व्याख्यायास्ते शिवास्तन्वः काम भद्रायाभिः सत्यं भवित ।
यदवृषीणेताभिष्ट्वमस्मां अभिं सवंशास्वयान्यत्रपापी रपवेशयाधियः । - अथर्व
हे परमेश्वर ! तेरा कामरूप भी श्रेष्ठ और कल्याणकारक है । उसका चयन असत्य नहीं है । आप कामरूप से हमारे भीतर प्रवेश करें और पाप बुद्धि से छुड़ाकर हमें निष्पाप उल्लास की ओर ले चलें ।
कुण्डलिनी महाशक्ति को प्रकृति का निरूपण करते हुए शास्त्रकारों ने उसे 'कामबीज’ एवं ‘कामकला’
दोनों शब्दों का प्रयोग किया है । इन शब्दों का अर्थ कामुकता कामक्रीड़ा या कामशास्त्र जैसा तुच्छ
यहाँ नहीं लिया गया है । इस शक्ति को प्रकृति उत्साह एवं उल्लास उत्पन्न करना है ।
यह शरीर और मन की उभय-पक्षीय अग्रगामी स्फुरणाएं है । यह एक मूल प्रकृति हुई । दूसरी पूरक प्रकृति । मूलाधार को कामबीज कहा गया है । और सहस्रार को - ज्ञानबीज । दोनों के समन्वय से विवेक युक्त क्रिया बनती है । इसी पर जीवन का सर्वतोमुखी विकास निर्भर है ।
कुण्डलिनी साधना से इसी सुयोग संयोग की व्यवस्था बनाई जाती है ।
प्रत्येक शरीर में नर और मादा दोनों ही तत्व विद्यमान है । शरीर शास्त्रियों के अनुसार प्रत्येक
प्राणी में उभय-पक्षीय सत्ताएँ मौजूद है । इनमें से जो उभरी रहती है । उसी के अनुसार शरीर की लिंग प्रकृति बनती है । संकल्प पूर्वक इस प्रकृति को बदला भी जा सकता है । छोटे प्राणियों में उभयलिंगी क्षमता रहती है । वह एक ही शरीर से समयानुसार दोनों प्रकार की आवश्यकताएँ पूरी कर लेता है ।
मनुष्यों में ऐसे कितने ही पाये जाते हैं । जिनकी आकृति जिस वर्ग की है । प्रकृति उससे भिन्न वर्ग की होती है । नर को नारी की और नारी को नर की भूमिका निबाहते हुए बहुत बार देखा जाता है । इसके अतिरिक्त लिंग परिवर्तन की घटनाएँ भी होती रहती है । शल्य क्रिया के विकास के साथ साथ अब इस प्रकार के उलट पुलट होने के समाचार संसार के कोने कोने से मिलते रहते हैं । अमुक नर नारी बन गया । और नारी ने नर के रूप में अपना गृहस्थ नये ढंग से चलाना आरम्भ कर दिया ।
दोनों में एक तत्व प्रधान रहने से ढर्रा तो चलता रहता है, पर एकांगी पर बना रहता है ।
नारी कोमलता, सहृदयता, कलाकारिता जैसे भावात्मक तत्व का नर में जितना अभाव होगा । उतना ही वह कठोर, नीरस, निष्ठुर रहेगा । और अपनी बलिष्ठता, मनस्विता के पक्ष के सहारे क्रूर, कर्कश बन कर अपने और दूसरों के लिए अशान्ति ही उत्पन्न करता रहेगा ।
नारी में पौरुष का अभाव रहा । तो वह आत्महीनता की ग्रन्थियों से ग्रसित अनावश्यक संकोच में डूबी, कठपुतली या गुड़िया बनकर रह जायेगी । आवश्यकता इस बात की है कि दोनों ही पक्षों में सन्तुलित मात्रा रयि और प्राण के तत्व बने रहें । कोई पूर्णतः एकांगी बनकर न रह जाय । जिस प्रकार बाह्य जीवन में नर नारी सहयोगी की आवश्यकता रहती है । उसी प्रकार अन्तःक्षेत्र में भी दोनों तत्वों का समुचित विकास होना चाहिए । तभी एक पूर्ण व्यक्तित्व का विकास सम्भव हो सकेगा ।
कुण्डलिनी जागरण से उभय-पक्षीय विकास की पृष्ठभूमि बनती है । मूलाधार चक्र में कामशक्ति को स्फूर्ति, उमंग एवं सरसता का स्थान माना गया है । इसलिए उसे काम संस्थान कहते हैं । जहाँ तहाँ उसे योनि संज्ञा भी दी गई है । नामकरण जननेन्द्रिय के आकार के आधार पर नहीं । उस केन्द्र में सन्निहित रयि शक्ति को ध्यान में रखकर किया गया है ।
आधाराख्ये गुदास्थाने पंकजू च चतुर्दलम ।
तन्मध्ये प्रोच्यते योनिः कामाख्या सिद्धवंदिता । - गोरक्षा पद्धति
गुदा के समीप मूलाधार कमल के मध्य योनि है । उस कामाख्या पीठ कहते हैं । सिद्ध योगी इसकी उपासना करते हैं ।
अपाने मूल कन्दाख्यं कामरुपं च तज्जगुः ।
तदेव वहिन कुण्डंस्यात तत्व कुण्डलिनी तथा । - योग राजोपनिषद
मूलाधार चक्र में कन्द है । उसे कामरूप कामबीज अग्निकुण्ड कहते हैं । यही कुण्डलिनी का स्थान है ।
देवी हयेकाऽग्र आसीत । सैव जगदण्डमसृजत ।
कामकलेति विज्ञायते श्रृंगारकलेति विज्ञायतें । - वृहवृचोपनिषद 1
उसी दिव्यशक्ति से यह जगत मंडल सृजा । वह उस सृजन से पूर्व भी थी वही कामकला है । सौंदर्य
कला भी उसी को कहते हैं ।
यतद्गुहयामिति प्रोक्तं देवयोनिस्तु सोच्यतें ।
अस्याँ यो जायते वहिः स कल्याण प्रदुच्यतें । - कात्यान स्मृति
गुहम स्थान में देव योनि है । उससे जो अग्नि उत्पन्न होती है । उसे परम कल्याणकारिणी समझना चाहिए ।
आधारं प्रथम चक्रं स्वाधिष्ठानं द्वितीयकम ।
योनित स्थानं द्वयोर्मघ्ये काम रुपं निगद्यते । - गोरथ पद्धति
पहला चक्र मूलाधार है । दूसरा स्वाधिष्ठान । दोनों के मध्य योनि स्थान है । उसे कामरूप भी कहते हैं ।
कामी कलां काम रुपां चिक्रित्वा ।
नरो जायते काम रुपश्व कामः । - त्रिपुरोपनिषद
यह महाशक्ति कामरूप है । उसे कामकला भी कहते हैं । जो उसकी उपासना करता है । सो कामरूप हो जाता है । उसकी कामनाएँ फलवती होती है । सहस्रार को कुण्डलिनी विज्ञान में महालिंग की संज्ञा दी गई है । यहाँ भी जननेन्द्रिय आकार को नहीं वरन उस केन्द्र में सन्निहित प्राण पौरुष का ही संकेत है ।
तत्रस्थितो महालिंग स्वयं भुः सर्वदा सुखी ।
अधोमुखः क्रियावांक्ष्य काम बीजो न चलितः । - काली कुलामृत
ब्रह्मरंध्र में वह महालिंग अवस्थित है । वह स्वयं भू और स्वरूप है । इसका मुख नीचे की और है । वह निरन्तर क्रियाशील है । कामबीज द्वारा उत्तेजित होता है ।
स्वयंभु लिंग तन्मध्ये संरंध्र परिश्मावलम ।
ध्यायेश्व परमेशक्ति शिवं श्यामल सुन्दरम । - शाक्तानन्द तरंगिणी
ब्रह्मरंध्र के मध्य स्वयंभू महालिंग है । इसका मुख नीचे की ओर है । वह श्यामल और सुन्दर है । उसका ध्यान करें । कामबीज और ज्ञानबीज के मिलने से जो आनन्दमयी परम कल्याणकारी भूमिका बनती है । उसमें मूलाधार और सहस्रार का मिलन संयोग ही आधार माना गया है । इसी मिलाप को साधना की सिद्धि कहा गया है । इस स्थिति को दिव्य मैथुन की संज्ञा भी दी गई है ।
सहस्त्रो परिविन्दौ कुण्डल्यां मेलनं शिवे ।
मैथुनं शयनं दिव्यं यतीनां परिकीर्तितत । - योगिनी तन्त्र
पार्वती, सहस्रार में जो कुल और कुण्डलिनी का मिलन होता है । उसी को यतियों ने दिव्य मैथुन कहा है ।
पर शक्त्यात्म मिथुन संयोगानन्द निर्गराः ।
मुक्तात्म मिथुनंतत स्त्यादितर स्त्री निवेषकाः । - तन्त्रसार
आत्मा को परमात्मा को प्रगाढ़ आलिंगन में आबद्ध करके परम रस का आस्वादन करना ही यही यतियों का मैथुन है ।
सुषम्नाशक्ति सुदृष्टा जीवोऽयंतु परः शिवः ।
तयोस्तु संगमे देवैः सुरतं नाम कीतितम । - तन्त्रसार
सुषुम्ना शक्ति और ब्रह्मरंध्र शिव है । दोनों के समागम को मैथुन कहते हैं । यह संयोग आत्मा और परमात्मा के मिलन एकाकार की स्थिति भी उत्पन्न करता है । जीव को योनि और ब्रह्म को वीर्य संज्ञा देकर उनका संयोग भी परमानन्ददायक कहा गया है -
एष बीजी भवान वीज महंयोनिः सनातनः । - वायु पुराण
जीव ने ब्रह्म से कहा - आप बीज है । मैं योनि हूँ । यही क्रम सनातन से चला आ रहा है ।
शिव और शक्ति के संयोग का रूपक भी इस संदर्भ में दिया जाता है । शक्ति को रज और शिव को बिन्दु की उपमा दी गई है । दोनों के मिलन के महत्वपूर्ण सत्परिणाम बताये गये है ।
विन्दुः शिवो रजः शक्ति श्चन्द्रोविन्दु रजोरविः ।
अनयोः संगमा देव प्राप्यते परमं पदम । - गोरक्ष पद्धति
बिन्दु शिव और रज शक्ति । यही सूर्य, चन्द्र हैं । इनका संयोग होने पर परम पद प्राप्त होता है।
बिन्दुः शिवो रजः शक्तिभयोर्मिलनात स्वयम । - शिव संहिता 1।100
बिन्दु शिव रूप और रज शक्ति रूप है । दोनों का मिलन स्वयं महाशक्ति का सृजन है ।
योनि वेदी उमादेवी लिंग पीठ महेश्वर । - लिंग पुराण
योनि वेदी उमा है और लिंग पीठ महेश्वर ।
जतवेदाः स्वयं रुद्रः स्वाहा शर्वार्धकायिनी ।
पुरुषाख्यो मुनः शभुः शतरुपा शिवप्रिया । - लिंग पुराण
जातवेदा अग्नि स्वयं रुद्र है । और स्वाहा अग्नि वे महाशक्ति हैं । उत्पादक परम पुरुष शिव है । और श्रेष्ठ उत्पादनकर्ती शतरूपा एवं शिवा है ।
अहं बिन्दू रजः शक्तिरुभयोर्मेलनं यदा ।
योगिनाँ साधनावस्था भवेदिव्यं व पुस्तदा । शिव संहिता 4। 87
शिवरूपी बिन्दु, शक्तिरूपी रज इन दोनों का मिलन होने से योग साधक को दिव्यता प्राप्त होती हैं ।
ब्रह्म का प्रत्यक्ष रूप प्रकृति और अप्रत्यक्ष भाग पुरुष है । दोनों के मिलने से ही द्वैत का अद्वैत में विलय होता है । शरीरगत दो चेतन धाराएँ रयि और प्राण कहलाती है । इनके मिलन संयोग से सामान्य प्राणियों को उस विषयानन्द की प्राप्ति होती है ।
जिसे प्रत्यक्ष जगत की सर्वोपरि सुखद अनुभूति कहा जाता है । ऋण और धन विद्युत घटकों के
मिलन से चिनगारियाँ निकलती और शक्तिधारा बहती है । पूरक घटकों की दूरी समाप्त होने पर सरसता और सशक्तता की अनुभूति प्रायः होती रहती है ।
चेतना के उच्चस्तरीय घटक मूलाधार और सहस्रार के रूप में विलग पड़े रहें । तभी तक अन्धकार की नीरस गतिहीनता की स्थिति रहेगी । मिलन का प्रतिफल सम्पदाओं और विभूतियों के ऋद्धि और सिद्धि के रूप में सहज ही देखा जा सकता है । इन उपलब्धियों की अनुभूति में आत्म परमात्मा का मिलन होता है । और उसकी सम्वेदना ब्रहमानन्द के रूप में होती है । इस आनन्द को विषयानन्द से असंख्य गुने उच्चस्तर का माना गया है ।
शिव पार्वती विवाह का प्रतिफल दो पुत्रों के रूप में उपस्थित हुआ था । एक का नाम गणेश, दूसरे
का कार्तिकेय । गणेश को प्रज्ञा का देवता माना गया हैं और स्कन्द को शक्ति का । दुर्दान्त, दस्यु, असुरों को निरस्त करने के लिए कार्तिकेय का अवतरण हुआ था । उनके इस पराक्रम ने संत्रस्त देव समाज का परित्राण किया ।
गणेश ने माँस पिण्ड मनुष्य को सदज्ञान, अनुदान देकर उसे सृष्टि का मुकुटमणि बनाया । दोनों ब्रह्मकुमार शिवशक्ति के समन्वय के प्रतिफल है । शक्ति कुण्डलिनी, शिव सहस्रार दोनों का संयोग कुण्डलिनी जागरण कहलाता है ।
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साभार ।
यदवृषीणेताभिष्ट्वमस्मां अभिं सवंशास्वयान्यत्रपापी रपवेशयाधियः । - अथर्व
हे परमेश्वर ! तेरा कामरूप भी श्रेष्ठ और कल्याणकारक है । उसका चयन असत्य नहीं है । आप कामरूप से हमारे भीतर प्रवेश करें और पाप बुद्धि से छुड़ाकर हमें निष्पाप उल्लास की ओर ले चलें ।
कुण्डलिनी महाशक्ति को प्रकृति का निरूपण करते हुए शास्त्रकारों ने उसे 'कामबीज’ एवं ‘कामकला’
दोनों शब्दों का प्रयोग किया है । इन शब्दों का अर्थ कामुकता कामक्रीड़ा या कामशास्त्र जैसा तुच्छ
यहाँ नहीं लिया गया है । इस शक्ति को प्रकृति उत्साह एवं उल्लास उत्पन्न करना है ।
यह शरीर और मन की उभय-पक्षीय अग्रगामी स्फुरणाएं है । यह एक मूल प्रकृति हुई । दूसरी पूरक प्रकृति । मूलाधार को कामबीज कहा गया है । और सहस्रार को - ज्ञानबीज । दोनों के समन्वय से विवेक युक्त क्रिया बनती है । इसी पर जीवन का सर्वतोमुखी विकास निर्भर है ।
कुण्डलिनी साधना से इसी सुयोग संयोग की व्यवस्था बनाई जाती है ।
प्रत्येक शरीर में नर और मादा दोनों ही तत्व विद्यमान है । शरीर शास्त्रियों के अनुसार प्रत्येक
प्राणी में उभय-पक्षीय सत्ताएँ मौजूद है । इनमें से जो उभरी रहती है । उसी के अनुसार शरीर की लिंग प्रकृति बनती है । संकल्प पूर्वक इस प्रकृति को बदला भी जा सकता है । छोटे प्राणियों में उभयलिंगी क्षमता रहती है । वह एक ही शरीर से समयानुसार दोनों प्रकार की आवश्यकताएँ पूरी कर लेता है ।
मनुष्यों में ऐसे कितने ही पाये जाते हैं । जिनकी आकृति जिस वर्ग की है । प्रकृति उससे भिन्न वर्ग की होती है । नर को नारी की और नारी को नर की भूमिका निबाहते हुए बहुत बार देखा जाता है । इसके अतिरिक्त लिंग परिवर्तन की घटनाएँ भी होती रहती है । शल्य क्रिया के विकास के साथ साथ अब इस प्रकार के उलट पुलट होने के समाचार संसार के कोने कोने से मिलते रहते हैं । अमुक नर नारी बन गया । और नारी ने नर के रूप में अपना गृहस्थ नये ढंग से चलाना आरम्भ कर दिया ।
दोनों में एक तत्व प्रधान रहने से ढर्रा तो चलता रहता है, पर एकांगी पर बना रहता है ।
नारी कोमलता, सहृदयता, कलाकारिता जैसे भावात्मक तत्व का नर में जितना अभाव होगा । उतना ही वह कठोर, नीरस, निष्ठुर रहेगा । और अपनी बलिष्ठता, मनस्विता के पक्ष के सहारे क्रूर, कर्कश बन कर अपने और दूसरों के लिए अशान्ति ही उत्पन्न करता रहेगा ।
नारी में पौरुष का अभाव रहा । तो वह आत्महीनता की ग्रन्थियों से ग्रसित अनावश्यक संकोच में डूबी, कठपुतली या गुड़िया बनकर रह जायेगी । आवश्यकता इस बात की है कि दोनों ही पक्षों में सन्तुलित मात्रा रयि और प्राण के तत्व बने रहें । कोई पूर्णतः एकांगी बनकर न रह जाय । जिस प्रकार बाह्य जीवन में नर नारी सहयोगी की आवश्यकता रहती है । उसी प्रकार अन्तःक्षेत्र में भी दोनों तत्वों का समुचित विकास होना चाहिए । तभी एक पूर्ण व्यक्तित्व का विकास सम्भव हो सकेगा ।
कुण्डलिनी जागरण से उभय-पक्षीय विकास की पृष्ठभूमि बनती है । मूलाधार चक्र में कामशक्ति को स्फूर्ति, उमंग एवं सरसता का स्थान माना गया है । इसलिए उसे काम संस्थान कहते हैं । जहाँ तहाँ उसे योनि संज्ञा भी दी गई है । नामकरण जननेन्द्रिय के आकार के आधार पर नहीं । उस केन्द्र में सन्निहित रयि शक्ति को ध्यान में रखकर किया गया है ।
आधाराख्ये गुदास्थाने पंकजू च चतुर्दलम ।
तन्मध्ये प्रोच्यते योनिः कामाख्या सिद्धवंदिता । - गोरक्षा पद्धति
गुदा के समीप मूलाधार कमल के मध्य योनि है । उस कामाख्या पीठ कहते हैं । सिद्ध योगी इसकी उपासना करते हैं ।
अपाने मूल कन्दाख्यं कामरुपं च तज्जगुः ।
तदेव वहिन कुण्डंस्यात तत्व कुण्डलिनी तथा । - योग राजोपनिषद
मूलाधार चक्र में कन्द है । उसे कामरूप कामबीज अग्निकुण्ड कहते हैं । यही कुण्डलिनी का स्थान है ।
देवी हयेकाऽग्र आसीत । सैव जगदण्डमसृजत ।
कामकलेति विज्ञायते श्रृंगारकलेति विज्ञायतें । - वृहवृचोपनिषद 1
उसी दिव्यशक्ति से यह जगत मंडल सृजा । वह उस सृजन से पूर्व भी थी वही कामकला है । सौंदर्य
कला भी उसी को कहते हैं ।
यतद्गुहयामिति प्रोक्तं देवयोनिस्तु सोच्यतें ।
अस्याँ यो जायते वहिः स कल्याण प्रदुच्यतें । - कात्यान स्मृति
गुहम स्थान में देव योनि है । उससे जो अग्नि उत्पन्न होती है । उसे परम कल्याणकारिणी समझना चाहिए ।
आधारं प्रथम चक्रं स्वाधिष्ठानं द्वितीयकम ।
योनित स्थानं द्वयोर्मघ्ये काम रुपं निगद्यते । - गोरथ पद्धति
पहला चक्र मूलाधार है । दूसरा स्वाधिष्ठान । दोनों के मध्य योनि स्थान है । उसे कामरूप भी कहते हैं ।
कामी कलां काम रुपां चिक्रित्वा ।
नरो जायते काम रुपश्व कामः । - त्रिपुरोपनिषद
यह महाशक्ति कामरूप है । उसे कामकला भी कहते हैं । जो उसकी उपासना करता है । सो कामरूप हो जाता है । उसकी कामनाएँ फलवती होती है । सहस्रार को कुण्डलिनी विज्ञान में महालिंग की संज्ञा दी गई है । यहाँ भी जननेन्द्रिय आकार को नहीं वरन उस केन्द्र में सन्निहित प्राण पौरुष का ही संकेत है ।
तत्रस्थितो महालिंग स्वयं भुः सर्वदा सुखी ।
अधोमुखः क्रियावांक्ष्य काम बीजो न चलितः । - काली कुलामृत
ब्रह्मरंध्र में वह महालिंग अवस्थित है । वह स्वयं भू और स्वरूप है । इसका मुख नीचे की और है । वह निरन्तर क्रियाशील है । कामबीज द्वारा उत्तेजित होता है ।
स्वयंभु लिंग तन्मध्ये संरंध्र परिश्मावलम ।
ध्यायेश्व परमेशक्ति शिवं श्यामल सुन्दरम । - शाक्तानन्द तरंगिणी
ब्रह्मरंध्र के मध्य स्वयंभू महालिंग है । इसका मुख नीचे की ओर है । वह श्यामल और सुन्दर है । उसका ध्यान करें । कामबीज और ज्ञानबीज के मिलने से जो आनन्दमयी परम कल्याणकारी भूमिका बनती है । उसमें मूलाधार और सहस्रार का मिलन संयोग ही आधार माना गया है । इसी मिलाप को साधना की सिद्धि कहा गया है । इस स्थिति को दिव्य मैथुन की संज्ञा भी दी गई है ।
सहस्त्रो परिविन्दौ कुण्डल्यां मेलनं शिवे ।
मैथुनं शयनं दिव्यं यतीनां परिकीर्तितत । - योगिनी तन्त्र
पार्वती, सहस्रार में जो कुल और कुण्डलिनी का मिलन होता है । उसी को यतियों ने दिव्य मैथुन कहा है ।
पर शक्त्यात्म मिथुन संयोगानन्द निर्गराः ।
मुक्तात्म मिथुनंतत स्त्यादितर स्त्री निवेषकाः । - तन्त्रसार
आत्मा को परमात्मा को प्रगाढ़ आलिंगन में आबद्ध करके परम रस का आस्वादन करना ही यही यतियों का मैथुन है ।
सुषम्नाशक्ति सुदृष्टा जीवोऽयंतु परः शिवः ।
तयोस्तु संगमे देवैः सुरतं नाम कीतितम । - तन्त्रसार
सुषुम्ना शक्ति और ब्रह्मरंध्र शिव है । दोनों के समागम को मैथुन कहते हैं । यह संयोग आत्मा और परमात्मा के मिलन एकाकार की स्थिति भी उत्पन्न करता है । जीव को योनि और ब्रह्म को वीर्य संज्ञा देकर उनका संयोग भी परमानन्ददायक कहा गया है -
एष बीजी भवान वीज महंयोनिः सनातनः । - वायु पुराण
जीव ने ब्रह्म से कहा - आप बीज है । मैं योनि हूँ । यही क्रम सनातन से चला आ रहा है ।
शिव और शक्ति के संयोग का रूपक भी इस संदर्भ में दिया जाता है । शक्ति को रज और शिव को बिन्दु की उपमा दी गई है । दोनों के मिलन के महत्वपूर्ण सत्परिणाम बताये गये है ।
विन्दुः शिवो रजः शक्ति श्चन्द्रोविन्दु रजोरविः ।
अनयोः संगमा देव प्राप्यते परमं पदम । - गोरक्ष पद्धति
बिन्दु शिव और रज शक्ति । यही सूर्य, चन्द्र हैं । इनका संयोग होने पर परम पद प्राप्त होता है।
बिन्दुः शिवो रजः शक्तिभयोर्मिलनात स्वयम । - शिव संहिता 1।100
बिन्दु शिव रूप और रज शक्ति रूप है । दोनों का मिलन स्वयं महाशक्ति का सृजन है ।
योनि वेदी उमादेवी लिंग पीठ महेश्वर । - लिंग पुराण
योनि वेदी उमा है और लिंग पीठ महेश्वर ।
जतवेदाः स्वयं रुद्रः स्वाहा शर्वार्धकायिनी ।
पुरुषाख्यो मुनः शभुः शतरुपा शिवप्रिया । - लिंग पुराण
जातवेदा अग्नि स्वयं रुद्र है । और स्वाहा अग्नि वे महाशक्ति हैं । उत्पादक परम पुरुष शिव है । और श्रेष्ठ उत्पादनकर्ती शतरूपा एवं शिवा है ।
अहं बिन्दू रजः शक्तिरुभयोर्मेलनं यदा ।
योगिनाँ साधनावस्था भवेदिव्यं व पुस्तदा । शिव संहिता 4। 87
शिवरूपी बिन्दु, शक्तिरूपी रज इन दोनों का मिलन होने से योग साधक को दिव्यता प्राप्त होती हैं ।
ब्रह्म का प्रत्यक्ष रूप प्रकृति और अप्रत्यक्ष भाग पुरुष है । दोनों के मिलने से ही द्वैत का अद्वैत में विलय होता है । शरीरगत दो चेतन धाराएँ रयि और प्राण कहलाती है । इनके मिलन संयोग से सामान्य प्राणियों को उस विषयानन्द की प्राप्ति होती है ।
जिसे प्रत्यक्ष जगत की सर्वोपरि सुखद अनुभूति कहा जाता है । ऋण और धन विद्युत घटकों के
मिलन से चिनगारियाँ निकलती और शक्तिधारा बहती है । पूरक घटकों की दूरी समाप्त होने पर सरसता और सशक्तता की अनुभूति प्रायः होती रहती है ।
चेतना के उच्चस्तरीय घटक मूलाधार और सहस्रार के रूप में विलग पड़े रहें । तभी तक अन्धकार की नीरस गतिहीनता की स्थिति रहेगी । मिलन का प्रतिफल सम्पदाओं और विभूतियों के ऋद्धि और सिद्धि के रूप में सहज ही देखा जा सकता है । इन उपलब्धियों की अनुभूति में आत्म परमात्मा का मिलन होता है । और उसकी सम्वेदना ब्रहमानन्द के रूप में होती है । इस आनन्द को विषयानन्द से असंख्य गुने उच्चस्तर का माना गया है ।
शिव पार्वती विवाह का प्रतिफल दो पुत्रों के रूप में उपस्थित हुआ था । एक का नाम गणेश, दूसरे
का कार्तिकेय । गणेश को प्रज्ञा का देवता माना गया हैं और स्कन्द को शक्ति का । दुर्दान्त, दस्यु, असुरों को निरस्त करने के लिए कार्तिकेय का अवतरण हुआ था । उनके इस पराक्रम ने संत्रस्त देव समाज का परित्राण किया ।
गणेश ने माँस पिण्ड मनुष्य को सदज्ञान, अनुदान देकर उसे सृष्टि का मुकुटमणि बनाया । दोनों ब्रह्मकुमार शिवशक्ति के समन्वय के प्रतिफल है । शक्ति कुण्डलिनी, शिव सहस्रार दोनों का संयोग कुण्डलिनी जागरण कहलाता है ।
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साभार ।
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