ऐसा कहना कि परमात्मा अमृत है । शायद ठीक नहीं । ऐसा ही कहना ठीक है कि इस जगत में जो अमृत है । उसका नाम परमात्मा है । इस जगत में जो नहीं मरता । उसका नाम परमात्मा है । जो इस जगत में मर जाता है । वह संसार । जो नहीं मरता । वह परमात्मा ।
तुमने 1 बीज बोया । बीज मर गया । लेकिन अंकुर हो गया । जो बीज में छिपा था अमृत । अब अंकुर में आ गया । बीज मर गया । उसने बीज को छोड़ दिया । वह देह छोड़ दी । अब उसने नयी देह ले ली । नया रूप ले लिया । अब तुम बैठकर रोओ मत बीज की मृत्यु पर । क्योंकि बीज मे तो कुछ और था ही नहीं । जो था । अब अंकुर में है । फिर 1 दिन वृक्ष बड़ा हो गया । फिर 1 दिन वृक्ष मर गया । अब तुम रोओ मत वृक्ष की मृत्यु पर । क्योंकि जो वृक्ष में मर गया । वह अब फिर बीजो में छिप गया है । वृक्ष पर बीज लग गये । अब फिर कहीं । फिर किसी मौसम में । फिर किसी अवसर में । फिर किसी क्षण में बीज अंकुरित होंगे । फिर पौधा होगा । फिर वृक्ष होगा ।
जीवन शाश्वत है । रूप बदलते, ढंग बदलते, मगर जीवन शाश्वत है । उसे देखो । अविच्छिन्न जीवन की धारा को ।
1 दिन तुम मां के पेट में सिर्फ मांस पिंड थे । आज वहा मांस पिंड कहीं भी नहीं है । आज तुम्हारे सामने उस मांस पिंड का कोई चित्र रख दे । तो तुम पहचान ही न सकोगे कि कभी मैं यह था । या कि तुम सोचते हो पहचान सकोगे ? फिर 1 दिन तुम छोटे बच्चे थे । फिर वह भी खो गया । फिर तुम जवान थे । वह भी खो गया । अब तुम बूढ़े हो । वह भी खो रहा है । मौत भी आएगी । यह देह भी खो जाएगी । फिर किसी और क्षण में, फिर किसी और मौसम में, तुम कहीं फिर उमगोगे । फिर जन्मोगे । जो इस तरह से रूपों से गुजरता है । उसकी याद करो । उसका स्मरण करो । उसका नाम तत, वह । वह अमृत है । और उससे जो जुड़ गया । वह भी अमृत हो गया ।
अब यहा यह भ्रांति मत कर लेना । जैसा कि हिंदी अनुवाद में हो सकती है । ऐसा कहा है कि उनमें चित्त लग जाने से जीव अमरत्व को प्राप्त हो जाता है । इसमे भ्रांति पैदा हो सकती है । तुमको यह लग सकता है । तो चलो परमात्मा से जुड़ जाएं । इससे मृत्यु से बच जाएंगे । अमृत हो जाएंगे । तो मैं बचूंगा । तो रहूंगा बैकुंठ में कि स्वर्ग में कि मोक्ष में मगर मैं बचूगा । जीव बचेगा । अब यह जीव नाहक बीच में ले आया गया । इसकी कोई जरूरत न थी ।
यह तो ऐसा ही हुआ कि बीज सोचे कि मैं बचूंगा । चलो कोई हर्जा नहीं । पौधे में बचूगा । बीज कहा बचेगा ? बीज तो जाएगा । तुम तो जाओगे । तुम नहीं बचोगे । तुम जैसे हो ऐसे तो तुम जाओगे ही । जा ही रहे हो । प्रतिपल जा रहे हो । तुमने जैसा अपने को जाना है । यह बचने वाली बात नहीं है । लेकिन तुम्हारे भीतर कोई ऐसा तत्व भी छिपा पड़ा है । जैसा तुमने अपने को अभी तक जाना ही नहीं है । वह बचेगा । उसका तुमसे कुछ संबंध नहीं ।
वह यानी वह, तत । तुम्हारे भीतर भी तत बैठा है । साक्षी की तरह बैठा है । जब तुम भोजन कर रहे हो । तब वह भोजन नहीं कर रहा है । देख रहा है कि तुम भोजन कर रहे हो । जब तुम स्नान कर रहे हो । तब वह स्नान नहीं कर रहा है । देख रहा है कि तुम स्नान कर रहे हो । जब तुम बीमार पड़ते हो । तब वह बीमार नहीं होता । देखता है कि तुम बीमार हो गए हो । और जब तुम स्वस्थ होते हो । तब वह स्वस्थ नहीं होता । देखता है कि तुम स्वस्थ हो गए हो ।
समझ लेना भेद । जिसने भोजन किया । जो भूखा था । जो बीमार पड़ा । जो स्वस्थ हुआ । इसको ही तुमने अब तक माना है कि मैं हूं । यह तो जाएगा । और तुम्हारे भीतर 1 तत छिपा है । 1 साक्षी खड़ा है - 1 चैतन्य । जिससे तुमने अपना संबंध ही नहीं जोड़ा है अभी तक । जिससे तुम्हारी कोई पहचान ही नहीं । तुम्हारी अपने से पहचान ही कहा है ?
तुम्हारी हालत ऐसे ही है । जैसे किसी ने अपने को अपने वस्त्रों के साथ 1 कर लिया । और सोचता है - यही मैं हूं । यह कमीज, यह कोट, यह टोपी, यह अंगरखा, यह मैं हूं । यह तो जाएंगे । यह तुम हो ही नहीं । तुम तो बिलकुल न बचोगे । लेकिन फिर भी कुछ बचेगा । और वह कुछ तुम्हारे मैं से बिलकुल मुक्त है । वहा मैं का भाव ही नहीं उठता है । वहा मैं की तरंग ही नहीं बनती है ।
इसलिए बुद्ध ने तो कह दिया - अनात्मा । कोई आत्मा नहीं । क्योंकि आत्मा अर्थात मैं । उस साक्षी में कहा आत्मा है । उस साक्षी में यह भाव ही नहीं बनता कि मैं । जहाँ मैं का भाव बना । संसार शुरू हुआ । जंहा मैं का भाव मिटा । संसार मिटा । उसमें ठहर गये । तो अमरत्व । ऐसा जानने वालों ने कहा है ।
ज्ञानमितिचेन्नद्विषतोऽपिज्ञानस्यतदसस्थिते: । ईश्वर संबंधी ज्ञान विशेष का नाम भक्ति नहीं है । द्वेषी पुरुष को भी ज्ञान होता है । परंतु उसमें प्रीति नहीं होती ।
यह सूत्र बहुमूल्य है । खूब ध्यान पूर्वक समझना । ज्ञान विशेष का नाम भक्ति नहीं है । ईश्वर के संबंध में जानना ईश्वर को जानना नहीं है । ईश्वर के संबंध में जानना तो बहुत सस्ता है । बिना कुछ दाव पर लगाए हो जाता है । शास्त्र पढ़ लिए । और जान लिया । सदगुरुओ के वचन कंठस्थ कर लिए - तोते की भांति । तो ज्ञान तो सस्ता है । पंडित हो जाना तो बहुत सस्ता है । ज्ञानी होना बहुत कठिन है । ज्ञानी कोई ज्ञान से नहीं होता । ज्ञानी तो प्रेम से होता है । यह बात जरा उलझी हुई लगेगी ।
जानने के लिए ज्ञान का संग्रह पर्याप्त नहीं है । जानने के लिए तो प्रीति कानी चाहिए - विराट के प्रति । अनंत के प्रति । अमृत के प्रति ।
ईश्वर संबंधी ज्ञान विशेष का नाम भक्ति नहीं है । इसलिए इस भ्रांति में मत पड़ लेना कि खूब जान लिया । उपनिषद पढ़े । वेद पढ़े । गीता पढ़ी । खूब जान लिया । कंठस्थ कर लिया । शास्त्र याद हो गये । सोचने लगे कि - ईश्वर है । क्योंकि शास्त्रों के तर्क ने समझा दिया कि - ईश्वर है । मानने भी लगे कि - ईश्वर है । लेकिन यह मानना । यह जानना । सब थोथा है । सब ऊपर ऊपर है । यह तुम्हारे हृदय में नहीं अंकुरित हुआ है । यह जानना तुम्हारा नहीं है । और जब तक तुम्हारा न हो । तब तक झूठ है ।
ईश्वर संबंधी ज्ञान विशेष का नाम भक्ति नहीं है । तो असली भक्ति क्या है ? असली भक्ति वैव्यक्तिक रूप से ईश्वर से संबंधित होना है । असली भक्ति व्यक्ति का परम से विवाह है ।
शास्त्र पढ्ने से नहीं होगा । सत्य में उतरना होगा । उतरना महंगा सौदा है । खतरा है । बड़ा खतरा तो है अपने को खोने का । अपने को जो मिटाने को तैयार है । वही वहां जाएगा । कबीर ने कहा है - जो घर बारै आपना । चलै हमारे संग । यह अपना, यह मैं, यह घर तो जला डालना होगा । यह अपने ही हाथ से फूंक देना होगा । पंडित कुछ भी नहीं फूंकता । उलटे उसका मैं और मजबूत हो जाता है । वह तो अपने मैं के घर को और बड़ा कर लेता है । ज्ञान से खूब सजा लेता है ।
ज्ञान आभूषण है - अहंकार का । इसलिए ज्ञानी परमात्मा को नहीं जान पाता । प्रेमी जानता है । प्रेमी का अर्थ है - जो अपने को कुर्बान करने को तत्पर है । प्रेमी का अर्थ है - जो झुकने को, समर्पित होने को राजी है ।
मैं रुका रहा । किसी बांस की डाली की तरह । हवा के सामने झुका रहा । और आवाज सुनता रहा 1 । कि गति ठीक है ।
मगर मना नहीं है तुम्हारे लिए गति ।
हमने तो तुमसे उन्नत होने को कहा है ।
विरति की बात कहां कही है हमने ।
रत रहने के लिए । कहा है हमने तो तुमसे ।
सुनने को सुनता रहा मैं यह आवाज । मगर समझ लिया मैंने ।
कि यह 1 सलाह है । अपनी 1 राह है मेरी ।
रुकने की और झुकने की । किसी न किसी जगह । पूरी तरह चुकने की । वही जान पाएगा परमात्मा को । जिसने यह राह पकड़ी ।
अपनी 1 राह है मेरी । रुकने की और झुकने की ।
किसी न किसी जगह । पूरी तरह चुकने की ।
जो अपने को पूरा उंडेल देगा । कुछ और चढ़ाने से काम नहीं होगा । किसको धोखा देते हो ? फूल चढ़ाने से काम नहीं होगा । जब तक तुम अपने प्राणों के फूल न चढ़ाओ । यह धूप दीप जलाने से कुछ भी न होगा । जब तक तुम अपने प्राणों के धूप दीप न जलाओ । ये तुम्हारे पूजा के थाल झूठे हैं । इसलिए तो परमात्मा से कभी कोई संबंध नहीं हुआ । यह पूजा के थाल ही अड़ंगा बने हैं । यह तुम्हारे मंदिरों में बजते हुए घटनाद और उठता हुआ धूप का धुआ यह सब झूठा है । यह धुआ तुमसे उठे । यह नाद तुम्हारे भीतर हो । यह तुम्हारा ॐकार हो । तुम जलो । तुम गलो । तुम झुको । तुम अपने को उडेलो । तो कुछ हो ।
ईश्वर संबंधी ज्ञान विशेष का नाम भक्ति नहीं है । द्वेषी पुरुष को भी ज्ञान होता है । परंतु उसमें प्रीति नहीं होती । ज्ञान तो सरल बात है । ज्ञान तो कैसे भी आदमी को हो सकता है । द्वेषी को भी हो सकता है । अत्यंत घृणा से भरे हुए व्यक्ति को भी हो सकता है । क्रोध से भरे हुए व्यक्ति को भी हो सकता है ।
तुमने दुर्वासा जैसे ऋषियों की कहानियां तो पढ़ी ही हैं । ऋषि तो थे ही । मगर गजब के ऋषि रहे होंगे । ज्ञान तो था ही । शास्त्रों के ज्ञाता तो थे ही । लेकिन प्रीति नहीं उमगी । प्रेम का वसंत नहीं आया । प्रेम के फूल नहीं खिले । प्रेम की सरिता नहीं बही । क्रोध ही जलता रहा । फिर कभी कभी उनको भी हो गया है । जिनके पास पांडित्य बिलकुल नहीं था । जैसे कबीर को । या कि जैसे मीरा को । पंडित तो जरा भी नहीं थे । शास्त्र का तो कुछ बोध ही नहीं था । कबीर ने तो कहा है - मसि कागद छूयो नहीं । स्याही और कागज तो कभी छुआ ही नहीं । लेकिन
कबीर ने कहा है - ढाई आंखर प्रेम के । पढै सो पंडित होय । वे जो ढाई अक्षर प्रेम के हैं । वे जरूर पढ़े । बस उन्हीं को पढ़ लिया । तो सब पढ़ लिया । उन ढाई अक्षरों में सब अक्षर आ गये । अक्षर आ गया ।
प्रेम द्वार है परमात्मा का । ज्ञान नहीं - 3 बातें खयाल में लेना । पहली बात - कर्म । दूसरी बात - ज्ञान । और तीसरी बात - भक्ति । कर्म बड़ा स्थूल अहंकार है । कुछ करके दिखा दूं । कुछ पाकर दिखा दूं । धन हो । पद हो । प्रतिष्ठा हो । दौड़ धाप । कर्ता का अहंकार है । जब आदमी कर्म से हार जाता है । गिर पड़ता है । चलते चलते चलते थक जाता है । अनुभव में आता है कि मेरे ही किए कुछ भी नहीं होगा । मेरे बस मे नहीं है । मैं 1 छोटी बूंद हूं । और यह अस्तित्व बड़ा है । मेरी सामर्थ्य में नहीं । तब आदमी ज्ञान से संयुक्त होता है । कर्म से थका तो ज्ञान से संयुक्त होता है । ज्ञान का अर्थ होता है - जीत तो न सका । जानकर रहूंगा । जीत तो नहीं हो सकी । लेकिन जानना तो हो सकता है । यह सूक्ष्म अहंकार है । फिर 1 दिन आदमी इससे भी थक जाता है कि जानना भी नहीं हो सकता । मैं इतना छोटा हूं । और यह इतना विराट है । इसको जानूंगा कैसे ? मैं इससे अलग कहा हूं । अलग थलग होता तो जान लेता । मैं तो इसी में जुड़ा हूं । इसी का हिस्सा हूं । अब कोई पत्ता किसी वृक्ष का, वृक्ष को जानना चाहे । कैसे जानेगा । वह वृक्ष का ही हिस्सा है । वृक्ष उससे पूर्व है । वृक्ष चाहे । तो पत्ते को जान ले । पत्ता वृक्ष को नहीं जान सकता ।
1 दिन कर्म थक जाता है । तो ज्ञान पैदा होता है । कर्म - यानी स्थूल अहंकार । ज्ञान - यानी सूक्ष्म अहंकार । 1 दिन ज्ञान भी थक जाता है । तब क्षण आता है - अथातो भक्ति जिज्ञासा । तब आदमी कहता है - न मैं जीत सका । न मैं जान सका । प्रेम तो कर सकता हूं । यह हो सकता है । पत्ता वृक्ष को जीत नहीं सकता । न वृक्ष को जान सकता है । लेकिन पत्ता वृक्ष के प्रेम में लीन हो सकता है । इसमें कोई अड़चन नहीं है । कर्म - स्थूल अहंकार । ज्ञान - सूक्ष्म अहंकार । भक्ति - निरहंकार ।
तयोपक्षयाच्च । क्योंकि पूर्ण रूप से भक्ति का उदय होते ही ज्ञान का नाश हो जाता है । यह सूत्र बड़ा अदभुत है । इसके 2 अर्थ हो सकते हैं । तयोपक्षयाच्च । उसके जानने से क्षय हो जाता है । इसके 2 अर्थ हो सकते है । 1 अर्थ तो यह हो सकता है कि ज्ञान के जानने से भक्ति का क्षय हो जाता है । दूसरा अर्थ यह हो सकता है कि भक्ति के
जानने से ज्ञान का क्षय हो जाता है । दोनों अर्थ प्यारे है । और दोनों अर्थ 1 साथ मैं करना चाहता हूं । अब तक किसी ने दोनों अर्थ 1 साथ किए नहीं है ।
पहला - ज्ञान से भक्ति का क्षय हो जाता है । जितना आदमी जानकार होगा । उतना ही कम प्रेम हो जाएगा । जानना प्रेम की हत्या करता है । जानना जहर है - प्रेम के लिए । क्योंकि प्रेम के लिए रहस्य चाहिए । प्रेम के लिए विस्मय विमुग्धता चाहिए । और ज्ञान तो रहस्य को छीन लेता है । ज्ञान तो कहता है । हम जानते हैं । रहस्य क्या है ?
छोटे बच्चे प्रेम कर सकते है । क्योंकि आश्चर्यचकित । विस्मय विमुग्ध, अवाक ।
छोटा बच्चा छोटी छोटी चीजों के प्रेम मे पड़ जाता है । समुद्र के किनारे रंगीन पत्थर बीनने लगता है । शंख सीप बीनने लगता है । तुम ज्ञानी हो । तुम कहते हो - फेंको इनको । कचरा कहां ले जा रहे हो ? बच्चे की समझ में नहीं आता कि इतना प्यारा पत्थर । सूरज की रोशनी में ऐसे दमक रहा है हीरे जैसा । ऐसा प्यारा शंख । वह बाप की नजर बचाकर खीसे में छिपा लेता है । उसे प्रेम उपजता है । उसे हर चीज से प्रेम उपजता है । वह हर चीज के पास ठिठककर खड़ा हो जाता है । घास में फूल खिला है । और वह ठिठककर खड़ा हो जाता है । वह भरोसा नहीं कर पाता ऐसा प्यारा फूल । ऐसा अदभुत रंग । 1 तितली उड़ी जा रही है । वह भरोसा नहीं कर पाता । वह भागने लगता है तितली के पीछे । ऐसा चमत्कार । जैसे फूल को पंख लग गए हों । हर चीज चमत्कृत करती है उसे । क्योंकि वह कुछ भी नहीं जानता । अज्ञानी है । विस्मय से भरा है । आश्चर्य अभी उसका जीवित है । फिर तुम धीरे धीरे ज्ञान ठूसोंगे । तुम हर चीज समझा दोगे । फिर 1 दिन धीरे धीरे जब वह विश्वविद्यालय से वापिस लौटेगा । ज्ञानी होकर । सब गंवाकर । और कोरे कागज साथ लेकर । सर्टिफिकेट लेकर । तब उसे कोई चीज विस्मय विमुग्ध न करेगी । हर चीज का उत्तर उसके पास होगा । तुम पूछो - वृक्ष हरे क्यो है ? वह कहेगा - क्लोरोफिल । बात खतम हो गयी । स्त्री सुंदर क्यो लगती है ? हारमोन । बात खतम हो गयी । प्रेम क्या है ? रसायन शास्त्र । वह समझा सकेगा सब । वह सब समझकर आ गया है । वह हर चीज को जानता है । अब अनजाना कुछ छूटा नहीं है, प्रीति कैसे उमगे! आश्चर्य ही मर गया । आश्चर्य की हवा में प्रीति उमगती है ।
इसलिए तुम जानकर आश्चर्य चकित मत होना कि जैसे जैसे आदमी का ज्ञान बढ़ा है । वैसे वैसे दुनिया मे प्रेम कम हो गया । यह स्वाभाविक परिणाम है । यह शाडित्य के सूत्र में छिपा है - तयोपक्षयाच्च ।
देखते नहीं । तुम रोज देखते नहीं । दुनियां मे जितनी शिक्षा बढ़ती जाती है । उतना प्रेम कम होता जाता है । शिक्षित आदमी और प्रेमी । जरा मुश्किल जोड़ है । जितना शिक्षित । उतना ही कम प्रेमी । थोड़ा अशिक्षित होना चाहिए प्रेम के लिए । ग्रामीण के पास प्रेम है । शहरी के पास विदा हो गया । असभ्य के पास प्रेम है । सभ्य के पास नहीं । जो जितना सुसंस्कृत हो गया है । उसके पास औपचारिकता है । लेकिन औपचारिकता में कहीं कोई प्राण नहीं । कहीं कोई जीवन नहीं । वह जब तुमसे पूछता है - कहिए कैसे ? कुछ नहीं पूछ रहा है । वह यह कह रहा है कि चलो, आगे बढ़ो । यह तो पूछना पड़ता है । हमें मतलब ? तुम्हें मतलब ? किसी को क्या लेना देना है ।
वर्षो बीत जाते हैं । और पड़ोसी से पहचान नहीं होती । सुसंस्कृत आदमी का कोई पड़ोसी ही नहीं है । पड़ोस तो प्रेम से बनता है । जीसस ने कहा है । कौन है पड़ोसी ? क्योंकि जीसस बहुत जोर देते थे इस बात पर कि पड़ोसी से प्रेम करो । तो ही तुम परमात्मा से प्रेम कर पाओगे । अपने प्रेम को थोड़ा बढ़ाओ । फैलाओ सब तरफ । आस पड़ोस प्रेम को फैलाओ । कौन है पड़ोसी ? 1 दिन उनके शिष्य ने पूछा कि आप किसको पड़ोसी कहते हैं ? तो जीसस ने कहा - 1 आदमी निकलता था 1 सुनसान रास्ते से । डाकुओं ने हमला किया । उसे लूट लिया । उसको छुरे मारे । उसको कई घावों से भरकर पास के गड्डे में फेंक दिया । फिर उसके गांव का ही पादरी वहा से गुजरा - रबाई । उसने देखा इस आदमी को । यह इसके गांव का ही आदमी था । इसके ही मंदिर में प्रार्थना करने आता था । यह मंदिर में ही प्रार्थना करने जा रहा था । इसने देखा - घाव से भरे । कराहते । उस आदमी ने कहा कि मुझे बचाओ । मैं मर रहा हूं । मुझे उठाओ । लेकिन उसने कहा कि अगर मैं तुम्हें उठाऊं । तो मैं झंझट में पडूँगा । पुलिस पीछे पड़ेगी - क्या हुआ ? कैसे हुआ ? किसने मारा ? तुम वहां क्या कर रहे थे ? तुम्हारा कुछ हाथ तो नहीं
है ? फिर अभी मुझे मंदिर जाना है । मैं प्रार्थना करने जा रहा हूं । यह बेवक्त की झंझट कौन सिर ले । मंदिर की जगह पुलिस थाने जाना पड़े । फिर इसको अस्पताल ले जाओ । फिर मर मरा जाए । फिर न मालूम । कौन झंझट खड़ी हो । उसने तो पीठ फेर ली । और चल पड़ा । फिर दूसरे गांव का 1 आदमी पास से गुजर रहा था । जिसने इस आदमी को कभी देखा भी नहीं । वह पास आया । उसने इसे अपने गधे पर बिठाया । इसके घाव धोये । इसको पास की धर्मशाला में ले गया । वहाँ भोजन कराया । वहाँ इसे लिटाया । चिकित्सक को बुलाया । और यह इस आदमी को जानता भी नहीं था ।
तो जीसस ने पूछा । अपने शिष्यों से - तुम किसको पड़ोसी कहते हो ? वह पुरोहित पड़ोसी था । जो पड़ोस में ही रहता था । या यह अजनबी आदमी पड़ोसी है । जिसने इसे कभी देखा नहीं था ? शिष्यों ने कहा - स्वभावत: यह अजनबी आदमी पड़ोसी है । तो जीसस ने कहा - जहाँ प्रेम है । वहाँ पड़ोस है । जीता बड़ा प्रेम है । उतना पड़ोस है । अगर प्रेम बड़ा हो । तो सारी पृथ्वी पड़ोस है । और प्रेम बड़ा हो । तो सारा ब्रह्मांड पड़ोस है । प्रेम की सीमा पड़ोस की सीमा है । प्रेम यानी पड़ोस ।
जैसे जैसे शिक्षा बढ़ती है । ज्ञान बढ़ता है । प्रेम संकुचित होता जाता है । तयोपक्षयाच्च । इसलिए ज्ञान भक्ति मे सहयोगी तो होता ही नहीं । बाधा होता है ।
और दूसरा अर्थ भी बहुमूल्य है । भक्ति से ज्ञान का क्षय हो जाता है । और जब भक्ति का जन्म होता है । तो आदमी पुन: अज्ञानी हो जाता है । वह सब ज्ञान व्यान को जलाकर फेंक देता है । राख कर देता है । क्योंकि जब वह परमात्मा से थोड़ा सा जुड़ता है । तब उसे पता चलता है कि जो जाना सब कचरा था । वह तो सब झूठ था । वह तो सब व्यर्थ था । अब असली हीरे मिले । तो वह जो उसने कंकड़ पत्थर बीन रखे थे । फेंक देता है । जो उसने शास्त्रों का उच्छिष्ट इकट्ठा कर लिया था । अब क्यों करे ? अब तो अपने ही शास्त्र का जन्म हो गया है । अब तो उपनिषद अपने भीतर ही उतर रहा है । अब क्यों किसी उपनिषद को बांधे फिरे ? अब क्यों किसी कुरआन की आयत को दोहराए ? अपनी ही आयत गर्भ में आ गयी है । पक रही है । अपने ही फल पकने लगे । अपने ही फूल खिलने लगे ।
तो जैसे ही भक्ति का जन्म होता है । ज्ञान का क्षय हो जाता है । भक्ति और ज्ञान ऐसे हैं । जैसे रोशनी और अंधेरा । रोशनी है । तो अंधेरा नहीं । अंधेरा है । तो रोशनी नहीं । दोनों साथ नहीं होते हैं ।
ज्ञानी भक्त नहीं होता । ज्ञानी यानी पंडित । खयाल रखना । और भक्त ज्ञानी नहीं होता । भक्त तो निर्दोष हो जाता है । समस्त ज्ञान से मुका हो जाता है । भक्त तो पुन: अज्ञानी हो जाता है । क्योंकि परमात्मा अज्ञेय है । उसके सामने हम अज्ञानी की तरह ही खड़े हो सकते हैं । इतनी की तरह नहीं । ज्ञान का दावा अहंकार का दावा है ।
इस सूत्र को खूब हृदय में सम्हालकर रखना । यह कुंजी है - तयोपक्षयाच्च । क्योंकि पूर्णरूप से भक्ति उदय होते ही ज्ञान का नाश हो जाता है ।
तीर तीर, थका शरीर लेकर चलता हूं । रुक जाता हूं शाम को ।
नाम का सहारा । काट देता है रातें । और फिर पौ फटते ही ।
उतर पड़ता हूं पानी में । वाणी में घोलकर विश्वास ।
कि पहुंच रहा हूं ठांव पर ।
टेक पाऊंगा । किसी किसी संध्या में । अपना माथा ।
अशरण शरण तुम्हारे पांव पर । नाम से रूप तक ।
रूप से नाम तक यात्रा । चल रही है ।
ऐसा नहीं लगता । किसी दिन बंद होगी यह ।
लगता है रोज रोज । अधिकाधिक छंद होगी यह ।
बड़ा जीवन पड़ा है शेष अभी । जो तुमने जाना । वह तो कुछ भी नहीं है । बड़ा जीवन शेष पड़ा है अभी । जो तुमने जाना । वह तो मृत्यु है । अमृत तो अपरिचित पड़ा है । बड़ी यात्रा करनी है । यह कुछ ऐसी यात्रा नहीं कि समाप्त होगी ।
ऐसा नहीं लगता । किसी दिन बंद होगी यह ।
लगता है रोज रोज । अधिकाधिक छंद होगी यह ।
रोज रोज नए छंद । नए गीत उमगेंगे । रोज रोज ॐकार नए रूपों में प्रकट होगा - बढ़ो । ज्ञान से नहीं । कर्म से नहीं - प्रेम से ।
भक्ति जीवन का परम स्वीकार है - पहला प्रवचन । 11 जनवरी 1987 श्री रजनीश आश्रम पूना ।