राजीव जी को सादर सप्रेम नमस्कार । होली की बहुत बहुत अग्रिम शुभकामनाये ज्ञात हों । आज आपसे बहुत दिनों पश्चात मुखातिब हूँ । आपसे मेरा सवाल इतना सा है कि एक तो होता है आत्म विश्वास । जो बड़े बड़े काम कर जाता है । और दूसरा होता है । अन्ध विश्वास जिसका कोई आधार नहीं होता । बस ऐसे ही किसी के कहने या अपनी किसी इच्छा के चलते किसी बात को मान लिया जाता है । उदाहरण के लिए रामकृष्ण परमहंस के जीवन की एक घटना याद आती है । जब विवेकानंद ने उनसे पूछा कि -
क्या आपने ईश्वर को देखा है ? तो उन्होंने न सिर्फ इसकी हामी भरी । बल्कि ये भी कहा कि -
बिल्कुल वैसे ही देखा है । जैसा अभी तुझे देख रहा हूँ । और तुझे भी दिखा सकता हूँ ? अब ये तो हुआ उनका आत्म विश्वास । लेकिन यदि बिना कुछ अनुभव किये विवेकानन्द ने उनकी बात उसी समय मान ली होती । तो यह होता अन्धविश्वास । वैसे रामकृष्ण ने नरेन्द्र को ये भी समझाया था कि - बेटा विश्वास कभी अंधा नहीं होता । तो फिर अन्ध विश्वास का कोई अर्थ नहीं है ।
कृपया अपनी टिप्पणी द्वारा इस विषय को थोडा और स्पष्ट करेंगे । आपका कृष्ण मुरारी । कोटा से ।
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शर्मा जी जैसा कि मैंने आपके ही उत्तरों में जिक्र किया है । सोहंग अहम मूल से निर्मित अल्पज्ञ जीव का ये स्वभाव ही होता है कि वह किसी भी विवरण में से सिर्फ़ अपने मतलब की बात निकाल लेता है । और इस तरह से निकाला
गया वह अंश ( या मतलब ) अर्थ का अनर्थ ही करता है । इससे सोहंग जीव को उसके 0 महत्वहीन " अहम " को कायम रखने की संतुष्टि मिलती है ।
ऐसे ही रामकृष्ण और विवेकानन्द को लेकर भी कहानियाँ गढ दी गयी हैं । ऐसा प्रचलित हो गया कि पहली बार सामना होने पर रामकृष्ण ने उन्हें उनका नाम नरेन्द्र लेकर पुकारा था ? जबकि सच्चाई ये नहीं है । नरेन्द्र जब पहली बार रामकृष्ण से मिलने गया ।
तब तक वह अद्वैत समाधि को जान चुके थे । और चेतन समाधि हेतु कक्ष में थे । जब नरेन्द्र ने दरवाजा खटखटाया । और रामकृष्ण ने पूछा - कौन है ?
- यही तो जानने आया हूँ । नरेन्द्र बोला - कि मैं कौन हूँ ?
रामकृष्ण को इस ( शाश्वत जिज्ञासा पूर्ण अदभुत उत्तर से ) युवक में संभावनायें दिखी । और इस तरह धीरे धीरे दोनों के मध्य गुरु शिष्य सम्बन्ध प्रगाढ होते गये ।
एक तो होता है आत्म विश्वास - आत्मविश्वास एक सम्मानित शब्द के रूप में संसार में बहुत प्रचलित है ।
जबकि हकीकत में दूर दूर तक आम इंसान का - आत्मविश्वास ? से कोई वास्ता ही नहीं । क्योंकिं जब आत्मा को ही लेकर बहुत संशय व्याप्त है । तब आत्मविश्वास का क्या अर्थ ? जब आत्मा का ही दूर दूर तक पता नहीं । फ़िर कैसा आत्मविश्वास ? ठोस कारणों ( की भूमि से ) से उत्पन्न निश्चित परिणाम के प्रति आश्वस्त दृढ विश्वास को ही सांसारिक लोग आत्मविश्वास कह कर पुकारते हैं ।
जबकि आत्मविश्वास बहुत हटकर अलग तरह का है । वह बहुत ऊँची बात है ।
अंध विश्वास जिसका कोई आधार नहीं होता - आपने कभी बीज गणित पढा है - माना राम के पिता की आयु य वर्ष है ? अब देखिये । गणित ( ध्यान दें ) जैसा महत्वपूर्ण विषय । जिस पर आपका ? पूरा बिज्ञान ही आश्रित है । कह रहा है । माना ( शब्द पर विशेष ध्यान दें । बेचारा मानने पर मजबूर है ) आयु " य " वर्ष ( विशेष ध्यान दें ) है । कैसा अंध विश्वासी गणित है ? एक तो " माना " शब्द बहुत यूज करता है ? हर बात में माना जोङ देगा । आगे और भी हद कर देता है । य वर्ष ? बताईये । आज तक के इतिहास में किसी की आयु - य वर्ष ? हुयी है । आगे कहता है - साइन थीटा =
लम्ब / कर्ण । cos थीटा = आधार / कर्ण । बताईये । ये अजीव से शब्द । क्या उपयोग है ? इनका जिन्दगी में । e = mc ( स्क्वायर ) आप इच्छुक हों । तो इतने उदाहरण दूँ कि - समस्त ज्ञान बिज्ञान ही अंधविश्वास हो जाये । पूरा माना माना गाता हुआ मान मान के चलता है ।
एडीसन ने माना - बल्ब जल सकता है । ग्राहम बेल ने माना - दूरस्थ लोग यन्त्र द्वारा आमने सामने की तरह बात कर सकते हैं । बङे अंधविश्वासी बैज्ञानिक थे । जो बात कोई ( उस समय ) सोच भी न सकता था । उस बात को मान लेते थे । और देखिये । आज दुनियाँ का क्या हाल कर दिया । पर - माना ये भी ठीक ही है ।
अब ये तो हुआ उनका ( रामकृष्ण का ) आत्म विश्वास - चलिये रामकृष्ण को छोङते हैं । इतिहास को खंगालने से क्या लाभ ? वर्तमान की बात करते हैं । मैं आपको लेपटाप पर उत्तर दे रहा हूँ । फ़िर इसे ब्लाग में पोस्ट करूँगा । अब ये तो हुआ मेरा आत्म विश्वास ? अब ये तो हुआ मेरा आत्म विश्वास ?? अब ये तो हुआ मेरा आत्म विश्वास ??? अब ये
तो हुआ मेरा आत्म विश्वास ???? अब भी नहीं समझे ? कुछ अटपटा सा लग रहा है क्या ? हाँ क्योंकि शायद मुझे खटका है ना । ये मेरे सामने लेपटाप है ? या पता नहीं । नहीं है ? मैं उत्तर लिख रहा हूँ । पता नहीं । नहीं लिख रहा हूँ । बस ( आपके ही शब्दों में ) ये तो मेरा आत्म विश्वास ? ही है ? आपने ये लाइन खुद ही लिखने के बाद - बल्कि ये भी कहा कि -
बिलकुल वैसे ही देखा है । जैसा अभी तुझे देख रहा हूँ । और तुझे भी दिखा सकता हूँ ? आखिर किस बुद्धि स्तर से लिखा - अब ये तो हुआ उनका आत्म विश्वास ? विश्वास शब्द मेरे ख्याल से वहीं प्रयुक्त होता है । जहाँ कार्य का होना और न होना । दोनों संभावनायें बराबर मौजूद हों । और रामकृष्ण किसी आत्म विश्वास को नहीं " है " को जानते थे । प्राप्त थे । शाश्वत । है । और उन्होंने विवेकानन्द को उसी । है । से मिला दिया था ।
जपु आदि सचु जुगादि सचु । है - भी सचु नानक होसी भी सचु ।
तो यह होता ( विवेकानन्द का ) अंधविश्वास - आप शायद ये मुझसे दसवाँ प्रश्न तो पूछ ही रहे हैं । और इसके अतिरिक्त ढेरों अन्य जिज्ञासुओं के प्रश्न उत्तर ब्लाग्स पर प्रकाशित हैं । और भी योग बिज्ञान पर ढेरों तकनीकी जानकारी यहाँ मौजूद है । तो क्या प्रश्न पूछने का ये सिलसिला लगातार अंधविश्वास पर चल रहा है ? जी नहीं । आप आंतरिक स्तर पर बौद्धिक स्तर पर संतुष्ट हो रहे हैं ।
अंधेरा छँटता जा रहा है । उजाला बढता जा रहा है । कोई 1 प्रश्न पूछता है । 500 संतुष्ट होते हैं । फ़िर 1000 भी होगें । और 1 00 000 भी । क्योंकि परम्परा तो यही बताती है । इतिहास तो यही कह रहा है । तब विवेकानन्द क्या
। एक बच्चा भी केवल मान कर संतुष्ट नहीं होगा । अगर संतुष्ट हो जाता । तो वह कमी रामकृष्ण की नहीं । विवेकानन्द की ही होती । क्योंकि रामकृष्ण तो स्पष्ट कह रहे हैं
- बिल्कुल वैसे ही देखा है । जैसा अभी तुझे देख रहा हूँ । और तुझे भी दिखा सकता हूँ । क्या इन शब्दों में संशय की हल्की सी झलक भी नजर आती है ? नो । नेवर । क्योंकि वो - है । और शाश्वत - है ।
जपु आदि सचु जुगादि सचु । है - भी सचु नानक होसी भी सचु ।
बेटा विश्वास कभी अंधा नहीं होता । तो फिर अंध विश्वास का कोई अर्थ नहीं है - बहुत बहुत धन्यवाद रामकृष्ण जी । क्या जबरदस्त बात कही ।