30 जुलाई 2010

पांच प्रेत...five ghost

पूर्वकाल में संतप्तक नाम का एक ब्राह्मण था । जिसने तपस्या से अपने को पापरहित कर लिया था । संसार को असार मानते हुये वह मुनियों की भांति आचार करता हुआ वन में रहता था । किसी समय इस ब्राह्मण ने तीर्थयात्रा को लक्ष्य बनाकर यात्रा की ।किन्तु संस्कारों के प्रभाव से वह मार्ग भूल गया । दोपहर हो गयी ।स्नान की इच्छा से वह किसी सरोवर आदि की तलाश करने लगा । उसी समय उसे बेहद घना वन दिखाई दिया । जिसमें वृक्षों लताओं आदि की अधिकता से पक्षियों के लिये भी मार्ग नहीं था । वह वन हिंसक जीव जन्तु पशुओं और राक्षस और पिशाचों से भरा पडा था । ब्राह्मण उस घनघोर डरावने वन को देखकर भयभीत हो उठा । उसे रास्ते का ग्यान नहीं था । वह आगे चल पडा । वह कुछ ही कदम चला था । कि सामने बरगद के वृक्ष में बंधा एक शव उसे लटकता हुआ दिखाई दिया । जिसे पांच भयानक प्रेत खा रहे थे । उन प्रेतों के शरीर में हड्डी नाडिया और चमढा ही शेष था । उनका पेट पीठ में धंसा हुआ था । ताजे शव के मष्तिष्क का गूदा चाव से खाने वाले । और शव की हड्डियों की गांठ तोडने वाले । बडे बडे दांत वाले उन भयानक प्रेतों को देखकर घबराकर ब्राह्मण रुक गया । प्रेत उसे
देखकर दौड पडे । और उन्होंने ब्राह्मण को पकड लिया । और इसे मैं खाऊंगा । ऐसा कहते हुये वे उसे लेकर आकाश में चले गये । किन्तु बरगद पर लटके शव के शेष मांस को खाने की भी उनकी इच्छा थी । प्रेत लटके हुये शव के पास आये और उधडे हुये से उस शव को पैरों में बांधकर फ़िर से आकाश में उड गये ।इस तरह वह भयभीत ब्राह्मण भगवान को याद करने लगा । उसकी प्रार्थना सुनकर भगवान वहां गुप्त रूप से पहुंच गये । और प्रेतों द्वारा ब्राह्मण को आश्चर्य से ले जाते हुये देखते चुपचाप उनके पीछे चलने लगे ।
सुमेर पर्वत के पास पहुंचकर भगवान श्रीकृष्ण को मणिभद्र नाम का यक्ष मिला । भगवान ने इशारे से उसे बुलाया और कहा कि तुम इन प्रेतों से युद्धकर इन्हें मारकर शव को अपने अधिकार में कर लो । इसके बाद मणिभद्र ने प्रेतों को दुख पहुंचाने वाले भयंकर प्रेत का रूप धारणकर उनसे भयंकर युद्ध किया और उन्हें परास्त कर शव छीन लिया । प्रेतों ने ब्राह्मण को पारियात्र पर्वत पर उतारा और वापस मणिभद्र की और आये किन्तु वह अदृष्य हो गया । तब हताश होकर वे वापस पर्वत पर पहुंचे और ब्राह्मण को मारने लगे । ज्यों ही उन्होंने ब्राह्मण को मारा । तो भगवान के वहां होने से और ब्राह्मण के प्रभाव से तत्काल उनके पूर्वजन्म की स्मृति जाग उठी । तब उन प्रेतों ने ब्राह्मण की प्रदक्षिणा की ।और क्षमा मांगी ।
ब्राह्मण को बेहद आश्चर्य हुआ । उसने कहा आप लोग कौन हैं ? और अचानक इस बदले व्यवहार का क्या कारण है ?
प्रेतों ने कहा कि हम सब प्रेत है । जो आपके दर्शन से निष्पाप हो गये । हमारे नाम पर्युषित । सूचीमुख । शीघ्रग । रोधक और लेखक हैं । ब्राह्मण ने कहा । तुम्हारे नाम बडे अजीव हैं । मुझे इसका रहस्य बताओ ।
तब पहले " पर्युषित " बोला । मैने श्राद्ध के समय ब्राह्मण का न्यौता किया था पर वो ब्राह्मण देर से पहुंचा । तब मैंने बिना श्राद्ध किये हुये ही भूख के कारण उस श्राद्ध हेतु बने भोजन को खा लिया और देर से पहुंचे ब्राह्मण को पर्युषित ( बासी ) भोजन खिला दिया । इसी पाप से मुझे दुष्ट योनि की प्राप्ति हुयी । और पर्युषित भोजन देने के कारण मेरा यह नाम पडा ।
सूचीमुख बोला । किसी समय एक ब्राह्मणी अपने पांच वर्षीय एकलौते पुत्र के साथ तीर्थस्नान हेतु भद्रवट गयी । मैं उस समय क्षत्रिय था । मैंने राहजनी करते हुये उस लडके के सिर में घूंसा मारा । और दोनों के वस्त्र और खाने का सामान छीन लिया । प्यास से व्याकुल जब वह लडका माता से लेकर जल पीने लगा । तो मैंने उसका जल पात्र छीनकर वह थोडा सा ही शेष जल स्वयं सारा पी लिया । इस तरह डरे और प्यास से व्याकुल बालक की कुछ ही देर में मृत्यु हो गयी । उसकी मां ने भी कुंए में कूदकर जान दे दी । इस पाप से में प्रेत बना । पर्वत जैसा शरीर होने पर भी मेरा मुख सुई की नोक के समान है । यधपि मैं खाने योग्य पदार्थ प्राप्त कर लेता हूं । पर इस सुई के छेद जैसे मुख से उसको खाने में असमर्थ हूं । भूख से व्याकुल बालक का भोजन छीनकर मैंने उसका मुंह बन्द किया । इससे मेरा मुंह सुई के नोक जैसा हो गया । अतः मैं सूचीमुख के नाम से प्रसिद्ध हूं ।
शीघ्रग बोला । मैं एक धनवान वैश्य था । अपने मित्र के साथ व्यापार करने दूसरे देश गया । मेरे मित्र के पास बहुत धन था । मेरे मन में उस धन के लिये लोभ आ गया । मेरा धन समाप्त हो चुका था । हम दोनों नाव से एक नदी को पार कर रहे थे । मेरा मित्र थककर सो गया । लालच से मेरी बुद्धि क्रूर हो उठी थी । अतः मैंने अपने मित्र को नदी में धकेल दिया । इस बात को कोई न जान सका । मित्र के हीरे जवाहरात सोना आदि लेकर मैं अपने देश लौट आया । सारा सामान अपने घर में रखकर मैंने मित्र की पत्नी से जाकर कहा कि मार्ग में डाकुओं ने मित्र को मारकर सब सामान छीन लिया । मैं भाग आया हूं । तब उस दुखी स्त्री ने सबकी ममता त्यागकर अपने को अग्नि की भेंट कर दिया । मैं खुश होकर लौट आया ।और दीर्घकाल तक उस धन का उपभोग किया । मित्र को नदी में फ़ेंककर शीघ्र घर लौट आने के कारण मुझे प्रेतयोनि मिली और मेरा नाम शीघ्रग हुआ ।
रोधक बोला । मैं शूद्र जाति का था । राजा से मुझे उपहार में बडे बडे सौ गांव मिले थे । मेरे परिवार में वृद्ध माता पिता और एक छोटा सगा भाई था । लोभ से मैंने भाई को अलग कर दिया । जिससे वह भोजन वस्त्र की कमी से दुखी रहने लगा । उसे दुखी देखकर मेरे माता पिता मुझसे छिपाकर उसकी सहायता कर देते थे । जब मुझे यह बात पता चली । तो क्रोधित होकर मैंने माता पिता को जंजीरों से बांधकर एक सूने घर में डाल दिया । जहां कुछ दिन बाद वे जहर खाकर मर गये । माता पिता के मर जाने के बाद मेरा भाई भी भूख से व्याकुल इधर उधर भटकता हुआ मर गया । इस पाप से मुझे यह प्रेत योनि मिली । अपने माता पिता को बन्दी बनाने के कारण मेरा नाम रोधक पडा ।
लेखक बोला । मैं उज्जैन का ब्राह्मण था । और मन्दिर में पुजारी था । उस मन्दिर में सोने की बनी और रत्न
से जडी हुयी बहुत सी मूर्तियां थी । उन रत्नों को देखकर मेरे मन में पाप आ गया और मैंने नुकीले लोहे से मूर्ति के नेत्रों से रत्न निकाल लिये । क्षत विक्षत और नेत्रहीन मूर्ति देख राजा क्रोध से तमतमा उठा और उसने प्रतिग्या की कि जिसने भी यह चोरी की है । वह निश्चित ही मेरे द्वारा मारा जायेगा । यह सुनकर मैंने रात में चुपके से राजा के महल में जाकर तलवार से उसका सिर काट दिया । इसके बाद चुरायी गयी मणि और सोने के साथ मैं रात में ही दूसरे स्थान को चल दिया । जहां रास्ते में जंगल में बाघ द्वारा मारा गया । नुकीले लोहे से प्रतिमा को छेदने और काटने का कार्य करने के कारण मैं नरक भोगने के बाद लेखक नाम का प्रेत हुआ ।
ब्राह्मण ने कहा । ओह अब मैं समझा । लेकिन मुझे तुम्हारे आचरण और आहार को लेकर जिग्यासा है ।
तब प्रेतों ने उत्तर दिया । जिसके घर में श्राद्ध तर्पण भक्ति पूजा नहीं होते । अशौच रहता है । हम उसके शरीर से मांस और रक्त बलात अपह्त कर उसे पीडित करते हैं । मांस खाना । रक्त पीना ही हमारा आचरण है । इसके अतिरिक्त हम निंदनीय वमन । विष्ठा । कीचड । कफ़ । मूत्र । आंसुओं के साथ निकलने वाला मल आदि आहार करते हैं । हम सब अग्यानी । तामसी और मन्दबुद्धि हैं ।
इसी वार्तालाप के समय भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें दर्शन दिया । ब्राह्मण और प्रेतों ने उन्हें प्रणाम किया । ब्राह्मण ने उनसे प्रेतों के उद्धार हेतु प्रार्थना की । श्रीकृष्ण ने उसकी प्रार्थना स्वीकार करते हुये ब्राह्मण और प्रेतों का उद्धार करते हुये उसी समय उन्हें अपने लोक पहुंचा दिया ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "
" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
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3 टिप्‍पणियां:

संजय भास्‍कर ने कहा…

सुन्दर और सार्थक लगे
आपके विचार ।

संजय भास्‍कर ने कहा…

मुझे आपका ब्लोग बहुत अच्छा लगा ! आप बहुत ही सुन्दर लिखते है ! मेरे ब्लोग मे आपका स्वागत है !

अज्ञात व्यक्ति ने कहा…

अजीब कहानी है
क्या से असली कहानी है