आजकल धर्म में जो चीज सबसे ज्यादा देखने को मिल रही है । वो है भागवत सप्ताह । कभी कभी मेरे दिमाग में यह बात आती है कि हम लोग ज्यादातर मामलों में भेडचाल क्यों हैं ? खासतौर पर धर्म के मामलों में ?? कभी मुझे यह भी लगता है कि धर्म के मामलों में हम श्रद्धा वाले न होकर भयभीत ही है । हम प्रेम भक्ति कम करते हैं । अनिष्ट के डर की आंशका से डरकर भक्ति अधिक करते हैं ।
कभी आपने भागवत सप्ताह ध्यान से सुना है ?? अगर सुना या पढा होगा । तो आपको मालूम होगा कि पहला भागवत सप्ताह या जिसे मुक्ति कथा भी कहते हैं द्वापर युग के अंत में और कलियुग के प्रारम्भ में उस समय हुई थी ।
जब राजा परीक्षित की गलती से ऋषिकुमार ने उसे शाप दे दिया कि सात दिन में तुझे तक्षक काट लेगा । तक्षक बेहद जहरीला सांप होता है । और इस प्रकार राजा परीक्षित की मृत्यु निश्चित थी ।
दरअसल राजा परीक्षित को मृत्यु की इतनी चिंता नहीं थी । जितनी चिंता उसे अपनी मुक्ति की थी । उस समय के लोग भलीभांति जानते थे कि मुक्ति कैसे होती है ?
और धार्मिक माहौल की अधिकता से वे ये भी जानते थे कि इसका तरीका क्या होता है ??
वास्तव में इस मनुष्य शरीर में ही मुक्ति हो सकती है । इसके लिए किशोरावस्था में ही पहुंचे हुये समर्थ गुरु से दीक्षा ले ली जाती थी । और फिर उस मुक्ति मंत्र के जाप से अपनी आत्मा से जुड़े कलेशों का नाश किया जाता था ।
परीक्षित को क्या मालूम था कि उसके साथ ये घटना घट जायेगी । और तब तक वो मनुष्य जीवन के इस एकमात्र और महान लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाया था ।
तो अब उसकी ये चिंता थी कि उसे कोई ऐसा संत मिले । जो सात दिन के अल्प समय में उसकी आत्मा को काल सीमा से ऊपर उठा सके । वो ऐसे बन्दी छोड मुक्तिदाता संत की तलाश में नैमिषारण्य पहुंचा ।
शास्त्र में लिखा है कि उस समय वहां 88000 साधू मौजूद थे । उसने कहा कि कोई ऐसे संत को जानता है ?? जो मुक्तिज्ञान से मुक्ति कराने में सक्षम हो ??
ये बड़े आश्चर्य की बात है कि 88000 साधुओं ने हाथ जोड़कर विनमृता से मना कर दिया । क्योंकि पहले के साधू आजकल के साधुओं की तरह झूठ नहीं बोलते थे । सबने कहा कि किशोरावस्था के श्री शुकदेव जी ही इस ग्यान के एकमात्र अधिकारी है ???
जरा सोचिये कि वो कौन सा ज्ञान था ?? जिसके लिए अनेकों बुजुर्ग साधुओं ने मना कर दिया । जाहिर है । कोई ख़ास ज्ञान ही रहा होगा ??? और एक बात भी तय है कि भागवत कथा सुनने या कराने से मुक्ति नहीं होती । वरना परीक्षित भी आजकल की तरह किसी से भी कथा करा लेता । और मुक्त हो जाता ।
जाहिर सी बात है कि मुक्ति का ये सौदा इतना सस्ता भी नहीं है । इसके लिये किसी पहुंचे हुये साधु की तलाश । और अविनाशी नाम ( या ढाई अक्षर मन्त्र का जाप ) की दीक्षा अति आवश्यक है ।
परीक्षित उस वक्त मौत के भय से भयभीत था । और पूरी तरह एकाग्र चित्त हो चुका था । शुकदेव जी ने उसकी दीक्षा आदि विधान पूरा करके सात दिन के अन्दर उसकी आत्मा को काल सीमा से बाहर निकाल दिया । मौत के भय से स्वतः जागृत हुयी एकाग्रता ने इसमें बडी सहायता की ।
सोचिये जिस कथा के लिये 88000 साधुओं ने मना कर दिया । उसे हरेक कोई कैसे कर सकता है ??? और परीक्षित को कथा केवल इसीलिये सुनाई जा रही थी कि उसकी सुरति की एकाग्रता बनी रहे ।
वास्तव में शुकदेव जी ने उसकी सुरति को ऊपर चढाया था ।
जरा सोचिये । असली भागवत कथा क्या है ?? और उसका क्या मतलब हो सकता है ?
कबीर साहब ने कहा है । भोजन कहे भूख जो भाजे । जल कह तृषा बुझाई..अर्थात भूख लगने पर । कह दो । भोजन । और भूख मिट जाय । इसी तरह पानी कह देने से प्यास बुझ जाय । तो राम ( मुंह से कहने पर ) राम कहने से भी आदमी तर जायेगा ।
वास्तव में तरने का तरीका दूसरा ही है । जिसको सुरति शब्द साधना कहते हैं ।
कभी आपने भागवत सप्ताह ध्यान से सुना है ?? अगर सुना या पढा होगा । तो आपको मालूम होगा कि पहला भागवत सप्ताह या जिसे मुक्ति कथा भी कहते हैं द्वापर युग के अंत में और कलियुग के प्रारम्भ में उस समय हुई थी ।
जब राजा परीक्षित की गलती से ऋषिकुमार ने उसे शाप दे दिया कि सात दिन में तुझे तक्षक काट लेगा । तक्षक बेहद जहरीला सांप होता है । और इस प्रकार राजा परीक्षित की मृत्यु निश्चित थी ।
दरअसल राजा परीक्षित को मृत्यु की इतनी चिंता नहीं थी । जितनी चिंता उसे अपनी मुक्ति की थी । उस समय के लोग भलीभांति जानते थे कि मुक्ति कैसे होती है ?
और धार्मिक माहौल की अधिकता से वे ये भी जानते थे कि इसका तरीका क्या होता है ??
वास्तव में इस मनुष्य शरीर में ही मुक्ति हो सकती है । इसके लिए किशोरावस्था में ही पहुंचे हुये समर्थ गुरु से दीक्षा ले ली जाती थी । और फिर उस मुक्ति मंत्र के जाप से अपनी आत्मा से जुड़े कलेशों का नाश किया जाता था ।
परीक्षित को क्या मालूम था कि उसके साथ ये घटना घट जायेगी । और तब तक वो मनुष्य जीवन के इस एकमात्र और महान लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाया था ।
तो अब उसकी ये चिंता थी कि उसे कोई ऐसा संत मिले । जो सात दिन के अल्प समय में उसकी आत्मा को काल सीमा से ऊपर उठा सके । वो ऐसे बन्दी छोड मुक्तिदाता संत की तलाश में नैमिषारण्य पहुंचा ।
शास्त्र में लिखा है कि उस समय वहां 88000 साधू मौजूद थे । उसने कहा कि कोई ऐसे संत को जानता है ?? जो मुक्तिज्ञान से मुक्ति कराने में सक्षम हो ??
ये बड़े आश्चर्य की बात है कि 88000 साधुओं ने हाथ जोड़कर विनमृता से मना कर दिया । क्योंकि पहले के साधू आजकल के साधुओं की तरह झूठ नहीं बोलते थे । सबने कहा कि किशोरावस्था के श्री शुकदेव जी ही इस ग्यान के एकमात्र अधिकारी है ???
जरा सोचिये कि वो कौन सा ज्ञान था ?? जिसके लिए अनेकों बुजुर्ग साधुओं ने मना कर दिया । जाहिर है । कोई ख़ास ज्ञान ही रहा होगा ??? और एक बात भी तय है कि भागवत कथा सुनने या कराने से मुक्ति नहीं होती । वरना परीक्षित भी आजकल की तरह किसी से भी कथा करा लेता । और मुक्त हो जाता ।
जाहिर सी बात है कि मुक्ति का ये सौदा इतना सस्ता भी नहीं है । इसके लिये किसी पहुंचे हुये साधु की तलाश । और अविनाशी नाम ( या ढाई अक्षर मन्त्र का जाप ) की दीक्षा अति आवश्यक है ।
परीक्षित उस वक्त मौत के भय से भयभीत था । और पूरी तरह एकाग्र चित्त हो चुका था । शुकदेव जी ने उसकी दीक्षा आदि विधान पूरा करके सात दिन के अन्दर उसकी आत्मा को काल सीमा से बाहर निकाल दिया । मौत के भय से स्वतः जागृत हुयी एकाग्रता ने इसमें बडी सहायता की ।
सोचिये जिस कथा के लिये 88000 साधुओं ने मना कर दिया । उसे हरेक कोई कैसे कर सकता है ??? और परीक्षित को कथा केवल इसीलिये सुनाई जा रही थी कि उसकी सुरति की एकाग्रता बनी रहे ।
वास्तव में शुकदेव जी ने उसकी सुरति को ऊपर चढाया था ।
जरा सोचिये । असली भागवत कथा क्या है ?? और उसका क्या मतलब हो सकता है ?
कबीर साहब ने कहा है । भोजन कहे भूख जो भाजे । जल कह तृषा बुझाई..अर्थात भूख लगने पर । कह दो । भोजन । और भूख मिट जाय । इसी तरह पानी कह देने से प्यास बुझ जाय । तो राम ( मुंह से कहने पर ) राम कहने से भी आदमी तर जायेगा ।
वास्तव में तरने का तरीका दूसरा ही है । जिसको सुरति शब्द साधना कहते हैं ।
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