27 अप्रैल 2012

राजीव जी ! इतना झूठ मत बोलो

राजीव जी ! आपने " वैवाहिक जीवन समस्या सहायता : के ब्लाग में एक बार फ़िर छींटाकशी रामकृष्ण जी के काली उपासना पर करके अपनी पंथ दुराग्रहता उजागर कर दी दादा ! इतना झूठ मत बोलो । रामकृष्ण जी का पूरा वांगमय साहित्य पढो । अपने जीवन के अन्त काल तक वे काली माँ के अनन्य उपासक थे । स्वामी विवेकानन्द जी को माँ काली से मानने को कहा । तब विवेकानन्द जी अपनी पर्सनल बात भूलकर शक्ति  भक्ति भटके लोगों को ज्ञान द्वारा सही रास्ते पर लाने का आशीर्वाद माँगा । काली माँ की कृपा से विवेकानन्द जी जगत वन्दनीय बन गये । तोता पुरी जी ने उन्हें वेदान्त ज्ञान दिया था । राजीव जी ! ऐसी बेहूदी छींटाकशी से आप हमारी नजरों से गिर जाओगे । रोमन में लिखा हमारे एक नियमित पाठक का पत्र ।
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इससे पहले कि मैं इस शंका का कोई जबाब दे पाता । आपने आचार्य ( शब्द पर विशेष ध्यान दें । इसके अर्थ पर भी विशेष गौर करें ) श्रीराम शर्मा के बारे में यह ( मगर एकदम झूठी ) जानकारी देकर मुझे बेहद हैरत में डाल दिया । आपसे किसने कहा । ये झूठ ? या उन्होंने खुद किसी पुस्तक में लिखा ऐसा झूठ । महा झूठ । या किसी प्रचार षडयंत्र के तहत फ़ैलाया गया ये झूठ ।

देखिये ये महा झूठ - मेरे गुरुदेव पं.श्रीराम शर्मा जी आगरा के आंवलखेङा के जाये जन्में  " Light of india " से नवाजे गये । और उनका अब से पहले तीसरा - जन्म सन्त कबीर । दूसरे में सन्त रामदास जी । और बाद में रामकृष्ण परमहँस के रूप में आये थे । जिन्होंने  3200 पुस्तकें बिज्ञान और अध्यात्म पर लिखी ।

पर क्या आप जानते हैं - कबीर का आज तक कभी जन्म ही नहीं हुआ । यह सचखण्ड की प्रतिनिधि आत्मा हमेशा प्रकट होती है । और कोई 1 खास आत्मा ही इस नाम से नहीं आती । इस उपाधि योग्य कोई भी आत्मा भेजी जा सकती है ।
रामदास और रामकृष्ण इसी 5 भूत के मल मूत्र शरीर के साथ जन्में थे । और बाद में अपने पूर्व जन्मों के पुण्य फ़ल आधार पर आत्म ज्ञान को प्राप्त हुये । इसके बाद इनका भी लिंग योनि संयोगी जन्म होना नियम अनुसार बन्द हो गया । फ़िर कैसे हो सकता है । इनका श्रीराम शर्मा जैसा ? demotion full जन्म ।
युग ऋषि । वेद मूर्ति । तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य । आप  खुद देखिये । इस परिचय में कहीं सन्त लिखा है ? आत्म ज्ञानी लिखा है ? और ये स्वीकार करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं । ये परिचय एकदम सही लिखा है । अब देखिये । श्री राम शर्मा का एकमात्र ज्ञान आधार ।
- ॐ भूर्भुव स्वः । तत सवितुर्वरेण्यं । भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात ।
अर्थ - उस प्राण स्वरूप । दुख नाशक । सुख स्वरूप । श्रेष्ठ । तेजस्वी । पाप नाशक । देव स्वरूप ? परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें ? वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे ।

और ये भी देखें - गायत्री वेद माता हैं ( ध्यान दें ) एवं मानव मात्र का पाप नाश करने की शक्ति उनमें है । इससे अधिक पवित्र करने वाला ? और कोई मंत्र स्वर्ग और पृथ्वी पर नहीं है ??
और ये भी - 3 माला गायत्री मंत्र का जप ? आवश्यक माना गया है । शौच स्नान से निवृत्त होकर नियत स्थान । नियत समय पर । सुखासन में बैठकर नित्य गायत्री उपासना की जानी चाहिये ।
अब सुनिये । आपके गुरु श्रीराम शर्मा अपने पूर्व कबीर जन्म में क्या कहते हैं - माला फ़ेरत जुग भया । फ़िरा न मन का फ़ेर । कर का मनका डार दे । मन 


का मनका फ़ेर । और भी देखिये - माला तो कर में फ़िरे । जीभ फ़िरे मुख मांहि । मनुआँ तो चहुँ दिस फ़िरे । ये तो सुमिरन नाहिं । फ़िर ऐसा कैसे हो गया कि - ये कबीर ?? कर माला फ़ेरने की बात करने लगे । ये 3
माला तो मैंने सिर्फ़ उदाहरण के लिये लिखी हैं । नीचे का लिंक देखें । पूरी माला सिन्हा ही फ़ेरने की बात कही है । जबकि कबीर ढाई अक्षर ? मुश्किल से जानते थे । वो भी । कहते थे - परमात्मा को मालूम है । मनुष्य बङा आलसी है ।  ढाई अक्षर ? भी भक्ति के लिये नहीं बोलेगा । तो परमात्मा ने ये आडियो फ़ाइल कन्टीन्यू प्ले आपके स्वांस में कर दी । बस सुन लो भाई ।
गायत्री माला ? की विस्त्रत जानकारी कृपया यहाँ भी देखें । इसी लाइन पर या नीचे लिंक पर क्लिक करें ।
http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80
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अब आईये । इस लेख के बिन्दुओं पर । लेकिन इससे पहले संसार में फ़ैले कुछ और भी झूठ देखें ।
1 झूठ - रामकृष्ण परमहंस के विषय में कहा जाता है कि - वे जिस काली मंदिर के पुजारी थे । वहाँ की काली की मूर्ति साक्षात प्रकट होकर परमहंस के हाथों से भोजन ग्रहण करती थीं । और उनसे बातचीत भी करती थी । इस चमत्कार के पीछे अटूट श्रृद्धा थी ।


सत्य - इस तरह कोई देवी देवता प्रकट नहीं होता । बल्कि वह ध्यान अवस्था होती है । स्थूल रूप से शरीरी प्रकट होना । कुछ विशेष कारणों से होता है । जबकि उस शरीर द्वारा कोई कार्य करते हुये संसार को कोई संदेश देना हो । जैसे नर सिंह अवतार हुआ ।
2 झूठ - दशहरे का पर्व था । गाँव के मंदिर के साधु बृह्म मुहूर्त में ही स्नान करने के लिये घर से निकले । रैदास की झोंपड़ी से गुजरते समय उन्होंने रैदास से पूछा - आज दशहरा है । स्नान करने नहीं चलोगे क्या ? रैदास ने प्रणाम ? करते हुए कहा कि - गंगा स्नान करना शायद मेरी किस्मत में नहीं है ? क्योंकि मुझे आज ही ग्राहक के जूते बनाकर देना है भाई । साधु से प्रार्थना ? करते हुए रैदास बोले कि - महाराज यह सिक्का लेते जाईये । मेरी तरफ से इसे गंगा माँ ?? को भेंट चढ़ा देना ।
सिक्का लेकर साधु चल दिये । पूजा 


पाठ और स्नान करके वापस लौटने लगे । भक्ति भाव में ऐसे डूबे कि - यह भूल ही गए कि रैदास ने गंगा के लिये भेंट भेजी थी । साधु तो रैदास की बात भूल कर चल दिये । लेकिन पीछे से स्त्री की सी कोई दिव्य आवाज आई - रुको । पुत्र रैदास ? द्वारा मेरे लिये भेजा गया उपहार तो देते जाओ । और एक दिव्य स्त्री मूर्ति के रूप में गंगा प्रकट हो गईं ।
सत्य - ये गंगा माँ ?? दरअसल देव आदि लोकों में विचरने वाली एक चुलबुली देवताओं ऋषियों का मनोरंजन करने वाली देवी है । जो एक श्राप और और अन्य कारणों वश सिर्फ़ 5000 वर्ष के लिये प्रथ्वी पर आयी थी । और कुछ ही दिनों पहले इसका समय खत्म हो गया । और ये प्रथ्वी से चली गयी । क्योंकि ये आन लगी मान्यता लेकर आयी थी । इसलिये विभिन्न कर्मकाण्डों में इसके बारे में प्रचलित आंशिक बातें सत्य है ।
- रैदास जैसे उच्च स्तरीय सन्त गंगा जमुना से माँ कभी नहीं कहते । और गंगा की तो हिम्मत ही क्या । 


जो उन्हें - पुत्र कहे । लेकिन ये घटना बदले रूप में सत्य है । रैदास ने सिक्का प्रसाद के लिये दिया था । लेकिन स्पेशली उस साधु का अभिमान चूर चूर करने के लिये । उन्होंने कहा था कि - गंगा को बोलना । ये रैदास ने भेजा है । उस साधु ने ऐसा ही किया । तब गंगा की जलधार में गंगा का सिर्फ़ हाथ प्रकट हुआ । उसने प्रसाद को बेहद श्रद्धा से लिया । फ़िर एक दिव्य कंगन उस साधु को देकर बोली -  ये मेरी तरफ़ से प्रभु को भेंट देना । ये पूरी जानकारी विस्तार से जानने के लिये मेरा लेख - गंगा का दिव्य कंगन । गूगल में सर्च कर मेरे किसी ब्लाग में पढें । क्योंकि कहाँ पोस्ट है ? याद नहीं । इसी रोचक सत्य घटनाकृम से - मन चंगा तो कठौते में गंगा । कहावत प्रचलित हुयी ।
3 झूठ - हनुमान का लंका मुद्रिका द्वारा जाना - कहते हैं । हनुमान पहली बार लंका जाने हेतु समुद्र पर उङे थे । 


तो उन्होंने राम द्वारा दी अंगूठी मुँह में रख ली । उससे उङ गये । 
सत्य - चलो मान लिया । उसी अंगूठी से उङ गये । फ़िर वापस कैसे आये ? अंगूठी तो सीता को दे आये थे । और अंगूठी से उङकर जा सकते थे । तो फ़िर समुद्र पार करने के लिये जो चिंता युक्त विचार मंथन पूरी टीम में हुआ । उसकी क्या वजह थी ? बाद में भी उनकी फ़्लायट जगह जगह उङती ही रही । वो कैसे उङी ?
उत्तर - ज्ञान की सिद्ध मुद्रिका द्वारा । ये मुद्रिका मुख के अन्दर तालु वाले स्थान पर होती है । और वहाँ निरंतर जीभ लगाने और संबन्धित योग द्वारा सिद्ध होती है । सिर्फ़ हनुमान नहीं । बहुत लोगों को सिद्ध हो जाती है । हुयी है ।
4 झूठ - तुलसी क्या राम के भक्त थे ? 
सत्य - तुलसी के पहले गुरु द्वैत मार्गी थे । तब उन्होंने अवतार राम की भक्ति की । पर उन्हें शान्ति नहीं मिली । तब फ़िर उन्हें आत्म ज्ञान के दूसरे सन्त 


मिले । और उन्होंने सत्य नाम को जाना । प्रसिद्ध रामचरित मानस । 2 बातें कहता है । 1 अवतार राम की कथा । जो वास्तव में प्रतीक रूप भी है । 2 सत्य नाम महिमा । देखें - बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड । खुद अवतार राम ने इसी नाम की चर्चा की है । और शंकर आदि सबने इसी को परम सत्य बताया है ।
5 झूठ - मीरा क्या श्रीकृष्ण की भक्त थी ?
सत्य - मीरा बिलकुल बालपन में माँ के कहने से श्रीकृष्ण को अपना पति मान बैठी थी । लेकिन लगभग 16 वर्ष की ही अवस्था में उन्होंने रैदास से सत्य नाम की हँस दीक्षा ले ली थी । और इसी नाम का सुमरन करती थी ।
6 झूठ - जङ भरत की बलि देते हुये काली प्रकट हो गयी । और उन्हें बचा लिया ।
सत्य - इस अदभुत घटनाकृम में अज्ञानी लोग काली को महिमा मण्डित करने के लिये इतनी ही बात कहकर छोङ देते हैं । काली की चापलूसी का 


और भी नमक मिर्च जोङ देते हैं । 
सत्य - ये है कि - राजा के ऐसा करते ही बलि की खास शौकीन काली थर थर कांपने लगी । और उसने बलि से पहले ही हाथ पकङ लिया । और बोली - मूर्ख राजा ! तू ये क्या कर रहा है ? ये महान आत्मा हैं । मैं सीधी रसातल ( सबसे खतरनाक सजा की जगह ) में फ़ेंक दी जाऊँगी । और तेरा तो सोच भी नहीं सकती । क्या अंजाम होगा । ये घटना भी मेरे लेख - मूर्ख राजा ! तू ये क्या कर रहा है ? को गूगल द्वारा सर्च कर मेरे किसी  ब्लाग में पढें ।
इस तरह झूठ बहुत से हैं । पर अब आपके मूल बिन्दु पर बात करते हैं । और आपको विवेकानन्द की असलियत बताते हैं । विवेकानन्द ने 


रामकृष्ण द्वारा बहुत जल्दी सहज समाधि को सीख लिया था । और वे जान गये कि - ये मूर्ति पूजा आदि ढोंग सब व्यर्थ है । रामकृष्ण का एक और शिष्य कालू मूर्ति पूजक था । विवेकानन्द अभी कच्चे खिलाङी ही थे कि - समाधि पावर का दुरुपयोग करने लगे । विवेकानन्द ने समाधि में संकल्प करते हुये कालू का मूर्ति पूजा से ध्यान हटाया । शक्ति के वशीभूत कालू शालिगराम आदि पत्थरों को नदी में फ़ेंकने लगा । संयोगवश रामकृष्ण उसे ऐसा करते हुये देख रहे थे । उन्होंने सोचा - क्या मामला है । ये तो घोर मूर्ति पूजक है । फ़िर आज विपरीत विरोधी कैसे हो गया ? उन्होंने ध्यान

किया । तो विवेकानन्द की हरकत पता लगी । उन्होंने विवेकानन्द की समाधि  उसी दिन से रोक दी । और कहा - अब समाधि तुम्हें जीवन के अन्तिम दिनों में आयेगी । तब तक तुम्हें प्रचारक की भूमिका निभानी होगी ।
अब आपके सबसे खास बिन्दु पर बात करते हैं । दरअसल आपको जो पता है । और लोगों को जो पता है । भले ही वह आधा ही सही । पर खास कारण वश सत्य ही है । क्या है । वह कारण ?
द्वैत भक्ति और देवी देवता और कर्मकाण्ड विभिन्न जाति धर्मों में पैदा होते ही हरेक बच्चे को घुट्टी की तरह पिलाना शुरू हो जाते हैं । जबकि आत्म ज्ञान के जानकार । या परिवार । या संस्कार नगण्य ही होते हैं । इसलिये चाहे वह मीरा हों । रामकृष्ण हों । तुलसी हों । विवेकानन्द हों । इन्होंने लोगों की दृढ आस्था को ध्यान में रखते हुये । उनके भी भावों को महत्व सम्मान दिया । और दूसरा एक महत्वपूर्ण कारण और भी था । उदाहरण - जैसे बंगाल में काली पूजा का

बहुत जोर है । अभी तक है । रामकृष्ण ये बात अच्छी तरह जानते थे । और उनकी शुरूआत ही काली से हुयी थी । तब बाद में यकायक वे ये कहने लगते कि - नहीं । अब मैं सत्य नाम का साधक भक्त हूँ ।  और काली  इस तुलना में कोई महत्व ही नहीं रखती । असली सत्य और मोक्ष दाता सिर्फ़ सतनाम ही है । तो हंगामा ही हो जाता । रामकृष्ण को जबाब देना मुश्किल हो जाता । इसलिये इन सभी लोगों ने बङी चालाकी से काम लिया । घोर द्वैत वालों को द्वैत द्वारा साधते रहे । और योग्य पात्रों को ही ये गूढ ज्ञान बताया । अतः दोनों बातों का प्रचलित होना कुछ गलत भी नहीं है । आत्म ज्ञान वाले आत्म ज्ञान पक्ष को जानते हैं । और द्वैत वाले द्वैत पक्ष को । लेकिन बढा चढा कर भृमित कर देने वाली बातें दोनों ही किस्म के लोगों ने प्रचारित की । क्योंकि बाद के लोग सच्चे नहीं होते । वे सिर्फ़ उस व्यापार ? से धन और ऐशो आराम जुटाते हैं । ठीक यही सिद्धांत सभी के लिये लागू होता है ।
क्या आप जानते हैं - बुद्ध के नाम पर आज जो दुनियाँ भर में बौद्ध धर्म के मानने वाले लोगों को बताया जा रहा है । बुद्ध ने वह सब दूर दूर तक नहीं कहा था । आज इतना ही । साहेब ।

25 अप्रैल 2012

योगी घटना होने से पहले कैसे जान लेता है ?

गुरूजी प्रणाम ! मैं यह जानना चाहता हूँ कि - क्या कोई सिद्ध पुरुष सटीक भविष्यवाणी कर सकता है ? और क्या भविष्य पहले से तय होता है । अगर कोई पहले ही भविष्य बता देता है । मतलब कि भविष्य पहले से तय है । और वैसे भी परमात्मा तो सब जानता ही है । भूत । वर्तमान और भविष्य । तो मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि - क्या सब कुछ पहले से ही तय होता है क्या ? और योगी कैसे घटना के होने से पहले जान लेता है ? घटना के बारे में । कृपया मेल पर ही जवाब देने का कष्ट करें । धन्यवाद ।
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- सबसे पहले तो मैं ये बता दूँ कि - व्यक्तिगत तौर पर उत्तर देना मेरे लिये संभव नहीं है । हाँ आप चाहते हैं कि आपका परिचय प्रकाशित न किया जाये । तो वैसा जिक्र कर देने पर परिचय

प्रकाशित नहीं किया जाता । एक पूर्ण लाभदायक और बङे सन्तुष्टिजनक उत्तर में लगभग 2-3 घण्टे का समय लग जाता है । फ़िर उस उत्तर से किसी 1 व्यक्ति को ही लाभ पहुँचें । इससे कोई फ़ायदा नजर नहीं आता । मेरे विभिन्न पाठकों द्वारा समय समय पर अनेक प्रकार के विषयों पर प्रश्न पूछे गये । कालांतर में जिनके उत्तर पढकर हजारों उन लोगों को फ़ायदा हुआ । जिनके मन में भी यही  ( या इस प्रकार का ) प्रश्न था । पर पूछ नहीं पाये थे । तब उन्हें बिना पूछे ही उत्तर मिल गया ।  इसके अतिरिक्त तमाम नये लोग । जो ऐसे विषय को सोच भी नहीं पाते । उनके भी ज्ञान में वृद्धि हुयी । और 


आध्यात्म के प्रति उनकी  रुचि बढी । अतः आप समझ सकते हैं कि सार्वजनिक रूप से उत्तर देना कितना लाभकारी है । अक्सर मैंने भी पूरी ईमानदारी से स्वीकार किया है कि - आपके प्रश्न भी मेरे लिये एक गूढ विषय पर अच्छा बहुउपयोगी दीर्घकालिक लेख तैयार करने में मदद करते हैं ।
अब आईये । आपकी जिज्ञासा पर बात करते हैं ।
क्या कोई सिद्ध पुरुष सटीक भविष्यवाणी कर सकता है - सबसे पहले तो ये समझिये कि भविष्यवाणी और सिद्ध पुरुष दोनों का स्तर होता है । सिद्ध पुरुष की ऊँचाई क्या है ? भविष्यवाणी की भी ऊँचाई क्या है ? ये बात खासी महत्वपूर्ण है । जैसे आपने एक बहुचर्चित शब्द त्रिकालदर्शी सुना होगा । यानी भूत भविष्य वर्तमान

तीनों काल की जानने वाला । लेकिन थोङा गौर करें । तो इसी त्रिकालदर्शी शब्द में घटनाओं और भविष्य वक्ता के कई स्तर हो जाते हैं । एक व्यक्ति का भी त्रिकाल यानी भूत भविष्य वर्तमान होता है । और उसको बताने वाला भी । कोई अच्छे स्तर का आंतरिक पहुँच वाला ज्योतिषी । या हस्तरेखा आदि बिज्ञान जानने वाला । पर एक देश या विश्व के स्तर पर बात करने पर स्तर में एकाएक बहुत वृद्धि हो जाती है । इसको बताने वाला ज्ञानी अपने ज्ञान % में अधिक ऊँचाई पर होगा । माया कलेण्डर बनाने वाले । नास्त्रेदेमस । सूरदास । तुलसीदास आदि तमाम लोगों ने बहुत आगे तक के बारे में बताया ।
फ़िर दैवीय घटनाओं की बात पूर्व में ही करने वाला । उससे  बहुत अधिक उच्च स्तर का होगा । इसी तरह और ऊपर । और कोई क्षेत्र विशेष के आधार पर भी सिद्ध और भविष्यवक्ता होते हैं । अतः कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है । उस भविष्य वक्ता का ज्ञान स्तर क्या है ? और कैसा है ? वह उसी स्तर पर

सटीक भविष्यवाणी कर सकता है । बाकी भविष्यवाणी और पूर्व समय का हाल आदि सृष्टि से लेकर । आगामी कई महा प्रलय तक बताने वाले अक्सर होते रहे हैं । पर आम लोग उन्हें नहीं जान पाते ।
भविष्यवाणी के धूर्तता पूर्ण उदाहरण में - जैसे अभी अभी 3rd eye को लेकर कृपा करने वाला विवादित इंसान था । अब इसमें सच्चाई क्या है ? कर्ण पिशाचिनी जैसी आसानी से सिद्ध हो जाने वाली कुछ नीच देवियाँ । ये लोग सिद्ध कर लेते हैं । इनकी क्षमता और कार्य तरीका ये होता है कि - ये प्रश्नकर्ता के दिमाग से बातें पढकर अपने सिद्ध के कान में आवाज के रूप में अदृश्य ही बता देती हैं । फ़िर जब वह सिद्ध आपसे सम्बन्धित हो चुकी बातें । बिना पूछे ही बताता है । तो आप आश्चर्य चकित होकर उसको बङा महात्मा सिद्ध पुरुष मान लेते हो । तब ऐसा नीच सिद्ध

पुरुष अपने स्वभाव अनुसार ये चालाकी करता है कि - आपको भविष्य मनमाने तरीके से अन्दाजन बता देता है । क्योंकि इन नीच देवियों में ये शक्ति नहीं होती कि भविष्य के बारे में कुछ जानती हों । बाकी लगातार भूत होते वर्तमान में अच्छा बुरा सबके साथ घटित होना ही है । अतः इनकी दुकान आराम से चलती है । जिनको अपनी किस्मत और संस्कार वश ही फ़ायदा हो जाता है । वे मूर्ख भी पागलपन में आकर इनकी जय जयकार करते हैं । और जिनका नहीं होता । वे उदासीन हो जाते हैं । परन्तु फ़िर भी इसी अनुपात के अनुसार भी इनके मूर्ख भेङ भक्तों की संख्या में लगातार वृद्धि होती रहती है ।
क्या भविष्य पहले से तय होता है - दो बातें हैं । कुछ तय होता है । कुछ इंसान द्वारा बनाया बिगाङा जाता है । क्योंकि मनुष्य जन्म कर्म प्रधान है ।


कर्म प्रधान विश्व रच राखा । जो जस करे सो तस फ़ल चाखा । कर्म फ़ल या अच्छा बुरा भाग्य 3 प्रकार का होता है । 1 संचित ( आदि सृष्टि से अब तक के जन्म में आपके  द्वारा भोगने के बाद शेष बचा कर्म फ़ल ।  जो संस्कार आदि के रूप में जमा होता है । ये बहुत बङी मात्रा में है । क्योंकि आपके लाखों करोङों जन्म हो चुके हैं । ये आपके अंतःकरण रूपी मेमोरी में स्टोर होता है । ) 2 प्रारब्ध ( आपके अब तक के सभी संचित कर्मफ़ल में से इससे पिछले मनुष्य जन्म ( लेकिन बीच में 84 नरक आदि भी निश्चित भोगने के बाद ) के अच्छा बुरा सार रूप निचोङ के आधार पर इस जन्म का प्रारब्ध यानी भाग्य । मिली आयु ( लगभग 100 वर्ष औसत ) के आधार पर क्रियान्वित कर दिया जाता है । इस बहुत थोङे से भाग्य को प्रारब्ध कहा जाता है । यह पूर्व तय ही होता है । ) 3 क्रियमाण ( इसी प्रारब्ध रूपी भाग्य धन के साथ आप आगे के कर्मों से उत्थान या पतन क्या करते हैं ? उसको क्रियमाण कहते हैं । )
उदाहरण - कोई पिता अपने पुत्र को स्थापित और समृद्धि युक्त व्यापार विरासत में देता है । पुत्र उसको बढा भी

सकता है । बरबाद भी कर सकता है । विरासत में मिला व्यापार प्रारब्ध । और आगे की उसकी  गति क्रियमाण कही जाती है ।
उदाहरण - एक बाप अपने बेटे को अच्छी शिक्षा दीक्षा के सभी कर्तव्य पूरे करता है । बाप द्वारा मिला सहयोग उसका प्रारब्ध । लेकिन आगे उसका अच्छा बुरा । बेटे का क्रियमाण ।
उदाहरण - एक बाप अपनी बेटी का विवाह अच्छे घर वर से करता है । ये है । लङकी का प्रारब्ध । आगे  वह कैसा सजाती संवारती या बिगाङ देती है । ये होगा । उसका क्रियमाण । इसलिये पूर्व का और अभी का दोनों मिलकर गति होती है । तभी मनुष्य जीवन में आत्मा के उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त कर लेने की सलाह सन्तों ने दी है । क्योंकि फ़िर ये अवसर पता नहीं कब हाथ आये ? सामान्य नियम के अनुसार वर्तमान मनुष्य जन्म के बाद । साढे 12 लाख साल की 84 लाख योनियाँ भोगकर तब दुबारा मनुष्य जन्म मिलता है । पर सतनाम की असली दीक्षा ? और सुमरन से मृत्यु के बाद अगला ही जन्म मनुष्य का होना तय हो जाता है । आगे के आत्मिक उत्थान को कृमशः जारी रखने हेतु ।


क्या सब कुछ पहले से ही तय होता है क्या - ये बात सिर्फ़ मनुष्य या 84 लाख पशु पक्षी आदि योनियों पर ही लागू नहीं होती । बल्कि देवत्व शक्तियाँ उपाधियाँ भी सृष्टि के इस विलक्षण खेल के इस नियम में आती हैं । और इस बात में सभी की स्थिति समान ही है । आप रोजमर्रा के जीवन से देखें । आपका हर दिन तय है । आफ़िस दुकान स्कूल आदि जाना है । सुबह इतने बजे उठना । बाजार जाना । इससे उससे मिलना । बहुत  कुछ तय होता है । आपको स्वयं ही पता होता है । लेकिन इसी तय कार्यकृम में कुछ अलग बातें अचानक सोच से परे घटती हैं । आपको यकायक लाभ हो जाना । हानि हो जाना । किसी बिछुङे से अचानक मिलना । और अचानक ही किसी से बिछुङ जाना । किसी का जन्म । किसी की मृत्यु आदि । अतः यहाँ भी वही बात है । कुछ तय है । कुछ अज्ञात है । कुछ आपके हाथ में है । और कुछ आपके वश से 


बिलकुल बाहर । हाँ ! 1 बात  सिर्फ़ आपके हाथ में है । अपने को सदा मजबूत रखें । और सभी आँधी तूफ़ानों का डटकर सामना करें । बाकी ये सब प्रकृति में खेल हो रहा है । जिसका पूर्ण नियंत्रण सिर्फ़ परमात्मा के ( एक तरह से ) हाथ में होता है । एक तरह से इसलिये । क्योंकि परमात्मा इस सबसे भी कोई मतलब नहीं रखता । वह सबसे परे है ।
योगी कैसे घटना के होने से पहले जान लेता है ? घटना के बारे में - जैसा कि ऊपर मैंने बताया ।  योगी किस स्तर का पहुँच वाला है । 1 आसमान तक । 2 आसमान तक । 7 आसमान तक । या और ऊपर ।  तब वह अपनी स्थिति अनुसार । उतने ही मण्डल की बात जान पायेगा । जैसे विभिन्न नौकरियों में पदासीन व्यक्ति के अधिकार और जानकारी होती है । अब इसको नीचे से आसानी से समझें ।
1 स्थूल शरीर ( सामान्य मनुष्य शरीर ) वाला । उस शरीर की क्षमता । और बौद्धिक स्तर । छठी इन्द्रिय की 


सक्रियता % के अनुसार । आसपास की घटनाओं चीजों स्थितियों का तेजी से अवलोकन कर लेता है ।
2 सूक्ष्म शरीर ( मन । बुद्धि । चित्त । अहम । यानी अंतःकरण ) में  पहुँच रखने वाला दृश्य के परदे के पार अदृश्य में सूक्ष्म शरीर की पहुँच अनुसार जान सकता है । जैसे उसको आसपास  विचरते अदृश्य देहधारी दिखाई दे सकते हैं । वे किस तरह इंसानी जीवन को प्रभावित करते हैं । यह उसे तुरन्त पता चल जायेगा । क्योंकि वो सब ठीक ऐसे ही देख रहा है । जैसे आप अभी ब्लाग देख रहे हो ।
3 कारण शरीर ( कर्म संस्कार का भण्डार ग्रह ) में पहुँच रखने वाला अपने स्तर अनुसार अपने या अन्य के जीवन में होने वाली घटनाओं का कारण जान सकता है । जैसे भीष्म पितामह में पूर्व के 100 कारण जन्म देखने की क्षमता थी । यानी वह पिछले 100 जन्म तक देख सकते थे
4 महा कारण शरीर ( कारणों का भी कारण ) प्रकृति । आसमान । बङी दैवीय घटनायें । विराट में विभिन्न सृष्टियों का होना । प्रलय होना ( जो लगभग होते ही रहते हैं ) को महा कारण शरीर में पहुँच रखने वाले योगी आसानी से जानते हैं ।
आगे और भी घनचक्कर हैं । पर वे आम लोगों के लिये नहीं हैं । इस तरह आप समझ गये होंगे । किस तरह योग आदि रहस्यों द्वारा अलौकिक जीवन को जाना जा सकता है ।

21 अप्रैल 2012

The biggest mistake is the man you think you can deceive God

Really u are sex menic otherwise  serious topic could not produce lewd scene i.e. a crazy girl  peeps into am ale's pant his penis.after all what's ur relevance here ?
Q ये उमर बिताने का ये मकसद है कि porns का taste ही हरि सुमरन है ? एक नियमित पाठक ।
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I know it's hard to start, maybe their plans have failed dozens and hundreds of times, but my dear, your past does not say what will your future, God's ways are higher than ours, handed him our dreams .The biggest mistake is the man you think you can deceive God, He who formed you, who knows everything, probe your thoughts day and night. No more lying to God, He knows what you want, but he wants to hear you say. The son's voice is heard in the song of a father, God is no different. He loves you and His Spirit cry with sighs too deep to see you suffer - natalya simmons - Sao Paulo, SP, Brazil
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उत्तर शीघ्र प्रकाशित होगा ।

15 अप्रैल 2012

कबिरा गरब न कीजिये कबहू न हंसिये कोय

कर्म प्रधान विश्व रच राखा । जो जस करे सो तस फ़ल चाखा ।
कबीर गर्ब न कीजिये ।  इस जीवन की आस । टेसू फूला दिवस दस ।  खंखर भया पलास । 
कोऊ न काहू सुख दुख कर दाता । निज कर कर्म भोग सब भ्राता ।
कबीर धूल सकेलि के ।  पुड़ी जो बांधी येह । दिवस चार का पेखना ।  अन्त खेह की खेह । 
जाकी  रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी ।
कबीर यह तन जात है ।  सके तो ठोर लगाव । के सेवा कर साधु की ।  के गुरु के गुन गाव । 
सियाराम मय सब जग जानी । करहुँ प्रनाम जोरि जुग पानी ।
आछे दिन पाछे गये ।  गुरु सों किया न हेत । अब पछतावा क्या करे ।  चिड़िया चुग गई खेत । 
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना । सत हरि नाम जगत सब सपना ।
जो ऊग्या सो आंथवै । फूला सो कुमिलाइ । जो चङया सो ढह पडे । जो आया सो जाइ ।
बङे भाग मानस तन पावा । सुर दुर्लभ सब सन्तन गावा ।
कबीर तन पंछी भया ।  जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय । जो जैसी संगति करे । सो तैसे फल खाइ । 
साधन धाम मोक्ष कर द्वारा । जेहि ना पाय परलोक सुधारा ।
मनह मनोरथ छांड़िये ।  तेरा किया न होइ । पानी में घीव नीकसे ।  तो रूखा खाइ न कोइ । 
जपहिं नामु जन आरत भारी । मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी ।
दुर्लभ मानुष जनम है । देह न बारम्बार । तरुवर ज्यों पत्ती झड़े । बहुरि न लागे डार । 
नाना भाँति राम अवतारा । रामायन सत कोटि अपारा ।
आए हैं सो जांएगे । राजा रंक फकीर । एक सिंहासन चढ़ि चले । एक बांधि जंजीर । 
ईश्वर अंश जीव अविनाशी । चेतन अमल सहज सुख राशी ।
कबीरा गरब न कीजिए । कबहू न हंसिये कोय । अजहू नाव समुद्र में । ना जाने का होय । 
यह माया वस भयउ गुंसाई । बंध्यों कीट मरकट की नाईं ।
करता था सो क्यों किया । अब कर क्यों पछिताय । बोया पेड़ बबूल का । आम कहाँ से खाय । 

14 अप्रैल 2012

अब मैं गूंगी बहरी और पगली हो गई हूँ

प्रिय राजीव भाई ! नमस्कार । जबसे आपसे फोन पर बात हुई । और आपके लेख पढने लगा । तबसे मन चाहता है कि - सब काम धंधा छोड़ कर उड़ चलूँ आगरा । क्यूँकि जो अपने गुरु के इतना नजदीक है । तो गुरु उसके कितना नजदीक होंगे । और सच्चे गुरु का सानिध्य शीश देकर भी मिले । तो बहुत सस्ता समझो । परन्तु यदि काम से जाता हूँ । तो बच्चों के प्रति जिम्मेदारी से विमुख होता हूँ ( रोज कुआँ खोदना । और रोज पानी पीना ) खैर...ये 25 तारीख कब गुजरेगी ? बस इसी का इंतज़ार है । आपका जवाब पढ़ा । बहुत अच्छा लगा । आपने व्यस्त समय से मुझे समय देकर और करीब कर दिया । धन्यवाद जैसा शब्द थोडा छोटा होगा यहाँ । अशोक ।
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नमस्कार जी ! राजीव जी । मैं दिल से आपकी बहुत इज्जत करता हूँ । लेकिन जो मेरे मन में प्रश्न उठे । वो मैंने भेज दिये । लेकिन आपको बुरा लगा हो

तो -  i am sorry. जो लङकी का लिंक ( फ़ोटो ) मैंने send किया था । वो आपकी वो ही मित्र है । जिस पर आपने कहानी लिखी है ?  ( ये कहानी पढने के यहीं लिये क्लिक करें ) राजेश ।
ANS - वास्तव में मुझे कोई बुरा नहीं लगा । न कभी लगता है । मेरा लक्ष्य उद्देश्य आप लोगों से आत्म ज्ञान के विभिन्न पहलूओं पर चर्चा करना ही है । और चर्चा में निष्पक्ष निर्भीक ढंग से अपनी बात कहनी चाहिये । जिज्ञासा को सामने रखना चाहिये । शंका को पूछना चाहिये । इससे आप लोग मेरा सहयोग ही करते हो । फ़िर बुरा मानने का प्रश्न ही कहाँ ? हाँ ! आप इसे मेरा बुरा मानना मान कर मन में उठने वाले प्रश्न मुझसे नहीं पूछेंगे । तब अवश्य बुरा लगेगा । और मैं आपको एक बात और भी बताऊँ । मैं आपके सुझावों और विचारों से अपने तौर पर 70% सहमत भी हूँ । पर सामाजिक रोग कई प्रकार के हैं । इसलिये हरेक में मीठी  गोलियाँ मीठे सीरप काम नहीं करते । कहीं बहुत कङवी कसैली दवा और कहीं चीर फ़ाङ और कहीं कहीं आपरेशन की आवश्यकता भी होती है । इसलिये निसंदेह आप लोग अपनी भावना अनुसार अपनी अपनी जगह सही हो । पर सच सिर्फ़ वही नहीं होता । जो बाह्य तौर पर अनुभव में आता है ? आंतरिक कङवी सच्चाई कुछ अलग भी होती हैं । सभी लोग आपके जैसे भी नहीं होते । कुछ कपटी । मक्कार । धूर्त । आस्तीन के सांप । ईर्ष्यालु भी होते हैं । आप ये बात मानते हो ? और एक धार्मिक संस्था को सभी तरह के लोगों से वास्ता पङता है । इसीलिये मैंने कहा - आप मेरी सभी बातों के मतलब रहस्य नहीं समझ पाओगे । क्योंकि आप सिर्फ़ बाह्य तौर पर ही मुझे पढते जानते हो । इसलिये आप अपनी जगह सही हो । मैं अपनी जगह सही हूँ । रही बात फ़ोटो का परिचय पूछने की । पूर्व में कुछ लोगों के कमीनेपन से दूसरों का खासा नुकसान हुआ । इसलिये मैंने ऐसे परिचय बताना अब बन्द कर दिया । लेकिन आपके द्वारा मेल के साथ भेजी गयी फ़ोटो उस लङकी की नहीं है । जिस पर मैंने कामवासना कहानी लिखी । ( ये कहानी पढने के लिये इसी लाइन पर क्लिक करें । )
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जय गुरुदेव की ।
पानी भर भर गइयां सभै आपो अपनी वार । टेक ।
इक भरन आइयां । इक भर चल्लियां । इक खलियां ने बाहं पसार ।
हार हमेलां पाइयां गल विच । बांहीं छणके चूड़ा । कन्नीं बुक बुक झुम्मर बाले ।
सभ आडम्बर पूरा । मुड़ के शौह ने झात न पाई । एवें गिआ सिंगार ।
हत्त्थी मैंहदी पैरीं मैंहदी । सिर ते धड़ी गुंधाई । तेल फुलेल पानां दा बीड़ा ।
दंदीं मिस्सी लाई । कोई जे सद्द पिओ ने गुज्झी । विस्सरिआ घर बार ।


बुल्ल्हिआ शौह दी पंध पवें जो - तां तूं राह पछाणे । "पौन सतारां" पासैं मंगिआ ।
दा पिआ त्रै काणे । गूंगी डोरी कमली होई । जान दी बाज़ी हार ।
पानी भर भर गइयां सभै आपो अपनी वार ।
- साधक चाहे । जितना यत्न करे । मार्गदर्शक गुरु के बिना प्रयास सफल नहीं होते । इसी भाव का वर्णन करते हुए साईं लिखते हैं कि - सभी सखियां पानी भर भरकर चली गईं । कुछेक पानी भरने के लिए अभी अभी आई हैं । और कुछेक भरकर चली जा रही हैं । कुछेक ऐसी भी हैं । जो बाहें पसारे खड़ी हैं ।
प्रिय को प्राप्त करने के लिए सभी श्रृंगार किया है । गले में हार हमेलें सजा ली हैं । बांहों में चुड़े छनछना रहे हैं ।

कानों में बड़े बड़े झूमर हैं । बालें हैं । यानी कि श्रृंगार का सभी आडम्बर पूरा है । किन्तु प्रिय पति ने देखा तक नहीं । और समूचा श्रृंगार व्यर्थ हो गया ।
श्रृंगार के अतिरिक्त मैंने हाथों में मेहंदी रचाई । पैरों में भी मेहंदी रचाई । सिर भी ख़ूब अच्छी तरह गुंदाया । बालों में ख़ुशबूदार तेल डाला । दांतों में मिस्सी लगाई । और होठों को भी रंग लिया । पता नहीं ( मृत्यु का ) क्या गृढ़ सन्देश आया कि - सारा घर बार ही बिसर गया ।
बुल्लेशाह कहते हैं - यदि तुम प्रिय पति के मार्ग पर चलो । तभी तो उस मार्ग को पहचान सकोगे । लेकिन हुआ यह कि ( चौसर के खेल में ) मैंने मांगा 'पौ बारा' और दांव पड़ा 'तीन काने' । अर्थात प्रिय मिलन की जगह प्रिय विरह ही हाथ आया । अब मैं गूंगी । बहरी और पगली हो गई हूँ । सच तो यह है कि - मैंने जीवन की बाज़ी हार दी । अशोक ।
- आपका बहुत आभार अशोक जी । आत्म ज्ञान पर ये सुन्दर रचना भेजने के लिये । ये वाकई एक गहराई युक्त गूढ भाव  रचना है ।

10 अप्रैल 2012

क्या प्रेरणा थी इस खोज के पीछे ?

एकाचेतत सरस्वती नदीनाम । शुचिर्यती गिरिभ्य आ समुद्रात ।
रायश्चेतन्ती भुवनस्य भूरेर्घृतं पयो दुदुहे नाहुशाय । ऋग्वेद 7:95:2 
सरस्वती तट से निकली सांस्कृतिक जय यात्रा विष्णु पुराण का यह श्लोक बहुत प्रसिद्ध है ।
उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणं ।
वर्षं तद भारतं नाम, भारती यत्र सन्तति । अर्थात समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में जो वर्ष स्थित है । उसका नाम - भारत है । और उसकी सन्तति को भारती कहते हैं । अपनी लोकप्रियता के कारण प्राचीनकाल में भारत की भौगोलिक एकता के साक्षात्कार के प्रमाण के रूप में बहुधा इसी श्लोक को प्रस्तुत किया जाता है । आधुनिक विद्वत्ता ने विष्णु पुराण का रचनाकाल पांचवी शताब्दी ईसवी में रखा है । इसलिए हम गर्व के साथ कहते हैं कि - हमारे पूर्वजों ने भारत जैसे विशाल भूखण्ड की एकता का साक्षात्कार कम से कम 1500  साल पहले कर लिया था । कोई भी अन्य सभ्यता या साहित्य अपने देश के बारे में ऐसा प्रमाण प्रस्तुत नहीं करता । किन्तु इसके पूर्व महाभारत और रामायण आदि ग्रंथ पूरे भारत का भौगोलिक परिचय दिग्विजय वर्णन, तीर्थयात्रा वर्णन एवं स्वयंवर वर्णन के द्वारा प्रस्तुत करते हैं । आधुनिक विद्वत्ता ने इन ग्रंथों के रचनाकाल को विवादास्पद बना दिया है । महाभारत के बारे में यह धारणा बन गयी है कि उसका महाभारत युद्ध से लेकर सातवाहन काल तक लगातार संशोधन परिवर्तन होता रहा । अत: उसका कौन सा अंश किस काल की रचना है ? यह कहना कठिन है । उसमें सरस्वती के प्रवाहमान होने का वर्णन भी है । और उसके लुप्त होने के बाद का वर्णन भी ।
अम्बितमे नदीतमे देवीतमे सरस्वति ।
अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिमम्ब नस्कृधि । ऋग्वेद 2:41:16
किन्तु कौटिल्य अर्थशास्त्र के रचनाकाल के बारे में तो अब आम सहमति बन चुकी है कि वह नंद वंश का उच्छेदन कर चन्द्रगुप्त मौर्य को मगध साम्राज्य के सिंहासन पर बैठाने वाले आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य उपनाम कौटिल्य की ही रचना है ।
इसलिए आधुनिक विद्वत्ता के द्वारा निर्धारित भारतीय इतिहास के तिथि क्रम में उसका रचनाकाल चौथी शताब्दी ईसवी पूर्व अर्थात विष्णु पुराण से लगभग 1 सहस्र वर्ष पीछे चला जाता है । इस कौटिल्य अर्थशास्त्र के नवम अधिकरण के 135-136 प्रकरण में चक्रवर्ती क्षेत्र की व्याख्या निम्न सूत्र में की गयी है ।
देश:पृथिवी ! तस्यां हिमवत्समुद्रान्तरमदां चीन ।
योजन सहस्र परिमाणं तिर्यंक चक्रवर्तिक्षेत्रम ।
अर्थात हिमालय से लेकर दक्षिण समुद्र पर्यंत, पूर्व से पश्चिम दिशा में 1000 योजन तक फैला हुआ भू भाग चक्रवर्ती क्षेत्र है । कौटिल्य अर्थशास्त्र का यह सूत्र अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है । वह उत्तर और दक्षिण की सीमाओं के साथ साथ पूर्व पश्चिम के विस्तार को भी स्पष्ट करता है । चक्रवर्ती क्षेत्र कहने का अर्थ है - भारत की राजनीतिक एकता का लक्ष्य । और यह लक्ष्य केवल भारत की प्राकृतिक सीमाओं तक सीमित है । अन्य देशों पर आक्रमण करने अथवा उन पर अपना साम्राज्य स्थापित करना अभिप्रेत नहीं है ।
किन्तु इस सूत्र का महत्व इस बात में है कि यहां देश अर्थात भूभाग को पृथ्वी नाम दिया गया है । आजकल सामान्यतया पृथिवी शब्द से हम पूरे भूमंडल को सम्बोधित करते हैं । अत: प्रश्न खड़ा होता है कि कौटिल्य ने हिमालय से समुद्र तक के देश को पृथिवी क्यों कहा ?
इस प्रश्न ने हमें बहुत चक्कर में डाला । और उसका उत्तर खोजने के प्रयास में हमें अनेक बहुमूल्य संदर्भ मिले । किन्तु अभी उसे यहीं छोड़ देते हैं । अपने मन का दूसरा प्रश्न आपके सामने रखते हैं । कौटिल्य के सामने भारत की राजनीतिक एकता का लक्ष्य क्यों खड़ा हुआ ?
क्या उसकी प्रकृति प्रदत्त भौगोलिक एकता के कारण ? किन्तु उस भूगोल के भीतर विद्यमान भाषायी, उपासनात्मकता, सामाजिक एवं आर्थिक राजनीतिक विविधता से युक्त अनेक जनपदों में विभाजित देश पर किसी 1 जनपद के राजा को दिग्विजय के द्वारा चक्रवर्ती के सिंहासन पर बैठाना क्या साम्राज्यवादी विजय का ही दूसरा नाम नहीं है ?
कौटिल्य अर्थशास्त्र के अध्ययन से प्रगट होता है कि इस बहुमुखी विविधता के बीच सांस्कृतिक एकता के सूत्र तब तक विकसित हो चुके थे । और वह सांस्कृतिक एकता ही स्वयं को राजनीतिक एकता के रूप में अभिव्यक्त करने को बेचैन थी ।
उस युग में आवागमन और यातायात की कठिनाइयों को देखते हुए भारत जैसे विशाल भूखंड को 1 राजनीतिक केन्द्र से शासित और नियंत्रित करना लगभग असंभव था । अत: चक्रवर्ती व्यवस्था ही उसका सर्वोत्तम उपाय हो सकती थी । यही भारत की इतिहास यात्रा की मुख्य विशेषता है । और यूरोपीय इतिहास में से उपजी अवधारणाएं भारतीय इतिहास पर लागू नहीं हो पातीं ।
18वीं और 19वीं शताब्दी में जन्मे
पञ्च नद्य: सरस्वतीमपि यन्ति सस्रोतस: ।
सरस्वती तु पञ्चधा सो देशे अभवत्सरित । यजुर्वेद 34:11
छोटे छोटे यूरोपीय राष्ट्रों की सीमाओं का निर्धारण राजनीतिक विस्तार वाद ने किया । उन्होंने पहले राजनीतिक एकता प्राप्त की । उसके आधार पर अपने राष्ट्र की भौगोलिक सीमाओं की व्याख्या की । और सीमाओं के भीतर रहने वाले समाज पर भाषा, उपासना, नस्ल आदि सांस्कृतिक एकरूपता थोपने का प्रयास किया । जबकि भारत में इससे उल्टा हुआ । यहां भौगोलिक एकता का साक्षात्कार पहले हुआ । उसमें विद्यमान विविधता को शिरोधार्य करते हुए विविधता के बीच एकता के सांस्कृतिक सूत्रों का विकास किया गया । यहां यह प्रश्न उठाया जाना चाहिए कि भारत जैसे विशाल भूखंड की भौगोलिक एकता का साक्षात्कार सर्वप्रथम किसने किया ? दुर्गम जंगलों, विशाल नदियों, ऊंचे पहाड़ों को लांघकर किस मानव समूह ने पूरे देश को छान मारा । उसकी प्रेरणा क्या थी ? लक्ष्य क्या था ?
क्या पूरे भारतवर्ष का भौगोलिक परिचय किसी 1 पीढ़ी के वश की बात रही होगी ? कितनी शताब्दियां, सहस्राब्दियां लगी होंगी इस खोज में ? क्या प्रेरणा थी इस खोज के पीछे ?
निश्चय ही राजनीतिक विजय तो नहीं ही थी । भारत की भोगौलिक एकता कराने वाली प्रक्रिया और तन्त्र की प्रेरणा राजनीतिक कदापि नहीं थी । यदि वह प्रक्रिया और तंत्र सांस्कृतिक था । तो उसका उदगम स्थान भारत में किस क्षेत्र में था । कहां था ?
और वह सांस्कृतिक प्रवाह अपने मूल निवास से बाहर कब निकला । कितने चरणों में, कितनी शताब्दियों या सहस्राब्दियों में उसने पूरे
भारत को आप्लावित कर दिया ? इस विशाल भूखंड की विविधता को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में गूंथ दिया । उसे 1 सांस्कृतिक व्यक्तित्व या पहचान प्रदान की ?
देवा इमम मधुना संयुतं यवं सरस्वत्यामधि मणावचर्कृषु ।
इन्द्र आसीत सीरपति: शतक्रतु: कोनाशा आसन मरुत: सुदानव: ।
अथर्ववेद 6:30:1
इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए जब हम आधुनिक शोध पद्धति से कौटिल्य से पीछे जाते हैं । तो पाते हैं कि बौद्ध त्रिपिटक के सबसे पुराने अंश निकाय से भी पुराने माने गए महागोविंद सुत्त में भारत भूमि के स्वरूप का सटीक चित्रण उपलब्ध है । भारत भूमि का स्वरूप बैलगाड़ी जैसा बताया गया है । कहा गया है कि - उत्तर का क्षेत्र आयताकार है । और दक्षिण का क्षेत्र बैलगाड़ी के अगले भाग ( शकट मुख ) जैसा त्रिकोणीय । महत्व की बात यह है कि यह गोविंद सुत्त भी इस शकटाकार भूखण्ड को महापृथिवी नाम से सम्बोधित करता है ।
आश्चर्य होता है कि उस युग में किस विधि से भारतीय मनीषियों ने सहस्र योजन लम्बे चौड़े इस भूखण्ड के स्वरूप को अपनी आंखों में बांधा होगा ।
पुराणों में इस स्वरूप की उपमा कही गर्दन फैलाये कछुवे से दी गयी है । तो कहीं प्रत्यंचा खिंचे धनुष के साथ । ये सब उपमाएं 1500 -2000  वर्ष पुरानी तो हैं ही । बौद्ध और जैन साहित्य में भगवान
बुद्ध और तीर्थंकर महावीर की समकालीन जनपद सूचियों को देखने से विदित होता है कि ये जनपद पश्चिम में अफगानिस्तान और ईरान से लेकर पूर्व में बंगाल तक और दक्षिण में समुद्र तक फैले हुए थे ।
इस साहित्य में भारत नामक बड़ी इकाई तो 5 विभाजन यथा - उत्तरापथ, मध्यदेश, प्राच्यदेश दक्षिणा पथ एवं अपरान्त का भी उल्लेख मिलता है । स्पष्ट ही, छठी शताब्दी ईसवी पूर्व तक किसी केन्द्रीय व्यवस्था ने भारत नामक इकाई का 5 भागों में विभाजन भी कर दिया था । जो उस समय तक पूरी तरह प्रचलित हो चुका था ।
सरस्वती दृषद्वत्वोर्देवनघोर्यदन्तरम । तं देवनिर्मितं देशं ब्राह्मवर्त प्रचक्षते ।
3:17
इसका अर्थ है कि - भारत की भौगोलिक एकता का साक्षात्कार बुद्ध और महावीर के समय से काफी पहले किया जा चुका था । इससे निष्कर्ष निकलता है कि जिस सांस्कृतिक प्रक्रिया ने इस भौगोलिक एकता का साक्षात्कार कराया । वह भी पूरे देश को आप्लावित कर चुकी थी । इस सत्य का दर्शन हमें अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त में होता है । अथर्ववेद को पाश्चात्य विद्वता ने आठवीं शताब्दी ईसवी पूर्व में रखा है । जबकि भारतीय परम्परा उसे राजा परीक्षित ( 3102 ई.पू. ) के निकट रखती है । किन्तु इस लेख में हम तिथि क्रम के झगड़ों को नहीं उठाना चाहते । और पाश्चात्य विद्वता द्वारा गढ़े गये तिथि क्रम के पूर्वापर्य को ज्यों का त्यों स्वीकार करके ही अपने प्रश्नों का उत्तर खोजना चाहते हैं ।
63 मंत्र लम्बा पृथिवी सूक्त अपने ढंग की अनूठी रचना है । इसी सूक्त के 12वें मंत्र में माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या; अंश को भारत माता के प्रति हमारी पुत्रवत भक्ति भावना का प्रथम उदघोष कहा जाता है । इस छोटे से अंश में "भूमि' और "पृथ्वी' दोनों शब्दों का प्रयोग है । क्या वे 1 ही हैं । या अलग अलग हैं ?
यदि यहां "पृथिवी' शब्द "भूमि' या हर मंत्र का पर्याय है । तो क्या हम पूरे भूमंडल को अपनी माता और स्वयं को उसका पुत्र बता रहे
हैं ? क्या इस सूक्त में "पृथिवी' नामक भूखण्ड की पहचान के भी कुछ संकेत विद्यमान हैं ?
अगला ही मंत्र पृथिवी की सांस्कृतिक पहचान को स्पष्ट कर देता है कि जिस भूमि पर यज्ञ वेदियों का निर्माण कर विश्वकर्मा यज्ञों का विस्तार करता है ।
जहां आहुति देने के लिए यज्ञ स्तम्भ खड़े हैं । पुन: 22वें मंत्र में कहा गया है - जिस भूमि पर देवताओं के लिए यज्ञों में हवि दी जाती है । जहां मनुष्य यज्ञ शेष को प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं आदि आदि ।
मंत्र 37 में देव विरोधी असुरों पर, वृत्रासुर इन्द्र की विजय का उल्लेख है । उससे अगले मंत्र में पुन: यज्ञ मण्डपों के निर्माण, यूप की स्थापना और ऋग्वेद की ऋचाओं, सामवेद की अर्चना और यजु: मंत्रों से इन्द्र को सोमरस पिलाने का वर्णन है । मंत्र 39 में प्राचीन सप्तर्षियों द्वारा द्वाद्वश वर्षीय सत्र एवं सोमयाग के निमित्त तपस्या करने एवं वेदमंत्रों का गान करने की बात कही गयी है ।
संक्षेप में कहना हो । तो पृथिवी सूक्त की पृथिवी संस्कृति की पहचान यज्ञ संस्कृति में है । वस्तुत: पृथिवी सूक्त का पहला मंत्र ही यज्ञ
संस्कृति का सार तत्व प्रस्तुत कर देता है । वह कहता है कि सत्य, ऋत, दीक्षा, तप ब्रह्म और यज्ञ इस पृथिवी को धारण करते हैं । 45वें मंत्र में पृथिवी पर रहने वाले जनों की विविधता को भी स्वीकार किया गया है ।
यह मंत्र कहता है कि यह पृथिवी अनेक बोलियां बोलने वाले ( जन विभ्रती बहुधा विवाचसं ) और नाना धर्मों ( आचार विचार ) का पालन करने वाले ( नाना धर्माणां ) जनों को धारण करती है । और सबको समान रूप से माता की तरह अपना दूध पिलाकर पालती है । सूक्त में हिमवंत, समुद्र और सिंधु आदि के उल्लेख से स्पष्ट है कि सूक्तकार की पृथिवी महागोविन्द सुत्त और कौटिल्य की पृथिवी से भिन्न नहीं है । पर इस सूक्त में यह स्पष्ट नहीं होता कि इस यज्ञ संस्कृति का उदगम कहां हुआ ?
किस क्रम से किस तंत्र के द्वारा पूरे - ब्राह्म नद्या सरस्वत्यामाश्रम: पश्चिमे तटे । शम्याप्रास इति प्रोक्त ऋषीणां सम्वर्धन । भारत में फैली ?
इसकी जानकारी हमें मनुस्मृति देती है । मनुस्मृति का दूसरा अध्याय
( श्लोक 18-25 ) न केवल यज्ञ संस्कृति का उदगम क्षेत्र बताता है । बल्कि वहां से निकली सांस्कृतिक जय यात्रा के विभिन्न चरणों का भी वर्णन करता है । यज्ञ संस्कृति का उदगम सरस्वती नदी के पवित्र तट पर हुआ है । इसको रेखांकित करते हुए श्लोक 18 कहता है
सरस्वती दृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम ।
तं देवनिर्मितं देशं ब्राह्मावर्त प्रचक्षते । 18 
सरस्वती और दृषद्वती नामक देव नदियों के मध्यवर्ती भूभाग स्वयं देवों द्वारा निर्मित ब्राह्मावर्त नामक देश कहलाता है ।
वस्मिन्दे थे य: आचार: पारम्पर्यक्रमागत: ।
वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते ।
उस देश में जो आचार परम्परा से चला आ रहा है । उसे ही सब वर्णों के लिए सदाचार कहा गया है ।
कहां है यह ब्राह्मावर्त ? कहां है सरस्वती । और दृषद्वती नामक देव नदियां ? आज तो भारत के मानचित्र पर इनमें से कोई भी नाम नहीं है । महाभारत के वन पर्व से हमें ज्ञात होता है कि सरस्वती और दृषद्वती के मध्य का क्षेत्र ही कुरुक्षेत्र कहलाया । इसका अर्थ हुआ कि ब्राह्मावर्त और कुरुक्षेत्र 1 ही प्रदेश के 2 नाम हैं । किन्तु आधुनिक विद्वत्ता कहेगी कि मनु स्मृति और महाभारत तो बहुत बाद की रचनाएं हैं । उन्हें प्रमाण कैसे मान लें ।
सौभाग्य से यहां ऋग्वेद हमारी मदद को आते हैं । ऋग्वेद ( 3.23.4 ) मंत्र में कहा गया है - दृष्द्वत्या मानुष आपयायां सरस्वत्यां देवदग्ने दिदीहि ।
अर्थात हे अग्नि ! हम तुम्हें दृषद्वती और सरस्वती के तट पर स्थित मानुष तीर्थ में स्थापित करते हैं । तुम पूरी पृथिवी को आलोकित करो ।
आधुनिक विद्वता ने ऋग्वेद के सूक्त विकास की जो कहानी गढ़ी है । उसके अनुसार यह मंत्र जिस तीसरे मंडल में विद्यमान है । वह मंडल ऋग्वेद के सबसे प्राचीन भाग का अंग है ।
मनु स्मृति के उपरोक्त श्लोकों से स्पष्ट है कि ब्राह्मावर्त क्षेत्र में 1
ऐसी संस्कृति का जन्म हुआ । जिसका मूल सदाचार में था । इस संस्कृति का प्रवाह ब्राह्मावर्त के चारों ओर फैला । अगला श्लोक कहता है -
मत्स्याश्च पाञ्चाला: शूरसेनका ।
एष ब्राह्मर्षिदेशो वै ब्राह्मावर्तादनन्तर । 20
ब्राह्मावर्त के चारों ओर के प्रदेश को जिसमे कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पंचाल और शूरसेन जनपद आते हैं । ब्राह्मर्षि देश कहा गया है । इस प्रदेश के
अन्तर्गत पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, बृज प्रदेश आते हैं । इस प्रदेश में पहुंच कर संस्कृति का चरित्र और भी निखरा । क्योंकि मनु स्मृति के अनुसार -
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन: ।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन पृथिव्यां सर्वमानवा: ।
अर्थात इस प्रदेश में जन्मे अग्रजन्माओं ( ब्राह्मणों ) से पृथिवी के सभी मानव अपने अपने लिए चरित्र की शिक्षा प्राप्त करते हैं । किन्तु यह सांस्कृतिक प्रवाह या जय यात्रा आगे बढ़कर मध्यप्रदेश में फैल जाती है । मनु स्मृति के अनुसार हिमालय से विंध्यपर्वत और पूर्व में प्रयाग से पश्चिम में विनशन के बीच का क्षेत्र ही मध्य प्रदेश है । यह यज्ञिय देश है । यहां तक यज्ञिय की संस्कृति का विस्तार हो चुका है ।
सांस्कृतिक जय यात्रा के अगले चरण के रूप में मनु स्मृति आर्यावर्त हिमालय से रेवा नदी तक और पूर्व पश्चिम में समुद्र से समुद्र तक फैला हुआ है । यह देश यज्ञिय देश है । यहां पवित्र काला मृग नि:शंक विचरण करता है । आर्यावर्त से बाहर के निवासी मलेच्छ हैं । स्पष्ट ही यहां आर्य और म्लेच्छ शब्दों का प्रयोग नस्ल के आधार पर नहीं । सांस्कृतिक श्रेष्ठता के आधार पर किया गया है । इसी अर्थ में ऋग्वेद -
कृण्वंतो विश्वमार्यम, जैसी घोषणा करता है ।
यदि आर्य शब्द को नस्लवाचक मानें । तो इसका अर्थ होगा । पूरे विश्व में अन्य सब नस्लों का उच्छेदन कर केवल आर्य नस्ल का प्रभुत्व स्थापित करना । सरस्वती के तट से सांस्कृतिक जय यात्रा का संदर्भ शतपथ ब्राह्मण में माथव विदेघ की कथा में भी उपलब्ध है । इस कथा के अनुसार सरस्वती के तट पर सम्पन्न यज्ञ की अग्नि पूर्व दिशा की ओर चल पड़ी । माथव विदेघ उसके पीछे पीछे चला । वह अग्नि सदानीरा नदी वर्तमान गंडकी के तट पर आकर रूक गयी । माथव विदेघ भी वहीं ठहर गया ।
सदानीरा यहां संस्कृति की सीमा बन गई । मनुस्मृति आर्यावर्त पर रुक जाती है । जनश्रुति के अनुसार लम्बे समय तक यज्ञिय आर्य संस्कृति विंध्याचल को लांघ नहीं पायी । उसे पहली बार लांघा अगस्त्य ऋषि ने । परम्परा कहती है कि अगस्त्य ऋषि के आदेश को मानकर विंध्यपर्वत झुका का झुका रह गया । और संस्कृति का प्रवाह उसे पार कर पूरे भारत में फैल गया । इसी सांस्कृतिक विस्तार के माध्यम से भारत की प्राकृतिक सीमाओं और भौगोलिक एकता का साक्षात्कार हो सका । इस साक्षात्कार की गाथा महाभारत, रामायण एवं पुराणों में भारत की नदियों, पर्वतों, पुण्य नगरियों एवं जनपदों की सूचियों के रूप में सुरक्षित है ।
यदि महाभारत भारत का कीर्तिगान करते हुए प्राचीन राजर्षियों के नाम गिनाती है । तो विष्णु पुराण यज्ञिय संस्कृति के अगले सोपान अर्थात ब्रह्म विद्या या मोक्ष मार्ग की जन्मदाती भारत भूमि की गोद में जन्म पाने के लिए स्वर्ग के देवताओं की व्याकुलता का वर्णन करता है ।
सम्पूर्ण वाड्मय में कहीं भी नस्ली आक्रमण या नस्लों के विनाश की चर्चा नहीं है । किन्तु पश्चिमी विद्वानों ने पन्द्रहवीं शताब्दी में अपनी गोरी नस्ल की राक्षसी विजयों के दर्पण में अपने चेहरे को भारत का चेहरा बना दिया । भारतीय विद्वता के सामने यह चुनौती है कि वह अपने प्राचीन वाड्मय में यत्र तत्र बिखरे संदर्भों को खोज बटोर कर उस सांस्कृतिक जय यात्रा की कहानी को सूत्रबद्ध रूप में प्रस्तुत करें । जिसने सहस्राब्दियों पहले सरस्वती के पावन तट से निकल कर आसेतु हिमालय विशाल भारत को उसकी बहुविध विविधता के बीच 1 सांस्कृतिक व्यक्तित्व प्रदान किया । देवेन्द्र स्वरूप । साभार - गूगल
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पृथु ने ही वत्स बनकर जिस भूभाग को दुहा । वह पृथिवी कहा गया ।  पृथु ने निश्चय ही भूमि सुधार कार्यक्रम चलाकर कृषि कराई होगी । यही मख है । यही यज्ञ है । अन्न को यज्ञ, ब्रह्म आदि कहा गया है । अन्नोत्पादन नियंत्रित कृषि की देन है । मेरा भारतवर्ष पूर्व में जहाँ कमल होते हैं से लेकर पश्चिम में देवदारु जहाँ पाये जाते हैं । वहाँ तक के विस्तार वाला होता है । दक्षिण में आस्ट्रेलिया से लगाकर उत्तर में टॉरिम बेसिन तक निर्बाध विस्तार वाला था ।
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अशा - 09.1.17 देशः पृथिवी । अशा - 09.1.18 तस्यां हिमवत समुद्र अन्तरम उदीचीनं योजन सहस्र परिमाणं तिर्यक चक्रवर्ति क्षेत्रम । अशा - 09.1.19 तत्रअरण्यो ग्राम्यः पर्वत औदको भौमः समो विषम इति विशेषाः । अशा - 09.1.20 तेषु यथा स्व बल वृद्धि करं कर्म प्रयुञ्जीत । अशा - 09.1.21 यत्र आत्मनः सैन्य व्यायामानां भूमिः अभूमिः परस्य ।  स उत्तमो देशः विपरीतो अधमः साधारणो मध्यमः । अशा - 09.1.22 कालः शीत उष्ण वर्ष आत्मा । अशा - 09.1.23 तस्य रात्रिर अहः पक्षो मास ऋतुर अयनं संवत्सरो युगम इति विशेषाः । VikramArk Vikram

09 अप्रैल 2012

अकबर बीरबल प्रथम मिलन

इलाहाबाद के संगम तट पर बना अकबर का किला सम्राट अकबर और बीरबल के प्रथम मिलन की याद को सहज ही ताजा कर देता है । ये इतिहास प्रसिद्ध घटना है । जब अकबर बंगाल की क्रांति को बल पूर्वक कुचल कर आगरा लौट रहा था । तो वह कुछ समय इलाहाबाद में रुका ।
सर्दियों का खुशहाल मौसम था । विस्त्रत नीले आकाश में चमकीले मोतियों से झिलमिलाते चाँद सितारे मानों खूबसूरत रजनी के आंचल पर टंके हुये चमक बिखेर रहे थे । ये झिलमिलाते चमकीले तारे यमुना के शान्त जल में प्रतिबिम्बित होते हुये अदभुत आभा बिखेर रहे थे । प्रकृति की इस उज्जवल अलौकिक छटा को देख कर अकबर ठगा सा खङा रह गया । और विस्मित भाव से रात भर उस अनुपम सौन्दर्य को निहारता रहा । सुबह तङके ही वह उठा । और गंगा यमुना के संगम तट पर जा पहुँचा ।


राजे । महाराजे । अमीर । उमराव । सूबेदार । सरदार । ताल्लुकेदार । जागीरदार । और फ़ौज के सिपहसालार सभी ने अकबर को घेर रखा था । पर अकबर चुपचाप शान्त कहीं खोया हुआ सा उस अलौकिक सी प्राकृतिक छटा को अपलक देख रहा था । दरबारियों ने समझा । जहाँपनाह इस प्राकृतिक छटा पर रीझ गये हैं । तब किसी ने बादशाह को खुश करने के लिये काव्यमय भाषा में उस सौन्दर्य का वर्णन करने के लिये अभी कहा ही था कि अकबर ने हाथ उठाकर सबको शान्त रहने का इशारा किया । सभी आलिम उलमा अमीर उमरा सिटपिटा कर शान्त हो गये ।
बहुत देर तक अपलक निहारने के बाद अकबर अचानक बोला - नादर ।
- बन्दा हाजिर है जहाँपनाह ! जागीरों का हाकिम झुक कर सलाम करते हुये बोला ।
- यहाँ आसपास की । अकबर बोला - मिलकियत का जिम्मा किसके पास है ?
- आलीजाह ! नादर कोर्निश बजाते हुये बोला - झूसी का राजा । शिवकरन सिंह ।
उसने फ़िर पूछा - झूसी कहाँ है ? क्या वो राजा यहाँ हैं ?


- जहाँपनाह ! नादर फ़िर बोला - सामने ही गंगा पार है झूसी । पर आलमपनाह का हुक्म था । इलाहाबाद पङाव की किसी  को खबर न हो । इसलिये झूसी का राजा इस्तकबाल के लिये हाजिर न हुआ आलीजाह ।
- कल सुबह झूसी के राजा को इसी जगह हाजिर किया जाये । कहकर अकबर पङाव लौट गया ।
अचानक अकबर बादशाह का ये पैगाम पाकर झूसी का राजा शिवकरन घबरा कर पसीना पसीना हो गया । सन्देशवाहक से बार बार पूछने पर भी जब कोई बात मालूम न पङी । तब बैचेन होकर उसने अपने दीवान बीरबल को बुलवाया । बीरबल उस समय अपनी लङकी के साथ शतरंज खेल रहा था ।
बार बार बुलाने पर बीरबल चिढकर बोला - क्या काम है ?
दूत ने कहा - शहंशाह अकबर का पैगाम आया है । राजा साहब को तुरन्त हाजिर होने का हुक्म हुआ है ।
बीरबल लापरवाही से बोले - राजा साहब हजूर में चले जायें । और दो चार नावों में चूना ईंट ले जाये ।
कहकर बीरबल फ़िर शतरंज खेलने में मस्त हो गया ।


झूसी के राजा शिवकरन को बीरबल की सलाह पर पूरा  विश्वास था । उसने यही सोचा । शायद बीरबल को कुछ पहले से मालूम होगा । नावों में ईंट चूना भर कर किनारे पहुँचा । नाव किनारे से लग गयी । तब अज्ञात भय से थरथर कांपता हुआ राजा शिवकरन अकबर के सामने पेश हुआ । और हाथ जोङ कर खङा हो गया । अकबर ने एक उङती सी नजर राजा पर डाली । फ़िर गौर से नावों में भरे ईंट चूने को देखने लगा ।
उसे कुछ हैरानी सी हुयी । और वह कङक कर बोला - इन नावों में भरे ईंट चूने का क्या मतलब ?
राजा शिवकरन एकदम घबरा गया । और गिङगिङाता हुआ कांपते स्वर में बोला - आलमपनाह गुलाम बेगुनाह है । यह कहकर वह अकबर के पैरों में गिर गया ।
तब अकबर कुछ नरम होकर बोला - नहीं नहीं गुनाह का सवाल नहीं । मैं ये जानना चाहता हूँ । ये नावों में ईंट चूना वगैरह क्यों लाया गया ।
राजा उठा । और सलाम करता हुआ बोला - आलीजाह ! ये कसूर मेरा नहीं है । ये सब तो मैं अपने दीवान बीरबल के कहने पर लाया हूँ ।
अकबर मुस्करा कर बोला - कौन बीरबल ? उसे अभी हाजिर करो तनहा ।
राजा की जान छूटी । वह बङा खुश हुआ । अब बीरबल को आटा दाल का भाव मालूम होगा । उसने झूसी जाकर बीरबल को सब बताया ।
बीरबल शहंशाह अकबर के दरबार में पेश हुआ । उसे देखकर अकबर बोला - तो तुम्ही हो बीरबल ? फ़िर उसने भौंहें तानकर कहा - इन नावों में ईंट चूने का क्या मतलब ? नावों में ईंट चूना भेजने की सलाह राजा को तुम्हीं ने दी थी ?
बीरबल अदब से बोला - हाँ जहाँपनाह ।
- इसकी वजह ? अकबर फ़िर बोला ।


- जहाँपनाह ! बीरबल फ़िर बोला - हर समझदार जो आलमगीर के इकवाल से वाकिफ़ है । उसे ये समझते देर न लगेगी कि किस मकसद से शहंशाह दरिया के किनारे देखते हुये चारों ओर नजर दौङा रहे हैं । गुलाम ने यही समझा कि हजूर यहाँ किला बनबाने का इरादा रखते हैं । इसलिये आपके पाक इरादे को मजबूत बनाने और मददगार बनने का इजहार करते हुये ईंट चूना ले जाने की सलाह दी ।
यह सुनते ही बादशाह अकबर प्रसन्नता से खङा हो गया । और बीरबल के कँधे पर दाहिना हाथ रखकर बोला - गजब की अक्ल पायी है तुमने बीरबल ! आज से तुम्हें पंचहजारी मनसबदार का ओहदा और राजा का खिताब अता किया गया । और तुम्हें अपने नौ रत्नों में एक रत्न भी बनाया ।
तुरन्त दरबार बुलाया गया । बीरबल को सिरो पांव देकर अकबर ने उसे ताजीम बख्शी । हाथी घोङे रथ के साथ सुखपाल में बैठकर राजा बीरबल जब झूसी पहुँचे । तो झूसी का राजा शिवकरन ये देखकर दंग रह गया । कुछ ही दिनों बाद संगम तट पर यह किला बनकर तैयार हो गया । जो बीरबल की अति सूझबूझ और अकलमन्दी की दास्तां कहता है ।

08 अप्रैल 2012

जे कृष्णमूर्ति एण्ड जे के रोलिंग

जे कृष्णमूर्ति या जिद्दू कृष्णमूर्ति का जन्म 12 may 1895 को तमिलनाडु में हुआ था । और इनकी मृत्यु 17 feb 1986 को हुयी । जे कृष्णमूर्ति दार्शनिक तथा आध्यात्मिक विषयों के बेहद कुशल एवं परिपक्व लेखक थे । इन्होंने प्रवचन कर्ता के रूप में बेहद ख्याति प्राप्त थी । जे कृष्णमूर्ति मानसिक क्रान्ति । बुद्धि की प्रकृति । ध्यान । और समाज में सकारात्मक परिवर्तन किस प्रकार लाया जा सकता है ? इन विषयों आदि के बहुत ही गहरे विशेषज्ञ थे ।
जे कृष्णमूर्ति का जन्म तमिलनाडु के एक छोटे से नगर में निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था । इनके पिता जिद्दू नारायनिया ब्रिटिश प्रशासन में सरकारी कर्मचारी थे । जब कृष्णमूर्ति केवल 10 साल के थे । तभी इनकी माँ संजीवामा का निधन हो गया । बचपन से ही इनमें कुछ असाधारणता थी । थियोसोफ़िकल सोसाइटी के सदस्य पहले ही किसी विश्व गुरु के आगमन की भविष्यवाणी कर 


चुके थे । श्रीमती एनी बेसेंट और थियोसोफ़िकल सोसाइटी के प्रमुखों को जे कृष्णमूर्ति में वह विशिष्ट लक्षण दिखाई दिये । जो कि एक विश्वगुरु में होते हैं । एनी बेसेंट ने जे कृष्णमूर्ति की किशोरावस्था में ही उन्हें गोद ले लिया । और उनकी परवरिश पूर्णतया धर्म और आध्यात्म से ओत प्रोत वातावरण में हुई ।
थियोसोफ़िकल सोसाइटी के प्रमुख को लगा कि - जे कृष्णमूर्ति जैसे व्यक्तित्व का धनी ही विश्व का शिक्षक बन सकता है । एनी बेसेंट ने भी इस विचार का समर्थन किया । और जिद्दू कृष्णमूर्ति को वे अपने छोटे भाई की तरह मानने लगीं । 1912 में उन्हें शिक्षा के लिए इंगलैण्ड भेजा गया । और 1921 तक वे वहाँ रहे । इसके बाद विभिन्न देशों में थियोसोफ़िकल पर भाषण देने का कृम चलता रहा । जे कृष्णमूर्ति ने सदैव  इस बात पर बल दिया कि प्रत्येक मनुष्य को मानसिक क्रान्ति की आवश्यकता है । और उनका यह भी मत था कि इस तरह की क्रान्ति किन्हीं बाह्य कारक से सम्भव नहीं है । चाहे वह धार्मिक राजनैतिक या सामाजिक किसी भी प्रकार की हो ।
1927 में एनी बेसेंट ने उन्हें विश्व गुरु घोषित किया । किन्तु 2 वर्ष बाद ही कृष्णमूर्ति ने थियोसोफ़िकल विचार

धारा से नाता तोड़कर अपने नये दृष्टिकोण का प्रतिपादन आरम्भ कर दिया । अब उन्होंने अपने स्वतंत्र विचार देने शुरू कर दिये । उनका कहना था कि - व्यक्तित्व के पूर्ण रूपान्तरण से ही विश्व से संघर्ष और पीड़ा को मिटाया जा सकता है । हम अन्दर से अतीत का बोझ और भविष्य का भय हटा दें । और अपने मस्तिष्क को मुक्त रखें । उन्होंने - Order of the star को भंग करते हुए कहा कि - अब से कृपा करके याद रखें कि मेरा कोई शिष्य नहीं हैं ? क्योंकि गुरु तो सच को दबाते हैं । सच तो स्वयं तुम्हारे भीतर है । सच को ढूँढने के लिए मनुष्य को सभी बंधनों से स्वतंत्र होना आवश्यक है ।
कृष्णमूर्ति ने बड़ी ही फुर्ती और जीवटता से लगातार दुनिया के अनेकों भागों में भृमण किया । और लोगों को शिक्षा दी । और लोगों से शिक्षा ली । उन्होंने पूरा जीवन एक शिक्षक और छात्र की तरह बिताया । मनुष्य के सर्वप्रथम मनुष्य होने से ही मुक्ति की शुरुआत होती है । किंतु आज का मानव हिन्दू । बौद्ध । ईसाई । मुस्लिम । अमेरिकी । या अरबी है । उन्होंने कहा था कि - संसार विनाश की राह पर आ चुका है । और इसका हल तथाकथित धार्मिकों और राजनीतिज्ञों के पास नहीं है ।
जिद्दू कृष्णमूर्ति की इस नई विचार धारा की ओर समाज का बौद्धिक वर्ग आकृष्ट हुआ । और लोग पथ प्रदर्शन के लिए उनके पास आने लगे थे । उन्होंने अपने जीवन काल में अनेक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की । जिनमें दक्षिण भारत का ऋषि वैली स्कूल विशेष उल्लेखनीय है । भारत के इस महान व्यक्तित्व की 91 वर्ष की आयु में 17 feb 1986 में मृत्यु हो गई ।
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जे के रोलिंग en J. K  Rowling Joanne Rowling जोन रोलिंग उर्फ़ Joanne Kathleen Rowling जोन कैथलीन रोलिंग आज के ज़माने की सबसे मशहूर लेखिकाओं में से एक हैं । अंग्रेज़ी भाषा में लिखे उनके उपन्यास कृम हैरी पॉटर  21वीं सदी का शायद सबसे मशहूर उपन्यास है ।
जे के रोलिंग ने मिथक और कल्पना की एक नयी और अनोखी दुनिया बनायी है । जिसका मुख्य पात्र हैरी पॉटर है । ये दुनिया जादू और चमत्कार से भरी पड़ी है । हैरी पॉटर ख़ुद एक अनाथ जादूगर है । और वो तन्त्र मन्त्र और जादू टोने के विद्यालय हॉग्वार्टस जाता है । कहानी हैरी की एक आतंकवादी और शैतानी जादूगर वोल्डेमॉर्ट से दुश्मनी के बीच घूमती रहती है । इस सिलसिले में कुल 7 उपन्यास हैं ।
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