08 जुलाई 2015

तेलियाकंद 1

बिहार की प्रष्ठभूमि पर लिखी गयी श्री अनिल यादव जी कहानी ‘तेलियाकंद’ एक सशक्त व्यंग्य भी है । और किसी भी सामाजिक ताने बाने का सटीक चित्रण भी ।
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बरखा की व्याकुल प्रतीक्षा थी । घरों के भीतर सांस फूलने तक हौंस उठाती गेहूं की भटकती गर्द और बाहर धूप में चमकती अरहर की भाले जैसी खूटियों की चमक मंद होने का नाम ही नहीं ले रही थी । गरमी के नीरस, लंबे दिनों में उन्मादी बवंडरों के नाच ने कतरीसराय के लोगों को इतना भ्रमित किया कि उन्हें अपने फुटकर दुख भी अंतहीन लगने लगे । उकताहट के मारे बदहवास हो जाने से खुद को बचाने के लिए वे किसी उत्तेजना की खोज कर रहे थे । रहस्यमय ढंग से वे यकीन करने लगे कि रेखिया उठान सूरे को एक जहरीला, चमत्कारी नर पौधा रातों में बुलाता है । और मादा उसके सम्मुख रोती है ।
प्रधानपति के औसारे के एक कोने में चलते डाकखाने में रखा रहने वाला अखबार पढ़ कर मौसम का हाल बताने वालों की सात पीढिय़ां गप्पी घोषित की जा चुकीं । तब कहीं जाकर आसमान में बादल घिरते दिखे । पहला दौंगरा सावन में गिरा । और गांव व्यस्त हो गया । जमीन से फूटे नए, फिर से पनपे पौधों, जानवरों, कीड़ों और मायके लौट रही लड़कियों से जुड़ी स्मृतियों की शामत आ गई । लड़के लाठियों से पीट कर झाडिय़ों का कचूमर निकाले दे रहे थे । उनके भीतर उफनाती हिंसा प्रहारों से लपलपाती हवा से होती हुई शिशुओं में उतर रही थी । जो सींकों से लौकी की कुरमुरी लतरें पीट रहे थे ।
गांव के पिछवाड़े, घरों के बीच की संकरी अंधेरी गलियों में, घूरों पर जालों में लिपटे नागफनी, झड़बेरी, सूरन और अमोला धांगते लड़के जानते थे कि जिस चमत्कारी पौधे की तलाश उन्हें है । वे यह नहीं हैं । लाठियां किसी अदृश्य पर पड़ रही थीं । जिसे कल्पना में तबाह कर डालने का काम काफी जिम्मेदारी का था । और इसमें एक मजा भी था । वे पीटे गए पौधे की कोई पत्ती उंगलियों से मसल कर देखते, सूंघते, जड़ खोद कर उलटते पुलटते आगे बढ़ जाते । अचानक कोई खरहा प्रकट होता । तो आदमियों और पालतू कुत्तों के भीतर दुबका शिकारी हड़बड़ा कर सक्रिय होता । लिहो लिहो करता हुआ सीवान में दूर तक पीछा करता । बहुतेरे चूहे, छछूंदर, गिरगिट, तितलियां, झींगुर और एक गोह बेमौत मारे गए ।
गलियों में फेंकी गई पुरातन गठरियों, हांडियों की कमी नहीं थी । जिनमें भरी मिट्टी में कल्पना किसी भ्रूण का आकार खोज लेती थी । कोई भी ढेला गर्भपात से मार डाले गए बच्चे का सिर हो सकता था । और घास की जड़ें कोमल अस्थिपंजर में बदल सकती थीं । इन्हीं पुरातात्विक प्रमाणों की रोशनी में कई परिवारों की कामुकता का इतिहास, अवैध संबंधों से बने बिगड़े सामाजिक समीकरण और प्रेम के किस्से फुसफुसाती आवाजों में उतराते हुए सतह पर आ रहे थे । गांव में किसी भी और जगह से ज्यादा गाढ़ा बतरस डाकखाने की दोपहरी में महुए की तरह चूता था । जहाँ पोस्टमास्टर और पोस्टमैन प्रधानपति के चमचों, भेदियों, नैतिकता के कपटी भाष्यकारों और निठल्लों के साथ ताश खेलते थे । वह ओसारा कब का समय बिताने के लिए विभोर होकर गप्पे हांकने वाले सीधे सादे ग्रामीणों की मिलने की जगह से जमाने की लहरें गिनने वाले चौकन्ने गिरोह के सभाकक्ष में बदल चुका था । जहाँ पोस्टमास्टर की मुट्ठी गरम कर किसी और के नाम आई चिट्ठी भी खरीदी जा सकती थी ।
लाठियां कंधों पर उठाए ताल से गांव की ओर लौटते लड़के वनस्पतियों की तरह महकते थे । शरीर पर लगे तितलियों के पंखों के चमकते रंगों और खरोचों के कारण वे सामूहिक स्मृति को मथने वाले देवदूतों का आभामंडल पा जाते थे । जो कलयुग के सार्वजनिक पतित दौर में एक जरूरी दायित्व निभा रहे थे । दिशा मैदान को निकले बूढ़े पोखर में बादलों की परछाई कौवे की तरह गरदन घुमा घुमा कर देखते । किसी लड़के को बुलाकर कहते - तुम्हारी नई आंख है । देखो पनिया में तेल है क्या ?
- पानी में छिपकर कोई कोल्हू हांक रहा है क्या ? जो आपको चारों ओर तेल दिखाई दे रहा है ।
सूरे का जीवन पौधों, कीड़ों, जानवरों से कोई बेहतर नहीं था । लड़के उसे देखकर सुदीर्घ आक्रामक टिटकारी मारते । देर तक लयबद्ध ठो ठो ठो फिर डुर्र होइ...। अर्थहीन लगती ध्वनियों का जैविक अर्थ ऐसा था कि न जाने कबसे उनका इस्तेमाल सांड़ को उत्तेजित कर गरम गाय से मिलन संभव बनाने के लिए किया जा रहा था । पंचायती सांड़ के कूल्हे पर गरम लोहे से दाग कर काढ़ा गया एक ठप्पा होता है । जिसे उसके घूमने के लिए निर्धारित इलाके का पता चलता है । दुनियां की वे सारी जगहें सूरे के इलाके में आती थीं । जहाँ रोशनी नहीं पहुँचती । उसे संगीतमय टिटकारियों के आरोह अवरोह से हर दिन कई बार दागा जाता था । साफ नजर आता कि वह अपने उजले दांत डर को छिपाने के लिए दिखा रहा है । जबकि उसका सारा ध्यान खपरैल जैसे फैले पैरों से अपने खड़े होने की जगह को लगातार टटोलते हुए किसी अनहोनी पर लगा रहता था । ढेले सनसनाते तब उसके होंठ तनाव से ऐंठने लगते । वह सदमें से चिंहुक कर ‘वाह रे आदमी’ कहता हुआ हाथों से सिर और मुंह ढक कर बचने की कोशिश करता । लेकिन दो तीन ढेले लगने के बाद उसका डर खत्म हो जाता । वह क्रोध से किचकिचाता । लंबे काल फेंकता । ढेलों की दिशा में दौड़ पड़ता । इतनी देर में लड़के जरा दूर हटकर अन्य लोगों के साथ अपनी हंसी की दुष्ट आवाज दबा रहे होते थे ।
वह जन्म से अंधा था । माथे के नीचे कोटर में पलकों की चिरान का आभास भर होता था । जिन पर दो फुंसियाँ थीं । जैसे किसी ने गर्भ में उसकी आंखें निकाल ली हों । और निशान रह गए हों । अंधेरी दुनिया का रहस्य भेदने की कोशिश में वह निरंतर भौहें उचकाता रहता था । वह घरवालों के लिए अंधेरे का एक खंभा या भारवाही जीव था । जो कितना भी बोझा लाद दिया जाए । डगमगाकर अंतत: खड़ा हो ही जाता था । फसल कटाई के दिनों में वह कोस भर दूर नदी पार से खलिहान से घर तक उखड़ती सांसों पर काबू पाने के लिए हुंकारता हुआ अनवरत चलता रहता था । वह चीजों को छूने से पहले या छूते ही जान लेता था । यह विलक्षण पूर्वबोध के कारण ज्यादातर समय वह अपने में मगन रहता था । उसका अपना संसार था । जहाँ प्रकाश की अनुपस्थिति में चीजों के रहस्य बिलकुल भिन्न तरीके से खुला करते थे ।
काफी परेशान किया जाता या हाथ थाम कर कोई मदद करने आता । तो इन दो स्थितियों में अदृश्य तरंगों पर टिका उसका आंतरिक संतुलन बुरी तरह गड़बड़ा जाता था । उसके भीतर लाचार क्षोभ की ऊंची लहरें उठने लगने लगतीं । वह रात को चुपके से गायब हो जाता । और लोग जानने लगते थे कि उसे किसी बिरवा या पेड़ ने बुलाया है । संभवत: पेड़ नदी के किनारे था । जिसे वह अंकवार में भरकर आवाज फट जाने तक चिंघाड़ता था । उसका क्रुद्ध रुदन गांव के सीमांत पर पांत बांध कर चिल्लाते सियारों की हुआं हुआं में खो जाता था । उससे पूछा जाता कि - रात में कहां जाता है । तो वह हंसता । कैसी रात कैसा दिन ? घाम, पानी में झंवाये उसके सुगठित शरीर पर अपने बड़े भाई का दिया पुराना पैन्ट होता था । जिसे वह मूंज की रस्सी से कमर पर बांधता था । उसकी देह से मिठास लिए एक तीखी गंध फूटती थी । और टांगों के बीच झूलती रस्सी धूल सने वीर्य के पपडिय़ाए धब्बों की ओर इशारा करती थी । लड़के उन्हें गिनते थे - सपना संख्या सात... सपना संख्या नौ... सपना संख्या ग्यारह ।
पतिहारा लड़कों को ललकारते - अरे ऊ सपना नहीं । महान मतदाता हैं । जो खतम हो गए ।
प्रधानी के पिछले चुनाव में मतगणना के आखिरी दौर में रिटायर्ड सूबेदार रामनिहोर चौधरी का नाम पतिहारा पड़ गया । वोटों का अंतर इतना हो चुका था कि अब उनकी पत्नी के जीतने की संभावना नहीं बची । वह सेना की नौकरी के दौरान फुर्सत के समय में फेंकी और लपेटी गयी अच्छी बातों और कई साल से जमा की गई रियायती दर वाली मिलिट्री कैन्टीन की रम की लाल बोतलों के भरोसे चुनाव जीत कर गांव का अनुशासित विकास करने के मंसूबे बांध रहे थे । उधर नोट और नायलान की साडिय़ां बांट कर दूसरा पक्ष बाज़ी मार ले गया था । उन्होंने सूरे के पैंट पर बने मानचित्रकार धब्बों की ओर देखते हुए सोच में डूबी आवाज में कहा था - ये सब वोट थे । उनकी पक्की राय बन चुकी थी कि सूरे नहीं गांव के सारे वयस्क अंधे हैं । जिन्हें फुसलाकर प्रधानी से लेकर संसद तक के चुनाव में उनकी सबसे कीमती चीज ले ली जाती है । उन्होंने क्या दे डाला है । यह उन्हें कभी ठीक से पता भी नहीं चलने पाता ।
चुनाव ने अनपढ़ सावित्री देवी की घुटन भरी जिन्दगी में एक दरवाजा खोल दिया था । जिससे होकर बाहरी बतास के साथ एक भूत आने लगा था । उसने अपने प्रत्याशी होने का पहचान पत्र, लकड़ी के सस्ते फ्रेम में मढ़ी इंदिरा गांधी की एक फोटो, पर्चा भरने के समय पहनाई गई गेंदे की एक सूखी माला और चुनाव चिन्ह जलता बल्ब छपा बैलेट पेपर सबसे कीमती चीज़ों के साथ सहेज कर अपने बक्से में रखा था । आए दिन जानवरों की नाद में पानी भरने या घूरे पर कूड़ा फेंकने के बीच वह धीमे से सरक कर उन दो सौ ग्यारह मतदाताओं के पास चली जाती थी । जिन्होंने उसे अपनी नेताइन चुना था । वह उन घरों की औरतों के दुख सुख, बाल बच्चों, खेती बारी का हाल पूछती । और अगले चुनाव में जीतने पर डीह बाबा को पियरी करहिया चढ़ाने की मनौती करती । औरतें सकपका कर हँसने लगती थीं । वह विचित्र ढंग से ताड़ते हुए अचानक कहती - और देस की पालटिस कैसी चल रही है ?
उसे पकड़ पाने में नाकाम होकर पतिहारा चारा पानी करते हुए शाम से पहले डीह बाबा के चौरे तक जाकर बबूल का एक छरका तोड़ लाते थे । क्योंकि वह रात में सोते वृक्ष को तकलीफ देने के सख्त खिलाफ थे । रम का दूसरा पैग पीते हुए अनियंत्रित सांसों के बीच वह सिविलियनों में डिसिपलिन की कमी और समय की कद्र न करने की आदत पर गंभीर चिंतन करते । पत्नी के लौटते ही, साली लौट आई पार्लामेन्ट से बैरक में हुंकारते हुए उसके नितंब और पीठ लहुलूहान हो जाने तक पीटते । सावित्री देवी पर भूत चढ़ता । वह बचपन से उस दिन तक के अपने दुख गाते हुए बोलने लगती । जानवरों को खूंटा तुड़ाने की हद तक भड़काने वाली हिचकियों से बांधे गए उसके गीत की टेक होती - अगर भतार इंदिरा गांधी को इसी तरह कूटता । तो क्या वे कभी प्रधानमंत्री बन सकती थीं ? उन्माद के कारण पडऩे वाले डरावनी हंसी के दौरों के बीच अचानक वह गाय भैंसों के पगहे खोल कर उनके पीछे बाहर निकल जाती । दीया बाती के समय बाल खोले, खून से तर ब्लाऊज पेटीकोट पहने, हाथ फैंकती गांव की गलियों में कंपकंपाते महीन क्रुद्ध स्वर से चिल्लाती - जंगी नेउर मतलबी यार बिलुक्का बंद हड़ताल...। उधर पतिहारा अंधेरे खेतों में सिविलियनों को गालियां देते हुए अपने जानवरों को खोज रहे होते ।
एक दिन ढेला मारते लड़कों को कई पीढिय़ों से विस्मृत पुरखों के नामों के हवाले से गरिया कर भगाने के बाद वह बांह से घेर कर डेभा तिवारी सूरे को एकांत में ले गए । गंभीर आवाज में नकली समझाइश से बोले - अब तुम्हारी विवाह की अवस्था हो गई है । कानी-कोतर लड़कियों की कमीं नहीं है । कहो तो कहीं बात चलाएं । नहाते हो । तब सुथना जरूर फींच लिया करो । नहीं ये लड़के परेशान करते रहेंगे । अच्छा, एक बात बताओ । ये कैसे हो जाता है ? सपने में कौन दिखाई देता है । फुसलाने से निरपेक्ष वह काठ की तरह खड़ा रहा । जब डेभा, तिवारी का धीरज छूटने लगा । तो उसने वैरागी संत की तरह कहा - वाह रे आदमी, जब कुछ नहीं दिखता । तो सपना ही कैसे दिख जाएगा ।
- तब कैसे सरऊ ?
पंडित की पीठ पर हाथ फिराते हुए लरजती आवाज में उसने कहा - बोली सुनाई देती है । महक जाती है । लगता है किसी ने सचमुच छू दिया हो । 
उस स्पर्श में कुछ ऐसी हीन कर देने वाली थरथराहट थी कि डेभा तिवारी का खून सूख गया । जिसके कारण चेहरे का रंग उड़ गया । उसके बाद वह फिर कभी सूरे के साथ नहीं फटके ।
गांव के पुरुषों को संदेह के पारदर्शी झोल में लिपटा हुआ पक्का यकीन था कि कई औरतों, लड़कियों के सूरे से अंतरंग संबंध हैं । सीवान में निकलने वाली दूसरे गांवों की भी औरतें, लड़कियां उसे अपने साथ मनमानी करते के लिए ले जाती हैं । अंधा होने के कारण वह किसी को पहचान नहीं सकता । इसलिए बदनामी का खतरा नहीं है । अगर बात खुल भी जाए । तो कोई कभी साबित नहीं कर पाएगा । दबी हुई नाटकीय कराहों में तस्वीर उभरती । जैसे सूरे कोई मदमाता पंचायती सांड़ है । अक्सर जिसका शिकार चतुर कामुक महिलाओं का एक गिरोह किया करता है । कोई कितनी भी कोशिश कर ले रंगे हाथ नहीं पकड़ सकता । क्योंकि घास छीलती लड़कियां सीवान में दूर तक नजर रखती हैं । और खतरा भांप कर किसी गुप्त संकेत से सही ठिकाने पर चेतावनी भेज देती हैं । थोड़ी देर बात सूरे कहीं दूर दांत चियारता मिलता है । जिसे उल्टा टांग देने पर भी कोई कुछ नहीं जान सकता ।
औरतें और ज्यादा हंसने लगी थीं । वे पहले भी बेवजह हंसती रहती थीं । अब तो उन्हें मर्दों की मूर्खता पर मुग्ध होने का जरिया मिल गया था । भूख और थकान को चुनौती देती हुई वे घर दुआर बुहारने लीपने, कंडा पाथने, चारा पानी करने, बच्चों को नहलाने के बाद दोपहर में दातुन करतीं । और दिन में झपकी आ जाने पर खुद को अपराधी मानते हुए बेना, डलिया पर फूल पतियां काढऩे लगतीं । गृहस्थी और किसानों के कामों से उन्हें जरा भी फुर्सत तीसरे पहर मिलती । तब वे चारपाई की रस्सियों की तरह खींच कर अपनी लड़कियों की चोटियां बांधते हुए धमकातीं - अगर ज्यादा हंसोगी । तो सूरे जैसे किसी आदमी से ब्याह दी जाओगी । और जिन्दगी भर ढेला खाओगी ।
रात तक खटने के बाद जब वे अपने पतियों से अपनी छोटी छोटी इच्छाएं फुसफुसातीं । अपने घर में अपनी जगह के बारे में पूछतीं । या शिकायत करतीं । तो वे उनके मां बाप को कोसते हुए गालियां देने लगते । वे हर तरफ से निरूपाय होकर अंतत: अपने आनुवांशिक बोध से मानव इतिहास की आदिम, सहज और गुप्त हड़ताल कर देती थीं । नतीजे में पिटती थीं । उसमें से बहुत कम का रूदन सावित्री देवी की तरह घर की दीवारों से बाहर आ पाता था । आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन की कामयाबी एक तुक्का थी । गांधी के पैदा होने के भी हजारों साल पहले से महिलाएं उसी तरीके से अपनी स्वायत्तता का आंदोलन चलाते हुए पिट रही हैं ।
सतत त्रास से सूरे की अकेली राहत बच्चे थे । जो डीह बाबा के चौरे पर खेलते थे । वे आंख बंद कर उसके संसार में उतरने की कोशिश करते । वहां जो अज्ञात था । उसे जानना ही उनका खेल था । वे एक दूसरे को और चीजों को टटोल कर पहचानते थे । अंधे की तरह तब तक चलते थे । जब तक किसी से टकरा कर गिर न पड़ें । उनके झगड़े सुलटाने के लिए सूरे से अच्छा पंच कोई मिल नहीं सकता था । जो उनकी बकबक को इतने ध्यान से सुनता । और उन पर यकीन करता हो ।
- मैं गदहिया गोल में पढ़ती हूं न सूरे ।
- हां ।
- मैं इससे गोरी हूं न सूरे ।
- हां ।
- पार साल से मैं बड़ा हो गया हूं न सूरे ।
- हां ।
बां डेभा तिवारी की लड़की थी । जिसे चरवाहों ने सूरे के साथ एक खेत में देखा था । उसी रात उन्होंने अपने बाबा की पोथियां पटनी से उतारी थीं । और गांव के सबसे बड़े रहस्य की खोज शुरू की थी । पंद्रह साल की बां का दिमाग चवन्नी कम था । लेकिन भूख और गुस्सा जरा ज्यादा था । ठिगनी और थुलथुल होने के कारण उसके चलने में एक उन्मादी हिलोर आ गई थी । जिससे वह चकनी हाथी लगती थी । वह गांव में घूम कर खाना मांगती थी । जात कुजात या डेभा तिवारी के डर से नहीं देने पर नथुने फुलाते हुए गालियां देती थी । जानवरों पर थूकती थी । और दरवाजे पर पेशाब कर देती थी । ताज्जुब था कि उसे भूख और पेशाब हमेशा कैसे लगी रहती थी । डेभा की पत्नी जब पेट से थी । तो उन्होंने उसे बहुत पीटा था । जिस कारण लड़की मतिमंद पैदा हुई थी ।
उस दिन सूरे नदी पार से चरी का पुरहर बोझ लिए लौट रहा था कि बां उसे घेर कर चीन्हा-चीन्ही खेलने की जिद करने लगी । सूरे ने जाने देने के लिए बहुत निहोरा किया । लेकिन उसने धक्का देकर बोझ गिरा दिया । अब किसी बोझ उठवाने वाले के आने तक इंतजार करना सूरे की मजबूरी थी ।
जब वह छोटी बच्ची थी । तब यह खेल सूरे के साथ खेला करती थी । वह एक अंधे के प्रति बच्चों की संवेदना का खेल था । जिसमें दोनों एक दूसरे के अंगों को बारी बारी से छूते हुए जानबूझ कर गलतियां करते थे । फिर आत्मीय ढंग से सही पहचानते थे । बां के असामान्य बड़े सिर को सूरे ने हथलियों में भरा । खोपड़ी की ढलान को महसूस करते हुए वह आंख, नाक, गालों, होठों से होता हुआ गरदन तक आया । तभी उसके शरीर की महक से अनियंत्रित होकर खून उसके हृदय में उछला । वह डर गया । वह उसके सिर को गगरी और कानों को सूप बता कर आगे बढऩा चाहता था । लेकिन वह सहसा चिल्लाया । जैसे किसी बस को रोकने के लिए आवाज दे रहा हो - हे हे रुको, तुम तो सयान हो रही हो । वह पीछे हटकर अपना बोझ टटोलने लगा । तो बां को जैसे दौरा पड़ गया । उसने दौड़कर सूरे की छातियों में नाखून गड़ा दिये । और झकझोरने लगी । वह नीचे दब जाने से घबराकर चिल्लाया । जिसे सुनकर चरवाहों ने चीटों की तरह गुत्थमगुत्था दोनों को अलग किया ।
डेभा तिवारी ने बाँ को फुसला कर जानने की कोशिश की कि सूरे ने उसके साथ क्या किया था । जो नाराज होकर उसने बकोटने लगी थी । देर तक मुंह फुलाए रहने के बाद उसने बताया कि खेल बीच में छोड़ कर भाग रहा था । फिर वह बाप को भी गालियों देने लगी । बेटी के साथ मां की भी धुनाई करने के बाद वे पूरी सांझ सिर पर हाथ रखकर बैठे रहे । रात में उन्हें अपने वैद्य बाबा की याद आई जो कहा करते थे - औरत में भेद छिपाने की क्षमता आदमी से तीन गुना और गरमी नौ गुना ज्यादा होती है । और उसे सिर्फ ज्ञान के अंकुश से ही काबू में रखा जा सकता है । वह पटनी पर चढ़कर किसानी के कबाड़ से लाल कपड़े में बंधी बाबा की थाती उतार लाए । जिसमें पुराण, पंचाग, कर्मकांड की विधियों, पुरानी चिट्ठियों, बदबूदार बुरादा बन गई जंगली गुलाब की पखुंडिय़ों और मूसों की लेंडिय़ों के बीच वे दो किताबें मिलीं । जिनकी करामात से उनके परिवार की आजीविका आधी सदी तक सम्मानजनक ढंग से चलती रही । अगली पीढ़ी में उनके पिता के गंजेड़ी होकर बहक जाने के कारण विद्या परिवार से चली गई । और तब से यह गठरी दरिद्र वर्तमान की सोहबत में उपेक्षित पड़ी हुई थी ।
सामलसा गौर लिखित जंगल की जड़ी बूटी और निघण्टु भूषण नामक दो किताबों को झाड़ पोंछ कर उन्होंने पढऩा शुरू किया । कपूर से तपा कर उनकी गंध को सहनीय बनाने के साथ चले एक सप्ताह के अनवरत अध्ययन से उन्होंने उस विलुप्तप्राय वनस्पति का पता लगा लिया । जिससे राजपुरुषों का यौवन कायम रहता था । और तांबे को सोने में बदला जाता था । लेकिन अब कलयुगी स्त्रियों के छिनालपन में सहायक हो रही थी । उनके भीतर बाबा की लुप्तप्राय स्मृति के पुनर्जीवन के साथ श्रद्धा का नया बहाव शुरू हुआ । जिसके अतिरेक में उन्होंने बस्ते के लाल मारकीन और ओसारे में लटके उनके फोटो के फ्रेम को साबुन से धुलकर गेंदे की दो मालाओं से सजा दिया ।
गांव के डाकखाने में छठे छमाहे डेभा तिवारी के बाबा के नाम एक पोस्टकार्ड आ जाया करता था । रोग के लक्षण बताकर दवाई भेजने का सविनय निवेदन करने वाले इन दुर्लभ मरीजों में इतनी हताशा होती थी कि उनका कामन सेन्स चाट चुकी होती थी । वे यह नहीं सोच पाते थे कि किसी वैद्य की मृत्यु भी हो सकती है । अगर उनके बाबा जिन्दा होते । तो कम से कम सवा सौ साल के होते । उन्हें गुजरे चालीस साल हो चुके थे । लेकिन पोस्टकार्ड आए जा रहे थे । जो डेभा तिवारी के लिए पदक थे । वे पोस्ट आफिस रोज जाने वालों में से थे । लेकिन जब पोस्टकार्ड आता । तो निठल्लों के बीच वीआईपी हो जाते । घर लौटते हुए गांव के कई ठीहों पर ठिठकते हुए धोती के फेंटे से निकाल कर पोस्टकार्ड को जोर से पढ़ते । और आसमान की ओर उठा कर कहते - भेज दीजिए वहीं से दवाई । अब तो कतरीसराय में गुप्त रोग के दुखियारों की सुनने वाला कोई रहा नहीं ।
प्रधानपति ने डेभा तिवारी को कई दिनों तक सुबह सुबह तालाब, नदी के किनारे उगे जंगली पौधों का सर्वे करते देखा । तो अनुमान के अनिश्चय से पूछ लिया - खरबिरइया खोज रहे हो । जानो पंडितान में बैदही शुरू होने वाली है ।

तेलियाकंद 2

- इलाके में फिर से तेलियाकंद उगने लगा है । सब उसी का चूरन फांक रही हैं । पानी के साथ एक फंकी मार लेने से एक महीने तक गर्भ नहीं ठहरता । उन्होंने सहमे हुए भेद भरे ढंग से बताया ।
प्रधानपति की आंखें फैल गईं । और होंठ लटक गए । उसने महिला सीट हो जाने के कारण मजबूरी में अपनी बीए पास पत्नी को प्रधान तो बनवा दिया था । लेकिन आफत मोल ले ली थी । वह जिला मुख्यालय पर हाकिमों की बैठकों में उसके मना करने के बावजूद अकेले जाती थी । सरकारी कागज पतर खुद रखती थी । और हमेशा पीछा करने के लिए अकेले में झिड़क भी देती थी । पहले वह मारपीट बर्दाश्त कर लेती थी । लेकिन इधर एक साल से अलग सोने लगी थी । वह गालियां देता हुआ दिन रात सुलगता रहता था । दिमाग में संदेह के लाखों कीड़े कुलबुलाते थे । लेकिन कोई उपाय नहीं था । क्योंकि उसी के दस्तखत से कमीशन के लाखों रूपए घर में आते थे । और प्रधानी से परिवार का रूतबा था । एक बार तो उसने उन्माद में कुदाल से अपने कमरे की सिटकनी को उखाड़ फेंका । प्रधान ने ससुर से सलाह करने के बाद लोहार बुलाकर घर के सभी कमरों पर भुन्नासी ताले लगवा दिए । और डाकखाने की मुंगरी जैसी घुंडीदार मुहर को तकिए के नीचे रख कर सोने लगी । एक सुबह प्रधानपति को नहाते देखकर कुएं की जगत पर बैठे लोग सनाका खा गए । उसके एक कूल्हे, टांगों और पेट पर पोस्ट आफिस कतरीसराय के गोलाकार गाढ़े हल्के कत्थई ठप्पे लगे हुए थे । लोगों ने बहुत बाद में जाना कि उसकी जिन्दगी बदलने में पोस्ट आफिस की महत्वपूर्ण भूमिका का यह स्पष्ट पूर्व संकेत था ।
पंडित के अनुसंधान का नतीजा जानने के बाद उसे सिनेमा का परदा दिखने लगा । गांव की औरतें खामोशी से मर्दों के खिलाफ गोलबंद हो रही हैं । उन्होंने सबसे नाजुक नस पकड़ ली है । अब वे मान मर्यादा को चूल्हे में झोंककर मर्दों को काम की अग्नि में जलाकर मार डालना चाहती हैं । पंडित को महसूस हुआ कि उनके भीतर कुछ शक्तिशाली, पुरातन, सूक्ष्म, शांत, गरिमामय तरंगों के रूप में बह रहा है । यह ज्ञान के आसपास किसी चीज की सुप्त आनुवांशिक अनुभूति थी । जो प्रधानपति पर पड़े प्रभाव की प्रतिक्रिया में जागृत हा रही थी । तुरंत उसकी चाल और वाणी थिर हो गई । उन्होंने प्रधानपति को ऐसे देखा । जैसे वह संसार के मेले में भटका हुआ अनाथ बच्चा हो । उसके भीतर गुप्त खुशी फूटी कि अचानक वे एक नवधनिक के रूतबे के असर से बाहर हो गए हैं । लेकिन अगले ही पल झेंप गए । क्योंकि वे उनके सामने फटा गमछा पहने नंगे बदन खड़े थे । उन्होंने निश्चय किया - अब वे पूरी जिंदगी बिना साफ धोती पहने घर से नहीं निकलेंगे । गमछे की जगह कंधे पर है । और वह वहीं रहा करेगा ।
गांव में अब डेभा तिवारी ऐसे चलते । जैसे पेशी पर कचहरी जा रही हों । और देर हो गई हो । चमत्कारी कंद के बारे में जानने को आतुर कोई न कोई पीछे लग लेता था । वह रहस्य जानने वाले की पात्रता को तौलने के बाद फुसफुसाते - जहरी पौधा है । जिसकी रक्षा भयंकर सर्प करते हैं । नदी ताल के तीर पर मिलता है । जहां उगलता है । हर तरह के कीड़े मकोड़े मर जाते हैं । घास तक खत्म हो जाती है । मिट्टी तेल पीकर काली पड़ जाती है । पत्ते आम के जैसे लेकिन छोटे होते हैं । सिर्फ एक पीला फूल सांप के फन की तरह खिलता है । बकरी के मक्खन जैसी महक आती है । बारह साल तक सिर्फ बरसात में पौधा पनपता है । बाकी समय आदमी के कपाल के आकार का सवा तीन सेर भारी चित्तीदार कंद जमीं के भीतर पड़ा रहता है । अगर विधि का विधान हो । तभी तेलिया आदमी को अपने पास बुलाता है । वरना सामने होते हुए भी दिखाई नहीं पड़ेगा । पहचान यह है कि नर कंद में हंसुआ धंसाओ । तो फल गलकर गिर जाएगा । और मादा से सिसकी लेने की आवाज सुनाई पड़ेगी ।
वह प्रभाव का अनुमान लगाते हुए अपने मन में प्रभावशाली ढंग से बोलने का अभ्यास करते -रसशास्त्र के सुवर्ण तंत्र ( परशुराम - परमेश्वर संवाद ) नामक ग्रंथ में लिखा है । कैसा बी विषधर सांप काट ले । एक बूंद रस जहर उतार देता है । लेकिन किसी गुणी आदमी के हाथ तेलिया कंद लग जाए । तो वह पलक झपकते राजा बन जाता है । क्योंकि उसके रस में पकाने से पारा, तांबा और चांदी सोने में बदल जाते हैं । कैंसर, नपुसंकता, जलोदर समेत दुनिया की कौन सी असाध्य बीमारी है । जो उसके रस से ठीक नहीं हो सकती । आदमी पंद्रह दिन तक इसका चूर्ण दूध के साथ पी ले । तो बुढ़ापा पास नहीं आता । औरतें पीयें । तो सदा जवान रहेंगी । और हमल नहीं ठहरेगा ।
जो शहर में नौकरी करने वाले ज्यादा पढ़े लिखे लोगों से कहते । वह यह था - इसी पौधे के कारण भारत को सोने की चिडिय़ा कहा जाता था । जहाँ युगों तक विदेशियों के लूटने के बाद भी कभी सोने की कमी नहीं होने पायी । पुराने जमाने के राजा महाराजा खुले हाथ से प्रतिदिन कई क्विंटल सोने का दान इसी कीमियागिरी के चलते करते थे । अब टाटा, बिड़ला, अंबानी, जिन्दल जैसे उद्योगपति और कुछ खानदानी नेता जंगलों में रहने वाले सिद्ध महात्माओं को बुलाकर उसका सेवा सत्कार कर अपने घरों में सोना बनवाते हैं । यही कारण है कि उनको व्यापार में कभी घाटा नहीं लगता । और संपत्ति दिन दूना रात चौगुनी बढ़ती जाती है ।
तेलियाकंद खोजने का चस्का गांव को लग चुका था । कई पुराने चोर और भाग्य के धक्के से अचानक धनी हो जाने की कल्पनाओं से लाचार दुस्साहसी रातों में सूरे पर नजर रखने लगे थे । एक अंधे का पीछा करने में कोई रोमांच नहीं था । लेकिन सूरे सीवान में उनकी उपस्थिति भांपकर बौखलाया फिरता था । बेटे को काम धाम छोड़ कर कई दिन अकेले भटकते और डेभा तिवारी से कानाफूसी करते देखा । तो प्रधान ससुर चिंतित हो गए । उन्हें लगा ठगने का नया बंधान पंडित ने तैयार कर लिया है । उन्होंने उसे समझाया - यह सब गप्प है । डेभा के खानदान में एक से एक फेंकू गुजरे हैं । इसके बाबा भी शिलाजीत के नाम पर बबूल का लासा बेचते थे । ऐसे काबिल वैद्य थे । तो अपनी रतौंधी का इलाज क्यों नहीं कर लिया । सांझ होते ही लड़कियों की पीठ पर खरहरा करने लगते थे । क्योंकि उन्हें दिखाई देना बंद हो जाता था ।
बाबा के प्रति नयी जन्मी आस्था को गहरी ठेस लगी । और डेभा तिवारी के सिर से एड़ी तक आग लग गई । सूरज निकलने से पहले ही अन्न जल त्यागने का एलान करने के बाद वे मुरैठा बांधकर चिंघ्घाडऩे लगे - गांव में जिस भी नए पुराने ने साइंस साइड से पढ़ाई की हो । प्रधान के दरवाजे पर आए । वे आज सोना बनाने की विधि बताएंगे । अगर कोई गलत साबित कर देगा । तो कल ही खेत बारी बेचकर परिवार समेत गांव छोड़ देंगे । और पानी नए ठीहे पर जाकर पीएंगे ।
तीसरे पहर जब प्रधान के द्वार पर गांव उलट पड़ा । तो उन्होने एक लकड़ी से गोला खींचकर किसी को भी लकीर न पार करने की चेतावनी दी । उसके भीतर उन्होंने गीली जमीन पर अंग्रेजी में 2Hg + S = Hg2S (-2e) = Gold  लिख कर नीचे इतनी गहरी लकीर खींची कि लकड़ी मिट्टी में फंस गई । और वे झटका खाकर लडख़ड़ा गए । मंगलाचरण का सस्वर पाठ करने के बाद कमर सीधी करते हुए उन्होंने आत्मविश्वास से कहा - आयुर्वेद के हिसाब से तो पारा शंकर भगवान का रूप है । और गंधक पार्वती हैं । दोनों मिलकर मृत्युलोक में धनधान्य बनाए रखते हैं । लेकिन ज्यादा पढ़े लोग इस पर विश्वास नहीं करेंगे । इसलिए पुरखों की पोथी से यह फार्मूला निकाल कर लाना पड़ा । यहां भी लड़के धीमी आवाजों में टिटकारी मारते हुए सूरे को घेरे के भीतर ठेल रहे थे । लेकिन पूर्वाभास से उसने सटीक जान लिया था कि ज्ञान के आतंक की चौहद्दी कहां है । मौके की नजाकत तो वह समझ ही रहा था । पैर रोप कर मुस्कराता हुआ किनारे अड़ा रहा ।
गोले की लकीर पर मुर्गे की तरह चलते हुए डेभा तिवारी ने किसी सनकी प्रोफेसर की बदमिजाजी से कहा - जो लोग इस लिखे का मतलब नहीं समझते । वे अपना टाइम खोटा न करें । जाकर गोरू बछरू देखें । जो इन जिन्सों के रासायनिक नामों को जानते हैं । उन्हीं के लिए यह फार्मूला है । पारे को जब गंधक के तेल में घोटा जाता है । तो पारे के फालतू इलेक्ट्रान गंधक खा जाता है । और बदले में अपना पीला रंग दे देता है । तेलिया कंद की सिफत यह है कि वह पारे को उडऩे नहीं देता । जब इस मिश्रण को तेलिया के रस में पकाया जाता है । तो पारा मजबूत होकर सोना बन जाता है ।
कतरीसराय के दो बेरोजगार नौजवानों के पास के शहर के डिग्री कालेज में मेडजी ( मेड ईजी ) टीपकर बीएससी की डिग्री पाई थी । जो पारे से ज्यादा तेलियाकंद के बारे में जानते थे । और डेभा तिवारी को जमीन पर सरपट अंग्रेजी लिखते देखकर प्रभावित हुए थे । उनमें से एक को जब ठेलकर आगे किया जाना लगा । तो वह ‘भक्क’ कह कर भाग खड़ा हुआ । दूसरे को, जो प्रधानपति का छोटा भाई था । जब पिता ने प्रश्नवाचक निगाह से देखा । तो गोले में आना ही पड़ा । वह कहना चाहता था - विद्या माई की कसम ! मुझे नहीं पता कि गंधक कैसे पारा खाता है । मैंने इलेक्ट्रान सिर्फ कागज पर लिखा देखा है । क्योंकि हमारे कालेज की लैबोरेटरी में मैनेजर साहब की जर्सी गाएं बंधी रहती थीं । मैं न ही तेलियाकंद कैसा होता है । यह जानता हूं । लेकिन पता करने की कोशिश करूंगा । और एक दिन आप सबको जरूर बताऊंगा ।
पता नहीं कैसे लोगों ने उसे कहते सुना - फार्मूला का हाल तो पंडित जानें । लेकिन जापान से लेकर अफ्रीका तक इस संसार में जहां जहां जमीन पर तेलियाकंद पाया जाता है । नीचे सोना होता है ।
अंतत: प्रधान ससुर के हाथ से लोटा लेकर पानी पीने के बाद डेभा तिवारी ने गर्व से होंठ भींचकर भीड़ की ओर देखते हुए लंबी डकार ली । यह उदघोष था । जिसके बाद खुले तौर पर गांव की स्त्रियों को पतित होने से रोकने के लिए तेलियाबंद के पौधे को खोजकर हमेशा के लिए नष्ट कर देने और गुप्त रूप से अपनी अतृप्त इच्छाओं से प्रेम कहानियों के निर्माण का अभियान शुरू हुआ था ।
जिउतिया के रोज की बात है । शाम को निर्जला व्रत का पारायण कर नदी से लौटती औरतों ने बताया कि पानी में कहीं से बहता हुआ तेल अ रहा है । प्रधानपति के कान खड़े हो गए । उसने जाकर डेभा तिवारी को बताया । तो वह झटके से थैली से तंबाकू निकाल कर चुनौटी में दबाकर भरने लगे । जैसे तुरंत किसी लंबे सफर पर निकलना हो । फिर कुछ सोचते हुए घर में गए । और बाबा के बस्ते से पंचाग निकाल लाए । लालटेन की रोशनी में देखकर उन्होंने कहा - मुहूर्त अच्छा है । हो सकता है । आज रात सूरे को तेलियाकंद फिर बुलाए । और उसका पीछा करते हुए हम लोग वहां तक पहुंच जाएं । तय हुआ कि सूरे को देखते रहा जाए । और एक घड़ी रात गए निकलने की तैयारी रखी जाए । लेकिन सूरे जो दोपहर को नदी की तरफ गया । अब तक लौटा ही नहीं था । उसकी मां डीह बाबा के चौरे पर बैठी गालियां देती हुई रास्ता अगोर रही थी । टोह लेने गए भेदिए ने जब लौटकर बताया । तो दोनों की आंखें मिलीं । उसी वक्त तारे बादलों से ढंक गए । और बूंदे पडऩे लगीं । इसका मतलब था - मुहूर्त तो सचमुच अच्छा है ।
उस रात भी गांव की गलियों में अपने खून से भीगी जुझारू नेताइन की चिंचियाती नारीवादी पुकार, जंगी नेउर मतलबी यार... बच्चों को डरा रही थी ।
कुत्तों और सियारों के अलावा बाकी आवाजें मंद पडऩे लगीं । गांव में सोचा पड़ गया । तब दोनों अलग अलग रास्तों से छाता, लाठी और टार्च से लैस होकर निकले । गांव का आखिरी घर पार करते न करते कारतूस का पट्टा लटकाए, दुनाली बंदूक लिए अपने पालतू कुत्ते के साथ प्रधानपति का भाई भी आ मिला । जिले में कुढञ रहे बाप ने अंगरक्षक की भूमिका निभाने के लिए भेज दिया था । बाप ने चलते समय चेताया था - देखना पंडित के कहने पर कोई खरपतवार न खाने पाए । और किसी तीसरे आदमी के मिलने पर जबरदस्ती टांग कर घर लौटा लाना । दोनों ने अपनी लुंगियां घुटनों पर चढ़ा लीं । और पंडित ने धोती का कछौटा बांध लिया था । अंधेरे में खेतों को आंखों से छानते चलने के कारण मेड़ों से बिछलते हुए ये चारों नदी की आवाज सुनाई देने तक एक कतार में चुपचाप चलते रहे । डेभा तिवारी ने नदी किनारे के एक छतनार बरगद से खोज शुरु करने के फैसला किया । जिसके ऊपर बादलों में एक टिटहरी लगातार चीखती मंडरा रही थी । उनका अंदाजा था कि सूरे बारिश से बचने के लिए किसी पेड़ के नीचे बैठा हो सकता है ।
हवा में उमस थी । तीनों नदी के पेटे में उतर कर टार्च की रोशनी से पानी देखते रहे । लेकिन कहीं तेल का नामोनिशान नहीं था । किनारे पर मेढकियां फुटक रही थीं । कुत्ता टांगों के बीच कूद रहे टिड्डों को मुंह से दबोचने में लग गया । कभी कभार कोई छोटी मछली धार में चमक उठती थी । बरगद के पत्ते बूंदों से पट पट बज रहे थे । लेकिन टार्च से आवाज का पीछा करने पर उल्टे लटकते सैकड़ों चमगादड़ दिखाई देते थे । कहीं दूर सियारों की आवाजें छोटी छोटी लहरों की तरह उछल बैठ रही थीं । झाड़ झंखाड़ से ढके अंधेरे विस्तार में सूरे जैसे बेढब आदमी को खोज पाना असंभव लग रहा था । क्योंकि पूरब से बादल चढ़े आ रहे थे । कई लंबी सांसे लेने के बाद भाई ने कहा - लौट चलिए । लग रहा है बारिश तेज होगी । कल बुलाकर पूछिएगा । तो बता देगा । सीधा आदमी है ।
पंडित छाते के नीचे बैठे खैनी बना रहे थे । डूबी हुई आवाज में बोले - उसको औरत का स्वाद लग चुका है । बताना होता । तो पहले किसी औरत को बताता । और अब तक सारे जवार को पता चल चुका होता ।
झाडिय़ों की ओट में नदी की घुमान पर आवाज बदली । जैसे कोई हड़बड़ाकर पानी में घुसा हो । कुत्ता भौंकते हुए भागा । तो डेभा तिवारी हल्की कराह के साथ उठे । लाठी कंधे पर रखकर चल पड़े । दोनों भाई जरा देर एक दूसरे को अंधेरे में देखते रहे । फिर पीछे हो लिए । यह किनारे पर मडिय़ा मारे पड़ा एक छुट्टा भैसा था । जो आदमियों को देखकर उस पार जा रहा था । उसकी पीठ और पुट्ठों पर सूखी मिट्टी की मोटी पपड़ी जमी थी । और आंखें टार्च की रोशनी में अंगारों जैसी लग रही थीं । उम्मीद के विफल हो जाने पर प्रधानपति ने खोखली हंसी के साथ कहा - पंडित ये अढ़ाई लाख का भैंसा है । जो आजकल बहुत बीमार है ।
डेभा तिवारी ने नदी की धार देखते हुए कहा - आईसीयू में भर्ती है क्या ?
- पिछले साल पशुपालन विभाग में मजबूत बजट आ गया था । मार्च में खपाने के लिए अफसरों ने डाक्टर से लिखवा लिया कि जिले के सभी उन्नत नस्ल के सांड़ भैसों को कोई भारी बीमारी हो गई है । इलाज के लिए विदेशी इंजेक्शन मंगाए गए थे । हर छुट्टा जानवर पीछे दो लाख का खर्चा आया था । इन भैंसाराम का इलाज तो अभी चल ही रहा है ।
- बड़ा किस्मत वाला है भाई ।
तेज हवा के झोंके से पंडित का छाता उलट गया । वह भी पीछे भहराने को थे । तभी बिजली की चमक में तेल का एक बड़ा चकता दिखाई दिया । जो किनारे की ओर फैलता हुआ पानी पर धीरे धीरे हिल रहा था । उन्होंने टार्च एक जगह स्थिर कर दी । बादलों की गडग़ड़ाहट के बीच अब तीनों रोशनी में उतराते हुए नीले रेशे देख रहे थे । आगे एक और चकता थिर चाल से चला आ रहा था । हवा ठंडी हो चुकी थी । पूरब से तेज पानी चला आ रहा था । आसमान का रंग देखते हुए फैसला किया गया - एक साधे सब सधे । यानि धारा के उल्टे चलते हुए पता लगाया जाए कि यह तेल कहां से आ रहा है । संभवत: वहीं तेलियाकंद और सूरे दोनों एक साथ मिल जाएंगे । पंडित ने छाता सीधा करने की नाकाम कोशिश से झल्ला कर प्रधानपति के भाई को देखा । जिसका मतलब था - तुम्हारी बात मान लेते । तो यह मौका हाथ से गया था । उसने जल्दी से छाता हाथ में ले लिया । लेकिन झकोरों के आगे वह भी सीधा नहीं कर पाया ।
खड़े कगार पर आधा कोस चलने पर आंधी में झांय झांय करते ताड़ के तीन पेड़ दिखे । पानी तेज बरसने लगा । तिरछी बूंदों से चोट लग रही थी । हवा उनकी कतार तोड़ कर बारबार लडख़ड़ाने को मजबूर कर रही थी । कुत्ते ने पूंछ टांगों के बीच दबा ली । और कूं कूं करता हुआ भागकर एक आम के पेड़ के नीचे खड़ा हो गया । उसकी विनम्र सलाह मानकर तीनों भी पीछे से वहां पहुंच गए । और बूंदों की मार से बचने का जतन करने लगे । पेड़ के नीचे कच्ची ईंटों से बना दैतराबीर बाबा का एक छोटा चौरा था । जिसके आले में दो गुडिय़ा, माला के टूटे मनके, भैंस के सींग की एक कंधी और आइने के कई टुकड़े रखे थे । नीचे बहुत सी सीपियां और छोटे घोंघों के खोल पड़े थे । दैतराबीर मल्लाहों के देवता थे । जिनसे बाढ़ उतरने की मनौती की जाती थी । खेतों में काम करने वाली औरतें इस एकांत में कंघी से जुएं निकालती थीं । लड़कियां एक दूसरे को सजाती थीं । और चीथड़ों से बने गुड्डे गुडिय़ा का ब्याह रचाती थीं । सीपियां सूख जाने पर पत्थर पर घिस कर आलू, आम की छिलनी और शिशुओं को दूध पिलाने की सुतुही बनाई जाती थी ।
डेभा तिवारी के मन में भैंसे के इलाज वाली बात घूम रही थी । उन्होंने बेकार हो गए छाते की नोंक से गुडिय़ों को गिराते हुए कहा - सिंगार पटार का काफी इंतजार है । गमछा और धोती निचोडऩे के बाद चेहरे से पानी पौंछते हुए उन्होंने ठंड से सिसियाते प्रधानपति की ओर देखा - यहां भी बुढिय़ा चौथेपन में दुलहिन बनने की प्रेक्टिस कर रही है ।
प्रधानपति मुसकराया । वह पंडित का इशारा समझ गया था । बुढिय़ा बनने की विधि का आविष्कार थोड़े दिन पहले अपनी जाति के बाहर पक्के वोट बैंक की तामीर के लिए किया गया था । जिसे कतरीसराय में भी कामयाबी से चलाया जा रहा था । पहले गरीबी रेखा से नीचे की लिस्ट में चुने हुए परिवार फर्जी तरीके से जोड़े जाते थे । पंचायत सेकेट्री के सत्यापन के बाद सरकारी डाक्टर उन लड़कियों को साठ की उम्र का सर्टिफिकेट देता था । कोआपरेटिव बैंक में खाता खोलने के बाद प्रधान की सिफारिश के साथ भेजी गई अर्जी को समाज कल्याण विभाग का बाबू ऊपर बढ़ा देता था । इस प्रकार लड़कियों, नवविवाहितों को हर महीने तीन सौ रुपये की वृद्धावस्था पेन्शन मिलने लगती थी । जो सरकारी तौर पर उनकी मृत्यु प्रमाणित होने तक जारी रहनी थी । यह पक्के वोटर की वफादारी का ईनाम था । जिसे सरकारी अफसरों की मिलीभगत से प्रधान, विधायक, सांसद हर स्तर के जनप्रतिनिधि प्रजा को बांट रहे थे ।
- तो पंडित तुम भी फार्म भर दो । जिस पर हाथ रख दोगे । वह बुढिय़ा कमाऊ हो जाएगी । उसने तेलियाकंद मिलने के बाद की संभावनाओं पर विचार करते हुए प्रस्ताव किया । जलती टार्च हाथ में लिए डेभा तिवारी कुछ कहने दूर खड़े हैं । अंधड़ में अचानक ताड़ का एक पत्ता लंबे डंठल समेत उखड़ कर लहराता हुआ आम के पेड़ पर झप्प से गिरा । कुत्ता बौखला कर भौंकने लगा । डेभा तिवारी शीशे के टुकड़े के बजाय टार्च फेंककर गिरते पड़ते भागे । बाकी तीनों भी दूर तक पीछे दौड़ गए । उखड़ी सांसों के बीच आतंकित पंडित ने कहा - साले ओझैतों ने हर पेड़ पर भूत बांध रखे हैं । आंधी पानी में भी शरण का ठौर नहीं बचा । पेड़ के नीच उधियाती पत्तियां और गीली घास टार्च की रोशनी में चमक रही थीं ।
प्रधानपति के भाई ने हिम्मत बटोर कर कंधे से बंदूक उतारते हुए कहा - जरा देखें । कहीं सूरे ही तो हम लोगों को डराने के लिए चढ़कर पेड़ नहीं झोर रहा है । उसे सख्ती से बरजने के बाद पंडित ने गांव जवार के सभी जागृत देवताओं का सुमिरन और तीन बार हनुमान चालीसा का तेजी से पाठ किया । उन्होंने उसे बिना ऊपर देखे टार्च लेकर भाग आने को कहा । इसके बाद छाते, लाठियां कांख में दबाए चौकड़ी आगे की ओर चली । 
कगार पर आगे सरपत का लंबा जंगल था । उसके बाद मलाही टोला था । जहां नदी पर डोंगियां थीं । खूंटे गाड़कर नदी के पार पार मछली मारने के जाल बंधे थे । जिसमें फंसकर गिरने का खतरा था । साक्षात भूत देख लेने के बाद वैसे भी सरपत में जाने का सवाल नहीं उठता था । प्रधानपति ने फैसला सुनाया - किसी मल्लाह को जगाकर नाव से चला जाए । और एक झंझट आज ही खत्म किया जाए ।
खेतों के लंबे रास्ते कीचड़ में होकर मलाही टोला पहुंचने पर हांव हांव करते कुत्ते झपटने लगे । उसने पीछे नशे में लडख़ड़ाता लंबा, हडिय़ल रम्मन मल्लाह प्रकट हुआ । जो कभी इलाके में सेंधमारी का उस्ताद रहा था । वह आधी रात के बाद भी नदी के तीर पर अपने छप्पर में जागा हुआ चिलम पी रहा था । सरकारी पंचायती राज आने के बाद चोरी चकारी जैसे छोटे अपराध होने बंद हो गए थे । क्योंकि बटमारी के नए सुरक्षित रास्ते खुल रहे थे । प्रधानपति ने नाव खोलने को कहा । तो पहले वह तरह तरह से भेद लेने की कोशिश करता रहा कि - इस समय कहां और क्यों जाना है ? फिर साफ इनकार करके उल्टे पांव लौटने लगा । पीठ पीछे से पंडित ने उसे किसी तरह रोकने के लिए कहा - सबेरे मल्लाहों को तालाब का पट्टा देने वाले विभाग के अफसर तुम्हारे टोले में आने वाले हैं । नदी भी देखेंगे । उन्हीं के दौरे का इंतजाम करने हम लोग निकले हैं । तब वह धीमे से पलटा । और नकली सिसकियां लेते हुए एक विलाप गीत गाने लगा । बड़ी देर बाद मतलब निकलना शुरू हुआ - मेरे पास एक घूर जमीन नहीं है । बरसात छोड़ नदी पार करने के लिए कोई पूछता नहीं । और घर में खाने वाले ग्यारह मुंह हैं । कैसा अन्याय है कि ट्रैक्टर, राइफल वाले बड़े काश्तकार गरीब का भेष बनाकर जमीन के पट्टे और सरकारी पैसा खींच रहे हैं । उठती उमर की सुंदरियां बुड्ढों की पेन्शन हड़प रही हैं । और हट्टे कट्टे जवान विकलांग बनकर सरकारी नौकरी कर रहे हैं । कैसा सतयुग आया है । खड़ंजे की ईंटों से नोना और सरकारी हैंडपंपों से पानी के बजाय रूपया झर रहा है । इतने दाताधर्मी के रहते इस गांव में कैसा जुल्म हो रहा है । लगता है । पानी के देवता, सूर्यनारायण, संझा माई सभी अंधे हो गए हैं ।
ठंड से दांत किटकिटाते प्रधानपति ने अपनी दो बेटियों को वृद्धावस्था पेन्शन, घर बनवाने के लिए जमीन का पट्टा और दैत्रावीर बाबा के लिए तीन भरी गांजा का पक्का वादा लेने के बाद ही उसने हाथ उठाकर एक जर्जर नाव पर बैठने का संकेत किया । सबसे पहले कुत्ता छलांग मारकर बैठा । मलाही टोला कि कुत्ते उसे फाड़ डालने पर आमादा थे । नदी में पानी अभी कम था । वह लंबी लग्गी से नाव ठेलते हुए उल्टी धारा में बढ़ चला । अब तेल के चकते तेजी से पीछे छूट रहे थे । बारिश थम गई थी । तारे फिर से छिटक गए थे । झींगुरों की झन झन से भीगी रात और भारी लग रही थी ।
एक लंबे मोड़ पर बड़े से कुंड में ढेर सा तेल भंवर में घूम रहा था । प्रधानपति ने अचरज से देखते हुए कहा -  इतना ज्यादा तेल कहीं खदान खुल गई है क्या ? डेभा तिवारी ने कुछ समझ में न आने वाले भाव से जंभाई ली । कुछ अंदाजा नहीं था । कितनी दूर जाना है । सो समय काटने के लिए रम्मन मल्लाह ने प्रधानपति के कुत्ते की नस्ल, वफादारी और भाग्य की प्रशंसा शुरू कर दी । उन तीनों के साथ जब कुत्ता भी ऊंघने लगा । तो उसने कहा - मालिक, क्या कातिक क्या फागुन । अब आदमियों की तरह कुत्तों के लिए भी सब बराबर है । लेकिन मलाही टोला में एक जवान ऐसा है । जो साल के तीन सौ पैंसठ दिन तीन तीन ठौर कुकुरगठिया फंसाए रहता है । उसकी ताकत का राज यह है कि कोई जड़ी जानता है । जिसे चुपके से खा आता है । सारी मलाही टोला कुत्तों के साथ महीनों से उसका पीछा कर रहा है । लेकिन क्या मजाल कि कोई माई का लाल उस जादू के पौधे तक पहुंच जाए ।
प्रधानपति ने थकान से भारी आंखें आधी खोल कर उसे देखा - लगता है गांजा से दिमाग फिर गया है । बहुत बोल रहे हो ।
रम्मन ने फिर से विलाप गीत शुरू कर दिया - आदमियों की गिजा कुत्ते खा रहे हैं । कैसा अन्याय है । मालिक कैसा अन्याय है ।
आसमान में शुक्र तारे के नीचे कतरीसराय ग्राम पंचायत को जिला मुख्यालय से जोडऩे वाली सड़क को सिर पर रखे तीन खंभे वाला पुल दिखाई दे रहा था । पुल के नीचे अंधेरे में एक बड़ा टीला था । जैसे कोई बड़े आकार का विचित्र जानवर मुंह खोले नाव का इंतजार कर रहा हो । रम्मन ने बताया - यह डीजल टैंकर है । जो तीन रोज पहले ड्राइवर को झपकी आ जाने के कारण रेलिंग तोड़ता हुआ नीचे गिर गया था । टैंकर का केबिन नदी में धंसा था । और पीछे का हिस्सा किनारे की जमीन पर उठा हुआ था । जिससे वह अभी भी छलांग के बीच में लग रहा था । नाव के बिल्कुल पास पहुंच जाने के बाद प्रधानपति ने टूटे शीशों के उस ओर केबिन में टार्च घुमाते हुए पूछा - ड्राइवर अभी इसी में पड़ा है क्या ?
- संजोग से ड्राइवर बच गया था । उसी समय भाग गया । टैंकर का मालिक आया था । जिले से क्रेन लाने गया है । रम्मन नाव रोकते हुए बोला ।
तीनों नाव से मक्खियों की तरफ उड़कर तरह ट्रक के बोनट से चिपक गए । टार्च की रोशनी में उन्होंने हैरत से देखा । ड्राइवर की सीट पर सूरे स्टेयरिंग थामे बैठा हुआ था । पता नहीं जगा था । या सो रहा था । लेकिन उसके सफेद दांत दिख रहे थे । चेहरे पर वही डर को छिपाने वाली मुस्कान थी । अपना परिचय बताने के लिए नाव में बैठा कुत्ता एक बार भौंककर चुप हो गया ।
- सूरेए । तीनों एक साथ चिल्लाए ।
- हरामजादों, तुम लोग जैसे जीते हो । वैसे ही औरतों को भी कब जीने दोगे ? सूरे ने होठों के सिवा चेहरे की अन्य एक भी मांसपेशी हिलाए बिना जहर बुझी आवाज में कहा ।
कहते हैं । उसी क्षण नदी के पानी में बिजली चमकी । एक जोर का धमाका हुआ । और सूरे उन लोगों को तेलियाकंद का पता बताकर अंतर्ध्यान हो गया । जो आज तक वापस नहीं लौटा है । कुछ लोग यह भी कहते हैं कि प्रधानपति ने किसी अंग्रेज डाक्टर से उसकी आंखें खुलवा दी हैं । उसे किसी बड़े शहर में छिपाकर रखा गया है । वह नेपाल, झारखंड, छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश के जंगलों से तेलियाकंद लाकर दवाएं बनाने के बाद उन्हें देता है । सकारात्मक सोच वाले भले लोगों की तरह हमें भी यही आशा करनी चाहिए कि सूरे के साथ कोई अनहोनी नहीं हुई होगी । वह जहां भी होगा । ठाठ से होगा ।
सूरे के लापता होने के बाद प्रधानपति और डेभा तिवारी ने साझे में एक फार्मेसी का रजिस्ट्रेशन कराया । जो देश के प्रमुख अखबारों, पत्रिकाओं में विज्ञापन देने के बाद वीपीपी और पार्सल के जरिए महात्मा सूरे का असली तेलियाकंद सप्लाई करने लगी । विज्ञापनों में तेलियाकंद के तेल और चूर्ण का चमत्कारी महात्मय बताया गया था कि मर्दाना कमजोरी, शुक्राणुओं की कमीं, शीघ्रपतन, नपुसंकता, सेक्स के प्रति अरूचि समेत ढेरों बीमारियां उनके सेवन से छू मंतर हो जाती हैं । जल्दी ही देश के अधिकतर प्रांतों में ही नहीं । नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका में भी पोस्टकार्ड और मनीआर्डर हर दिन आने लगे । दो साल के भीतर कतरीसराय में स्वयंभू वैद्यों की भरमार हो गई । और गांव के एक तिहाई घरों पर दवा निर्माता कंपनियों के साइन बोर्ड लग गए । जो तेलियाकंद से कामशक्तिवर्धक दवाएं बनाकर बेचने लगीं । पहली बार गांव में पुरानी दुश्मनियों पर बेल की तरह चढ़ी व्यापारिक प्रतिस्पर्धा की शुरूआत हुई । और एक दूसरे के क्लाइंट तोड़े जाने लगे । पोस्टमास्टर कैश आन डिलीवरी और वीपीपी के आर्डर वाले पोस्टकार्डों को छांटकर अपनी जेब में रख लेता था । वैद्यगण इन पोस्टकार्डों को फीस देकर खरीदने के बाद दिए गए पते पर दवा भेज देते थे । सबसे अधिक चूना सबसे पुरानी मशहूर हो चली फार्मेंसी को लग रहा था ।
जिले के कलेक्टर से भी पहले मोबाइल फोन प्रधानपति के हाथ में आया था । ग्राहकों की संख्या को मद्देनजर उसका भाई दिल्ली जाकर दो युवकों, आंध्र प्रदेश के चंद्रशेखरन और तमिलनाडु के एम. श्री निवास मारन को नौकरी करने के लिए लाया । जिन्हें गांव में बसा दिया गया । अब मामूली वेतन पर पड़ोसी देशों के युवक भी आ गए हैं । जो मोबाइल पर मरीज की अपनी बोली में सहानुभूतिपूर्वक मर्ज का हाल पूछते । और आर्डर लेते हैं । जब कोई पत्र लिखकर या फोन करके महात्मा सूरे की जन्मतिथि और उनके जीवन के बारे में पूछता है । तब अनायास ध्यान जाता है । ये कबकी कहानी है - उस समय से पहले की जब पंचायतों में परमेश्वर बसते थे । या उसके बाद की जब पंचायतें लड़कियों के जीन्स पहनने, मोबाइल फोन रखने और प्रेम करने पर ढाठी देने लगी थीं । हां, समय निर्धारित करने में यह तथ्य जरूर सहायक हो सकता है कि भारत का पहला कॉल सेन्टर कतरीसराय गांव में खुला था । और गोपन के छिलके उतारने वाली भाषा के आत्मीय स्पर्श की आउटसोर्सिंग वहां अमेरिका से भी पहले शुरू हुई थी ।
पत्रों की मौत के जमाने में भी कतरीसराय सैकड़ों पत्र रोजाना आते हैं । वहाँ का डाकखाना सबसे अधिक राजस्व देने वाले मुफस्सिल के डाकखानों में से एक है । क्योंकि दुनिया में कामदेव से शापित लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है ।
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साभार
लेखक परिचय - अनिल यादव उत्तर-पूर्व की अपनी यात्राओं के लिये जाने जाते हैं । उनका पहला और एकमात्र कहानी संग्रह ‘नगर वधुएं अखबार नहीं पढ़ती’ काफी चर्चित है । 1967 में जन्मे अनिल पेशे से पत्रकार हैं । और ‘द पायनियर’ के प्रधान संवाददाता हैं । लखनऊ में रिहाइश ।