चढ़ा रहेगा । तुम गुलाम रहोगे । मन चलाएगा । तुम पीछे पीछे घसीटोगे ।
मन ताजी चेतन चढ़े । लौ की करे लगाम ।
और वह जो लौ है परमात्मा की । उसको बना लो लगाम । उस लौ से ही चलाओ मन को । बड़ा प्यारा वचन है । उस लौ से ही चलाओ मन को । मन की गतिविधि में वह लौ ही समा जाए । मनुष्य लौ की मानकर चले वहीं जाओ । जहां जाने से परमात्मा मिले । वही करो । जिसे करने से परमात्मा मिले । वही होओ । जो होने से परमात्मा मिले । बाकी सब असार है ।
मन ताजी चेतन चढ़े । लौ की करे लगाम ।
खाओ । तो परमात्मा को पाने के लिए । पीयो । तो परमात्मा को पाने के लिए । जगो । तो परमात्मा को पाने के लिए । सोओ । तो परमात्मा को पाने के लिए । लौ की करो लगाम ।
सबद गुरु का ताजना - और गुरु के शब्द को कोड़ा बन जाने दो । सबद गुरु का ताजना । वह तुम्हें चोट करे । तो भयभीत मत हो जाओ । वह प्यार करता है । इसीलिए चोट करता है । वह तुम्हें मारे । तो घबड़ाओ मत । तो शत्रुता मत पाल लो । क्योंकि वह तुम्हें मारता है सिर्फ इसीलिए कि उसकी करुणा है । वह तुम्हें खींचे तुम्हारे रास्तों से । तो संदेह मत करो । क्योंकि अगर संदेह किया । तो वह खींच न पाएगा । भरोसा चाहिए । भरोसा होगा । तो ही खींचे जा सकोगे ।
सबद गुरु का ताजना । और वह जो गुरु का शब्द है । उसे तुम कोड़ा बना लो । और जब भी मन तुम्हारा यहां वहां जाए । लगाम की न माने । लौ की न माने । लगाम की मान ले । तब तो कोड़े की कोई जरूरत नहीं । अगर सब तरफ से परमात्मा पर पहुंचने का आयोजन चलता रहे । तब तो कोड़े को कोई जरूरत नहीं । लेकिन कभी कभी लगाम की माने । घोड़ा जिद्दी हो । जैसे कि सब घोड़े हैं । सभी मन हैं । तो फिर कोड़े की जरूरत पड़े । तो फिर तुम अपने हाथ में निर्णय मत लो । निर्णय गुरु के हाथ में दे दो । फिर वह जो कहे । वही करो । उस पर ही छोड़ दो । उसका अर्थ होता है - सबद गुरु का ताजना ।
बुद्ध ने कहा है कि दुनिया में 4 तरह के लोग हैं । 1 तो उन घोड़ों जैसे हैं । जिनको तुम मारो । ठोको । पीटो । तब बमुश्किल चलते हैं । और वह भी घड़ी 2 घड़ी में भूल जाते हैं । फिर खड़े हो जाते हैं । दूसरी तरह के लोग उन घोड़ों की तरह हैं । जिनको तुम मारो । तो याद रखते हैं । चलते हैं । जल्दी भूल नहीं जाते । तीसरे उन घोड़ों की तरह हैं । जिनको मारने की ज्यादा जरूरत नहीं । सिर्फ कोड़े को फटकारो । मारो मत । और घोड़ा सावधान हो जाता हैं कि अब अगर चूके । तो कोड़ा पड़ेगा । वह चलने लगता है । और चौथे - बुद्ध ने कहा है कि वे बड़े अनूठे लोग हैं । वे वे हैं । जिनको फटकारने की भी जरूरत नहीं पड़ती । कोड़े की छाया दिखाई पड़ जाए कि कोड़ा उठ रहा है । छाया दिखाई पड़ जाए घोड़े को । बस काफी है । घोड़ा रास्ते पर आ जाता है ।
तुम इन 4 घोड़ों में कहां हो ? ठीक से अपने को पहचान लो । और चौथा घोड़ा बनने की कोशिश करो । सिर्फ सबद गुरु का ताजा, तुम्हारे लिए कोड़ा बन जाए । तो धीरे धीरे उसकी छाया भी तुम्हें चलाने लगेगी । उसका स्मरण तुम्हें चलाने लगेगा । याद भर आ जाएगी गुरु के शब्द की । तुम रुक जाओगे कहीं जाने से । कहीं और चलने लगोगे ।
कोई पहुंचे साध सुजान तो इन 3 बातों को पूरा कर लेते हैं । ऐसे कुछ साधु पुरुष, जागे हुए पुरुष पहुंच पाते हैं ।
आदि अंत मध एकरस टूटै नहि धागा ।
दादू एकै रहि गया जब जाणे जागा ।
वह तो परमात्मा का आनंद है । वह सदा सम स्वर है । शुरू में भी वैसा । मध्य में भी वैसा । अंत में भी वैसा । उसमें कोई परिवर्तन नहीं है । वह शाश्वत है । उसमें कोई रूपांतरण नहीं है । वह बदलता नहीं है । वह सदा एकरस है ।
आदि अंत मध्य एकरस टूटै नहीं धागा । जब तुम्हारा धागा इस एकरसता से जुड़ जाए । और टूटे न । तभी समझना मंजिल आई । उसके पहले विश्राम मत करना । उसके पहले पड़ाव बनाना पड़े । बना लेना । लेकिन जानना कि यह घर नहीं है । रुके हैं रात भर विश्राम के लिए । सुबह होगी । चल पड़ेंगे । जब तक ऐसी घड़ी न आ जाए कि उस एकरसता से धागा बंध जाए पूरा का पूरा । टूटै नहीं धागा । तब तक मत समझना मंजिल आ गई ।
बहुत बार पड़ाव धोखा देते हैं - मंजिल का । जरा सा मन शांत हो जाता है । तुम सोचते हो । बस हो गया । जल्दी इतनी नहीं करना । जरा रस मिलने लगता है । आनंद भाव आने लगता है । सोचते हो । हो गया । इतनी जल्दी नहीं करना । ये सब पड़ाव हैं । प्रकाश दिखाई पड़ने लगा भीतर । मत सोच लेना कि मंजिल आ गई । ये अभी भी मन के ही भीतर घट रही घटनाएं हैं । अनुभव होने लगे अच्छे सुखद । तो भी यह मत सोच लेता कि पहुंच गए ।
क्योंकि पहुंचोगे तो तुम तभी । दादू एकै रहि गया जब जाणे जागा । तक जानेंगे दादू कहते हैं कि तुम जाग गए । जब 1 ही रह जाए । तुम और परमात्मा 2 न रहो । अगर परमात्मा भी सामने खड़ा दिखाई पड़ जाए । तो भी समझना कि अभी पहुंचे नहीं । फासला कायम है । अभी थोड़ी दूरी कायम है । 1 ही हो जाओ । दादू एकै रहि गया - अब 2 न बचे । जब जाणे जागा - तभी जानना कि जाग गए । तभी जानना कि घर आ गया ।
अर्थ अनुपम आप है । और दादू कहते हैं - मत पूछो कि उस घड़ी में कैसे अर्थ के फूल खिलेंगे ? मत पूछो कि कैसी अर्थ की सुवास उठेगी ?
अर्थ अनुपम आप है । वह अर्थ अनुपम है । उसकी कोई उपमा नहीं दी जा सकती । इस संसार में वैसा कुछ भी नहीं है । जिससे इशारा किया जा सके । इस संसार के सभी इशारे बड़े फीके हैं । इस संसार के इशारों से भूल हो जाएगी । अर्थ अनुपम अद्वितीय है । वह बेजोड़ है । वैसा कुछ भी नहीं है ।
अर्थ अनुपम आप है । बस वह अपने जैसा आप है । और अनरथ भाई - और उसके अतिरिक्त जो भी है । सब अर्थहीन है ।
दादू ऐसी जानि करि तासौ ल्यो लाइ । और ऐसा जानकर उसमें ही लौ को लगा दो । दादू कहते हैं - मैंने ऐसा जानकर उसमें ही लौ लगा दी । दादू ऐसी जानि करि ता सौ ला लगाइ । उसमें ही लौ लगा दी ।
लौ शब्द समझ लेने जैसा है । दिए में लौ होती है । तुमने कभी खयाल किया कि दिए की लौ । तुम कैसा भी दिए को रखो । वह सदा ऊपर की तरफ जाती है । दिए को तिरछा रख दो । कोई फर्क नहीं पड़ता । लौ तिरछी नहीं होती । दिए को तुम उल्टा भी कर दो । तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता । लौ फिर भी ऊपर की तरफ ही भागी चली जाती है । पानी का स्वभाव है । नीचे की तरफ जाना । अग्नि का स्वभाव है । ऊपर की तरफ जाना ।
लौ का प्रतीक कहता है । तुम्हारी चेतना जब सतत ऊपर की तरफ जाने लगे । शरीर की कोई भी अवस्था हो । सुख की हो कि दुख की हो । पीड़ा की हो । जीवन की हो कि मृत्यु की हो । जवानी हो कि बुढ़ापा । सौंदर्य हो कि कुरूपता । सफलता हो कि असफलता । कोई भी अवस्था में रखा हो दिया । इससे कोई फर्क न पड़े । लौ सदा परमात्मा की तरफ जाती रहे । ऊपर की तरफ जाती रहे ।
दादू ऐसी जानि करि तासों ल्यौ लाई ।
ये एक एक शब्द प्यारे हैं । मैं फिर दोहरा देता हूं । 
जोग समाधि सुख सुरति सों । सहजै सहजै आव ।
मुक्ता द्वारा महल का । इहै भगति का भाव ।
ल्यौ लागी तक जाणिए । जे कबहूं छूटि न जाइ ।
जीवन ज्यो लागी रहे मूवा मंझि समाइ । 
मन ताजी चेजन चढ़े । ल्यौ की करे लगान ।
सबद गुरु का ताजना, कोई पहुंचे साध सुजान ।
आदि अंत मध एक रस । टूटैं नहि धागा ।
दादू एकै रहि गया । जब जाणै जागा ।
अर्थ अनूपम आप है । और अनरथ भाई ।
दादू ऐसी जानि करि । तासौं ल्यौ लाई । ओशो 

महामंत्र का ध्यान करना chahta hun ।




Dear Rajeev ji,Sorry, I didn't reply your email because I was on business trip since 2 weeks. I am good. How are you and guru ji ? I will give you a call.Thanks,With regards,Trayambak Upadhyay
जय गुरुदेव की । राजीव जी
अपने लेखों की श्रखंला को पूरा करने के बाद । आपके लेख नग्नता और संभोग का अंग्रेजी में अनुबाद किया है । अभी ब्लड काउन्ट बहुत अधिक 14000 होने के कारण आपरेशन नहीं हो पाया । इसके लिये अल्ट्रासाउन्ड । सी.टी स्केन ।कोलोनोस्कोपी टेस्ट हुये हैं । परन्तु बहुत धन व्यय होने के बाद भी कुछ परिणाम नहीं निकला । कल बेरियम टेस्ट और होगा । सादर ।
बेनामी पोस्ट अनुराग सागर की संक्षिप्त कहानी पर महामंत्र का ध्यान करना chahta hun ।
बेनामी पोस्ट end of the world.. 2012 पर ।jankari diye gaye karno per bilkul sahi lagti hai aur samajh me bhi aati hai. main bhi apne anubhaw ke aadar per is lekh ki batton ko sahi manta huan ki pralay aayega per uska time 2012 se kuchh samay aage sarak sakta hai. swaain flue aadi isee ki suruwaat hai.
arvind पोस्ट साधक श्री डा. आदित्य । Dr Adity shimla पर bahut hi vyavahaarik...gyaanvardhak lekh...dhanyavaad.
anoop joshi पोस्ट भगवान का मन्त्रालय । ministry of god पर kya baat hai sir aaj ek nayi or rochak katha ka pata chala.dhnayabad
gopal पोस्ट भगवान के प्रमुख अवतार पर agar aapko blog likhne ka sauk hai to pehle apne gyan ko badaiye "vyas" na to koi bhgwaan ka avtaar tha aur na hi wo "ramavtaar se pahle hua tha

08 सितंबर 2010

श्री कुलदीप सिंह का उत्तम प्रश्न..?




kuldeep पोस्ट " परमात्मा का अनुभव ध्यान , सुमरन, चिन्तन " पर namashkar rajeev ji
kya aap mere ek swaal ka jawab de sakte hai..? kehte hai ki jeev ka maas khana ke liye khud ko produce karte hai.. to kirpya karke mujhe bataye ke agar paap hai par vanaspati me bhi to urja hoti hai, jab hum usko todte hai to unhe bhi kashat hota hai ..veh bhi kisi jeev ki bhanti roti hai kyoki veh bhi prakti ka ek ansh hai..to mujhe bataye ki meat aur gobhi me kya antar hai kyonki dono khud ko zinda rakhne chicken ko khane se paap lagta hai to gobhi ko khane se paap kyo nahi lagta..? kyoki hai to dono ek hi cheez to phir kyo hum sabjiyo ko satvik kehte hai aur chicken ko tamsik ya anatik bhojan..paap to dono ko khane me lagta hai..........? to phir insan kya khaye..? hai koi aisi cheez es sansar me jo urja ke ansh ke bagair ho. jisme jaan na ho, jisme atma na ho, jisme praan na ho ..to insan kaise khud ko paap se door rakhe..? mujhe apke jawab ki pratiksha hai .!
भाई कुलदीप जी । आपने जो प्रश्न किया है । वह एक आम आदमी के ही नहीं प्रायः ऐसे साधुओं के मन में भी रहता है । जो नानवेज के इच्छुक होते हैं । इस सम्बन्ध में सबसे पहले पहुंचे हुये संतों का मत आपको बता रहा हूं । स्वांस स्वांस का करो विचारा । बिना स्वांस का करो आहारा । अर्थात जिसमें स्वांस का आना जाना होता है । उसको जीव माना गया है । और वही वास्तव में जीव है । jisme atma na ho, jisme praan na ho ..ये आपने जाने या अनजाने में सही बहुत ऊंची बात कही है । वास्तव में सभी पेड पौधे और पहाड आदि भी 84 लाख योनियों के अंतर्गत स्थावर योनि में । यानी स्थिर रहने वाले । आते है । लेकिन फ़िर भी मनुष्य के द्वारा जीव को खाने का नियम नहीं है । इसका पूरा खुलासा करने से पहले एक बात जानें । एक शेर या मांस खाने वाले किसी हिंसक पशु में भी वही आत्मा है । जो एक मनुष्य में है । पर एक शेर को जीवहत्या का पाप नहीं लगेगा । क्योंकि उसके लिये वही भोजन बनाया गया है । एक राक्षस योनि वाले को जीवहत्या का पाप नहीं लगेगा । क्योंकि नियमानुसार ये भोग योनियां है । अब पाप पुन्य वाली बात करते हैं । मनुष्य जव तक आत्मा या आत्मग्यान को नहीं जानता । वह हर हाल में कर्मयोग के वश में है । और कर्मयोग के अनुसार जैसा मनुष्य करेगा । वैसा ही उसे भोगना होगा । मान लीजिये । आपको लगता है । कि मांस आदि को खाने में कोई पाप या बात नहीं हैं । तो कोई बात नहीं । पर आने वाले समय में जव आप chicken आदि योनियों में होंगे । तो फ़िर आपको भी कोई बुरा नहीं लगना चाहिये । जब आपको जीवित काटकर मसाले में लपेटकर तला भूना जाय । इसमें यदि आप कष्ट महसूस करते हैं । तो फ़िर दूसरे को भी कष्ट होता है । यह निश्चित है । अब कर्मयोग से हटकर आत्मग्यान की बात करें । तो आत्मा का भोजन आलू गोभी प्याज भी नहीं हैं । बल्कि अमीरस है । और ये अमीरस यदि आप टेकनीकली जानते हों । तो सिर्फ़ एक महीने का अन्दर प्राप्त करना सीख जाते हैं । इस में जो आनन्द हैं । वो किसी दिव्य भोजन में भी नहीं है । आत्मा हंस है । और अमृत इसका भोजन है । अमृत यानी जो कभी नहीं मरता और नित्य आनन्ददायी है । पाप पुन्य । अच्छा बुरा । हमारा बनाया हुआ है । संतो की भाषा में पाप पुन्य न होकर ग्यान अग्यान होता है । आलू गोभी आदि में चेतन जड होता है । यानी अचेतन अवस्था में । इसलियेइनको काटते पकाते वक्त कष्ट महसूस नहीं होता । जबकि स्वांस वाले जीवों को दैहिक और आत्मिक कष्ट दोनों ही होते है । और उनके दुखित भाव उनको खाने वाले को अंत में दुर्गति और फ़िर नरक में ले जाते हैं । यह सत्य है । कि इनको भी खाने से पाप लगता है । पर संतों के दिव्यग्यान अनुभव के आधार पर इंसानो के लिये इसमें एक चौंकाने वाली बात है । जैसे कि इंसान से एक चींटी मर जाती है । तो पाप कम होता है । इसकी तुलना में एक चिडिया मरती है । तो पाप अधिक है । चिडिया की तुलना में कुत्ता के शरीर के बराबर का जानबर मरता है । तो पाप और अधिक है । इसी तरह शरीर की आयु और श्रेष्ठता के आधार पर पाप पुन्य आंका जाता है । इनमें मनुष्य की हत्या का पाप सर्वाधिक है । अगर पाप पुन्य के आधार पर बात करें । तो आप ये सिद्धांत मान लीजिये कि आज जो आप कर रहें हैं । वही आने वाले समय या जन्मों में आपके साथ होगा । ये कर्मयोग का ईश्वरीय नियम है ।लेकिन ग्यानयोग में पारंगत हो जाने के बाद 56 व्यंजन भी स्वादहीन हो जाते हैं । अब जैसा कि मैंने कहा । अंतर्दृष्टि को जानने वाले संतों के अनुसार हरा धनिया आलू गोभी प्याज आदि खाने पर भी पाप है । पर ये पाप आपके अन्य सतकार्यों से 0 बैलेंस होता रहता है । अंत में मैं इतना ही कहूंगा । कि प्रश्न य़दि आपके अंदर उपजा है । तो उत्तर भी आपके ही अंदर है । मेरा उत्तर आपको संतुष्ट भी कर सकता है । और नये तर्क भी पैदा कर सकता है । इसलिये आप एक ग्यानयोग प्रक्टीकल द्वारा इस रहस्य या प्रश्न के उत्तर को अपनी आत्मा द्वारा जानों । और तुरंत उत्तर जानना चाहते हैं । तो कृपया श्री महाराज जी से 0 9639892934 पर बात करें । इस एक काल में निश्चय ही आपको एक अलग अनुभव होगा । बस इतना ध्यान रखना । संत मिलन को चालिये । तज माया अभिमान । ज्यूं ज्यूं पग आगे धरो । कोटिन यग्य समान ।

सुरति का अर्थ सुनना और निरति का देखना है ।


सुरति शब्द आम आदमी के लिये अपरिचित ही है । सतसंग में जब सुरति शब्द का प्रयोग होता है । तो नये लोग सिर्फ़ मुंह ताकते हैं कि आखिर ये किसके विषय में बात हो रही है ? जबकि निरति शब्द अक्सर पढने को मिल जाता है । सुरति का तकनीकी मतलब मैं कई बार बता चुका हूं । मन बुद्धि चित्त अहम । जिनसे हम संसार को जान रहें हैं । ये सारा खेल खेल रहे हैं । ये इन्हीं चारो । मन बुद्धि चित्त अहम । से हो रहा है । जिसे अंतःकरण कहते हैं । यही हमारा सूक्ष्म शरीर भी होता है । और सामान्य बोलचाल की भाषा में इसे मन कहते हैं । ये बेर की गुठली के आकार का है । और इस पर चेतन का फ़ोकस पड रहा है । इन्हीं चारो । मन बुद्धि चित्त अहम । को योगक्रिया द्वारा एक कर देने पर सुरति बन जाती है । सुरति का भाव अर्थ सुनना है । और निरति का देखना है । लेकिन पहले सुरति की बात करते हैं । अभी मनुष्य की अग्यान स्थिति में सुरति 7 शून्य नीचे उतर आयी है । इसीलिये उसे ये संसार अजीव और रहस्यमय लग रहा है ? अब सबसे पहले 1 शून्य की बात करते हैं । पहला शून्य । यहां कुछ भी नहीं हैं । लेकिन बेहद अजीव बात ये है कि इसी कुछ भी नहीं से ही । सब कुछ हुआ है । या कुछ नहीं ही सब कुछ है । Everything is nothing but nothing to everything । संतों ने इसी को कहा है । चाह गयी । चिंता गयी । मनुआ बेपरवाह । जाको कछू न चाहिये । वो ही शहंशाह ।
तो पहले शून्य में थोडी हलचल या थोडा प्रकंपन vibration हुआ । 2 शून्य में ये प्रकंपन कुछ अधिक हो गया । 3 शून्य में कुछ और भी अधिक हुआ । 4 शून्य में ये vibration और भी बड गया । फ़िर 5 वां 0 और उसके बाद 6 वां शून्य । 7 वें शून्य में ये vibration अक्षर रूप में यानी निरंतर होने लगा । इसी एक विशेष धुनिरूपी vibration से जिसको शास्त्रों में अक्षर कहा गया है । पूरी सृष्टि का खेल चल रहा है । इसी से सूर्य चन्द्रमा तारे आदि गति कर रहे हैं । इसी से मनुष्य़ का शरीर बालपन जवानी बुडापा आदि को प्राप्त होता है । इसी से आज बनी एक मजबूत बिल्डिंग निश्चित समय बाद जर्जर होकर धराशायी हो जाती है । आधुनिक विग्यान की समस्त क्रियायें इसी vibration के आश्रित हैं । जैसे मोबायल फ़ोन से बात होना । वायरलेस इंटरनेट । टी . वी आदि के सिग्नल । हमारी आपस की बातचीत । यानी हम हाथ भी हिलाते है । तो वह भी इसी vibration की वजह से हिल पाता है । इसी को चेतन या करेंट भी कह सकते हैं । शुद्ध रूप में ये र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र इस तरह की धुनि है । बाद में आधा शक्ति या माया ने इसमें म्म्म्म्म जोड दिया । तब ये र्म्र्म्र्म्र्म्र्म्र्म्र्म इस तरह हो गया । सरलता से समझने के लिये रररररर हो रही धुनि माया से अलग हो जाती है । लेकिन जब तक रमरमरम ऐसी धुनि है । तब तक ये माया से संय़ूक्त हैं । इसीलिये राम को सबसे बडा माना जाता है । इसीलिये कहा जाता है । सियाराम मय सब जग जानी । करहुं प्रनाम जोरि जुग पानि । यही र और म पहले स्त्री पुरुष हैं । यही असली राम है ।
संत या योगी इसी को पाने की या जानने की लालसा करते हैं । यही आकर्षण यानी कृष्ण या श्रीकृष्ण भी है । मेरा अनुभव ये कहता है कि यदि आदमी संसार को निसार देखता है । या कामवासना धन ऐश्वर्य को भोग चुका है । और खुद की अपनी वास्तविकता जानना चाहता है । और उसे पतंजलि योग के ध्यान का थोडा पूर्व अभ्यास है । तो सिर्फ़ सात दिन में इस शून्य को जाना जा सकता है । बस शर्त यही है कि ये सात दिन उसे एकान्त में और बतायी गयी विधि के अनुसार अभ्यास करना होगा । इस तरह सुरति इस शब्द या अक्षर को जान लेगी । और यहां पहुंचकर सुरति निरति हो जायेगी । यानी सुनना बन्द करके प्रकृति के रहस्यों या माया को देखने लगेगी । क्योंकि यहीं से जुडकर आदि शक्ति यानी पहली औरत अपना खेल कर रही है । ये नारी रूपा प्रकृति अक्षर रूपी पुरुष या चेतन से निरंतर सम्भोग कर रही है । ये सब महज किताबी बातें नहीं सुरति शब्द योग द्वारा इसको आसानी से जाना जा सकता है ।

03 सितंबर 2010

कुछ गूढ रहस्य की बातें...? 1




पिछले दिनों अपने एक लेख में मैंने संतवाणी से प्राप्त दुर्लभ रहस्यों का जिक्र किया था । दरअसल एक दिन ऐसा माहौल बन गया कि श्री महाराज जी यकायक मौज में आकर रहस्य बताने लगे । जो शास्त्रों से एकदम भिन्न थे । लेकिन अभी तीन रहस्यों का ही खुलासा ही हुआ था कि कुछ लोग मिलने आ गये । और वो बात वहीं की वहीं रह गयी । वो तीन रहस्य ये थे । कि अभी इन्द्र की पदवी पर प्रहलाद है । कलियुग की आयु
28000 वर्ष होती है । और एक मन्वन्तर में 14 मनु होते हैं । वास्तव में ये तीन बातें भी किसी धार्मिक शोधार्थी के लिये बहुत बडा रहस्य खुलने जैसी थी । इसके बाद मेरी जिग्यासा बनी रही । तब अगली बार मौका मिलने पर मैंने बेहद विनम्रता से महाराज जी से इस बारे में और अधिक जानने का निवेदन किया ।
भगवान ने मेरी सुन ही ली । और महाराज जी ने उस दिन की अधूरी बात को पूरा किया । और बताया । कलियुग की आयु सिर्फ़ 28000 वर्ष होती है । द्वापर की आयु सिर्फ़ 32000 साल होती है । त्रेता की आयु सिर्फ़ 35000 साल की होती है । सतयुग की आयु 37000 साल होती है । इस प्रकार एक चतुर्युग 1 32000 साल का ही होता है । अभी कलियुग के 5000 और कुछ सैकडा वर्ष ही हुये हैं । किन्हीं अग्यात कारणों से कलियुग भन्ना उठा है । वरना कलियुग का इतना प्रभाव जो आज देखने को मिल रहा है । कम से कम अभी दस 12000 साल बाद होना चाहिये । ऐसा क्यों है ? ये पूछने पर महाराज जी मौन हो गये । और फ़िर बोले ये बताने वाले रहस्यों में नहीं आता । लेकिन 2014 से खन्डों में प्रथ्वी से ज्वालामुखी स्रोतों के फ़टने के समान इस विधि से जो टुकडों में स्थान स्थान पर प्रलय होगी । और इन ज्वालामुखी स्रोतों से हजारों प्रकार की जहरीली गैसे और धुंआ ही धुंआ चारों तरफ़ फ़ैल जायेगा । इस तरह ये खन्ड प्रलय 60 से 65 % आवादी को लील जायेगी । 2012 में प्रलय की वास्तविकता क्या है । आइये इसको जानें ।
" संवत 2000 के ऊपर ऐसा योग परे । के अति वर्षा के अति सूखा प्रजा बहुत मरे ।
। पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण । चहुँ दिस काल फ़िरे ।अकाल मृत्यु व्यापे जग माहीं । हाहाकार नित काल करे । अकाल मृत्यु से वही बचेगा । जो नित " हँस " का ध्यान धरे । ये हरि की लीला टारे नाहिं टरे ।
अब क्योंकि संवत 2000 चल ही रहा है । इसलिये प्रलय ( मगर आंशिक ) का काउंटडाउन शुरू हो चुकाहै । 2010 to 2020 के बाद जो लोग इस प्रथ्वी पर रहने के " अधिकारी " होंगे । वो प्रकृति और प्रथ्वी को एक नये श्रंगार में देखने वाले गिने चुने भाग्यशाली लोग होंगे । और ये घटना डेढ साल बाद यानी 2012 में एकदम नहीं होने जा रही । बल्कि इसका असली प्रभाव 2014 to 2015 में देखने को मिलेगा । इस प्रथ्वी पर रहने का " हक " किसका है । ये रिजल्ट सन 2020 में घोषित किया जायेगा । यानी आपने सलामत 2020 को happy new year किया । तो आप 65 % का विनाश करने वाली इस प्रलय से बचने वालों में से एक होंगे । यानी 2020 में यह प्रथ्वी एक नये रूप में होगी । जिसको देखने वाले बचे हुये 35 % गिने चुने लोग ही होंगे । इसके आगे श्री महाराज जी ने कुछ और रहस्य भी बताये । ऋषि का अर्थ खोजने वाले या शोध करने वाले यानी research करने वाले होते हैं । मुनि का अर्थ मनन करने वाले होते हैं ।
 तभी मेरे दिमाग में एक प्रश्न अचानक आया । मैंने कहा । महाराज जी । आज अभी सन 2010 चल रहा है । यानी कभी शुरूआत में सन 01 भी रहा होगा । यानी कि इसको दूसरे अंदाज में कहें । तो सन 01 से हमारे
पास एक लिखित रिकार्ड सा मौजूद है । तभी तो सन काउन्ट हुये । इसके ऊपर के समय को ईसा पूर्व कहते हैं । तो सवाल ये है ? कि 01 से पहले क्या स्थिति थी ? जो उसका रिकार्ड नहीं हो सका ? क्रमशः ।
विशेष -- ये सभी रहस्य मैंने एक स्थान पर धार्मिक ज्योतिष और इतिहास के शोधार्थियों हेतु लिखे
हैं । इन पर विस्त्रत चर्चा मेरे ब्लाग्स में शीघ्र पढने को मिलेगी ।

कुछ गूढ रहस्य की बातें...? 2



तब श्री महाराज जी ने बताया । कोस कोस पर बदले पानी । चार कोस पर वानी । यानी सन 01 से पहले भाषा कुछ और थी । ईसा नाम के जो ग्यानी हुये । उन्होने ईसवी की शुरूआत की । अब जैसा कि महाराज
जी ने बताया । जो मैंने पिछले लेख में लिखा है । कि कलियुग को अभी 5000 और कुछ सैकडा वर्ष ही हुये है । जिनमें 2010 तक का विधिवत लेखा जोखा लगभग मौजूद है । ईसा पूर्व से भी लगभग 1000 वर्ष तक का अस्पष्ट इतिहास और जानकारी मिल ही जाती है । फ़िर भी थोडी देर को इसे 2010 तक का ही मान लेते है । और अभी कलियुग को 5500 का हुआ मान लेते हैं ।
यानी लगभग 3500 वर्ष पूर्व द्वापर युग का अंत समय था । मैं हमेशा की तरह कभी ये दबाब नहीं देता । कि आप इन आंकडो को । इस तय की गयी समयावधि को ही पूरी तरह सत्य मान लें । पर जैसा कि शास्त्रो में युगों की आयु लाखों वर्ष की बतायी गयी है । और इस समय अन्तराल को ध्यान करते ही किसी भी शोध के बारे में सोचने पर हमारे छक्के ही छूट जाते हैं । और हम हतोत्साहित होकर इस झमेले को बैग्यानिको के लिये छोडकर इस पर कोई विचार ही नहीं करते । उस दृष्टि से किसी संत के द्वारा बताया हुआ युग आयु का ये रहस्य हमें नये सिरे से सोचने पर विवश करता है । और तभी मैंने कहा । कि हम इस बात को मानें । ये उतना जरूरी नही है । पर कोई धार्मिक शोधार्थी । कोई ज्योतिष गणना करने वाला । युगों के बैग्यानिक तथ्य खोजने वाला एक नये सिरे से अवश्य सोच सकता है ।
जब भी दो युग मिलते हैं । यानी एक का आना और दूसरे का जाना । तब इस कालखन्ड में कुछ ऐसा घटित होता है कि पुरानी सभ्यता नष्ट हो जाती है । और उसके चिह्न मात्र शेष रह जाते हैं । फ़िर इन्हीं चिह्नों के आधार पर धीरे धीरे प्राचीन अर्वाचीन का मिलाप होता है । और एक बार फ़िर सभ्यता का इतिहास लिखा जाता है । खैर । इस समय मैं श्री महाराज जी से प्राप्त रहस्यों के बारे में बता रहा हूं । जब मैं युगों के बारे में चर्चा कर रहा था । तब महाराज जी ने कहा । युगों के बारे में एक दूसरा सत्य ये भी है कि ग्यान दृष्टि से एक ही समय में चारों युग साथ साथ चलते हैं । घोर कलियुग में भी एक व्यक्ति अपने स्वभाव और विचारों से सतयुग में जीता है । सतयुग जैसा आचरण करता है । घोर कलियुग में भी कोई पहुंचा हुआ संत किसी स्थान या गांव आदि को सतयुग के समान बना देता है । ऐसे सैकडों गांव और स्थान मेरे अनुभव में भी आये हैं । जो कलियुग के प्रभाव से अछूते हैं । पहाडी क्षेत्रों और मैदानी क्षेत्रों की सभ्यता मे अभी भी जमीन आसमान का अंतर है ।
इसके कुछ ही समय बाद महाराज जी ने दस मिनट आंखे बन्द करते हुये लगभग ध्यान की अवस्था से बाहर आते हुये कहा । ये आश्चर्य है कि सतयुग आने के लक्षण दिखाई दे रहे हैं । ये मेरे लिये विस्फ़ोट होने जैसा था । क्योंकि यदि कलियुग को अभी लगभग 5500 वर्ष ही हुये हैं । तो स्वयं महाराज जी के अनुसार ही अभी कलियुग की आयु 22500 वर्ष शेष है । इसका वास्तविक रहस्य मैंने कई बार पूछने की कोशिश की । जिसको महाराज जी ने कहा । अभी इसके उत्तर का उचित समय नहीं हैं । ये फ़िर कभी बतायेंगे । इसके बाद महाराज जी ने 0 शून्य सत्ता और इसमें 1 यानी परमात्मा को जोडने का रहस्य बताया । मतलब 0 एक बार लिखा हो या करोडों बार उसका मान यानी value 0 शून्य ही रहता है । लेकिन इसी 0 में 1 यानी एक परमात्मा को जोडते ही जितने भी 0 हों उनकी value उतनी ही बड जाती है । मान लीजिये । एक लाख की संख्या दर्शाने वाले 0 अंक लिखे थे । पर वह सब 0 ही थे । यानी उनकी कोई value नहीं थी । लेकिन इसमें 1 जोडते ही value हो गयी । उम्मीद से ज्यादा हो गयी । इसके बाद महाराज जी ने दूध और घी के उदाहरण से जीव ( दूध ) और घी ( परमात्मा ) से बडा रोचक तरीका बताया । इसके बाद सूर्य का उदाहरण आत्मा से देते हुये बताया कि आत्मा किस तरह हर समय निर्लिप्त होता है । इसके बाद कुछ लोग आ गये । और चर्चा स्वाभाविक ही अन्य बातों पर मुड गयी । एक जिग्यासु द्वारा ये पूछ्ने पर । परमात्मा क्यों नहीं मिलता ?
महाराज जी ने कहा । कहीं वस्तु रखी । कहीं खोजो । तो वस्तु न आवे हाथ । वस्तु तभी पाईये । जब भेदी होवे साथ । अर्थात परमात्मा को जानने वाले संत ही परमात्म प्राप्ति करा सकते हैं । और किसी में ये सामर्थ्य नहीं होती । दूसरे जिग्यासु द्वारा पूछने पर कि महाराज जी । हम बहुत पूजा करते हैं । पर कोई लाभ नहीं होता । महाराज जी ने कहा । आप डाक्टर डाक्टर ( भगवान भगवान ) करते हैं । दवा ( पूजा का सही तरीका ) नहीं खाते । इसलिये कोई लाभ नही होता ।
एक और जिग्यासु ने कहा । महाराज जी । बहुत दुख में रहता हूं । शान्ति भी नहीं है । महाराज जी ने कहा । संसार की वस्तुओं को अपना मान लेने से ही समस्त दुख होता है । मानों तो भी । न मानों तो भी । ये वस्तुये तुम्हारी सदा के लिये नहीं होंगी । बस इसी बात का दुख है । इसके बाद समय मिलने पर महाराज जी ने आदि सृष्टि का रहस्य बताया । समाप्त ।
विशेष -- ये सभी रहस्य मैंने एक स्थान पर धार्मिक ज्योतिष और इतिहास के शोधार्थियों हेतु लिखे हैं । इन पर विस्त्रत चर्चा मेरे ब्लाग्स में शीघ्र पढने को मिलेगी ।