- फिर प्रेम का तुम अर्थ ही न समझे । फिर प्रेम से कुछ और समझ गए । बिना ध्यान के प्रेम तो संभव ही नहीं है । प्रेम भी ध्यान का 1 ढंग है । फिर तुमने प्रेम से कुछ अपना ही अर्थ ले लिया । तुम्हारे प्रेम से अगर सत्य मिलता होता । तो मिल ही गया होता । तुम्हारा प्रेम तो तुम कर ही रहे हो । पत्नी से । बच्चे से । पिता से । मां से । मित्रों से । ऐसा प्रेम तो तुमने जन्म जन्म किया है । ऐसे प्रेम से सत्य मिलता होता । तो मिल ही गया होता । मैं किसी और ही प्रेम की बात कर रहा हूं । तुम देह की भाषा ही समझते हो । इसलिए जब मैं कुछ कहता हूं । तुम अपनी देह की भाषा में अनुवाद कर लेते हो । वहीं भूल हो जाती है । प्रेम का मेरे लिए वही अर्थ है । जो प्रार्थना का है । 1 पुरानी कहानी तुमसे कहूं । झेन कथा है । 1 झेन सदगुरु के बगीचे में कद्दू लगे थे । सुबह सुबह गुरु बाहर आया । तो देखा । कद्दूओं में बड़ा झगड़ा और विवाद मचा है । कद्दू ही ठहरे । उसने कहा - अरे कद्दूओ यह क्या कर रहे हो ? आपस में लड़ते हो । वहाँ 2 दल हो गए थे कद्दूओं में । और मारधाड़ की नौबत थी । झेन गुरु ने कहा - कद्दूओ, एक दूसरे को प्रेम करो । उन्होंने कहा - यह हो ही नहीं सकता । दुश्मन को प्रेम करें ? यह हो कैसे सकता है ! तो झेन गुरु ने कहा - फिर ऐसा करो । ध्यान करो । कदुओं ने कहा - हम कद्दू हैं । हम ध्यान कैसे करें ? तो झेन गुरु ने कहा - देखो भीतर मंदिर में बौद्ध भिक्षुओं की कतार ध्यान करने बैठी थी । देखो ये कद्दू इतने कद्दू ध्यान कर रहे हैं । बौद्ध भिक्षुओं के सिर तो घुटे होते हैं । कदुओं जैसे ही लगते हैं । तुम भी इसी भांति बैठ जाओ । पहले तो कद्दू हंसे । लेकिन सोचा - गुरु ने कभी कहा भी नहीं । मान ही लें । थोड़ी देर बैठ जाएं । जैसा गुरु ने कहा । वैसे ही बैठ गए । सिद्धासन में पैर मोड़कर आंखें बंद करके । रीढ़ सीधी करके । ऐसे बैठने से थोड़ी देर में शांत होने लगे । सिर्फ बैठने से आदमी शांत हो जाता है । इसलिए झेन गुरु तो ध्यान का नाम ही रख दिये हैं - झाझेन । झाझेन का अर्थ होता है । खाली बैठे रहना । कुछ करना न । कद्दू बैठे बैठे शांत होने लगे । बड़े हैरान हुए । बड़े चकित भी हुए । ऐसी शांति कभी जानी न थी । चारों तरफ 1 अपूर्व आनंद का भाव लहरें लेने लगा । फिर गुरु आया । और उसने कहा - अब 1 काम और करो । अपने अपने सिर पर हाथ रखो । हाथ सिर पर रखा । तो और चकित हो गए । 1 विचित्र अनुभव आया कि वहाँ तो किसी बेल से जुड़े हैं । और जब सिर उठाकर देखा । तो वह बेल 1 ही है । वहां 2 बेलें न थीं । 1 ही बेल में लगे सब कद्दू थे । कद्दुओं ने कहा - हम भी कैसे मूर्ख ? हम तो 1 ही के हिस्से हैं । हम तो सब 1 ही हैं । 1 ही रस बहता है हमसे । और हम लड़ते थे । तो गुरु ने कहा - अब प्रेम करो । अब तुमने जाना कि 1 ही हो । कोई पराया नहीं । 1 का ही विस्तार है ।
वह जहां से कदुओं ने पकड़ा अपने सिर पर । उसी को योगी सातवां चक्र कहते हैं - सहस्रार । हिंदू वहीं चोटी बढ़ाते हैं । चोटी का मतलब ही यही है कि वहाँ से हम 1 ही बेल से जुड़े हैं । 1 ही परमात्मा है । 1 ही सत्ता । 1 अस्तित्व । 1 ही सागर लहरें ले रहा है । वह जो पास में तुम्हारे लहर दिखाई पड़ती है । भिन्न नहीं । अभिन्न है । तुमसे अलग नहीं । गहरे में तुमसे जुड़ी है । सारी लहरें संयुक्त हैं । तुमने कभी 1 बात खयाल की ? तुमने कभी सागर में ऐसा देखा कि 1 ही लहर उठी हो । और सारा सागर शांत हो ? नहीं, ऐसा नहीं होता । तुमने कभी ऐसा देखा । वृक्ष का 1 ही पत्ता हिलता हो । और सारा वृक्ष मौन खड़ा हो । हवाएं न हों ? जब हिलता है । तो पूरा वृक्ष हिलता है । और जब सागर में लहरें उठती हैं । तो अनंत उठती हैं । 1 लहर नहीं उठती । क्योंकि 1 लहर तो हो ही नहीँ सकती । तुम सोच सकते हो कि 1 मनुष्य हो सकता है । पृथ्वी पर ? असंभव है । 1 तो हो ही नहीं सकता । हम तो 1 ही सागर की लहरें हैं । अनेक होने में हम प्रगट हो रहे हैं । जिस दिन यह अनुभव होता है । उस दिन प्रेम का जन्म होता है ।
प्रेम का अर्थ है - अभिन्न का बोध हुआ । अद्वैत का बोध हुआ । शरीर तो अलग अलग दिखाई पड ही रहे हैं । कद्दू तो अलग अलग हैं ही । लहरें तो ऊपर से अलग अलग दिखाई पड़ ही रही हैं । भीतर से आत्मा 1 है । प्रेम का अर्थ है - जब तुम्हें किसी में और अपने बीच एकता का अनुभव हुआ । और ऐसा नहीं है कि तुम्हें जब यह एकता का अनुभव होगा । तो 1 और तुम्हारे बीच ही होगा । यह अनुभव ऐसा है कि हुआ कि तुम्हें तत्क्षण पता चलेगा कि सभी 1 हैं । भ्रांति टूटी । तो वृक्ष, पहाड़ पर्वत, नदी नाले, आदमी पुरुष, पशु पक्षी, चांद तारे सभी में 1 ही कैप रहा है । उस 1 के कंपन को जानने का नाम प्रेम है । प्रेम प्रार्थना है । लेकिन तुम जिसे प्रेम समझे हो । वह तो देह की भूख है । वह तो प्रेम का धोखा है । वह तो देह ने तुम्हें चकमा दिया है ।
मांगती हैं भूखी इंद्रियां । भूखी इंद्रियों से भीख ।
और किससे तुम मांगते हो भीख । यह भी कभी तुमने सोचा ? जो तुमसे भीख मांग रहा है । भिखारी भिखारी के सामने भिक्षापात्र लिए खड़े हैं । फिर तृप्ति नहीं होती । तो आश्चर्य कैसा ? किससे तुम मांग रहे हो ? वह तुमसे मांगने आया है । तुम पत्नी से मांग रहे हो । पत्नी तुमसे मांग रही है । तुम बेटे से मांग रहे हो । बेटा तुमसे मांग रहा है । सब खाली हैं । रिक्त हैं । देने को कुछ भी नहीं है । सब मांग रहे हैं । भिखमंगों की जमात है ।
मांगती हैं भूखी इंद्रियां । भूखी इंद्रियों से भीख ।
मान लिया है स्खलन । को ही तृप्ति का क्षण ।
नहीं होने देता विमुक्त । इस मरीचिका से अघोरी मन ।
बदल बदल कर मुखौटा । ठगता है चेतना का चिंतन ।
होते ही पटाक्षेप, बिखर जाएगी । अनमोल पंचभूतो की भीड़ ।
यह तुमने जिसे अपना होना समझा है । यह तो पंचभूतो की भीड़ है । यह तो हवा, पानी, आकाश तुममें मिल गए हैं । यह तुमने जिसे अपनी देह समझा है । यह तो केवल संयोग है । यह तो बिखर जाएगा । तब जो बचेगा इस संयोग के बिखर जाने पर । उसको पहचानो । उसमें डूबो । उसमें डुबकी लगाओ । वहीं से प्रेम उठता है । और उसमें डुबकी लगाने का ढंग ध्यान है । अगर तुमने ध्यान की बात ठीक से समझ ली । तो प्रेम अपने आप जीवन में उतरेगा । या प्रेम की समझ ली । तो ध्यान उतरेगा । ये 1 ही बात को कहने के लिए 2 शब्द हैं । ध्यान से समझ में आता हो । तो ठीक । अन्यथा प्रेम । प्रेम से समझ में आता हो । तो ठीक । अन्यथा ध्यान । लेकिन दोनों अलग नहीं हैं ।
अकबर शिकार को गया था । जंगल में राह भूल गया । साथियों से बिछड़ गया । सांझ होने लगी । सूरज ढलने लगा । अकबर डरा हुआ था । कहाँ रुकेगा रात । जंगल में खतरा था । भाग रहा था । तभी उसे याद आया कि सांझ का वक्त है । प्रार्थना करनी जरूरी है । नमाज का समय हुआ तो बिछाकर अपनी चादर नमाज पढ़ने लगा । जब वह नमाज पढ़ रहा था । तब 1 स्त्री भागती हुई, अल्हड़ स्त्री उसके नमाज के वस्त्र पर से पैर रखती हुई, उसको धक्का देती हुई वह झुका था । गिर पड़ा । वह भागती हुई निकल गई । अकबर को बड़ा क्रोध आया । सम्राट नमाज पढ़ रहा है । और इस अभद्र युवती को इतना भी बोध नहीं है । जल्दी जल्दी नमाज पूरी की । भागा घोड़े पर । पकड़ा स्त्री को । कहा - बदतमीज है । कोई भी नमाज पढ़ रहा हो । प्रार्थना कर रहा हो । तो इस तरह तो अभद्र व्यवहार नहीं करना चाहिए । फिर मैं सम्राट हूं । सम्राट नमाज पढ़ रहा है । और तूने इस तरह का व्यवहार किया । उसने कहा - क्षमा करें । मुझे पता नहीं कि आप वहाँ थे । मुझे पता नहीं कि कोई नमाज पढ़ रहा था । लेकिन सम्राट 1 बात पूछनी है । मैं अपने प्रेमी से मिलने जा रही हूं । तो मुझे कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा है । मेरा प्रेमी राह देखता होगा । तो मेरे तो प्राण वहाँ अटके हैं । तुम परमात्मा की प्रार्थना कर रहे थे । मेरा धक्का तुम्हें पता चल गया ? यह कैसी प्रार्थना ? यह तो अभी प्रेम भी नहीं है । यह प्रार्थना कैसी ? तुम लवलीन न थे । तुम मंत्रमुग्ध न थे । तुम डूबे न थे । तो झूठा स्वांग क्यों रच रहे थे ? जो परमात्मा के सामने खड़ा हो । उसे तो सब भूल जाएगा । कोई तुम्हारी गर्दन भी उतार देता तलवार से । तो भी पता न चलता । तो प्रार्थना । मुझे तो कुछ भी याद नहीं । क्षमा करें । अकबर ने अपनी आत्मकथा में घटना लिखवाई है । और कहा है कि उस दिन मुझे बड़ी चोट पड़ी । सच में ही यह भी कोई प्रार्थना है ? यह तो अभी प्रेम भी नहीं ।
प्रेम का ही विकास, आत्यंतिक विकास, प्रार्थना है ।
अगर तुम्हें किसी व्यक्ति के भीतर परमात्मा का अनुभव होने लगे । और किसी के भीतर तुम्हें अपनी ही झलक मिलने लगे । तो प्रेम की किरण फूटी । तुम जिसे अभी प्रेम कहते हो । वह तो मजबूरी है । उसमें प्रार्थना की सुवास नहीं है । उसमें तो भूखी इंद्रियों की दुर्गंध है ।
लहर सागर का नहीं श्रृंगार । उसकी विकलता है ।
गंध कलिका का नहीं उदगार । उसकी विकलता है ।
कूक कोयल की नहीं मनुहार । उसकी विकलता है ।
गान गायक का नहीं व्यापार । उसकी विकलता है ।
राग वीणा की नहीं झंकार । उसकी विकलता है ।
अभी तो तुम जिसे प्रेम कहते हो । वह विकलता है । वह तो मजबूरी है । वह तो पीड़ा है । अभी तुम संतप्त हो । अभी तुम भूखे हो । अभी तुम चाहते हो कोई सहारा मिल जाए । अभी तुम चाहते हो । कहीं कोई नशा मिल जाए । इसे मैंने प्रेम नहीं कहा । प्रेम तो जागरण है । विकलता नहीं । विक्षिप्तता नहीं । प्रेम तो परम जाग्रत दशा है । उसे ध्यान कहो ।
अगर तुमने प्रेम की मेरी बात ठीक से समझी । तो यह प्रश्न उठेगा ही नहीं कि अगर प्रेम से सत्य मिल सकता है । तो फिर ध्यान की क्या जरूरत है ? प्रेम से सत्य मिलता है । तभी जब प्रेम ही ध्यान का 1 रूप होता है । उसके पहले नहीं । दूसरी तरह के लोग भी हैं । वे भी आकर मुझसे पूछते हैं कि - अगर ध्यान से सत्य मिल सकता है । तो फिर प्रेम की कोई जरूरत है ? उनसे भी मैं यही कहता हूं कि अगर तुमने मेरे ध्यान की बात समझी । तो यह प्रश्न पूछोगे नहीं । जिसको ध्यान जगने लगा । प्रेम तो जगेगा ही ।
बुद्ध ने कहा है - जहां जहॉ समाधि है । वहां वहाँ करुणा है । करुणा छाया है - समाधि की । चैतन्य ने कहा है - जहां जहां प्रेम । जहां जहां प्रार्थना । वहां वहां ध्यान । ध्यान छाया है प्रेम की । ये तो कहने के ही ढंग हैं । जैसे तुम्हारी छाया तुमसे अलग नहीं की जा सकती । ऐसे ही प्रेम और ध्यान को अलग नहीं किया जा सकता । तुम किसको छाया कहते हो ? इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता । ये तो पद्धतियां हैं ।
2 पद्धतियां हैं - सत्य को खोजने की । जो है । उसे जानने के 2 ढंग हैं - या तो ध्यान में तटस्थ हो जाओ । या प्रेम में लीन हो जाओ । या तो प्रेम में इतने डूब जाओ कि तुम मिट जाओ । सत्य ही बचे । या ध्यान में इतने जाग जाओ कि सब खो जाए । तुम ही बचो । 1 बच जाए किसी भी दिशा से । जहां 1 बच रहे । बस सत्य आ गया । कैसे तुम उस 1 तक पहुंचे ? ‘मैं’ को मिटाकर पहुंचे कि ‘तू’ को मिटाकर पहुंचे । इससे कुछ भेद नहीं पड़ता है । लेकिन मन बड़ा बेईमान है । अगर मैं ध्यान करने को कहता हूं । तो वह पूछता है - प्रेम से नहीं होगा ? क्योंकि ध्यान करने से बचने का कोई रास्ता चाहिए । प्रेम से हो सकता हो । तो ध्यान से तो बचें फिलहाल । फिर देखेंगे । फिर जब मैं प्रेम की बात कहता हूं । तो तुम पूछते हो - ध्यान से नहीं हो सकेगा ? तब तुम प्रेम से बचने की फिक्र करने लगते हो । तुम मिटना नहीं चाहते । और बिना मिटे कोई उपाय नहीं । बिना मिटे कोई गति नहीं ।
20 नवंबर 1976 श्री रजनीश आश्रम पूना ।
2 टिप्पणियां:
sach keh raha hun rajeev ji ye khabar padh kar bahut dhakka laga mujhe, roop jiki age abhi bahut kam hai aur is stage par zindagi ne aisa rasta badal liya ke..........ab kya kahu time ka koi bharosa nahi kab kya ho jaye.
roop ji hum sab is dukh ki ghadi me apke sath hai
apka chota bacha hai use sambhiliye aur apne aap ko bhi,dekhiye apke husband ke chehre par koi dukh hai....? Wo abhi bhi muskura rahe hai ab apko bhi chahiye ke unko khushi-khushi vida kare
aakhir jana to hum sab ko bhi hai isiliye himmat se kaam lijiye aur isme bhi us saheb/ malik ki marji samjhiye
parmatma apko himmat de.
Good article! Keep it up!
एक टिप्पणी भेजें