30 जुलाई 2010

पांच प्रेत...five ghost

पूर्वकाल में संतप्तक नाम का एक ब्राह्मण था । जिसने तपस्या से अपने को पापरहित कर लिया था । संसार को असार मानते हुये वह मुनियों की भांति आचार करता हुआ वन में रहता था । किसी समय इस ब्राह्मण ने तीर्थयात्रा को लक्ष्य बनाकर यात्रा की ।किन्तु संस्कारों के प्रभाव से वह मार्ग भूल गया । दोपहर हो गयी ।स्नान की इच्छा से वह किसी सरोवर आदि की तलाश करने लगा । उसी समय उसे बेहद घना वन दिखाई दिया । जिसमें वृक्षों लताओं आदि की अधिकता से पक्षियों के लिये भी मार्ग नहीं था । वह वन हिंसक जीव जन्तु पशुओं और राक्षस और पिशाचों से भरा पडा था । ब्राह्मण उस घनघोर डरावने वन को देखकर भयभीत हो उठा । उसे रास्ते का ग्यान नहीं था । वह आगे चल पडा । वह कुछ ही कदम चला था । कि सामने बरगद के वृक्ष में बंधा एक शव उसे लटकता हुआ दिखाई दिया । जिसे पांच भयानक प्रेत खा रहे थे । उन प्रेतों के शरीर में हड्डी नाडिया और चमढा ही शेष था । उनका पेट पीठ में धंसा हुआ था । ताजे शव के मष्तिष्क का गूदा चाव से खाने वाले । और शव की हड्डियों की गांठ तोडने वाले । बडे बडे दांत वाले उन भयानक प्रेतों को देखकर घबराकर ब्राह्मण रुक गया । प्रेत उसे
देखकर दौड पडे । और उन्होंने ब्राह्मण को पकड लिया । और इसे मैं खाऊंगा । ऐसा कहते हुये वे उसे लेकर आकाश में चले गये । किन्तु बरगद पर लटके शव के शेष मांस को खाने की भी उनकी इच्छा थी । प्रेत लटके हुये शव के पास आये और उधडे हुये से उस शव को पैरों में बांधकर फ़िर से आकाश में उड गये ।इस तरह वह भयभीत ब्राह्मण भगवान को याद करने लगा । उसकी प्रार्थना सुनकर भगवान वहां गुप्त रूप से पहुंच गये । और प्रेतों द्वारा ब्राह्मण को आश्चर्य से ले जाते हुये देखते चुपचाप उनके पीछे चलने लगे ।
सुमेर पर्वत के पास पहुंचकर भगवान श्रीकृष्ण को मणिभद्र नाम का यक्ष मिला । भगवान ने इशारे से उसे बुलाया और कहा कि तुम इन प्रेतों से युद्धकर इन्हें मारकर शव को अपने अधिकार में कर लो । इसके बाद मणिभद्र ने प्रेतों को दुख पहुंचाने वाले भयंकर प्रेत का रूप धारणकर उनसे भयंकर युद्ध किया और उन्हें परास्त कर शव छीन लिया । प्रेतों ने ब्राह्मण को पारियात्र पर्वत पर उतारा और वापस मणिभद्र की और आये किन्तु वह अदृष्य हो गया । तब हताश होकर वे वापस पर्वत पर पहुंचे और ब्राह्मण को मारने लगे । ज्यों ही उन्होंने ब्राह्मण को मारा । तो भगवान के वहां होने से और ब्राह्मण के प्रभाव से तत्काल उनके पूर्वजन्म की स्मृति जाग उठी । तब उन प्रेतों ने ब्राह्मण की प्रदक्षिणा की ।और क्षमा मांगी ।
ब्राह्मण को बेहद आश्चर्य हुआ । उसने कहा आप लोग कौन हैं ? और अचानक इस बदले व्यवहार का क्या कारण है ?
प्रेतों ने कहा कि हम सब प्रेत है । जो आपके दर्शन से निष्पाप हो गये । हमारे नाम पर्युषित । सूचीमुख । शीघ्रग । रोधक और लेखक हैं । ब्राह्मण ने कहा । तुम्हारे नाम बडे अजीव हैं । मुझे इसका रहस्य बताओ ।
तब पहले " पर्युषित " बोला । मैने श्राद्ध के समय ब्राह्मण का न्यौता किया था पर वो ब्राह्मण देर से पहुंचा । तब मैंने बिना श्राद्ध किये हुये ही भूख के कारण उस श्राद्ध हेतु बने भोजन को खा लिया और देर से पहुंचे ब्राह्मण को पर्युषित ( बासी ) भोजन खिला दिया । इसी पाप से मुझे दुष्ट योनि की प्राप्ति हुयी । और पर्युषित भोजन देने के कारण मेरा यह नाम पडा ।
सूचीमुख बोला । किसी समय एक ब्राह्मणी अपने पांच वर्षीय एकलौते पुत्र के साथ तीर्थस्नान हेतु भद्रवट गयी । मैं उस समय क्षत्रिय था । मैंने राहजनी करते हुये उस लडके के सिर में घूंसा मारा । और दोनों के वस्त्र और खाने का सामान छीन लिया । प्यास से व्याकुल जब वह लडका माता से लेकर जल पीने लगा । तो मैंने उसका जल पात्र छीनकर वह थोडा सा ही शेष जल स्वयं सारा पी लिया । इस तरह डरे और प्यास से व्याकुल बालक की कुछ ही देर में मृत्यु हो गयी । उसकी मां ने भी कुंए में कूदकर जान दे दी । इस पाप से में प्रेत बना । पर्वत जैसा शरीर होने पर भी मेरा मुख सुई की नोक के समान है । यधपि मैं खाने योग्य पदार्थ प्राप्त कर लेता हूं । पर इस सुई के छेद जैसे मुख से उसको खाने में असमर्थ हूं । भूख से व्याकुल बालक का भोजन छीनकर मैंने उसका मुंह बन्द किया । इससे मेरा मुंह सुई के नोक जैसा हो गया । अतः मैं सूचीमुख के नाम से प्रसिद्ध हूं ।
शीघ्रग बोला । मैं एक धनवान वैश्य था । अपने मित्र के साथ व्यापार करने दूसरे देश गया । मेरे मित्र के पास बहुत धन था । मेरे मन में उस धन के लिये लोभ आ गया । मेरा धन समाप्त हो चुका था । हम दोनों नाव से एक नदी को पार कर रहे थे । मेरा मित्र थककर सो गया । लालच से मेरी बुद्धि क्रूर हो उठी थी । अतः मैंने अपने मित्र को नदी में धकेल दिया । इस बात को कोई न जान सका । मित्र के हीरे जवाहरात सोना आदि लेकर मैं अपने देश लौट आया । सारा सामान अपने घर में रखकर मैंने मित्र की पत्नी से जाकर कहा कि मार्ग में डाकुओं ने मित्र को मारकर सब सामान छीन लिया । मैं भाग आया हूं । तब उस दुखी स्त्री ने सबकी ममता त्यागकर अपने को अग्नि की भेंट कर दिया । मैं खुश होकर लौट आया ।और दीर्घकाल तक उस धन का उपभोग किया । मित्र को नदी में फ़ेंककर शीघ्र घर लौट आने के कारण मुझे प्रेतयोनि मिली और मेरा नाम शीघ्रग हुआ ।
रोधक बोला । मैं शूद्र जाति का था । राजा से मुझे उपहार में बडे बडे सौ गांव मिले थे । मेरे परिवार में वृद्ध माता पिता और एक छोटा सगा भाई था । लोभ से मैंने भाई को अलग कर दिया । जिससे वह भोजन वस्त्र की कमी से दुखी रहने लगा । उसे दुखी देखकर मेरे माता पिता मुझसे छिपाकर उसकी सहायता कर देते थे । जब मुझे यह बात पता चली । तो क्रोधित होकर मैंने माता पिता को जंजीरों से बांधकर एक सूने घर में डाल दिया । जहां कुछ दिन बाद वे जहर खाकर मर गये । माता पिता के मर जाने के बाद मेरा भाई भी भूख से व्याकुल इधर उधर भटकता हुआ मर गया । इस पाप से मुझे यह प्रेत योनि मिली । अपने माता पिता को बन्दी बनाने के कारण मेरा नाम रोधक पडा ।
लेखक बोला । मैं उज्जैन का ब्राह्मण था । और मन्दिर में पुजारी था । उस मन्दिर में सोने की बनी और रत्न
से जडी हुयी बहुत सी मूर्तियां थी । उन रत्नों को देखकर मेरे मन में पाप आ गया और मैंने नुकीले लोहे से मूर्ति के नेत्रों से रत्न निकाल लिये । क्षत विक्षत और नेत्रहीन मूर्ति देख राजा क्रोध से तमतमा उठा और उसने प्रतिग्या की कि जिसने भी यह चोरी की है । वह निश्चित ही मेरे द्वारा मारा जायेगा । यह सुनकर मैंने रात में चुपके से राजा के महल में जाकर तलवार से उसका सिर काट दिया । इसके बाद चुरायी गयी मणि और सोने के साथ मैं रात में ही दूसरे स्थान को चल दिया । जहां रास्ते में जंगल में बाघ द्वारा मारा गया । नुकीले लोहे से प्रतिमा को छेदने और काटने का कार्य करने के कारण मैं नरक भोगने के बाद लेखक नाम का प्रेत हुआ ।
ब्राह्मण ने कहा । ओह अब मैं समझा । लेकिन मुझे तुम्हारे आचरण और आहार को लेकर जिग्यासा है ।
तब प्रेतों ने उत्तर दिया । जिसके घर में श्राद्ध तर्पण भक्ति पूजा नहीं होते । अशौच रहता है । हम उसके शरीर से मांस और रक्त बलात अपह्त कर उसे पीडित करते हैं । मांस खाना । रक्त पीना ही हमारा आचरण है । इसके अतिरिक्त हम निंदनीय वमन । विष्ठा । कीचड । कफ़ । मूत्र । आंसुओं के साथ निकलने वाला मल आदि आहार करते हैं । हम सब अग्यानी । तामसी और मन्दबुद्धि हैं ।
इसी वार्तालाप के समय भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें दर्शन दिया । ब्राह्मण और प्रेतों ने उन्हें प्रणाम किया । ब्राह्मण ने उनसे प्रेतों के उद्धार हेतु प्रार्थना की । श्रीकृष्ण ने उसकी प्रार्थना स्वीकार करते हुये ब्राह्मण और प्रेतों का उद्धार करते हुये उसी समय उन्हें अपने लोक पहुंचा दिया ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "
" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं । सम्पर्क.. 09837364129

23 जुलाई 2010

सोना बनाने के रहस्यमय नुस्खे 1

लेखकीय -- कुछ दिनों पहले मैंने " पारस पत्थर का रहस्य " नामक लेख प्रकाशित किया था । जिसमें सोना बनाने का हल्का सा जिक्र आया था । जिसकी मेरे तमाम पाठकों पर जबरदस्त प्रतिक्रिया हुयी और उन्होंने फ़ोन । ई मेल । sms । आदि के द्वारा इस विषय पर विस्तार से लिखने को कहा । हांलाकि मैं आप लोगों की जिग्यासा पूर्ति हेतु लिख अवश्य रहा हूं । पर ये सब क्रियायें बेहद कठिन हैं और इनके लिये विशेष साधन विशेष उपकरणों की आवश्यकता होती है । जिसमें सबसे मुश्किल तेज ताप की गलाने वाली भट्टी की ही आती है । फ़िर भी इनके छोटे प्रयोग कोई करना चाहें और वांछित वस्तुओं के वर्तमान नाम जानने की दिक्कत आये । तो किसी " आयुर्वेद " की मूल पुस्तक और संस्कृत के शब्दकोष का सहारा लें । वैसे पुराने विद्वान । और वैध लोग इन नामों को अक्सर जानते हैं । ये प्रयोग विशेष रुचि वालो के लिये । शोधकर्ताओं के लिये ही लाभदायक हैं । साधारण आदमी द्वारा ये प्रयोग करना समय और पैसे की बरबादी के अलावा कुछ नही है । लेख प्रकाशित करने का उद्देश्य पाठकों को भारत की महान प्राचीन ग्यान परम्परा से अवगत कराना है । " सोना बनाने के रहस्यमय नुस्खे " तीन भागों में प्रकाशित है । जो एक साथ ही प्रकाशित हो चुके हैं । कृपया लेख में दिये गये खाने के नुस्खे का प्रयोग कतई न करें । अन्यथा " मृत्यु " हो सकती है ।
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रसक calamine दरद cinnabar ताप्य golden pyrites गगन mica और कुजरी real gar इन्हें बराबर लेकर लाल सेंहुड के दूध में सात दिन तक घोंटे । फ़िर 24 घडी तक इसे जलयन्त्र में पकायें । इस प्रकार सहस्त्र वेधी कल्क मिलेगा । जो पिघले तांबे । चांदी । या सीसे को निसंदेह सोना बना देगा ।
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एक भाग पारे को पांच भाग बज्रवल्ली और त्रिदन्डी के रस के साथ बेंत या रागिणी ( अशोक ) की मूसली के साथ खरल में मर्दन करें । ऐसा करने से जो पीला कल्क मिलता है । उसे पिघले तांबे में सोलहवां भाग मिलाये । तो सुन्दर सोना बन जाता है ।
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नवसार ( नौसादर ) और पारे को निम्ब , मातुलुंग ( बिजौरा नींबू ) और घृतकुमारी के रस के साथ धूप में मर्दन करें । और जलयन्त्र में तीन दिन तक तेज आंच पर पकायें । तो इस प्रकार शतवेधी पदार्थ मिलेगा । जो चांदी को सोने में बदल देगा ।
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एक पल लौह चूर्ण में सुमल क्षार और सुहागा मिलाकर एरंड तेल के साथ दो घडी तक घोंटे । फ़िर कल्क का गोला बनाकर धोंकनी से धोंके । इस प्रकार लोहा गलकर पारे के समान हो जायेगा । इसमें रसक की उचित मात्रा मिलायें । और वज्रमूषा में लोहे और रसक के मिश्रण को गलायें । फ़िर उसे उतारकर तांबे में मिलायें तो शुद्ध चांदी बन जायेगी ।
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मछली की आंख निकालकर दूध में पकायें । फ़िर पुतली निकालकर साफ़ कर लें । फ़िर ईंट के चूर्ण से मर्दन करें । ऐसा करने से मोती उत्पन्न हो जायेगा । ऐसा प्रयोग कुछ लोगों ने किया भी है ।
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महारस ये हैं । माक्षिक । विमल । शैल । चपल । रसक । सस्यक । दरद । और स्रोतोडाजन ( रसार्णव ) ।
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यदि राजार्वत lapis lazuli को शिरीश फ़ूल के रस से भावित किया जाय । तो इसकी एक गुज्जा से श्वेत स्वर्ण ( चांदी ) के 100 गुज्जा को सूर्य के समान तेज सोने में बदल सकते हैं ।
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पीले गन्धक को पलाश के गोंद के रस से शोधित किया जाय और अरने कन्डों की आग पर तीन बार पकाया जाय । तो इससे चांदी को सोने में बदला जा सकता है ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "
" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं । सम्पर्क.. 09837364129

सोना बनाने के रहस्यमय नुस्खे 2

लेखकीय -- कुछ दिनों पहले मैंने " पारस पत्थर का रहस्य " नामक लेख प्रकाशित किया था । जिसमें सोना बनाने का हल्का सा जिक्र आया था । जिसकी मेरे तमाम पाठकों पर जबरदस्त प्रतिक्रिया हुयी और उन्होंने
फ़ोन । ई मेल । sms । आदि के द्वारा इस विषय पर विस्तार से लिखने को कहा ।हांलाकि मैं आप लोगों की जिग्यासा पूर्ति हेतु लिख अवश्य रहा हूं । पर ये सब क्रियायें बेहद कठिन हैं और इनके लिये विशेष साधन विशेष उपकरणों की आवश्यकता होती है । जिसमें सबसे मुश्किल तेज ताप की गलाने वाली भट्टी की ही आती है । फ़िर भी इनके छोटे प्रयोग कोई करना चाहें और वांछित वस्तुओं के वर्तमान नाम जानने की दिक्कत आये । तो किसी " आयुर्वेद " की मूल पुस्तक और संस्कृत के शब्दकोष का सहारा लें । वैसे पुराने विद्वान । और वैध लोग इन नामों को अक्सर जानते हैं । ये प्रयोग विशेष रुचि वालो के लिये । शोधकर्ताओं के लिये ही लाभदायक हैं । साधारण आदमी द्वारा ये प्रयोग करना समय और पैसे की बरबादी के अलावा कुछ नही है । लेख प्रकाशित करने का उद्देश्य पाठकों को भारत की महान प्राचीन ग्यान परम्परा से अवगत कराना है । " सोना बनाने के रहस्यमय नुस्खे " तीन भागों में प्रकाशित है । जो एक साथ ही प्रकाशित हो चुके हैं । कृपया लेख में दिये गये खाने के नुस्खे का प्रयोग कतई न करें । अन्यथा " मृत्यु " हो सकती है ।
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रसक calamine को तीन बार तांबे के साथ तपायें । तो तांबा सोने में बदल जाता है ।
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दरद cinnabar को कई बार भेड के दूध से । और अम्लवर्ग पदार्थों के साथ भावित करें । और धूप में रखें । तो चांदी केसरिया रंग के सोने में बदल जाती है ।
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चांदी को शुद्ध करना हो तो इसे शीशे के साथ गलायें । और क्षारों के साथ तपायें । फ़िर छोटी जटामासी ( पिशाची ) के तेल में तीन बार डुबायें । सोने जैसा रंग उत्पन्न करता है ।
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बन्दमूषा में मदार के दूध और रसक ( जिंक सल्फ़ाइड ) के साथ पारे का यदि तीन बार जारण करें तो इससे सोने का रंग आ जाता है ।
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एक मुठ्ठी शुद्ध पारा । एक मुठ्ठी गन्धक इन्हें धतूरे के रस में घोंट लें । फ़िर चक्रयोग के द्वारा भावना दें । ऐसा करने से पारा भस्म हो जाता है । फ़िर इन्हें बन्दमूषा में फ़ूंके तो सुन्दर खोट प्राप्त होता है । जिससे धातुओं का वेधन किया जा सकता है ।
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धूर्त तेल ( धतूरे का तेल ) अहिफ़ेन ( अफ़ीम ) कंगुनी तेल । मूंग तेल । जायफ़ल का तेल । हयमार तेल । शिफ़ा ( ब्रह्मकन्द का तेल ) आदि को बेधक माना गया है । इनके साथ पारे की इस प्रकार क्रिया करायी जाय । कि जो पारा बने । उसकी सहायता से साधारण धातुओं का बेधन कर स्वर्ण बनाया जा सके ।
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सहस्त्रवेधी पारा तैयार करने के लिये । मिट्टी की कूपी । सोने की कूपी । अथवा लोहे की कूपी लें । इस कूपी पर बहुत सी खडिया । लवड । और लौह चूर्ण मिले गारे का लेप करें । इसका प्रयोग भूधर यन्त्र में करें । पारे की मात्रा का सौ गुना गन्धक पाचित करा दिया जाय । तो ऐसा पारा चांदी । तांबा रांगा । सीसा आदि के प्रति सहस्त्रवेधी हो जाता है ।
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दरद ( सिंगरफ़ ) माक्षिक ( सोना माखी ) गन्धक । राजावर्त । मूंगा । मनशिला । तूतिया । और कंकुष्ठ इनका बराबर चूर्ण लें । फ़िर पीले और लाल वर्ग के फ़ूल बराबर लें । और कंगुनी के तेल के साथ पांच दिन धूप में बराबर भावना दें । फ़िर जारित पारे को कल्क के साथ सकोरे के सम्पुट में बालू की हांडी में भरकर तीन दिन पाक करें । पाक के समय ये कल्क बार बार डालें । ऐसा करने से पारा रंजित हो जाता है और उसमें शतवेधी शक्ति उत्पन्न हो जाती है ।
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पारा । दरद ( सिंगरफ़ ) ताप्य ( स्वर्ण माक्षिक ) गन्धक और मनशिला इनको क्रमानुसार एक एक भाग बडाकर लें । फ़िर इनके साथ एक भाग चांदी । तीन भाग तांबा मिलाकर जारित करें । तो श्रेष्ठ सोना तैयार हो जाता है ।
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शुद्ध रांगा सावधानी के साथ गलायें । और उसमें सोंवा भाग पारा मिलायें । ऐसा करने से 32 कला की शुद्ध चांदी बनती है ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "
" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं । सम्पर्क.. 09837364129

सोना बनाने के रहस्यमय नुस्खे 3

लेखकीय -- कुछ दिनों पहले मैंने " पारस पत्थर का रहस्य " नामक लेख प्रकाशित किया था । जिसमें सोना बनाने का हल्का सा जिक्र आया था । जिसकी मेरे तमाम पाठकों पर जबरदस्त प्रतिक्रिया हुयी और उन्होंने
फ़ोन । ई मेल । sms । आदि के द्वारा इस विषय पर विस्तार से लिखने को कहा । हांलाकि मैं आप लोगों की जिग्यासा पूर्ति हेतु लिख अवश्य रहा हूं । पर ये सब क्रियायें बेहद कठिन हैं और इनके लिये विशेष साधन विशेष उपकरणों की आवश्यकता होती है । जिसमें सबसे मुश्किल तेज ताप की गलाने वाली भट्टी की ही आती है । फ़िर भी इनके छोटे प्रयोग कोई करना चाहें और वांछित वस्तुओं के वर्तमान नाम जानने की दिक्कत आये । तो किसी " आयुर्वेद " की मूल पुस्तक और संस्कृत के शब्दकोष का सहारा लें । वैसे पुराने विद्वान । और वैध लोग इन नामों को अक्सर जानते हैं । ये प्रयोग विशेष रुचि वालो के लिये । शोधकर्ताओं के लिये ही लाभदायक हैं । साधारण आदमी द्वारा ये प्रयोग करना समय और पैसे की बरबादी के अलावा कुछ नही है । लेख प्रकाशित करने का उद्देश्य पाठकों को भारत की महान प्राचीन ग्यान परम्परा से अवगत कराना है । " सोना बनाने के रहस्यमय नुस्खे " तीन भागों में प्रकाशित है । जो एक साथ ही प्रकाशित हो चुके हैं । कृपया लेख में दिये गये खाने के नुस्खे का प्रयोग कतई न करें । अन्यथा " मृत्यु " हो सकती है ।
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तैलकन्द नाम का कमलकन्द के समान प्रसिद्ध कन्द है । इसके पत्ते कमल जैसे होते हैं । इस कन्द से सदा तेल
चूता रहता है । पानी में दस हाथ की दूरी तक ये तेल फ़ैला रहता है । इसके नीचे हमेशा एक महाविषधर रहता है । इस कन्द की पहचान ये है कि इसमें लोहे की सुई प्रविष्ट करायें तो सुई तुरन्त घुल जाती है । इस कन्द को लाकर तीन बार शुद्ध पारे के साथ खरल में पीसो । फ़िर इसका तेल मिला दो । फ़िर मूसा में रखकर बांस के कोंपलो की आग में तपाओ । ऐसा करने से पारा मर जाता है । और उसमें लक्ष वेधी गुण आ जाते हैं । अर्थात साधारण धातु के एक लाख भाग और ऐसे पारे का एक भाग हो । इसको खाने से भूख और नींद पर विजय प्राप्त हो जाती है ।
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शुद्ध हरताल ( orpiment ) लेकर उस कन्द तेल के साथ 20 दिन तक खरल में पीसे । तो वह हरताल मर जायेगी । और निश्चय ही निर्धूम हो जायेगी । याने गरम करने पर उडेगी नहीं । इसे फ़िर आग में डाल दें । आठ धातुओं में से किसी को गला लें । गलित धातु में मरी हरताल मिलाये । तो सर्व वेधी का कार्य करेगी । मरी हरताल और तांबा मिलाने पर सोना बन जायेगा । मरी हरताल के साथ रांगा या कांसा मिलाने पर चांदी बन जायेगी । मरी हरताल के साथ लोहा । पीतल ।चांदी मिलाने से सोना बन जायेगा ।
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वज्रमूषा में यदि पारा और लौह सूचीद्राव रस लिया जाय और आग में साबधानी के साथ तपाया जाय । तो पारा मर जायेगा । इस मरे पारे को किसी धातु से मिलायें । तो वह सोना बन जायेगी । इस मरे पारे को खाने से अमरत्व की प्राप्ति हो सकती है । इसे खाने वाले के मलमूत्र से तांबा सोने में बदल जायेगा ।
चेतावनी -- खाने वाला कोई प्रयोग न करें । मेरी आंखों के सामने ही बुझा पारा खाकर अमरता प्राप्त करने की चाहत रखने वाले एक व्यक्ति की एक साल तक बेहद कष्ट भुगतने के बाद दर्दनाक मृत्यु हुयी है । इस व्यक्ति के शरीर की सभी नसें नीली और हरी हो गयीं थी । और ये हर समय ठन्डे पानी में बैठा रहता था । फ़िर भी इसे गरमी लगती रहती थी । दरअसल ये उच्च स्तर के साधु संतो का ग्यान है । जन साधारण को खाने वाले प्रयोग कदापि नहीं करने चाहिये । अन्यथा परिणामस्वरूप " मृत्यु " भी साधारण बात है । अतः खाने वाला प्रयोग किसी भी अनजानी चीज का कभी न करें । बल्कि करें ही न तो बेहतर है ।
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शूद्ध तूतिया लें जो पीले गन्धक से उत्पन्न हुआ हो । और आक के दूध के साथ खरल में भावना देकर यत्नपूर्वक एक पहर तक अच्छी तरह घोंटे । इसमें सीसा के समान धातु मिलाने पर सोना बन जाता है ।
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सीसा और तांबे के मिलने से बने दृव्य के मध्य में मेलापन क्रिया करें । उसमें से कुम्पिका उत्पन्न होती है । उसमें तीन बार यत्नपूर्वक सीसा गलायें । तो कुम्पिका के बीच में निर्मल स्वर्ण प्राप्त होता है ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "
" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं । सम्पर्क.. 09837364129

15 जुलाई 2010

गुरुपूर्णिमा उत्सव पर आप सभी सादर आमन्त्रित हैं ।

गुर्रुब्रह्मा गुर्रुविष्णु गुर्रुदेव महेश्वरा । गुरुः साक्षात पारब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः । श्री श्री 1008 श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज " परमहँस "
अनन्तकोटि नायक पारब्रह्म परमात्मा की अनुपम अमृतकृपा से ग्राम - उवाली । पो - उरथान । बुझिया के पुल के पास । करहल । मैंनपुरी । में सदगुरुपूर्णिमा उत्सव बङी धूमधाम से सम्पन्न होने जा रहा है । गुरुपूर्णिमा उत्सव का मुख्य उद्देश्य इस असार संसार में व्याकुल पीङित एवं अविधा से ग्रसित श्रद्धालु भक्तों को ग्यान अमृत का पान कराया जायेगा । यह जीवात्मा सनातन काल से जनम मरण की चक्की में पिसता हुआ धक्के खा रहा है व जघन्य यातनाओं से त्रस्त एवं बैचेन है । जिसे उद्धार करने एवं अमृत पिलाकर सदगुरुदेव यातनाओं से अपनी कृपा से मुक्ति करा देते हैं । अतः ऐसे सुअवसर को न भूलें एवं अपनी आत्मा का उद्धार करें । सदगुरुदेव का कहना है । कि मनुष्य यदि पूरी तरह से ग्यान भक्ति के प्रति समर्पण हो । तो आत्मा को परमात्मा को जानने में सदगुरु की कृपा से पन्द्रह मिनट का समय लगता है । इसलिये ऐसे पुनीत अवसर का लाभ उठाकर आत्मा की अमरता प्राप्त करें ।
नोट-- यह आयोजन 25-07-2010 को उवाली ( करहल ) में होगा । जिसमें दो दिन पूर्व से ही दूर दूर से पधारने वाले संत आत्म ग्यान पर सतसंग करेंगे ।
विनीत - राजीव कुलश्रेष्ठ । आगरा । पंकज अग्रवाल । मैंनपुरी । पंकज कुलश्रेष्ठ । आगरा । अजब सिंह परमार । जगनेर ( आगरा ) । राधारमण गौतम । आगरा । फ़ौरन सिंह । आगरा । रामप्रकाश राठौर । कुसुमाखेङा । भूरे बाबा उर्फ़ पागलानन्द बाबा । करहल । चेतनदास । न . जंगी मैंनपुरी । विजयदास । मैंनपुरी । बालकृष्ण श्रीवास्तव । आगरा । संजय कुलश्रेष्ठ । आगरा । रामसेवक कुलश्रेष्ठ । आगरा । चरन सिंह यादव । उवाली ( मैंनपुरी । उदयवीर सिंह यादव । उवाली ( मैंनपुरी । मुकेश यादव । उवाली । मैंनपुरी । रामवीर सिंह यादव । बुझिया का पुल । करहल । सत्यवीर सिंह यादव । बुझिया का पुल । करहल ।
कायम सिंह । रमेश चन्द्र । नेत्रपाल सिंह । अशोक कुमार । सरवीर सिंह ।

पागल बाबा । पागलानन्द ।


आज बहुत दिनों बाद पागल बाबा से मुलाकात हुयी । पागल बाबा से भूरे बाबा उर्फ़ पागल बाबा उर्फ़ पागलानन्द बाबा भी कहते हैं । पागल बाबा संत तोतापुरी । अद्वैतानन्द जी । स्वरूपानन्द जी । नंगली धाम । सकौती टांडा । मेरठ । की परम्परा में । स्वरूपानन्द जी के शिष्य श्री अनिरुद्ध जी
महाराज । पंढरी वासी । के शिष्य । राजानन्द जी महाराज उर्फ़ गङबङानन्द जी । चन्दरपुर । किशनी के शिष्य हैं । और दस साल से सन्यास जीवन में हैं । पागल बाबा का भरा पूरा और समृद्ध परिवार है । स्वयं पागल बाबा सन्यास में आने से पूर्व ट्रक । ट्रेक्टर आदि गाङियो के इंजन के अच्छे मेकेनिक थे । और आज से दस साल पहले तक पाँच सौ रुपया प्रतिदिन आराम से अपने हुनर से ही कमाते थे ।
इसके अतिरिक्त गाङियों के पुर्जे । पुरानी गाङियाँ खरीदने का कार्य अलग से था । इस तरह कम से कम एक हजार से चार हजार तक प्रतिदिन की आमदनी थी । लेकिन एक दिन ऐसा वैराग जागा । कि सारा काम धाम लङकों को सोंपकर लंगोट पहन लिया । और चिमटा बजाते हुये भजन गाने में मस्त हो गये । आजकल बाबा जहाँ की मौज आती हैं । वहीँ की यात्रा पर चल देते हैं । बाबा कहते
हैं सीखो नहीं भूलो । सीखने से संसार है । और भूलने से परमात्मा । मुक्ति का रास्ता सीधा और आसान है । उस पर चलो । वैसे " पागल बाबा " समाधि आदि का अभ्यास मेरे महाराज जी " श्री सदगुरुदेव श्री शिवानन्द जी महाराज " परमहँस " से सीख रहे हैं ।इनका सम्पर्क न. -- 0 9528328956 है ।
ये जब भ्रमण पर नहीं होते । अपने किशनी रोड । करहल वाले आश्रम पर मिलते हैं । पागल बाबा मस्ती में गाते हैं ।
कछू लेना न देना । मगन रहना । कछू लेना न देना । मगन रहना ।
पाँच तत्व का बना रे पिंजरा । ता में बोले सुगर मैंना ।
तेरा साई तेरे घट में । देख सखी अब खोल नैना ।
कछू लेना न देना । मगन रहना । कछू लेना न देना । मगन रहना ।
गहरी नदिया नाव पुरानी । अब केवटिया से मिले रहना ।
कछू लेना न देना । मगन रहना । कछू लेना न देना । मगन रहना ।
कहत कबीर सुनो भई साधो । गुरु चरनन से लिपट रहना ।
कछू लेना न देना । मगन रहना । कछू लेना न देना । मगन रहना ।

13 जुलाई 2010

असली ..नकली..?


क्या आप जानते हैं कि भारत में सात लाख गाँव और वयालीस लाख रजिस्टर्ड साधु हैं । यानी एक गाँव के हिस्से में छह साधु आते हैं । यदि इतने साधु असली साधुता युक्त हों । वास्तविक न सही । साधुता का सतही ग्यान भी रखते हों । तो भारत से तमाम झगङें और जन जीवन के कलेश विदा हो जाँय ।
शंकर जी ने कहा है । निज अनुभव तोय । कहूँ खगेशा । बिनु हरि भजन । न मिटे कलेशा । इस असली हरि भजन को जानने वाले साधु गिनती में बहुत थोङें होंगे । और इसको उच्च स्तर पर जानने वाले तो
उंगलियों पर गिने जा सकते हैं । एक और बात आपको बताऊँ । जितना झगङा और कलेश आप ग्रहस्थों में नहीं होता । जितना इन साधुओं में होता है । मठाधीश बनने की जुगाङ । गद्दी की जुगाङ । धन की
प्राप्ति के निरंतर प्रयत्न । अपने लिये निजी आश्रम बनाने की चिंता । अपने शिष्य बङाने और अपना मत प्रचार करने की चिंता । दूसरे के ग्यान और उपलब्धि को नीचा बताना । दूसरे के मत को नीचा बताना । ये वे बातें हैं । जो मैंने अपने साधु जीवन में अक्सर देखी हैं । इनमें कुछ मत के साधु तो इतने उग्र स्वभाव के होते हैं । कि अपनी बात नीची होते देख दूसरे की हत्या कर देते हैं या हत्या पर उतारू हो जाते हैं । मोटी माया सब तजे । झीनी तजी न जाय । मान बङाई ईर्ष्या । लख चौरासी लाय ।
80 % साधु भिक्षा में अच्छी कमाई देखकर साधु हो जाते हैं । इन्हीं में कुछ ऐसे भी होते हैं । जिन्हें बिना काम किये खाने की आदत हो जाती है । कुछ अपराधी तबके के लोग पुलिस आदि से बचने के लिये अपनी पहचान छुपाने हेतु साधु हो जाते हैं । कुछ ग्रहस्थी का भार उठाने में नाकाम साबित होतें हैं । और अंत में साधु हो जाते हैं । कुछ स्त्री ( से सम्भोग ) के योग्य नहीं होते । कुछ । नारि मुई । ग्रह सम्पत्ति नासी । मूङ मुङाय । भये सन्यासी । होते हैं । वास्तव में ऐसे ही साधु जिन्होंने कपङे रंगकर पहन लेना ही साधुता जाना है । साधुओं पर से जनता का विश्वास उठा दिया है । दुर्भाग्य से ऐसे ही साधुओं की गिनती आज ज्यादा है । असली साधु का न कोई जाति होती है । और न ही संसार की चीजों से प्रयोजन । जाति न पूछो । साधु की । पूछ लीजिये ग्यान । मोल करो तलवार का ।
पढा रहन दो म्यान ।
आईये आपको असली साधु के बारे में कुछ बताते हैं । साधु की शुरुआत परमात्म प्रेम की और बङने से होती है । जिसकी शुरुआती अवस्था को " साधक " कहा गया है । साधक यानी साधने वाला । और जो साधने में निपुणता प्राप्त कर रहा है । वो साधु होता है । क्योंकि साधु का लक्ष्य ही संसार से हटकर परमात्मा को जानना और अपने उस अनुभव को ग्रहस्थ आदि में बाँटना होता है । वो ग्रहस्थों के दुख शमन के उपाय और परमात्म प्राप्ति के उपदेश करता है । और बदले में ग्रहस्थ उसके वस्त्र भोजन आदि में सहायता कर सेवा करता है । ये एक सुन्दर व्यवस्था थी । जो कालान्तर में नकली साधुओं और धर्मभीरु जनता की मानसिकता से दूषित हो गयी । और इसके लिये साधु से ज्यादा जनता जिम्मेवार है ।
वास्तव में साधु क्या है ? कोई साधु आकर किसी कालोनी के मन्दिर या वृक्ष आदि के नीचे लोगों को तत्व ग्यान का उपदेश करे । तब उसको जलपान भोजन आदि करा दिया जाय । और पर्व विशेष या अपने घर में कोई समारोह आदि होने पर हम उसको वस्त्र या उसकी जरूरत का सामान भेंट कर सकते हैं । जब ये साधु खूब परिचित हो जाय । तब उससे ग्यान आदि के सम्बन्ध में बात कर सकते हैं ।
मैं क्योंकि साधुओं को निकट से जानता हूँ । अतः आपको इनकी लीला बता रहा हूँ । मान लीजिये ।आपके शहर के आसपास किसी स्थान पर एक या चार साधु इकठ्ठा रहते हैं । अब इन्होंने अपने बिजनेस की सेटिंग कर ली । सोमवार के दिन एक साधु फ़लां स्थान ( कालोनी या मुहल्ला ) से भिक्षा या धन का संग्रह करेगा । मंगल को दूसरे स्थान पर । इसी तरह पूरे सप्ताह का कार्यक्रम तय रहता है । अब मंगल वाले दिन आपके घर उसी टुकङी का दूसरा साधु आ जाता है । बुध को तीसरा । और गुरुवार को चौथा । एक ही साधु रोज रोज आय । तो आपको भी चिङ होगी । आप काफ़ी दिन बाद आया सोचकर उसको भिक्षा देते रहते हैं । पर आपकी भिक्षा एक ही जगह जा रही है । एक साधु एक दिन में औसत कम से कम बीस से तीस किलो आटा और पचास से सौ रुपये आराम से ले जाता है । और
खाने के समय पर पहुँच जाने पर बहुत लोग खाना भी खिला देते हैं । इस तरह ढाई सौ से लेकर चार सौ
रुपये तक साधु आराम से कमा लेता है । और फ़िर बहुत से साधु रात को शराब पीते हैं ।
कुछ समय पहले जब मैं आगरा के बजाय एक अन्य स्थान पर रहता था । एक साधु मेरे पास ही रहता था । एक दिन वो मुझे कहीं जाने की तैयारी करता मिला । मैंने कहा । बाबा कहाँ जा रहा है ? वो ढीटता से हँसता हुआ बोला । कि मालूम नहीं " सीजन " ( धन कमाने का ) है । मैंने कहा । किस तरह ?
वो बोला । मैं तीन चार हजार रुपये लेकर तीन महीने तक जगह जगह जाऊँगा । यात्रा और खाना अधिकांश मुफ़्त हो ही जाता है । इन दिनों साधुओं को कम्बल बाँटे जाते हैं । तो मुझे मिलने वाले कम्बल तो मैं इकठ्ठे कर ही लेता हूँ । कुछ साधु जो चरस स्मैक आदि का नशा करते हैं । अपने कम्बल तीस रुपये से लेकर पचास रुपये का तुरन्त नशे के लिये बेच देते हैं । ऐसे कम्बल इकठ्ठे करके मैं बाद में उनको ढाई सौ । तीन सौ तक बेच देता हूँ ? ये एक नया बिजनेस मुझे पता चला ?
इसी तरह स्थान का नाम तो मैं नहीं बताऊँगा । पर अपराधों के लिये भारत भर में कुख्यात है । यू पी का ये जिला । मैं रेलवे स्टेशन पर रात बारह बजे के करीब था । अचानक दो सौ साधु धीरे धीरे करके एक चमत्कार की तरह स्टेशन पर प्रकट हो गये । मुझे बङा आश्चर्य हुआ । मैंने अपने साथी हरि नारायण से पूछा । कि ये साधु वेटिंग रूम से निकलकर आ रहें हैं । जबकि कुछ समय पहले एक भी साधु नहीं था ।
उन्होंने कहा । कि ये साधु नहीं हैं । यहाँ रहने वाले एक जाति विशेष के उठाईगीरे हैं । ये स्टेशन तक सादा कपङों में आतें हैं । ताकि कोई लोकल आदमी इन्हें पहचान न लें । स्टेशन में ये साधु बाना धारण कर लेते हैं । ये ट्रेन के समय आ जाते हैं । और ट्रेन में मुफ़्त यात्रा करके विभिन्न स्थानों पर दो तीन दिन के लिये माँगने चलें जाँयेंगे । लेकिन इनका मुख्य उद्देश्य ट्रेन में सोते हुये आदमी या असावधान आदमी का अटैची या अन्य सामान चोरी करना है । ये जेब काटने में भी निपुण होते हैं । साधु समझकर आदमी इनको शक की नजर से नहीं देखता । इस तरह ये बङा हाथ मारकर घर लौट जाते हैं और किसी कारणवश यदि चोरी का माल हाथ न लगे । तो अन्य क्षेत्रों में जाकर झूठे टायप के हाथ देखना । उल्टी सीधी भविष्यवाणी करके अक्सर ग्रामीण जनता को डराकर अपना उल्लू सीधा करते हैं ।
इनमें से कुछ दूसरे स्थानों पर होने वाले यग्य आदि की बात बताकर जनता से पैसे ऐंठ लाते हैं । जबकि यग्य आदि कुछ नहीं होता । कुछ जो इनमें पङे लिखे भी होते हैं । वे किसी दूरस्थ स्थान पर किसी धार्मिक आयोजन
की बात कहकर चन्दा की रसीद काटते हैं । हरि ने बताया कि इनमें से ज्यादातर स्मैक का नशा करते हैं । उदाहरण बहुत से हैं । पर मेरा अभिप्राय ये हैं कि ये साधु गलत हैं या जनता गलत है ? निसंदेह जनता । इनको बङाबा देने वाली जनता ही है । मैं भले ही साधु हूँ । पर परिचित साधु मुझे देखते ही कन्नी काटने की कोशिश करते हैं । क्योंकि एक तो उन्होनें कभी भी मुझे भिक्षा जैसा प्रयोजन नहीं करते देखा । कभी कम्बल लेते नहीं देखा । कभी भन्डारे या उसकी दक्षिणा में शामिल होते नहीं देखा । कभी भन्डारे की पर्ची ग्रहण करते नहीं देखा । उल्टे वे एक बात से भयभीत होते हैं । कि मैं चार लोगों के बीच उनको बुलाकर उनका मत । गुरु । ग्यान । अखाङा । ग्यान में उपलब्धि । गुरु परम्परा । आदि जैसी बातें पूछने लगता हूँ । जिससे वे नावाकिफ़ होने के कारण बेइज्जत महसूस करते हैं ।
इसलिये साधु मुझ साधु को देखकर दूर ही से निकल जाते हैं । अंत में मैं सरल भाषा में एक ही बात कहूँगा । कि किसी भी साधु को एक रुपया भी देने से पहले आप उससे ग्यान से सम्बन्धित कुछ खास प्रश्न पूछें । मोक्ष क्या है । वेदों में क्या है । गीता क्या कहती है । चौथा राम कौन सा है ? यदि साधु हल्के स्तर पर भी अच्छे जबाब देता हैं तो उसे भिक्षा दे दें । बरना तो आप साधुओं के नाम पर भिखारियों की फ़ौज बङा रहें हैं । और उससे ज्यादा खुद जिम्मेवार हैं । बाद में आप लोग शिकायत करते हैं कि आजकल के साधु भ्रष्ट हैं । और अच्छे साधुओं को इसका मुआवजा भरना पङता है । और आप लोग भी अच्छे साधुओं के दर्शन सतसंग आदि से वंचित हो जाते हैं । इसलिये कम से कम भिक्षा देने की धारणा में ही सुधार कर लें । इससे ही आप असली साधुओं के प्रति सच्चा उपकार और साधु सेवा कर लेंगे । " साधु होय तो पक्का होय के खेल । कच्ची सरसों पेर के खली बने ना तेल । "
" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "
" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।

12 जुलाई 2010

स्वांसों का रहस्य

आईये आज स्वांस के रहस्यों के बारे में बात करते हैं । वैसे स्वांस का रहस्य जानना मामूली बात नहीं है । क्या आप जानते हैं कि 24 घन्टे में हमें कितनी बार स्वांस आती हैं । नहीं ना जानते ? 24 घन्टे में हमें 21600 बार स्वांस आती है । अगर हम सामान्य अवस्था में हैं । यानी बीमार नहीं हैं ।
या भागने आदि की वजह से हाँफ़ नहीं रहे । या किसी बीमारी के चलते हमारी स्वांस काफ़ी मंदगति से नहीं चल रही । तो सामान्य अवस्था में चार सेकेंड में एक स्वांस का आना जाना होता है । यानी दो सेकेंड में स्वांस लेना और दो सेकेंड में छोङना । इस तरह एक मिनट में 15 बार स्वांस का आना
जाना होता है । इस तरह एक घन्टे में 900 बार । और 24 घन्टे में 21600 बार स्वांस का आना जाना होता है । जो आपने अक्सर महात्माओं के नाम के आगे 108 या 10008 लिखा देखा होगा । उसका भी सम्बन्ध स्वांस और भजन क्रिया से है । अब जैसा कि मैं हमेशा कहता हूँ कि शब्द पर ध्यान देने से ही अनेक रहस्य खुल जाते हैं । स्वांस को लें । यदि इसमें से बिंदी ( . ) हटा दी जाय और इस तरह लिखा
जाय । स्व । आस यानी स्वास । तो इसका सीधा सा अर्थ हो गया । स्व ( अपनी ) आस ( इच्छा ) यानी ये दुर्लभ शरीर आपको अपनी प्रबल इच्छा के चलते प्राप्त हुआ है । अब बिंदी का चक्कर रह गया । ये बिंदी बङी रहस्यमय चीज है । मैं अपने अन्य लेखों में भी बिंदी और र की चर्चा कर चुका हूँ । पूरा खेल तमाशा जो आप देख रहें हैं । इसी बिंदी और र का ही है । आप देखें । कि हिंदी भाषा जो संस्कृत से उत्पन्न हुयी है । र और बिंदी के बिना इसकी क्या हालत हो जाती है । र और आधे न का घोतक ये बिंदी इसकी चारों तरफ़ गति है । इसके अलावा किसी भी अक्षर को ये महत्ता प्राप्त नहीं हैं । इस बिंदी का पूरा और असली रहस्य ॐ में छिपा हुआ है । ॐ के पाँच अंग हैं ।ऊ के तीन ।अ । उ । म । अर्ध चन्द्र । चौथा । और बिंदी । पाँचवा । इसी ॐ से मनुष्य शरीर की रचना हुयी है । ॐ ते काया बनी । सोह्म ते बना मन ।
तो फ़िलहाल इसे छोङो । मैं स्वांस की बात कर रहा था । अगर आप की स्वांस से दोस्ती हो जाय । अगर आप स्वांस का संगीत सुनना सीख जायें । तो अनगिनत रहस्य आपके सामने प्रकट हो जायेंगे । दूसरे यह एक तरह का दिव्य योग भी होगा । जो आपके शरीर और मन को दिव्यता से भर देगा । यदि आपने किसी साधु संत के मार्गदर्शन में इस रहस्य को जाना । तो फ़िर कहने ही क्या । देखिये संत कबीर साहब ने यूँ ही नहीं कहा । स्वांस स्वांस पर हरि जपो । विरथा स्वांस न खोय । ना जाने । इस स्वांस का । आवन होय न होय । कहे हूँ । कहे जात हूँ । कहूँ बजाकर ढोल । स्वांसा खाली जात है । तीन लोक का मोल । आखिर इस स्वांस में क्या रहस्य है । जो तीन लोक का मोल बताया गया है ।
वैसे भी कोई कितना ही धनी हो । चक्रवर्ती राजा हो । एक बार मरने के बाद वो अपार सम्पदा का मूल्य देकर भी
एक स्वांस नहीं खरीद सकता । सहज योग या सुरती शब्द योग में स्वांस का बेहद महत्व है । पर इस योग का ग्यान रखने वाले क्योंकि दुर्लभ होते हैं । और ये योग हरेक के भाग्य में नहीं होता । इसलिये इस लेख में अभी वो चर्चा नहीं करूँगा । लेकिन " सुर साधना " सामान्य आदमी भी बङे आराम से सीख सकता है । अब सुर साधना का अर्थ संगीत साधना से मत लगा लेना । " सुर " नाक द्वार से जो पवन बहता है । उसे कहते हैं । इसे " दाँया सुर " और " बाँया सुर " कहा जाता है । इसे ही अन्य अर्थों में सूर्य । चन्द्र । और इङा । पिंगला भी कहते हैं । इस सुर को सम करना सिखाया जाता है । जो स्वांस बिग्यान के अन्तर्गत ही आता है । इस सुर को भली प्रकार से सम करना सीख जाने पर ह्रदय के तमाम रोग । डायबिटीज और त्वचा आदि तमाम रोग तो दूर होते ही हैं । अंतिम समय तक । यानी वृद्धावस्था तक युवाओं जैसा शरीर और ताकत प्राप्त होती है ।
सहज योग में सुर साधना या इस प्रकार की अन्य साधनाएं " लय योग " के अन्तर्गत स्वतः समाहित हो जाती हैं । वास्तव में इसीलिये सहज योग या सुरती शब्द योग को सभी योगों का राजा कहा गया है । अब स्वांस के सामान्य जीवन में फ़ायदे सुन लीजिये । अगर आप बैचेनी महसूस कर रहे हैं और अजीव सा लग रहा है । आठ दस गहरे गहरे स्वांस लें । फ़ौरन राहत मिलेगी । अगर आप लम्बे समय से किसी असाध्य बीमारी से पीङित हैं । और बिस्तर पर पङे रहना । आपकी मजबूरी है । तो आप स्वांस से दोस्ती कर लें । फ़िर देंखे । ये आपको कितना लाभ पहुँचाती है और अनजाने आनन्द से भी भर देती है । लेकिन एक बात समझ लें । आप अधिक कमजोरी या बेहद घबराहट जैसे किसी विशेष रोगों से पीङित हैं तो स्वांस पर प्रयोग करना आपके लिये फ़ायदे के बजाय नुकसान का सौदा ही होगा । उपरोक्त बातें सामान्य स्थिति और सामान्य बीमारी के लिये ही हैं । विशेष स्थिति में किसी जानकार के मार्गदर्शन में ही बढना उचित होता है । तो आप जिस तनहाई से घबराते हैं । आपकी जो रातें प्रियतम या प्रियतमा के बिना सूनी हैं । उनमें आप स्वांस से नाता जोङकर देखिये । फ़िर देखिये कैसा आनन्द आता है । किसी बिलकुल अकेले स्थान पर चले जाईये और शांत होकर स्वांस का संगीत सुनिये । निश्चय ही ऐसा आनन्दमय अनुभव आपको संसार की किसी भी वस्तु से नहीं होगा ?
" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "
" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।

10 जुलाई 2010

काल गणना..

अक्सर जिग्यासु लोग मुझसे प्रश्न करते हैं । तो प्रश्न का आधार वर्तमान जानकारी या तथ्यों पर आधारित होता है । जबकि इसके विपरीत प्रश्न । सतयुग या त्रैता युग का होगा । दूसरे जिस ठोस तरीके से जिग्यासु अपनी बात रखता है । उसके पीछे कोई तार्किक वजह भी नहीं होती । वह किसी सुनी या पढी बात के आधार पर ही अपनी बात को जोर देते हैं । अब उदाहरण के तौर पर कई लोग द्वापर को पाँच हजार
साल पहले का बता देते हैं । हँसी तो तब आती है । बहुत से लोग त्रैता को पाँच हजार साल पहले का समय मानते हैं । दरअसल यह इतना जटिल प्रश्न भी नहीं हैं । आप धर्म शास्त्र के अनुसार ज्योतिष गणना कैसे की जाती है । यह तरीका सीख लें । फ़िर राम कृष्ण या अन्य पुरातन लोग जिनके जन्म का विवरण मिलता है । उस संवत आदि से ज्योतिष के अनुसार ये गणना करें । तो वह समय लाखों वर्ष पूर्व का ही
होगा । फ़िर उसी गणना के आधार पर आज तक का चार्ट बनाते हुयें । गणना करतें चलें आये । तो ग्रह नक्षत्र आदि सभी विवरण सटीक बैठेंगे । इससे सिद्ध हो जायेगा । कि ज्योतिष की गणना सही है । और भले ही कुछ लोगों को ये " हौवा " लगती हो । वास्तव में इसको समझना अधिक कठिन नहीं है ।
तो आज मैं आपको " युगों " की आयु के बारे में बता रहा हूँ ।
सत्रह लाख । अठ्ठाईस हजार वर्ष । का सतयुग होता है । बारह लाख । छियानबे हजार साल का । त्रैता युग होता है । आठ लाख । चौसठ हजार साल । का द्वापर युग होता है । चार लाख । बत्तीस हजार साल । का कलियुग होता है । इन चारों युगों का योग एक " महायुग " कहलाता है ।
इसी तरह आपने " घङी " शब्द का समय के रूप में बहुत इस्तेमाल पढा या सुना होगा । एक घङी विश्राम कर लो । इन्तजार की घङिंया कब समाप्त होगीं । लो वो घङी आ ही गयी । जिसका इंतजार था । लेकिन मुझे सेंट परसेंट पता है । कि 99 % लोग नहीं जानते होंगे । कि एक " घङी " आखिर कितना समय होता है ? तुलसीदास ने लिखा है । " एक घङी आधी घङी । आधी हू पुनि आधि । तुलसी संगत साधु की । हरे कोटि अपराध । तो ये एक घङी आखिर कितनी देर की है ?
बहुत से लोग " पल " का समय एक या दो सेकेंड को मानते हैं । जो कि एकदम गलत है । एक पल में । या पलक झपकते ही । आपने सुना होगा । जरा अनुभव करें । हमारी पलक एक या दो सेकेंड में सामान्य अवस्था में नहीं झपकती । बल्कि ठीक चौबीस सेकेंड बाद झपकती है । इस तरह " चौबीस सेकेंड " का एक पल या " पलक " होता है । " साठ पलक " यानी " चौबीस मिनट " की " एक घङी " होती है । साढे सात घङी का " एक पहर " यानी तीन घन्टे का समय होता है । । आठ पहर का " दिन रात " होता है । यानी चौबीस घन्टे का टायम । तो उम्मीद है । आज आप घङी । पल या पलक झपकने के रहस्य को जान गये होंगे ।।
आपने चौरासी लाख । चौरासी लाख योनियाँ कई बार सुना होगा । आईये चलते चलते आपको चौरासी लाख योनियों के बारे में भी बता दें । चौरासी लाख योनियों में । नौ लाख प्रकार के जल जीव हैं । चौदह लाख प्रकार के पक्षी हैं । सत्ताईस लाख प्रकार के कृमि यानी कीट पतंगे आदि जैसे जीव हैं । तीस लाख प्रकार के वृक्ष और पहाङ आदि है । ( वृक्ष और पहाङ भी चौरासी लाख योनियों के अन्तर्गत आते हैं । इन्हें स्थावर योनि कहते हैं ) चार लाख प्रकार के मनुष्य हैं ।
इसी प्रकार बहुत से लोग इस गलतफ़हमी के शिकार हैं । कि इस सृष्टि को ब्रह्मा ने बनाया हैं । आईये इसको भी जानते हैं । सात दीप । नव खन्ड के । इस राज्य का मालिक । निरंजन यानी ररंकार यानी राम यानी कृष्ण यानी काल पुरुष यानी मन हैं । यह सृष्टि निर्माण के बाद अपने आरीजनल रूप को गुप्त करके हमेशा के लिये अदृष्य हो गया । वास्तव में इसकी पत्नी और इसके तीन बच्चे ब्रह्मा विष्णु शंकर भी इसको अपनी इच्छा से नहीं देख सकते हैं । यह अपनी इच्छा से ही किसी को मिलता है । आपको याद होगा । राम अवतार के समय शंकर ने कहा था । हरि व्यापक सर्वत्र समाना । प्रेम से प्रकट होत मैं जाना ।
तब भी इसकी सिर्फ़ आवाज ही आकाशवाणी के द्वारा सुनाई दी थी । वास्तव में यही राम कृष्ण के रूप में अवतार लेता है । और वेद आदि धर्म ग्रन्थ इसी की प्रेरणा से रचे गये हैं । वेदों को तो इसने स्वंय रचा है । सारे धर्म ग्रन्थों में यह यही संदेश देता है । कि यही यहाँ की सबसे बङी शक्ति है । जो निसंदेह सच भी हैं ।
पर ये कहता है । कि इससे ऊपर या परमात्मा को नेति नेति यानी नहीं जाना जा सकता ये गलत है । इसकी पत्नी यानी सतपुरुष का अंश । अष्टांगी कन्या यानी ।आध्या शक्ति ।यानी सीता । यानी राधा यानी ब्रह्मा विष्णु शंकर की माँ । यानी प्रकृति यानी सृष्टि की पहली औरत है । तो ये सात दीप । नव खन्ड की सृष्टि इस तरह बनी । आध्या शक्ति ने " अंडज " यानी अंडे से उत्पन्न होने वाले जीवों को रचा । इनमें तीन तत्व " जल अग्नि वायु " होते हैं । ब्रह्मा ने " पिंडज " यानी पिंड से यानी शरीर से उत्पन्न होने वाले जीवों की रचना की । इनमें मनुष्य को छोङकर वाकी पिंडज जीवों में चार तत्व यानी " अग्नि जल प्रथ्वी वायु " होते हैं । विष्णु ने " ऊष्मज " यानी कीट पतंगे जीवों की रचना की । इनमें दो तत्व " वायु और अग्नि " होते हैं । शंकर जी ने " स्थावर " योनि जीवों यानी वृक्ष पहाङ की रचना की । जिसमें एक तत्व यानी " जल " होता है । यहाँ एक बात विचारणीय है । वास्तव में सभी योनियों और शरीरों में पाँच तत्व होते हैं । लेकिन ऊपर मैंने एक तत्व या दो तीन तत्व की बात कही है । वास्तव में बताये गये तत्व उनमें प्रमुख और अधिकतम होते हैं । जबकि शेष तत्व ना के समान होते हैं । मनुष्य में पाँचो तत्व समान रूप से मौजूद होते हैं ।
" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "
" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं ।