09 अगस्त 2010
जीवन से मृत्यु तक 2
मनुष्य के शरीर में साढे तीन करोड रोम । सिर में बालों की संख्या सात लाख । बीस नाखून । बत्तीस दांत ( सामान्य स्थिति में ) होते हैं । शरीर में एक हजार पल मांस । सौ पल रक्त । दस पल मेदा । दस पल त्वचा । बारह पल मज्जा । तीन पल महारक्त । दो कुडव ( बारह मुठ्ठी ) शुक्र । एक कुडव रज ( स्त्री में ) होता है । इसी प्रकार छह प्रकार के कफ़ । छह प्रकार की विष्ठा ( मल ) छह प्रकार के मूत्र और तीन सौ साठ से अधिक अस्थियां होती हैं । इसे ही शरीर का वैभव कहते हैं । इसके अतिरिक्त शरीर में कुछ नहीं है ।
कर्म अनुसार ही मनुष्य को सुख दुख भय कल्याण मिलता है । क्योंकि कर्म शरीर से ही सम्भव है । इसलिये शरीर का महत्व है । इस शरीर से ही जीव ऊंची से ऊंची या नीची से भी नीची स्थिति को प्राप्त करता है । वायु जीव को गर्भ से बाहर लाता है ।जन्म के समय उसके दोनों पैर ऊपर और मुंह नीचे की ओर होता है । गर्भ में जीव माता के द्वारा खाये गये अन्न जल फ़ल दूध घी आदि आहार से पुष्ट होता है । जीव की नाभि से शक्तिवर्धिनी आप्यायिनी नाम की नाडी जुडी रहती है । इसका सम्बन्ध गर्भधारिणी औरत के आंत छिद्र से होता है । गर्भ में जीव को पूर्व में अनुभूत अनेक विषयों की स्मृति होती है । जिससे वह खिन्न होता है । और पीडा का अनुभव करता हुआ गर्भ में गति करता हुआ ( बैचेन ) यही विचार दोहराता है । एक बार इस कष्टदायी गर्भ से निकलकर मैं फ़िर से ऐसा कुछ नहीं करूंगा । जिससे मुझे पुनः गर्भ में आना पडे ।
यह सोचता हुआ जीव अपने सैकडों पूर्वजन्मों का स्मरण करता है । जिसमें उसने देव योनि । तिर्यक योनि आदि नाना प्रकार की योनियों में सुख दुख का अनुभव किया था । इसके बाद वह जीव नौवे या दसवें मास मे उल्टा होकर गर्भ से बाहर आता है । प्राजापत्य वायु के प्रभाव से निकलता हुआ वह जीव अत्यन्त कष्ट महसूस करता हुआ । दुख से विलाप करता हुआ बाहर आता है । उदर से बाहर होते हुये जीव को असह्य कष्ट देने वाली मूर्छा आ जाती है । किन्तु कुछ ही क्षणों में वह पुनः चेतन हो उठता है । और वायु के स्पर्श से सुख महसूस करता है । इसके बाद समस्त प्राणियों को मोहित करने वाली विष्णु की माया उसके ऊपर अपना परदा डाल देती है । उस माया से विमोहित हुये जीव का पूर्वग्यान नष्ट हो जाता है । ग्यान नष्ट होते ही वह जीव बाल भाव को प्राप्त हो जाता है । फ़िर उसे कौमार्य यौवन बुडापा प्राप्त होता है । उसके बाद फ़िर से उसी प्रकार मरता है । और फ़िर से जन्म लेता है । इस संसार चक्र में वह कुम्हार के चाक के समान चक्रयन्त्र पर अत्यन्त कष्ट में घूमता रहता है । कभी वह स्वर्ग जाता है । तो कभी नरक को पाता है ।
स्वर्ग और नरक में कर्मफ़ल का भोग करके जीव कभी कभी थोडे से शेष पाप पुण्य का भोग करने प्रथ्वी पर आ जाता है । जो आत्माएं स्वर्ग में रहती हैं । उनको यह सब दिखाई देता है कि नरक में प्राणियों को बहुत दुख है । लेकिन स्वर्ग को प्राप्त हुआ जीव जबसे विमान में चडकर ऊपर की और प्रस्थान करता है । तभी से उसके मन में यह स्थायी भाव पैदा हो जाता है । कि पुण्य समाप्त होने पर मैं फ़िर से नीचे आ जाऊंगा । अतः स्वर्ग में भी दुख है । नरकवासियों को देखकर उसे महान दुख होता है । क्योंकि वह सोचता है ।
मेरी भी इसी प्रकार की गति होगी । यही चिन्ता उसे रात दिन लगी रहती है । गर्भवास में जीव को योनिजन्य ( यानी जिस प्रकार की योनि के गर्भ में है ) अनेक कष्ट होते हैं । योनि से पैदा होते समय दुख है । बालपन में दुख है । काम क्रोध ईर्ष्या के कारण युवावस्था में अनेक दुख हैं ।असमर्थता रोग आदि के कारण बुडापा दुखदायी है । मृत्यु के समय तो असहनीय दुख है । यमदूतों द्वारा बलपूर्वक खीचकर ले जाये जा रहे जीव को नरक में अधोगति प्राप्त होती है । इस तरह पूर्वजन्म में किये गये पाप पुण्य से बंधे जीव बार बार इस संसार में आवागमन का दुख भोगते हैं । हजारों प्रकार के दुख से व्याप्त इस संसार में रंचमात्र भी सुख नहीं है ।इसलिये मनुष्य को साबधानी से मुक्ति का निरंतर प्रयास इसी जीवन में कर लेना चाहिये क्योंकि ये ( मनुष्य ) जीवन फ़िर कब मिले । इसका पता नहीं । कब समाप्त हो जाय इसका पता नहीं ?
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