02 जुलाई 2012

अनुराग सागर PDF format डाउनलोड लिंक

हमारे बहुत से ज्ञात अज्ञात पाठक स्नेहीजन समय समय पर इस सत्य ज्ञान के प्रचार प्रसार में अपनी भूमिका निभाते रहे हैं । काल पुरुष एण्ड फ़ैमिली - काल पुरुष उर्फ़ निरंजन । उसकी पत्नी महामाया उर्फ़ आदि शक्ति उर्फ़ महादेवी आदि । इन दोनों के तीनों पुत्र - बृह्मा । विष्णु । महेश । और इनके चेले चमचे 33 करोङ देवी देवता । जिन्होंने छोटे बङे तीर्थों के नाम पर ढोंग की अनेक धार्मिक दुकानें सजा रखी हैं । इस पूरी अखिल सृष्टि की सही शुरूआत और इस त्रिलोकी सत्ता ( जिसमें आप रहते हो ) का निर्माण कैसे हुआ ? सृष्टि की पहली औरत कौन थी ? काल पुरुष घुमा फ़िरा कर अनजाने में जिसकी आप विभिन्न रूपों में पूजा करते हो । इसकी और इसके पूरे परिवार की धूर्तता कपट चालाकी क्या है ? आदि आदि सनसनीखेज रहस्यों के सम्पूर्ण  और प्रमाणिक उत्तर जिस एकमात्र किताब में मिलते हैं । उसका नाम है । कबीर वाणी में - अनुराग सागर । अनुराग सागर जैसी दुर्लभ अनमोल किताब का बाजार मूल्य सिर्फ़ 100 रुपये हैं । हमारे बहुत से पाठक समय समय पर इसके PDF डाउनलोड लिंक का बेव एड्रेस माँगते रहे हैं । जो कि उस समय तक मेरे पास नहीं था । पर अब विदेश में कहीं रहने वाले योगेन्द्र जी ने कल इसका लिंक उपलल्ब्ध कराया है । अतः आप निम्नलिखित लिंक पर क्लिक करके अनुराग सागर को PDF format में डाउनलोड कर सकते हैं । इसकी डाउनलोड की हुयी अटैचमेंट फ़ाइल भी योगेन्द्र जी ने मुझे भेजी है । जिसको मैंने मेल फ़ोल्डर में सेव कर लिया है । अतः आपको अनुराग सागर को PDF format में डाउनलोड करने में कोई दिक्कत आ रही हो । तो मुझे मेल में लिखें । मैं ये मेल आपको forward कर दूँगा । मेरी सलाह है - आप एक बार इस अनमोल किताब को अवश्य पढें । लिंक - अनुराग सागर PDF format डाउनलोड ( क्लिक करें )
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योगेन्द्र जी का मेल - राजीव जी ! कृपया नीचे दिया हुआ लिंक देखें । आपका बहुत बहुत धन्यवाद् । आपके द्वारा जो काम हो रहा है । उससे लाखों आत्माओं का उद्धार हो रहा है । मैं भी उनमें से ही एक हूँ । मुझे इंडिया आने के बाद गुरूजी से हंस दीक्षा जरूर लेना हैं । ताकि मैं भी अपने असली घर । मालिक को जानकर उनके पास जा सकूँ ।  पुनः आपका धन्यवाद् - योगेन्द्र ।
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नीचे अनुराग सागर का एक अंश -
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कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! जिस प्रकार कोई नट बंदर को नाच नचाता है । और उसे बंधन में रखता हुआ अनेक दुख देता है । इसी प्रकार ये मन रूपी काल निरंजन जीव को नचाता है । और उसे बहुत दुख देता है । यह मन जीव को भृमित कर पाप कर्मों में प्रवृत करता है । तथा सांसारिक बंधन में मजबूती से बाँधता है । मुक्ति उपदेश की तरफ़ जाते हुये किसी जीव को देखकर मन उसे रोक देता है । इसी प्रकार मनुष्य की कल्याणकारी कार्यों की इच्छा होने पर भी यह मन रोक देता है । मन की इस चाल को कोई बिरला पुरुष ही जान पाता है ।
यदि कहीं सत्य पुरुष का ज्ञान हो रहा हो । तो ये मन जलने लगता है । और जीव को अपनी तरफ़ मोङ कर विपरीत बहा ले जाता है । इस शरीर के भीतर और कोई नहीं है । केवल मन और जीव ये 2 ही रहते हैं । 5 तत्व और 5 तत्वों की 25 प्रकृतियाँ । सत रज तम ये 3 गुण और 10 इन्द्रियाँ ये सब मन निरंजन के ही चेले हैं ।
सत्य पुरुष का अंश जीव आकर शरीर में समाया है । और शरीर में आकर जीव अपने घर की पहचान भूल गया है । 5 तत्व । 25 प्रकृति 3 गुण और मन इन्द्रियों ने मिलकर जीव को घेर लिया है । जीव को इन सबका ज्ञान नहीं है । और अपना ये भी पता नहीं कि - मैं कौन हूँ ? इस प्रकार से बिना परिचय के

अविनाशी जीव काल निरंजन का दास बना हुआ है ।
जीव अज्ञान वश खुद को और इस बंधन को नहीं जानता । जैसे तोता लकङी के नलनी यंत्र में फ़ँसकर कैद हो जाता है । यही स्थिति मनुष्य की है । जैसे शेर ने अपनी परछाईं कुँए के जल में देखी । और अपनी छाया
को दूसरा शेर जानकर कूद पङा । और मर गया । ठीक ऐसे ही जीव काल माया का धोखा समझ नहीं पाता । और बंधन में फ़ँसा रहता है । जैसे काँच के महल के पास गया कुत्ता दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखकर भौंकता है । और अपनी ही आवाज और प्रतिबिम्ब से धोखा खाकर दूसरा कुत्ता समझकर

उसकी तरफ़ भागता है । ऐसे ही काल निरंजन ने जीव को फ़ँसाने के लिये माया मोह का जाल बना रखा है ।
काल निरंजन और उसकी शाखाओं ( कर्मचारी देवताओं आदि ने ) ने जो नाम रखे हैं । वे बनाबटी हैं । जो देखने सुनने में शुद्ध माया रहित और महान लगते हैं । पर बृह्म परा शक्ति आदि आदि । परन्तु सच्चा और मोक्षदायी केवल आदि पुरुष का आदि नाम ही है ।
अतः हे धर्मदास ! जीव इस काल की बनायी भूल भूलैया में पङकर सत्य पुरुष से बेगाना हो गये । और अपना भला बुरा भी नहीं विचार सकते । जितना भी पाप कर्म और मिथ्या विषय आचरण है । ये इसी मन निरंजन का ही है । यदि जीव इस दुष्ट मन निरंजन को पहचान कर इससे अलग हो जाये । तो निश्चित ही जीव का कल्याण हो जाय ।
यह मैंने मन और जीव की भिन्नता तुम्हें समझाई । जो जीव सावधान सचेत होकर ज्ञान दृष्टि से मन को देखेगा । समझेगा ।  तो वह इस काल निरंजन के धोखे में नहीं आयेगा । जैसे जब तक घर का मालिक सोता रहता है ।

तब तक चोर उसके घर में सेंध लगाकर चोरी करने की कोशिश करते रहते हैं । और उसका धन लूट ले जाते हैं ।
ऐसे ही जब तक शरीर रूपी घर का स्वामी ये जीव अज्ञान वश मन की चालों के प्रति सावधान नहीं रहता । तब तक मन रूपी चोर उसका भक्ति और ज्ञान रूपी धन चुराता रहता है । और जीव को नीच कर्मों की ओर प्रेरित करता रहता है । परन्तु जब जीव इसकी चाल को समझ कर सावधान हो जाता है । तब इसकी नहीं चलती ।
जो जीव मन को जानने लगता है । उसकी जागृत कला ( योग स्थिति ) अनुपम होती है । जीव के लिये अज्ञान अँधकार बहुत भयंकर अँध कूप के समान है । इसलिये ये मन ही भयंकर काल है । जो जीव को बेहाल करता है ।
स्त्री पुरुष मन द्वारा ही एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं । और मन उमङने से ही शरीर में कामदेव जीव को बहुत सताता है । इस प्रकार स्त्री पुरुष विषय भोग में आसक्त हो जाते है । इस विषय भोग का आनन्द रस काम इन्द्री और मन ने लिया । और उसका पाप जीव के ऊपर लगा दिया । इस प्रकार पाप कर्म और सब अनाचार कराने वाला ये मन होता है । और उसके फ़लस्वरूप अनेक नरक आदि कठोर दंड जीव भोगता है ।

दूसरों की निंदा करना । दूसरों का धन हङपना । यह सब मन की फ़ाँसी है । सन्तों से वैर मानना । गुरु की निन्दा करना । यह सब मन बुद्धि का कर्म काल जाल है । जिसमें भोला जीव फ़ँस जाता है ।
पर स्त्री पुरुष से कभी व्यभिचार न करे । अपने मन पर सयंम रखे । यह मन तो अँधा है । विषय विष रूपी कर्मों को बोता है । और प्रत्येक इन्द्री को उसके विषय में प्रवृत करता है । मन जीव को उमंग देकर मनुष्य से तरह तरह की जीव हत्या कराता है । और फ़िर जीव से नरक भुगतवाता है ।
यह मन जीव को अनेकानेक कामनाओं की पूर्ति का लालच देकर तीर्थ वृत तुच्छ देवी देवताओं की जङ मूर्तियों की सेवा पूजा में लगाकर धोखे में डालता है । लोगों को द्वारिका पुरी में यह मन दाग ( छाप ) लगवाता है । मुक्ति आदि की झूठी आशा देकर मन ही जीव को दाग देकर बिगाङता है ।
अपने पुण्य कर्म से यदि किसी का राजा का जन्म होता है । तो पुण्य फ़ल भोग लेने पर वही नरक भुगतता है । और राजा जीवन में विषय विकारी होने से नरक भुगतने के बाद फ़िर उसका सांड का जन्म होता है । और वह बहुत गायों का पति होता है ।


पाप और पुण्य 2 अलग अलग प्रकार के कर्म होते हैं । उनमें पाप से नरक और पुण्य से स्वर्ग प्राप्त होता है । पुण्य कर्म क्षीण हो जाने से फ़िर नरक भुगतना होता है । ऐसा विधान है । अतः कामना वश किये गये यह पुण्य का यह कर्म योग भी मन का जाल है । निष्काम भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है । जिससे जीव का सब दुख द्वंद मिट जाता है ।
हे धर्मदास ! इस मन की कपट करामात कहाँ तक कहूँ । बृह्मा विष्णु महेश तीनों प्रधान देवता शेषनाग तथा 33 करोङ देवता सब इसके फ़ँदे में फ़ँसे और हार कर रहे । मन को वश में न कर सके । सदगुरु के बिना कोई मन को वश में नहीं कर पाता । सभी मन माया के बनाबटी जाल में फ़ँसे पङे हैं ।

11 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

aise updesh kyoi satpurush hi kar saktha hai. Sant kabir ji ke upesh mukti ka dwar hai.
Yeh man ki karni jeev ko avagamno me dalthi hai. Aur 84ke chkar me bandkar Rakthi hai.
yeh kaal ka mayajaal hai

Unknown ने कहा…

http://xa.yimg.com/kq/groups/26166410/1543496589/name/19+Anuragsagar+Vaani.pdf


downland nhi ho rhi guruji

Unknown ने कहा…

http://xa.yimg.com/kq/groups/26166410/1543496589/name/19+Anuragsagar+Vaani.pdf
downland kese karen guruji

Unknown ने कहा…

अनुराग सागर को PDF format में डाउनलोड करने में कोई दिक्कत आ रही है

Unknown ने कहा…

अनुराग सागर को PDF format में डाउनलोड करने में कोई दिक्कत आ रही है

Unknown ने कहा…

Han pdf download load Nahi ho Raha hai

Unknown ने कहा…

हा आ रही है

Unknown ने कहा…

Haan aa rahi he

Unknown ने कहा…

Anurag sagr

Unknown ने कहा…

Download nhi ho rahi

सनातन धर्म ने कहा…

भोसड़ी के पहले 33 कोटि देवता को जनना सिख मिलावट कबीर सागर यहां मत दिखा
मदेरचोद तुम जो भी हो फर्जी कबीर पंथी हो