21 मार्च 2012

प्रेमी सब कुछ जान लेता है

मैं तो हूँ विश्वास में । प्रेम सबकी जान लेता है । प्रेमी सब कुछ जान लेता है । प्रेमी को कोई नहीं जान पाता । आह.....अब वो नहीं है ।
4D sapce - यहाँ बुद्धि भाव काम आ गयी । 5D space - यहाँ अहम भाव काम आ गया ।
6D space - यहाँ जीव भाव काम आ गया । 7D space - यहाँ कृपा हो गयी ।
8D space - साहेब । 9D Space - साहेब । साहेब ।
10 space - साहेब । साहेब । साहेब ।
11 space - साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब 


साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब साहेब........
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हमारे एक नियमित पाठक की - मायावी नगरी @ डेंजरस जोन आफ़ ओमियो तारा.. पर भावपूर्ण प्रतिक्रिया । इसका प्रकाशन इसलिये कि - इनका भाव और इतनी बार आप साहेव साहेब पढोगे भी । तो भी बहुत भला  हो जायेगा ।

11 मार्च 2012

संजय चिंताहरण आश्रम से

सबहिं सुलभ सब दिन सब देशा । सेवत सादर समन कलेशा ।
मज्जन फल पेखिअ ततकाला । काक होहिं पिक बकउ मराला । 
सुनि आचरज करै जनि कोई । सतसंगति महिमा नहिं गोई ।
बालमीक नारद घट जोनी । निज निज मुखनि कही निज होनी । ? 
बिनु सतसंग बिबेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई । ? 
सतसंगत मुद मंगल मूला । सोइ फल सिधि सब साधन फूला ।
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई । पारस परस कुधात सुहाई ।
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी । कहत साधु महिमा सकुचानी । 
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरे । उजरें हरष बिषाद बसेरे ।
जे पर दोष लखहिं सहसाखी । पर हित घृत जिन्ह के मन माखी ।
बायस पलिअहिं अति अनुरागा । होहिं निरामिष कबहु कि कागा ।
गुन अवगुन जानत सब कोई । जो जेहि भाव नीक तेहि सोई ।
माया बृह्म जीव जगदीशा । लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा । 
जड़ चेतन गुन दोषमय बिश्व कीन्ह करतार ।  संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार । ?
आकर चारि लाख चौरासी । जाति जीव जल थल नभ बासी । 
सीय राममय सब जग जानी । करउ प्रनाम जोरि जुग पानी ।
निज कबित्त केहि लाग न नीका । सरस होउ अथवा अति फीका । ? 
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं । ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं ।
मंगल भवन अमंगल हारी । उमा सहित जेहि ? जपत पुरारी ।
बिधुबदनी सब भांति संवारी । सोह न बसन बिना बर नारी ।
सब जानत प्रभु प्रभुता सोई । तदपि कहे बिनु रहा न कोई ।
शारद शेष महे्श बिधि आगम निगम पुरान । नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान ।
जान आदि कबि नाम प्रतापू । भयउ शुद्ध कर उलटा जापू । ?
सहस नाम सम सुन शिव बानी । जपि जेई पिय संग भवानी । ?
महिमा जासु जान गनराउ । प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ ।
नाम प्रभाउ जान शिव नीको । कालकूट फलु दीन्ह अमी को । ?
डा. संजय चिंताहरण आश्रम से दीक्षा प्राप्ति के बाद लौटकर । इसका विवरण अलग से लेख में प्रकाशित होगा । आपका बहुत बहुत आभार संजय जी ।

चिंताहरण

नाम रूप दुइ ईस उपाधी । अकथ अनादि सुसामुझि साधी ।
देखिअहिं रूप नाम आधीना । रूप ज्ञान नहिं नाम बिहीना । ?
रूप बिशेष नाम बिनु जानें । करतल गत न परहिं पहिचानें । 
नाम रूप गति अकथ कहानी । समुझत सुखद न परति बखानी । 
नाम जीह जपि जागहिं जोगी । बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी । 
बृह्म सुखहि अनुभवहि अनूपा । अकथ अनामय नाम न रूपा ।
साधक नाम जपहि लय लाए । होहि सिद्ध अनिमादिक पाए ।
चहू चतुर कहु नाम अधारा । ज्ञानी प्रभुहि बिशेषि पिआरा ।
चहु जुग चहु श्रुति नाम प्रभाऊ । कलि बिशेषि नहिं आन उपाऊ । ?
मोरें मत बड़ नामु दुहू तें । किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें । ?    यह कौन सा नाम है
ब्यापक एक बृह्म अबिनाशी । सत चेतन घन आंनद रासी ।
निरगुन ते एहि भांति बड़ । नाम प्रभाउ अपार । कहंउ नामु बड़ राम ते । निज बिचार अनुसार । ?
नाम सप्रेम जपत अनयासा । भगत होहिं मुद मंगल बासा ।
राम एक तापस तिय तारी । नाम कोटि खल कुमति सुधारी ।   नाम की ताकत
नाम गरीब अनेक नेवाजे । लोक बेद बर बिरिद बिराजे ।    नाम की ताकत
नामु लेत भव सिंधु सुखाहीं । करहु बिचारु सुजन मन माहीं ।
फिरत सनेह मगन सुख अपने । नाम प्रसाद सोच नहिं सपने ।
बृह्म राम ते नामु बड़ बर दायक बर दानि । रामचरित सत कोटि मह लिय महेश जिय जानि ।       
नाम प्रसाद शंभु अबिनाशी । साजु अमंगल मंगल रासी । 
नारद जानेउ नाम प्रतापू । जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू । 
ध्रुव सगलानि जपेउ हरि नांऊ । पायउ अचल अनूपम ठांऊ । 
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई । रामु न सकहिं नाम गुन गाई । ??
चहुं जुग तीनि काल तिहु लोका । भए नाम जपि जीव बिसोका । 
नाम कामतरु काल कराला । सुमिरत समन सकल जग जाला । 
डा. संजय चिंताहरण आश्रम से दीक्षा प्राप्ति के बाद लौटकर । इसका विवरण अलग से लेख में प्रकाशित होगा । आपका बहुत बहुत आभार संजय जी ।

02 मार्च 2012

सिद्धाश्रम

आदरणीय राजीव जी ! अभी कुछ दिनों पहले मैंने डॉ.... दत्त ..ली जी की एक पुस्तक पढ़ी । उसमें सिद्धाश्रम का उल्लेख हैं । क्या सिद्धाश्रम नाम की कोई जगह कही हैं ? सिद्धाश्रम में एक तालाब का वर्णन हैं । जिसमे नहाने से कायाकल्प हो जाता हैं । वहाँ अनेक सिद्ध पुरुष रहते हैं । जिनकी उमृ 1000 - 500 साल बताई हैं । जो वही तपस्या में लीन रहते हैं । और अनेक चमत्कारी बातों का वर्णन हैं । क्या पृथ्वी पर ऐसी कोई जगह या आश्रम हो सकता हैं ? आपके उत्तर का अभिलाषी - प्रेम कुमार
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प्रेम जी डा ...ली एक छोटे स्तर के सिद्ध कुछ तांत्रिक सिद्धियाँ और कुछ तांत्रिक विध्याओं के जानकार थे । वह बहुत से निकृष्ट तांत्रिकों के सम्पर्क में भी रहते थे । ये लोग कभी कभार अपनी तंत्र विध्याओं का एक सम्मेलन सा करते हैं । जिनमें एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृति अधिक होती है । ऐसे ही सिद्धों के ठिकाने को ... ली ने सिद्धाश्रम कहा है । बाकी तांत्रिक लोकों सिद्ध लोकों में ऐसे सिद्धाश्रम अवश्य होते हैं । प्रथ्वी पर ऐसा कोई तालाब नहीं हैं । हाँ ऋषियों के समय में अवश्य थे । जैसे च्यवन ऋषि का ओंछा नामक स्थान पर था । जिसका प्रभाव अब समाप्त हो चुका है । कुछ एक जङी बूटियों से युक्त । खनिजों से

युक्त जल वाले तालाब । हिमालय और अन्य जगहों पर अबश्य हैं । जिनसे चर्म रोग गठिया आदि रोगों में कुछ लाभ हो जाता है । बाकी कायाकल्प का अर्थ बहुत बङा है । कुण्डलिनी तंत्र मंत्र विधा में चमत्कार कोई ज्यादा बङी चीज नहीं हैं । बल्कि उपचार की तरह है । वास्तव में व्यक्ति की आवश्यकता क्या है । इस पर निर्भर है । आपको आश्चर्य होगा । .. ली जैसे तांत्रिकों का निश्चित अंजाम नरक और फ़िर तुच्छ तांत्रिक लोक होते हैं । मेरी आपको यही सलाह है । भूलकर भी किसी तांत्रिक से कोई उपचार और सहायता कभी न लें । उसकी अपेक्षा मृत्यु हो जाना अच्छा है । सात्विक भक्तिमय कोई भी उपचार कभी भी ले सकते हैं ।
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आदरणीय राजीव जी ! उत्तर देने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद । क्यूंकि ये जिज्ञासा मुझे बहुत दिनों से परेशान कर रही थी कि - क्या ऐसा हो सकता हैं ? पर आपके उत्तर से मुझे बहुत संतुष्टि हुई हैं । मैं आपका आभारी हूँ । एक बार फिर से आपका बहुत बहुत धन्यवाद । और आपको प्रणाम । आपका स्नेहभिलाशी । प्रेम कुमार 


बेटा विश्वास कभी अंधा नहीं होता

राजीव जी को सादर सप्रेम नमस्कार । होली की बहुत बहुत अग्रिम शुभकामनाये ज्ञात हों । आज आपसे बहुत दिनों पश्चात मुखातिब हूँ । आपसे मेरा सवाल इतना सा है कि एक तो होता है आत्म विश्वास । जो बड़े बड़े काम कर जाता है । और दूसरा होता है । अन्ध विश्वास जिसका कोई आधार नहीं होता । बस ऐसे ही किसी के कहने या अपनी किसी इच्छा के चलते  किसी बात को मान लिया जाता है । उदाहरण के लिए  रामकृष्ण परमहंस के जीवन की एक घटना याद आती है । जब विवेकानंद ने उनसे पूछा कि - क्या आपने ईश्वर को देखा है ? तो उन्होंने न सिर्फ इसकी हामी भरी । बल्कि ये भी कहा कि -  बिल्कुल वैसे ही देखा है । जैसा अभी तुझे देख रहा हूँ । और तुझे भी दिखा सकता हूँ ? अब ये तो हुआ उनका आत्म विश्वास । लेकिन यदि बिना कुछ अनुभव किये विवेकानन्द ने उनकी बात उसी समय मान ली होती । तो यह होता अन्धविश्वास । वैसे रामकृष्ण ने नरेन्द्र को ये भी समझाया था कि - बेटा विश्वास कभी अंधा नहीं होता । तो फिर अन्ध विश्वास का कोई अर्थ नहीं है । कृपया अपनी टिप्पणी द्वारा इस विषय को थोडा और स्पष्ट  करेंगे । आपका कृष्ण मुरारी । कोटा से ।
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शर्मा जी जैसा कि मैंने आपके ही उत्तरों में जिक्र किया है । सोहंग अहम मूल से निर्मित अल्पज्ञ जीव का ये स्वभाव ही होता है कि वह किसी भी विवरण में से सिर्फ़ अपने मतलब की बात निकाल लेता है । और इस तरह से निकाला 


गया वह अंश ( या मतलब ) अर्थ का अनर्थ ही करता है । इससे सोहंग जीव को उसके 0 महत्वहीन " अहम " को कायम रखने की संतुष्टि मिलती है ।
ऐसे ही रामकृष्ण और विवेकानन्द को लेकर भी कहानियाँ गढ दी गयी हैं । ऐसा प्रचलित हो गया कि पहली बार सामना होने पर रामकृष्ण ने उन्हें उनका नाम नरेन्द्र लेकर पुकारा था ? जबकि सच्चाई ये नहीं है । नरेन्द्र जब पहली बार रामकृष्ण से मिलने गया । तब तक वह अद्वैत समाधि को जान चुके थे । और चेतन समाधि हेतु कक्ष में थे । जब नरेन्द्र ने दरवाजा खटखटाया । और रामकृष्ण ने पूछा -  कौन है ?
- यही तो जानने आया हूँ । नरेन्द्र बोला - कि मैं कौन हूँ ?
रामकृष्ण को इस ( शाश्वत जिज्ञासा पूर्ण अदभुत उत्तर से ) युवक में संभावनायें दिखी । और इस तरह धीरे धीरे दोनों के मध्य गुरु शिष्य सम्बन्ध प्रगाढ होते गये ।
एक तो होता है आत्म विश्वास - आत्मविश्वास एक सम्मानित शब्द के रूप में संसार में बहुत प्रचलित है ।

जबकि हकीकत में दूर दूर तक आम इंसान का - आत्मविश्वास ? से कोई वास्ता ही नहीं । क्योंकिं जब आत्मा को ही लेकर बहुत संशय व्याप्त है । तब आत्मविश्वास का क्या अर्थ ? जब आत्मा का ही दूर दूर तक पता नहीं । फ़िर कैसा आत्मविश्वास ? ठोस कारणों ( की भूमि से ) से उत्पन्न निश्चित परिणाम के प्रति आश्वस्त दृढ विश्वास को ही सांसारिक लोग आत्मविश्वास कह कर पुकारते हैं । जबकि आत्मविश्वास बहुत हटकर अलग तरह का है । वह बहुत ऊँची बात है ।
अंध विश्वास जिसका कोई आधार नहीं होता - आपने कभी बीज गणित पढा है - माना राम के पिता की आयु य वर्ष है ? अब देखिये । गणित ( ध्यान दें ) जैसा महत्वपूर्ण विषय । जिस पर आपका ? पूरा बिज्ञान ही आश्रित है । कह रहा है । माना ( शब्द पर विशेष ध्यान दें । बेचारा मानने पर मजबूर है ) आयु " य " वर्ष ( विशेष ध्यान दें ) है । कैसा अंध विश्वासी गणित है ? एक तो " माना " शब्द बहुत यूज करता है ? हर बात में माना जोङ देगा । आगे और भी हद कर देता है । य वर्ष ? बताईये । आज तक के इतिहास में किसी की आयु - य वर्ष ? हुयी है । आगे कहता है - साइन थीटा =

लम्ब / कर्ण । cos  थीटा = आधार / कर्ण । बताईये । ये अजीव से शब्द । क्या उपयोग है ? इनका जिन्दगी में । e = mc ( स्क्वायर ) आप  इच्छुक हों । तो इतने उदाहरण दूँ कि - समस्त ज्ञान बिज्ञान ही अंधविश्वास हो जाये । पूरा माना माना गाता हुआ मान मान के चलता है । एडीसन ने माना - बल्ब जल सकता है । ग्राहम बेल ने माना - दूरस्थ लोग यन्त्र द्वारा आमने सामने की तरह बात कर सकते हैं । बङे अंधविश्वासी बैज्ञानिक थे । जो बात कोई ( उस समय ) सोच भी न सकता था । उस बात को मान लेते थे । और देखिये । आज दुनियाँ का क्या हाल कर दिया । पर - माना ये भी ठीक ही है । 
अब ये तो हुआ उनका ( रामकृष्ण का ) आत्म विश्वास - चलिये रामकृष्ण को छोङते हैं । इतिहास को खंगालने  से क्या लाभ ? वर्तमान की बात करते हैं । मैं आपको लेपटाप पर उत्तर दे रहा हूँ । फ़िर इसे ब्लाग में पोस्ट करूँगा । अब ये तो हुआ मेरा आत्म विश्वास ? अब ये तो हुआ मेरा आत्म विश्वास ?? अब ये तो हुआ मेरा आत्म विश्वास ??? अब ये

तो हुआ मेरा आत्म विश्वास ???? अब भी नहीं समझे ? कुछ अटपटा सा लग रहा है क्या ? हाँ क्योंकि शायद मुझे खटका है ना । ये मेरे सामने लेपटाप है ? या पता नहीं । नहीं है ? मैं उत्तर लिख रहा हूँ । पता नहीं । नहीं लिख रहा हूँ । बस ( आपके ही शब्दों में ) ये तो मेरा आत्म विश्वास ? ही है ? आपने ये लाइन खुद ही लिखने के बाद - बल्कि ये भी कहा कि - बिलकुल वैसे ही देखा है । जैसा अभी तुझे देख रहा हूँ । और तुझे भी दिखा सकता हूँ ? आखिर किस बुद्धि स्तर से लिखा - अब ये तो हुआ उनका आत्म विश्वास ? विश्वास शब्द मेरे ख्याल से वहीं प्रयुक्त होता है । जहाँ कार्य का होना और न होना । दोनों संभावनायें बराबर मौजूद हों । और रामकृष्ण किसी आत्म विश्वास को नहीं " है " को जानते थे । प्राप्त थे । शाश्वत । है । और उन्होंने विवेकानन्द को उसी । है । से मिला दिया था । जपु आदि सचु जुगादि सचु । है - भी सचु नानक होसी भी सचु ।
तो यह होता ( विवेकानन्द का ) अंधविश्वास - आप शायद ये मुझसे दसवाँ प्रश्न तो पूछ ही रहे हैं । और इसके अतिरिक्त ढेरों अन्य जिज्ञासुओं के प्रश्न उत्तर ब्लाग्स पर प्रकाशित हैं । और भी योग बिज्ञान पर ढेरों तकनीकी जानकारी यहाँ मौजूद है । तो क्या प्रश्न पूछने का ये सिलसिला लगातार अंधविश्वास पर चल रहा है ? जी नहीं । आप आंतरिक स्तर पर बौद्धिक स्तर पर संतुष्ट हो रहे हैं । अंधेरा छँटता जा रहा है । उजाला बढता जा रहा है । कोई 1 प्रश्न पूछता है । 500 संतुष्ट होते हैं । फ़िर 1000 भी होगें । और 1 00 000 भी । क्योंकि परम्परा तो यही बताती है । इतिहास तो यही कह रहा है । तब विवेकानन्द क्या 


। एक बच्चा भी केवल मान कर संतुष्ट नहीं होगा । अगर संतुष्ट हो जाता । तो वह कमी रामकृष्ण की नहीं । विवेकानन्द की ही होती । क्योंकि रामकृष्ण तो स्पष्ट कह रहे हैं - बिल्कुल वैसे ही देखा है । जैसा अभी तुझे देख रहा हूँ । और तुझे भी दिखा सकता हूँ । क्या इन शब्दों में संशय की  हल्की सी झलक भी नजर आती है ? नो । नेवर । क्योंकि वो - है । और शाश्वत - है । जपु आदि सचु जुगादि सचु । है - भी सचु नानक होसी भी सचु ।
बेटा विश्वास कभी अंधा नहीं होता । तो फिर अंध विश्वास का कोई अर्थ नहीं है - बहुत बहुत धन्यवाद रामकृष्ण जी । क्या जबरदस्त बात कही ।