बिहार की प्रष्ठभूमि पर लिखी गयी श्री अनिल यादव जी कहानी ‘तेलियाकंद’ एक सशक्त व्यंग्य भी है । और किसी भी सामाजिक ताने बाने का सटीक चित्रण भी ।
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बरखा की व्याकुल प्रतीक्षा थी । घरों के भीतर सांस फूलने तक हौंस उठाती गेहूं की भटकती गर्द और बाहर धूप में चमकती अरहर की भाले जैसी खूटियों की चमक मंद होने का नाम ही नहीं ले रही थी । गरमी के नीरस, लंबे दिनों में उन्मादी बवंडरों के नाच ने कतरीसराय के लोगों को इतना भ्रमित किया कि उन्हें अपने फुटकर दुख भी अंतहीन लगने लगे । उकताहट के मारे बदहवास हो जाने से खुद को बचाने के लिए वे किसी उत्तेजना की खोज कर रहे थे । रहस्यमय ढंग से वे यकीन करने लगे कि रेखिया उठान सूरे को एक जहरीला, चमत्कारी नर पौधा रातों में बुलाता है । और मादा उसके सम्मुख रोती है ।
प्रधानपति के औसारे के एक कोने में चलते डाकखाने में रखा रहने वाला अखबार पढ़ कर मौसम का हाल बताने वालों की सात पीढिय़ां गप्पी घोषित की जा चुकीं । तब कहीं जाकर आसमान में बादल घिरते दिखे । पहला दौंगरा सावन में गिरा । और गांव व्यस्त हो गया । जमीन से फूटे नए, फिर से पनपे पौधों, जानवरों, कीड़ों और मायके लौट रही लड़कियों से जुड़ी स्मृतियों की शामत आ गई । लड़के लाठियों से पीट कर झाडिय़ों का कचूमर निकाले दे रहे थे । उनके भीतर उफनाती हिंसा प्रहारों से लपलपाती हवा से होती हुई शिशुओं में उतर रही थी । जो सींकों से लौकी की कुरमुरी लतरें पीट रहे थे ।
गांव के पिछवाड़े, घरों के बीच की संकरी अंधेरी गलियों में, घूरों पर जालों में लिपटे नागफनी, झड़बेरी, सूरन और अमोला धांगते लड़के जानते थे कि जिस चमत्कारी पौधे की तलाश उन्हें है । वे यह नहीं हैं । लाठियां किसी अदृश्य पर पड़ रही थीं । जिसे कल्पना में तबाह कर डालने का काम काफी जिम्मेदारी का था । और इसमें एक मजा भी था । वे पीटे गए पौधे की कोई पत्ती उंगलियों से मसल कर देखते, सूंघते, जड़ खोद कर उलटते पुलटते आगे बढ़ जाते । अचानक कोई खरहा प्रकट होता । तो आदमियों और पालतू कुत्तों के भीतर दुबका शिकारी हड़बड़ा कर सक्रिय होता । लिहो लिहो करता हुआ सीवान में दूर तक पीछा करता । बहुतेरे चूहे, छछूंदर, गिरगिट, तितलियां, झींगुर और एक गोह बेमौत मारे गए ।
गलियों में फेंकी गई पुरातन गठरियों, हांडियों की कमी नहीं थी । जिनमें भरी मिट्टी में कल्पना किसी भ्रूण का आकार खोज लेती थी । कोई भी ढेला गर्भपात से मार डाले गए बच्चे का सिर हो सकता था । और घास की जड़ें कोमल अस्थिपंजर में बदल सकती थीं । इन्हीं पुरातात्विक प्रमाणों की रोशनी में कई परिवारों की कामुकता का इतिहास, अवैध संबंधों से बने बिगड़े सामाजिक समीकरण और प्रेम के किस्से फुसफुसाती आवाजों में उतराते हुए सतह पर आ रहे थे । गांव में किसी भी और जगह से ज्यादा गाढ़ा बतरस डाकखाने की दोपहरी में महुए की तरह चूता था । जहाँ पोस्टमास्टर और पोस्टमैन प्रधानपति के चमचों, भेदियों, नैतिकता के कपटी भाष्यकारों और निठल्लों के साथ ताश खेलते थे । वह ओसारा कब का समय बिताने के लिए विभोर होकर गप्पे हांकने वाले सीधे सादे ग्रामीणों की मिलने की जगह से जमाने की लहरें गिनने वाले चौकन्ने गिरोह के सभाकक्ष में बदल चुका था । जहाँ पोस्टमास्टर की मुट्ठी गरम कर किसी और के नाम आई चिट्ठी भी खरीदी जा सकती थी ।
लाठियां कंधों पर उठाए ताल से गांव की ओर लौटते लड़के वनस्पतियों की तरह महकते थे । शरीर पर लगे तितलियों के पंखों के चमकते रंगों और खरोचों के कारण वे सामूहिक स्मृति को मथने वाले देवदूतों का आभामंडल पा जाते थे । जो कलयुग के सार्वजनिक पतित दौर में एक जरूरी दायित्व निभा रहे थे । दिशा मैदान को निकले बूढ़े पोखर में बादलों की परछाई कौवे की तरह गरदन घुमा घुमा कर देखते । किसी लड़के को बुलाकर कहते - तुम्हारी नई आंख है । देखो पनिया में तेल है क्या ?
- पानी में छिपकर कोई कोल्हू हांक रहा है क्या ? जो आपको चारों ओर तेल दिखाई दे रहा है ।
सूरे का जीवन पौधों, कीड़ों, जानवरों से कोई बेहतर नहीं था । लड़के उसे देखकर सुदीर्घ आक्रामक टिटकारी मारते । देर तक लयबद्ध ठो ठो ठो फिर डुर्र होइ...। अर्थहीन लगती ध्वनियों का जैविक अर्थ ऐसा था कि न जाने कबसे उनका इस्तेमाल सांड़ को उत्तेजित कर गरम गाय से मिलन संभव बनाने के लिए किया जा रहा था । पंचायती सांड़ के कूल्हे पर गरम लोहे से दाग कर काढ़ा गया एक ठप्पा होता है । जिसे उसके घूमने के लिए निर्धारित इलाके का पता चलता है । दुनियां की वे सारी जगहें सूरे के इलाके में आती थीं । जहाँ रोशनी नहीं पहुँचती । उसे संगीतमय टिटकारियों के आरोह अवरोह से हर दिन कई बार दागा जाता था । साफ नजर आता कि वह अपने उजले दांत डर को छिपाने के लिए दिखा रहा है । जबकि उसका सारा ध्यान खपरैल जैसे फैले पैरों से अपने खड़े होने की जगह को लगातार टटोलते हुए किसी अनहोनी पर लगा रहता था । ढेले सनसनाते तब उसके होंठ तनाव से ऐंठने लगते । वह सदमें से चिंहुक कर ‘वाह रे आदमी’ कहता हुआ हाथों से सिर और मुंह ढक कर बचने की कोशिश करता । लेकिन दो तीन ढेले लगने के बाद उसका डर खत्म हो जाता । वह क्रोध से किचकिचाता । लंबे काल फेंकता । ढेलों की दिशा में दौड़ पड़ता । इतनी देर में लड़के जरा दूर हटकर अन्य लोगों के साथ अपनी हंसी की दुष्ट आवाज दबा रहे होते थे ।
वह जन्म से अंधा था । माथे के नीचे कोटर में पलकों की चिरान का आभास भर होता था । जिन पर दो फुंसियाँ थीं । जैसे किसी ने गर्भ में उसकी आंखें निकाल ली हों । और निशान रह गए हों । अंधेरी दुनिया का रहस्य भेदने की कोशिश में वह निरंतर भौहें उचकाता रहता था । वह घरवालों के लिए अंधेरे का एक खंभा या भारवाही जीव था । जो कितना भी बोझा लाद दिया जाए । डगमगाकर अंतत: खड़ा हो ही जाता था । फसल कटाई के दिनों में वह कोस भर दूर नदी पार से खलिहान से घर तक उखड़ती सांसों पर काबू पाने के लिए हुंकारता हुआ अनवरत चलता रहता था । वह चीजों को छूने से पहले या छूते ही जान लेता था । यह विलक्षण पूर्वबोध के कारण ज्यादातर समय वह अपने में मगन रहता था । उसका अपना संसार था । जहाँ प्रकाश की अनुपस्थिति में चीजों के रहस्य बिलकुल भिन्न तरीके से खुला करते थे ।
काफी परेशान किया जाता या हाथ थाम कर कोई मदद करने आता । तो इन दो स्थितियों में अदृश्य तरंगों पर टिका उसका आंतरिक संतुलन बुरी तरह गड़बड़ा जाता था । उसके भीतर लाचार क्षोभ की ऊंची लहरें उठने लगने लगतीं । वह रात को चुपके से गायब हो जाता । और लोग जानने लगते थे कि उसे किसी बिरवा या पेड़ ने बुलाया है । संभवत: पेड़ नदी के किनारे था । जिसे वह अंकवार में भरकर आवाज फट जाने तक चिंघाड़ता था । उसका क्रुद्ध रुदन गांव के सीमांत पर पांत बांध कर चिल्लाते सियारों की हुआं हुआं में खो जाता था । उससे पूछा जाता कि - रात में कहां जाता है । तो वह हंसता । कैसी रात कैसा दिन ? घाम, पानी में झंवाये उसके सुगठित शरीर पर अपने बड़े भाई का दिया पुराना पैन्ट होता था । जिसे वह मूंज की रस्सी से कमर पर बांधता था । उसकी देह से मिठास लिए एक तीखी गंध फूटती थी । और टांगों के बीच झूलती रस्सी धूल सने वीर्य के पपडिय़ाए धब्बों की ओर इशारा करती थी । लड़के उन्हें गिनते थे - सपना संख्या सात... सपना संख्या नौ... सपना संख्या ग्यारह ।
पतिहारा लड़कों को ललकारते - अरे ऊ सपना नहीं । महान मतदाता हैं । जो खतम हो गए ।
प्रधानी के पिछले चुनाव में मतगणना के आखिरी दौर में रिटायर्ड सूबेदार रामनिहोर चौधरी का नाम पतिहारा पड़ गया । वोटों का अंतर इतना हो चुका था कि अब उनकी पत्नी के जीतने की संभावना नहीं बची । वह सेना की नौकरी के दौरान फुर्सत के समय में फेंकी और लपेटी गयी अच्छी बातों और कई साल से जमा की गई रियायती दर वाली मिलिट्री कैन्टीन की रम की लाल बोतलों के भरोसे चुनाव जीत कर गांव का अनुशासित विकास करने के मंसूबे बांध रहे थे । उधर नोट और नायलान की साडिय़ां बांट कर दूसरा पक्ष बाज़ी मार ले गया था । उन्होंने सूरे के पैंट पर बने मानचित्रकार धब्बों की ओर देखते हुए सोच में डूबी आवाज में कहा था - ये सब वोट थे । उनकी पक्की राय बन चुकी थी कि सूरे नहीं गांव के सारे वयस्क अंधे हैं । जिन्हें फुसलाकर प्रधानी से लेकर संसद तक के चुनाव में उनकी सबसे कीमती चीज ले ली जाती है । उन्होंने क्या दे डाला है । यह उन्हें कभी ठीक से पता भी नहीं चलने पाता ।
चुनाव ने अनपढ़ सावित्री देवी की घुटन भरी जिन्दगी में एक दरवाजा खोल दिया था । जिससे होकर बाहरी बतास के साथ एक भूत आने लगा था । उसने अपने प्रत्याशी होने का पहचान पत्र, लकड़ी के सस्ते फ्रेम में मढ़ी इंदिरा गांधी की एक फोटो, पर्चा भरने के समय पहनाई गई गेंदे की एक सूखी माला और चुनाव चिन्ह जलता बल्ब छपा बैलेट पेपर सबसे कीमती चीज़ों के साथ सहेज कर अपने बक्से में रखा था । आए दिन जानवरों की नाद में पानी भरने या घूरे पर कूड़ा फेंकने के बीच वह धीमे से सरक कर उन दो सौ ग्यारह मतदाताओं के पास चली जाती थी । जिन्होंने उसे अपनी नेताइन चुना था । वह उन घरों की औरतों के दुख सुख, बाल बच्चों, खेती बारी का हाल पूछती । और अगले चुनाव में जीतने पर डीह बाबा को पियरी करहिया चढ़ाने की मनौती करती । औरतें सकपका कर हँसने लगती थीं । वह विचित्र ढंग से ताड़ते हुए अचानक कहती - और देस की पालटिस कैसी चल रही है ?
उसे पकड़ पाने में नाकाम होकर पतिहारा चारा पानी करते हुए शाम से पहले डीह बाबा के चौरे तक जाकर बबूल का एक छरका तोड़ लाते थे । क्योंकि वह रात में सोते वृक्ष को तकलीफ देने के सख्त खिलाफ थे । रम का दूसरा पैग पीते हुए अनियंत्रित सांसों के बीच वह सिविलियनों में डिसिपलिन की कमी और समय की कद्र न करने की आदत पर गंभीर चिंतन करते । पत्नी के लौटते ही, साली लौट आई पार्लामेन्ट से बैरक में हुंकारते हुए उसके नितंब और पीठ लहुलूहान हो जाने तक पीटते । सावित्री देवी पर भूत चढ़ता । वह बचपन से उस दिन तक के अपने दुख गाते हुए बोलने लगती । जानवरों को खूंटा तुड़ाने की हद तक भड़काने वाली हिचकियों से बांधे गए उसके गीत की टेक होती - अगर भतार इंदिरा गांधी को इसी तरह कूटता । तो क्या वे कभी प्रधानमंत्री बन सकती थीं ? उन्माद के कारण पडऩे वाले डरावनी हंसी के दौरों के बीच अचानक वह गाय भैंसों के पगहे खोल कर उनके पीछे बाहर निकल जाती । दीया बाती के समय बाल खोले, खून से तर ब्लाऊज पेटीकोट पहने, हाथ फैंकती गांव की गलियों में कंपकंपाते महीन क्रुद्ध स्वर से चिल्लाती - जंगी नेउर मतलबी यार बिलुक्का बंद हड़ताल...। उधर पतिहारा अंधेरे खेतों में सिविलियनों को गालियां देते हुए अपने जानवरों को खोज रहे होते ।
एक दिन ढेला मारते लड़कों को कई पीढिय़ों से विस्मृत पुरखों के नामों के हवाले से गरिया कर भगाने के बाद वह बांह से घेर कर डेभा तिवारी सूरे को एकांत में ले गए । गंभीर आवाज में नकली समझाइश से बोले - अब तुम्हारी विवाह की अवस्था हो गई है । कानी-कोतर लड़कियों की कमीं नहीं है । कहो तो कहीं बात चलाएं । नहाते हो । तब सुथना जरूर फींच लिया करो । नहीं ये लड़के परेशान करते रहेंगे । अच्छा, एक बात बताओ । ये कैसे हो जाता है ? सपने में कौन दिखाई देता है । फुसलाने से निरपेक्ष वह काठ की तरह खड़ा रहा । जब डेभा, तिवारी का धीरज छूटने लगा । तो उसने वैरागी संत की तरह कहा - वाह रे आदमी, जब कुछ नहीं दिखता । तो सपना ही कैसे दिख जाएगा ।
- तब कैसे सरऊ ?
पंडित की पीठ पर हाथ फिराते हुए लरजती आवाज में उसने कहा - बोली सुनाई देती है । महक जाती है । लगता है किसी ने सचमुच छू दिया हो ।
उस स्पर्श में कुछ ऐसी हीन कर देने वाली थरथराहट थी कि डेभा तिवारी का खून सूख गया । जिसके कारण चेहरे का रंग उड़ गया । उसके बाद वह फिर कभी सूरे के साथ नहीं फटके ।
गांव के पुरुषों को संदेह के पारदर्शी झोल में लिपटा हुआ पक्का यकीन था कि कई औरतों, लड़कियों के सूरे से अंतरंग संबंध हैं । सीवान में निकलने वाली दूसरे गांवों की भी औरतें, लड़कियां उसे अपने साथ मनमानी करते के लिए ले जाती हैं । अंधा होने के कारण वह किसी को पहचान नहीं सकता । इसलिए बदनामी का खतरा नहीं है । अगर बात खुल भी जाए । तो कोई कभी साबित नहीं कर पाएगा । दबी हुई नाटकीय कराहों में तस्वीर उभरती । जैसे सूरे कोई मदमाता पंचायती सांड़ है । अक्सर जिसका शिकार चतुर कामुक महिलाओं का एक गिरोह किया करता है । कोई कितनी भी कोशिश कर ले रंगे हाथ नहीं पकड़ सकता । क्योंकि घास छीलती लड़कियां सीवान में दूर तक नजर रखती हैं । और खतरा भांप कर किसी गुप्त संकेत से सही ठिकाने पर चेतावनी भेज देती हैं । थोड़ी देर बात सूरे कहीं दूर दांत चियारता मिलता है । जिसे उल्टा टांग देने पर भी कोई कुछ नहीं जान सकता ।
औरतें और ज्यादा हंसने लगी थीं । वे पहले भी बेवजह हंसती रहती थीं । अब तो उन्हें मर्दों की मूर्खता पर मुग्ध होने का जरिया मिल गया था । भूख और थकान को चुनौती देती हुई वे घर दुआर बुहारने लीपने, कंडा पाथने, चारा पानी करने, बच्चों को नहलाने के बाद दोपहर में दातुन करतीं । और दिन में झपकी आ जाने पर खुद को अपराधी मानते हुए बेना, डलिया पर फूल पतियां काढऩे लगतीं । गृहस्थी और किसानों के कामों से उन्हें जरा भी फुर्सत तीसरे पहर मिलती । तब वे चारपाई की रस्सियों की तरह खींच कर अपनी लड़कियों की चोटियां बांधते हुए धमकातीं - अगर ज्यादा हंसोगी । तो सूरे जैसे किसी आदमी से ब्याह दी जाओगी । और जिन्दगी भर ढेला खाओगी ।
रात तक खटने के बाद जब वे अपने पतियों से अपनी छोटी छोटी इच्छाएं फुसफुसातीं । अपने घर में अपनी जगह के बारे में पूछतीं । या शिकायत करतीं । तो वे उनके मां बाप को कोसते हुए गालियां देने लगते । वे हर तरफ से निरूपाय होकर अंतत: अपने आनुवांशिक बोध से मानव इतिहास की आदिम, सहज और गुप्त हड़ताल कर देती थीं । नतीजे में पिटती थीं । उसमें से बहुत कम का रूदन सावित्री देवी की तरह घर की दीवारों से बाहर आ पाता था । आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन की कामयाबी एक तुक्का थी । गांधी के पैदा होने के भी हजारों साल पहले से महिलाएं उसी तरीके से अपनी स्वायत्तता का आंदोलन चलाते हुए पिट रही हैं ।
सतत त्रास से सूरे की अकेली राहत बच्चे थे । जो डीह बाबा के चौरे पर खेलते थे । वे आंख बंद कर उसके संसार में उतरने की कोशिश करते । वहां जो अज्ञात था । उसे जानना ही उनका खेल था । वे एक दूसरे को और चीजों को टटोल कर पहचानते थे । अंधे की तरह तब तक चलते थे । जब तक किसी से टकरा कर गिर न पड़ें । उनके झगड़े सुलटाने के लिए सूरे से अच्छा पंच कोई मिल नहीं सकता था । जो उनकी बकबक को इतने ध्यान से सुनता । और उन पर यकीन करता हो ।
- मैं गदहिया गोल में पढ़ती हूं न सूरे ।
- हां ।
- मैं इससे गोरी हूं न सूरे ।
- हां ।
- पार साल से मैं बड़ा हो गया हूं न सूरे ।
- हां ।
बां डेभा तिवारी की लड़की थी । जिसे चरवाहों ने सूरे के साथ एक खेत में देखा था । उसी रात उन्होंने अपने बाबा की पोथियां पटनी से उतारी थीं । और गांव के सबसे बड़े रहस्य की खोज शुरू की थी । पंद्रह साल की बां का दिमाग चवन्नी कम था । लेकिन भूख और गुस्सा जरा ज्यादा था । ठिगनी और थुलथुल होने के कारण उसके चलने में एक उन्मादी हिलोर आ गई थी । जिससे वह चकनी हाथी लगती थी । वह गांव में घूम कर खाना मांगती थी । जात कुजात या डेभा तिवारी के डर से नहीं देने पर नथुने फुलाते हुए गालियां देती थी । जानवरों पर थूकती थी । और दरवाजे पर पेशाब कर देती थी । ताज्जुब था कि उसे भूख और पेशाब हमेशा कैसे लगी रहती थी । डेभा की पत्नी जब पेट से थी । तो उन्होंने उसे बहुत पीटा था । जिस कारण लड़की मतिमंद पैदा हुई थी ।
उस दिन सूरे नदी पार से चरी का पुरहर बोझ लिए लौट रहा था कि बां उसे घेर कर चीन्हा-चीन्ही खेलने की जिद करने लगी । सूरे ने जाने देने के लिए बहुत निहोरा किया । लेकिन उसने धक्का देकर बोझ गिरा दिया । अब किसी बोझ उठवाने वाले के आने तक इंतजार करना सूरे की मजबूरी थी ।
जब वह छोटी बच्ची थी । तब यह खेल सूरे के साथ खेला करती थी । वह एक अंधे के प्रति बच्चों की संवेदना का खेल था । जिसमें दोनों एक दूसरे के अंगों को बारी बारी से छूते हुए जानबूझ कर गलतियां करते थे । फिर आत्मीय ढंग से सही पहचानते थे । बां के असामान्य बड़े सिर को सूरे ने हथलियों में भरा । खोपड़ी की ढलान को महसूस करते हुए वह आंख, नाक, गालों, होठों से होता हुआ गरदन तक आया । तभी उसके शरीर की महक से अनियंत्रित होकर खून उसके हृदय में उछला । वह डर गया । वह उसके सिर को गगरी और कानों को सूप बता कर आगे बढऩा चाहता था । लेकिन वह सहसा चिल्लाया । जैसे किसी बस को रोकने के लिए आवाज दे रहा हो - हे हे रुको, तुम तो सयान हो रही हो । वह पीछे हटकर अपना बोझ टटोलने लगा । तो बां को जैसे दौरा पड़ गया । उसने दौड़कर सूरे की छातियों में नाखून गड़ा दिये । और झकझोरने लगी । वह नीचे दब जाने से घबराकर चिल्लाया । जिसे सुनकर चरवाहों ने चीटों की तरह गुत्थमगुत्था दोनों को अलग किया ।
डेभा तिवारी ने बाँ को फुसला कर जानने की कोशिश की कि सूरे ने उसके साथ क्या किया था । जो नाराज होकर उसने बकोटने लगी थी । देर तक मुंह फुलाए रहने के बाद उसने बताया कि खेल बीच में छोड़ कर भाग रहा था । फिर वह बाप को भी गालियों देने लगी । बेटी के साथ मां की भी धुनाई करने के बाद वे पूरी सांझ सिर पर हाथ रखकर बैठे रहे । रात में उन्हें अपने वैद्य बाबा की याद आई जो कहा करते थे - औरत में भेद छिपाने की क्षमता आदमी से तीन गुना और गरमी नौ गुना ज्यादा होती है । और उसे सिर्फ ज्ञान के अंकुश से ही काबू में रखा जा सकता है । वह पटनी पर चढ़कर किसानी के कबाड़ से लाल कपड़े में बंधी बाबा की थाती उतार लाए । जिसमें पुराण, पंचाग, कर्मकांड की विधियों, पुरानी चिट्ठियों, बदबूदार बुरादा बन गई जंगली गुलाब की पखुंडिय़ों और मूसों की लेंडिय़ों के बीच वे दो किताबें मिलीं । जिनकी करामात से उनके परिवार की आजीविका आधी सदी तक सम्मानजनक ढंग से चलती रही । अगली पीढ़ी में उनके पिता के गंजेड़ी होकर बहक जाने के कारण विद्या परिवार से चली गई । और तब से यह गठरी दरिद्र वर्तमान की सोहबत में उपेक्षित पड़ी हुई थी ।
सामलसा गौर लिखित जंगल की जड़ी बूटी और निघण्टु भूषण नामक दो किताबों को झाड़ पोंछ कर उन्होंने पढऩा शुरू किया । कपूर से तपा कर उनकी गंध को सहनीय बनाने के साथ चले एक सप्ताह के अनवरत अध्ययन से उन्होंने उस विलुप्तप्राय वनस्पति का पता लगा लिया । जिससे राजपुरुषों का यौवन कायम रहता था । और तांबे को सोने में बदला जाता था । लेकिन अब कलयुगी स्त्रियों के छिनालपन में सहायक हो रही थी । उनके भीतर बाबा की लुप्तप्राय स्मृति के पुनर्जीवन के साथ श्रद्धा का नया बहाव शुरू हुआ । जिसके अतिरेक में उन्होंने बस्ते के लाल मारकीन और ओसारे में लटके उनके फोटो के फ्रेम को साबुन से धुलकर गेंदे की दो मालाओं से सजा दिया ।
गांव के डाकखाने में छठे छमाहे डेभा तिवारी के बाबा के नाम एक पोस्टकार्ड आ जाया करता था । रोग के लक्षण बताकर दवाई भेजने का सविनय निवेदन करने वाले इन दुर्लभ मरीजों में इतनी हताशा होती थी कि उनका कामन सेन्स चाट चुकी होती थी । वे यह नहीं सोच पाते थे कि किसी वैद्य की मृत्यु भी हो सकती है । अगर उनके बाबा जिन्दा होते । तो कम से कम सवा सौ साल के होते । उन्हें गुजरे चालीस साल हो चुके थे । लेकिन पोस्टकार्ड आए जा रहे थे । जो डेभा तिवारी के लिए पदक थे । वे पोस्ट आफिस रोज जाने वालों में से थे । लेकिन जब पोस्टकार्ड आता । तो निठल्लों के बीच वीआईपी हो जाते । घर लौटते हुए गांव के कई ठीहों पर ठिठकते हुए धोती के फेंटे से निकाल कर पोस्टकार्ड को जोर से पढ़ते । और आसमान की ओर उठा कर कहते - भेज दीजिए वहीं से दवाई । अब तो कतरीसराय में गुप्त रोग के दुखियारों की सुनने वाला कोई रहा नहीं ।
प्रधानपति ने डेभा तिवारी को कई दिनों तक सुबह सुबह तालाब, नदी के किनारे उगे जंगली पौधों का सर्वे करते देखा । तो अनुमान के अनिश्चय से पूछ लिया - खरबिरइया खोज रहे हो । जानो पंडितान में बैदही शुरू होने वाली है ।
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बरखा की व्याकुल प्रतीक्षा थी । घरों के भीतर सांस फूलने तक हौंस उठाती गेहूं की भटकती गर्द और बाहर धूप में चमकती अरहर की भाले जैसी खूटियों की चमक मंद होने का नाम ही नहीं ले रही थी । गरमी के नीरस, लंबे दिनों में उन्मादी बवंडरों के नाच ने कतरीसराय के लोगों को इतना भ्रमित किया कि उन्हें अपने फुटकर दुख भी अंतहीन लगने लगे । उकताहट के मारे बदहवास हो जाने से खुद को बचाने के लिए वे किसी उत्तेजना की खोज कर रहे थे । रहस्यमय ढंग से वे यकीन करने लगे कि रेखिया उठान सूरे को एक जहरीला, चमत्कारी नर पौधा रातों में बुलाता है । और मादा उसके सम्मुख रोती है ।
प्रधानपति के औसारे के एक कोने में चलते डाकखाने में रखा रहने वाला अखबार पढ़ कर मौसम का हाल बताने वालों की सात पीढिय़ां गप्पी घोषित की जा चुकीं । तब कहीं जाकर आसमान में बादल घिरते दिखे । पहला दौंगरा सावन में गिरा । और गांव व्यस्त हो गया । जमीन से फूटे नए, फिर से पनपे पौधों, जानवरों, कीड़ों और मायके लौट रही लड़कियों से जुड़ी स्मृतियों की शामत आ गई । लड़के लाठियों से पीट कर झाडिय़ों का कचूमर निकाले दे रहे थे । उनके भीतर उफनाती हिंसा प्रहारों से लपलपाती हवा से होती हुई शिशुओं में उतर रही थी । जो सींकों से लौकी की कुरमुरी लतरें पीट रहे थे ।
गांव के पिछवाड़े, घरों के बीच की संकरी अंधेरी गलियों में, घूरों पर जालों में लिपटे नागफनी, झड़बेरी, सूरन और अमोला धांगते लड़के जानते थे कि जिस चमत्कारी पौधे की तलाश उन्हें है । वे यह नहीं हैं । लाठियां किसी अदृश्य पर पड़ रही थीं । जिसे कल्पना में तबाह कर डालने का काम काफी जिम्मेदारी का था । और इसमें एक मजा भी था । वे पीटे गए पौधे की कोई पत्ती उंगलियों से मसल कर देखते, सूंघते, जड़ खोद कर उलटते पुलटते आगे बढ़ जाते । अचानक कोई खरहा प्रकट होता । तो आदमियों और पालतू कुत्तों के भीतर दुबका शिकारी हड़बड़ा कर सक्रिय होता । लिहो लिहो करता हुआ सीवान में दूर तक पीछा करता । बहुतेरे चूहे, छछूंदर, गिरगिट, तितलियां, झींगुर और एक गोह बेमौत मारे गए ।
गलियों में फेंकी गई पुरातन गठरियों, हांडियों की कमी नहीं थी । जिनमें भरी मिट्टी में कल्पना किसी भ्रूण का आकार खोज लेती थी । कोई भी ढेला गर्भपात से मार डाले गए बच्चे का सिर हो सकता था । और घास की जड़ें कोमल अस्थिपंजर में बदल सकती थीं । इन्हीं पुरातात्विक प्रमाणों की रोशनी में कई परिवारों की कामुकता का इतिहास, अवैध संबंधों से बने बिगड़े सामाजिक समीकरण और प्रेम के किस्से फुसफुसाती आवाजों में उतराते हुए सतह पर आ रहे थे । गांव में किसी भी और जगह से ज्यादा गाढ़ा बतरस डाकखाने की दोपहरी में महुए की तरह चूता था । जहाँ पोस्टमास्टर और पोस्टमैन प्रधानपति के चमचों, भेदियों, नैतिकता के कपटी भाष्यकारों और निठल्लों के साथ ताश खेलते थे । वह ओसारा कब का समय बिताने के लिए विभोर होकर गप्पे हांकने वाले सीधे सादे ग्रामीणों की मिलने की जगह से जमाने की लहरें गिनने वाले चौकन्ने गिरोह के सभाकक्ष में बदल चुका था । जहाँ पोस्टमास्टर की मुट्ठी गरम कर किसी और के नाम आई चिट्ठी भी खरीदी जा सकती थी ।
लाठियां कंधों पर उठाए ताल से गांव की ओर लौटते लड़के वनस्पतियों की तरह महकते थे । शरीर पर लगे तितलियों के पंखों के चमकते रंगों और खरोचों के कारण वे सामूहिक स्मृति को मथने वाले देवदूतों का आभामंडल पा जाते थे । जो कलयुग के सार्वजनिक पतित दौर में एक जरूरी दायित्व निभा रहे थे । दिशा मैदान को निकले बूढ़े पोखर में बादलों की परछाई कौवे की तरह गरदन घुमा घुमा कर देखते । किसी लड़के को बुलाकर कहते - तुम्हारी नई आंख है । देखो पनिया में तेल है क्या ?
- पानी में छिपकर कोई कोल्हू हांक रहा है क्या ? जो आपको चारों ओर तेल दिखाई दे रहा है ।
सूरे का जीवन पौधों, कीड़ों, जानवरों से कोई बेहतर नहीं था । लड़के उसे देखकर सुदीर्घ आक्रामक टिटकारी मारते । देर तक लयबद्ध ठो ठो ठो फिर डुर्र होइ...। अर्थहीन लगती ध्वनियों का जैविक अर्थ ऐसा था कि न जाने कबसे उनका इस्तेमाल सांड़ को उत्तेजित कर गरम गाय से मिलन संभव बनाने के लिए किया जा रहा था । पंचायती सांड़ के कूल्हे पर गरम लोहे से दाग कर काढ़ा गया एक ठप्पा होता है । जिसे उसके घूमने के लिए निर्धारित इलाके का पता चलता है । दुनियां की वे सारी जगहें सूरे के इलाके में आती थीं । जहाँ रोशनी नहीं पहुँचती । उसे संगीतमय टिटकारियों के आरोह अवरोह से हर दिन कई बार दागा जाता था । साफ नजर आता कि वह अपने उजले दांत डर को छिपाने के लिए दिखा रहा है । जबकि उसका सारा ध्यान खपरैल जैसे फैले पैरों से अपने खड़े होने की जगह को लगातार टटोलते हुए किसी अनहोनी पर लगा रहता था । ढेले सनसनाते तब उसके होंठ तनाव से ऐंठने लगते । वह सदमें से चिंहुक कर ‘वाह रे आदमी’ कहता हुआ हाथों से सिर और मुंह ढक कर बचने की कोशिश करता । लेकिन दो तीन ढेले लगने के बाद उसका डर खत्म हो जाता । वह क्रोध से किचकिचाता । लंबे काल फेंकता । ढेलों की दिशा में दौड़ पड़ता । इतनी देर में लड़के जरा दूर हटकर अन्य लोगों के साथ अपनी हंसी की दुष्ट आवाज दबा रहे होते थे ।
वह जन्म से अंधा था । माथे के नीचे कोटर में पलकों की चिरान का आभास भर होता था । जिन पर दो फुंसियाँ थीं । जैसे किसी ने गर्भ में उसकी आंखें निकाल ली हों । और निशान रह गए हों । अंधेरी दुनिया का रहस्य भेदने की कोशिश में वह निरंतर भौहें उचकाता रहता था । वह घरवालों के लिए अंधेरे का एक खंभा या भारवाही जीव था । जो कितना भी बोझा लाद दिया जाए । डगमगाकर अंतत: खड़ा हो ही जाता था । फसल कटाई के दिनों में वह कोस भर दूर नदी पार से खलिहान से घर तक उखड़ती सांसों पर काबू पाने के लिए हुंकारता हुआ अनवरत चलता रहता था । वह चीजों को छूने से पहले या छूते ही जान लेता था । यह विलक्षण पूर्वबोध के कारण ज्यादातर समय वह अपने में मगन रहता था । उसका अपना संसार था । जहाँ प्रकाश की अनुपस्थिति में चीजों के रहस्य बिलकुल भिन्न तरीके से खुला करते थे ।
काफी परेशान किया जाता या हाथ थाम कर कोई मदद करने आता । तो इन दो स्थितियों में अदृश्य तरंगों पर टिका उसका आंतरिक संतुलन बुरी तरह गड़बड़ा जाता था । उसके भीतर लाचार क्षोभ की ऊंची लहरें उठने लगने लगतीं । वह रात को चुपके से गायब हो जाता । और लोग जानने लगते थे कि उसे किसी बिरवा या पेड़ ने बुलाया है । संभवत: पेड़ नदी के किनारे था । जिसे वह अंकवार में भरकर आवाज फट जाने तक चिंघाड़ता था । उसका क्रुद्ध रुदन गांव के सीमांत पर पांत बांध कर चिल्लाते सियारों की हुआं हुआं में खो जाता था । उससे पूछा जाता कि - रात में कहां जाता है । तो वह हंसता । कैसी रात कैसा दिन ? घाम, पानी में झंवाये उसके सुगठित शरीर पर अपने बड़े भाई का दिया पुराना पैन्ट होता था । जिसे वह मूंज की रस्सी से कमर पर बांधता था । उसकी देह से मिठास लिए एक तीखी गंध फूटती थी । और टांगों के बीच झूलती रस्सी धूल सने वीर्य के पपडिय़ाए धब्बों की ओर इशारा करती थी । लड़के उन्हें गिनते थे - सपना संख्या सात... सपना संख्या नौ... सपना संख्या ग्यारह ।
पतिहारा लड़कों को ललकारते - अरे ऊ सपना नहीं । महान मतदाता हैं । जो खतम हो गए ।
प्रधानी के पिछले चुनाव में मतगणना के आखिरी दौर में रिटायर्ड सूबेदार रामनिहोर चौधरी का नाम पतिहारा पड़ गया । वोटों का अंतर इतना हो चुका था कि अब उनकी पत्नी के जीतने की संभावना नहीं बची । वह सेना की नौकरी के दौरान फुर्सत के समय में फेंकी और लपेटी गयी अच्छी बातों और कई साल से जमा की गई रियायती दर वाली मिलिट्री कैन्टीन की रम की लाल बोतलों के भरोसे चुनाव जीत कर गांव का अनुशासित विकास करने के मंसूबे बांध रहे थे । उधर नोट और नायलान की साडिय़ां बांट कर दूसरा पक्ष बाज़ी मार ले गया था । उन्होंने सूरे के पैंट पर बने मानचित्रकार धब्बों की ओर देखते हुए सोच में डूबी आवाज में कहा था - ये सब वोट थे । उनकी पक्की राय बन चुकी थी कि सूरे नहीं गांव के सारे वयस्क अंधे हैं । जिन्हें फुसलाकर प्रधानी से लेकर संसद तक के चुनाव में उनकी सबसे कीमती चीज ले ली जाती है । उन्होंने क्या दे डाला है । यह उन्हें कभी ठीक से पता भी नहीं चलने पाता ।
चुनाव ने अनपढ़ सावित्री देवी की घुटन भरी जिन्दगी में एक दरवाजा खोल दिया था । जिससे होकर बाहरी बतास के साथ एक भूत आने लगा था । उसने अपने प्रत्याशी होने का पहचान पत्र, लकड़ी के सस्ते फ्रेम में मढ़ी इंदिरा गांधी की एक फोटो, पर्चा भरने के समय पहनाई गई गेंदे की एक सूखी माला और चुनाव चिन्ह जलता बल्ब छपा बैलेट पेपर सबसे कीमती चीज़ों के साथ सहेज कर अपने बक्से में रखा था । आए दिन जानवरों की नाद में पानी भरने या घूरे पर कूड़ा फेंकने के बीच वह धीमे से सरक कर उन दो सौ ग्यारह मतदाताओं के पास चली जाती थी । जिन्होंने उसे अपनी नेताइन चुना था । वह उन घरों की औरतों के दुख सुख, बाल बच्चों, खेती बारी का हाल पूछती । और अगले चुनाव में जीतने पर डीह बाबा को पियरी करहिया चढ़ाने की मनौती करती । औरतें सकपका कर हँसने लगती थीं । वह विचित्र ढंग से ताड़ते हुए अचानक कहती - और देस की पालटिस कैसी चल रही है ?
उसे पकड़ पाने में नाकाम होकर पतिहारा चारा पानी करते हुए शाम से पहले डीह बाबा के चौरे तक जाकर बबूल का एक छरका तोड़ लाते थे । क्योंकि वह रात में सोते वृक्ष को तकलीफ देने के सख्त खिलाफ थे । रम का दूसरा पैग पीते हुए अनियंत्रित सांसों के बीच वह सिविलियनों में डिसिपलिन की कमी और समय की कद्र न करने की आदत पर गंभीर चिंतन करते । पत्नी के लौटते ही, साली लौट आई पार्लामेन्ट से बैरक में हुंकारते हुए उसके नितंब और पीठ लहुलूहान हो जाने तक पीटते । सावित्री देवी पर भूत चढ़ता । वह बचपन से उस दिन तक के अपने दुख गाते हुए बोलने लगती । जानवरों को खूंटा तुड़ाने की हद तक भड़काने वाली हिचकियों से बांधे गए उसके गीत की टेक होती - अगर भतार इंदिरा गांधी को इसी तरह कूटता । तो क्या वे कभी प्रधानमंत्री बन सकती थीं ? उन्माद के कारण पडऩे वाले डरावनी हंसी के दौरों के बीच अचानक वह गाय भैंसों के पगहे खोल कर उनके पीछे बाहर निकल जाती । दीया बाती के समय बाल खोले, खून से तर ब्लाऊज पेटीकोट पहने, हाथ फैंकती गांव की गलियों में कंपकंपाते महीन क्रुद्ध स्वर से चिल्लाती - जंगी नेउर मतलबी यार बिलुक्का बंद हड़ताल...। उधर पतिहारा अंधेरे खेतों में सिविलियनों को गालियां देते हुए अपने जानवरों को खोज रहे होते ।
एक दिन ढेला मारते लड़कों को कई पीढिय़ों से विस्मृत पुरखों के नामों के हवाले से गरिया कर भगाने के बाद वह बांह से घेर कर डेभा तिवारी सूरे को एकांत में ले गए । गंभीर आवाज में नकली समझाइश से बोले - अब तुम्हारी विवाह की अवस्था हो गई है । कानी-कोतर लड़कियों की कमीं नहीं है । कहो तो कहीं बात चलाएं । नहाते हो । तब सुथना जरूर फींच लिया करो । नहीं ये लड़के परेशान करते रहेंगे । अच्छा, एक बात बताओ । ये कैसे हो जाता है ? सपने में कौन दिखाई देता है । फुसलाने से निरपेक्ष वह काठ की तरह खड़ा रहा । जब डेभा, तिवारी का धीरज छूटने लगा । तो उसने वैरागी संत की तरह कहा - वाह रे आदमी, जब कुछ नहीं दिखता । तो सपना ही कैसे दिख जाएगा ।
- तब कैसे सरऊ ?
पंडित की पीठ पर हाथ फिराते हुए लरजती आवाज में उसने कहा - बोली सुनाई देती है । महक जाती है । लगता है किसी ने सचमुच छू दिया हो ।
उस स्पर्श में कुछ ऐसी हीन कर देने वाली थरथराहट थी कि डेभा तिवारी का खून सूख गया । जिसके कारण चेहरे का रंग उड़ गया । उसके बाद वह फिर कभी सूरे के साथ नहीं फटके ।
गांव के पुरुषों को संदेह के पारदर्शी झोल में लिपटा हुआ पक्का यकीन था कि कई औरतों, लड़कियों के सूरे से अंतरंग संबंध हैं । सीवान में निकलने वाली दूसरे गांवों की भी औरतें, लड़कियां उसे अपने साथ मनमानी करते के लिए ले जाती हैं । अंधा होने के कारण वह किसी को पहचान नहीं सकता । इसलिए बदनामी का खतरा नहीं है । अगर बात खुल भी जाए । तो कोई कभी साबित नहीं कर पाएगा । दबी हुई नाटकीय कराहों में तस्वीर उभरती । जैसे सूरे कोई मदमाता पंचायती सांड़ है । अक्सर जिसका शिकार चतुर कामुक महिलाओं का एक गिरोह किया करता है । कोई कितनी भी कोशिश कर ले रंगे हाथ नहीं पकड़ सकता । क्योंकि घास छीलती लड़कियां सीवान में दूर तक नजर रखती हैं । और खतरा भांप कर किसी गुप्त संकेत से सही ठिकाने पर चेतावनी भेज देती हैं । थोड़ी देर बात सूरे कहीं दूर दांत चियारता मिलता है । जिसे उल्टा टांग देने पर भी कोई कुछ नहीं जान सकता ।
औरतें और ज्यादा हंसने लगी थीं । वे पहले भी बेवजह हंसती रहती थीं । अब तो उन्हें मर्दों की मूर्खता पर मुग्ध होने का जरिया मिल गया था । भूख और थकान को चुनौती देती हुई वे घर दुआर बुहारने लीपने, कंडा पाथने, चारा पानी करने, बच्चों को नहलाने के बाद दोपहर में दातुन करतीं । और दिन में झपकी आ जाने पर खुद को अपराधी मानते हुए बेना, डलिया पर फूल पतियां काढऩे लगतीं । गृहस्थी और किसानों के कामों से उन्हें जरा भी फुर्सत तीसरे पहर मिलती । तब वे चारपाई की रस्सियों की तरह खींच कर अपनी लड़कियों की चोटियां बांधते हुए धमकातीं - अगर ज्यादा हंसोगी । तो सूरे जैसे किसी आदमी से ब्याह दी जाओगी । और जिन्दगी भर ढेला खाओगी ।
रात तक खटने के बाद जब वे अपने पतियों से अपनी छोटी छोटी इच्छाएं फुसफुसातीं । अपने घर में अपनी जगह के बारे में पूछतीं । या शिकायत करतीं । तो वे उनके मां बाप को कोसते हुए गालियां देने लगते । वे हर तरफ से निरूपाय होकर अंतत: अपने आनुवांशिक बोध से मानव इतिहास की आदिम, सहज और गुप्त हड़ताल कर देती थीं । नतीजे में पिटती थीं । उसमें से बहुत कम का रूदन सावित्री देवी की तरह घर की दीवारों से बाहर आ पाता था । आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन की कामयाबी एक तुक्का थी । गांधी के पैदा होने के भी हजारों साल पहले से महिलाएं उसी तरीके से अपनी स्वायत्तता का आंदोलन चलाते हुए पिट रही हैं ।
सतत त्रास से सूरे की अकेली राहत बच्चे थे । जो डीह बाबा के चौरे पर खेलते थे । वे आंख बंद कर उसके संसार में उतरने की कोशिश करते । वहां जो अज्ञात था । उसे जानना ही उनका खेल था । वे एक दूसरे को और चीजों को टटोल कर पहचानते थे । अंधे की तरह तब तक चलते थे । जब तक किसी से टकरा कर गिर न पड़ें । उनके झगड़े सुलटाने के लिए सूरे से अच्छा पंच कोई मिल नहीं सकता था । जो उनकी बकबक को इतने ध्यान से सुनता । और उन पर यकीन करता हो ।
- मैं गदहिया गोल में पढ़ती हूं न सूरे ।
- हां ।
- मैं इससे गोरी हूं न सूरे ।
- हां ।
- पार साल से मैं बड़ा हो गया हूं न सूरे ।
- हां ।
बां डेभा तिवारी की लड़की थी । जिसे चरवाहों ने सूरे के साथ एक खेत में देखा था । उसी रात उन्होंने अपने बाबा की पोथियां पटनी से उतारी थीं । और गांव के सबसे बड़े रहस्य की खोज शुरू की थी । पंद्रह साल की बां का दिमाग चवन्नी कम था । लेकिन भूख और गुस्सा जरा ज्यादा था । ठिगनी और थुलथुल होने के कारण उसके चलने में एक उन्मादी हिलोर आ गई थी । जिससे वह चकनी हाथी लगती थी । वह गांव में घूम कर खाना मांगती थी । जात कुजात या डेभा तिवारी के डर से नहीं देने पर नथुने फुलाते हुए गालियां देती थी । जानवरों पर थूकती थी । और दरवाजे पर पेशाब कर देती थी । ताज्जुब था कि उसे भूख और पेशाब हमेशा कैसे लगी रहती थी । डेभा की पत्नी जब पेट से थी । तो उन्होंने उसे बहुत पीटा था । जिस कारण लड़की मतिमंद पैदा हुई थी ।
उस दिन सूरे नदी पार से चरी का पुरहर बोझ लिए लौट रहा था कि बां उसे घेर कर चीन्हा-चीन्ही खेलने की जिद करने लगी । सूरे ने जाने देने के लिए बहुत निहोरा किया । लेकिन उसने धक्का देकर बोझ गिरा दिया । अब किसी बोझ उठवाने वाले के आने तक इंतजार करना सूरे की मजबूरी थी ।
जब वह छोटी बच्ची थी । तब यह खेल सूरे के साथ खेला करती थी । वह एक अंधे के प्रति बच्चों की संवेदना का खेल था । जिसमें दोनों एक दूसरे के अंगों को बारी बारी से छूते हुए जानबूझ कर गलतियां करते थे । फिर आत्मीय ढंग से सही पहचानते थे । बां के असामान्य बड़े सिर को सूरे ने हथलियों में भरा । खोपड़ी की ढलान को महसूस करते हुए वह आंख, नाक, गालों, होठों से होता हुआ गरदन तक आया । तभी उसके शरीर की महक से अनियंत्रित होकर खून उसके हृदय में उछला । वह डर गया । वह उसके सिर को गगरी और कानों को सूप बता कर आगे बढऩा चाहता था । लेकिन वह सहसा चिल्लाया । जैसे किसी बस को रोकने के लिए आवाज दे रहा हो - हे हे रुको, तुम तो सयान हो रही हो । वह पीछे हटकर अपना बोझ टटोलने लगा । तो बां को जैसे दौरा पड़ गया । उसने दौड़कर सूरे की छातियों में नाखून गड़ा दिये । और झकझोरने लगी । वह नीचे दब जाने से घबराकर चिल्लाया । जिसे सुनकर चरवाहों ने चीटों की तरह गुत्थमगुत्था दोनों को अलग किया ।
डेभा तिवारी ने बाँ को फुसला कर जानने की कोशिश की कि सूरे ने उसके साथ क्या किया था । जो नाराज होकर उसने बकोटने लगी थी । देर तक मुंह फुलाए रहने के बाद उसने बताया कि खेल बीच में छोड़ कर भाग रहा था । फिर वह बाप को भी गालियों देने लगी । बेटी के साथ मां की भी धुनाई करने के बाद वे पूरी सांझ सिर पर हाथ रखकर बैठे रहे । रात में उन्हें अपने वैद्य बाबा की याद आई जो कहा करते थे - औरत में भेद छिपाने की क्षमता आदमी से तीन गुना और गरमी नौ गुना ज्यादा होती है । और उसे सिर्फ ज्ञान के अंकुश से ही काबू में रखा जा सकता है । वह पटनी पर चढ़कर किसानी के कबाड़ से लाल कपड़े में बंधी बाबा की थाती उतार लाए । जिसमें पुराण, पंचाग, कर्मकांड की विधियों, पुरानी चिट्ठियों, बदबूदार बुरादा बन गई जंगली गुलाब की पखुंडिय़ों और मूसों की लेंडिय़ों के बीच वे दो किताबें मिलीं । जिनकी करामात से उनके परिवार की आजीविका आधी सदी तक सम्मानजनक ढंग से चलती रही । अगली पीढ़ी में उनके पिता के गंजेड़ी होकर बहक जाने के कारण विद्या परिवार से चली गई । और तब से यह गठरी दरिद्र वर्तमान की सोहबत में उपेक्षित पड़ी हुई थी ।
सामलसा गौर लिखित जंगल की जड़ी बूटी और निघण्टु भूषण नामक दो किताबों को झाड़ पोंछ कर उन्होंने पढऩा शुरू किया । कपूर से तपा कर उनकी गंध को सहनीय बनाने के साथ चले एक सप्ताह के अनवरत अध्ययन से उन्होंने उस विलुप्तप्राय वनस्पति का पता लगा लिया । जिससे राजपुरुषों का यौवन कायम रहता था । और तांबे को सोने में बदला जाता था । लेकिन अब कलयुगी स्त्रियों के छिनालपन में सहायक हो रही थी । उनके भीतर बाबा की लुप्तप्राय स्मृति के पुनर्जीवन के साथ श्रद्धा का नया बहाव शुरू हुआ । जिसके अतिरेक में उन्होंने बस्ते के लाल मारकीन और ओसारे में लटके उनके फोटो के फ्रेम को साबुन से धुलकर गेंदे की दो मालाओं से सजा दिया ।
गांव के डाकखाने में छठे छमाहे डेभा तिवारी के बाबा के नाम एक पोस्टकार्ड आ जाया करता था । रोग के लक्षण बताकर दवाई भेजने का सविनय निवेदन करने वाले इन दुर्लभ मरीजों में इतनी हताशा होती थी कि उनका कामन सेन्स चाट चुकी होती थी । वे यह नहीं सोच पाते थे कि किसी वैद्य की मृत्यु भी हो सकती है । अगर उनके बाबा जिन्दा होते । तो कम से कम सवा सौ साल के होते । उन्हें गुजरे चालीस साल हो चुके थे । लेकिन पोस्टकार्ड आए जा रहे थे । जो डेभा तिवारी के लिए पदक थे । वे पोस्ट आफिस रोज जाने वालों में से थे । लेकिन जब पोस्टकार्ड आता । तो निठल्लों के बीच वीआईपी हो जाते । घर लौटते हुए गांव के कई ठीहों पर ठिठकते हुए धोती के फेंटे से निकाल कर पोस्टकार्ड को जोर से पढ़ते । और आसमान की ओर उठा कर कहते - भेज दीजिए वहीं से दवाई । अब तो कतरीसराय में गुप्त रोग के दुखियारों की सुनने वाला कोई रहा नहीं ।
प्रधानपति ने डेभा तिवारी को कई दिनों तक सुबह सुबह तालाब, नदी के किनारे उगे जंगली पौधों का सर्वे करते देखा । तो अनुमान के अनिश्चय से पूछ लिया - खरबिरइया खोज रहे हो । जानो पंडितान में बैदही शुरू होने वाली है ।