31 अक्टूबर 2011

समाधि का अर्थ 1


योगसूत्र - वितर्कविचारानदास्मितानुगमात्सप्रज्ञातः । 17 
सप्रज्ञात समाधि वह समाधि है । जो वितर्क, विचार, आनंद और अस्मिता के भाव से युक्‍त होती है ।
विरामप्रत्ययाथ्यासपूर्व: संस्कारशेषोऽन्य : । 18
असंप्रज्ञात समाधि में सारी मानसिक क्रिया की समाप्ति होती है । और मन केवल अप्रकट संस्कारों को धारण किये रहता है ।
भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम । 19
विदेहियो और प्रकृति लयों को असंप्रज्ञात समाधि उपलब्ध होती है । क्योंकि अपने पिछले जम्प में उन्होंने अपने शरीरों के साथ तादात्थ बनाना समाप्त कर दिया था । वे फिर जन्म लेते हैं । क्योंकि इच्छा के बीज बने रहते हैं ।
श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिपूर्वकइतरेषाम । 20
दूसरे जो असंप्रज्ञात समाधि को उपलब्ध होते हैं । वे श्रद्धा, वीर्य ( प्रयत्न ) स्मृति, समाधि ( एकापता ) और प्रज्ञा ( विवेक ) के द्वारा उपलब्ध होते हैं ।
पतंजलि सबसे बड़े वैज्ञानिक हैं अंतर्जगत के । उनकी पहुंच 1 वैज्ञानिक मन की है । वे कोई कवि नहीं है । और इस ढंग से वे बहुत बिरले हैं । क्योंकि जो लोग अंतर्जगत में प्रवेश करते हैं । प्राय: सदा कवि ही होते हैं । जो बहिर्जगत में प्रवेश करते हैं । अक्सर हमेशा वैज्ञानिक होते हैं । पतंजलि 1 दुर्लभ पुष्‍प हैं । उनके पास वैज्ञानिक मस्तिष्क है । लेकिन उनकी यात्रा भीतरी है । इसीलिए वे पहले और अंतिम वचन बन गये । वे ही आरंभ हैं । और वे ही अंत हैं । 5000  वर्षों में कोई उनसे ज्यादा उन्नत नहीं हो सका । लगता है कि उनसे ज्यादा उन्नत हुआ ही नहीं जा सकता । वे अंतिम वचन ही रहेंगे । क्योंकि यह जोड़ ही असंभव है । वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखना और आंतरिक जगत में प्रवेश करना करीब करीब असंभव संभावना है । वे 1 गणितज्ञ, 1 तर्क शास्त्री की भांति बात करते हैं । वे अरस्‍तु की भांति बात करते हैं । और वे हैं हेराक्लतु जैसे रहस्पदर्शी । उनके 1-1 शब्द को समझने की कोशिश करो । यह कठिन होगा । यह कठिन होगा । क्योंकि उनकी शब्दावली तर्क की । विवेचन की है । पर उनका संकेत प्रेम की ओर, मस्ती की ओर, परमात्मा की ओर है । उनकी शब्दावली उस व्यक्ति की है । जो वैज्ञानिक प्रयोगशाला में काम करता है । लेकिन उनकी प्रयोगशाला आंतरिक अस्तित्व की है । अत: उनकी शब्दावली द्वारा भ्रमित न होओ । और यह अनुभूति बनाये रहो कि वे परम काव्य के गणितज्ञ हैं । वे स्वयं 1 विरोधाभास हैं । लेकिन वे विरोधाभासी भाषा हरगिज प्रयुक्‍त नहीं करते । कर नहीं सकते । वे बड़ी मजबूत तर्कसंगत पृष्ठभूमि बनाये रहते हैं । वे विश्लेषण करते । विच्छेदन करते । पर उनका उद्देश्य संश्लेषण है । वे केवल संश्लेषण करने को ही विश्लेषण करते हैं । तो हमेशा ध्यान रखना कि ध्येय तो है परम सत्य तक पहुंचना । केवल मार्ग ही है वैज्ञानिक । इसलिए मार्ग द्वारा दिग्भ्रमित मत होना । इसलिए पतंजलि ने पश्चिमी मन को बहुत ज्यादा प्रभावित किया है । पतंजलि सदैव 1 प्रभाव बने रहे हैं । जहां कहीं उनका नाम पहुंचा है । वे प्रभाव बने रहे । क्योंकि तुम उन्हें आसानी से समझ सकते हो । लेकिन उन्हें समझना ही पर्याप्त नहीं है । उन्हें समझना उतना ही आसान है । जितना कि आइंस्टीन को समझना । वे बुद्धि से बातें करते हैं । पर उनका लक्ष्य हृदय ही है । इसे तुम्हें खयाल में लेना है ।
हम 1 खतरनाक क्षेत्र में बढ़ रहे होंगे । अगर तुम भूल जाते हो कि वे 1 कवि भी हैं । तो तुम मार्ग से बहक जाओगे । तब तुम उनकी शब्दावली को, उनकी भाषा को, उनके तर्क को बहुत जड़ता से पकड़ लोगे । और तुम उनके ध्येय को भूल जाओगे । वे चाहते हैं कि तर्क के द्वारा ही तुम तर्क के पार चले जाओ । यह 1 संभावना है । तुम तर्क को इतने गहरे तौर पर खींच सकते हो कि तुम उसके पार हो जाओ । तुम तर्क द्वारा चलते हौ । तुम उसे टालते नहीं । तुम तर्क का उपयोग सीढ्री की तरह करते हो । तर्क से पार जाने के लिए । अब उनके शब्दों पर ध्यान दो । हर शब्द को विश्लेषित करना है ।
संप्रज्ञात समाधि वह समाधि है । जो वितर्क विचार आनंद और अस्मिता के भाव से युक्‍त होती है ?
वे समाधि को, उस परम सत्य को 2 चरणों में बांट देते हैं । परम सत्य बांटा नहीं जा सकता । यह तो अविभाज्य है । और वस्तुत: कोई चरण है ही नहीं । लेकिन मन को, साधक को सहायता देने के लिए ही वे पहले इसे 2 चरणों में बांट देते हैं । पहले चरण को वे नाम देते हैं - संप्रज्ञात समाधि । यह वह समाधि है । जिसमें मन अपनी शुद्धता में सुरक्षित रहता है ।
इस पहले चरण में, मन को परिष्कृत और शुद्ध होना पड़ता है । पतंजलि कहते हैं - तुम इसे एकदम से गिरा नहीं सकते । इसे गिराना असंभव है । क्योंकि अशुद्धियों की प्रवृत्ति है चिपकने की । तुम इसे केवल तभी गिरा सकते हो । जब मन बिलकुल शुद्ध होता है । इतना शुद्ध, इतना सूक्ष्म कि उसकी कोई प्रवृत्ति नहीं रहती चिपकने की ।
वे मन को गिरा देने के लिए नहीं कहते । जैसा कि झेन गुरु कहते हैं। वे तो कहते हैं यह असंभव है । और अगर तुम ऐसा कहते हो । तो तुम नासमझी की बात कह रहे हो । तुम सत्य ही कह रहे हो । पर यह संभव नहीं है । क्योंकि एक अशुद्ध मन बोझिल होता है । किसी पत्थर की भांति वह बोझ झूलता रहता है । और 1 अशुद्ध मन में इच्छाएं होती हैं - लाखों इच्छाएं जो अधूरी हैं । जो पूरी होने को ललकती रहती हैं । पूरी होने की मांग करती हैं । इसमें लाखों विचार हैं । जो अपूर्ण हैं । कैसे गिरा सकते हो तुम इसे ? अपूर्ण सदा संपूर्ण होने की चेष्टा करता है । ध्यान रखना । पतंजलि कहते हैं कि - जब कोई चीज संपूर्ण होती है । केवल तभी तुम उसे गिरा सकते हो । तुमने ध्यान दिया ? अगर तुम चित्रकार हो । और तुम चित्र बना रहे हो । तो जब तक चित्र पूरा नहीं हो जाता । तुम उसे भूल नहीं सकते । वह बना रहता है । तुम्हारे पीछे लगा रहता है । तुम ठीक से सो नहीं सकते । वह वहीं डटा है । मन में इसकी अंतर्धारा है । यह सक्रिय रहती है । और संपूर्ण होने की मांग करती है । 1 बार यह पूरी हो जाती है । तो बात खत्म हो गयी । तुम इसे भूल सकते हो ।
मन की वृत्ति है संपूर्णता की ओर जाने की । मन पूर्णतावादी है । इसलिए जो कुछ अपूर्ण रहता है वह मन पर 1 तनाव हो जाता है । पतंजलि कहते हैं कि तुम सोचने को नहीं गिरा सकते । जब तक कि सोचना इतना संपूर्ण न हो जाये कि अब इसके बारे में करने सोचने को कुछ रहे ही नहीं । तब तुम इसे सरलता से गिरा सकते हो । और भूल सकते हो । यह झेन से, हेराक्लतु से पूरी तरह विपरीत मार्ग है ।
प्रथम समाधि । जो केवल नाममात्र की समाधि है । वह है - संप्रज्ञात समाधि । सूक्ष्म और शुद्ध हुए मन वाली समाधि । द्वितीय समाधि है - असंप्रशांत समाधि । अ-मन की समाधि । किंतु पतंजलि कहते हैं कि जब मन तिरोहित हो जाता है । जब कोई विचार नहीं बच रहते । फिर भी अतीत के सूक्ष्म बीज अचेतन में संचित रहते हैं ।
चेतन मन 2 में बंटा हुआ है । प्रथम : संप्रज्ञात । शुद्ध हुई अवस्था का चित्त । बिलकुल शोधित मक्खन जैसा । इसका 1 अपना ही सौदर्य है । लेकिन यह मन मौजूद तो है । और चाहे कितना ही सुंदर हो । मन अशुद्ध है । मन कुरूप है । कितना ही शुद्ध और शांत हो जाये मन । लेकिन मन का होना मात्र अशुद्धि है । तुम विष को शुद्ध नहीं कर सकते । वह विष ही बना रहता है । उल्टे जितना ज्यादा तुम इसे शुद्ध करते हो । उतना ज्यादा यह विषमय बनता जाता है । हो सकता है । यह बहुत बहुत सुंदर लगता हो । इसके अपने रंग, अपनी रंगतें हो सकती हैं ? लेकिन यह फिर भी अशुद्ध ही होता है ।
पहले तुम इसे शुद्ध करो । फिर तुम गिरा दो । लेकिन तो भी यात्रा पूरी नहीं हुई है । क्योंकि यह सब चेतन मन में है । अचेतन का क्या करोगे तुम ? चेतन मन की तहों के एकदम पीछे ही अचेतन का फैला हुआ महादेश है । तुम्हारे सारे पिछले जन्मों के बीज अचेतन में रहते हैं ।
तो पतंजलि अचेतन को 2 में बांट देते हैं । वे सबीज समाधि को कहते है - वह समाधि । जिसमें अचेतन मौजूद है । और चेतन रूप से मन गिरा दिया गया है । यह समाधि है बीज सहित - सबीज । जब वे बीज भी जल चुके हो । तो तुम उपलब्ध होते हो संपूर्ण - निर्बीज समाधि को । बीज रहित समाधि को ।
तो चेतन 2 चरणों में बंटा है । और फिर अचेतन 2 चरणों में बंटा है । और जब निर्बीज समाधि घटती है । वह परमानंद जब कोई बीज तुम्हारे भीतर नहीं होते अंकुरित होने के लिए या विकसित होने के लिए । जो कि तुम्हें अस्तित्व में आगे की यात्राओं पर ले चलें । तो तुम तिरोहित हो जाते हो ।
इन सूत्रों में वे कहते हैं - संप्रज्ञात समाधि वह समाधि है । जो वितर्क, विचार, आनंद और अस्मिता के भाव से युक्त होती है ।
लेकिन यह पहला चरण है । और बहुत लोग भटक जाते हैं । वे सोचते हैं कि यही अंतिम है । क्योंकि यह इतनी शुद्ध है । तुम इतना पुलकित अनुभव करते हो । इतना आनंदित कि तुम सोचते हो कि अब पाने को और कुछ नहीं है । अगर तुम पतंजलि से पूछो । तो वे कहेंगे कि झेन की सतोरी तो पहली समाधि ही है । वह अंतिम, परम नहीं है । परम सत्य तो अभी बहुत दूर है ।
जो शब्द वे प्रयोग करते हैं । उनका ठीक से अनुवाद नहीं किया जा सकता । क्योंकि संस्कृत सर्वाधिक संपूर्ण भाषा है । कोई भाषा इसके निकट भी नहीं आ सकती । अत: मुझे तुम्हें सुस्पष्ट करना होगा । जो शब्द प्रयुक्‍त हुआ है । वह है - वितर्क । अंग्रेजी में तो इसका अनुवाद रीजनिंग किया जाता है । यह तो 1 दरिद्र अनुवाद हुआ । वितर्क को समझ लेना है । लाजिक को कहा जाता है - तर्क । और पतंजलि कहते हैं । तर्क 3 प्रकार के होते हैं । 1 को वे कहते हैं - कुतर्क । ऐसा तर्क, जो निषेध की ओर उन्‍मुख हो जाता है । सदैव नकारात्मक ढंग से सोचता है । जिसमें कि तुम अस्वीकार कर रहे हो । संदेह कर रहे हो । विनाशवादी होते हो ।
चाहे तुम कुछ भी कहो । वह आदमी जो कुतर्क में जीता है । निषेधात्मक तर्क में - सदा सोचता है । इसे अस्वीकार कैसे करें । न कैसे कहें । वह निषेध को खोजता है । वह तो हमेशा शिकायत कर रहा है । खीज रहा है । वह सदा अनुभव करता है कि कहीं कुछ गलत है । सदा ही । तुम उसे ठीक नहीं कर सकते । क्योंकि यही है उसका देखने का ढंग । अगर तुम उसे सूरज देखने के लिए कहते हो । तो वह सूरज को नहीं देखेगा । वह देखेगा सूरज के धब्बों को । वह हमेशा चीजों के ज्यादा अंधेरे पहलू को देखगा । यह है - कुतर्क । गलत तर्क । लेकिन यह तर्क की भांति जान पड़ता है ।
अंततः यह नास्तिकता की ओर ले जाता है । तब तुम ईश्वर को अस्वीकार करते हो । क्योंकि अगर तुम शुभ को देख नहीं सकते । अगर तुम जीवन के अधिक प्रकाशमय पक्ष को नहीं देख सकते । तो तुम ईश्वर को कैसे अनुभव कर सकते हो ? तब तुम केवल इनकार करते हो । तब पूरा अस्तित्व अंधेरा हो जाता है । तब हर चीज गलत होती है । और तुम अपने चारों ओर नरक निर्मित कर लेते हो । अगर हर चीज गलत है । तो तुम प्रसन्न कैसे हो सकते हो ? और यह तुम्हारा निर्माण है । और तुम हमेशा कुछ गलत खोज कर सकते हो । क्योंकि जीवन द्वैत से बना होता है ।
गुलाब की झाड़ी में सुंदर फूल होते हैं । लेकिन कांटे भी होते हैं । कुतर्क वाला आदमी कांटों की गिनती करेगा । और फिर वह इस समझ तक आ पहुंचेगा कि यह गुलाब तो भ्रामक ही होगा । यह हो नहीं सकता । बहुत सारे कांटों के बीच । लाखों काटों के बीच । 1 गुलाब कैसे बना रह सकता है ? यह असंभव है । यह संभावना ही त्याज्य हो जाती है । जरूर कोई धोखा दे रहा है ।
मुल्ला नसरुद्दीन बहुत उदास था । वह पादरी के पास गया । और बोला - क्या करूं ? मेरी फसल फिर बरबाद हो गयी है । बारिश नहीं हुई । पादरी बोला - इतने उदास मत होओ, नसरुद्दीन । जिंदगी के ज्यादा रोशन पहलू की ओर देखो । तुम खुश हो सकते हो । क्योंकि फिर भी तुम्हारे पास बहुत ज्यादा है । और हमेशा ईश्वर पर भरोसा रखो । जो दाता है । वह आकाश में उड़ते पक्षियों के लिए भी जुटा देता है । तो तुम क्यों चिंतित हो ?' नसरुद्दीन बहुत कटुता पूर्वक बोला - हां मेरे अनाज द्वारा । ईश्वर आकाश के पक्षियों का इंतजाम करता है मेरे अनाज द्वारा । वह बात नहीं समझ सकता । उसकी फसल इन पक्षियों द्वारा नष्ट हुई है । और ईश्वर उनका भरण पोषण कर रहा है । इसलिए वह कहता है - मेरी फसल बरबाद हुई है । इस प्रकार का मन हमेशा कुछ न कुछ खोज निकालेगा । और हमेशा क्षुब्ध रहेगा । चिंता छाया की भांति उसका पीछा करेगी । इसे पतंजलि कहते हैं - कुतर्क निषेधात्मक तर्क । निषेधात्मक तर्कणा ।
फिर है - तर्क सीधा तर्क । सीधा तर्क कहीं नहीं ले जाता । यह 1 चक्कर में घूम रहा है । क्योंकि इसका कोई ध्येय नहीं है । तुम तर्क और तर्क और तर्क किये चले जा सकते हो । लेकिन तुम किसी निश्चय तक नहीं पहुंचोगे । क्योंकि तर्क किसी निश्चय तक केवल तभी पहुंचता है । जब बिलकुल आरंभ से ही कोई ध्येय हो । अगर तुम 1 दिशा में बढ़ रहे हो । तब तुम कहीं पहुंचते हो । अगर तुम सब दिशाओं में बढ़ रहे हो । कभी दक्षिण में, कभी पूर्व में, कभी पश्चिम में । तो तुम ऊर्जा गंवाते हो ।
बिना ध्येय का विचार तर्क कहलाता है । निषेधात्मक रुख वाला तर्क कुतर्क कहलाता है । विधायक भूमि वाला तर्क वितर्क कहलाता है । वितर्क का अर्थ है - विशिष्ट तर्क ।
तो वितर्क प्रथम तत्व है - संप्रज्ञात समाधि का । जो व्यक्ति आंतरिक शांति पाना चाहता है । उसे वितर्क में प्रशिक्षित होना होता है - विशिष्ट तर्क । वह सदा ज्यादा प्रकाशमय पक्ष की ओर, विधायक की ओर देखता है । वह फूलों को महत्व देता है । और कांटों को भूल जाता है । ऐसा नहीं है कि कांटे नहीं हैं । लेकिन उसे उनसे कुछ लेना देना नहीं । अगर तुम फूलों से प्रेम करते हो । और फूलों को गिनते रहते हो । तो 1 क्षण आता है । जब तुम कांटों में विश्वास नहीं कर सकते । क्योंकि यह कैसे संभव है कि जहां इतने सुंदर फूल विद्यमान हों । वहीं कांटे बने रहते हों । कहीं कुछ भ्रामकता होगी ।
कुतर्क वाला व्यक्ति कांटे गिनता है । तब फूल अवास्तविक बन जाते हैं । वितर्क युक्‍त व्यक्ति फूल गिनता है । तब कांटे अवास्तविक हो जाते हैं । इसलिए पतंजलि कहते हैं कि वितर्क प्रथम तत्व है । इसके द्वारा आनंद संभव है । वितर्क द्वारा व्यक्ति को स्वर्गोपलब्धि होती है । व्यक्ति अपना ही स्वर्ग चारों ओर निर्मित कर लेता है ।
तुम्हारा दृष्टिकोण निर्णायक है । जो कुछ तुम चारों ओर पाते हो । वह तुम्हारा अपना निर्माण है - स्वर्ग या नरक । और पतंजलि कहते हैं कि तुम तर्क और बुद्धि के पार जा सकते हो । केवल विधायक तर्क के द्वारा । निषेधात्मक तर्क के द्वारा तुम कभी पार नहीं जा सकते । क्योंकि जितना अधिक तुम नकारते हो । उतना ज्यादा तुम उदास पाते हो चीजों को । अगर तुम " नहीं " कहते हो । और त्यागते हो । धीरे धीरे तुम भीतर 1 सतत नकार बन जाते हो । 1 अंधियारी रात । तो फूल नहीं । केवल कांटे ही तुममें विकसित हो सकते हैं । तुम 1 मरुस्थल होते हो ।
जब तुम हां कहते हो । तब तुम ज्यादा और ज्यादा चीजें पाते हो । हां कहने के लिए । जब तुम कहते हो - हां । तुम ही कहने वाले बन जाते हो । जीवन का स्वीकार हुआ । और तुम्हारी हां द्वारा तुम वह सब आत्मसात कर लेते हो । जो शुभ है । सुंदर है । वह सब जो सत्य है । हां - तुम्हारे भीतर 1 द्वार बन जाता है भगवत्ता के प्रवेश करने का । नहीं - 1 बंद द्वार बनता है । तुम्हारे बंद द्वार सहित तुम 1 नरक होते हो । तुम्हारे खुले द्वार सहित । सारे खुले द्वार दरवाजों सहित । अस्तित्व तुम्हारे भीतर बह आता है । तुम ताजे, यौवनमय, जीवंत होते हो । तुम 1 फूल बन जाते हो ।
वितर्क, विचार, आनंद पतंजलि कहते हैं - अगर तुम वितर्क के साथ मेल बनाते हो विधायक तर्क के साथ । तब तुम 1 विचारक हो सकते हो । उससे पहले हरगिज नहीं । तब विचारणा उदित होती है । उनके लिए विचारणा का बिलकुल अलग ही अर्थ है । तुम भी सोचते हो कि तुम विचार करते हो । पतंजलि सहमत नहीं होंगे । वे कहते हैं तुम्हारे पास विचार हैं । पर विचारणा नहीं । इसलिए मैं कहता हूं कि - कठिन है उन्हें अनुवादित करना ।
वे कहते हैं - तुम्हारे पास विचार हैं । भागते दौड़ते विचार हैं भीड़ की तरह । लेकिन कोई विचारणा नहीं है । तुम्हारे 2 विचारों के बीच कोई अंतर्धारा नहीं है । वे उखड़ी हुई चीजें हैं । कोई अंतर्व्यवस्था नहीं है । तुम्हारा सोचना 1 अस्त व्यस्तता है । यह सुव्यवस्था नहीं है । इसमें कोई आंतरिक अनुशासन नहीं है ।
जैसे 1 माला होती है । वहां मनके हैं । और एक दूसरे से बंधे हैं अदृश्य धागे द्वारा । जो उनमें से गुजर रहा है । विचार मनके हैं । विचारणा धागा है । तुम्हारे पास मनके हैं बहुत सारे । वस्तुत: जितने तुम्हें चाहिए उससे ज्यादा । लेकिन कोई आंतरिक धागा । कोई अंतर्सूत्र उनमें व्याप्त नहीं है । उस अंतर्सूत्र को पतंजलि कहते हैं - विचार । तुम्हारे पास विचार हैं । पर कोई विचारणा नहीं । और अगर ऐसा ही होता चला जाता है । तो तुम पागल हो जाओगे । पागल आदमी वह आदमी है । जिसके पास लाखों विचार हैं । और विचारणा नहीं । और संप्रज्ञात समाधि वह अवस्था है । जिनमें विचार नहीं होते हैं । लेकिन विचारणा समग्र होती है । यह भेद समझ लेना ।
पहली तो बात यह कि तुम्हारे विचार तुम्हारे नहीं हैं । तुमने उन्हें इकट्ठा कर लिया है । जैसे अंधेरे कमरे में, कभी रोशनी की किरण छत से चली आती है । और तुम धूल के असंख्य कणों को उस किरण में तैरते हुए देख लेते हो । जब मैं तुममें झांकता हूं । मैं वही घटना देखता हूं -  धूल के लाखों कण । तुम उन्हें विचार कहते हो । वे तुम्हारे बाहर भीतर चल रहे हैं । वे 1 सिर से दूसरे में प्रवेश करते हैं । और वे चलते जाते हैं । उनकी अपनी जिंदगी है ।
विचार 1 वस्तु है । उसका अपना स्वयं का अस्तित्व होता है । जब कोई आदमी मरता है । तो उसके सारे पागल विचार तुरंत निकल भागते हैं । और वे कहीं न कहीं शरण ढूंढना शुरू कर देते हैं । फौरन वे उनमें प्रवेश कर जाते हैं । जो आसपास होते हैं । वे कीटाणुओं की भांति होते हैं । उनका अपना जीवन है । तुम जब जीवित भी होते हो । तब तुम अपने चारों ओर विचार बिखेरते चले जाते हो । जब तुम बोलते हो । तब निस्संदेह अपने विचार तुम दूसरों में फेंकते हो । किंतु जब तुम मौन होते हो । तब भी तुम चारों ओर विचार फेंक रहे होते हो । वे तुम्हारे नहीं होते । यह तो है पहली बात ।
विधायक तर्क वाला व्यक्ति उन सारे विचारों को निकाल फेंकेगा । जो उसके अपने न हों । वे प्रामाणिक नहीं होते हैं । उन्हें उसने स्वयं अनुभव द्वारा नहीं पाया होता । उसने दूसरों द्वारा संचित कर लिया है । वे उधार हैं । वे मैले हैं । वे बहुत हाथों और सिरों में रहे हैं । सोचने  विचारने वाला व्यक्ति उधार नहीं जीयेगा । वह अपने स्वयं के ताजे विचार पाना चाहेगा । और अगर तुम विधायक हो । और अगर तुम सौंदर्य को, सत्य को, शुभ को, फूलों को देखते हो । अगर तुम सबसे अंधियारी रात में भी देखने के योग्य हो जाते हो कि सबेरा निकट आ रहा है । तो तुम विचारने के योग्य हो जाओगे ।
तब तुम स्वयं अपने विचार निर्मित कर सकते हो । और वह विचार जो तुम्हारे द्वारा निर्मित हो जाता है । वास्तव में शक्तिशाली होता है । उसकी स्वयं की अपनी शक्ति होती है । ये विचार जो तुमने उधार ले लिये हैं । करीब करीब मुर्दा हैं । क्योंकि वे यात्रा करते रहे हैं । लाखों वर्षों से यात्रा कर रहे हैं । उनका स्रोत खो चुका है । अपने स्रोत के साथ वे सारा संपर्क खो चुके हैं । वे तो बस चारों ओर तैरते धूलकणों की भांति हैं । तुम उन्हें पकड़ लेते हो । कई बार तुम उनके प्रति जाग्रत भी हो जाते हो । लेकिन तुम्हारी जागृति ऐसी है कि चीजों को आरपार देख नहीं सकती ।
कई बार तुम बैठे हुए होते हो । अचानक तुम उदास हो जाते हो बिना किसी भी कारण के । तुम कारण ढूंढ नहीं सकते । तुम चारों ओर देखते हो । और कारण कोई होता नहीं । कुछ नहीं है वहां । कुछ घटित नहीं हुआ । तुम बिलकुल वैसे ही हो । अचानक 1 उदासी तुम्हें जकड़ लेती है । 1 विचार गुजर रहा है । तुम तो बस रास्ते में हो । यह 1 दुर्घटना है । विचार 1 बादल की भांति गुजर रहा था ।  1 उदास विचार किसी के द्वारा छोड़ा हुआ । यह 1 दुर्घटना है कि तुम पक्क में आ गये हो । कई बार कोई विचार अड़ा रहता है । तुम नहीं जानते कि तुम क्यों इसके बारे में सोचते चले जाते हो । यह बेतुका दिखाई पड़ता है । यह किसी काम का नहीं जान पड़ता । लेकिन तुम कुछ नहीं कर सकते । यह द्वार खटखटाये चला जाता है । यह कहता है - मुझे सोचो । 1 विचार द्वार पर प्रतीक्षा कर रहा है - खटखटाता हुआ । यह कहता है - स्थान दो । मैं भीतर आना चाहूंगा । प्रत्येक विचार का अपना स्वयं का जीवन है । यह चलता रहता है । और इसके पास ज्यादा शक्ति है । और तुम बहुत कमजोर हो । क्योंकि तुम बहुत बेखबर हो । अत: तुम विचारों द्वारा चलाये जाते हो । तुम्हारा सारा जीवन ऐसी दुर्घटनाओं से बना है । तुम लोगों से मिलते हो । और तुम्हारी जिंदगी का सारा ढांचा ढर्रा बदल जाता है ।
कुछ तुममें प्रवेश करता है । फिर तुम वशीभूत हो जाते हो । और तुम भूल जाते हो कि तुम कहां जा रहे थे । तुम अपनी दिशा बदल देते हो । तुम इस विचार के पीछे हो लेते हो । यह 1 दुर्घटना ही है । तुम बच्चों की भांति हो । पतंजलि कहते हैं कि - यह विचारणा नहीं है । यह विचारणा की अनुपस्थिति वाली अवस्था है । यह विचारणा नहीं है । तुम भीड़ हो । तुम्हारे पास, तुम्हारे भीतर कोई केंद्र नहीं है । जो सोच सके । जब कोई वितर्क के अनुशासन में बढ़ता है - सम्यक तर्क में । तब वह धीरे धीरे सोचने के योग्य बनता है । सोचना 1 क्षमता है । विचार क्षमता नहीं है । विचार दूसरों से सीखे जा सकते हैं । विचारणा कभी नहीं । विचारणा तुम्हें स्वयं ही सीखनी होती है ।
और यही है भेद पुराने भारतीय विद्यापीठों और आधुनिक विश्वविद्यालयों के बीच । आधुनिक विश्वविद्यालयों में तुम विचारों को जुटा रहे हो । प्राचीन विद्यालयों में, शान विद्यालयों में वे सोचना विचारना सिखाते रहे थे । न कि विचार ।
विचारशीलता तुम्हारे आंतरिक अस्तित्व की गुणवत्ता है । विचारशीलता का अर्थ क्या है ? इसका अर्थ है । तुम्हारी चेतना को बनाये रखना । समस्या से साक्षात्कार करने को, सजग और जागरूक बने रहना । समस्या वहां मौजूद है । तुम अपनी समग्र जागरूकता के साथ उसका सामना करो । और तब 1 उत्तर उठ खड़ा होता है - 1 प्रत्युत्तर । यह है विचारणा ।
1 प्रश्न सामने रखा जाता है । और तुम्हारे पास 1 बना बनाया उत्तर होता है । इससे पहले कि तुम इसके बारे में सोचो भी । उत्तर आ पहुंचता है । कोई कहता है - क्या ईश्वर है ? उसने अभी यह कहा भी न हो । और तुम कह देते हो - हां । तुम अपना निर्जीव सिर 'हां' में हिला देते हो । तुम कह देते हो - हां ईश्वर है ।
क्या यह तुम्हारा विचार है ? क्या तुमने बिलकुल अभी समस्‍या के बारे में सोचा है । या तुम अपनी स्मृति में कोई बना बनाया उत्तर ढो रहे हो ?  किसी ने तुम्हें इसे दे दिया है - तुम्हारे माता पिता ने । तुम्हारे शिक्षकों ने । तुम्हारे समाज ने । किसी ने इसे तुम्हें दे दिया है । और तुम इसे कीमती खजाने की तरह लिये चलते हो । और यह उत्तर उसी स्मृति से आता है । विचारशील व्यक्ति । हर बार जब समस्या होती है । तो अपनी चेतना का उपयोग करता है । ताजे रूप से वह अपनी चेतना का उपयोग करता है । वह समस्या से साक्षात्कार करता है । और फिर उसके भीतर जो कोई विचार उदित होता है । वह स्मृति का हिस्सा नहीं होता । भेद यही है । विचारों से भरा व्यक्ति स्मृति का व्यक्ति है । उसके पास चिंतन की क्षमता नहीं है । अगर तुम वह प्रश्न पूछते हो । जो नया है । वह हकबकाया हुआ होगा । वह उत्तर नहीं दे सकता । अगर तुम कोई प्रश्न पूछते हो । जिसका उत्तर वह जानता है । वह तुरंत उत्तर देगा । यह अंतर है पंडित और उस व्यक्ति के बीच । जो जानता है । वह व्यक्ति जो सोच सकता है ।
पतंजलि कहते हैं कि - वितर्क, सम्यक तर्क ले जाता है अनुचितन की ओर । विचार की ओर । अनुचितन, विचार ले जाता है आनंद की ओर । यह पहली झलक है । और निस्संदेह यह 1 झलक ही है । यह आयेगी । और यह खो जायेगी । तुम इसे बहुत देर तक पकड़े नहीं रख सकते । यह मात्र झलक ही बनने वाली थी । जैसे कि 1 क्षण को बिजली कौंधी । और तुम देखते हो । सारा अंधकार तिरोहित हो जाता है । किंतु फिर वहां अंधकार आ बनता है । यह ऐसा है कि जैसे कि बादल तिरोहित हो गये । और तुमने क्षण भर को चांद देखा । फिर दोबारा वहां बादल आ जाते हैं ।
या किसी उज्जवल सुबह हिमालय के निकट, क्षण भर को तुम्हें गौरी शंकर की झलक मिल सकती है - उच्चतम शिखर की । लेकिन फिर वहां धुंध होती है । और फिर वहां बादल होते हैं । और शिखर खो जाता है । यह है सतोरी । इसीलिए सतोरी का अनुवाद समाधि की भांति करने की कोशिश कभी न करना । सतोरी 1 झलक है । यह उपलब्ध हो जाती है । तो बहुत कुछ करना होता है इसके बाद । वस्तुत: वास्तविक कार्य शुरू होता है पहली सतोरी के बाद । पहली झलक के बाद । क्योंकि तब तुमने अपरिसीम का स्वाद पा लिया होता है । अब 1 वास्तविक, प्रामाणिक तलाश शुरू होती है । इससे पहले तो, वह बस ऐसी वैसी थी । कुनकुनी । क्योंकि तुम वास्तव में आश्वस्त न थे । निश्चित न थे । इस बात के लिए कि तुम क्या कर रहे हो । तुम कहां जा रहे हो ? क्या हो रहा है ?
इससे पहले । यह 1 आस्था थी । श्रद्धा थी । इसके पहले 1 गुरु की आवश्यकता थी तुम्हें मार्ग दर्शाने को । तुम्हें बारबार वापस मार्ग पर लाने को । लेकिन अब सतोरी के घटित होने के बाद यह कोई आस्था न रही । यह 1 अनुभव बन चुका है । अब आस्था 1 प्रयत्न नहीं है । अब तुम श्रद्धा करते हो । क्योंकि तुम्हारे अपने अनुभव ने तुम्हें दर्शा दिया है । पहली झलक के बाद वास्तविक खोज शुरू होती है । इससे पहले तो तुम गोल गोल घूम रहे थे ।

23 अक्टूबर 2011

समाधि का अर्थ 2

सम्यक तर्क ले जाता है - सम्यक अनुचितन की तरफ । सम्यक अनुचितन ले जाता है - आनंदमयी अवस्था की तरफ । और यह आनंदपूर्ण अवस्थाले जाती है - विशुद्ध अंतस सत्ता की अवस्था में ।
1 नकारात्मक मन हमेशा अहंकारी होता है । यह है अंतस सत्ता की अशुद्ध अवस्था । तुम अनुभव करते हो - मैं  को । लेकिन तुम " मैं " का अनुभव गलत कारणों से करते हो । जरा ध्यान देना । अहंकार " नहीं " पर पलता है । जब कभी तुम कहते हो - नहीं । अहंकार उठ खडा होता है । जब कभी तुम हां कहते हो । अहंकार नहीं उठ सकता । क्योंकि अहंकार संघर्ष चाहता है । अहंकार चाहता है - चुनौती । अहंकार स्वयं को किसी के विरुद्ध रख देना चाहता है । किसी चीज के विरुद्ध । यह अकेला नहीं बना रह सकता है । इसे द्वैत चाहिए । 1 अहंकारी हमेशा संघर्ष की तलाश में रहता है । किसी के साथ । किसी चीज के साथ । किसी परिस्थिति के साथ का संघर्ष । वह हमेशा किसी चीज को खोज रहा है न कहने को । जीतने को । उसे विजित करने को ।
अहंकार हिंसक होता है । और " नहीं " 1 सूक्ष्मतम हिंसा है । जब तुम साधारण चीजों के प्रति भी नहीं कहते हो । वहां भी अहंकार उठ खडा होता है ।
1 छोटा बच्चा मां से कहता है - क्या मैं बाहर खेलने जा सकता हूं ? और वह कहती है - नहीं । कुछ बड़ी उलझन न थी । लेकिन जब मां कहती है - नहीं । तो वह अनुभव करती है कि - वह कुछ है ।
तुम रेलवे स्टेशन पर जाते हो । और तुम टिकट के लिए पूछते हो । क्लर्क तुम्हारी तरफ बिलकुल नहीं देखता । वह काम करता जाता है । चाहे कोई काम न भी हो । वह कह रहा है - नहीं । ठहरो । वह अनुभव करता है कि वह कुछ है । वह कोई है । इसलिए दफ्तरों में हर कहीं, तुम नहीं सुनोगे । हां बहुत कम है । बहुत दुर्लभ । 1 साधारण क्लर्क किसी को नहीं कह सकता है । तुम कौन हो ? इसका महत्व नहीं । वह शक्तिशाली महसूस करता है ।
नहीं कह देना तुम्हें ताकत की अनुभूति देता है । इसे याद रखना । जब तक यह बिलकुल आवश्यक ही न हो । हरगिज नहीं मत कहना । अगर यह बिलकुल आवश्यक भी हो । तो इसे इतने स्वीकारात्मक ढंग से कहो कि - अहंकार खड़ा न हो । तुम ऐसा कह सकते हो । नहीं भी इस ढंग से कहा जा सकता है कि यह हां की भांति लगता है । तुम इस ढंग से ही कह सकते हो कि यह नहीं की भांति लगता है । यह बात भाव भंगिमा पर निर्भर करती है । अभिवृत्ति पर निर्भर करती है ।
इसे खयाल में लेना । खोजियों को इसे सतत याद रखना पड़ता है कि तुम्हें सतत हां की सुवास में रहना होता है । आस्थावान ऐसा ही होता है । वह हाँ कहता है । जब नहीं की भी आवश्यकता हो । वह कहता है - हां । वह नहीं देखता कि जीवन में कोई प्रतिरोध है । वह स्वीकार करता है । वह अपने शरीर के प्रति हां कहता है । वह मन के प्रति हां कहता है । प्रत्येक के प्रति हां कहता है । वह संपूर्ण अस्तित्व के प्रति हां कहता है । जब तुम निरपेक्ष ही कहते हो बिना किन्हीं शर्तों के । तब परम खिलावट घटित होती है । तब अचानक अहंकार गिर जाता है । वह खड़ा नहीं रह सकता । इसे नकार के सहारे चाहिए होते हैं । नकारात्मक दृष्टिकोण अहंकार निर्मित करता है । विधायक दृष्टिकोण के साथ अहंकार गिर जाता है । और तब अस्तित्व शुद्ध होता है ।
संस्कृत में 2 शब्द हैं मैं के लिए -  अहंकार और अस्मिता । इनका अनुवाद करना कठिन है । अहंकार मैं का गलत बोध है । जो नहीं कहने से चला आता है । अस्मिता सम्यक बोध है - मैं का । जो हाँ कहने से आता है । दोनों " मैं " हैं । 1 अशुद्ध है । नहीं अशुद्धता है । तुम नकारते हो । नष्ट करते हो । नहीं ध्वंसात्मक है । यह 1 बहुत सूक्ष्म विध्वंस है । इसका प्रयोग हरगिज मत करना । जितना तुमसे हो सके । इसे गिरा देना । जब कभी तुम सजग होओ । इसका उपयोग मत करना । आसपास का कोई मार्ग ढूंढने की कोशिश करो । अगर तुम्हें इसे कहना भी पड़े । तो इस ढंग से कहो कि इसकी प्रतीति हां की भांति हो । धीरे धीरे तुम्हारा तालमेल बैठ जायेगा । और हां द्वारा बहुत शुद्धता तुम्हारी ओर आती तुम अनुभव करोगे ।
फिर है - अस्मिता । अस्मिता अहकार विहीन अहं है । किसी के विरुद्ध मैं होने की अनुभूति नहीं होती । यह मात्र अनुभव करना है स्वयं का । स्वयं को किसी के विरुद्ध रखे बिना । यह तो तुम्हारे समग्र अकेलेपन को अनुभव करना है । और समग्र अकेलापन एक शुद्धतम अवस्था है । जब हम कहते हैं - मैं हूं । तो मैं अहंकार है । हूं है अस्मिता । वहां बस अनुभूति है हूं-पन की । इसके साथ कोई मैं नहीं जुड़ा । मात्र अस्तित्व को, होने को अनुभव करना । ही  सुंदर है । नहीं असुंदर है ।
असंप्रज्ञात समाधि में, सारी मानसिक क्रिया की समाप्ति होती है । और मन केवल अप्रकट संस्कारों को धारण किये रहता है ।
संप्रज्ञात समाधि है - पहला चरण । इसमें अंतर्निहित है - सम्यक तर्क । सम्यक विचारणा । आनंद की अवस्था । आनंद की झलक । और हूं-पन की अनुभूति । शुद्ध सरल अस्तित्व । जिसमें कोई अहंकार न हो । यह संप्रज्ञात समाधि की ओर ले जाता है । पहला चरण है - शुद्धता । दूसरा है - तिरोहित होना । शुद्धतम भी अशुद्ध है । क्योंकि यह है । मैं असत है । हूं भी असत है । यह मैं से बेहतर है । लेकिन उच्चतर संभावना वहां होती है । जब हूं भी तिरोहित हो जाता है । केवल अहंकार ही नहीं । लेकिन अस्मिता भी । तुम अशुद्ध हो । फिर तुम शुद्ध बन जाते हो । लेकिन यदि तुम अनुभव करने लगो - मैं शुद्ध हूं । तो शुद्धता स्वयं अशुद्धता बन चुकी होती है । उसे भी तिरोहित होना है ।
शुद्धता का तिरोहित होना असंप्रज्ञात समाधि है । अशुद्धता का तिरोहित होना संप्रज्ञात समाधि है । शुद्धता का तिरोहित होना असंप्रज्ञात है । शुद्धता का भी तिरोहित हो जाना असंप्रज्ञात समाधि है । पहली अवस्था में विचार तिरोहित हो जाते हैं । दूसरी अवस्था में विचारणा, विचार करना भी तिरोहित हो जाता है । पहली अवस्था में कांटे छंट जाते हैं । दूसरी अवस्था में फूल भी तिरोहित हो जाते हैं । जब " नहीं " मिट जाता है पहली अवस्था में । तो " हां " बना रहता है । दूसरी अवस्था में हां भी मिट जाता है । क्योंकि हां भी नहीं के साथ संबंधित है ।
तुम हां को कैसे बनाये रख सकते हो - बिना नहीं के ? वे साथ साथ हैं । तुम उन्हें अलग नहीं कर सकते । अगर नहीं तिरोहित हो जाता है । तो तुम हां कैसे कह सकते हो ? गहन तल पर हां नहीं को नहीं कह रहा है । यह निषेध है निषेध का । 1 सूक्ष्म नहीं बना रहता है । जब तुम कहते हो - हां । तो क्या कर रहे हो तुम ? तुम नहीं तो नहीं कह रहे हो । लेकिन भीतर नहीं खड़ा है । तुम इसे बाहर नहीं ला रहे । यह अप्रकट है । तुम्हारी हां कोई अर्थ नहीं रख सकती । अगर तुम्हारे भीतर कोई नहीं न हो । क्या अर्थ होगा इसका ? यह अर्थहीन होगी । हां का तो अर्थ बनता है केवल नहीं के कारण । नहीं का अर्थ बनता है हां के कारण । वे द्वैत हैं । संप्रज्ञात समाधि में नहीं गिर जाता है । वह सब जो गलत है । गिर जाता है । असंप्रज्ञात समाधि में हां गिर चुका होता है । सब जो सम्यक है । सब जो शुद्ध है । वह भी गिर जाता है । संप्रज्ञात समाधि में तुम गिरा देते हो शैतान को । असंप्रज्ञात समाधि में तुम ईश्वर को भी छोड़ देते हो । क्योंकि बिना शैतान के भगवान कैसे अस्तित्व रख सकता है ? वे 1 ही सिक्के के 2 पहलू हैं ।
सारी क्रिया समाप्त हो जाती है । हां भी 1 क्रिया है । और क्रिया 1 तनाव है । कुछ हुआ जा रहा है । यह सुंदर भी हो सकता है । किंतु फिर भी कुछ हो तो रहा है । और 1 समय के बाद सुंदर भी असुंदर हो जाता है । 1 समय के बाद तुम फूलों से भी ऊब जाते हो । कुछ समय के बाद क्रिया, बहुत सूक्ष्म और शुद्ध हो । तो भी तुम्हें 1 तनाव देती है । यह 1 चिंता बन जाती है ।
असंप्रज्ञात समाधि में सारी मानसिक क्रिया की समाप्ति होती है । और मन केवल अप्रकट संस्कारों को धारण किये रहता है । किंतु फिर भी, यही ध्येय नहीं है । क्योंकि क्या होगा उन सब प्रभावों का, विचारों का जिन्हें तुमने अतीत में इकट्ठा किया है ? अनेक अनेक जन्मों को तुमने जिया है । अभिनीत किया है । प्रतिक्रिया की है । तुमने बहुत सारी चीजें की हैं । बहुत सी नहीं की हैं । क्या होगा उनका ? चेतन मन शुद्ध हो चुका है । चेतन मन ने शुद्धता की किया को भी गिरा दिया है । किंतु अचेतन बड़ा है । और वहां तुम सारे बीजों को वहन करते हो । सारी रूपरेखाओं को । वे तुम्हारे भीतर हैं ।
वृक्ष मिट चुका है । तुम संपूर्णतया काट चुके हो वृक्ष को । पर बीज जो गिर चुके हैं । वे धरती पर पड़े हुए हैं । वे फूटेंगे । जब उनका मौसम आयेगा । तुम्हारी 1 और जिंदगी होगी । तुम फिर पैदा होओगे । निस्संदेह तुम्हारी गुणवत्ता अब भिन्न होगी । किंतु तुम फिर पैदा होओगे । क्योंकि वे बीज अब भी जले नहीं हैं ।
तुमने उसे काट दिया है । जो व्‍यक्‍त हुआ था । उस चीज को काट देना सरल है । जिसकी अभिव्यक्ति हुई हो । सारे वृक्षों को काट देना आसान होता है । तुम बगीचे में जा सकते हो । और सारे लॉन को, घास को पूरी तरह उखाड़ सकते हो । तुम हर चीज को नष्ट कर सकते हो । पर 2 सप्ताह के भीतर ही घास फिर से बढ़ जायेगी । क्योंकि तुमने केवल उसे उखाड़ा था । जो प्रकट हुआ था । जो बीज मिट्टी में पड़े हुए हैं । उन्हें तुमने अब तक छुआ नहीं है । यही करना होता है तीसरी अवस्था में ।
असंप्रज्ञात समाधि अब भी सबीज है । बीजों सहित है । और विधियां मौजूद हैं उन बीजों को जलाने की । अग्रि निर्मित करने की । वह अग्रि जिसकी चर्चा हेराक्लतु करते हैं कि अग्रि कैसे निर्मित करें ? और अचेतन बीजों को जला दें । जब वे भी मिट जाते । तब भूमि नितांत शुद्ध होती है । कुछ भी नहीं उदित हो सकता इसमें से । फिर कोई जन्म नहीं । कोई मृत्यु नहीं । तब सारा चक्र तुम्हारे लिए थम जाता है । तुम चक्र के बाहर गिर चुके होते हो । और समाज से बाहर निकल आना कारगर न होगा । जब तक कि तुम भवचक्र से ही बाहर न आ जाओ । तब तुम 1 संपूर्ण समाप्ति बनते हो ।
बुद्ध संपूर्ण रूप से अलग हुए हैं । संपूर्ण समाप्ति हैं । महावीर पतंजलि संपूर्ण समाप्ति हैं । वे व्यवस्था या समाज से बाहर नहीं हुए हैं । वे जीवन और मृत्यु के चक्कर से ही बाहर हो गये हैं । पर तभी यह घटता है । जब सारे बीज जल गये हों । अंतिम है निर्बीज समाधि - बीजरहित । असंप्रज्ञात समाधि में मानसिक क्रिया की समाप्ति होती है । और मन केवल अप्रकट संस्कारों को धारण किये रहता है ।
विदेहियो और प्रकृतिलयों को असंप्रज्ञात समाधि उपलब्ध होती है । क्योंकि अपने पिछले जन्म में उन्होने अपने शरीरों के साथ तादात्‍म्य बनाना समाप्त कर दिया था । वे फिर जन्‍म लेते हैं । क्योंकि इच्छा के बीज बने रहते हैं ।
बुद्ध भी जन्म लेते हैं । अपने पिछले जन्म में वे असंप्रज्ञात समाधि को उपलब्ध हो चुके थे । लेकिन बीज मौजूद थे । उन्हें 1 बार और आना ही था । महावीर भी जन्म लेते हैं । बीज उन्हें ले आते हैं । लेकिन यह अंतिम जन्म ही होता है । असंप्रज्ञात समाधि के पश्चात केवल 1 जीवन संभव है । लेकिन तब जीवन की गुणवत्ता संपूर्णतया भिन्न होगी । क्योंकि यह व्यक्ति देह के साथ तादात्थ नहीं बनायेगा । और इस व्यक्ति को वस्तुत: कुछ करना नहीं होता । क्योंकि मन की क्रिया समाप्त हो चुकी है । तो क्या करेगा वह ? इस जिंदगी की ही जरूरत किसलिए है ? उसे तो बस उन बीजों को व्‍यक्‍त होने देना है । और वह साक्षी बना रहेगा । यही है - अग्रि ।
1 व्यक्ति आया । और बुद्ध पर थूक दिया । वह क्रोध में था । बुद्ध ने अपना चेहरा पोंछा । और पूछा - तुम्हें और क्या कहना है ?' वह आदमी नहीं समझ सका । वह सचमुच क्रोध में था । लाल पीला हुआ जा रहा था । वह तो समझ ही न सका कि बुद्ध क्या कह रहे थे । और सारी बात ही इतनी बेतुकी थी । क्योंकि बुद्ध ने प्रतिक्रिया नहीं की थी । वह आदमी बिलकुल असमंजस में पड़ गया कि क्या करे । क्या कहे । वह चला गया । सारी रात वह सो नहीं सका । कैसे सो सकते हो तुम । जब किसी का अपमान कर दो । और प्रतिक्रिया ही न मिले ? तब तुम्हारा अपमान तुम्हारे पास वापस चला आता है । तुमने तीर फेंक दिया है । पर इसे प्रवेश नहीं मिला है । यह वापस आ जाता है । कोई आश्रय न पा यह वापस स्रोत तक लौट आता है । उसने बुद्ध का अपमान किया । किंतु अपमान वहां कोई आश्रय न पा सकता था । तो यह कहां जायेगा ? यह वास्तविक मालिक तक आ पहुंचता है ।
सारी रात वह व्यग्रता से बेचैन रहा था । वह विश्वास नहीं कर सकता था  उस पर । जो घटित हुआ । और फिर उसने पछताना शुरू कर दिया । यह अनुभव करना कि वह गलत था कि उसने अच्छा नहीं किया । अगली सुबह बहुत जल्दी वह गया । और उसने क्षमा मांगी । बुद्ध बोले - इसके लिए चिंता मत करो । अतीत में जरूर मैंने तुम्हारे साथ कुछ बुरा किया है । अब हिसाब पूरा हो गया है । और मैं प्रतिक्रिया करने वाला नहीं । वरना यही बारबार होता रहेगा । खत्म हुई बात । मैं प्रतिक्रियात्मक नहीं हुआ । क्योंकि यह बीज कहीं था । इसे समाप्त होना ही था । अब मेरा हिसाब तुम्हारे साथ समाप्त हुआ ।
इस जीवन में कोई विदेह - जो जान लेता है कि वह देह नहीं है । जो असंप्रज्ञात समाधि को उपलब्ध हो चुका है । संसार में आता है मात्र हिसाब किताब बंद करने को ही । उसका सारा जीवन समाप्त हो रहे हिसाबों से बना होता है । लाखों जन्म । ढेरों संबंध । बहुत सारे उलझाव और वादे हर चीज को समाप्त हो जाने देना है ।
ऐसा घटित हुआ कि बुद्ध 1 गांव में आये । सारा गांव एकत्रित हुआ । वे उत्सुक थे उन्हें सुनने को । यह 1 दुर्लभ अवसर था । राजधानियां भी सतत बुद्ध को आमंत्रित करती रहती थीं । और वे नहीं पहुंचते थे । किंतु वे इस गांव में आये । जो जरा मार्ग से हटकर था । और बिना किसी निमंत्रण के आये । क्योंकि ग्रामबासी कभी साहस न जुटा सकते थे । उनके पास जाने और उन्हें गांव में आने के लिए कहने का । यह थोड़ी सी झोपड़ियों वाला 1 छोटा सा गांव था । और बुद्ध बगैर किसी निमंत्रण के ही आ गये थे । सारा गांव उत्तेजना से प्रज्वलित था । और वे वृक्ष के नीचे बैठे हुए थे । और बोल नहीं रहे थे ।
कुछ लोग कहने लगे - आप अब किसके लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं ? सब लोग है यहां । सारा गांव यहां है । आप आरंभ करें । बुद्ध बोले - पर मुझे प्रतीक्षा करनी है । क्योंकि मैं किसी के लिए यहां आया हूं । जो यहां नहीं है । 1 वचन पूरा करना है । 1 हिसाब पूरा करना है । मैं उसी के लिए प्रतीक्षा कर रहा हूं । फिर 1 युवती आयी । तो बुद्ध ने प्रवचन आरंभ किया । उनके बोलने के बाद लोग पूछने लगे - क्या आप इसी युवती की प्रतीक्षा कर रहे थे ? यह युवती तो अछूत है । सबसे नीच जाति की । कोई सोच तक न सकता था कि बुद्ध उसकी प्रतीक्षा कर सकते थे । वे बोले - हां, मैं उसकी प्रतीक्षा कर रहा था । जब मैं आ रहा था । वह मुझे राह में मिली । और वह बोली - जरा प्रतीक्षा कीजिएगा । मैं दूसरे शहर किसी काम से जा रही हूं । पर मैं जल्दी आऊंगी । और पिछले जन्मों में कहीं मैंने उसे वचन दिया था कि जब मैं संबोधि को उपलब्ध हो जाऊं । तो मैं आऊंगा । और जो कुछ मुझे घटा । उस बारे में उसे बताऊंगा । वह हिसाब पूरा करना ही था । वह वचन मुझ पर लटक रहा था । और यदि मैं इसे पूरा नहीं कर सकता । तो मुझे फिर आना होता ।
विदेह या प्रकृतिलय - दोनों शब्द सुंदर हैं ।  विदेह का अर्थ है वह । जो देह विहीनता में जीता है । जब तुम असंप्रज्ञात समाधि को उपलब्ध होते हो । तो देह तो होती है । लेकिन तुम देह शून्य होते हो । तुम अब देह नहीं रहे । देह निवास स्थान बन जाती है । तुमने तादात्‍म्य नहीं बनाया । ये 2 शब्द सुंदर हैं - विदेह और प्रकृति लय । विदेह का अर्थ है - वह जो जानता है कि वह देह नहीं है । ध्यान रहे । जो जानता है । विश्वास ही नहीं करता है । प्रकृति लय  वह है । जो जानता है कि वह शरीर नहीं है । अब वह प्रकृति नहीं रहा ।
देह भौतिक से संबंध रखती है । 1 बार तुम्हारा पदार्थ के साथ, बाह्य के साथ तादात्‍म्य टूट जाता है । तो तुम्हारा प्रकृति से संबंध विसर्जित हो जाता है । वह व्यक्ति जो इस अवस्था को उपलब्ध हो जाता है । जहां वह अब देह नहीं रहता । जो उस अवस्था को प्राप्त करता है । जिसमें अब वह अभिव्‍यक्‍त न रहा । प्रकृति न रहा । तब उसका प्रकृति से नाता समाप्त हो जाता है । उसके लिए अब कोई संसार नहीं । उसका अब कोई तादात्‍म्य नहीं है । वह इसका साक्षी बन गया है । ऐसा व्यक्ति भी कम से कम 1 बार पुनर्जन्म लेता है । क्योंकि उसे बहुत सारे हिसाब समाप्त करने होते हैं । बहुत वचन पूरे करने हैं । बहुत सारे कर्म गिरा देने हैं ।
ऐसा हुआ कि बुद्ध का चचेरा भाई देवदत्त उनके विरुद्ध था । उसने उन्हें मारने का बहुत तरीकों से प्रयत्न किया । बुद्ध ध्यान करते 1 वृक्ष के नीचे रुके थे । उसने पहाड़ से 1 विशाल चट्टान नीचे लुड़का दी । चट्टान चली आ रही थी । हर कोई भाग खड़ा हुआ । बुद्ध वहीं बने रहे वृक्ष के नीचे बैठे हुए । यह खतरनाक था । और वह चट्टान आयी उन तक । बस छूकर निकल गयी । आनंद ने उनसे पूछा - आप भी क्यों नहीं भागे । जब हम सब भाग खड़े हुए थे ? काफी समय था ।
बुद्ध बोले - तुम्हारे लिए काफी समय है । मेरा समय समाप्त है । और देवदत्त को यह करना ही था । पिछले किसी समय का, किसी जीवन का कोई कर्म था । मैंने उसे दी होगी कोई पीड़ा । कोई व्यथा, कोई चिंता । इसे पूरा होना ही था । यदि मैं बच निकलूं । यदि मैं कुछ करूं । तो फिर 1 नया जीवन अनुक्रम शुरू हो जाये ।

21 अक्टूबर 2011

समाधि का अर्थ 3


1 विदेही - स्व व्यक्ति । जो असंप्रज्ञात समाधि को उपलब्ध हो चुका है । प्रतिक्रिया नहीं करता । वह तो सिर्फ देखता है । साक्षी है । और यही साक्षी होने की अग्रि है । जो अचेतन के सारे बीजों को जला देती है । तब 1 क्षण आता है । जब भूमि पूर्णतया शुद्ध होती है । अंकुरित होने की प्रतीक्षा में कोई बीज नहीं रहता । फिर वापस आने की कोई आवश्यकता नहीं रहती । पहले प्रकृति विलीन होती है । और फिर वह स्वयं को विसर्जित करता है ब्रह्मांड में ।
विदेही और प्रकृतिलय असंप्रज्ञात समाधि को उपलब्ध होते हैं । क्योंकि उन्होंने अपने पिछले जन्म में अपने शरीरों के साथ तादात्म्य बनाना बंद कर दिया था । वे पुनर्जन्म लेते हैं । क्योंकि इच्छा के बीज बचे हुए थे । मैं यहां कुछ पूरा करने को हूं । तुम यहां मेरा हिसाब पूरा करने को हो । तुम यहां सयोगवशांत नहीं हो । संसार में लाखों व्यक्ति हैं । तुम्हीं यहां क्यों हो ? और दूसरा कोई क्यों नहीं है ? कुछ पूरा करना है ।
दूसरे जो असंप्रज्ञात समाधि को उपलब्ध होते हैं । वे श्रद्धा वीर्य ( प्रयत्न ) स्‍मृति एकाग्रता और विवेक द्वारा उपलब्ध होते हैं ।
तो ये 2 संभावनाएं हैं । यदि तुम पिछले जन्म में असंप्रज्ञात समाधि को उपलब्ध हो चुके हो । तो इस जन्म में तुम लगभग बुद्ध की भांति जन्मते हो । कुछ बीज हैं । जिन्हें पूरा करना है । जिन्हें गिराना है । जलाना है । इसीलिए मैं कहता हूं तुम करीब करीब बुद्ध की भांति ही उत्‍पन्‍न होते हो । तुम्हें कोई जरूरत नहीं है कुछ करने की । जो कुछ घटित हो । तुम्हें तो बस देखना है ।
इसीलिए कृष्णमूर्ति निरंतर जोर देते है कि कोई जरूरत नहीं कुछ करने की । उनके लिए यह ठीक है । उनके श्रोताओं के लिए यह ठीक नहीं । उनके श्रोताओं के लिए बहुत कुछ है करने को । और वे भटक जायेंगे इस कथन द्वारा । वे स्वयं के बारे में बोल रहे हैं । वे असंप्रज्ञात बुद्ध ही उत्‍पन्‍न हुए । वे विदेही उत्‍पन्‍न हुए । वे प्रकृतिलय उत्‍पन्‍न हुए ।
जब वे केवल 5 वर्ष के थे । वे स्थान कर रहे थे मद्रास में । अडियार के निकट भारत में । और सबसे महान थिआसाफिस्ट लेडबीटर ने उन्हें देखा । वे बिलकुल ही अलग प्रकार के बच्चे थे । अगर कोई उन पर कीचड़ फेंक रहा होता । तो वे प्रतिक्रिया न करते । बहुत सारे बच्चे खेल रहे थे । अगर कोई उन्हें नदी में धकेल देता । तो वे बस चले जाते । वे क्रोधित न होते । वे लड़ाई शुरू न करते । उनकी बिलकुल अलग गुणवत्ता थी - असंप्रशांत बुद्ध की गुणवत्ता । लेडबीटर ने एनी बीसेंट को बुलाया । इस बच्चे को देखने के लिए । वह कोई साधारण बालक न था । और सारा थिआसाफी आंदोलन उसके चारों ओर घूमने लगा ।
उन्होंने बड़ी आशा की थी कि वह अवतार होगा कि वह इस युग का श्रेष्ठतम गुरु होगा । लेकिन समस्या गहरी थी । उन्होंने सही व्यक्ति को चुन लिया था । किंतु उन्होंने गलत ढंग से आशा की थी । क्योंकि वह व्यक्ति जो असंप्रज्ञात बुद्ध के समान उत्‍पन्‍न होता है । अवतार की भांति सक्रिय नहीं हो सकता । सारी क्रिया समाप्त हो गयी है । वह मात्र देख सकता है । वह 1 साक्षी हो सकता है । उसे बहुत सक्रिय नहीं बनाया जा सकता । वह केवल 1 निष्कियता हो सकता है । उन्होंने सही व्यक्ति चुन लिया था । पर फिर भी वह गलत था ।
और उन्होंने बहुत ज्यादा आशा बांध रखी थी । सारा आंदोलन कृष्णमूर्ति के चारों ओर तेजी से घूमने लगा । जब वे इससे बाहर हो अलग हो गये । तो वे बोले - मैं कुछ नहीं कर सकता । क्योंकि किसी चीज की जरूरत नहीं है । सारा आंदोलन ही विफल हो गया । क्योंकि उन्होंने इस आदमी से बड़ी आशा रखी थी । और फिर सारी बात ने ही पूर्णतया अलग मोड़ ले लिया । किंतु इसकी भविष्यवाणी पहले से ही की जा सकती थी ।
एनी बीसेंट, लेडबीटर और दूसरे । वे बहुत प्यारे व्यक्ति थे । पर वास्तव में पूरब की विधियों के प्रति सजग न थे । उन्होंने पुस्तकों से, शास्त्रों से बहुत कुछ सीख लिया था । किंतु वे ठीक ठीक रहस्य को न जानते थे ? जिसे पतंजलि दर्शा रहे हैं कि 1 असंप्रज्ञात बुद्ध 1 विदेह जन्म लेता है । पर वह सक्रिय नहीं होता । वह 1 निष्कियता होता है । उसके द्वारा बहुत कुछ हो सकता है । पर वह तभी हो सकता है । जब कोई आये । और उसे समर्पण करे । क्योंकि वह 1 निक्रियता है । वह बाध्य नहीं कर सकता । तुम्हें कुछ करने को । वह मौजूद है । लेकिन वह आक्रामक नहीं हो सकता ।
उसका निमंत्रण पूरा है । और सबके लिए है । यह 1 खुला निमंत्रण है । पर वह विशेष रूप से तुम्हें निमंत्रण नहीं भेज सकता । क्योंकि वह सक्रिय हो नहीं सकता । वह 1 खुला द्वार है । अगर तुम्हें पसंद हो । तुम गुजर सकते हो । आखिरी जीवन 1 परम निष्कियता होता है । मात्र साक्षित्व । यह 1 मार्ग है । असंप्रज्ञात बुद्ध जन्म ले सकते हैं । पिछले जन्म की परिस्थिति के परिणामवश ।
किंतु इस जन्म में भी कोई असंप्रज्ञात बुद्ध बन सकता है । उनके लिए पतंजलि कहते हैं - श्रद्धा वीर्य स्मृति समाधि प्रज्ञा । दूसरे हैं जो असंप्रज्ञात समाधि को उपलब्ध होते हैं । श्रद्धा प्रयत्न स्मृति एकात्रता और विवेक द्वारा ?
इसका अनुवाद करना लगभग असंभव है । अत: मैं अनुवाद करने की अपेक्षा व्याख्या करूंगा । तुम्हें अनुभूति देने को ही । क्योंकि शब्द तुम्हें भटका देंगे ।
श्रद्धा ठीक ठीक विश्वास जैसी नहीं होती । यह आस्था की भांति अधिक है । आस्था बहुत ही अलग है विश्वास से । विश्वास वह चीज है । जिसमें तुम जन्मते हो । आस्था वह है । जिसमें तुम विकसित होते हो । हिंदू होना 1 विश्वास है । ईसाई होना विश्वास है । मुसलमान होना विश्वास है । पर यहां मेरे साथ शिष्य होना आस्था है । मैं किसी विश्वास की मांग नहीं कर सकता स्मरण रखना । जीसस भी किसी विश्वास की मांग न कर सकते थे । क्योंकि विश्वास वह है । जिसमें तुम जन्मते भर हो । यहूदी विश्वास से भरे थे । उनमें विश्वास था । और वस्तुत: इसीलिए उन्होंने जीसस को समाप्त कर दिया । क्योंकि उन्होंने सोचा कि वे उन्हें विश्वास से बाहर ला रहे हैं । उनका विश्वास नष्ट कर रहे हैं ।
जीसस आस्था के लिए कह रहे थे । आस्था 1 व्यक्तिगत निकटता है । यह कोई सामाजिक घटना नहीं । तुम इसे अपने प्रत्युत्तर, रेसपान्स द्वारा प्राप्त करते हो । कोई आस्था में उलत्र नहीं हो सकता । पर विश्वास में उत्‍पन्‍न हो सकता है । विश्वास 1 मरी हुई श्रद्धा है । श्रद्धा 1 जीवंत विश्वास है । अत: इस भेद को समझने की कोशिश करना ।
श्रद्धा वह है । जिसमें किसी को विकसित होना है । और यह हमेशा व्यक्तिगत होती है । जीसस के पहले शिष्य श्रद्धा को प्राप्त हुए । वे यहूदी थे - जन्मतः यहूदी । वे अपने विश्वास से बाहर सरक आये थे । यह 1 विद्रोह था । विश्वास 1 अंधविश्वास है । श्रद्धा विद्रोह है । श्रद्धा पहले तुम्हें तुम्हारे विश्वास से दूर ले जाती है । इसे ऐसा होना ही होता है । क्योंकि अगर तुम मुरदा कब्रिस्तान में रह रहे होते हो । तब पहले तुम्हें इससे बाहर आना होता है । केवल तभी तुम्हें फिर जीवन से परिचित कराया जा सकता है । जीसस लोगों को श्रद्धा की ओर लाने का प्रयत्न करते रहे । दिखायी हमेशा यह पड़ेगा कि वे उनका विश्वास नष्ट कर रहे हैं ।
अब जब कोई ईसाई मेरे पास आता है । तब वही स्थिति फिर से दोहरायी जाती है । ईसाईयत 1 विश्वास है । जैसे जीसस के वक्‍त में यहूदी धर्म 1 विश्वास मात्र ही था । जब कोई ईसाई मेरे पास आता है । मुझे उसे फिर उसके विश्‍वास से बाहर लाना होता है । उसे श्रद्धा की ओर बढ़ने में मदद देने को । धर्म विश्वास पर आधारित होते हैं । किंतु धार्मिक होना श्रद्धा में होना है । और धार्मिक होने का अर्थ - ईसाई होना हिंदू होना या मुसलमान होना नहीं है । क्योंकि श्रद्धा का कोई नाम नहीं होता । इस पर लेबल नहीं लगा होता । यह प्रेम की भांति है । क्या प्रेम ईसाई हिंदू या मुसलमान होता है ? विवाह ईसाई, हिंदू या मुसलमान होता है । प्रेम ? प्रेम तो जाति को भेदों को नहीं जानता । प्रेम किन्हीं हिंदुओं या ईसाइयों को नहीं जानता ।
विवाह विश्वास की भांति है । प्रेम है श्रद्धा की भांति । तुम्हें इसमें विकसित होना है । यह 1 साहसिक अभियान है । विश्वास कोई साहस नहीं है । तुम इसी में पैदा हुए हो । यह सुविधाजनक है । अगर तुम आराम और सुविधा को खोज रहे हो । तो बेहतर है विश्वास में ही बने रहो । बने रहो हिंदू या ईसाई । नियमों पर चलो । किंतु यह 1 मुरदा बात बनी रहेगी । जब तक तुम अपने हृदय से उतर न पाओ । जब तक तुम अपनी जिम्मेदारी पर धर्म में प्रवेश न करो । और इसलिए नहीं कि तुम ईसाई पैदा हुए । तुम जन्मजात ईसाई कैसे हो सकते हो ?
धर्म जन्म के साथ कैसे संबद्ध हो सकता है ? जन्म तुम्हें धर्म नहीं दे सकता । यह तुम्हें 1 समाज 1 पंथ 1 सिद्धांत 1 संप्रदाय दे सकता है । यह तुम्हें दे सकता है - अंधविश्वास । यह शब्द अंधविश्वास यानी सुपरस्टिशन बहुत अर्थपूर्ण है । इसका अर्थ है - अनावश्यक विश्वास । सुपर शब्द का अर्थ है - अनावश्यक अतिरिका, सुपरल्‍फुस । विश्वास, जो अनावश्यक बन गया है । विश्वास जो मुरदा बन गया है । किसी समय शायद यह जीवित रहा हो । पर धर्म को फिर फिर जन्म लेना होता है ।
ध्यान रहे । तुम धर्म में पैदा नहीं होते । धर्म तुममें बार बार पैदा होता है । तब यह होती है - श्रद्धा । तुम अपने बच्चों को तुम्हारा धर्म नहीं दे सकते । उन्हें खोजना होगा । और उन्हें उनका अपना धर्म पाना होगा । प्रत्येक को अपना धर्म खोजना है । और पाना है । यह 1 जोखम है । साहस है । सबसे बड़ा साहस । तुम अज्ञात में बढ़ते हो ।
पतंजलि कहते हैं - श्रद्धा पहली चीज है । अगर तुम असंप्रशांत समाधि को उपलब्ध होना चाहते हो । संप्रज्ञात समाधि के लिए तुम्हें तर्क की जरूरत है - सम्यक तर्क की । भेद को समझो । संप्रज्ञात समाधि के लिए सम्यक तर्क, सम्यक विचार आधार है । असंप्रज्ञात समाधि के लिए - सम्यक श्रद्धा तर्कणा नहीं ।
तर्क नहीं । बल्कि 1 तरह का प्रेम होता है । और प्रेम अंधा होता है । यह तार्किक बुद्धि को अंधा दिखता है । क्योंकि यह 1 छलांग है अंधेरे में । तर्कगत बुद्धि पूछती है - कहां जा रहे हो तुम ? ज्ञात क्षेत्र में बने रहो । और प्रयोजन क्या है नयी घटना में जाने का ? क्यों न पुरानी परत में ही ठहरे रही ? यह सुविधापूर्ण है । आरामदायक है । और जो कुछ तुम चाहते हो । यह पहुंचा सकती है ।’ किंतु प्रत्येक को उसका अपना मंदिर खोजना होता है । केवल तभी वह .जे ? होता है ।
तुम यहां मेरे पास हो । यह है - श्रद्धा । जब मैं यहां नहीं रहूंगा । तुम्हारे बच्चे शायद यहां होंगे । वह होगा - विश्वास । श्रद्धा घटित होती है । केवल जीवित गुरु के साथ । विश्वास होता है - मृत गुरुओं के प्रति । जो अब नहीं रहे । पहले शिष्यों के पास धर्म होता है । दूसरी और तीसरी पीढ़ी धीरे  धीरे धर्म खो देती है । तब यह संप्रदाय बन जाता है । तब तुम आसानी से उस पर चलते हो । क्योंकि तुम इसमें उत्‍पन्‍न हुए होते हो । यह 1 कर्तव्य होता है । प्रेम नहीं । यह 1 सामाजिक आचार संहिता है । यह बात मदद करती है । लेकिन यह तुममें गहरे नहीं उतरी होती । यह तुम तक कुछ नहीं लाती । यह घटना नहीं है । यह तुममें प्रकट हो रही गहराई नहीं है । यह मात्र 1 सतह है । 1 आकार । जरा जाओ । और चर्च में देखो । रविवार को जाने वाले लोग । वे जाते हैं । वे प्रार्थना भी करते हैं । पर वे प्रतीक्षा कर रहे होते है कि कब यह समाप्त हो ।
1 छोटा बच्चा चर्च में बैठा हुआ था । पहली बार ही वह आया था । और वह सिर्फ 4 साल का था । मां ने उससे पूछा - तुमने इसे पसंद किया ?' वह बोला - संगीत अच्छा है । लेकिन कमर्शियल बहुत लंबा है । जब तुममें कोई श्रद्धा न हो । तब यह कमर्शियल ही होता है । श्रद्धा सम्यक आस्था है । विश्वास असम्यक आस्था है । किसी दूसरे से मत ग्रहण करो धर्म । तुम इसे उधार नहीं ले सकते । वह तो धोखा हुआ । तब तो तुम इसे पा रहे हो । इसके लिए बिना कुछ खर्च किये । और हर चीज की कीमत चुकानी होती है । असंप्रशांत समाधि को उपलब्ध होना सस्ता मामला नहीं है । तुम्हें पूरी कीमत चुकानी होती है । और पूरी कीमत है - तुम्हारा समग्र अस्तित्व ।
ईसाई होना मात्र 1 लेबल है । धार्मिक होना लेबल नहीं है । तुम्हारा संपूर्ण अस्तित्व संलग्र होता है । यह 1 प्रतिबद्धता होती है ।
लोग मेरे पास आते हैं । और वे कहते हैं - हम आपसे प्रेम करते हैं । जो कुछ भी आप कहते है । अच्छा है । किंतु हम संन्यास नहीं लेना चाहते । क्योंकि हम वचनबद्ध नहीं होना चाहते । पर जब तक तुम वचनबद्ध न होओ । अंतर्ग्रस्त न होओ । तुम विकसित नहीं हो सकते । क्योंकि तब कोई संबंध नहीं होता । तब तुम्हारे और मेरे बीच शब्द होते है - संबंध नहीं । तब मैं 1 शिक्षक हो सकता हूं । लेकिन मैं तुम्हारा गुरु नहीं होता । तब तुम 1 विद्यार्थी हो सकते हो । पर शिष्य नहीं ।
श्रद्धा प्रथम द्वार है । दूसरा द्वार है - वीर्य । वह भी कठिन है । इसे प्रयत्न की तरह अनूदत किया जाता है । नहीं, प्रयत्न तो इसका हिस्सा मात्र है । वीर्य शब्द का अर्थ बहुत सारी चीजों से है । लेकिन इसका बहुत गहन अर्थ है - जैविक ऊर्जा । अनेक अर्थों में वीर्य का 1 अर्थ है - शुक्राणु काम ऊर्जा । अगर तुम ठीक से इसका अनुवाद करना चाहते हो । तो वीर्य है - जैविक ऊर्जा । तुम्हारी समग्र ऊर्जा । तुम्हारा ऊर्जामय रूप । निस्संदेह यह ऊर्जा केवल प्रयास द्वारा लायी जा सकती है । इसलिए इसका 1 अर्थ प्रयास है । लेकिन यह बड़ा क्षुद्र अर्थ हुआ । उतना विराट नहीं है । जितना कि वीर्य शब्द ।
वीर्य का अर्थ होता है कि तुम्हारी संपूर्ण ऊर्जा को इसमें ले आना । केवल मन काम न देगा । तुम मन से हां कह सकते हो । लेकिन यह काफी न होगा । कुछ भी बचाये बिना स्वयं को पूरा का पूरा दांव पर लगाने की जरूरत होती है । यही है वीर्य का अर्थ । और यह तभी संभव होता है । जब श्रद्धा हो । अन्यथा तुम कुछ बचा लोगे मात्र सुरक्षित होने के लिए ही । निरापद होने के लिए ही । तुम्हें लगेगा - यह आदमी शायद हमें गलत दिशा में ले जा रहा हो । और हम किसी भी क्षण पीछे हटने की सुविधा बनाये रखना चाहते हैं । 1 क्षण में हम कह सकें कि बस, जितना है काफी है । अब और नहीं ।
तुम तुम्हारा अपना 1 हिस्सा रोके रहते हो । सिर्फ सावधानी से देखने के लिए ही कि यह आदमी कहां ले जा रहा है । मेरे पास लोग आते हैं । और वे कहते हैं - हम सतर्कता से देख रहे हैं । पहले हमें देखने दें कि क्या घट रहा है । वे बहुत चालाक हैं - नासमझ चालाक । क्योंकि ये चीजें बाहर से नहीं देखी जा सकतीं । जो घट रही है । वह आंतरिक घटना है । कई बार तुम देख भी नहीं सकते कि किसे यह घट रही है । बहुत बार केवल मैं देख सकता हूं । जो घट रहा है । तुम बाद में ही सजग होते हो उसके प्रति । जो घटित हुआ है ।
दूसरे नहीं देख सकते । बाहर से कोई संभावना नहीं देखने की । कैसे तुम बाहर से देख सकोगे गुह्य । शारीरिक मुद्रा तुम देख सकते हो । लोग ध्यान कर रहे हैं । यह तुम देख सकते हो । लेकिन जो अंदर घटित हो रहा है - वह ध्यान है । जो वे बाहर कर रहे हैं । वह केवल स्थिति का निर्माण करना है ।
ऐसा हुआ कि 1 बहुत बड़ा सूफी गुरु था - जलालुद्दीन । उसका 1 छोटा सा विद्यालय था अनूठे शिष्यों का । वे अनूठे थे । क्योंकि वह बहुत ध्यान से चुनने वाला गुरु था । जब तक कि उसने उसे चुन ही न लिया हो । वह किसी को न आने देता । उसने बहुत थोड़े लोगों पर काम किया । लेकिन जो लोग वहां से गुजरते । कई बार उसे देखने आ जाते । जो वहां घटित हो रहा था । 1 बार लोगों की 1 टोली आयी । कुछ प्रोफेसर थे । वे हमेशा बड़े सजग लोग होते हैं । बड़े चालाक । और उन्होंने देखा । गुरु के घर में । अहाते में ही । 50 लोगों का समूह बैठा हुआ था । और वे पागलों जैसी मुद्राएं बना रहे थे । कोई हंस रहा था । कोई रो चीख रहा था । कोई कूद रहा था ।
प्रोफेसर लोग देखते रहे । वे बोले - क्या हो रहा है ? यह आदमी उन्हें पागलपन की ओर ले जा रहा है । वे पागल ही हैं । और वे मूर्ख हैं । क्योंकि 1 बार कोई पागल हो जाता है । तो वापस लौटना कठिन होता है । और यह तो बिलकुल मूर्खता हो गयी । हमने इस तरह की बात कभी नहीं सुनी । जब लोग ध्यान करते हैं । वे शांतिपूर्वक बैठते हैं ।
और उनके बीच बहुत विवाद हुआ । उनके 1 वर्ग ने कहा - चूंकि हम नहीं जानते । क्या घट रहा है ? तो कोई निर्णय देना अच्छा नहीं है । फिर उनमें लोगों का 1 तीसरा वर्ग था । जो बोला - जो कुछ भी हो ? यह आनंददायक है । हम देखना चाहेंगे । यह सुंदर है । हम क्यों नहीं इसका आनंद ले सकते ? जो वे कर रहे हैं । उसकी क्यों फिक्र करें ? उन्हें देखना भर ही इतना सुंदर है । 
कुछ महीनों बाद । फिर वही टोली आश्रम में आयी देखने को । अब क्या हो रहा था ? हर कोई मौन था । 50 व्यक्ति वहां थे । गुरु था वहां । वे शांति से बैठे हुए थे । इतने मौनपूर्वक । जैसे कि वहां कोई था ही नहीं । वे मूर्तियों की भांति थे । फिर बहस छिड़ी । उनका 1 वर्ग था जो कहने लगा - अब वे बेकार हैं । देखने को है क्या ? कुछ नहीं । पहली बार हम आये थे । तो यह सुंदर था । हमने इसका मजा लिया । लेकिन अब वे सिर्फ ऊबाऊ है । दूसरा वर्ग बोला - पर लगता है कि वे ध्यान कर रहे हैं । पहली बार तो वे पागल से ही थे । यह सही चीज है करने की । इसी तरह ध्यान किया जाता है । यह शास्त्रों में लिखा हुआ है । इसी तरह से व्याख्या की गयी है ।
किंतु फिर भी उनमें 1 तीसरा वर्ग था । जिसने कहा - हम ध्यान के बारे में कुछ भी नहीं जानते । कैसे निर्णय दे सकते हैं हम ?
तब फिर कुछ महीनों बाद वह टोली आयी । अब वहां कोई न था । केवल वे सदगुरु बैठे थे । और मुसकुरा रहे थे । सारे शिष्य गायब हो गये थे । अत: उन्होंने पूछा - क्या हो रहा है ? पहली बार हम आये । तो वहाँ पागल भीड़ थी । और हमने सोचा कि यह व्यर्थ था । और आप लोगों को पागल किये दे रहे थे । अगली बार हम आये । तो  बहुत अच्छा था । लोग ध्यान कर रहे थे । कहां चले गये हैं वे सब ?
सदगुरु ने कहा - काम हो चुका है । इसलिए शिष्य यहां नहीं रहे । और मैं प्रसन्नता पूर्वक मुस्करा रहा हूं । क्योंकि घटना घट चुकी । और तुम हो नासमझ । जानता हूं मैं । देखता मैं भी रहा हूं । केवल तुम्हीं नहीं । मैं जानता हूं । तुम्हारे बीच जो विवाद चल रहे थे । और जो तुम पहली बार और दूसरी बार सोच रहे थे । जलालुद्दीन ने कहा - वह कोशिश जो तुमने 3 बार यहां आने में की । वह काफी थी तुम्हारे ध्यानी बनने के लिए । और जिस वाद विवाद में तुम पड़े थे । उसमें जो ऊर्जा तुमने लगायी । उतनी ऊर्जा काफी थी । तुम्हें शांत बना देने को । और उसी अवधि मे वे शिष्य जा चुके हैं । और तुम उसी स्थान पर खडे हुए हो । भीतर आओ । बाहर से मत देखो । वे बोले - हां, इसीलिए तो हम फिर फिर आ रहे हैं देखने को कि क्या घट रहा है । जब हम निश्चित हो जायें । तो ठीक है । अन्यथा हम प्रतिबद्ध नहीं होना चाहते ।
चालाक लोग कभी प्रतिबद्ध नहीं होना चाहते । लेकिन क्या कोई जीवन होता है बिना प्रतिबद्धता का ? लेकिन चालाक लोग सोचते है कि प्रतिबद्धता बंधन है । लेकिन क्या कोई स्वतंत्रता होती है बिना बंधन की ? पहले तुम्हें संबंध में उतरना होता है । केवल तभी तुम उसके पार जा सकते हो । पहले तुम्हें गहरी प्रतिबद्धता में उतरना होता है - गहराई से गहराई का । हृदय से हृदय का संबंध । और केवल तब तुम इसके पार हो सकते हो । दूसरा कोई मार्ग नहीं है । अगर तुम बाहर ही खड़े रहो । और देखते रहो । तो तुम कभी मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते । मंदिर प्रतिबद्धता है । और फिर कोई संबंध नहीं हो सकता ।
गुरु और शिष्य 1 प्रेम संबंध में होते हैं । यह उच्चतम प्रेम है । जो संभव है । जब तक कि संबंध न हो । तुम विकसित नहीं हो सकते ।
पतंजलि कहते हैं - पहली बात है श्रद्धा । और दूसरी ऊर्जा  प्रयास । तुम्हारी सारी ऊर्जा को ले आना होता है । 1 हिस्सा काम न देगा । यह घातक भी हो सकता है । अगर तुम केवल आंशिक रूप से भीतर आओ । और आशिक रूप से बाहर भी बने रहो । क्योंकि यह बात तुम्हारे भीतर 1 दरार पैदा करेगी । यह बात तुम्हारे भीतर 1 तनाव निर्मित कर देगी । यह आनंद की अपेक्षा 1 चिंता बन जायेगी ।
जहां तुम तुम्हारी समग्रता में होते हो । वहां आनंद होता है । जहां तुम केवल हिस्से में होते हो । तो वहां चिंता होती है । क्योंकि तब तुम बंट जाते हो । और उससे तनाव पैदा होता है । 2 हिस्से अलग ढंग से चल रहे हैं । तब तुम कठिनाई में होते हो ।
दूसरे जो असंप्रज्ञात समाधि को उपलब्ध होते हैं । वे श्रद्धा वीर्य ( ऊर्जा ) स्मृति समाधि ( एकाग्रता ) और प्रज्ञा ( विवेक ) के द्वारा उपलब्ध होते हैं ।
यह " स्मृति " शब्द जो है । यह है स्मरण । जिसे गुरजिएफ कहते हैं - आत्मस्मरण । यह है स्मृति ।
तुम अपने को स्मरण नहीं करते । हो सकता है । तुम लाखों चीजों का स्मरण करो । लेकिन तुम निरंतर भूलते चले जाते हो स्वयं को । जो तुम हो । गुरजिएफ के पास 1 विधि थी । उसने इसे पाया पतंजलि से । और वस्तुत: सारी विधियां पतंजलि से चली आती हैं । वे विशेषज्ञ थे विधियों के । स्मृति है - स्मरण । जो कुछ तुम करो । उसमें स्व स्मरण बनाये रहना । तुम चल रहे हो - गहरे में । स्मरण रखना कि - मैं चल रहा हूं कि मैं हूं । चलने में ही खो मत जाना । चलना भी है - वह गति । वह क्रिया । और वह आंतरिक केंद्र भी है । गति, क्रिया और आंतरिक केंद्र - मात्र सजग, देखता हुआ साक्षी ।
लेकिन मन में दोहराओ मत कि मैं चल रहा हूं । अगर तुम दोहराते हो । तो वह स्मरण नहीं है । तुम्हें निःशब्द रूप से जागरूक होना है कि - मैं चल रहा हूं । मैं खा रहा हूं । मैं बोल रहा हूं । मैं सुन रहा हूं । जो कुछ करते हो तुम । उस भीतर के " मैं " को भूलना नहीं चाहिए । यह बना रहना चाहिए । यह अहं-बोध नहीं है । यह आत्‍मबोध है । मैं बोध अहंकार है । आत्‍मा का बोध है - अस्मिता । शुद्धता । सिर्फ मैं हूं इसका होश ।
साधारणत: तुम्हारी चेतना किसी विषय वस्तु की ओर लक्षित हुई रहती है । तुम मेरी ओर देखते हो । तुम्हारी संपूर्ण चेतना मेरी ओर बह रही है 1 तीर की भांति । तो तुम मेरी ओर लक्षित हो । आत्म स्मरण का अर्थ है - तुम्हारे पास द्विलक्षित तीर होगा । इसका 1 हिस्सा मुझे देख रहा हो । दूसरा हिस्सा अपने को देख रहा हो । द्वि-लक्षित तीर है - स्मृति । आत्‍म स्मरण ।
यह बहुत कठिन है । क्योंकि विषय वस्तु को स्मरण रखना । और स्वयं को भूलना आसान होता है । विपरीत भी आसान है - स्वयं को स्मरण रखना । और विषय को भूल जाना । दोनों आसान हैं । इसीलिए वे जो बाजार में होते । संसार में होते । और वे जो मंदिरों मठों में होते । संसार से बाहर होते । वे 1 ही हैं । दोनों एकलक्षित हैं । बाजार में वे वस्तुओं को, विषयों को देख रहे होते है । मठों में वे अपने को देख रहे होते हैं ।
स्मृति न तो बाजार में है । न ही संसार के बाहर वाले मठों में । स्मृति 1 घटना है - आत्म स्मरण की । जब 'रू' और 'पर' दोनों 1 साथ चैतन्य में होते हैं । यह संसार की सर्वाधिक कठिन बात है । अगर तुम इसे क्षण भर को । 1 आशिक क्षण को भी प्राप्त कर सको । तो तुम्हें तुरंत सतोरी की झलक प्राप्त होगी । तत्काल तुम शरीर से कहीं और बाहर जा चुके होओगे ।
इसे आजमाना । लेकिन ध्यान रहे । अगर तुममें श्रद्धा नहीं है । तो यह 1 तनाव बन जायेगी । ये उसकी समस्याएं हैं । यह ऐसा तनाव बन सकती है कि तुम पागल बन सकते हो । क्योंकि यह 1 बहुत तनाव की स्थिति होती है । इसलिए स्व और पर । भीतरी और बाहरी दोनों को याद रखना कठिन होता है । दोनों को याद रखना बहुत बहुत दुःसाध्य है । अगर श्रद्धा होती है । तो वह तनाव को कम कर देगी । क्योंकि श्रद्धा है - प्रेम । यह तुम्हें शांत करेगी । यह तुम्हारे चारों ओर 1 संतोषदायिनी शक्ति होगी । वरना तनाव इतना ज्यादा हो सकता है कि तुम सो न पाओगे । तुम किसी क्षण शांत न हो पाओगे । क्योंकि यह 1 निरंतर उलझन बनी रहेगी । और तुम निरंतर 1 चिंता में ही रहोगे ।
इसीलिए तुम 1 बात कर सकते हो । ऐसा आसान होता है कि तुम 1 एकांत मठ में जा सकते हो । आंखें बंद कर सकते हो । स्वयं का स्मरण कर सकते हो । और संसार को भूल सकते हो । लेकिन कर क्या रहे हो तुम ? तुम तो बस, सारी प्रक्रिया को उल्टा भर रहे हो । और कुछ नहीं कर रहे । कोई परिवर्तन नहीं । या, तुम इन धर्म स्थानों को भूल सकते हो । और भूल सकते हो इन मंदिरों को । और इन गुरुओं को । और बने रह सकते हो संसार में । आनंद उठा सकते हो संसार का । वह भी आसान है । कठिन बात तो है - दोनों के प्रति सचेत होना ।
और जब तुम दोनों के प्रति सचेत होते हो । और साथ साथ ऊर्जा जागरूक होती है । संपूर्णतया ही विपरीत दिशाओं को लक्षित होती हुई । तो तनाव होता है । इंद्रियातीत अनुभव होता है । तुम मात्र तीसरे बन जाते हो । तुम दोनों के साक्षी हो जाते हो । और जब तीसरा प्रवेश करता है । पहले तुम विषय वस्तु को और स्वयं को देखने की कोशिश करते हो । लेकिन अगर तुम दोनों को देखने की कोशिश करते हो । तो बाद में, थोड़ी देर में तुम अनुभव करते हो । तुम्हारे भीतर कुछ घट रहा है । क्योंकि तुम 'तीसरे' बन रहे हो । तुम दोनों के बीच में हो - पर और स्व के बीच । अब तुम न तो विषय हो । और न ही विषयी ।
श्रद्धा, प्रयास, स्मृति, एकाग्रता और विवेक द्वारा उपलब्ध होते हैं । श्रद्धा है - आस्था । वीर्य है - समग्र प्रतिबद्धता । समग्र प्रयास । समग्र ऊर्जा ले आनी होती है । तुम्हारी सारी शक्ति लगानी पड़ती है । यदि तुम वास्तव में ही सत्य के खोजी हो । तो तुम कोई दूसरी चीज नहीं खोज सकते । इसमें संपूर्णत: डूबना होता है । तुम इसे पार्ट टाइम जॉब नहीं बना सकते । और न ही कह सकते - सुबह किसी समय में ध्यान करता हूं । और फिर खत्म । नहीं, ध्यान को तुम्हारे लिए 24 घंटे का सातत्य बनना होता है । जो कुछ भी तुम करो । ध्यान को सतत वहां पृष्ठभूमि में होना होता है । ऊर्जा की आवश्यकता होगी । तुम्हारी समस्त ऊर्जा की आवश्यकता होगी ।
और अब कुछ और बातें समझ लेनी हैं । अगर तुम्हारी सारी ऊर्जा की आवश्यकता होती है । तो कामवासना अपने आप तिरोहित हो जाती है । क्योंकि इस पर नष्ट करने को तुम्हारे पास ऊर्जा नहीं है । ब्रह्मचर्य पतंजलि के लिए कोई अनुशासन नहीं है । यह 1 परिणाम है । तुम तुम्हारी समग्र ऊर्जा आध्यात्मिक अभ्यास में लगा देते हो । तो तुम्हारे पास कामवासना के लिए कोई ऊर्जा नहीं बची रहती । और ऐसा साधारण जीवन में भी घटता है । किसी बड़े चित्रकार को देखो । वह स्त्री को पूरी तरह भूल जाता है । जब वह चित्र बना रहा होता है । तो उसके मन में कामवासना नहीं होती । क्योंकि उसकी सारी ऊर्जा चित्र में संलग्र रहती है । कामवासना के लिए उसके पास कोई अतिरिका ऊर्जा नहीं है ।
कोई महान कवि, महान गायक, नृत्यकार जो अपनी प्रतिबद्धता में पूर्णतया डूबा होता है । बिना किसी प्रयास के ब्रह्मचर्य पा लेता है । ब्रह्मचर्य के लिए उसके पास कोई अनुशासन नहीं है । कामवासना अतिरिक्त ऊर्जा है । काम 1 सुरक्षा साधन है । जब तुम्हारे पास बहुत ऊर्जा होती है । और तुम इसके साथ कुछ नहीं कर सकते । तो प्रकृति ने सेफ्टी वॉल्व बनाया है । 1 सुरक्षा की व्यवस्था । ताकि इसे तुम बाहर फेंक सको । तुम इसे मुका कर सको । अन्यथा तुम पागल हो जाओगे । या फूट पड़ोगे । तुम विस्फोटित हो जाओगे । और अगर तुम इसे दबाने की कोशिश करते हो । तो भी तुम पागल हो जाओगे । क्योंकि इसे दबाना मदद न देगा । इसे आवश्यकता है रूपांतरण की । और वह रूपांतरण समग्र प्रतिबद्धता द्वारा आता है । 1 योद्धा, अगर वह वस्तुत: योद्धा है - 1 अपराजेय योद्धा । वह कामवासना से परे होगा । उसकी सारी ऊर्जा कहीं और लगी है ।
1 बहुत सुंदर कहानी है । 1 महान दार्शनिक था । विचारक । जिसका नाम था - वाचस्पति । वह अपने अध्ययन में बहुत ज्यादा अंतर्गस्त था । 1 दिन उसके पिता ने उससे कहा - अब मैं बूढ़ा हो चला । और मैं नहीं जानता कि - कब किस क्षण मर जाऊं । और तुम मेरे इकलौते बेटे हो । और मैं चाहता हूं । तुम विवाहित होओ । वाचस्पति अध्ययन में इतना ज्यादा डूबा हुआ था कि वह बोला - ठीक है । यह सुने बगैर कि उसके पिता क्या कह रहे है । तो उसका विवाह हुआ । पर वह बिलकुल भूला रहा कि उसकी पत्नी थी । इतना डूबा हुआ था वह अपनी अध्ययनशीलता में ।
और यह केवल भारत में घट सकता है । यह कहीं और नहीं घट सकता । पत्नी उससे इतना अधिक प्रेम करती थी कि वह उसे अड़चन न देना चाहती । तो यह कहा जाता है कि 12 वर्ष गुजर गये । वह छाया की भांति उसकी सेवा करती । हर बात का ध्यान रखती । लेकिन वह जरा भी शांति भंग न करती । वह न कहती - मैं हूं यहां । और क्या कर रहे हो तुम ? वाचस्पति लगातार 1 व्याख्या लिख रहा था । जितनी व्याख्याएं लिखी गयी हैं । उनमें से 1 महानतम व्याख्या । वह बादरायण के ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिख रहा था । और वह उसमें डूबा हुआ था इतना ज्यादा । इतनी समग्रता से कि वह केवल अपनी पत्नी को ही नहीं भूला । उसे इसका भी होश न था कि कौन भोजन लाया । कौन थालियां वापस ले गया । कौन आया शाम को और दीया जला गया । किसने उसकी शय्या तैयार की ?
12 वर्ष गुजर गये । और वह रात्रि आयी । जब उसकी व्याख्या पूरी हो गयी थी । उसे अंतिम शब्द भर लिखना था । और उसने प्रण किया हुआ था कि जब व्याख्या पूरी होगी । वह संन्यासी हो जायेगा । तब वह मन से संबंधित न रहेगा । और सब कुछ समाप्त हो जायेगा । यह व्याख्या उसका एकमात्र कर्म था । जिसे परिपूर्ण करना था ।
उस रात वह थोड़ा विश्रांत था । क्योंकि उसने करीब 12 बजे अंतिम वाक्य लिख दिया था । पहली बार वह अपने वातावरण के प्रति सजग हुआ । दीया धीमा जल रहा था । और अधिक तेल चाहिए था । 1 सुंदर हाथ उसमें तेल उड़ेलने लगा था । उसने पीछे देखा । यह देखने को कि वहां कौन था । वह नहीं पहचान सका चेहरे को । और बोला - तुम कौन हो । और यहां क्या कर रही हो ? पत्नी बोली - अब जो आपने पूछ ही लिया है । तो मुझे कहना है कि 12 वर्ष पहले आपने मुझे अपनी पत्नी के रूप में ग्रहण किया था । लेकिन आप इतने डूबे हुए थे अपने कार्य के प्रति इतने प्रतिबद्ध थे कि मैं बाधा डालना या 'शांति भंग करना न चाहती थी ।
वाचस्पति रोने लगा । उसके अश्रु बहने लगे । पत्नी ने पूछा - क्या बात है ? वह बोला - यह बहुत जटिल बात है । अब मैं धर्मसंकट में पड़ घबरा गया हूं । क्योंकि व्याख्या पूरी हो गयी है । और मैं संन्यासी होने जा रहा हूं । मैं गृहस्थ नहीं हो सकता । मैं तुम्हारा पति नहीं हो सकता । व्याख्या पूरी हुई । और मैंने प्रतिज्ञा की है । अब मेरे लिए कोई समय नहीं । मैं तुरंत जा रहा हूं । तुमने मुझसे पहले क्यों न कहा ? मैं तुम्हें प्रेम कर सकता था । तुम्हारी सेवा, तुम्हारे प्रेम, तुम्हारी निष्ठा के लिए अब मैं क्या कर सकता हूं ?
ब्रह्मसूत्र पर अपने भाष्य का उसने नाम दिया - भामती । भामती था उसकी पत्नी का नाम । बेतुका है नाम । बादरायण के ब्रह्मसूत्र के भाष्य को 'भामती' कहना बेतुका है । इस नाम का कोई संबंध जुडूता नहीं । लेकिन उसने कहा - अब कुछ और मैं कर नहीं सकता । अब केवल पुस्तक का नाम लिखना ही शेष है । अत: मैं इसे भामती कहूंगा जिससे कि तुम्हारा नाम सदैव याद रहे ।
उसने घर त्याग दिया । पत्नी रो रही थी । आंसू बहा रही थी । पर पीड़ा में नहीं । आनंद में । वह बोली - यह पर्याप्त है । तुम्हारी यह भावदशा, तुम्हारी आंखों में भरा यह प्रेम पर्याप्त है । मैंने पर्याप्त पाया । अत: अपराधी अनुभव न करें । जायें । मुझे बिलकुल भूल जायें । मैं आपके मन पर बोझ नहीं बनना चाहूंगी । मुझे याद करने की कोई आवश्यकता नहीं ।
यह संभव होता है । अगर तुम किसी चीज में समपता से डूबे होते हो । तो कामवासना तिरोहित हो जाती है । क्योंकि कामवासना सुरक्षा का एक उपाय है । जब तुम्हारे पास अप्रयुक्‍त ऊर्जा होती है । तब कामवासना तुम्हारे चारों ओर पीछा करती 1 छाया बन जाती है । जब तुम्हारी समग्र ऊर्जा प्रयुक्‍त हो जाती है । कामवासना तिरोहित हो जाती है । और वह है अवस्था - ब्रह्मचर्य की । वीर्य की । तुम्हारी सारी अंतर्निहित ऊर्जा के विकसित होने की । श्रद्धा, वीर्य ( प्रयास ) स्मृति, समाधि ( एकाग्रता ) और प्रज्ञा विवेक । श्रद्धा । वीर्य - तुम्हारी समग्र जीव ऊर्जा, तुम्हारी समग्र प्रतिबद्धता । और प्रयत्न । स्मृति - स्व स्मरण । और समाधि । इस शब्द 'समाधि' का अर्थ है । मन की वह अवस्था । जहां कोई समस्या अस्तित्व नहीं रखती । यह शब्द आया है - समाधान से । यह मन की वह अवस्था है । जहां तुम नितांत स्वस्थ अनुभव करते हो । जहां कोई समस्या नहीं होती । कोई प्रश्न नहीं । यह मन की 1 प्रश्न शून्य और समस्या शून्य अवस्था होती है । यह कोई एकाग्रता नहीं । एकाग्रता तो मात्र 1 गुणवत्ता है । जो उस मन में चली आती है । जो समस्या रहित होता है । अनुवाद करने की यही कठिनाई है ।
मन की इस अवस्था का हिस्सा है - एकाग्रता । यह तो बस घटती है । उस बच्चे को देखो । जो अपने खेल में निमग्न है । उसकी एकाग्रता प्रयास रहित है । वह अपने खेल पर एकाग्र नहीं हो रहा है । एकाग्रता सह परिणाम है । वह खेल में इतना अधिक तल्लीन है कि एकाग्रता घटती है । अगर तुम किसी चीज पर जानबूझ कर एकाग्र होते हो । तो प्रयास होता है । तब तनाव होता है । तब तुम थक जाओगे ।
समाधि स्वत: घटती है - सहजता पूर्वक । अगर तुम तन्मय होते हो । डूबे हुए होते हो । अगर तुम मुझे सुन रहे हो । यह समाधि है । अगर तुम मुझे समग्रता पूर्वक सुनते हो । तो किसी दूसरे ध्यान की जरूरत नहीं । यह बात 1 एकाग्रता बन जाती है । ऐसा नहीं है कि तुम एकाग्र होते हो । यदि तुम प्रेम पूर्वक सुनते हो । एकाग्रता पीछे चली आती है ।
असंप्रज्ञात समाधि में, जब श्रद्धा संपूर्ण होती है । जब प्रयास संपूर्ण होता है । जब स्मरण गहरा होता है । समाधि घटती है । जो कुछ भी तुम करते हो । तुम संपूर्ण एकाग्रता सहित करते हो - एकाग्र होने के प्रयास के बिना । और यदि एकाग्रता को प्रयास की आवश्यकता होती है । तो यह असुंदर है । यह बात तुम्हें रोग की तरह ग्रस्‍ती रहेगी । तुम इसके द्वारा नष्ट होओगे । एकाग्रता को 1 परिणाम की भांति होना चाहिए । तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो । और मात्र उसके साथ होने से तुम एकाग्र हो जाते हो । ध्यान रखना । किसी चीज पर एकाग्र कभी न होना । बल्कि गहराई से सुनना । समग्रता से सुनना । और तुम्हारे पास एकाग्रता स्वयं चली आयेगी ।
फिर होता है - विवेक । प्रज्ञा । प्रज्ञा विवेक नहीं है । विवेक केवल 1 हिस्सा है प्रज्ञा का । वस्तुत: प्रज्ञा का अर्थ है - 1 बोधपूर्ण जागरूकता । बुद्ध ने कहा है कि ध्यान की लौ ऊंची प्रज्वलित होती है । तो उस अग्रि शिखा को घेरने वाला प्रकाश प्रज्ञा है । भीतर है समाधि । और तुम्हारे चारों ओर 1 प्रकाश । 1 आभा पीछे आने लगती है । तुम्हारे प्रत्येक कार्य में तुम प्रज्ञावान और विवेक पूर्ण होते हो । यह ऐसा नहीं है कि तुम विवेक पूर्ण होने की कोशिश कर रहे हो । यह तो बस घटता है । क्योंकि तुम इतनी अधिक समग्रता से जागरूक होते हो । जो कुछ तुम करते हो । विवेक पूर्ण होता है । ऐसा नहीं है कि तुम निरंतर सोच रहे हो सही काम करने की बात ।
वह व्यक्ति जो लगातार सोच रहा है । सही काम करने की बात । वह तो कुछ कर ही न पायेगा । वह गलत भी न कर पायेगा । क्योंकि यह बात इतना तनाव बन जायेगी उसके मन पर । और क्या सही है । और क्या गलत है ? तुम कैसे निर्णय ले सकते हो ? प्रज्ञावान व्यक्ति चुनता नहीं । वह मात्र अनुभव करता है । वह तो अपनी जागरूकता सब ओर फेंकता है । और उसके प्रकाश में वह आगे बढ़ता है । जहां कहीं वह बढ़ता है, सही है ।
सही बात चीजों से संबंधित नहीं है । यह तुमसे संबंधित है । वह जो कार्य कर रहा है - उससे । ऐसा नहीं है कि बुद्ध सही बातें करते थे । नहीं । जो कुछ वे करते । वह सही होता । विवेक तो अपर्याप्त शब्द है । प्रज्ञावान व्यक्ति के पास विवेक होता ही है । वह उसके बारे में सोचता नहीं है । यह उसके लिए सहज है । यदि तुम इस कमरे से बाहर जाना चाहते हो । तो तुम बस दरवाजे से बाहर चले जाते हो । तुम टटोलते ढूंढते नहीं । तुम पहले दीवार के पास नहीं चले जाते रास्ता खोजने को । तुम तो बाहर ही चले जाते हो । तुम सोचते भी नहीं कि यह दरवाजा है । लेकिन जब अंधे आदमी को बाहर जाना होता है । तो वह पूछता है - कहां है दरवाजा ? और फिर इसके बाद वह इसे छूने की कोशिश भी करता है । वह अपनी की लिये बहुत जगह दस्तक देगा । वह टटोलेगा । ढूंढेगा । और अपने मन में वह निरंतर सोचेगा - यह द्वार है या दीवार ? मैं सही जा रहा हूं । या गलत ? और जब वह द्वार तक आ पहुंचेगा । तब वह सोचेगा - हां, अब यही है द्वार ।
यह सब घटता है । क्योंकि वह अंधा है । तुम्हें चुनाव करना होता है । क्योंकि तुम अंधे होते हो । तुम्हें सोचना पड़ता है । क्योंकि तुम अंधे हो । तुम्हें अनुशासन और नैतिकता में रहना होता है । क्योंकि तुम अंधे हो । जब समझ खिलती होती है । जब ज्योति वहां होती है । तुम मात्र देखते हो । और हर चीज स्पष्ट होती है । जब तुम्हारे पास आंतरिक स्पष्टता होती है । तब हर चीज स्पष्ट होती है । तुम संवेदनशील बन जाते हो । जो कुछ तुम करते हो । सही ही होता है । ऐसा नहीं है कि यह सही है । और इसलिए तुम इसे करते हो । तुम इसे समझ सहित करते हो । और यह सही । तो श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि, प्रज्ञा । दूसरे जो असंप्रज्ञात समाधि को उपलब्ध होते हैं । इसे उपलब्ध करते है । श्रद्धा, असीम ऊर्जा, प्रयास, समग्र आत्म स्मरण, समस्‍या शून्य मन और विवेक की अग्रि शिखा के द्वारा ।
पंतजलि: योगसूत्र 1  समाधि का अर्थ 1 जनवरी 1975 श्री रजनीश आश्रम पूना ।

16 अक्टूबर 2011

संन्यास से बढ़कर कोई आत्महत्या नहीं है

मैं आत्महत्या करना चाहता हूँ । - तो पहले संन्यास ले लो । और तुम्हे आत्महत्या करने की ज़रुरत नहीं पड़ेगी । क्योंकि संन्यास लेने से बढ़कर कोई आत्महत्या नही है । और किसी को आत्महत्या क्यों करनी चाहिए ? मौत तो खुद बखुद आ रही है । तुम इतनी जल्दबाजी में क्यों हो ? मौत आएगी । वो हमेशा आती है । तुम्हारे न चाहते हुए भी वो आती है । तुम्हे उसे जाकर मिलने की ज़रुरत नहीं है । वो अपने आप आ जाती है । पर तुम अपने जीवन को बुरी तरह से याद करोगे । तुम क्रोध या चिंता की वजह से आत्महत्या करना चाहते हो । मैं तुम्हे सही आत्महत्या सिखाऊंगा । 1 सन्यासी बन जाओ । और मामूली आत्महत्या करने से कुछ ख़ास नहीं होने वाला है । आप तुरंत ही किसी और कोख में कहीं और पैदा हो जाओगे । कुछ बेवकूफ लोग कहीं प्यार कर रहे होंगे । याद रखो । तुम फिर फंस जाओगे । तुम इतनी आसानी से नहीं निकल सकते । बहुत सारे बेवकूफ हैं । इस शरीर से निकलने से पहले तुम किसी और जाल में फंस जाओगे । और 1 बार फिर तुम्हें स्कूल कालेज जाना पड़ेगा । जरा उसके बारे में सोचो । उन सभी कष्ट भरे अनुभवों के बारे में सोचो । वो तुम्हे आत्महत्या करने से रोकेगा ।
तुम जानते हो । भारतीय इतनी आसानी से आत्महत्या नहीं करते । क्योंकि वो जानते हैं कि वो फिर पैदा हो जायेंगे । पश्चिम में आत्महत्या और आत्महत्या के तरीके खोज करते हैं । बहुत लोग आत्महत्या करते हैं । और मनसविद कहते हैं कि बहुत कम लोग होते हैं । जो ऐसा करने का नहीं सोचते हैं । दरअसल 1 आदमी ने खोज करके कुछ माहिता इकठ्ठी की थी । और उसका कहना है कि - हर 1 व्यक्ति अपने जीवन में कम से कम 4 बार आत्महत्या करने को सोचता है । पर ये पश्चिम की बात है । पूरब में, चूँकि लोग पुनर्जन्म के बारे में जानते हैं । इसलिए कोई आत्महत्या नहीं करना चाहता है । फायदा क्या है ? तुम 1 दरवाज़े से निकलते हो । और किसी और दरवाजे से फिर अन्दर आ जाते हो । तुम इतनी आसानी से नहीं जा सकते ।
मैं तुम्हे असली आत्महत्या करना सिखाऊंगा । तुम हमेशा के लिए जा सकते हो । इसी का मतलब है - बुद्ध बनना । हमेशा के लिए चले जाना  तुम आत्महत्या क्यों करना चाहते हो ? शायद तुम जैसा चाहते थे । जिन्दगी वैसी नहीं चल रही है ? पर तुम ज़िन्दगी पर अपना तरीका अपनी इच्छा थोपने वाले होते कौन हो ? हो सकता है । तुम्हारी इच्छाएं पूरी न हुई हों ? तो खुद को क्यों ख़तम करते हो । अपनी इच्छाओं को ख़तम करो । हो सकता है । तुम्हारी महत्वाकांक्षा पूरी ना हुई हों । और तुम तनाव महसूस कर रहे हो । जब इंसान तनाव में होता है । तो वो विनाश करना चाहता है । और तब केवल 2 संभावनाएं होती हैं । या तो किसी और को मारो । या खुद को । किसी और को मारना खतरनाक है । इसलिए लोग खुद को मारने का सोचने लगते हैं । लेकिन ये भी तो 1 हत्या है ? तो क्यों ना ज़िन्दगी को ख़तम करने की बजाय उसे बदल दें । ओशो
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मैं तो केवल स्वतंत्रता और बोध दे रहा हूँ । समानता दे रहा हूँ । और जीवन को जबरदस्ती बंधनों में जीने से उचित है कि आदमी स्वतंत्रता से जीए । और बंधन जितने टूट जाएं । उतना अच्छा है । क्योंकि बंधन केवल आत्माओं को मार डालते है । सङा डालते हैं । तुम्हारे जीवन को दूभर कर देते हैं ।
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यह कैसी नींद ? सपने को सच मान लिया । सच को विस्मरण कर दिया । अपने को भूल बैठे हो । औरों के पीछे दौड़ रहे हो । और सब कहीं जाते हो । सिर्फ अपने भीतर नहीं जाते । यह कैसी नींद ? और सब जुटाते हो । ध्यान नहीं जुटाते । वही एकमात्र धन है । उसे ही पाओ । तो धनी हो जाओ । सब जुटा लोगे । मगर दीन रहोगे । दरिद्र रहोगे । खाली हाथ आए । खाली हाथ जाओगे । रोते जीए । रोते आए । रोते मरोगे । हंसते हुए भी जीया जा सकता है ।

12 अक्टूबर 2011

जाये अहीर की छोकरियाँ छछिया भर छाछ को नाच नचावे

प्रसून का इंसाफ़ पर काफ़ी प्रतिक्रियायें प्राप्त हो चुकी हैं । ये पहली कहानी थी । जिस पर आप सभी लोगों ने एक स्पष्ट अंदाज में बता दिया कि - आप कैसी कहानी पसन्द करते हैं ? स्पष्ट कहूँगा । सभी ने कहा - बेकार लगी । और पहले की तरह ही आगृह किया कि मैं इस बात का बुरा न मानूँ ।
सबसे पहले तो मैं यही स्पष्ट कर दूँ । जो कि पहले भी कई बार कर चुका । मैं कभी भी किसी की बात का कैसा भी बुरा नहीं मानता । अतः आप लोग ये बात सोचा ही न करें । इसके साथ ही ये भी बता दूँ कि मैं एक नई कहानी पर कार्य कर रहा हूँ । जिसके ये लेख लिखने तक 3 पार्ट लिखे जा चुके हैं । और अब तेजी से लिखने का इरादा है । 7 sept 2011 को मैंने प्रसून का इंसाफ़ के 3 पार्ट लिख लिये थे । और अगले 8 दिन में उसे पूरा कर पोस्ट करने वाला ही था । तभी 8 sept 2011 को सुरिन्दर जी की डैथ की सूचना प्राप्त हो गयी । और मन कुछ दिनों के लिये डिस्टर्ब सा हो गया । फ़िर जैसे तैसे उसको पूरा किया । मन नहीं लगा । तो

अन्य प्रकार का लेखन किया ।
खैर..इसके भी अलावा 15 aug 2011 से घर में ही 2 मौतों के बाद अब तक मेरी जिन्दगी में एक हलचल सी मची हुयी है । जो शान्त संयत और स्थिर मता होने के बाद भी कहीं न कहीं प्रभावित करती है । दिल फ़िर से कहीं शान्त गुफ़ाओं में लौट जाने को करता है ।
- यहाँ तक लिखने के बाद ये लेख बीच में ही छूट गया । अब आगे -
कहाँ हो गये बहुत दिन - 20 sept को प्रसून का इंसाफ़ पोस्ट हुयी थी । इसके बाद स्पष्ट और बेबाक शब्दों में नयी कहानी को बहुत सेक्सी लिखने का आगृह किया गया । mc donald के चिकन बर्गर की तरह हाट चिली एण्ड स्पायसी । इसके साथ कहानी को 21 पार्ट में ही लिखने की जबरदस्त धमकी थी । बात  न मानने पर मेरा रेप करने की धमकी अलग से थी । इससे भी मैं न डरूँ । तो वो ही काट डालने की धमकी थी । जिससे मेल फ़ीमेल का अन्तर पता चलता है । सच कह रहा हूँ । इसमें 1 भी बात असत्य या मजाक नहीं है । बल्कि बहुत संक्षिप्त में मैंने मेन बात बतायी है । और ये धमकी लेडी डान (s) की  तरफ़ से थी ।
अब बताईये । कितने डेंजरस है । मेरे रीडर्स ?

वजह और भी थी - up west में अभी पिछले दिनों लगभग 10 दिनों तक सर्वर सही काम नहीं कर रहा था । और ये समय 21 sept to 3 sept तक का रहा । मैंने सोचा । मेरा कनेक्शन ही सही काम नहीं कर रहा । तब दूसरी कंपनी का नया कनेक्शन लिया । तब पता चला । खराबी सर्वर से थी । फ़िर से पुराना कनेक्शन ही रिचार्ज कराया । टेंशन का अन्दाजा लगाईये । नेट से सम्पर्क बहुत मुश्किल से बहुत कम हो पाता था ।
विधुत कटौती - आगरा में पिछले 2 year बिजली का आधा काम प्राइवेट कंपनी टोरन्ट पावर के हाथ में है । बेहतर सर्विस हेतु कम्पनी तारों और खम्बों का नवीनीकरण करती रहती है । जिससे बिजली काट दी जाती है । अभी Date 9 and 11 and 13 sept को यानी आज भी अखबार के अनुसार बिजली कटी रहेगी । सोचिये भाई ! फ़िर इसमें मेरी क्या गलती है । आपको नहीं कह रहा । धमकी देने वालों से कह रहा हूँ । उम्मीद है । आगे सब सही ही होगा । वो है तो जहान है । वरना फ़िर जीने का क्या काम है ।

आसान नहीं होता कहानी लिखना - मैं बता चुका हूँ । लेख लिखने की तुलना में कहानी लिखना बेहद कठिन है । कहानी का फ़्लो फ़िर से बनाने पकङने हेतु लिखने से पहले अपने ही लिखे लास्ट 2 पार्ट फ़िर से पढने होते है । तब आगे बहाव बनता है । दूसरे ध्यान अवस्था से बाहर आने के बाद न कोई कहानी पता  रहती है । न और कुछ । शब्द तक नहीं समझ आते । कौन प्रसून ? कैसा प्रसून ? भाङ में जाये । बङी मुश्किल से शब्द शून्यता 0 से विचार संसार में वापिसी होती है । लेख के मामले में ऐसा नहीं है । कहीं से कोई प्वाइंट उठाया । और की बोर्ड पर खटर पटर चटर पटर शुरू हो गयी ।
चैट चैंट ( छेङना ) चटर पटर - आगे कभी अपने इस अनुभव पर भी लिखूंगा । 15 aug से अब तक कुछ ऐसा माहौल बन गया कि ब्लाग पर ans देने के बजाय व्यक्तिगत उत्तर मेल पर देने पङे । बहुत लोग नहीं चाहते कि उनके बारे में बात सार्वजनिक हो । इसमें भी समय लगता है । हालांकि हानि लाभ पुण्य पाप जैसे बिन्दुओं से मैं 2 साल पहले ही उठ चुका हूँ । और अब मेरा कोई कर्तव्य नहीं रह गया । पर जैसा कि मैंने पहले भी बताया । एक जीव को पूर्ण रूपेण चेताने का पुण्य इस प्रथ्वी के शहंशाह होने के बराबर फ़ल देता है । शहंशाह उसे कहते हैं । जिसके अधीन छोटे बङे सभी राजा होते हैं । मेरे द्वारा लगभग 500 जीव चेत चुके हैं । पर मैंने कहा । अब मैं इस नियम से भी ऊपर उठ गया हूँ ।
पर आंतरिक सरंचना में सन्तत्व भावना प्रबल हो जाने से मुझे अब भी किसी जीव को सन्मार्गी करने चेताने जागृत करने में बहुत सुख सा मिलता है । इसलिये अपनी खुशी के लिये मैं ये सब करता हूँ ।

इस कङी में सत्य की तलाश में भटक रहे । और विभिन्न समस्याओं से जुङे लोग देश विदेश से एक एक घण्टे तक फ़ोन पर बात करते हैं । स्मरण रहे । मेरे पास सांसारिक कार्यों के लिये सिर्फ़ 7 घण्टे ही होते हैं । सुबह 7 से 10:30 और शाम को 3 से 7 बजे तक लगभग । यदि इस टाइम में लाइट या अन्य कोई डिस्टर्ब आ जाये । तो लिखना चौपट ।
लाइन पर मारने वाले - अब कुछ लोगों को पता चल गया है । मैं किस टाइम आनलाइन होता हूँ । वे मेरे मेसेंजर की फ़्रेंड लिस्ट में एड हो चुके हैं । इसलिये मैं अपने नेटी वर्क को देख रहा होता हूँ । और उधर मेरे लेप टाप की रिंग.. डिंग डिंग डिंग..डिंग डिंग डिंग..होने लगती है । जाये अहीर की छोकरियाँ छछिया भर छाछ को नाच नचावे ( कृष्ण को गोपियाँ थोङे से मक्खन का लालच देकर उनका मनमोहक नृत्य देखती थीं । ) सोचिये खुद बृह्म प्रेम के वशीभूत होकर नाचता था ।
पर मुझे तो छछिया भर छाछ भी नहीं है । मैं टायप करता हूँ - प्लीज ! अभी थोङा बिजी हूँ । बाद में बात करते हैं ।
तब उधर से - बैठो चुपचाप से । जब तक मैं न बोलूँ । जा नहीं सकते । नहीं तो....?? etc समझदार को इशारा काफ़ी होता है । अब आप लाइन पर मारने वाले का मतलब समझ गये होंगे । बातें और भी हैं । पर वे सब स्टोरी हो जाने के बाद । स्टोरी कल से लाइट पोजीशन सही आ जाने पर 17 तक हो जाये ।