प्रिय राजीव भाई ! नमस्कार । जबसे आपसे फोन पर बात हुई । और आपके लेख पढने लगा । तबसे मन चाहता है कि - सब काम धंधा छोड़ कर उड़ चलूँ आगरा । क्यूँकि जो अपने गुरु के इतना नजदीक है । तो गुरु उसके कितना नजदीक होंगे । और सच्चे गुरु का सानिध्य शीश देकर भी मिले । तो बहुत सस्ता समझो । परन्तु यदि काम से जाता हूँ । तो बच्चों के प्रति जिम्मेदारी से विमुख होता हूँ ( रोज कुआँ खोदना । और रोज पानी पीना ) खैर...ये 25 तारीख कब गुजरेगी ? बस इसी का इंतज़ार है । आपका जवाब पढ़ा । बहुत अच्छा लगा । आपने व्यस्त समय से मुझे समय देकर और करीब कर दिया । धन्यवाद जैसा शब्द थोडा छोटा होगा यहाँ । अशोक ।
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नमस्कार जी ! राजीव जी । मैं दिल से आपकी बहुत इज्जत करता हूँ । लेकिन जो मेरे मन में प्रश्न उठे । वो मैंने भेज दिये । लेकिन आपको बुरा लगा हो
तो - i am sorry. जो लङकी का लिंक ( फ़ोटो ) मैंने send किया था । वो आपकी वो ही मित्र है । जिस पर आपने कहानी लिखी है ? ( ये कहानी पढने के यहीं लिये क्लिक करें ) राजेश ।
ANS - वास्तव में मुझे कोई बुरा नहीं लगा । न कभी लगता है । मेरा लक्ष्य उद्देश्य आप लोगों से आत्म ज्ञान के विभिन्न पहलूओं पर चर्चा करना ही है । और चर्चा में निष्पक्ष निर्भीक ढंग से अपनी बात कहनी चाहिये । जिज्ञासा को सामने रखना चाहिये । शंका को पूछना चाहिये । इससे आप लोग मेरा सहयोग ही करते हो । फ़िर बुरा मानने का प्रश्न ही कहाँ ? हाँ ! आप इसे मेरा बुरा मानना मान कर मन में उठने वाले प्रश्न मुझसे नहीं पूछेंगे । तब अवश्य बुरा लगेगा । और मैं आपको एक बात और भी बताऊँ । मैं आपके सुझावों और विचारों से अपने तौर पर 70% सहमत भी हूँ । पर सामाजिक रोग कई प्रकार के हैं । इसलिये हरेक में मीठी गोलियाँ मीठे सीरप काम नहीं करते । कहीं बहुत कङवी कसैली दवा और कहीं चीर फ़ाङ और कहीं कहीं आपरेशन की आवश्यकता भी होती है । इसलिये निसंदेह आप लोग अपनी भावना अनुसार अपनी अपनी जगह सही हो । पर सच सिर्फ़ वही नहीं होता । जो बाह्य तौर पर अनुभव में आता है ? आंतरिक कङवी सच्चाई कुछ अलग भी होती हैं । सभी लोग आपके जैसे भी नहीं होते । कुछ कपटी । मक्कार । धूर्त । आस्तीन के सांप । ईर्ष्यालु भी होते हैं । आप ये बात मानते हो ? और एक धार्मिक संस्था को सभी तरह के लोगों से वास्ता पङता है । इसीलिये मैंने कहा - आप मेरी सभी बातों के मतलब रहस्य नहीं समझ पाओगे । क्योंकि आप सिर्फ़ बाह्य तौर पर ही मुझे पढते जानते हो । इसलिये आप अपनी जगह सही हो । मैं अपनी जगह सही हूँ । रही बात फ़ोटो का परिचय पूछने की । पूर्व में कुछ लोगों के कमीनेपन से दूसरों का खासा नुकसान हुआ । इसलिये मैंने ऐसे परिचय बताना अब बन्द कर दिया । लेकिन आपके द्वारा मेल के साथ भेजी गयी फ़ोटो उस लङकी की नहीं है । जिस पर मैंने कामवासना कहानी लिखी । ( ये कहानी पढने के लिये इसी लाइन पर क्लिक करें । )
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जय गुरुदेव की ।
पानी भर भर गइयां सभै आपो अपनी वार । टेक ।
इक भरन आइयां । इक भर चल्लियां । इक खलियां ने बाहं पसार ।
हार हमेलां पाइयां गल विच । बांहीं छणके चूड़ा । कन्नीं बुक बुक झुम्मर बाले ।
सभ आडम्बर पूरा । मुड़ के शौह ने झात न पाई । एवें गिआ सिंगार ।
हत्त्थी मैंहदी पैरीं मैंहदी । सिर ते धड़ी गुंधाई । तेल फुलेल पानां दा बीड़ा ।
दंदीं मिस्सी लाई । कोई जे सद्द पिओ ने गुज्झी । विस्सरिआ घर बार ।
बुल्ल्हिआ शौह दी पंध पवें जो - तां तूं राह पछाणे । "पौन सतारां" पासैं मंगिआ ।
दा पिआ त्रै काणे । गूंगी डोरी कमली होई । जान दी बाज़ी हार ।
पानी भर भर गइयां सभै आपो अपनी वार ।
- साधक चाहे । जितना यत्न करे । मार्गदर्शक गुरु के बिना प्रयास सफल नहीं होते । इसी भाव का वर्णन करते हुए साईं लिखते हैं कि - सभी सखियां पानी भर भरकर चली गईं । कुछेक पानी भरने के लिए अभी अभी आई हैं । और कुछेक भरकर चली जा रही हैं । कुछेक ऐसी भी हैं । जो बाहें पसारे खड़ी हैं ।
प्रिय को प्राप्त करने के लिए सभी श्रृंगार किया है । गले में हार हमेलें सजा ली हैं । बांहों में चुड़े छनछना रहे हैं ।
कानों में बड़े बड़े झूमर हैं । बालें हैं । यानी कि श्रृंगार का सभी आडम्बर पूरा है । किन्तु प्रिय पति ने देखा तक नहीं । और समूचा श्रृंगार व्यर्थ हो गया ।
श्रृंगार के अतिरिक्त मैंने हाथों में मेहंदी रचाई । पैरों में भी मेहंदी रचाई । सिर भी ख़ूब अच्छी तरह गुंदाया । बालों में ख़ुशबूदार तेल डाला । दांतों में मिस्सी लगाई । और होठों को भी रंग लिया । पता नहीं ( मृत्यु का ) क्या गृढ़ सन्देश आया कि - सारा घर बार ही बिसर गया ।
बुल्लेशाह कहते हैं - यदि तुम प्रिय पति के मार्ग पर चलो । तभी तो उस मार्ग को पहचान सकोगे । लेकिन हुआ यह कि ( चौसर के खेल में ) मैंने मांगा 'पौ बारा' और दांव पड़ा 'तीन काने' । अर्थात प्रिय मिलन की जगह प्रिय विरह ही हाथ आया । अब मैं गूंगी । बहरी और पगली हो गई हूँ । सच तो यह है कि - मैंने जीवन की बाज़ी हार दी । अशोक ।
- आपका बहुत आभार अशोक जी । आत्म ज्ञान पर ये सुन्दर रचना भेजने के लिये । ये वाकई एक गहराई युक्त गूढ भाव रचना है ।
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नमस्कार जी ! राजीव जी । मैं दिल से आपकी बहुत इज्जत करता हूँ । लेकिन जो मेरे मन में प्रश्न उठे । वो मैंने भेज दिये । लेकिन आपको बुरा लगा हो
तो - i am sorry. जो लङकी का लिंक ( फ़ोटो ) मैंने send किया था । वो आपकी वो ही मित्र है । जिस पर आपने कहानी लिखी है ? ( ये कहानी पढने के यहीं लिये क्लिक करें ) राजेश ।
ANS - वास्तव में मुझे कोई बुरा नहीं लगा । न कभी लगता है । मेरा लक्ष्य उद्देश्य आप लोगों से आत्म ज्ञान के विभिन्न पहलूओं पर चर्चा करना ही है । और चर्चा में निष्पक्ष निर्भीक ढंग से अपनी बात कहनी चाहिये । जिज्ञासा को सामने रखना चाहिये । शंका को पूछना चाहिये । इससे आप लोग मेरा सहयोग ही करते हो । फ़िर बुरा मानने का प्रश्न ही कहाँ ? हाँ ! आप इसे मेरा बुरा मानना मान कर मन में उठने वाले प्रश्न मुझसे नहीं पूछेंगे । तब अवश्य बुरा लगेगा । और मैं आपको एक बात और भी बताऊँ । मैं आपके सुझावों और विचारों से अपने तौर पर 70% सहमत भी हूँ । पर सामाजिक रोग कई प्रकार के हैं । इसलिये हरेक में मीठी गोलियाँ मीठे सीरप काम नहीं करते । कहीं बहुत कङवी कसैली दवा और कहीं चीर फ़ाङ और कहीं कहीं आपरेशन की आवश्यकता भी होती है । इसलिये निसंदेह आप लोग अपनी भावना अनुसार अपनी अपनी जगह सही हो । पर सच सिर्फ़ वही नहीं होता । जो बाह्य तौर पर अनुभव में आता है ? आंतरिक कङवी सच्चाई कुछ अलग भी होती हैं । सभी लोग आपके जैसे भी नहीं होते । कुछ कपटी । मक्कार । धूर्त । आस्तीन के सांप । ईर्ष्यालु भी होते हैं । आप ये बात मानते हो ? और एक धार्मिक संस्था को सभी तरह के लोगों से वास्ता पङता है । इसीलिये मैंने कहा - आप मेरी सभी बातों के मतलब रहस्य नहीं समझ पाओगे । क्योंकि आप सिर्फ़ बाह्य तौर पर ही मुझे पढते जानते हो । इसलिये आप अपनी जगह सही हो । मैं अपनी जगह सही हूँ । रही बात फ़ोटो का परिचय पूछने की । पूर्व में कुछ लोगों के कमीनेपन से दूसरों का खासा नुकसान हुआ । इसलिये मैंने ऐसे परिचय बताना अब बन्द कर दिया । लेकिन आपके द्वारा मेल के साथ भेजी गयी फ़ोटो उस लङकी की नहीं है । जिस पर मैंने कामवासना कहानी लिखी । ( ये कहानी पढने के लिये इसी लाइन पर क्लिक करें । )
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जय गुरुदेव की ।
पानी भर भर गइयां सभै आपो अपनी वार । टेक ।
इक भरन आइयां । इक भर चल्लियां । इक खलियां ने बाहं पसार ।
हार हमेलां पाइयां गल विच । बांहीं छणके चूड़ा । कन्नीं बुक बुक झुम्मर बाले ।
सभ आडम्बर पूरा । मुड़ के शौह ने झात न पाई । एवें गिआ सिंगार ।
हत्त्थी मैंहदी पैरीं मैंहदी । सिर ते धड़ी गुंधाई । तेल फुलेल पानां दा बीड़ा ।
दंदीं मिस्सी लाई । कोई जे सद्द पिओ ने गुज्झी । विस्सरिआ घर बार ।
बुल्ल्हिआ शौह दी पंध पवें जो - तां तूं राह पछाणे । "पौन सतारां" पासैं मंगिआ ।
दा पिआ त्रै काणे । गूंगी डोरी कमली होई । जान दी बाज़ी हार ।
पानी भर भर गइयां सभै आपो अपनी वार ।
- साधक चाहे । जितना यत्न करे । मार्गदर्शक गुरु के बिना प्रयास सफल नहीं होते । इसी भाव का वर्णन करते हुए साईं लिखते हैं कि - सभी सखियां पानी भर भरकर चली गईं । कुछेक पानी भरने के लिए अभी अभी आई हैं । और कुछेक भरकर चली जा रही हैं । कुछेक ऐसी भी हैं । जो बाहें पसारे खड़ी हैं ।
प्रिय को प्राप्त करने के लिए सभी श्रृंगार किया है । गले में हार हमेलें सजा ली हैं । बांहों में चुड़े छनछना रहे हैं ।
कानों में बड़े बड़े झूमर हैं । बालें हैं । यानी कि श्रृंगार का सभी आडम्बर पूरा है । किन्तु प्रिय पति ने देखा तक नहीं । और समूचा श्रृंगार व्यर्थ हो गया ।
श्रृंगार के अतिरिक्त मैंने हाथों में मेहंदी रचाई । पैरों में भी मेहंदी रचाई । सिर भी ख़ूब अच्छी तरह गुंदाया । बालों में ख़ुशबूदार तेल डाला । दांतों में मिस्सी लगाई । और होठों को भी रंग लिया । पता नहीं ( मृत्यु का ) क्या गृढ़ सन्देश आया कि - सारा घर बार ही बिसर गया ।
बुल्लेशाह कहते हैं - यदि तुम प्रिय पति के मार्ग पर चलो । तभी तो उस मार्ग को पहचान सकोगे । लेकिन हुआ यह कि ( चौसर के खेल में ) मैंने मांगा 'पौ बारा' और दांव पड़ा 'तीन काने' । अर्थात प्रिय मिलन की जगह प्रिय विरह ही हाथ आया । अब मैं गूंगी । बहरी और पगली हो गई हूँ । सच तो यह है कि - मैंने जीवन की बाज़ी हार दी । अशोक ।
- आपका बहुत आभार अशोक जी । आत्म ज्ञान पर ये सुन्दर रचना भेजने के लिये । ये वाकई एक गहराई युक्त गूढ भाव रचना है ।
1 टिप्पणी:
dhanayad rajeev ji
rajesh
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