घर घर हम सबसों कही, शब्द न सुनै हमार ।
ते भवसागर डूबही, लख चौरासी धार ।
छन्द -
पित्त अगुंली तीन जानो, पाँच अंगुल दिल कही ।
सात अंगुल फेफङा है, सिन्धु सात तहाँ रही ।
पवन दर निवार तन सो, साधु योगी गम लहै ।
यहि कर्म योग किये रहती नाही, भक्ति बिनु जोइन बहै ।
कबीर साहब धर्मदास से कहते हैं कि - 3 अंगुल का यकृत ‘पित्त का थैली’ है । तथा 5 अंगुल का हृदय है । 7 अंगुल के फेफङे हैं । जिनमें 7 समुद्र हैं कृमश: - क्षार, मदिरा, क्षीर, दधि, घृत दुर्गन्ध तथा इक्षु रस समुद्र हैं । इन पवनों का निराकरण शरीर में साधु योगी ही कर सकता है ।
परन्तु कर्मयोग, अष्टांग योग, आसन भेद प्राणायाम, कुम्भक साधना, पंचमुद्रां, समाधि, हठयोग, अष्टसिद्धि, 9 निधि, कल्प सिद्धि आदि से कोई जन्म मरण से नहीं छूट सकता है । बिना भक्ति के 84 लाख योनियों में ही बहना पङेगा ।
सोरठा -
ज्ञान योग सुख राशि, नाम लहै निज घर चले ।
अति प्रबल को नाश, जीवन मुकता होय रहे ।
कबीर साहब धर्मदास से कहते हैं कि - ज्ञान योग ही भरपूर ढेर सारा सुख देने वाला है । तथा सत्यनाम का स्मरण अपने निज घर सत्यलोक ले जाने वाला है । काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार रुपी शक्तिशाली दुश्मनों को मारकर ही जीवन मुक्त हो सकते हैं ।
योगियों का मत -
यह लेख कबीर मंसूर ( अर्थात स्वसं वेदार्थ प्रकाश ) पृष्ट संख्या ( 1152 ) द्वारा लिखा गया है ।
वेद ही से योग समाधि तथा षट दर्शन निकले माने जाते हैं । योगी योग से अपने को अमर समझते हैं । भ्रम में पडकर वे अपने को कृतार्थ समझते हैं । पर यह नहीं समझते कि - जैसा भोग वैसा ही योग भी है । दोनों निर्मूल और तुच्छ है ।
योगी नाद के द्वारा ऊपर को चढ़ता है । भोगी बिन्दु के द्वारा नीचे आता है । अतः -
आधार चक्र भेद - योगी अपान वायु के द्वारा गणेश क्रिया करता है । आधार चक्र को साधता है । अर्थात गुदा द्वार से जल खींचकर ऊपर चढाता है । फिर गिरा देता है । फिर चढ़ाता और गिराता है । ऐसे ही बारबार करने से आधार चक्र टूट जाता है । और उससे योगी ऊपर को चलता है । तब आधार चक्र सिद्ध कहलाता है । 6 चक्रों में यह प्रथम चक्र है ।
स्वाधिष्ठान चक्र भेद -- आधार चक्र के ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र है । जब आधार चक्र सिद्ध हो जाता है । तब स्वाधिष्ठान चक्र भेदने की चिंता बढ़ती है । इसके लिये युक्ति करता है । 12 अंगुल की सलाका बनाकर लिंग द्वार में उसे बारबार चलता है । जिससे उपस्थेन्द्रीय का छिद्र शुद्ध और साफ हो जाता है । फिर उपस्थ इन्द्रिय से जल खींचकर चढ़ाता है । जल अच्छी तरह चढ़ाने और उतारने का अभ्यास पड़ जाता है । तब कृमश: दूध और मधु को चढ़ता है । जब मधु के चढ़ाने उतारने का अभ्यास पूरा हो जाता है । तो स्वाधिष्ठान चक्र सिद्ध होता है । फिर योगी आगे को बढ़ता है । यह क्रिया, प्रायः वाममार्गी और अघोरी तथा गौसाई ब्रह्मचारी नाम के भेषधारी अन्य विषयी लोग साधते हैं ।
मणिपूरक चक्र भेद - फिर योग अपान और समान वायु का सम्मिलन करके धातु क्रिया करने का समय आता है । 9 गज लम्बा ( कही कही 15 हाथ लिखा है ) 4 अंगुल चौड़ा बारीक और नरम वस्त्र लेता है । उसको मुख के राह से निगल कर बाहर निकालता है । पानी पीकर भीतर आंतों को साफ करता है । फिर कपड़े में लगे हुये कफ आदि को साफ करके फिर निगलता है । ऐसे ही बारबार करने से अभ्यास पड़ जाता है । तो गज 2 भर चौड़ा और 9 गज लम्बा भी निगलता और निकाल देता है । इस प्रकार जब यह क्रिया पूरी होती है । तो योगी नाभि से वायु को उठाकर मणिपूरक चक्र में भरता है ।
अनाहत चक्र - तब योगी अपान और प्राण को एक करता है । सवा हाथ की एक दातुन बनाकर कंठ के मार्ग से पेट में चलता है । पेट भर पानी पीकर बाहर निकलता है । जिससे अन्दर पेट, कलेजे और फेफड़ो के कफ आदि निकल जाते हैं । इस क्रिया को कुंजर क्रिया कहते हैं । इस क्रिया से बङा आनन्द और प्रकाश मिलता है । इसी क्रिया से योगी अनाहत शब्द सुनने लग जाता है ।
यद्यपि अनाहत शब्द में बहुत प्रकार के शब्द सुनाई देते हैं पर सब में 10 प्रकार के शब्द प्रधान हैं ।
1 घण्ट का शब्द 2 शंख का शब्द 3 छोटी 2 घंटियों का शब्द 4 भँवरे की गुंजार का शब्द
5 पहाड़ से पानी नीचे गिरने के समय जैसा शब्द होता है वैसा शब्द 6 बाँसुरी का शब्द 7 शहनाई का शब्द 8 छोटे 2 पक्षियों का शब्द 9 वेणु का शब्द 10 चंग ( सीटी का ) शब्द
यही 10 प्रकार के प्रधान अनाहत शब्द हैं । इनके अतिरिक्त नाना प्रकार के बाजे आदि के शब्द भी सुनाई देते हैं । जिससे मन को बड़ा आनन्द होता है । फिर इसको भी वेध के आगे को बढ़ता है ।
विशुद्ध चक्र भेद -- प्राण अपान और समान तीनों वायु को कण्ठ स्थान में योगी एकत्रित ( समान ) करता है । इस साधन को लम्बिका योग कहते है । इसके साधने के समय केवल दूध ही पीकर रहना होता है । अनाज नही खाना पड़ता ।
मक्खन और सेंधे नमक से जीभ को नित्य रगड़ के पतला करना और जीभ की जड़ की रगों को
शनै: शनै: काट के ( जीभ को ) इतना बढ़ाना पड़ता है कि 10वें द्वार तक पहुँच सके । जीभ को उलट कर ब्रम्हारंध्र के मार्ग को रोककर ऊपर से टपकते हुये अमृत को पीता है । इसके पीने में शरीर की कांति तेजोमय हो जाती है । इस प्रकार अमृत पीने का आनन्द प्राप्त हो जाता है । तो योगी को लम्बिका योग का साधन पूरा हो जाता है ।
अग्नि चक्र - इस विशुद्ध चक्र के आगे अग्नि चक्र है । इसे सिद्ध करने के लिये योगी को नेति क्रिया करने की आवश्यता होती है । सूत की एक वित्ते भर की बत्ती बनाकर नाक में चला, ब्रह्माण्ड को भली प्रकार साफ करके अपने कण्ठ की वायु को अग्नि चक्र में स्थापित करना होता है । योगी अग्नि चक्र में वायु को स्थापित करके बड़ा आनन्द प्राप्त करता है । वायु को ऊपर चढ़ा कर जीभ से मार्ग को रोक के कुम्भक कर समाधि को प्राप्त करता है । शरीर शक्तिहीन मृतक समान हो जाता है । दसवें द्वार में पहुँचकर योगी निर्विकल्प समाधि को प्राप्त हो जाता है । इस स्थान पर पहुँचकर योगी अष्ट सिद्धि और नव निधि को प्राप्त करता है ।
अष्ट सिद्धि - 1 अणिमा 2 महिमा 3 गरिमा 4 लघिमा 5 प्राप्ति 6 प्रकाशित । ( काम ) 7 ईशता 8 वशीकरण ।
1 अणिमा - योगी जिस सिद्धि से अपने शरीर को जितना छोटा चाहे बना लेता है ।
2 महिमा के द्वारा योगी अपनी देह को जितना चाहे बड़ा कर सकता है ।
3 गरिमा के द्वारा जितना चाहे भारी हो जाता है ।
4 लघिमा के बल से अपने शरीर को हलके से हल्का बना सकता है ।
5 प्राप्ति से ही योगी जहाँ चाहता है । चला जाता है ।
6 प्रकाशिता से मनवांछित फल प्राप्त हो जाता है ।
7 ईशता से अपने को सबसे श्रेष्ठ प्रमाणित करा सकता है ।
8 वशीकरण के द्वारा विश्व को अपने वश मे कर सकता है ।
नवनिधि ।
1 महापद्ध 2 पद्ध 3 कच्छप 4 मकर 5 मुकुंद 6 खर्व 7 शंख 8 नील 9 कुंद ।
इन 9 के भिन्न 2 गुण हैं । प्रत्येक निधि पर देवताओं की चौकी रहती है । जब इन 9 निधियों के देवता वश में हो जाते हैं । तो योगी इनको प्राप्त कर लेता है । वह अपनी शक्ति से जिसको चाहे राजा बना सकता है । अथवा दरिद्र कर दे । उसमें सब ऐश्वर्य आ जाते हैं । इसी स्थान को सहस्त्रदल कमल कहते हैं । यहाँ निरंजन का वास है । इस स्थान पर पहुँचकर योगी, निरंजन से एकता कर परमानन्द का अनुभव करता है । इसी अवस्था में अपने आपको अजर, अमर, सर्व शक्तिमान समझता है । इसकी सब सिद्धियाँ दासी हो जाती है । अपनी विद्या के बल से त्रिकालज्ञ हो जाता है । ईश्वर के समान ऐश्वर्य को प्राप्त हो जीव से ईश्वर हो जाता है । संसार में ईश्वर के समान पूज्य हो जाता है । पर जब तक ब्रह्माण्ड स्थित है । तब तक ही तक योगी भी स्थित है । जब तक योगी का ज्ञान है । तब ही तक उसको सब कुछ प्राप्त है । उपरोक्त सब साधना गुरु के द्वारा प्राप्त होती है ।
गुरु की ही शरण प्राप्त कर सफल काम होता है ।
( नोट - नेति, धौति, वस्ति आदि क्रियाएं शरीर की शुद्धि के लिये हैं । चक्र भेद तो प्राण वायु से होता है । पाठक सतलोक वासी स्वामी परमानन्द जी के चक्र भेदन को इससे सुधार कर पढ़ लें । )
उपरोक्त योग क्रिया बाजीगर का कौतुक है । योगियों को अपनी योग क्रिया का बड़ा अभिमान होता है । सब भूल में पड़कर बन्धन में पड़े हैं ।
योग भोग दोनों ही भ्रम और अनित्य हैं । योग भोग दोनों क्रिया समान ही है । जिस प्रकार योगी 6 चक्र वेधता है । उसी प्रकार भोगी भी 6 चक्र तोड़कर ही आनंद को प्राप्त करता है । केवल उतना ही भेद है कि योगी नीचे से ऊपर को चढ़ता है । भोगी ऊपर से नीचे को आता है । पर दोनों ही परमानन्द को प्राप्त करते हैं ।
भोगियों का चक्र भेद ।
भोग का वर्णन लिखता हूँ । जिसके विचारने से जान पड़ेगा कि योगी और भोगी में कुछ भेद नही है । जिस प्रकार योगी षट चक्र को वेध कर योग सिद्ध हो अमर मानता है । उसी प्रकार भोगी भी षट चक्र वेधकर योग सिद्ध और अमर होता है । भोगी स्त्री पुरुष मिलकर सिद्धि प्राप्त करता है । यानी भोग करने के समय जब मत्था से मत्था मिलता है । तो पहला चक्र टूटता है ।
जब आंख से आँख मिलते ही द्वितीय चक्र विद्ध होता है । मुँह से मुँह मिलते ही तृतीय चक्र टूटता है । छाती से छाती मिलाते ही चतुर्थ चक्र टूटता है ।
नाभि से नाभि मिलते ही पंचम चक्र विद्ध होता है । भग और लिंग का संयोग होने से छठा चक्र वेधा जाता है । जब भोगी उपरोक्त रीति से 6 चक्रों को भेद चुकता है । तब वायु और अग्नि के बल से नीचे को वीर्य उतरता है । वह 6 चक्रों को वेधता हुआ सातवें स्थान गर्भाशय में जा स्थित होता है । भोगी अपने आपको अमर जानता है । क्योंकि जब तक भोगी की संतान पृथ्वी पर वर्तमान है । तब तक वह अमर ही है ।
समन्वय - जैसे योगी को ज्ञान और सिद्धि मिलती है । वैसे ही भोगी को सन्तान मिलती है ।
जो माता पिता थे । वही पुत्री और पुत्र रूप में वर्तमान रहते है । दोनों ( योगी और भोगी) सातवें चक्र में अपने को अमर अनुमान करते है ।
( योग भोग दोनों ही मिथ्या भ्रम है )
( सदगुरु कबीर साहब वचन )
जो नहीं माने शब्द हमारा, सो चले जइ है यम के द्वारा ।
जो कोई माने शब्द हमारा, सो चले अइ है लोक मंझारा ।
साभार - एक फ़ेसबुक पेज
ते भवसागर डूबही, लख चौरासी धार ।
छन्द -
पित्त अगुंली तीन जानो, पाँच अंगुल दिल कही ।
सात अंगुल फेफङा है, सिन्धु सात तहाँ रही ।
पवन दर निवार तन सो, साधु योगी गम लहै ।
यहि कर्म योग किये रहती नाही, भक्ति बिनु जोइन बहै ।
कबीर साहब धर्मदास से कहते हैं कि - 3 अंगुल का यकृत ‘पित्त का थैली’ है । तथा 5 अंगुल का हृदय है । 7 अंगुल के फेफङे हैं । जिनमें 7 समुद्र हैं कृमश: - क्षार, मदिरा, क्षीर, दधि, घृत दुर्गन्ध तथा इक्षु रस समुद्र हैं । इन पवनों का निराकरण शरीर में साधु योगी ही कर सकता है ।
परन्तु कर्मयोग, अष्टांग योग, आसन भेद प्राणायाम, कुम्भक साधना, पंचमुद्रां, समाधि, हठयोग, अष्टसिद्धि, 9 निधि, कल्प सिद्धि आदि से कोई जन्म मरण से नहीं छूट सकता है । बिना भक्ति के 84 लाख योनियों में ही बहना पङेगा ।
सोरठा -
ज्ञान योग सुख राशि, नाम लहै निज घर चले ।
अति प्रबल को नाश, जीवन मुकता होय रहे ।
कबीर साहब धर्मदास से कहते हैं कि - ज्ञान योग ही भरपूर ढेर सारा सुख देने वाला है । तथा सत्यनाम का स्मरण अपने निज घर सत्यलोक ले जाने वाला है । काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार रुपी शक्तिशाली दुश्मनों को मारकर ही जीवन मुक्त हो सकते हैं ।
योगियों का मत -
यह लेख कबीर मंसूर ( अर्थात स्वसं वेदार्थ प्रकाश ) पृष्ट संख्या ( 1152 ) द्वारा लिखा गया है ।
वेद ही से योग समाधि तथा षट दर्शन निकले माने जाते हैं । योगी योग से अपने को अमर समझते हैं । भ्रम में पडकर वे अपने को कृतार्थ समझते हैं । पर यह नहीं समझते कि - जैसा भोग वैसा ही योग भी है । दोनों निर्मूल और तुच्छ है ।
योगी नाद के द्वारा ऊपर को चढ़ता है । भोगी बिन्दु के द्वारा नीचे आता है । अतः -
आधार चक्र भेद - योगी अपान वायु के द्वारा गणेश क्रिया करता है । आधार चक्र को साधता है । अर्थात गुदा द्वार से जल खींचकर ऊपर चढाता है । फिर गिरा देता है । फिर चढ़ाता और गिराता है । ऐसे ही बारबार करने से आधार चक्र टूट जाता है । और उससे योगी ऊपर को चलता है । तब आधार चक्र सिद्ध कहलाता है । 6 चक्रों में यह प्रथम चक्र है ।
स्वाधिष्ठान चक्र भेद -- आधार चक्र के ऊपर स्वाधिष्ठान चक्र है । जब आधार चक्र सिद्ध हो जाता है । तब स्वाधिष्ठान चक्र भेदने की चिंता बढ़ती है । इसके लिये युक्ति करता है । 12 अंगुल की सलाका बनाकर लिंग द्वार में उसे बारबार चलता है । जिससे उपस्थेन्द्रीय का छिद्र शुद्ध और साफ हो जाता है । फिर उपस्थ इन्द्रिय से जल खींचकर चढ़ाता है । जल अच्छी तरह चढ़ाने और उतारने का अभ्यास पड़ जाता है । तब कृमश: दूध और मधु को चढ़ता है । जब मधु के चढ़ाने उतारने का अभ्यास पूरा हो जाता है । तो स्वाधिष्ठान चक्र सिद्ध होता है । फिर योगी आगे को बढ़ता है । यह क्रिया, प्रायः वाममार्गी और अघोरी तथा गौसाई ब्रह्मचारी नाम के भेषधारी अन्य विषयी लोग साधते हैं ।
मणिपूरक चक्र भेद - फिर योग अपान और समान वायु का सम्मिलन करके धातु क्रिया करने का समय आता है । 9 गज लम्बा ( कही कही 15 हाथ लिखा है ) 4 अंगुल चौड़ा बारीक और नरम वस्त्र लेता है । उसको मुख के राह से निगल कर बाहर निकालता है । पानी पीकर भीतर आंतों को साफ करता है । फिर कपड़े में लगे हुये कफ आदि को साफ करके फिर निगलता है । ऐसे ही बारबार करने से अभ्यास पड़ जाता है । तो गज 2 भर चौड़ा और 9 गज लम्बा भी निगलता और निकाल देता है । इस प्रकार जब यह क्रिया पूरी होती है । तो योगी नाभि से वायु को उठाकर मणिपूरक चक्र में भरता है ।
अनाहत चक्र - तब योगी अपान और प्राण को एक करता है । सवा हाथ की एक दातुन बनाकर कंठ के मार्ग से पेट में चलता है । पेट भर पानी पीकर बाहर निकलता है । जिससे अन्दर पेट, कलेजे और फेफड़ो के कफ आदि निकल जाते हैं । इस क्रिया को कुंजर क्रिया कहते हैं । इस क्रिया से बङा आनन्द और प्रकाश मिलता है । इसी क्रिया से योगी अनाहत शब्द सुनने लग जाता है ।
यद्यपि अनाहत शब्द में बहुत प्रकार के शब्द सुनाई देते हैं पर सब में 10 प्रकार के शब्द प्रधान हैं ।
1 घण्ट का शब्द 2 शंख का शब्द 3 छोटी 2 घंटियों का शब्द 4 भँवरे की गुंजार का शब्द
5 पहाड़ से पानी नीचे गिरने के समय जैसा शब्द होता है वैसा शब्द 6 बाँसुरी का शब्द 7 शहनाई का शब्द 8 छोटे 2 पक्षियों का शब्द 9 वेणु का शब्द 10 चंग ( सीटी का ) शब्द
यही 10 प्रकार के प्रधान अनाहत शब्द हैं । इनके अतिरिक्त नाना प्रकार के बाजे आदि के शब्द भी सुनाई देते हैं । जिससे मन को बड़ा आनन्द होता है । फिर इसको भी वेध के आगे को बढ़ता है ।
विशुद्ध चक्र भेद -- प्राण अपान और समान तीनों वायु को कण्ठ स्थान में योगी एकत्रित ( समान ) करता है । इस साधन को लम्बिका योग कहते है । इसके साधने के समय केवल दूध ही पीकर रहना होता है । अनाज नही खाना पड़ता ।
मक्खन और सेंधे नमक से जीभ को नित्य रगड़ के पतला करना और जीभ की जड़ की रगों को
शनै: शनै: काट के ( जीभ को ) इतना बढ़ाना पड़ता है कि 10वें द्वार तक पहुँच सके । जीभ को उलट कर ब्रम्हारंध्र के मार्ग को रोककर ऊपर से टपकते हुये अमृत को पीता है । इसके पीने में शरीर की कांति तेजोमय हो जाती है । इस प्रकार अमृत पीने का आनन्द प्राप्त हो जाता है । तो योगी को लम्बिका योग का साधन पूरा हो जाता है ।
अग्नि चक्र - इस विशुद्ध चक्र के आगे अग्नि चक्र है । इसे सिद्ध करने के लिये योगी को नेति क्रिया करने की आवश्यता होती है । सूत की एक वित्ते भर की बत्ती बनाकर नाक में चला, ब्रह्माण्ड को भली प्रकार साफ करके अपने कण्ठ की वायु को अग्नि चक्र में स्थापित करना होता है । योगी अग्नि चक्र में वायु को स्थापित करके बड़ा आनन्द प्राप्त करता है । वायु को ऊपर चढ़ा कर जीभ से मार्ग को रोक के कुम्भक कर समाधि को प्राप्त करता है । शरीर शक्तिहीन मृतक समान हो जाता है । दसवें द्वार में पहुँचकर योगी निर्विकल्प समाधि को प्राप्त हो जाता है । इस स्थान पर पहुँचकर योगी अष्ट सिद्धि और नव निधि को प्राप्त करता है ।
अष्ट सिद्धि - 1 अणिमा 2 महिमा 3 गरिमा 4 लघिमा 5 प्राप्ति 6 प्रकाशित । ( काम ) 7 ईशता 8 वशीकरण ।
1 अणिमा - योगी जिस सिद्धि से अपने शरीर को जितना छोटा चाहे बना लेता है ।
2 महिमा के द्वारा योगी अपनी देह को जितना चाहे बड़ा कर सकता है ।
3 गरिमा के द्वारा जितना चाहे भारी हो जाता है ।
4 लघिमा के बल से अपने शरीर को हलके से हल्का बना सकता है ।
5 प्राप्ति से ही योगी जहाँ चाहता है । चला जाता है ।
6 प्रकाशिता से मनवांछित फल प्राप्त हो जाता है ।
7 ईशता से अपने को सबसे श्रेष्ठ प्रमाणित करा सकता है ।
8 वशीकरण के द्वारा विश्व को अपने वश मे कर सकता है ।
नवनिधि ।
1 महापद्ध 2 पद्ध 3 कच्छप 4 मकर 5 मुकुंद 6 खर्व 7 शंख 8 नील 9 कुंद ।
इन 9 के भिन्न 2 गुण हैं । प्रत्येक निधि पर देवताओं की चौकी रहती है । जब इन 9 निधियों के देवता वश में हो जाते हैं । तो योगी इनको प्राप्त कर लेता है । वह अपनी शक्ति से जिसको चाहे राजा बना सकता है । अथवा दरिद्र कर दे । उसमें सब ऐश्वर्य आ जाते हैं । इसी स्थान को सहस्त्रदल कमल कहते हैं । यहाँ निरंजन का वास है । इस स्थान पर पहुँचकर योगी, निरंजन से एकता कर परमानन्द का अनुभव करता है । इसी अवस्था में अपने आपको अजर, अमर, सर्व शक्तिमान समझता है । इसकी सब सिद्धियाँ दासी हो जाती है । अपनी विद्या के बल से त्रिकालज्ञ हो जाता है । ईश्वर के समान ऐश्वर्य को प्राप्त हो जीव से ईश्वर हो जाता है । संसार में ईश्वर के समान पूज्य हो जाता है । पर जब तक ब्रह्माण्ड स्थित है । तब तक ही तक योगी भी स्थित है । जब तक योगी का ज्ञान है । तब ही तक उसको सब कुछ प्राप्त है । उपरोक्त सब साधना गुरु के द्वारा प्राप्त होती है ।
गुरु की ही शरण प्राप्त कर सफल काम होता है ।
( नोट - नेति, धौति, वस्ति आदि क्रियाएं शरीर की शुद्धि के लिये हैं । चक्र भेद तो प्राण वायु से होता है । पाठक सतलोक वासी स्वामी परमानन्द जी के चक्र भेदन को इससे सुधार कर पढ़ लें । )
उपरोक्त योग क्रिया बाजीगर का कौतुक है । योगियों को अपनी योग क्रिया का बड़ा अभिमान होता है । सब भूल में पड़कर बन्धन में पड़े हैं ।
योग भोग दोनों ही भ्रम और अनित्य हैं । योग भोग दोनों क्रिया समान ही है । जिस प्रकार योगी 6 चक्र वेधता है । उसी प्रकार भोगी भी 6 चक्र तोड़कर ही आनंद को प्राप्त करता है । केवल उतना ही भेद है कि योगी नीचे से ऊपर को चढ़ता है । भोगी ऊपर से नीचे को आता है । पर दोनों ही परमानन्द को प्राप्त करते हैं ।
भोगियों का चक्र भेद ।
भोग का वर्णन लिखता हूँ । जिसके विचारने से जान पड़ेगा कि योगी और भोगी में कुछ भेद नही है । जिस प्रकार योगी षट चक्र को वेध कर योग सिद्ध हो अमर मानता है । उसी प्रकार भोगी भी षट चक्र वेधकर योग सिद्ध और अमर होता है । भोगी स्त्री पुरुष मिलकर सिद्धि प्राप्त करता है । यानी भोग करने के समय जब मत्था से मत्था मिलता है । तो पहला चक्र टूटता है ।
जब आंख से आँख मिलते ही द्वितीय चक्र विद्ध होता है । मुँह से मुँह मिलते ही तृतीय चक्र टूटता है । छाती से छाती मिलाते ही चतुर्थ चक्र टूटता है ।
नाभि से नाभि मिलते ही पंचम चक्र विद्ध होता है । भग और लिंग का संयोग होने से छठा चक्र वेधा जाता है । जब भोगी उपरोक्त रीति से 6 चक्रों को भेद चुकता है । तब वायु और अग्नि के बल से नीचे को वीर्य उतरता है । वह 6 चक्रों को वेधता हुआ सातवें स्थान गर्भाशय में जा स्थित होता है । भोगी अपने आपको अमर जानता है । क्योंकि जब तक भोगी की संतान पृथ्वी पर वर्तमान है । तब तक वह अमर ही है ।
समन्वय - जैसे योगी को ज्ञान और सिद्धि मिलती है । वैसे ही भोगी को सन्तान मिलती है ।
जो माता पिता थे । वही पुत्री और पुत्र रूप में वर्तमान रहते है । दोनों ( योगी और भोगी) सातवें चक्र में अपने को अमर अनुमान करते है ।
( योग भोग दोनों ही मिथ्या भ्रम है )
( सदगुरु कबीर साहब वचन )
जो नहीं माने शब्द हमारा, सो चले जइ है यम के द्वारा ।
जो कोई माने शब्द हमारा, सो चले अइ है लोक मंझारा ।
साभार - एक फ़ेसबुक पेज
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