27 सितंबर 2011

श्री महाराज जी के साथ रहने वाले सन्त

                                        ध्यान अवस्था में
                                              ध्यान अवस्था में


                                   श्री महाराज जी के साथ रहने वाले सन्त


                                            सुखी रहो बेटा ।


                                           आशीर्वाद । 


                                     कुलदीप को आशीर्वाद देते हुये 


                                               कुलदीप को आशीर्वाद 




                                    आशीर्वाद । मदन को


                                          आयुष्मान भव


                                         सुखी रहो बेटा ।



                                                                       आशीर्वाद 


                                              सांयकालीन चिंतन 


                                                  लालडू के मदन



                                             इतने खुश क्यों हो भाई मदन

25 सितंबर 2011

क्या आप वाकई पौरुषत्व क्षमता वाले हैं

श्रीमान जी को सत सत वन्दन । मैं जानना चाहता हूँ कि क्या आप किन्ही ऐसे महान जीवित आत्मा के बारे में बता सकते हैं । जो इस विध्या में प्रयोग में आने वाले पदार्थों की सही प्राप्ति स्थानों के बारे में बता सकें । " सोना बनाने के रहस्यमय नुस्खे 3 " पर एक टिप्पणी । द्वारा - सिद्धार्थ ।
 - सिद्धार्थ जी ! संभवतः कृतिम सोना बनाने के उन पदार्थों के नामों से आपने उन्हें अति दुर्लभ पदार्थ समझ लिया है । जबकि ऐसा कुछ भी नहीं हैं । ये सभी पदार्थ मार्केट में सहज उपलब्ध हैं । इस क्षेत्र में शोध और खोजबीन करने से आप उन्हें शुद्धता की दृष्टि से उनकी जङ यानी प्राप्ति स्थानों से मूल रूप में भी प्राप्त कर सकते हैं । जैसा कि मैंने लेख में लिखा भी है कि - बस ये इनके प्राचीन

और संस्कृत भाषा में नाम हैं । अभी इनके नाम दूसरे रूपों में कई हो सकते हैं । इनमें ज्यादातर रसायन हैं । कच्ची धातुयें हैं । और वृक्ष जङी बूटियों से प्राप्त दृव्य आदि हैं । ये शोध करना भी कोई कठिन नहीं हैं । आप किसी अच्छी लाइब्रेरी के सदस्य बन जाईये । और फ़िर उसमें प्राचीन गृन्थों का अध्ययन कीजिये । जिनमें रसायन विध्या का ज्ञान हो । धातु विध्या का ज्ञान हो । सोना आदि अन्य महत्वपूर्ण चीजें इसी रसायन विध्या के अन्तर्गत आती हैं ।
इसके अतिरिक्त बहुत से प्रकाशन प्राचीन दुर्लभ ग्रन्थ प्रकाशित करते हैं । आप उन्हें पत्र लिखकर सूची मँगाकर

अपनी वांछित पुस्तकों का चयन कर सकते हैं । और डाक द्वारा अग्रिम मूल्य भेजकर आसानी से मंगा सकते हैं । इंटरनेट पर खोजने से भी ऐसी पुस्तकों और प्रकाशनों के बारे में जानकारी मिल सकती है ।
दूसरे इस क्षेत्र में सफ़लता पाने के लिये आपको सुनारगीरी की ठोस जानकारी होना अति आवश्यक है । इनमें से बहुत सी चीजें तो सुनारों को ही मालूम रहती हैं । दूसरे आप शीशा तांवा रांगा पारा आदि धातुओं को कैसे मिलाते हैं । ये भी जान सकेंगे ।
दूसरे इन नामों को लेकर आप परेशानी अनुभव कर रहे हैं । तो हिन्दी शब्दकोश । संस्कृत शब्दकोश । रसायन शब्दावली । धातु ज्ञान शब्दावली से संबन्धित पुस्तकें निश्चय ही आपकी परेशानियाँ दूर कर देंगी । बाकी आपने इस ज्ञान को जानने वाले किसी महान आत्मा के बारे में पूछा है । वो क्यों कर आपकी सहायता करेगा ? ऐसे लोगों के पास हजार लोग रोज मिन्नत करते हुये आते हैं । दुखङा सुनाते हैं । कौन है । जो दुखी नहीं है । कौन है । जो शार्टकट से धनी होकर सुखी नहीं होना चाहता । फ़िर आप में ऐसा क्या खास है ? जो वो आपको हाथों हाथ लेगा । ऐसी हस्तियाँ बङी मेहनत से यहाँ तक पहुँचती हैं । अतः वे उसका मूल्य समझती हैं । ये सब गुप्त मैटर होता है । वे अपना फ़ार्मूला क्यों किसी को बताने लगे । फ़ार एग्जाम्पल ! चलिये मैं आपसे कहता हूँ । रामपुर में

विध्यानिवास इसके जानकार हैं । अब आप मुझे कुछ प्वाइंट ऐसे बताईये । जिससे आप उनसे लाभ प्राप्त कर सकेंगे । अगर आपके प्वाइंट दमदार हुये । तो निश्चय ही मैं आपको सही ठीये पर पहुँचा दूँगा । अब कामन रूप से उत्तर नीचे भी देखें ।
2 - श्रीमान राजीव जी ! आपके ब्लॉग पर यक्षिणी के बारे में जानकारी मिली थी । मुझे भी एक यक्षिणी दिलवा दो । मुझे उसकी बहुत जरुरत है । कृपया मुझे बताये कि वो कैसे मिलेगी ? भूपेन्द्र । ई मेल से ।
देखिये भूपेन्द्र जी ! हमारे मण्डल में सिर्फ़ आत्मज्ञान की हँसदीक्षा ही होती है । लेकिन फ़िर भी यक्षिणी टायप सिद्धि के लिये इंसान को पहले भी थोङी मान्त्रिक पूजा का अनुभव होना चाहिये । सच्चे साधुओं की संगति और शंकर आदि देवता की दिव्य उपासना का ज्ञान । तब 


ऐसी सिद्धियाँ सफ़ल होती हैं । दूसरे ये सीधे सीधे नहीं होती । इनका सिद्ध गुरु होना चाहिये । क्योंकि ऐसी लालच वाली साधनायें सफ़ल कम और विपरीत परिणाम अधिक देती हैं । अतः मैं आपको अपनी तरफ़ से इनसे दूर ही रहने को कहूँगा । क्योंकि यह सब साधारण इंसानों के लिये नहीं हैं । ऐसी साधनाओं से पहले तन्त्र मन्त्र का फ़ंडामेंटल कोर्स आवश्यक होता है । हाँ हँस दीक्षा में इससे भी बेहतर एक नव निधि अष्ट सिद्धि साधना लय योग में बनती है । उसमें इससे कई गुना प्राप्त होता है । और उसमें खतरा भी नहीं । करना भी बहुत आसान । बाकी आपको साधनाओं के बारे में क्या नालेज है । इस पर निर्भर है ।
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मेरे पास अक्सर ही ऐसे मेल और फ़ोन काल आते हैं । जिनमें इंसान जिन्दगी में बुरी तरह असफ़ल होकर आत्महत्या करने की स्थिति में पहुँच चुका होता है । और तुरन्त एक चमत्कार जैसी सहायता अपेक्षा मुझसे चाहता है । तब सबसे पहली बात तो यही है कि - मैं आपकी कोई भी सहायता क्यों करूँ ? जबकि आप सहायता के किसी भी नियम में नहीं आते ।
फ़िर भी मैं उनसे कह देता हूँ । चलिये आप आगरा आ जाईये । फ़िर बात करते हैं । तब उनका कहना होता है । हम आगरा भी आने की स्थिति में नहीं हैं । आप दिल्ली बिहार गुजरात महाराष्ट्र अमेरिका दुबई..( जहाँ का भी रहने वाला हो ) आदि की तरफ़ नहीं आते । आप ही आ जाईये ना । अब देखिये । कितनी मजे की बात है । मरने की ठाने बैठा इंसान यहाँ भी 


शार्टकट चाहता है । इनका तो शायद भगवान भी भला नहीं कर सकता । मुझे एक जिन्न वाधा पीङित हालिया विधवा युवा लेडी 35 के फ़ोन की याद है । जिसका पूरा परिवार ही जिन्न से प्रभावित था । और उसके अनुसार उसके परिवार में कई रहस्यमय मौतें हो चुकी थीं । और अब सिर्फ़ चार लोग ही बचे थे । मैंने कहा - आप आगरा आ जाईये । एक सेक्सी हँसी...और उसके बाद - आप कभी ( शहर का नाम ) नहीं आते क्या ? मैंने मन में सोचा । अभी नेक्स्ट टाइम की फ़र्स्ट फ़्लायट भी बुक होती । तो फ़ौरन केंसिल करवा देता ।
खैर ..मैंने कहा । वो जिन्न आपसे क्या चाहता है ? मतलब उसका बिहेव क्या है ? साउथ की सेक्सी हीरोईन सिल्क स्मिता भी फ़ेल हो जाये । ऐसी हँसी और सेक्सी आवाज - वो मुझसे शादी करना चाहता है ? कहता है - तुझे छोङूँगा नहीं । अपनी बनाकर ही मानूँगा ।
अब मजे की बात यह थी कि इस chat में दूसरी तरफ़ से भय की फ़ीलिंग कहीं नहीं थी । बल्कि लग रहा था कि बङे अरमानों से वेट हो रहा हो । कब शादी हो । और कब भूतिया हनीमून । और मुझे सिर्फ़ शादी में इनवाइट किया जा रहा हो । फ़िर मैं कौन सा कम हूँ । मैं भी मजा लेता हूँ ।
अब आ जाईये । यक्षिणी की बात पर । एक यक्षिणी ने मुझसे शिकायत की - ये आप कैसे कैसे आदमियों को यक्षिणी सिद्ध करवा देते हो । वो तुम्हारा विनोद त्रिपाठी । दो मिनट में ही धराशायी हो जाता है । उससे बोलो । दोबारा दण्ड वण्ड पेले । तब मेरे को काल करे । आगे से ऐसे बांगङू को मत भेजना । अब आप त्रिपाठी जी के गायब होने का रहस्य समझ गये होंगे ।

जीवन में किसी प्रकार की आवश्यकता हो । या भोग विलास हो । इसकी चाहत किसे नहीं होती । सभी राजा बनना चाहते हैं । पर इसके लिये पात्रता होनी कितनी आवश्यक है । इस तरफ़ किसी का ध्यान नहीं जाता । एक बेहद गरीब अनपढ गन्दे आदमी को instant राजा बना दिया जाय । तो क्या वो एक दिन भी राज चला सकता है ? निश्चित ही बिना पात्रता के एक घण्टा भी नहीं । शार्टकट की बात पूरी खामख्याली ही है । बहुत जल्दी उगने वाली सरसों भी हथेली पर नहीं उगायी जा सकती । एक फ़लते फ़ूलते वृक्ष को देखकर अन्दाज लगाईये । ये कितने समय और कितनी स्थितियों परिस्थितियों के बाद फ़ला फ़ूला है ।
द्वैत पर मेरे लेखों को देखकर कई लोगों ने ऐसे कामना से भरे मेल भेजे । जो ऐसी किसी यक्षिणी वगैरह को शीघ्र हासिल करना चाहते थे । मेरी उन्हें यही राय है । आप यक्षिणी को बाद में ट्राइ करना । पहले सामान्य हस्तिनी शंखिनी वर्ग की अतृप्त स्त्रियाँ जो मुक्त और उन्मुक्त भोग की अभिलाषी हैं । और जिनकी समाज में भरमार है । और वे फ़्री स्टायल ऐसों की खोज में ही है । आप इनसे परिचय कर अपनी क्षमता का आँकलन करिये । क्या आप वाकई पौरुषत्व क्षमता वाले हैं । या सिर्फ़ आप कल्पना में जीते हैं । मन की अभिलाषा अलग चीज है । और शरीर की काम क्षमता अलग । मन की कामेच्छा का क्या कहना । ये कब्र में पैर लटकाये बूङों की भी आपसे ज्यादा जवान और उमंग युक्त होती है । पर उन्हें यदि उफ़नती तरुणी उपलब्ध करा दी जाये । तो वे ठीक से उसे आलिंगित भी कर पायेंगे ?
एक साधारण लङका लङकी की शादी हेतु भी कितनी तैयारियाँ उबटन । श्रंगार । तन्त्र ( विवाह विधि ) मन्त्र ( वैवाहिक पूजा ) रीति रिवाज ( नियम ) अपनाये जाते हैं । तब एक लम्बी प्रकिया के बाद उन्हें दो मिनट ( पुरुष की काम क्षमता ) की सुहागरात हासिल होती है ।
और ये एक कङबा सच है कि अधिकांश अपनी पूर्व कल्पना से पहले ही इतना आवेशित हो चुके होते हैं कि परदा उठने से पहले ही नाटक खत्म हो जाता है । और पराजित हुये योद्धा के समान उसमें दोबारा शस्त्र उठाने की हिम्मत नहीं होती । या कहिये । ऐन युद्धभूमि में शस्त्र ही दगा दे जाता है ।
जब एक साधारण लङकी जो कामकला में अभी प्रवीण नहीं है । आप उसके भी सही पात्र नहीं हैं । तो फ़िर योग स्त्रियाँ तो विलक्षण होती हैं । वास्तव में उनकी एक मादक अंगङाई और कटाक्ष ही आपको पिघली बर्फ़ की तरह बहा देगा । तब सोचिये । आपकी स्थिति क्या होगी ??
- ध्यान रहे । ये उत्तर सामूहिक रूप से इस विषय पर लेख है । इसे व्यक्तिगत उत्तर न समझें । किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाना मेरा उद्देश्य नहीं हैं ।

23 सितंबर 2011

पत्नी और प्रेमिका

ये दोनों बातें मुझे पता नहीं । किसने कही हैं । पर जिसने भी कही हैं । दमदारी से कही हैं । अनुभव से कही हैं । आप भी सुनिये - कुदरत में प्रीत की । रीति भी अजीव है । दिल आया गधी पर । तो परी क्या चीज है ।
इसी के ठीक विपरीत सी भी एक बात किसी दिलजले ने नहले पर दहला मारा है - अजब तेरी दुनियाँ का । अजब दस्तूर है । लंगूर की गोद में । जन्नत की हूर है ।
मुझे लेखक श्री राजेन्द्र यादव की एक कविता भी याद आती है । जिसके शब्द पूरी तरह मुझे याद नहीं । पर जिसका भाव यह था - प्रेमिकायें कभी पादती नहीं । उनकी नाक भी नहीं बहती ।
पत्नी और प्रेमिका - ये दो शब्द । ये दो जरूरतें । ये दो चाहतें । ये दो लक्ष्य । ये दो मुकाम । अच्छी खासी हसरत होने के बाद भी मेरे लिये अहम होते हुये भी परिस्थिति वश उदासीन ही रहे । किसी सजा पाये कैदी की तरह । किसी मजबूरी में फ़ँसे बँधुआ मजदूर की तरह भी ।

योग के आंतरिक ज्ञान में आने के बाद जब कभी फ़ुरसत के क्षणों में मैंने इन दो महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर विचार किया । बल्कि दूर दूर तक पीछे मुढकर देखा । तो मैं लगभग 10 000 साल पीछे तक गया । और मुझे हैरानी हुयी कि बीते 10 000 वर्ष के जीवन चक्र में स्त्री के नाम पर न तो मेरी जिन्दगी पत्नी  थी । और न ही प्रेमिका । हाँ 1400 वर्ष पहले एक मामूली हवा के झोंके के समान एक असफ़ल प्रेम अवश्य हुआ था ।
दरअसल 10 000 - 90 वर्ष पहले मैं मनुष्य देह में था । उसके बाद लम्बा समय 84 और अन्य स्थितियों में बिताने के बाद मैं 1400 वर्ष पहले कुछ समय के लिये मनुष्य हुआ । इससे थोङा और भी पहले 1700 वर्ष पूर्व भी कुछ समय के लिये 


मनुष्य देह में रहा । तब भी एक अतृप्त और मिलन रहित प्रेम ही हुआ । आश्चर्य की बात थी कि पत्नी मेरे जीवन में पिछले 10 000 वर्षों में नहीं थी । इसके बाद अभी पिछले लगभग 250 वर्षों से मैं तीन बार लगातार योगयात्री के रूप में जन्म ले चुका । और हर बार अंतिम परीक्षा में फ़ेल हो गया । सेक्स । धन । मान प्रतिष्ठा आदि रूपी अभिमान से जुङी चाहतें बङे से बङे योगी को अन्त में फ़ेल कर देती हैं । फ़िर मैं भी कोई अफ़लातून नहीं था । औरों की तरह मैं भी फ़ेल हो गया । लेकिन परम लक्ष्य के प्रति पत्नी प्रेमिका या अन्य चाहतों से अधिक चाहत मुझे शाश्वत सत्य को जानने की ही थी । और पिछले योग अनुभव या पुण्य कह लीजिये । ये चौथा जन्म मुझे मनुष्य का मिला । और तब मैं एक लम्बे भटकाव के बाद निश्चित स्थिति पर आया ।
निश्चित स्थिति.. शब्द का प्रयोग इसलिये कर रहा हूँ । क्योंकि योग में एक स्थिति खाण्डे की धार पर चलना होता है । जिसके लिये कबीर साहब ने कहा - ज्ञान का पंथ कृपाण की धारा । इसको व्यवहारिक रूप में कसौटी पर चढना भी कह सकते हैं । इसकी स्थिति को ठीक से समझने के लिये आप गन्ने से मिश्री बनने तक की कष्टदायक स्थितियों से तुलना कर सकते हैं । ये बहुत ऊँची दुर्लभ स्थिति है । जो हरेक को नहीं मिलती । बल्कि पात्र का चयन करके दी जाती हैं ।

अतः अब मैं गन्ने की तरह कोल्हू में पिरता हुआ खुद को बेहद सुखी महसूस कर रहा हूँ । क्योंकि ये वह स्थिति होती है । जिसके बाद पतन या डिमोशन नहीं हो सकता । अब मेरा जूस निकलना ही निकलना है । और निकल रहा है । अतः निश्चित स्थिति.. शब्द का प्रयोग यहाँ सटीक हो जाता है । यह ठीक उसी तरह है । जिस तरह कोई महत्वाकांक्षी अति गरीब इंसान अपनी अथक मेहनत के बलबूते पर उच्च शिक्षा दीक्षा प्राप्त करके उच्च पद स्थिति को पाता है । और अभी पूर्व ट्रेनिंग में चल रहा है ।
जाहिर है । अपनी अब तक की मजबूरियों के चलते वह न तो पत्नी के बारे में सोच सका । न प्रेमिका के बारे में कोई इच्छा करता हुआ भी किसी से प्रेम ही कर पाया । और जब वह एक स्थायी सन्तुष्टि पूर्ण स्थिति को प्राप्त होने वाला हो । तब दिल में दबे अरमानों का मचलना अंगङाई लेना स्वाभाविक ही है ।
सो पिछले कुछ समय से स्वाभाविक ही मैं भी ऐसे ही भावों से गुजर रहा हूँ । कौन होगी मेरी प्रेमिका ? कैसी होगी ? कौन होगी मेरी पत्नी ? और कैसी होगी ?
पर ये जीवन लीला बङी विलक्षण है । ज्ञान रहित जीवन में पूर्व के वासनात्मक संस्कार से पत्नी या प्रेमिका वासना देही यानी मनुष्य रूपा मिलती है । तब आकर्षण होता है । और फ़िर प्रेम की परिणति यानी प्रेम रूपी पौधा फ़लने फ़ूलने लगता है । लेकिन ज्ञानयुक्त जीवन में यह चयन करना मिलना सिर्फ़ कठिन ही नहीं । बल्कि होता ही नहीं है । ज्ञानयुक्त जीवन में किसी ज्ञानी की पत्नी और प्रेमिका भी उसी स्थिति की भक्त और पहुँच वाली ही हो सकती है । जिसका स्तर कम से कम उच्च देवी वाला हो । क्योंकि तभी वह शाश्वत सत्ता में कोई स्थान या निवास प्राप्त कर सकती है ।

अतः सीधी सी बात है । किसी युवा लङके लङकी की तरह अभी मैं भी सिर्फ़ कल्पना ही कर सकता हूँ । कौन है । कैसी है.. वो । जाने कहाँ हैं ? मेरे सपनों में आये । आ के मुझे छेङ जाये । इसलिये अभी..तुझे देखा तो ये जाना सनम । प्यार होता है दीवाना सनम । अब यहाँ से कहाँ जाय हम । एक दूजे के हो जायं हम । तो कहना तो दूर । सोच भी नहीं सकता । और इसके बाद..डोली सजा के रखना । मेंहदी लगा के रखना । लेने तुझे आयेंगे । ओ गोरी तेरे सजना ..तो और भी बहुत दूर की बात है । इसलिये आप लड्डू खाने के लिये अभी से लार मत टपकाईये ।
खैर..मुंगेरीलाल के हसीन सपनों की तरह स्त्री के इन दो रूपों पत्नी और प्रेमिका पर मैंने पिछले दिनों में कई बिन्दुओं पर विचार किया । और ज्ञान के आदि धरातल पर जाकर स्त्री और पुरुष को नजदीक से देखा । पहली स्त्री । और पहला पुरुष । इसको दो तरह से कह सकते हैं । चेतन पुरुष और उसकी भावना से उसी से अर्धाग होकर प्रकट हुयी प्रकृति रूपा स्त्री । ये एक अलग और बहुत ही गहन मामला है । इस पर फ़िर कभी बात करेंगे । लेकिन अभी इतना जान लें कि ये दोनों पूर्ण थे । पूर्ण पुरुष । और पूर्ण स्त्री । एक दूसरे को परस्पर अपने स्तर से पूर्णता से भरने वाले । और सन्तुष्ट करने वाले । एक दूसरे के पूरक ।
अब सृष्टि रचना पर आते है । तब काल पुरुष और अष्टांगी । ये दो सबसे पहले स्त्री पुरुष हुये । जिनमें परस्पर काम उत्पन्न हुआ । ये दोनों चेतन पुरुष और प्रकृति स्त्री की प्रतिकृति यानी जेराक्स कापी थे । लेकिन मैंने कहा । पहला वाला मामला बहुत विलक्षण सा अलग सा है । अतः इन्हें ही पहला स्त्री पुरुष मानिये । ये उनके तुलनात्मक पूर्ण न होकर क्षीण थे । इनकी मर्यादायें निहित थी । बाद में इनकी ही तमाम 


संतति हुयी । जो कृमशः गुण कलाओं में पतित होकर क्षीण दर क्षीण ही होती गयी । और यही सबसे बङा सृष्टि के स्त्री पुरुषों के वासनात्मक भटकाव का रहस्य है कि स्त्री विभिन्न संसारी पुरुषों में खोजती हुयी सी उसी पूर्ण पुरुष की तलाश कर रही है । जो पूर्ण आदि पुरुष था । और पुरुष संसारी स्त्रियों में उसी स्त्री को तलाश कर रहा है । जो पूर्ण आदि स्त्री थी । बस इसी तलाश के चलते अनन्त काल से ये वासना संसार बसता उजङता रहता है । पर तलाश पूरी नहीं हुयी । और परस्पर सभी जोङे एक दूसरे से असन्तुष्ट से रहते हुये नये मनवांछित प्रेमी की हसरत भरी तलाश लिये बारबार जन्मते मरते रहते हैं ।
अब इस रामलीला को भी छोङकर सीधे राधा कृष्ण पर आ जाईये । जिस मानसिक उथल पुथल के चलते मैंने ये लेख लिखा । वो उथल पुथल यही थी कि - क्या पत्नी कभी प्रेमिका हो सकती है ? या एक प्रेमिका कभी पत्नी हो सकती है ? विपरीत भाव में इसको पति या प्रेमी समझ लें । तो मेरा वृहद अध्ययन शोध और अनुभव से निकला जबाब यही था । प्रेमिका कभी पत्नी नहीं हो सकती । और पत्नी कभी प्रेमिका नहीं बन सकती । ये रूपान्तरण होने का अर्थ ही है । किसी एक का मर जाना । प्रेमिका के पत्नी बनते ही उसके अन्दर की प्रेमिका निश्चित ही मर जायेगी । तो फ़िर पत्नी के तो प्रेमिका होने का प्रश्न ही नहीं ।
ओशो ने इसी बात को इस तरह कहा है - प्रेम को कभी बाँधो मत । उसे मुक्त रहने दो । क्योंकि बाँधते ही प्रेम मर जायेगा । जैसे ही अधिकार जताया । प्रेम खत्म । प्रेम को उन्मुक्त ही रहने दो ।
अब राधा कृष्ण पर विचार करें । वो इसलिये क्योंकि प्रेमी प्रेमिका की पूर्णता के मामले में अखिल सृष्टि में सबसे

टाप जोङी यही है । राधा एक पूर्ण प्रेमिका । कृष्ण एक पूर्ण प्रेमी । अब गहराई से सोचिये । एक प्रेमिका कितनी महत्वपूर्ण होती है ? कृष्ण की प्रमुख आठ पत्नियों की तुलना में प्रेमिका राधा का स्थान सदैव सबसे ऊँचा रहता है । अगर प्रेमिका की तुलना में पत्नी ज्यादा बङी और महत्वपूर्ण होती । तो राधा निश्चय ही कृष्ण से कब की शादी कर लेती । लेकिन उसे मालूम है । विवाह होते ही उसके अन्दर की प्रेमिका मर जायेगी । कृष्ण भी जानते हैं । अतः ये प्रेम युगों युगों से सदा जवान है ।
अतः मैं पिछले दिनों से बङी गम्भीरता से पत्नी बनाम प्रेमिका के इन्हीं गूढ तत्वों का निरन्तर चिन्तन कर रहा था । क्योंकि आगामी कुछ समय में ही मेरे अस्तित्व की किताब में ये दो अध्याय भी जुङने वाले हैं । ये बङी अजीव बात है । पत्नी भी अपनी जगह बेहद महत्वपूर्ण है । उसका बेहद सम्मानजनक स्थान है । और फ़िर दूसरे दृष्टिकोण से प्रेमिका भी बहुत महत्वपूर्ण है । एक बङी जरूरत है । क्योंकि उसके न होने से जीवन की सभी उमंगे ही मर जाती है । अब मुश्किल बात ये है कि - एक ही स्त्री में ये दोनों कभी किसी हालत में नहीं हो सकती ।
इसलिये सांसारिक जीवन में धन शक्ति पद आदि से समर्थ पुरुष , राजाओं आदि के जीवन में पत्नी और प्रेमिका दोनों ही सदैव रही हैं । और वे अलग अलग थी । पत्नी अलग । प्रेमिका अलग । देव पुरुषों और अन्य योग पुरुषों में तो इन दोनों का निश्चित ही स्थान रहा है । क्योंकि वे सांसारिक पुरुष की तुलना में धातु और तत्व स्तर पर बेहद सबल होते है । उनकी पौरुष क्षमता अद्वितीय होती है ।


चलिये आज इतना ही । ये प्रेम कथा आगे भी जारी रहेगी । इस शुरूआत के बाद इसके और भी महत्वपूर्ण पहलूओं पर चर्चा होगी ।
और अन्त में - अभी मेरे दिमाग में ये ख्याल आया कि मैं प्रत्येक लेख में फ़ोटो छापता ही हूँ । और आप लोग अपने क्वेश्चन मेल में साथ में फ़ोटो भेजते ही हो । तब ये जरूरी नही कि आप अपने प्रश्नों के साथ ही फ़ोटो भेजें । आप अलग से भी अपने विभिन्न आकर्षक फ़ोटो जितने चाहे भेज सकते हैं । जिन्हें मैं अपने स्तर पर लिखे जाने वाले लेखों में छापूँगा । इस तरह आपका ये ब्लाग फ़ालतू अपरिचित से फ़ोटो के बजाय हमारे अपने परिचित लोगों के चित्रों से एक खूबसूरत एलबम की तरह सजा नजर आयेगा । और तब इसको बारबार देखने की इच्छा होगी ।
- आप सभी के अंतर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को मेरा सादर प्रणाम ।

19 सितंबर 2011

ये ऊर्जा असल में क्या होती है ? कामिनी

आप सभी लोगों को बता दूँ । नयी प्रेत कहानी " प्रसून का इंसाफ़ " स्वरूप दर्शन ब्लाग पर कल शाम ही प्रकाशित हो चुकी है । जो अभी ब्लाग आईकान में शो नहीं हो रही । अतः आप लोग स्वरूप दर्शन ब्लाग पर " प्रसून का इंसाफ़ " पढ सकते हैं - राजीब कुलश्रेष्ठ ।
अब कामिनी जी के शेष रह गये 4 प्रश्नों पर चर्चा करते हैं ।
मैं ये तो समझ गयी कि चेतन गुण ( गति ) सिर्फ़ आत्मा में है । लेकिन ये जो आदमी द्वारा बनायी गयी चीजें हैं । जैसे गाडी आदि ये भी बहुत भागती हैं । इनकी गति भी बहुत होती है । इनमें गति यानि स्पीड कैसे आती है । इनमें तो आत्मा होती नहीं ।
- वास्तव में गौर से देखने पर सभी जगह । सभी चीजों में 1 ही सिस्टम काम कर रहा है । जिस प्रकार कोई वाहन एक यन्त्र की तरह है । उसी प्रकार तमाम योनियों के शरीर एक यन्त्र की तरह है । वाहनों में ऊर्जा स्रोत फ़्यूल टेंक यानी फ़्यूल द्वारा होता है । उसका इंजन उसका मेन उपकरण है । और बाडी उसका शरीर । इसी प्रकार मनुष्य शरीर में प्राणधारा या स्वाँस उसकी ऊर्जा देती है । मन अंतकरण उसका संचालित करने वाला मेन उपकरण है । और शरीर उसका बाडी हुआ ।

अब जैसे आप बिजली को जानने समझने की कोशिश करो  कि - बिजली आखिर है क्या ? उसका रूप रंग क्या है ? आकार क्या है ? गति क्या है ? अगर आप बिज्ञान के आधार पर ही बिजली क्या ? और उसका निर्माण और फ़िर भण्डारण को समझ लोगी । तो बहुत कुछ सिस्टम वही है । बिजली स्थूल रूपा है । और चेतन ऊर्जा सूक्ष्म या अदृश्य रूपा है ।
ये सब आत्मा की चेतना के ऊर्जा में बदले हुये विभिन्न रूप ही हैं । और ये इतने रूप हैं कि गिनना मुश्किल है । इस तरह हर चीज एक निर्धारित कानून या साइंस के तहत यन्त्रवत कार्य कर रही है । बाकी गाङियों आदि की गति को समझाना । आपको चेतना का ऊर्जा में रूपानतरण । और फ़िर उसका किसी ऊर्जा पदार्थ में बदलना । और उसके बाद किसी यन्त्र की कार्यप्रणाली या गति सिद्धान्त । ये सब बहुत विस्त्रत मैटर होगा ।
ये भी बतायें कि - ये ऊर्जा असल में क्या होती है ? ये जितने बिजली के यन्त्र ( कोई भी मशीन आदि ) हैं । ये सब बिजली से चलते हैं । इनमें भी आत्मा नहीं होती । लेकिन फ़िर ये सब यन्त्र कार्य कैसे करते हैं ? उर्जा को गति कहाँ से प्राप्त होती है ?
- समस्त प्रकार की ऊर्जा के विभिन्न रूप असल में चेतन के अन्दर होने वाली स्फ़ुरणा से उत्पन्न होते हैं । स्फ़ुरणा एक कठिन शब्द है । अतः आप शायद इसको समझ न पाओ । इसलिये ये क्या होती है । कैसे होती है ।

मैं बताता हूँ । एक बाल्टी या  टब को पानी से भर लीजिये । फ़िर इसमें एक पतला पाइप डालकर मुँह या किसी भी तरीके से फ़ूँक सी मारते रहिये । तो टब के पानी में ढेरों बुलबुले उठना शुरू हो जायेंगे । ये जो फ़ूँक से बुलबुला तक बनने के बीच की लाइन है । ये ही स्फ़ुरणा है । बना हुआ बुलबुला भी स्फ़ुरणा का ही रूप है । अंतकरण के चार छिद्रों में इसी प्रकार की स्फ़ुरणा द्वारा विभिन्न वासनाओं के बुलबुले निरन्तर उठते बनते रहते हैं । जिनसे मनुष्य की अनेकानेक वासनात्मक वृतियों का निर्माण होता है । और वह चेतन द्वारा उन्हें आकार देता है ।
इस तरह चेतन की इसी मुख्य स्फ़ुरणा से ऊर्जा के विभिन्न रूप बन रहे हैं । और ये ऊर्जा अखिल बृह्माण्ड में व्याप्त हो रही है ।
और ये जो कुछ भी आपको दिख रहा है । आत्मा के विराट में ही घटित हो रहा है । क्योंकि उसके अलावा तो दूसरा कोई है ही नहीं । अतः बिजली के यन्त्र या दूसरी अन्य बहुत सी चीजें भी उससे अलग नहीं हैं । इसको और भी सरलता से समझने के लिये आप कागज के बहुत छोटे छोटे ढेरों टुकङे कमरे के फ़ैला दें । और

फ़िर फ़ुल स्पीड से पंखा चला दें । तो सभी टुकङे निरन्तर उङते रहेंगे । अब बताईये । कागज कैसे उङ रहा है । उसमें तो आत्मा नहीं है । कोई मशीन यन्त्र भी नहीं है । जबकि कमरे में रखा सोफ़ा क्यों नहीं उङ रहा । क्योंकि वे प्रकृति के नियमानुसार उङ रहे हैं । ऐसे ही सभी चीजें सत्ता के निश्चित नियम में बँधी कार्य कर रही हैं । इसको गौर से चिन्तन करते हुये समझने की कोशिश करें ।
इसलिये तो बेचारे सभी सूरज चाँद तारे बिना किसी बेस के हवा में लटके हुये युगों से कार्य कर रहे हैं । और कब से बैठने को एक चेयर माँग रहे हैं । पर सत्ता का आदेश है । चुपचाप ऐसे ही लटके कार्य करो । चेयर मिल गयी । तो आलसी हो जाओगे । भृष्ट हो जाओगे ।


ये भी बतायें कि ये अणु परमाणु क्या होते हैं ? क्या ये सूक्ष्म प्रकृति के तत्व होते हैं ? इनका क्या कार्य होता है ? क्या ओमियो तारा के उस योगी ( जो प्रसून को किडनेप करना चाहता था ) को इन अणु परमाणु का ज्ञान था ?
- ओमियो तारा को अणु परमाणु का ज्ञान था । पर उसे इसको देही आवरण के खोल में संयुक्त करना नहीं आता था । इंसान के मरने के बाद । चाहे उसे जलाओ । दफ़नाओ । या जल प्रवाह करो । या उसे यूँ ही जीव जन्तु खा जाय । उसके स्थूल देह के सभी अणु परमाणु वापस प्रकृति में चले जाते हैं । जो उसे प्रकृति से ही सिर्फ़ यूज करने के लिये मिले थे । ये ही अणु परमाणु संगठित होकर फ़िर से स्थूल शरीर का निर्माण करते हैं ।
अब इसको ज्ञान के आधार पर जानिये । दो प्रकृतियाँ होती है । अपरा प्रकृति । और परा प्रकूति । अपरा प्रकृति इन्ही प्रकृति के सूक्ष्म तत्वों का एकीकरण होकर घनीभूत होना है । जैसे मनुष्य शरीर में जल वायु अग्नि आकाश प्रथ्वी के विभिन्न सूक्ष्म तत्वों का चेतन केन्द्रक द्वारा एकीकरण होकर घनीभूत हो जाना स्थूल शरीर का निर्माण कर देता है । और आकार रचना हो जाती है । संगठित होने की इसी प्रक्रिया को अपरा प्रकृति कहते है । और इसी के विघटित रूप यानी यानी शरीर के अणु परमाणुओं के चेतन के केन्द्रक से  अलग हो जाने पर सूक्ष्म और फ़िर अति सूक्ष्म होकर बिखर जाना परा प्रकृति कहा जाता है ।

अब सीधी सी बात है । ये दोनों प्रकृतियाँ संयुक्त होकर ही कार्य करती हैं । जैसे एक मनुष्य शरीर या वृक्ष खङा है । तो वह विभिन्न सूक्ष्म तत्वों के एकीकरण से ही तो बना है । यानी परा तत्वों का घनीभूत होकर अपरा रूप ले लेना । अपरा ही विघटित होकर परा हो जाती है ।
ये तो साइंस द्वारा ज्ञात हो ही चुका है कि कृमशः अणु परमाणु  इलेक्ट्रान प्रोटान न्यूट्रान आदि टूटकर सूक्ष्म से सूक्ष्मतम होकर सूक्ष्म चेतन तत्वों में बदलते चले जाते हैं । जिनमें से अभी कुछ को साइंस जान गया है ।  और भौतिक रूप से सिद्ध कर चुका है । यानी उनसे कार्य ले रहा है । पर अभी आगे बहुत कुछ बाकी है । तब तक - नो वेट प्लीज ।
ये भी बतायें कि - प्राण क्या होते हैं ? जब कोई मरता है । तो लोग ये नहीं कहते कि - इस शरीर में से आत्मा निकल गयी । बल्कि लोग ये कहते हैं कि - फ़लाँ आदमी के तो प्राण निकल गये ।
- प्राण वास्तव में वायु होते हैं । हमारे शरीर में 5 मुख्य प्राण है ।  प्राण या अजपा  या स्वाँस । ये सबसे मुख्य है । इसके अलावा - अपान ( पादना ) व्यान । उदान । समान । ये चार उससे तुलनात्मक कम महत्व वाले होते हैं । इनका काम शरीर की विभिन्न गतिविधियों को संचालन करना है । हाथ

पैरों की गतियाँ ।  रक्त का बहाव । आदि इन्ही के द्वारा होता है । मुख्य प्राण वायु के तो अनेक रहस्य हैं । पूरा ज्ञान बिज्ञान ही इसी में रमण करने से ज्ञात होता है । यही अजपा है ।
इसके अतिरिक्त 5 अन्य वायु और हैं । जिनका विवरण मेरे ब्लाग्स में बहुत पहले ही प्रकाशित हो चुका है । उनमें नाग वायु से डकार आती है । और करकल मृत्यु के बाद शरीर को फ़ुलाता है । इनका एक एक  पुरुष या कहिये देवता भी नियुक्त होता है ।
ये सब कृमशः चेतन फ़िर अंतकरण या सूक्ष्म शरीर से संचालित होते हैं । जाहिर है । इनके निकल जाने पर शरीर की सभी क्रियायें बन्द हो जाती हैं । यानी आपके प्रश्न के अनुसार सबसे पहले चेतन शरीर से गया । उसके जाते ही । अंतकरण या सूक्ष्म शरीर निकल जाता है । उसके जाते ही ये वायु निकलते लगते हैं । फ़िर 33 करोङ वृतियों के सभी देवता इस शरीर को छोङ जाते हैं ।
क्योंकि आम बोली में प्राण पूर्व समय से ही स्वाँस को कहा गया है । अतः ये कहा जाने लगा कि - इस आदमी के प्राण निकल गये । राम राम सत्य हो गयी । अब घाट पर ले जाने की तैयारी करो ।

08 सितंबर 2011

बिना मिटे कोई उपाय नहीं कोई गति नहीं

आपने बताया कि प्रेम के द्वारा सत्य को उपलब्ध हुआ जा सकता है । कृपया बताएं । क्या इसके लिए ध्यान जरूरी है ?
- फिर प्रेम का तुम अर्थ ही न समझे । फिर प्रेम से कुछ और समझ गए । बिना ध्यान के प्रेम तो संभव ही नहीं है । प्रेम भी ध्यान का 1 ढंग है । फिर तुमने प्रेम से कुछ अपना ही अर्थ ले लिया । तुम्हारे प्रेम से अगर सत्य मिलता होता । तो मिल ही गया होता । तुम्हारा प्रेम तो तुम कर ही रहे हो । पत्नी से । बच्चे से । पिता से । मां से । मित्रों से । ऐसा प्रेम तो तुमने जन्म जन्म किया है । ऐसे प्रेम से सत्य मिलता होता । तो मिल ही गया होता । मैं किसी और ही प्रेम की बात कर रहा हूं । तुम देह की भाषा ही समझते हो । इसलिए जब मैं कुछ कहता हूं । तुम अपनी देह की भाषा में अनुवाद कर लेते हो । वहीं भूल हो जाती है । प्रेम का मेरे लिए वही अर्थ है । जो प्रार्थना का है । 1 पुरानी कहानी तुमसे कहूं । झेन कथा है । 1 झेन सदगुरु के बगीचे में कद्दू लगे थे । सुबह सुबह गुरु बाहर आया । तो देखा । कद्दूओं में बड़ा झगड़ा और विवाद मचा है । कद्दू ही ठहरे । उसने कहा - अरे कद्दूओ यह क्या कर रहे हो ? आपस में लड़ते हो । वहाँ 2 दल हो गए थे कद्दूओं में । और मारधाड़ की नौबत थी । झेन गुरु ने कहा - कद्दूओ, एक दूसरे को प्रेम करो । उन्होंने कहा - यह हो ही नहीं सकता । दुश्मन को प्रेम करें ? यह हो कैसे सकता है ! तो झेन गुरु ने कहा - फिर ऐसा करो । ध्यान करो । कदुओं ने कहा - हम कद्दू हैं । हम ध्यान कैसे करें ? तो झेन गुरु ने कहा - देखो भीतर मंदिर में बौद्ध भिक्षुओं की कतार ध्यान करने बैठी थी । देखो ये कद्दू इतने कद्दू ध्यान कर रहे हैं । बौद्ध भिक्षुओं के सिर तो घुटे होते हैं । कदुओं जैसे ही लगते हैं । तुम भी इसी भांति बैठ जाओ । पहले तो कद्दू हंसे । लेकिन सोचा - गुरु ने कभी कहा भी नहीं । मान ही लें । थोड़ी देर बैठ जाएं । जैसा गुरु ने कहा । वैसे ही बैठ गए । सिद्धासन में पैर मोड़कर आंखें बंद करके । रीढ़ सीधी करके । ऐसे बैठने से थोड़ी देर में शांत होने लगे । सिर्फ बैठने से आदमी शांत हो जाता है । इसलिए झेन गुरु तो ध्यान का नाम ही रख दिये हैं - झाझेन । झाझेन का अर्थ होता है । खाली बैठे रहना । कुछ करना न । कद्दू बैठे बैठे शांत होने लगे । बड़े हैरान हुए । बड़े चकित भी हुए । ऐसी शांति कभी जानी न थी । चारों तरफ 1 अपूर्व आनंद का भाव लहरें लेने लगा । फिर गुरु आया । और उसने कहा - अब 1 काम और करो । अपने अपने सिर पर हाथ रखो । हाथ सिर पर रखा । तो और चकित हो गए । 1 विचित्र अनुभव आया कि वहाँ तो किसी बेल से जुड़े हैं । और जब सिर उठाकर देखा । तो वह बेल 1 ही है । वहां 2 बेलें न थीं । 1 ही बेल में लगे सब कद्दू थे । कद्दुओं ने कहा - हम भी कैसे मूर्ख ? हम तो 1 ही के हिस्से हैं । हम तो सब 1 ही हैं । 1 ही रस बहता है हमसे । और हम लड़ते थे । तो गुरु ने कहा - अब प्रेम करो । अब तुमने जाना कि 1 ही हो । कोई पराया नहीं । 1 का ही विस्तार है ।
वह जहां से कदुओं ने पकड़ा अपने सिर पर । उसी को योगी सातवां चक्र कहते हैं - सहस्रार । हिंदू वहीं चोटी बढ़ाते हैं । चोटी का मतलब ही यही है कि वहाँ से हम 1 ही बेल से जुड़े हैं । 1 ही परमात्मा है । 1 ही सत्ता । 1 अस्तित्व । 1 ही सागर लहरें ले रहा है । वह जो पास में तुम्हारे लहर दिखाई पड़ती है । भिन्न नहीं । अभिन्न है । तुमसे अलग नहीं । गहरे में तुमसे जुड़ी है । सारी लहरें संयुक्त हैं । तुमने कभी 1 बात खयाल की ? तुमने कभी सागर में ऐसा देखा कि 1 ही लहर उठी हो । और सारा सागर शांत हो ? नहीं, ऐसा नहीं होता । तुमने कभी ऐसा देखा । वृक्ष का 1 ही पत्ता हिलता हो । और सारा वृक्ष मौन खड़ा हो । हवाएं न हों ? जब हिलता है । तो पूरा वृक्ष हिलता है । और जब सागर में लहरें उठती हैं । तो अनंत उठती हैं । 1 लहर नहीं उठती । क्योंकि 1 लहर तो हो ही नहीँ सकती । तुम सोच सकते हो कि 1 मनुष्य हो सकता है । पृथ्वी पर ? असंभव है । 1 तो हो ही नहीं सकता । हम तो 1 ही सागर की लहरें हैं । अनेक होने में हम प्रगट हो रहे हैं । जिस दिन यह अनुभव होता है । उस दिन प्रेम का जन्म होता है ।
प्रेम का अर्थ है - अभिन्न का बोध हुआ । अद्वैत का बोध हुआ । शरीर तो अलग अलग दिखाई पड ही रहे हैं । कद्दू तो अलग अलग हैं ही । लहरें तो ऊपर से अलग अलग दिखाई पड़ ही रही हैं । भीतर से आत्मा 1 है । प्रेम का अर्थ है - जब तुम्हें किसी में और अपने बीच एकता का अनुभव हुआ । और ऐसा नहीं है कि तुम्हें जब यह एकता का अनुभव होगा । तो 1 और तुम्हारे बीच ही होगा । यह अनुभव ऐसा है कि हुआ कि तुम्हें तत्क्षण पता चलेगा कि सभी 1 हैं । भ्रांति टूटी । तो वृक्ष, पहाड़ पर्वत, नदी नाले, आदमी पुरुष, पशु पक्षी, चांद तारे सभी में 1 ही कैप रहा है । उस 1 के कंपन को जानने का नाम प्रेम है । प्रेम प्रार्थना है । लेकिन तुम जिसे प्रेम समझे हो । वह तो देह की भूख है । वह तो प्रेम का धोखा है । वह तो देह ने तुम्हें चकमा दिया है ।
मांगती हैं भूखी इंद्रियां । भूखी इंद्रियों से भीख ।
और किससे तुम मांगते हो भीख । यह भी कभी तुमने सोचा ? जो तुमसे भीख मांग रहा है । भिखारी भिखारी के सामने भिक्षापात्र लिए खड़े हैं । फिर तृप्ति नहीं होती । तो आश्चर्य कैसा ? किससे तुम मांग रहे हो ? वह तुमसे मांगने आया है । तुम पत्नी से मांग रहे हो । पत्नी तुमसे मांग रही है । तुम बेटे से मांग रहे हो । बेटा तुमसे मांग रहा है । सब खाली हैं । रिक्त हैं । देने को कुछ भी नहीं है । सब मांग रहे हैं । भिखमंगों की जमात है ।
मांगती हैं भूखी इंद्रियां । भूखी इंद्रियों से भीख ।
मान लिया है स्खलन । को ही तृप्ति का क्षण ।
नहीं होने देता विमुक्त । इस मरीचिका से अघोरी मन ।
बदल बदल कर मुखौटा । ठगता है चेतना का चिंतन ।
होते ही पटाक्षेप, बिखर जाएगी । अनमोल पंचभूतो की भीड़ ।
यह तुमने जिसे अपना होना समझा है । यह तो पंचभूतो की भीड़ है । यह तो हवा, पानी, आकाश तुममें मिल गए हैं । यह तुमने जिसे अपनी देह समझा है । यह तो केवल संयोग है । यह तो बिखर जाएगा । तब जो बचेगा इस संयोग के बिखर जाने पर । उसको पहचानो । उसमें डूबो । उसमें डुबकी लगाओ । वहीं से प्रेम उठता है । और उसमें डुबकी लगाने का ढंग ध्यान है । अगर तुमने ध्यान की बात ठीक से समझ ली । तो प्रेम अपने आप जीवन में उतरेगा । या प्रेम की समझ ली । तो ध्यान उतरेगा । ये 1 ही बात को कहने के लिए 2 शब्द हैं । ध्यान से समझ में आता हो । तो ठीक । अन्यथा प्रेम । प्रेम से समझ में आता हो । तो ठीक । अन्यथा ध्यान । लेकिन दोनों अलग नहीं हैं ।
अकबर शिकार को गया था । जंगल में राह भूल गया । साथियों से बिछड़ गया । सांझ होने लगी । सूरज ढलने लगा । अकबर डरा हुआ था । कहाँ रुकेगा रात । जंगल में खतरा था । भाग रहा था । तभी उसे याद आया कि सांझ का वक्त है । प्रार्थना करनी जरूरी है । नमाज का समय हुआ तो बिछाकर अपनी चादर नमाज पढ़ने लगा । जब वह नमाज पढ़ रहा था । तब 1 स्त्री भागती हुई, अल्हड़ स्त्री उसके नमाज के वस्त्र पर से पैर रखती हुई, उसको धक्का देती हुई वह झुका था । गिर पड़ा । वह भागती हुई निकल गई । अकबर को बड़ा क्रोध आया । सम्राट नमाज पढ़ रहा है । और इस अभद्र युवती को इतना भी बोध नहीं है । जल्दी जल्दी नमाज पूरी की । भागा घोड़े पर । पकड़ा स्त्री को । कहा - बदतमीज है । कोई भी नमाज पढ़ रहा हो । प्रार्थना कर रहा हो । तो इस तरह तो अभद्र व्यवहार नहीं करना चाहिए । फिर मैं सम्राट हूं । सम्राट नमाज पढ़ रहा है । और तूने इस तरह का व्यवहार किया । उसने कहा - क्षमा करें । मुझे पता नहीं कि आप वहाँ थे । मुझे पता नहीं कि कोई नमाज पढ़ रहा था । लेकिन सम्राट  1 बात पूछनी है । मैं अपने प्रेमी से मिलने जा रही हूं । तो मुझे कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा है । मेरा प्रेमी राह देखता होगा । तो मेरे तो प्राण वहाँ अटके हैं । तुम परमात्मा की प्रार्थना कर रहे थे । मेरा धक्का तुम्हें पता चल गया ? यह कैसी प्रार्थना ? यह तो अभी प्रेम भी नहीं है । यह प्रार्थना कैसी ? तुम लवलीन न थे । तुम मंत्रमुग्ध न थे । तुम डूबे न थे । तो झूठा स्वांग क्यों रच रहे थे ? जो परमात्मा के सामने खड़ा हो । उसे तो सब भूल जाएगा । कोई तुम्हारी गर्दन भी उतार देता तलवार से । तो भी पता न चलता । तो प्रार्थना । मुझे तो कुछ भी याद नहीं । क्षमा करें । अकबर ने अपनी आत्मकथा में घटना लिखवाई है । और कहा है कि उस दिन मुझे बड़ी चोट पड़ी । सच में ही यह भी कोई प्रार्थना है ? यह तो अभी प्रेम भी नहीं ।
प्रेम का ही विकास, आत्यंतिक विकास, प्रार्थना है ।
अगर तुम्हें किसी व्यक्ति के भीतर परमात्मा का अनुभव होने लगे । और किसी के भीतर तुम्हें अपनी ही झलक मिलने लगे । तो प्रेम की किरण फूटी । तुम जिसे अभी प्रेम कहते हो । वह तो मजबूरी है । उसमें प्रार्थना की सुवास नहीं है । उसमें तो भूखी इंद्रियों की दुर्गंध है ।
लहर सागर का नहीं श्रृंगार । उसकी विकलता है ।
गंध कलिका का नहीं उदगार । उसकी विकलता है ।
कूक कोयल की नहीं मनुहार । उसकी विकलता है ।
गान गायक का नहीं व्यापार । उसकी विकलता है ।
राग वीणा की नहीं झंकार । उसकी विकलता है ।
अभी तो तुम जिसे प्रेम कहते हो । वह विकलता है । वह तो मजबूरी है । वह तो पीड़ा है । अभी तुम संतप्त हो । अभी तुम भूखे हो । अभी तुम चाहते हो कोई सहारा मिल जाए । अभी तुम चाहते हो । कहीं कोई नशा मिल जाए । इसे मैंने प्रेम नहीं कहा । प्रेम तो जागरण है । विकलता नहीं । विक्षिप्तता नहीं । प्रेम तो परम जाग्रत दशा है । उसे ध्यान कहो ।
अगर तुमने प्रेम की मेरी बात ठीक से समझी । तो यह प्रश्न उठेगा ही नहीं कि अगर प्रेम से सत्य मिल सकता है । तो फिर ध्यान की क्या जरूरत है ? प्रेम से सत्य मिलता है । तभी जब प्रेम ही ध्यान का 1 रूप होता है । उसके पहले नहीं । दूसरी तरह के लोग भी हैं । वे भी आकर मुझसे पूछते हैं कि - अगर ध्यान से सत्य मिल सकता है । तो फिर प्रेम की कोई जरूरत है ? उनसे भी मैं यही कहता हूं कि अगर तुमने मेरे ध्यान की बात समझी । तो यह प्रश्न पूछोगे नहीं । जिसको ध्यान जगने लगा । प्रेम तो जगेगा ही ।
बुद्ध ने कहा है - जहां जहॉ समाधि है । वहां वहाँ करुणा है । करुणा छाया है - समाधि की । चैतन्य ने कहा है - जहां जहां प्रेम । जहां जहां प्रार्थना । वहां वहां ध्यान । ध्यान छाया है प्रेम की । ये तो कहने के ही ढंग हैं । जैसे तुम्हारी छाया तुमसे अलग नहीं की जा सकती । ऐसे ही प्रेम और ध्यान को अलग नहीं किया जा सकता । तुम किसको छाया कहते हो ? इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता । ये तो पद्धतियां हैं ।
2 पद्धतियां हैं - सत्य को खोजने की । जो है । उसे जानने के 2 ढंग हैं - या तो ध्यान में तटस्थ हो जाओ । या प्रेम में लीन हो जाओ । या तो प्रेम में इतने डूब जाओ कि तुम मिट जाओ । सत्य ही बचे । या ध्यान में इतने जाग जाओ कि सब खो जाए । तुम ही बचो । 1 बच जाए किसी भी दिशा से । जहां 1 बच रहे । बस सत्य आ गया । कैसे तुम उस 1 तक पहुंचे ? ‘मैं’ को मिटाकर पहुंचे कि ‘तू’ को मिटाकर पहुंचे । इससे कुछ भेद नहीं पड़ता है । लेकिन मन बड़ा बेईमान है । अगर मैं ध्यान करने को कहता हूं । तो वह पूछता है - प्रेम से नहीं होगा ? क्योंकि ध्यान करने से बचने का कोई रास्ता चाहिए । प्रेम से हो सकता हो । तो ध्यान से तो बचें  फिलहाल । फिर देखेंगे । फिर जब मैं प्रेम की बात कहता हूं । तो तुम पूछते हो - ध्यान से नहीं हो सकेगा ? तब तुम प्रेम से बचने की फिक्र करने लगते हो । तुम मिटना नहीं चाहते । और बिना मिटे कोई उपाय नहीं । बिना मिटे कोई गति नहीं ।
20 नवंबर 1976 श्री रजनीश आश्रम पूना ।

01 सितंबर 2011

क्षण है द्वार प्रभु का

फाचांग नाम का 1 अदभुत सदगुरु हुआ । उसका इतना ही उपदेश था - अभी यहीं । बस 2 शब्दों का ही उपदेश था । फाचांग मरता था । उसके मरने के समय की घटना है । बिस्तर पर मरणासन्न पड़ा है । अंतिम घड़ियां हैं । शिष्य इकट्ठे हुए हैं । शिष्यों ने सोचा कि जिंदगी भर यह " अभी और यहीं " कहता रहा । अब तो मौत आ गयी । पूछ लें । शायद कुछ और कह दे । तो किसी ने पूछा - वर्तमान में जागरूक होने के सिद्धांत को आप हमें 1 बार " क्षण है द्वार प्रभु का " और समझा दें । फाचांग ने आंख खोली । उसी समय झोपड़ी के छप्पर पर 1 गिलहरी दौड़ी । और उसने चीं-चीं किट-किट की । फाचांग बोला - यही यही । इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं । इट इज जस्ट दिस एंड नथिंग एल्म । मुस्कुराया । आंखें बंद कर लीं । और मर गया ।
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मार्क टवेन ने 1 संस्मरण लिखा है कि वह 1 चर्च में प्रवचन सुनने गया । जब वह प्रवचन सुन रहा था । तो बड़ा प्रभावित हुआ । कोई 5-7-10 मिनट ही बीते थे । वह जो चर्च में बोल रहा था । धर्मगुरु बड़ा प्रभावशाली था । मार्क टवेन ने सोचा कि आज 100 डालर दान कर दूंगा । फिर 10 मिनट और बीते । अब तो उसे सुनने की याद ही नहीं रही । अब वह 100 डालर की सोचने लगा । फिर उसने सोचा कि 100 डालर जरा ज्यादा होते हैं । 50 से ही काम चल जाएगा । फिर और 10 मिनट बीते । फिर वह सोचने लगा । 50 डालर भी । 50 डालर के लायक बात नहीं जंचती । 25 से चल जाएगा । ऐसे सरकता रहा । सरकता रहा । फिर तो 1 डालर पर आ गया । जब आखिरी प्रवचन होने के करीब था । तो 1 डालर पर आ गया । फिर उसने अपने संस्मरण में लिखा है कि तब मुझे खयाल आया । और तब मैं एकदम निकल भागा चर्च से । क्योंकि मुझे डर लगा कि जब चंदा मांगने वाला व्यक्ति थाली लेकर घूमेगा । तो अब मेरी हालत ऐसी हो गयी थी कि मैं थाली में से कुछ लेकर अपनो जेब में न रख लूं । 100 देने चला था । इस डर से जल्दी से चर्च के बाहर निकल आया कि कहीं थाली में से कुछ उठाकर अपनी जेब में न रख लूं ।
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हम ही रोज अपने मुंह में सिगरेट रखकर पीते रहे हैं । और बड़ी मुश्किल से अभ्यास करवाया । पहले दिन पीना शुरू किया था । तो खांसी आ गई थी । तकलीफ हुई थी । तिक्त कड़वाहट फैल गई थी मुंह में । सिगरेट जहर मालूम पड़ी थी । मन को अभ्यास करवाते चले गए ।  फ़िर सिगरेट का अभ्यास मजबूत हो गया । अब हम कहते हैं - छोड़ना है । तो मन कहता है - नहीं । अब तो मजा आने लगा । और यह मजा हमने ही लाया है । यह मजा हमने ही लाया है । मन ने तो पहले ही दिन कहा था कि - क्या कर रहे हो ? यह क्या कर रहे हो ? हमने सुना नहीं । पीए चले गए । अब मन फिर कहेगा कि - यह क्या कर रहे हो ? छोड़ रहे हो ? अब तो रस आने लगा । अब मत छोड़ो । इसमें मन का कोई कसूर नहीं है । हमने ही उसका अभ्यास करवाया है । हमने ही । मन तो सिर्फ यांत्रिक होता है ।
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महात्मा गांधी को जापान से किसी ने 3 बंदर की मूर्तियां भेजी थीं । गांधीजी उनका अर्थ जिंदगी भर नहीं समझ पाए । या जो समझे । वह गलत था । और जिन्होंने भेजी थीं । उनसे भी पुछवाया उन्होंने अर्थ । उनको भी पता नहीं था । आपने भी वह 3 बंदर की मूर्तियां देखीं चित्र में । मूर्तियां भी देखी होंगी । 1 बंदर आंख पर हाथ लगाए बैठा है । 1 कान पर हाथ लगाए बैठा है । 1 मुंह पर हाथ लगाए बैठा है । गांधीजी ने जो व्याख्या की । वह वही थी । जो गांधीजी कर सकते थे । उन्होंने व्याख्या की कि - बुरी बात मत सुनो । तो यह बंदर जो कान पर हाथ लगाए बैठा है । यह बुरी बात मत सुनो । मुंह पर लगाए बैठा है । बुरी बात मत बोलो । आंख पर लगाए बैठा है । बुरी बात मत देखो । लेकिन इससे गलत कोई व्याख्या नहीं हो सकती । क्योंकि जो आदमी बुरी बात मत देखो । ऐसा सोचकर आंख पर हाथ रखेगा । उसे पहले तो बुरी बात देखनी पड़ेगी । नहीं तो पता नहीं चलेगा कि - यह बुरी बात हो रही है । मत देखो । तो देख ही ली । तब तक आपने । और बुरी बात की एक खराबी है कि आंख अगर थोड़ी देख लें । और फिर आंख बंद की । तो भीतर दिखाई पड़ती है । वह बंदर बहुत मुश्किल में पड़ जाएगा । बुरी बात मत सुनो । सुन लोगे । तभी पता चलेगा कि बुरी है । फिर कान बंद कर लेना । तो वह बाहर भी न जा सकेगी अब । अब वह भीतर घूमेगी । नहीं, यह मतलब नहीं है । मतलब यह है । देखो ही मत । जब तक भीतर देखने की कोई जरूरत न बन जाए । सुनो ही मत । जब तक भीतर सुनना अनिवार्य न हो जाए । बोलो ही मत । जब तक भीतर बोलना अनिवार्य न हो । यह बाहर से संबंधित नहीं है । लेकिन गांधीजी जैसे लोग सारी चीजें बाहर से ही समझते हैं । यह भीतर से संबंधित है ।
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1 रात मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी ने कहा कि - 40 साल हो गए विवाह हुए । जब शुरू शुरू में विवाह हुआ था । तो तुम मुझे इतना प्रेम करते थे कि कभी मेरी अंगुलियां काट लेते थे । कभी मेरे ओंठों पर घाव हो जाता था । लेकिन अब तुम वैसा प्रेम नहीं करते । और कल मेरा जन्मदिन है । तो आज तो कुछ वैसा प्रेम करो । मुल्ला ने कहा - सो भी जा । अब रात खराब मत करवा । तो पत्नी नाराज हो गई । उसने कहा - मेरा कल जन्मदिन है । मुल्ला ने कहा - बाहर बहुत सर्दी है । उठना ठीक नहीं । पत्नी ने कहा - उठने की जरूरत क्या है । मैं यहां पास ही हूं । 1 बार तो तुम मेरी अंगुलियों को फिर वैसा काटो । जैसा 40 साल पहले प्रेम में तुमने काटा था । मुल्ला ने कहा - ठीक, नहीं मानती । तो मुल्ला बिस्तर से उठा । पत्नी ने कहा - कहां जाते हो ? उसने कहा - बाथरूम से दांत तो ले आऊं । उम्र ढल जाती । वासनाएं वही चली जातीं । दांत गिर जाते । काटने का मन । कटवाने का मन नहीं गिरता । शरीर सूख जाता । वासना हरी ही बनी रहती है ।
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सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन पर 1 अंधेरे रास्ते पर 4 चोरों ने हमला कर दिया । मुल्ला ऐसा लड़ा । जैसा कि कोई लड़ सकता था । चारों को पस्त कर दिया । फिर भी 4 थे । हड्डी पसली तोड़ दी चारों की । बामुश्किल वे 4 मुल्ला पर कब्जा पा सके । खीसे में हाथ डाला । तो केवल अठन्नी निकली । तो उन्होंने नसरुद्दीन से कहा कि - भैया, अगर रुपया तेरे खीसे में होता । तो आज हम जिंदा न बचते । हद कर दी तूने भी । अठन्नी के पीछे ऐसी मारकाट मचाई । और हम इसलिए सहे गए । और इसलिए लड़े चले गए कि तेरी मारपीट से ऐसा लगा कि बहुत माल होगा । मुल्ला ने कहा - सवाल बहुत माल का नहीं है । आई कैन नाट एक्सपोज माई फाइनेंशियल कंडीशन टु टोटल स्ट्रैंजर्स । अपनी माली हालत मै बिलकुल अजनबी लोगों के सामने प्रकट नहीं कर सकता । अठन्नी ही है । लेकिन इससे माली हालत तो सब खराब हो गई न । तुम 4 आदमियों के सामने पता चल गया कि अठन्नी । सब बात ही खराब हो गई । इसलिए लड़ा । अगर मेरे खीसे में लाख 2 लाख रुपए होते । तो लड़ता ही नहीं । कहता - निकाल लो ।
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चल हंसा उस देश समद जहां मोती रे ।
मोती समद जहां मोती समद जहां मोती रे ।
चल हंसा उस देश निराला । बिन शशि भान रहे उजियारा ।
लागे ना काल की चोट जगामग ज्योति रे । चल हंसा
जब चलने की करी तैयारी । माया जाल फंस्या अति भारी ।
कर ले सोच विचार घड़ी दोय होती रे । चल हंसा
चाल पड्या जड़ दुविधा छूटी । पिछली प्रीत कुटुंब से टूटी ।
हंसा भरे उड़ान हंसिनी रोती रे ।  चल हंसा
जाय किया समदर में बासा । फेर नहीं आवण की आशा ।
गावै भानीनाथ मोत सिर सोती रे ।