धर्मदास वैष्णव थे । और ठाकुर पूजा किया करते थे । अपनी मूर्ति पूजा के कृम में धर्मदास मथुरा आये । जहाँ उनकी भेंट कबीर से हुयी । धर्मदास दयालु व्यवहारी और पवित्र जीवन जीने वाले इंसान थे । अत्यधिक धन संपत्ति के बाद भी अहंकार उन्हें छूआ तक नहीं था । वे अपने हाथों से स्वयं भोजन बनाते थे । और पवित्रता के लिहाज से जलावन लकङी को इस्तेमाल करने से पहले धोया करते थे ।
एक बार जब वह मथुरा में भोजन तैयार कर रहे थे । उसी समय कबीर से उनकी भेंट हुयी । उन्होंने देखा कि भोजन बनाने के लिये जो लकङियाँ चूल्हे में जल रही थीं । उसमें से ढेरों चींटियां निकल कर बाहर आ रही थी । धर्मदास ने जल्दी से शेष लकङियों को बाहर निकाल कर चींटियों को जलने से बचाया । उन्हें बहुत दुख हुआ । वे अत्यन्त व्याकुल हो उठे । लकङियों में जलकर मर गयी चींटियों के प्रति उनके मन में बेहद पश्चाताप हुआ ।
वे सोचने लगे । आज मुझसे महा पाप हुआ है । अपने इसी दुख की वजह से उन्होंने भोजन भी नहीं खाया । उन्होंने सोचा कि जिस भोजन के बनने में इतनी चींटियां जलकर मर गयी हों । उसे कैसे खा सकता हूँ । वह दूषित भोजन खाने योग्य नहीं था । अतः वह भोजन उन्होंने किसी दीन हीन साधु महात्मा आदि को कराने का विचार किया ।
वो भोजन लेकर बाहर आये । तो उन्होंने देखा । कबीर साहब एक घने शीतल वृक्ष की छाया में बैठे हुये थे । धर्मदास ने उनसे भोजन के लिये निवेदन किया ।
इस पर कबीर ने कहा - हे सेठ धर्मदास । जिस भोजन को बनाते समय हजारों चींटियां जलकर मर गयीं । उस भोजन को मुझे कराकर ये पाप तुम मेरे ऊपर क्यों लादना चाहते हो । तुम तो रोज ही ठाकुर जी की पूजा करते हो । फ़िर उन्हीं भगवान से क्यों नहीं पूछ लिया था कि इन लकङियों के अन्दर क्या है ?
धर्मदास को बेहद आश्चर्य हुआ कि इस साधु को ये सब बात कैसे पता चली । उस समय तो धर्मदास के आश्चर्य का ठिकाना न रहा । जब कबीर ने चींटियां भोजन से जिंदा निकलते हुये दिखायीं । इस रहस्य को वे समझ न सके ।
उन्होंने दुखी होकर कहा - बाबा । यदि मैं भगवान से इस बारे में पूछ सकता । तो मुझसे इतना बङा पाप क्यों होता ।
धर्मदास को पाप के महा शोक में डूबा देखकर कबीर ने अध्यात्म ज्ञान के गूढ रहस्य बताये । जब धनी धर्मदास ने उनका परिचय पूछा । तो कबीर ने अपना नाम कबीर और निवासी अमरलोक ( सत्यलोक ) बताया । इसके कुछ देर बाद कबीर अंतर्ध्यान हो गये ।
धर्मदास को जब कबीर बहुत दिनों तक नहीं मिले । तो वो व्याकुल होकर जगह जगह उन्हें खोजते फ़िरे । उनकी स्थिति पागल समान हो गयी ।
तब उनकी पत्नी ने सुझाव दिया - तुम ये क्या कर रहे हो ? उन्हें खोजना बहुत आसान है । जैसे कि चींटी चींटा गुङ को खोजते हुये खुद ही आ जाते हैं ।
धर्मदास ने कहा - क्या मतलब ?
उनकी पत्नी ने कहा - खूब भंडारे कराओ । दान दो । हजारों साधु अपने आप आयेंगे । जब वह साधु तुम्हें दिखे । तो उसे पहचान लेना ।
धर्मदास को बात उचित लगी । और वे ऐसा ही करने लगे । उन्होंने अपनी सारी संपत्ति खर्च कर दी । पर वह साधु ( कबीर ) नहीं मिले ।
बहुत समय भटकने के बाद उन्हें कबीर काशी में मिले । परन्तु उस समय वे वैष्णव वेश में थे । फ़िर भी धर्मदास ने उन्हें पहचान लिया । और उनके चरणों में गिर पङे ।
और बोले - सदगुरु महाराज मुझ पर कृपा करें । मुझे अपनी शरण में लें । हे गुरुदेव मुझ पर प्रसन्न हों । मैं उसी समय से आपको खोज रहा हूँ । आज आपके दर्शन हुये हैं ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास तुम मुझे कहाँ खोज रहे थे । तुम तो चींटी चींटो को खोज रहे थे । सो वे तुम्हारे भन्डारे में आये । ( इस पर धर्मदास को अपनी मूर्खता पर बङा पश्चाताप हुआ । तब उसे प्रायश्चित भावना में देखकर कबीर ने फ़िर कहा )
लेकिन तुम बहुत भाग्यशाली हो । जो तुमने मुझे पहचान लिया । अब तुम धैर्य धारण करो । मैं तुम्हें जीवन के आवागमन से मुक्त कराने वाला मोक्ष ज्ञान दूँगा ।
इसके बाद धर्मदास निवेदन करके कबीर को अपने साथ बाँधोगढ ले आये ।
इसके बाद तो बाँधोगढ में कबीर के श्रीमुख से आलौकिक आत्मज्ञान सतसंग की अविरल धारा ही बहने लगी । दूर दूर से लोग सतसंग सुनने आने लगे । धर्मदास और उनकी पत्नी आमिन ने दीक्षा ली कबीर साहब ने धर्मदास को सुयोग्य शिष्य जानते हुये मोक्ष का अनमोल ज्ञान दिया ।
एक बार जब वह मथुरा में भोजन तैयार कर रहे थे । उसी समय कबीर से उनकी भेंट हुयी । उन्होंने देखा कि भोजन बनाने के लिये जो लकङियाँ चूल्हे में जल रही थीं । उसमें से ढेरों चींटियां निकल कर बाहर आ रही थी । धर्मदास ने जल्दी से शेष लकङियों को बाहर निकाल कर चींटियों को जलने से बचाया । उन्हें बहुत दुख हुआ । वे अत्यन्त व्याकुल हो उठे । लकङियों में जलकर मर गयी चींटियों के प्रति उनके मन में बेहद पश्चाताप हुआ ।
वे सोचने लगे । आज मुझसे महा पाप हुआ है । अपने इसी दुख की वजह से उन्होंने भोजन भी नहीं खाया । उन्होंने सोचा कि जिस भोजन के बनने में इतनी चींटियां जलकर मर गयी हों । उसे कैसे खा सकता हूँ । वह दूषित भोजन खाने योग्य नहीं था । अतः वह भोजन उन्होंने किसी दीन हीन साधु महात्मा आदि को कराने का विचार किया ।
वो भोजन लेकर बाहर आये । तो उन्होंने देखा । कबीर साहब एक घने शीतल वृक्ष की छाया में बैठे हुये थे । धर्मदास ने उनसे भोजन के लिये निवेदन किया ।
इस पर कबीर ने कहा - हे सेठ धर्मदास । जिस भोजन को बनाते समय हजारों चींटियां जलकर मर गयीं । उस भोजन को मुझे कराकर ये पाप तुम मेरे ऊपर क्यों लादना चाहते हो । तुम तो रोज ही ठाकुर जी की पूजा करते हो । फ़िर उन्हीं भगवान से क्यों नहीं पूछ लिया था कि इन लकङियों के अन्दर क्या है ?
धर्मदास को बेहद आश्चर्य हुआ कि इस साधु को ये सब बात कैसे पता चली । उस समय तो धर्मदास के आश्चर्य का ठिकाना न रहा । जब कबीर ने चींटियां भोजन से जिंदा निकलते हुये दिखायीं । इस रहस्य को वे समझ न सके ।
उन्होंने दुखी होकर कहा - बाबा । यदि मैं भगवान से इस बारे में पूछ सकता । तो मुझसे इतना बङा पाप क्यों होता ।
धर्मदास को पाप के महा शोक में डूबा देखकर कबीर ने अध्यात्म ज्ञान के गूढ रहस्य बताये । जब धनी धर्मदास ने उनका परिचय पूछा । तो कबीर ने अपना नाम कबीर और निवासी अमरलोक ( सत्यलोक ) बताया । इसके कुछ देर बाद कबीर अंतर्ध्यान हो गये ।
धर्मदास को जब कबीर बहुत दिनों तक नहीं मिले । तो वो व्याकुल होकर जगह जगह उन्हें खोजते फ़िरे । उनकी स्थिति पागल समान हो गयी ।
तब उनकी पत्नी ने सुझाव दिया - तुम ये क्या कर रहे हो ? उन्हें खोजना बहुत आसान है । जैसे कि चींटी चींटा गुङ को खोजते हुये खुद ही आ जाते हैं ।
धर्मदास ने कहा - क्या मतलब ?
उनकी पत्नी ने कहा - खूब भंडारे कराओ । दान दो । हजारों साधु अपने आप आयेंगे । जब वह साधु तुम्हें दिखे । तो उसे पहचान लेना ।
धर्मदास को बात उचित लगी । और वे ऐसा ही करने लगे । उन्होंने अपनी सारी संपत्ति खर्च कर दी । पर वह साधु ( कबीर ) नहीं मिले ।
बहुत समय भटकने के बाद उन्हें कबीर काशी में मिले । परन्तु उस समय वे वैष्णव वेश में थे । फ़िर भी धर्मदास ने उन्हें पहचान लिया । और उनके चरणों में गिर पङे ।
और बोले - सदगुरु महाराज मुझ पर कृपा करें । मुझे अपनी शरण में लें । हे गुरुदेव मुझ पर प्रसन्न हों । मैं उसी समय से आपको खोज रहा हूँ । आज आपके दर्शन हुये हैं ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास तुम मुझे कहाँ खोज रहे थे । तुम तो चींटी चींटो को खोज रहे थे । सो वे तुम्हारे भन्डारे में आये । ( इस पर धर्मदास को अपनी मूर्खता पर बङा पश्चाताप हुआ । तब उसे प्रायश्चित भावना में देखकर कबीर ने फ़िर कहा )
लेकिन तुम बहुत भाग्यशाली हो । जो तुमने मुझे पहचान लिया । अब तुम धैर्य धारण करो । मैं तुम्हें जीवन के आवागमन से मुक्त कराने वाला मोक्ष ज्ञान दूँगा ।
इसके बाद धर्मदास निवेदन करके कबीर को अपने साथ बाँधोगढ ले आये ।
इसके बाद तो बाँधोगढ में कबीर के श्रीमुख से आलौकिक आत्मज्ञान सतसंग की अविरल धारा ही बहने लगी । दूर दूर से लोग सतसंग सुनने आने लगे । धर्मदास और उनकी पत्नी आमिन ने दीक्षा ली कबीर साहब ने धर्मदास को सुयोग्य शिष्य जानते हुये मोक्ष का अनमोल ज्ञान दिया ।
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