कर्म प्रधान विश्व रच राखा । जो जस करे सो तस फ़ल चाखा ।
कबीर गर्ब न कीजिये । इस जीवन की आस । टेसू फूला दिवस दस । खंखर भया पलास ।
कोऊ न काहू सुख दुख कर दाता । निज कर कर्म भोग सब भ्राता ।
कबीर धूल सकेलि के । पुड़ी जो बांधी येह । दिवस चार का पेखना । अन्त खेह की खेह ।
जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी ।
कबीर यह तन जात है । सके तो ठोर लगाव । के सेवा कर साधु की । के गुरु के गुन गाव ।
सियाराम मय सब जग जानी । करहुँ प्रनाम जोरि जुग पानी ।
आछे दिन पाछे गये । गुरु सों किया न हेत । अब पछतावा क्या करे । चिड़िया चुग गई खेत ।
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना । सत हरि नाम जगत सब सपना ।
जो ऊग्या सो आंथवै । फूला सो कुमिलाइ । जो चङया सो ढह पडे । जो आया सो जाइ ।
बङे भाग मानस तन पावा । सुर दुर्लभ सब सन्तन गावा ।
कबीर तन पंछी भया । जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय । जो जैसी संगति करे । सो तैसे फल खाइ ।
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा । जेहि ना पाय परलोक सुधारा ।
मनह मनोरथ छांड़िये । तेरा किया न होइ । पानी में घीव नीकसे । तो रूखा खाइ न कोइ ।
जपहिं नामु जन आरत भारी । मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी ।
दुर्लभ मानुष जनम है । देह न बारम्बार । तरुवर ज्यों पत्ती झड़े । बहुरि न लागे डार ।
नाना भाँति राम अवतारा । रामायन सत कोटि अपारा ।
आए हैं सो जांएगे । राजा रंक फकीर । एक सिंहासन चढ़ि चले । एक बांधि जंजीर ।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी । चेतन अमल सहज सुख राशी ।
कबीरा गरब न कीजिए । कबहू न हंसिये कोय । अजहू नाव समुद्र में । ना जाने का होय ।
यह माया वस भयउ गुंसाई । बंध्यों कीट मरकट की नाईं ।
करता था सो क्यों किया । अब कर क्यों पछिताय । बोया पेड़ बबूल का । आम कहाँ से खाय ।
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