देह के विभिन्न केन्द्रों ( मूलाधार, काम, नेत्र ) की ऊर्जा को आज्ञा चक्र पर केन्द्रित करना है । शाम्भवी मुद्रा के अन्तर्गत योगी आंखों की दोनों पुतलियों से दोनों भौहों के मध्य इंगित करते हैं । दूसरे शब्दों में आंखों की पुतलियों द्वारा भौ मध्य में त्राटक करते हैं । भौ मध्य में ध्यान केन्द्रित करते हैं । इस मुद्रा में आंखे खुली रहती हैं । सतत बिना पुतलियों के हलन चलन के ऊपर देखते रहना होता है ।
शरीर 1 वाहन है - ईसाईयों का 1 संप्रदाय था । जिसके फकीर अपने को दिन रात कोड़े मारते थे । शरीर को कष्ट देने के लिए । क्योंकि शरीर दुश्मन है । यह तो वैसे ही है । जैसे कोई उठकर अपनी कार की पिटाई करने लगे । क्योंकि यह कार मुझे कहीं भी ले जाए जा
जा रहे हो ? कार का काम चलना है । तुम मंदिर ले जाना चाहते हो । कार मंदिर के द्वार पर रुक जाती है । लेकिन जब वेश्यालय के द्वार पर रुकती है । तो तुम उतरकर कार की पिटाई शुरू कर देते हो । तुम नासमझ हो ।
त्वमेव माता च पिता त्वमेव - कुछ धर्मों ने उस आत्यंतिक सत्ता को माता कहा है । तब फिर पिता कहां है ? ये
वह दोनों का मिलन है । उस आत्यंतिक में मां और पिता दोनों ही समाविष्ट हो जाते हैं ।
1 लङकी ने बुजुर्ग से पूछा - प्यार की हकीकत क्या है ? बुजुर्ग ने कहा - जाओ बाग में जो सबसे खूबसूरत फ़ूल हो
खेचरी मुद्रा साधना एवं ध्यान - खेचरी मुद्रा साधना क्रिया योग के अंतर्गत आती है । ध्यान अक्रिया की 1 अवस्था है । स्तोत्र तंत्र योग के अंतर्गत आता है । विशेष बात ये है । क्रिया योग और तंत्र योग दोनों की साधना विधियां 1 ही स्थान पर पहुंचा देती हैं । जिसे चित्त की अक्रिया अवस्था अथवा ध्यान अवस्था कहा जाता है । खेचरी मुद्रा के अंतर्गत योगी अपनी जिह्वा ( जीभ ) को उल्टा कर तालू से पीछे हलक की ओर अधिक से अधिक बढ़ाने का अभ्यास करते हैं । तथा तालू से पीछे हलक की ओर जिह्वा को सटाकर आँखें बंद कर बैठ जाते हैं । इस क्रिया में उनको जिह्वा पर ध्यान पूर्वक नियन्त्रण बनाये रखना होता है । क्योंकि जिह्वा अपनी मूल अवस्था में आने का प्रयास करती रहती है । दूसरी ओर तंत्र मार्ग का साधक हो । या ध्यान मार्ग का साधक हो । उनको खेचरी मुद्रा स्वतः गठित होती है । क्योंकि अंततः वह भी ध्यान में प्रवेश करते हैं । लेकिन जो खेचरी मुद्रा घटित होती है । और जो खेचरी मुद्रा की विधि साधी जाती है । उन दोनो में अंतर है । जो स्वतः घटती है । उसमे जिह्वा तालू से स्वतः लग जाती है । और जिह्वा मुढ कर हलक की ओर नहीं खिंचती । साथ ही साधक ध्यान समाधि में प्रवेश कर जाता है । वास्तव में हमारे तालू के मध्य में 1 केन्द्र है । 1 स्रोत है । जैसे ही ऊर्जा उसको भेदती है । वैक्यूम बनता है । और जिह्वा तालू से चिपक जाती है । कबीर उस केन्द्र के लिए ही बोलते हैं - गगन बीच अमृत का कुंआ झरे सदा सुख कारी रे । तालू के मध्य वह स्रोत है । जहाँ से स्राव होता है ।
" ल " वर्णाक्षर नाद का मूलाधार चक्र और खेचरी मुद्रा दोनों से पूरक सम्बन्ध है । जब मैं इस स्तोत्र को टाइप कर रहा था । तब मैंने ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव किया । इसके उच्चारण में त्रुटि न हो । इसको ध्यान में रखकर मैंने इसको सन्धि विच्छेद द्वारा सरल कर दिया है । इसको लय के साथ उच्चारण करने से ही आनन्द की प्राप्ति होती है । तन्त्र शास्त्र के अनुसार कुण्डलनी शक्ति के जागरण और ऊर्ध्व गमन हेतु देवी ललिता त्रिपुर सुन्दरी की तंत्रोक साधना का प्रावधान है । ये स्तोत्र देवी ललिता की उपासना खण्ड से ही लिया गया है । श्री ललिता लकार सतनाम स्तोत्र इसका पूर्ण नाम है । ये स्तोत्र बहुत ही दुर्लभ है । वर्त्तमान काल में इसको खोजकर प्राप्त करना कठिन हैं ।
विधि - सर्वप्रथम इस स्तोत्र का साधक को कण्ठस्थ होना अति आवश्यक है । विधि प्रारम्भ करने से पूर्व इसको कण्ठस्थ कर लें । उच्चारण शुद्ध और लयबद्ध होना चाहिए ।
पहला चरण - सुखासन में बैठकर आँखें बन्द कर लें । पश्चात स्तोत्र का पाठ करें । पाठ करते समय 1-1 शब्द स्वयं श्रवण करते हुए उच्चारण करें । उच्चारण करते समय ध्यान जिह्वा पर सतत बना रहे । आप पायेंगे उच्चारण के समय जीभ बारबार तालू से स्पर्श करती है ।
दूसरा चरण - जिह्वा को ऊपर तालू से लगाकर बैठ जाएं । ध्यान पूर्वक जिह्वा को तालू से लगाये रखें । प्रारम्भ के दिनों में प्रयास से लगाये रखना पड़ेगा । किन्तु विधि जैसे जैसे सक्रिय होगी । जिह्वा का तालू से लगे रहना स्वाभाविक हो जायेगा । दूसरे चरण की अवधि 30 मिनट रहेगी ।
तीसरा चरण - शरीर को ढीला छोड़कर लेट जाएं । अवधि 10 मिनट रहेगी ।
विशेष - पहला चरण दिन में जब भी समय मिले । दुकान पर । आफिस में । बस में । कार में । उसको करें । पहला चरण दिन में कभी भी कितनी भी बार किया जा सकता है । सबसे महत्वपूर्ण पहला चरण है । ऐसा करने से दूसरा चरण जल्दी स्वताः घटेगा । किन्तु दिन में 1 बार पूर्ण विधि करनी आवश्यक है ।
श्री ललिता लकार स्तोत्र -
ललिता लक्ष्मी लोलाक्षी लक्ष्मणा लक्ष्मणार्चिता ।
लक्ष्मण प्राणरक्षणि लाकिनी लक्ष्मण प्रिया ।
लोला लकारा लोमेशा, लोल जिव्हा लज्जावती ।
लक्ष्या लाक्ष्या लक्ष रता लकाराक्षर भूषिता ।
लोल लयात्मिका लीला, लीलावती च लांगली ।
लावण्यामृत सारा च लावण्यामृत दीर्घिका ।
लज्जा लज्जा मती लज्जा, ललना ललन प्रिया ।
लवणा लवली लसा लाक्षकी लुब्धा लालसा ।
लोक माता लोक पूज्या, लोक जननी लोलुपा ।
लोहिता लोहिताक्षी च लिंगाख्या चैव लिंगेशी ।
लिंग गीती लिंग भवा, लिंग माला लिंग प्रिया ।
लिंगाभिधायिनी लिंगा लिंग नाम सदानन्दा ।
लिंगामृत प्रीता लिंगार्चन प्रीता लिंग पूज्या ।
लिंगरूपा लिंगस्था च, लिंगा लिंगन तत्परा ।
लता पूजन रता च लता साधक तुष्टिदा ।
लता पूजक रक्षणी, लता साधन सिद्धिदा ।
लता गृह निवासिनी लता पूज्या लता राध्या ।
लता पुष्पा लता रता लता धारा लता मयी ।
लता स्पर्श संतुष्टा, लता आलिंगन हर्षिता ।
लता विद्या लता सारा लता आचार लता निधि ।
लवंग पुष्प संतुष्टा लवंग लता मध्यस्था ।
लवंग लतिका रूपा लवंग होम संतुष्टा ।
लकाराक्षर पूजिता च लकार वर्णोदभवा ।
लकार वर्ण भूषिता लकार वर्ण रुचिरा ।
लकार बीजोदभवा तथा लकाराक्षर स्थिता ।
लकार बीज नीलया, लकार बीज सर्वस्वा ।
लकार वर्ण सर्वांगी लक्ष्य छेदन तत्परा ।
लक्ष्य धरा लक्ष्य घूर्णा, लक्ष्य जापेन सिद्धिदा ।
लक्ष कोटि रूप धरा लक्ष लीला कला लाक्ष्या ।
लोकपालेन अर्चिता च लाक्षा राम विलेपना ।
लोकातीता लोपा मुद्रा, लज्जा बीज रूपिणी ।
लज्जा हीना लज्जा मयी लोक यात्रा विधयिनी ।
लास्या प्रिया लये करी, लोक लया लम्बोदरी लघिमादि सिद्धि दात्री ।
लावण्य निधि दायिनी, लकार वर्ण ग्रथिता, लं बीजा ललिताम्बिका ।