25 जून 2016

भविष्य पुराण से


श्री सूत उवाच -
1 शालिवाहन वंशे च राजानो दश चाभवन । राज्यं पञ्चशताब्दं च कृत्वा लोकान्तरं ययुः ।
- श्री सूतजी बोले - शालिवाहन के वंश में दस राजा हुए थे । सबने पञ्च सौ वर्ष राज्य किया था और अंत में दूसरे लोक में चले गए थे ।

2 मर्यादा क्रमतो लीना जाता भूमण्डले तदा । भूपतिर्दशमो यो वै भोजराज इति स्मृतः ।
- उस समय इस भूमण्डल में क्रम से मर्यादा लीन हो गयी थी । इनमें दसवां राजा भोजराज नाम से प्रसिद्ध हुआ ।

3 दृष्टवा प्रक्षीणमर्यादां बली दिग्विजयं ययौ । सेनया दशसाहस्र्या कालिदासेन संयुतः ।
- मर्यादा क्षीण होते देखकर उस  बलवान (राजा) ने दिग्विजय करने को गमन किया था । सेना में दस सहस्त्र सैनिक के साथ कालिदास थे ।

4 तथान्यैर्ब्राह्मणैः सार्द्धं सिन्धुपारमुपाययौ । जित्वा गान्धारजान म्लेच्छान काश्मीरान आरवान शठान ।
- तथा अन्य ब्राह्मणों के सहित वह सिन्धु नदी के पार प्राप्त हुआ ( अर्थात पार किया ) था । उसने गान्धार, मलेच्छ, काश्मीर, नारव और शठों को जीता ।

5 तेषां प्राप्य महाकोषं दण्डयोग्यानकारयत । एतस्मिन्नन्तरे म्लेच्छ आचार्येण समन्वितः ।
- उनका बहुत सा कोष प्राप्त करके उन सबको योग्य दण्ड दिया था । इसी समय में मल्लेछों का एक आचार्य हुआ ।

6 महामद इति ख्यातः शिष्यशाखा समन्वितः । नृपश्चैव महादेवं मरुस्थलनिवासिनम ।
- महामद शिष्यों की अपने शाखाओं में बहुत प्रसिद्ध था । नृप ( राजा ) ने मरुस्थल में निवास करने वाले महादेव को नमन किया ।

7 गंगाजलैश्च सस्नाप्य पञ्चगव्य समन्वितैः । चन्दनादिभिरभ्यर्च्य तुष्टाव मनसा हरम ।
- पञ्चगव्य से युक्त गंगा जल से स्नान करा तथा चन्दन आदि से अभ्याचना करके हर ( महादेव ) को स्तुति किया ।

भोजराज उवाच -
 8 नमस्ते गिरिजानाथ मरुस्थलनिवासिने । त्रिपुरासुरनाशाय बहुमायाप्रवर्त्तिने ।
- भोजराज ने कहा - हे गिरिजा नाथ ! मरुस्थल में निवास करने वाले, ( आप ) बहुत सी माया में प्रवत होने त्रिपुरासुर नाशक हैं ।

9 म्लेच्छैर्गुप्ताय शुद्धाय सच्चिदानन्दरूपिणे । त्वं मां हि किंकरं विद्धि शरणार्थमुपागतम ।
- मलेच्छों से गुप्त, शुद्ध और सच्चिदानन्द रूपी, मैं आपकी विधिपूर्वक शरण में आकर प्रार्थना करता हूँ ।

सूत उवाच -

10 इति श्रुत्वा स्तवं देवः शब्दमाह नृपाय तम । गन्तव्यं भोजराजेन महाकालेश्वरस्थले ।
- सूत जी बोले - महादेव ने प्रकार स्तुति सुन राजा से ये शब्द कहे "हे भोजराज आपको महाकालेश्वर जाना चाहिए ।"

11 म्लेच्छैस्सुदूषिता भूमिर्वाहीका नाम विश्रुता । आर्यधर्मो हि नैवात्र वाहीके देशदारुणे ।
- यह वाह्हीक भूमि मलेच्छों द्वारा दूषित हो चुकी है । इस दारुण ( हिंसक ) प्रदेश में आर्य ( श्रेष्ठ ) धर्म नहीं है ।

12 बभूवात्र महामायी योऽसौ दग्धो मया पुरा । त्रिपुरो बलिदैत्येन प्रेषितः पुनरागतः ।
- जिस महामायावी राक्षस को मैंने पहले मायानगरी में भेज दिया था ( अर्थात नष्ट किया था ) वह त्रिपुर दैत्य बलि के आदेश पर फिर से आ गया है ।

13 अयोनिः स वरो मत्तः प्राप्तवान दैत्यवर्द्धनः । महामद इति ख्यातः पैशाच कृति तत्परः ।
- वह मुझसे वरदान प्राप्त अयोनिज ( pestle, मूसल, मूलहीन ) है । एवं दैत्य समाज की वृद्धि कर रहा है । महामद के नाम से प्रसिद्ध और पैशाचिक कार्यों के लिए तत्पर है ।

14 नागन्तव्यं त्वया भूप पैशाचे देशधूर्तके । मत प्रसादेन भूपाल तव शुद्धिः प्रजायते ।
- हे भूप ( भोजराज ) ! आपको मानवता रहित धूर्त देश में नहीं जाना चाहिए । मेरी प्रसाद ( कृपा ) से तुम विशुद्ध राजा हो ।

15 इति श्रुत्वा नृपश्चैव स्वदेशान पुनरागमत । महामदश्च तैः सार्द्धं सिन्धुतीरमुपाययौ ।
- यह सुनने पर राजा ने स्वदेश को वापस प्रस्थान किया । और महामद उनके पीछे सिन्धु नदी के तीर ( तट ) पर आ गया ।

16 उवाच भूपतिं प्रेम्णा मायामदविशारदः । तव देवो महाराज मम दासत्वमागतः ।
- मायामद माया के ज्ञाता ( महामद ) ने  राजा से झूठ कहा - हे महाराज ! आपके देव ने मेरा दासत्व स्वीकार किया है ।

17 ममोच्छिष्टं संभुजीयाद्याथात त्पश्य भो नृप । इति श्रुत्वा तथा परं विस्मयमागतः ।
- हे नृप ( भोजराज ) ! इसलिए आज से आप मुझे ईश्वर के संभुज ( बराबर ) उच्छिष्ट ( पूज्य ) मानिए, ये सुन कर राजा विस्मय को प्राप्त भ्रमित हुआ ।

 18 म्लेच्छधर्मे मतिश्चासीत्तस्य भूपस्य दारुणे । तच्छृत्वा कालिदासस्तु रुषा प्राह महामदम ।
- राजा की दारुण ( अहिंसा ) मलेच्छ धर्म में रूचि में वृद्धि हुई । यह राजा के श्रवण करते देख, कालिदास ने क्रोध में भरकर महामद से कहा ।

19 माया ते निर्मिता धूर्त नृपम्हन हेतवे । हनिष्यामि दुराचारं वाहीकं पुरुषाधमम ।
- हे धूर्त ! तूने नृप ( राजधर्म ) से मोह न करने हेतु माया रची है । दुष्ट आचार वाले पुरुषों में अधम वाहीक को मैं तेरा नाश कर दूंगा ।

20 इत्युक्त्वा स द्विजः श्रीमान नवार्ण जप तत्परः । जप्त्वा दशसहस्रं च तद्दशांशं जुहाव सः।
- यह कह श्रीमान ब्राह्मण ( कालिदास ) ने नर्वाण मंत्र में तत्परता की । नर्वाण मंत्र का दश सहस्त्र जाप किया और उसके दशाश जप किया ।

21 भस्म भूत्वा स मायावी म्लेच्छदेवत्वमागतः । भयभीतस्तु तच्छिष्या देशं वाहीकमाययुः।
- वह मायावी भस्म होकर मलेच्छ देवत्व अर्थात मृत्यु को प्राप्त हुआ । भयभीत होकर उसके शिष्य वाहीक देश में आ गए ।

22 गृहीत्वा स्वगुरोर्भस्म मदहीनत्वमागतम । स्थापितं तैश्च भूमध्ये तत्रोषुर्मदतत्पराः ।
- उन्होंने अपने गुरु ( महामद ) की भस्म को ग्रहण कर लिया और और वे मदहीन को गए । भूमध्य में उस भस्म को स्थापित कर दिया । और वे वहां पर ही बस गए ।

23 मदहीनं पुरं जातं तेषां तीर्थं समं स्मृतम । रात्रौ स देवरूपश्च बहुमायाविशारदः ।
- वह मदहीन पुर हो गया और उनके तीर्थ के सामान माना जाने लगा । उस बहुमाया के विद्वान ( महामद ) ने रात्रि में देवरूप धारण किया ।

24 पैशाचं देहमास्थाय भोजराजं हि सोऽब्रवीत । आर्यधर्म्मो हि ते राजन सर्व धर्मोतमः स्मृतः ।
- आत्मा रूप में पैशाच देह को धारण कर भोजराज आकर से कहा - हे राजन ( भोजराज ) ! मेरा   यह आर्य समस्त धर्मों में अति उत्तम है ।

25 ईशाज्ञया करिष्यामि पैशाचं धर्मदारुणम । लिंगच्छेदी शिखाहीनः श्मश्रुधारी स दूषकः ।
- अपने ईश की आज्ञा से पैशाच दारुण धर्म मैं करूँगा । मेरे लोग लिंगछेदी ( खतना किये हुए ) शिखा ( चोटी ) रहित, दाढ़ी रखने वाले दूषक होंगे ।

26 उच्चालापी सर्वभक्षी भविष्यति जनो मम । विना कौलं च पशवस्तेषां भक्ष्या मता मम ।
- ऊंचे स्वर में अलापने वाले और सर्वभक्षी होंगे । हलाल ( ईश्वर का नाम लेकर ) किये बिना सभी पशु उनके खाने योग्य न होगा ।

27 मुसलेनैव संस्कारः कुशैरिव भविष्यति । तस्मात मुसलवन्तो हि आतयो धर्मदूषकाः ।
- मूसल से उनका संस्कार किया जायेगा । और मूसलवान हो इन धर्मदूषकों की कई जातियां होंगी ।

28 इति पैशाच धर्मश्च भविष्यति मयाकृतः । इत्युक्त्वा प्रययौ देवः स राजा गेहमाययौ ।
- इस प्रकार भविष्य में मेरे ( मायावी महामद ) द्वारा किया हुआ यह पैशाच धर्म होगा । यह कहकर वह वह ( महामद ) चला गया और राजा अपने स्थान पर वापस आ गया ।

29 त्रिवर्णे स्थापिता वाणी सांस्कृती स्वर्गदायिनी । शूद्रेषु प्राकृती भाषा स्थापिता तेन धीमता ।
- उसने तीनों वर्णों में स्वर्ग प्रदान करने वाली सांस्कृतिक भाषा को स्थापित किया और विस्तार किया । शूद्र वर्ण हेतु वहां प्राकृत भाषा के का ज्ञान स्थापित/विस्तार किया ( ताकि शिक्षा और कौशल का आदान प्रदान आसान हो ) ।

30 पञ्चाशब्दकालं तु राज्यं कृत्वा दिवं गतः । स्थापिता तेन मर्यादा सर्वदेवोपमानिनी ।
- राजा ने पचास वर्ष काल पर्यंत राज ( शासन ) करते हुए दिव्य गति ( परलोक ) को प्राप्त हुआ । तब सभी देवों की मानी जाने वाली मर्यादा स्थापित हुई ।

 31 आर्यवर्तः पुण्यभूमिर्मध्यंविन्ध्यहिमालयोः । आर्य्य वर्णाः स्थितास्तत्र विन्ध्यान्ते वर्णसंकराः ।
- विन्ध्य और हिमाचल के मध्य में आर्यावर्त परम पुण्य भूमि है । अर्थात सबसे उत्तम ( पवित्र ) भूमि है, आर्य ( श्रेष्ठ ) वर्ण यहाँ स्थित हुए । और विन्ध्य के अंत में अन्य कई वर्ण मिश्रित हुए ।

भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व, खण्ड 3, अध्याय 3 श्लोक 1 -31

https://www.youtube.com/watch?v=22-ijJLWbs0

हिंदुओं को भ्रमित करने के लिए दावा कि हिन्दू धर्मग्रन्थ  "भविष्य पुराण" में मुहम्मद का वर्णन है, उसको अवतार बताया है । 
ब्यौरा इस वीडियो में -

https://www.youtube.com/watch?v=-iKiyg46Iy4

24 जून 2016

7 जन्म तक 1 ही सास

पंडितों के मोहल्ले में एक ठाकुर साहब रहते थे । जो हर रोज चिकन बनाकर खाते थे । चिकन की खुशबू से परेशान होकर पंडितों ने महंत से शिकायत की ।
महंत ने ठाकुर साहब को कहा कि - आप भी ब्राह्मण धर्म स्वीकार कर लो । जिससे किसी को आपसे कोई समस्या ना हो ।
ठाकुर साहब मान गए ।
तो महंत ने ठाकुर साहब पर गंगा जल छिङकते हुए संस्कृत में कहा - तुम पैदा राजपूत हुए थे । पर अब तुम ब्राह्मण हो ।
अगले दिन फिर ठाकुर साहब के घर से चिकन की खुशबू आई । तो सब पंडितों ने महंत से उसकी फिर शिकायत की ।
अब महंत पंडितों को साथ लेकर ठाकुर साहब के घर में गए । तो देखा, ठाकुर साहब चिकन पर
गंगा जल छिडक रहे थे । और कह रहे थे - तुम पैदा मुर्गे हुए थे । पर अब तुम आलू हो ।

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एक दिन चित्रगुप्त ने ब्रह्मा से प्रार्थना की - प्रभु, ये करवाचौथ के व्रत से सात जन्म तक एक ही पति मिलने वाली योजना बंद कर दी जाए ।
ब्रह्मा - क्यों ?
चित्रगुप्त - प्रभु, मैनेज करना कठिन होता जा रहा है । औरत सातों जन्म वही पति मांगती हैं । लेकिन पुरुष हर बार दूसरी औरत मांगता है । बहुत दिक्कत हो रही है समझाने में ।
ब्रह्मा - लेकिन यह स्कीम आदिकाल से चली आ रही है । इसे बंद नहीं किया जा सकता ।
तभी नारद मुनि आ गए । उन्होंने सुझाव दिया कि पृथ्वी पर नरेन्द्र मोदी नाम के एक महान विचारक रहते हैं । उनसे जाकर सलाह ली जाये ।
चित्रगुप्त मोदी के पास गए । मोदी ने एक पल में समस्या का समाधान कर दिया - जो भी औरत सातों जन्म वही पति डिमांड करे । उसे दे दो । लेकिन शर्त ये लगा दो कि यदि पति वही चाहिए । तो “सास” भी वही मिलेगी ।
"डिमांड बंद.."
पत्नियां shocked
मोदी rocked 

19 जून 2016

दिव्य साधना - खेचरी मुद्रा

मध्यजिव्हे स्फारितास्ये मध्ये निक्षिप्य चेतनाम ।
होच्चारं मनसा कुर्वस्ततः शान्ते प्रलियते । ( धारणा - 57 श्लोक 80 )
सामान्य लगने वाली इस खेचरी मुद्रा साधना का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि इससे अनेकों शारीरिक, मानसिक, सांसारिक एवं आध्यात्मिक लाभ उपलब्ध होने का शास्त्रों में वर्णन है । लेकिन इस मुद्रा के साथ साथ भाव संवेदनाओं की अनुभूति अधिकतम गहरी होनी चाहिए ।
यह मुद्रा लगभग बारह वर्ष में सिद्ध होती है । इसका अभ्यास किसी सक्षम गुरू के मार्गदर्शन एवं अनुशासन में ही करना चाहिए । स्वयं किसी प्रकार की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए । साधना के समय ब्रह्मचर्य के पालन से साधना की सफलता की संभावना प्रबल होती है । सफलता हेतु धैर्य अति आवश्यक है । 
खेचरी मुद्रा साधना की सफलता के परिणाम स्वरूप मुख्य नाङियों के अवरूद्ध मार्ग खुल जाते हैं । साधक ब्रह्मरन्ध्र से स्त्रावित सुधा का पान तथा समाधि स्थिति का अनुभव करता है । भूख, प्यास, निद्रा, आलस्य आदि आवेगों से छुटकारा पाकर दीर्घायु होता है ।
तस्मार्त्सवप्रयत्नेन प्रबोधपितुमीश्वरीम । ब्रह्मरन्ध्रमुखे सुप्तां मुद्राभ्यासं समाचरेत ।
( शिवसंहिता चतुर्थ पटल श्लोक - 23 )
ब्रह्मरन्ध्र के मुख में रास्ता रोके सोती पड़ी कुण्डलिनी को जागृत करने के लिए सर्व प्रकार से प्रयत्न करना चाहिए । और खेचरी अभ्यास करना चाहिए ।
अमृतास्वादनं पश्चाज्जिव्हाग्रं संप्रवर्तते । रोमांचश्च तथानन्दः प्रकर्षेणोपजायते । 
योग रसायनम । 255
जिव्हा ( जीभ ) में अमृत सा स्वाद अनुभव होता है । रोमांच तथा आनन्द उत्पन्न होता है ।
प्रथमं लवण पश्चात क्षारं क्षीरोपमं ततः । द्राक्षारससमं पश्चात सुधासारमयं ततः । योग रसायनम ।
उस ( रस ) का स्वाद पहले लवण ( नमक ) जैसा, फिर क्षार जैसा, फिर दूध जैसा, फिर द्राक्षारस ( अंगूर ) जैसा और तदुपरान्त अनुपम सुधा ( अमृत ) रस सा अनुभव होता है ।
आदौ लवण क्षारं च ततस्तिक्तं कषायकम । 
नवनीतं घृतं क्षीरं दधितक्रमधूनि च ।
द्राक्षारसं च पीयूषं जायते रसनोदकम ।
( घेरण्ड संहिता तृतीयोपदेश श्लोक - 31-32 )
जिव्हा को क्रमशः नमक, क्षार, तिक्त, कषाय, नवनीत, घृत, दूध, दही, द्राक्षारस, पीयूष, जल जैसे रसों की अनुभूति होती है ।
अमृतास्वादनाछेहो योगिनो दिव्यतामियात । जरारोगविनिर्मुक्तश्चिर जीवति भूतले । योग रसायनम
अमृत जैसा स्वाद मिलने पर योगी के शरीर में दिव्यता आ जाती है । वह रोग और वृद्धावस्था से मुक्त होकर दीर्घकाल तक जीवित रहता है ।
तालु मूलोर्ध्वभागे महज्ज्योति विद्यतें तर्द्दशनाद अणिमादि सिद्धिः । योग सूत्र
तालु के ऊर्ध्व भाग में महाज्योति स्थित है । उसके दर्शन से अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त होती है ।
ब्रह्मरंध्रे मनोदत्वा क्षणार्द्धं यदि तिष्ठति । सर्वपापविनिर्मुक्तः स याति परमां गतिम ।
अस्मिन लीनं मनो यस्य स योगी मयि लीयते ।
अणिमादिगुणान भुक्तवा स्वेच्छया पुरुषोत्तमः ।
एतद्रन्ध्रध्यानमात्रेण मर्त्यः संसारेऽस्मिन वल्लभो मे भवेत्सः ।
पापान जित्वा मुक्तिमार्गाधिकारी ज्ञानं दत्वा तारयत्यदभूतं वै ।
( शिवसंहिता पंचम पटल श्लोक - 173-174-175 )
- ब्रह्मरन्ध्र में मन लगाकर खेचरी साधना करने वाला योगी आत्मनिष्ठ हो जाता है । पाप मुक्त होकर परम गति को प्राप्त करता है । इसमें मनोलय होने पर साधक ब्रह्मलीन होकर अणिमा आदि सिद्धियों का अधिकारी बनता है ।
न च मूर्च्छा क्षुधा तृष्णा नैवालस्यं प्रजायते । न च रोगो जरा मृत्युर्देवदेहः स जायते ।
( घेरण्ड संहिता तृतीय उपदेश श्लोक-28 )
खेचरी मुद्रा की निष्णात देव देह को मूर्च्छा, क्षुधा ( भूख ) तृष्णा ( प्यास ) आलस्य, रोग, जरा ( वृद्धावस्था ) मृत्यु का भय नहीं रहता ।
लावण्यं च भवेद गात्रे समाधिर्जायते ध्रुवम । कपालवक्त्र संयोगे रसना रसमाप्नुयात । 
( घेरण्ड संहिता तृतीय उपदेश श्लोक-30 )
शरीर सौंदर्यवान बनता है । समाधि का आनन्द मिलता है । रसों की अनुभूति होती है ।
ज्रामृत्युगदध्नो यः खेचरी वेत्ति भूतले । ग्रन्थतश्चार्थतश्चैव तदभ्यास प्रयोगतः । 
तं मुने सर्वभावेन गुरु गत्वा समाश्रयेत - योगकुन्डल्युपनिषद
ग्रन्थ से, अर्थ से और अभ्यास प्रयोग से इस जरा मृत्यु व्याधि निवारक खेचरी विद्या को जानने वाला है । उसी गुरु के पास सर्वभाव से आश्रय ग्रहण कर इस विद्या का अभ्यास करना चाहिए ।
अपने मुख को क्षमतानुसार फैलाकर जिव्हा को उलटकर उपर तालु प्रदेश मे ले जाकर स्थिर करके मुख बन्द करने से खेचरी मुद्रा बनती है ।
इस मुद्रा मे चित्त को स्थिर करके केवल अनच्क - अर्थात स्वर रहित ( केवल मानसिक रूप से ) ‘हकार’ का उच्चारण परम शान्ति प्रदायक होता है । तथा निरंतर अभ्यास से साधक का शान्त स्वरूप अभिव्यक्त हो जाता है ।
प्राण की उच्छ्वास दशा में स्वाभाविक रूप से ‘ह’ का उच्चारण तथा निश्वास दशा मे ‘सः’ का उच्चारण निर्बाध रूप से अविरत होता रहता है ।
अर्थात यह प्राण श्वास लेते हुए ‘हकार’ के साथ शरीर में प्रविष्ट होता है । तथा ‘सकार’ के साथ शरीर से बाहर निकल जाता है ।
इस प्रकार प्राण की श्वास प्रश्वास प्रक्रिया में ‘हं सः सो हं’ इस अजपा गायत्री का स्वाभाविक रूप से दिन रात अनवरत जप चलता रहता है ।
किन्तु खेचरी साधना में जिव्हा के तालु प्रदेश में ही स्थिर रहने से ‘सकार’ का बहिर्गमन अवरुद्ध हो जाता है । जिसके परिणाम स्वरूप ‘सकार’ का उच्चारण भी नही होता ।
अतः खेचरी मुद्रा की इस अवस्था में केवल स्वर रहित ‘हकार’ के उच्चारण का ही विकल्प होता है ।
खेचरी साधना की इस अवस्था में साधक को दृढता पूर्वक भ्रूमध्य में अपनी दृष्टि को स्थिर रखना पङता है ।
कपालकुहरे जिव्हा प्रविष्टा विपरितगा ।
भ्रुवोरन्तर्गता दृष्टिर्मुद्रा भवति खेचरी । विवेकमार्तण्ड
- जब जिव्हा को उलटकर तालु प्रदेश में विद्यमान कपाल कुहर में प्रविष्ट करके दृष्टि को भ्रूमध्य मे स्थिर कर दिया जाता है । तो वह खेचरी मुद्रा कहलाती है ।
खेचरी मुद्रा की साधना के लिए साधक जिव्हा को लम्बी करके ‘काकं चंचु’ तक पहुँचाने के लिए जिव्हा पर काली मिर्च, शहद, घृत का लेपन करके उसे थन की तरह दुहते, खीचते हैं । और लम्बी करने का प्रयत्न करते हैं ।
खेचरी मुद्रा का भावपक्ष ही वस्तुतः उस प्रक्रिया का प्राण है । मस्तिष्क मध्य को - ब्रह्मरंध्र अवस्थित सहस्रार को अमृत कलश माना गया है । और वहाँ से सोमरस स्रवित होते रहने का उल्लेख है ।
जिव्हा को जितना सरलता पूर्वक पीछे तालु से सटाकर जितना पीछे ले जा सकना सम्भव हो । उतना पीछे ले जाना चाहिए ।
प्रारंभ मे ‘काक चंचु’ से बिलकुल न सटकर कुछ दूरी पर रह जाए । तो भी धर्य के साथ निरंतर अभ्यास से धीरे धीरे जिव्हा काकचंचु तक पहुंचने लगती है ।
तालु और जिव्हा को इस प्रकार सटाने के उपरान्त भ्रूमध्य मे दृष्टि स्थिर करके यह ध्यान किया जाना चाहिए कि तालु छिद्र से निरंतर सोम अमृत का सूक्ष्म स्राव टपकता है । और जिव्हा इन्द्रिय के गहन अन्तराल में रहने वाली रस तन्मात्रा द्वारा उसका पान किया जा रहा है ।
इसी संवेदना को अमृतपान की अनुभूति कहते हैं । प्रत्यक्षतः कोई मीठी वस्तु खाने आदि जैसा कोई स्वाद तो नहीं आता । परन्तु आनन्दित करने वाले कई प्रकार के दिव्य रसास्वादन उस अवसर पर हो सकते हैं । यही आनन्द और उल्लास की अनुभूति खेचरी मुद्रा की मूल उपलब्धि है ।
तालुस्था त्वं सदाधारा विंदुस्था बिंदुमालिनी । मूले कुण्डलीशक्तिर्व्यापिनी केशमूलगा । 
देवीभागवत पुराण
- अमृतधारा सोम स्राविनी खेचरी रूप तालु में, भ्रूमध्य भाग आज्ञाचक्र में बिन्दु माला और मूलाधार चक्र में कुण्डलिनी बनकर आप ही निवास करती है । और प्रत्येक रोमकूप में भी आप ही विद्यमान है ।
ये खेचरी मुद्रा विज्ञानं भैरव में है । जो शिव शक्ति को बताते है । 
साभार - जीरो सूत्र

It takes us no where

In a mother’s womb were two babies. 
One asked the other - Do you believe in life after delivery ? 
The other replied - Why, of course. There has to be something after delivery. Maybe we are here to prepare ourselves for what we will be later.
- Nonsense. said the first - There is no life after delivery. What kind of life would that be ?
The second said - I don’t know, but there will be more light than here. Maybe we will walk with our legs and eat from our mouths. Maybe we will have other senses that we can’t understand now.
The first replied - That is absurd. Walking is impossible. And eating with our mouths ? Ridiculous ! The umbilical cord supplies nutrition and everything we need. But the umbilical cord is so short. Life after delivery is to be logically excluded.
The second insisted - Well I think there is something and maybe it’s different than it is here. Maybe we won’t need this physical cord anymore.
The first replied - Nonsense. And more over if there is life, then why has no one has ever come back from there ? Delivery is the end of life, and in the after-delivery there is nothing but darkness and silence and oblivion. It takes us no where.
- Well, I don’t know. said the second - but certainly we will meet Mother and she will take care of us.
The first replied - Mother ? You actually believe in Mother ? That’s laughable. If Mother exists then where is She now ?
The second said - She is all around us. We are surrounded by her. We are of Her. It is in Her that we live. Without Her this world would not and could not exist.
Said the first - Well I don’t see Her, so it is only logical that She doesn’t exist.
To which the second replied - Sometimes, when you’re in silence and you focus and you really listen, you can perceive Her presence, and you can hear Her loving voice, calling down from above.
- Utmutato a Leleknek

16 जून 2016

देश का प्रधानमंत्री कौन है ?

आज विद्यालय में बहुत चहल पहल है । सब कुछ साफ-सुथरा, एकदम सलीके से ।
सुना है निरीक्षण को कोई साहब आने वाले हैं । पूरा विद्यालय चकाचक । नियत समय पर साहब विद्यालय पहुंचे ।
ठिगना कद, रौबदार चेहरा, और आँखें तो जैसे जीते जी पोस्टमार्टम कर दें ।
पूरे परिसर के निरीक्षण के बाद उन्होंने कक्षाओं का रुख किया ।
कक्षा पांच के एक विद्यार्थी को उठाकर पूछा - बताओ, देश का प्रधानमंत्री कौन है ?
बच्चा बोला - जी रामलाल ।
साहब बोले - बेटा प्रधानमंत्री ?
बच्चा - रामलाल ।
साहब गुस्साए - अबे तुझे पांच में किसने पहुंचाया ? पता है मैं तेरा नाम काट सकता हूँ ।
बच्चा - कैसे काटोगे ? मेरा तो नाम ही नहीं लिखा है । मैं तो बाहर बकरी चरा रहा था । इस मास्टर ने कहा कक्षा में बैठ जा दस रूपये मिलेंगे ।
तू तो ये बता रूपये तू देगा या मास्टर ?

साहब भुनभुनाते हुये मास्टर जी के पास गए, कङक आवाज में पूछा - क्या मजाक बना रखा है ।
फर्जी बच्चे बैठा रखे हैं । पता है मैं तुम्हे नौकरी से बर्खास्त कर सकता हूँ ।

गुरूजी - कर दे भाई । मैं कौन सा यहाँ का मास्टर हूँ । मास्टर तो मेरा पड़ोसी दुकानदार है । वो दुकान का सामान लेने शहर गया है । कह रहा था एक खूसट साहब आएगा, झेल लेना ।

अब तो साहब का गुस्सा सातवें आसमान पर । पैर पटकते हुए प्रधानाध्यापक के सामने जा पहुंचे
। चिल्लाकर बोले - क्या अंधेरगर्दी है, शरम नहीं आती । क्या इसी के लिए तुम्हारे स्कूल को सरकारी इमदाद मिलती है । पता है, मैं तुम्हारे स्कूल की मान्यता समाप्त कर सकता हूँ
जवाब दो प्रिंसिपल साहब ।

प्रिंसिपल ने दराज से एक सौ की गड्डी निकाल कर मेज पर रखी और बोला - मैं कौन सा प्रिंसिपल हूँ प्रिंसिपल तो मेरे चाचा हैं । प्रॉपर्टी डीलिंग भी करते हैं आज एक सौदे का बयाना लेने शहर गए हैं । कह रहे थे, एक कमबख्त निरीक्षण को आएगा, उसके मुंह पे ये गड्डी मारना और दफा करना ।
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साहब ने मुस्कराते हुए गड्डी जेब के हवाले की और बोले - आज बच गये तुम सब । अगर आज
मामाजी को सड़क के ठेके के चक्कर में शहर ना जाना होता  और अपनी जगह वो मुझे ना भेजते तो तुम में से एक की भी नौकरी ना बचती ।
😂😜😝
This is real situation of India ऐसे मे ही तो ‪#‎फर्जी‬ topper बनेंगे!!!!

14 जून 2016

कबीर धर्मदास का प्रथम मिलन

धर्मदास वैष्णव थे । और ठाकुर पूजा किया करते थे । अपनी मूर्ति पूजा के कृम में धर्मदास मथुरा आये । जहाँ उनकी भेंट कबीर से हुयी । धर्मदास दयालु व्यवहारी और पवित्र जीवन जीने वाले इंसान थे । अत्यधिक धन संपत्ति के बाद भी अहंकार उन्हें छूआ तक नहीं था । वे अपने हाथों से स्वयं भोजन बनाते थे । और पवित्रता के लिहाज से जलावन लकङी को इस्तेमाल करने से पहले धोया करते थे । 
एक बार जब वह मथुरा में भोजन तैयार कर रहे थे । उसी समय कबीर से उनकी भेंट हुयी । उन्होंने देखा कि भोजन बनाने के लिये जो लकङियाँ चूल्हे में जल रही थीं । उसमें से ढेरों चींटियां निकल कर बाहर आ रही थी । धर्मदास ने जल्दी से शेष लकङियों को बाहर निकाल कर चींटियों को जलने से बचाया । उन्हें बहुत दुख हुआ । वे अत्यन्त व्याकुल हो उठे । लकङियों में जलकर मर गयी चींटियों के प्रति उनके मन में बेहद पश्चाताप हुआ ।
वे सोचने लगे । आज मुझसे महा पाप हुआ है । अपने इसी दुख की वजह से उन्होंने भोजन भी नहीं खाया । उन्होंने सोचा कि जिस भोजन के बनने में इतनी चींटियां जलकर मर गयी हों । उसे कैसे खा सकता हूँ । वह दूषित भोजन खाने योग्य नहीं था । अतः वह भोजन उन्होंने किसी दीन हीन साधु महात्मा आदि को कराने का विचार किया ।
वो भोजन लेकर बाहर आये । तो उन्होंने देखा । कबीर साहब एक घने शीतल वृक्ष की छाया में बैठे हुये थे । धर्मदास ने उनसे भोजन के लिये निवेदन किया ।
इस पर कबीर ने कहा - हे सेठ धर्मदास । जिस भोजन को बनाते समय हजारों चींटियां जलकर मर गयीं । उस भोजन को मुझे कराकर ये पाप तुम मेरे ऊपर क्यों लादना चाहते हो । तुम तो रोज ही ठाकुर जी की पूजा करते हो । फ़िर उन्हीं भगवान से क्यों नहीं पूछ लिया था कि इन लकङियों के अन्दर क्या है ?
धर्मदास को बेहद आश्चर्य हुआ कि इस साधु को ये सब बात कैसे पता चली । उस समय तो धर्मदास के आश्चर्य का ठिकाना न रहा । जब कबीर ने चींटियां भोजन से जिंदा निकलते हुये दिखायीं । इस रहस्य को वे समझ न सके ।
उन्होंने दुखी होकर कहा - बाबा । यदि मैं भगवान से इस बारे में पूछ सकता । तो मुझसे इतना बङा पाप क्यों होता ।
धर्मदास को पाप के महा शोक में डूबा देखकर कबीर ने अध्यात्म ज्ञान के गूढ रहस्य बताये । जब धनी धर्मदास ने उनका परिचय पूछा । तो कबीर ने अपना नाम कबीर और निवासी अमरलोक ( सत्यलोक ) बताया । इसके कुछ देर बाद कबीर अंतर्ध्यान हो गये ।
धर्मदास को जब कबीर बहुत दिनों तक नहीं मिले । तो वो व्याकुल होकर जगह जगह उन्हें खोजते फ़िरे । उनकी स्थिति पागल समान हो गयी । 
तब उनकी पत्नी ने सुझाव दिया - तुम ये क्या कर रहे हो ? उन्हें खोजना बहुत आसान है । जैसे कि चींटी चींटा गुङ को खोजते हुये खुद ही आ जाते हैं ।
धर्मदास ने कहा - क्या मतलब ?
उनकी पत्नी ने कहा - खूब भंडारे कराओ । दान दो । हजारों साधु अपने आप आयेंगे । जब वह साधु तुम्हें दिखे । तो उसे पहचान लेना ।
धर्मदास को बात उचित लगी । और वे ऐसा ही करने लगे । उन्होंने अपनी सारी संपत्ति खर्च कर दी । पर वह साधु ( कबीर ) नहीं मिले ।
बहुत समय भटकने के बाद उन्हें कबीर काशी में मिले । परन्तु उस समय वे वैष्णव वेश में थे । फ़िर भी धर्मदास ने उन्हें पहचान लिया । और उनके चरणों में गिर पङे ।
और बोले - सदगुरु महाराज मुझ पर कृपा करें । मुझे अपनी शरण में लें । हे गुरुदेव मुझ पर प्रसन्न हों । मैं उसी समय से आपको खोज रहा हूँ । आज आपके दर्शन हुये हैं ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास तुम मुझे कहाँ खोज रहे थे । तुम तो चींटी चींटो को खोज रहे थे । सो वे तुम्हारे भन्डारे में आये । ( इस पर धर्मदास को अपनी मूर्खता पर बङा पश्चाताप हुआ । तब उसे प्रायश्चित भावना में देखकर कबीर ने फ़िर कहा )
लेकिन तुम बहुत भाग्यशाली हो । जो तुमने मुझे पहचान लिया । अब तुम धैर्य धारण करो । मैं तुम्हें जीवन के आवागमन से मुक्त कराने वाला मोक्ष ज्ञान दूँगा ।
इसके बाद धर्मदास निवेदन करके कबीर को अपने साथ बाँधोगढ ले आये ।
इसके बाद तो बाँधोगढ में कबीर के श्रीमुख से आलौकिक आत्मज्ञान सतसंग की अविरल धारा ही बहने लगी । दूर दूर से लोग सतसंग सुनने आने लगे । धर्मदास और उनकी पत्नी आमिन ने दीक्षा ली कबीर साहब ने धर्मदास को सुयोग्य शिष्य जानते हुये मोक्ष का अनमोल ज्ञान दिया । 

खुदा का तरीका

एक अमीर इंसान था । उसने समुद्र में अकेले घूमने के लिए एक नाव बनवाई । छुट्टी के दिन वह नाव लेकर समुद्र की सैर करने निकला । आधे समुद्र तक पहुँचा ही था कि अचानक एक जोरदार
तूफान आया । उसकी नाव पूरी तरह से तहस नहस हो गई । लेकिन वह लाइफ जैकेट की मदद से समुद्र में कूद गया । जब तूफान शांत हुआ । तब वह तैरता तैरता एक टापू पर पहुँचा । लेकिन वहाँ भी कोई नही था ।
टापू के चारो ओर समुद्र के अलावा कुछ भी नजर नहीं आ रहा था । उस आदमी ने सोचा कि जब मैंने पूरी जिंदगी में कभी किसी का बुरा नही किया । तो मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ ?
उस इंसान को लगा कि खुदा ने मौत से बचाया । तो आगे का रास्ता भी खुदा ही बताएगा । वह वहाँ पर उगे झाङ फल पत्ते खाकर दिन बिताने लगा ।
धीरे धीरे उसकी आस टूटने लगी । खुदा से उसका यकीन उठने लगा । फिर उसने सोचा कि अब पूरी जिंदगी यहीं इस टापू पर ही बितानी है । तो क्यों न एक झोपङी बना लूँ ?
उसने झाङ की डालियों और पत्तों से एक छोटी सी झोपङी बनाई ।
और मन ही मन कहा कि - आज से झोपडी में सोने को मिलेगा । आज से बाहर नहीं सोना पङेगा ।
रात हुई ही थी कि अचानक मौसम बदला । बिजली जोर जोर से कड़कने लगी । तभी अचानक बिजली उस झोपङी पर आ गिरी । और झोपङी धधकते हुए जलने लगी ।
यह देखकर वह इंसान टूट गया । आसमान की तरफ देखकर बोला - या खुदा ये तेरा कैसा इंसाफ है ? तूने मुझ पर अपनी रहम की नजर क्यों नहीं की ?
वह हताश होकर रो रहा था कि अचानक एक नाव टापू के पास आई । नाव से उतर कर दो आदमी बाहर आये । और बोले कि - हम तुम्हें बचाने आये हैं । दूर से इस वीरान टापू में जलता हुआ झोपङा देखा । तो लगा कि कोई उस टापू पर मुसीबत में है । अगर तुम अपनी झोपङी नही जलाते । तो हमे पता नही चलता कि टापू पर कोई है ।
उस आदमी की आँखो से आँसू गिरने लगे । उसने खुदा से माफी माँगी और बोला कि - या रब मुझे
क्या पता कि तूने मुझे बचाने के लिए मेरी झोपङी जलाई थी । यक़ीनन तू अपने बन्दों का हमेशा ख्याल रखता है । तूने मेरे सब्र का इम्तहान लिया । लेकिन मैं उसमें फ़ेल हो गया । मुझे माफ़ कर दे ।

लालच की चक्की

एक शहर में एक बहुत ही लालची आदमी रहता था । उसने सुन रखा था कि अगर साधु संतों की सेवा करें । तो बहुत ज्यादा धन प्राप्त होता है । यह सोचकर उसने साधु संतों की सेवा करना प्रारम्भ कर दी । 
एक बार उसके घर बड़े चमत्कारी संत आये । उन्होंने उसकी सेवा से प्रसन्न होकर उसे चार दिये दिए । और कहा - इनमें से एक दिया जला लेना । और पूरब दिशा की ओर चले जाना । जहाँ यह दिया बुझ जाये । वहाँ की जमीन खोदना । वहाँ तुम्हें काफी धन मिल जायेगा ।
अगर तुम्हें फ़िर धन की आवश्यकता पड़े । तो दूसरा दिया जला लेना । और पश्चिम दिशा की ओर चले जाना । जहाँ यह दिया बुझ जाये । वहाँ की जमीन खोद लेना । तुम्हें मनचाही माया मिलेगी । 
फिर भी संतुष्टि न हो तो तीसरा दीया जला लेना । और दक्षिण दिशा की ओर चले जाना । उसी प्रकार दीया बुझने पर जब तुम वहाँ की जमीन खोदोगे । तो तुम्हे बेअन्त धन मिलेगा ।
तब तुम्हारे पास केवल एक दीया बचेगा और एक ही दिशा रह जायेगी । तुमने यह दीया न ही जलाना है और न ही इसे उत्तर दिशा की ओर ले जाना है । यह कहकर संत चले गए ।
लालची आदमी उसी वक्त पहला दीया जलाकर पूरब दिशा की ओर चला गया । दूर जंगल में जाकर दीया बुझ गया । उस आदमी ने उस जगह को खोदा । तो उसे पैसों से भरी एक गागर मिली । वह बहुत खुश हुआ । उसने सोचा कि इस गागर को फिलहाल यहीं रहने देता हूँ । फिर कभी ले जाऊंगा । पहले मुझे जल्दी ही पश्चिम दिशा वाला धन देख लेना चाहिए ।
यह सोचकर उसने दूसरे दिन दूसरा दीया जलाया और पश्चिम दिशा की ओर चल पड़ा । दूर एक उजाड़ स्थान में जाकर दीया बुझ गया । वहाँ उस आदमी ने जब जमीन खोदी । तो उसे सोने की मोहरों से भरा एक घड़ा मिला । उसने घड़े को भी यही सोचकर वही रहने दिया कि पहले दक्षिण दिशा में जाकर देख लेना चाहिए । जल्दी से जल्दी ज्यादा से ज्यादा धन प्राप्त करने के लिए वह बेचैन हो गया । 
अगले दिन वह दक्षिण दिशा की ओर चल पड़ा । दीया एक मैदान में जाकर बुझ गया । उसने वहाँ की जमीन खोदी । तो उसे हीरे मोतियों से भरी दो पेटिया मिली ।
वह आदमी बहुत खुश था । वह सोचने लगा । अगर इन तीनों दिशाओं में इतना धन पड़ा है । तो चौथी दिशा में इससे भी ज्यादा धन होगा । फिर उसके मन में ख्याल आया की संत ने उसे चौथी दिशा की ओर जाने के लिए मना किया है ।
दूसरे ही पल उसके मन ने कहा - हो सकता है । उत्तर दिशा की दौलत संत अपने लिए रखना चाहते हो । मुझे जल्दी से जल्दी उस पर भी कब्ज़ा कर लेना चाहिए । ज्यादा से ज्यादा धन प्राप्त करने की लालच ने उसे संतो के वचनों को द्वारा सोचने ही नहीं दिया । अगले दिन उसने चौथा दीया जलाया । और जल्दी जल्दी उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा । 
दूर आगे एक महल के पास जाकर दीया बुझ गया । महल का दरवाज़ा बंद था । उसने दरवाज़े को धकेला । तो दरवाज़ा खुल गया । वह बहुत खुश हुआ। उसने मन ही मन में सोचा कि यह महल उसके लिए ही है । वह अब तीनों दिशाओं की दौलत को भी यहीं ले आकर रखेगा और ऐश करेगा । वह आदमी महल के एक एक कमरे में गया । कोई कमरा हीरे मोतियों से भरा हुआ था । किसी कमरे में सोने के कीमती आभूषण भरे पड़े थे । इसी प्रकार अन्य कमरे भी बेअन्त धन से भरे हुए थे । वह आदमी चकाचौंध होता जाता । और अपने भाग्य को शाबासी देता ।
वह और आगे बढ़ा । तो उसे एक कमरे में चक्की चलने की आवाज़ सुनाई दी । वह उस कमरे में दाखिल हुआ । तो उसने देखा कि एक बूढ़ा आदमी चक्की चला रहा है । 
लालची आदमी ने बूढ़े से कहा - तू यहाँ कैसे पहुँचा ? 
बूढ़े ने कहा - ऐसा कर यह जरा चक्की चला । मैं सांस लेकर तुझे बताता हूँ ।
लालची आदमी ने चक्की चलानी प्रारम्भ कर दी । बूढ़ा चक्की से हट जाने पर ऊँची ऊँची आवाज से हँसने लगा । लालची आदमी उसकी ओर हैरानी से देखने लगा ।
वह चक्की बंद ही करने लगा था कि बूढ़े ने खबरदार करते हुए कहा - न न चक्की चलानी बंद ना कर । 
फिर बूढ़े ने कहा- यह महल अब तेरा है । परन्तु यह उतनी देर तक खड़ा रहेगा । जितनी देर तक तू चक्की चलाता रहेगा । अगर चक्की चलनी बंद हो गयी । तो महल गिर जायेगा । और तू भी इसके नीचे दब कर मर जायेगा । 
कुछ समय रुक कर बूढ़ा फिर कहने लगा - मैंने भी तेरी ही तरह लालच करके संतो की बात नहीं मानी थी । और मेरी सारी जवानी इस चक्की को चलाते हुए बीत गयी ।
वह लालची आदमी बूढ़े की बात सुनकर रोने लगा ।
फिर कहने लगा - अब मेरा इस चक्की से छुटकारा कैसे होगा ?
बूढ़े ने कहा - जब तक मेरे और तेरे जैसा कोई आदमी लालच में अंधा होकर यहाँ नही आयेगा । तब तक तू इस चक्की से छुटकारा नहीं पा सकेगा । 
तब उस लालची आदमी ने बूढ़े से आखरी सवाल पूछा - तू अब बाहर जाकर क्या करेगा ? 
बूढ़े ने कहा - मैं सब लोगों से ऊँची ऊँची आवाज में कहूँगा..लालच बुरी बला है ।

12 जून 2016

इंसान और भगवान

एक दयालु व्यक्ति था । एक दिन उसके पास एक निर्धन आदमी आया । और बोला कि मुझे अपना खेत कुछ साल के लिये उधार दे दीजिये । मैं उसमे खेती करूंगा और खेती करके कमाई करूंगा ।
उस व्यक्ति ने निर्धन व्यक्ति को अपना खेत दे दिया । साथ में पांच किसान भी सहायता के रूप में खेती करने को दिये । और कहा कि - इन पांच किसानों को साथ में लेकर खेती करो । खेती करने में आसानी होगी । इससे तुम और अच्छी फसल की खेती करके कमाई कर पाओगे ।
निर्धन आदमी ये देखकर बहुत खुश हुआ कि उसको उधार में खेत भी मिल गया और साथ में पांच सहायक किसान भी मिल गये ।
वह आदमी इसी ख़ुशी में खोया रहा । और वह पांच किसान अपनी मर्ज़ी से खेती करने लगे । जब फसल काटने का समय आया तो देखा कि फसल बहुत ही ख़राब हुई थी । उन पांच किसानों ने खेत का उपयोग अच्छे से नहीं किया था । न ही अच्छे बीज डाले । जिससे अच्छी फसल हो सके ।
जब दयालु व्यक्ति ने अपना खेत वापस मांगा । तो वह निर्धन व्यक्ति रोता हुआ बोला कि - मैं बर्बाद हो गया । मैं अपनी ख़ुशी में डूबा रहा और इन पांच किसानो को नियंत्रण में न रख सका । न ही इनसे अच्छी खेती करवा सका ।
दयालु व्यक्ति - भगवान
निर्धन व्यक्ति - इंसान
खेत - शरीर
पांच किसान - इन्द्रियां.. आंख, कान, नाक, जीभ और मन ।
प्रभु ने हमें यह शरीर रुपी खेत अच्छी फसल ( कर्म ) करने को दिया है । हमें इन पांच किसानों अर्थात इन्द्रियों को नियंत्रण में रख कर कर्म करने चाहिये । जिससे वो दयालु प्रभु जब ये शरीर वापस मांग कर हिसाब करें । तो हमें रोना न पड़े ।
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हृदय भीतर आरसी, मुख देखा नहिं जाय ।
मुख तो तबही देखि हो, जब दिल की दुविधा जाय । बीजक साखी 29  
- परमात्मा को देखने के लिए हृदय के भीतर आरसी तुल्य जीवात्मा का वास है । परंतु परमात्मा का साक्षात्कार नहीं किया जाता । क्योंकि परमात्मा को तभी देखा जा सकता है । जब दिल से दुविधा - देहाध्यास नष्ट न हो जाए ।