tag:blogger.com,1999:blog-5185734997831210542024-03-15T18:09:20.058-07:00विविधसहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.comBlogger483125tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-13103179546497227692016-07-30T05:14:00.000-07:002018-07-24T19:02:00.596-07:00फ़ेसबुक से लङकी अपहरण<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://2.bp.blogspot.com/-c_hb8QGQwBk/V5yZcaTZo1I/AAAAAAAARog/ypUpLatnZxA0mMKOoNgngQSiu_khFldmgCLcB/s1600/beautiful%2Bgirl.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://2.bp.blogspot.com/-c_hb8QGQwBk/V5yZcaTZo1I/AAAAAAAARog/ypUpLatnZxA0mMKOoNgngQSiu_khFldmgCLcB/s400/beautiful%2Bgirl.jpg" width="271" /></a></div>
<span style="color: red;"><br /></span>
<span style="color: red;">फेसबुक/ what's app पर मौजूद सभी महिलाएं एक बार यह कहानी जरूर पढ़ें । </span><br />
<br />
सलोनी ने आज कई दिनों के बाद फेसबुक खोला था । एग्जाम के कारण उसने अपने स्मार्ट फोन से दूरी बना ली थी । फेसबुक ओपन हुआ । तो उसने देखा कि 35-40 फ्रेंड रिक्वेस्ट पेंडिंग पड़ी थीं ।<br />
<span style="color: blue;">उसने एक सरसरी निगाह से सबको देखना शुरू कर दिया । तभी उसकी नज़र एक लड़के की रिक्वेस्ट पर ठहर गई । उसका नाम राज शर्मा था । बला का स्मार्ट और हैंडसम दिख रहा था अपनी डी पी में । </span><br />
सलोनी ने जिज्ञासावश उसके बारे में पता करने के लिये उसकी प्रोफाइल खोल कर देखी । तो वहाँ पर उसने एक से बढ़कर एक रोमांटिक शेरोशायरी और कवितायें पोस्ट की हुई थीं । उन्हें पढ़कर वो इम्प्रेस हुए बिना नहीं रह पाई । और फिर उसने राज की रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर ली । <span style="color: purple;">अभी उसे राज की रिक्वेस्ट एक्सेप्ट किये हुए कुछ ही देर हुई होगी कि उसके मैसेंजर का नोटिफिकेशन ‘टिंग’ के साथ बज उठा । </span><br />
<span style="color: purple;">उसने चेक किया । तो वो राज का मैसेज था । उसने उसे खोलकर देखा । तो उसमें राज ने लिखा था - थैंक यू वैरी मच । </span><br />
वो समझ तो गई थी कि - वो क्यों थैंक्स कह रहा है ।<br />
फिर भी उससे मज़े लेने के लिये उसने रिप्लाई किया - थैंक्स किसलिये ?<br />
उधर से तुरंत जवाब आया - मेरी रिक्वेस्ट एक्सेप्ट करने के लिये ।<br />
<span style="color: red;">सलोनी ने कोई जवाब नहीं दिया । बस एक स्माइली वाला स्टीकर पोस्ट कर दिया । और फिर मैसेंजर बंद कर दिया । वो नहीं चाहती थी कि एक ही दिन में किसी अनजान से ज्यादा खुल जाये । और फिर वो घर के कामों में व्यस्त हो गई ।</span><br />
अगले दिन उसने अपना फेसबुक खोला । तो उसे राज के मैसेज नज़र आये । राज ने उसे कई रोमांटिक कवितायें भेज रखीं थीं । उन्हें पढ़कर उसे बड़ा अच्छा लगा । उसने जबाब में फिर से स्माइली वाला स्टीकर सेंड कर दिया ।<br />
थोड़ी देर में ही राज का रिप्लाई आ गया । वो उससे उसके उसकी होवीज़ के बारे मे पूँछ रहा था ।<br />
<span style="color: blue;">उसने राज को अपना संछिप्त परिचय दे दिया । उसका परिचय जानने के बाद राज ने भी उसे अपने बारे में बताया कि - वो MBA कर रहा है । और जल्दी ही उसकी जॉब लग जायेगी ।</span><br />
<span style="color: blue;">और फिर इस तरह से दोनों के बीच चैटिंग का सिलसिला चल निकला ।</span><br />
सलोनी की राज से दोस्ती हुए अब तक डेढ़ महीना हो चुका था । सलोनी को अब उसके मैसेज का इंतज़ार रहने लगा था । जिस दिन उसकी राज से बात नहीं हो पाती थी । तो उसे लगता था । जैसे कुछ अधूरापन सा है । राज उसकी ज़िन्दगी की आदत बनता जा रहा था । आज रात फिर सलोनी राज से चैटिंग कर रही थी ।<br />
<span style="color: purple;">इधर उधर की बात होने के बाद राज ने सलोनी से कहा - यार हम कब तक यूँ ही सिर्फ फेसबुक पर बातें करते रहेंगे । यार मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ । प्लीज कल मिलने का प्रोग्राम बनाओ ना ।</span><br />
<span style="color: purple;">सलोनी खुद भी उससे मिलना चाहती थी । और एक तरह से उसने उसके दिल की ही बात कह दी थी । लेकिन पता नहीं क्यों, वो उससे मिलने से डर रही थी । शायद अंजान होने का डर था वो । </span><br />
सलोनी ने यही बात राज से कह दी - अरे यार, इसीलिये तो कह रहा हूँ कि हमें मिलना चाहिये । जब हम मिलेंगे । तभी तो एक दूसरे को जानेंगे ।<br />
राज ने उसे समझाते हुए मिलने की जिद की ।<br />
- अच्छा ठीक है । बोलो कहाँ मिलना है ? लेकिन मैं ज्यादा देर नहीं रुकूंगी वहाँ । सलोनी ने बड़ी मुश्किल से उसे हाँ की ।<br />
<span style="color: red;">- ठीक है । तुम जितनी देर रुकना चाहो, रुक जाना । राज ने अपनी खुशी छिपाते हुए उसे कहा ।</span><br />
<span style="color: red;">और फिर वो सलोनी को उस जगह के बारे में बताने लगा । जहाँ उसे आना था ।</span><br />
<span style="color: red;">अगले दिन शाम को 6 बजे, शहर के कोने में एक सुनसान जगह पर एक पार्क, जहाँ पर सिर्फ प्रेमी जोड़े ही जाना पसंद करते थे । शायद एकांत के कारण । राज ने सलोनी को वहीं पर बुलाया था ।</span><br />
थोड़ी देर बाद ही सलोनी वहाँ पहुँच गई ।<br />
राज उसे पार्क के बाहर गेट के पास अपनी कार से पीठ लगा के खड़ा हुआ नज़र आ गया ।<br />
पहली बार उसे सामने देख कर वो उसे बस देखती ही रह गई । वो अपनी फोटोज़ से ज्यादा स्मार्ट और हैंडसम था ।<br />
सलोनी को अपनी तरफ देखता हुआ देखकर उसने उसे अपने पास आने का इशारा किया । उसके इशारे को समझकर वो उसके पास आ गई । और मुस्कुरा कर बोली - हाँ अब बोलो । मुझे यहाँ किसलिये बुलाया है ?<br />
<span style="color: blue;">- अरे यार, क्या सारी बात यहीं सड़क पर खड़ी खङी करोगी । आओ कार में बैठ कर बात करते हैं ।</span><br />
<span style="color: blue;">और फिर राज ने उसे कार मे बैठने का इशारा करके कार का पिछला गेट खोल दिया । उसकी बात सुनकर सलोनी मुस्कुराते हुए कार मे बैठने के लिये बढ़ी । </span><br />
<span style="color: blue;">जैसे ही उसने कार में बैठने के लिये अपना पैर अंदर रखा । तो उसे वहाँ पर पहले से ही एक आदमी बैठा हुआ नज़र आया । </span><br />
शक्ल से वो आदमी कहीं से भी शरीफ नज़र नहीं आ रहा था । सलोनी के बढ़ते कदम ठिठक गये । वो पलट कर राज से पूछने ही जा रही थी कि - ये कौन है कि तभी उस आदमी ने उसका हाथ पकड़ कर अंदर खींच लिया । और बाहर से राज ने उसे अंदर धक्का दे दिया ।<br />
<span style="color: purple;">ये सब कुछ इतनी तेजी से हुआ कि वो संभल भी नहीं पाई । और फिर अंदर बैठे आदमी ने उसका मुँह कसकर दबा लिया । ताकि वो चीख ना पाये । और उसके हाथों को राज ने पकड़ लिया ।</span><br />
<span style="color: purple;">अब वो ना तो हिल सकती थी । और ना ही चिल्ला सकती थी । और तभी कार से दूर खडा एक आदमी कार में आ के ड्राइविंग सीट पर बैठ गया । और कार स्टार्ट करके तेज़ी से आगे बढ़ा दी । पीछे बैठा आदमी जिसने सलोनी का मुँह दबा रखा था । वो हँसते हुए राज से बोला - वाह असलम भाई, वाह..मज़ा आ गया..आज तो तुमने तगड़े माल पर हाथ साफ़ करा है । शबनम बानो इसकी मोटी कीमत देगी ।</span><br />
उसकी बात सुनकर असलम उर्फ़ राज मुँह ऊपर उठा कर ठहाके लगा के हंसा । उसे देख कर ऐसा लग रहा था । जैसे कोई भेड़िया अपने पंजे में शिकार को दबोच के हँस रहा हो ।<br />
फ़िर वो कार तेज़ी से शहर के बदनाम इलाके जिस्म की मंडी की तरफ दौङने लगी ।<br />
<b><span style="color: red;">ये कोई कहानी नहीं बल्कि सच्चाई है । छत्तीसगढ़ की सलोनी, जो मुम्बई से छुड़ाई गई है ।</span></b><br />
<b><span style="color: blue;">सलोनी की ये कहानी उन लड़कियों को सबक देती है । जो सोशल मीडिया से अनजान लोगों से दोस्ती कर लेती हैं । और अपनी जिंदगी गंवा लेती हैं ।</span></b><br />
<br />
<span style="color: purple;">शेयर जरूर करें । ताकि कोई और सलोनी ऐसी दलदल में ना फंस जाए ।</span><br />
साभार - एक फ़ेसबुक वाल से ही ।</div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-75539099083937037542016-06-25T05:13:00.001-07:002018-07-24T19:03:00.392-07:00भविष्य पुराण से<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-KgiawLQYee4/V25zu4UjKtI/AAAAAAAARj8/QPgbuGdkU6c6zDv8q4AVEtGJ-Q0O2q8zACLcB/s1600/muhammad%2Bbhavishyavani%2B1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://1.bp.blogspot.com/-KgiawLQYee4/V25zu4UjKtI/AAAAAAAARj8/QPgbuGdkU6c6zDv8q4AVEtGJ-Q0O2q8zACLcB/s400/muhammad%2Bbhavishyavani%2B1.jpg" width="366" /></a></div>
<b><span style="color: blue;"><br /></span></b>
<b><span style="color: blue;">श्री सूत उवाच -</span></b><br />
<span style="color: red;">1 शालिवाहन वंशे च राजानो दश चाभवन । राज्यं पञ्चशताब्दं च कृत्वा लोकान्तरं ययुः ।</span><br />
- श्री सूतजी बोले - शालिवाहन के वंश में दस राजा हुए थे । सबने पञ्च सौ वर्ष राज्य किया था और अंत में दूसरे लोक में चले गए थे ।<br />
<br />
<span style="color: blue;">2 मर्यादा क्रमतो लीना जाता भूमण्डले तदा । भूपतिर्दशमो यो वै भोजराज इति स्मृतः ।</span><br />
- उस समय इस भूमण्डल में क्रम से मर्यादा लीन हो गयी थी । इनमें दसवां राजा भोजराज नाम से प्रसिद्ध हुआ ।<br />
<br />
<span style="color: purple;">3 दृष्टवा प्रक्षीणमर्यादां बली दिग्विजयं ययौ । सेनया दशसाहस्र्या कालिदासेन संयुतः ।</span><br />
- मर्यादा क्षीण होते देखकर उस बलवान (राजा) ने दिग्विजय करने को गमन किया था । सेना में दस सहस्त्र सैनिक के साथ कालिदास थे ।<br />
<br />
<span style="color: red;">4 तथान्यैर्ब्राह्मणैः सार्द्धं सिन्धुपारमुपाययौ । जित्वा गान्धारजान म्लेच्छान काश्मीरान आरवान शठान ।</span><br />
- तथा अन्य ब्राह्मणों के सहित वह सिन्धु नदी के पार प्राप्त हुआ ( अर्थात पार किया ) था । उसने गान्धार, मलेच्छ, काश्मीर, नारव और शठों को जीता ।<br />
<br />
<span style="color: blue;">5 तेषां प्राप्य महाकोषं दण्डयोग्यानकारयत । एतस्मिन्नन्तरे म्लेच्छ आचार्येण समन्वितः ।</span><br />
- उनका बहुत सा कोष प्राप्त करके उन सबको योग्य दण्ड दिया था । इसी समय में मल्लेछों का एक आचार्य हुआ ।<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<br />
<span style="color: purple;">6 महामद इति ख्यातः शिष्यशाखा समन्वितः । नृपश्चैव महादेवं मरुस्थलनिवासिनम ।</span><br />
- महामद शिष्यों की अपने शाखाओं में बहुत प्रसिद्ध था । नृप ( राजा ) ने मरुस्थल में निवास करने वाले महादेव को नमन किया ।<br />
<br />
<span style="color: red;">7 गंगाजलैश्च सस्नाप्य पञ्चगव्य समन्वितैः । चन्दनादिभिरभ्यर्च्य तुष्टाव मनसा हरम ।</span><br />
- पञ्चगव्य से युक्त गंगा जल से स्नान करा तथा चन्दन आदि से अभ्याचना करके हर ( महादेव ) को स्तुति किया ।<br />
<br />
<b><span style="color: blue;">भोजराज उवाच -</span></b><br />
<span style="color: purple;">8 नमस्ते गिरिजानाथ मरुस्थलनिवासिने । त्रिपुरासुरनाशाय बहुमायाप्रवर्त्तिने ।</span><br />
- भोजराज ने कहा - हे गिरिजा नाथ ! मरुस्थल में निवास करने वाले, ( आप ) बहुत सी माया में प्रवत होने त्रिपुरासुर नाशक हैं ।<br />
<br />
<span style="color: red;">9 म्लेच्छैर्गुप्ताय शुद्धाय सच्चिदानन्दरूपिणे । त्वं मां हि किंकरं विद्धि शरणार्थमुपागतम ।</span><br />
- मलेच्छों से गुप्त, शुद्ध और सच्चिदानन्द रूपी, मैं आपकी विधिपूर्वक शरण में आकर प्रार्थना करता हूँ ।<br />
<br />
<b><span style="color: blue;">सूत उवाच -</span></b><br />
<br />
<span style="color: purple;">10 इति श्रुत्वा स्तवं देवः शब्दमाह नृपाय तम । गन्तव्यं भोजराजेन महाकालेश्वरस्थले ।</span><br />
- सूत जी बोले - महादेव ने प्रकार स्तुति सुन राजा से ये शब्द कहे "हे भोजराज आपको महाकालेश्वर जाना चाहिए ।"<br />
<br />
<span style="color: red;">11 म्लेच्छैस्सुदूषिता भूमिर्वाहीका नाम विश्रुता । आर्यधर्मो हि नैवात्र वाहीके देशदारुणे ।</span><br />
- यह वाह्हीक भूमि मलेच्छों द्वारा दूषित हो चुकी है । इस दारुण ( हिंसक ) प्रदेश में आर्य ( श्रेष्ठ ) धर्म नहीं है ।<br />
<br />
<span style="color: blue;">12 बभूवात्र महामायी योऽसौ दग्धो मया पुरा । त्रिपुरो बलिदैत्येन प्रेषितः पुनरागतः ।</span><br />
- जिस महामायावी राक्षस को मैंने पहले मायानगरी में भेज दिया था ( अर्थात नष्ट किया था ) वह त्रिपुर दैत्य बलि के आदेश पर फिर से आ गया है ।<br />
<br />
<span style="color: purple;">13 अयोनिः स वरो मत्तः प्राप्तवान दैत्यवर्द्धनः । महामद इति ख्यातः पैशाच कृति तत्परः ।</span><br />
- वह मुझसे वरदान प्राप्त अयोनिज ( pestle, मूसल, मूलहीन ) है । एवं दैत्य समाज की वृद्धि कर रहा है । महामद के नाम से प्रसिद्ध और पैशाचिक कार्यों के लिए तत्पर है ।<br />
<br />
<span style="color: red;">14 नागन्तव्यं त्वया भूप पैशाचे देशधूर्तके । मत प्रसादेन भूपाल तव शुद्धिः प्रजायते ।</span><br />
- हे भूप ( भोजराज ) ! आपको मानवता रहित धूर्त देश में नहीं जाना चाहिए । मेरी प्रसाद ( कृपा ) से तुम विशुद्ध राजा हो ।<br />
<br />
<span style="color: blue;">15 इति श्रुत्वा नृपश्चैव स्वदेशान पुनरागमत । महामदश्च तैः सार्द्धं सिन्धुतीरमुपाययौ ।</span><br />
- यह सुनने पर राजा ने स्वदेश को वापस प्रस्थान किया । और महामद उनके पीछे सिन्धु नदी के तीर ( तट ) पर आ गया ।<br />
<br />
<span style="color: purple;">16 उवाच भूपतिं प्रेम्णा मायामदविशारदः । तव देवो महाराज मम दासत्वमागतः ।</span><br />
- मायामद माया के ज्ञाता ( महामद ) ने राजा से झूठ कहा - हे महाराज ! आपके देव ने मेरा दासत्व स्वीकार किया है ।<br />
<br />
<span style="color: red;">17 ममोच्छिष्टं संभुजीयाद्याथात त्पश्य भो नृप । इति श्रुत्वा तथा परं विस्मयमागतः ।</span><br />
- हे नृप ( भोजराज ) ! इसलिए आज से आप मुझे ईश्वर के संभुज ( बराबर ) उच्छिष्ट ( पूज्य ) मानिए, ये सुन कर राजा विस्मय को प्राप्त भ्रमित हुआ ।<br />
<br />
<span style="color: blue;">18 म्लेच्छधर्मे मतिश्चासीत्तस्य भूपस्य दारुणे । तच्छृत्वा कालिदासस्तु रुषा प्राह महामदम ।</span><br />
- राजा की दारुण ( अहिंसा ) मलेच्छ धर्म में रूचि में वृद्धि हुई । यह राजा के श्रवण करते देख, कालिदास ने क्रोध में भरकर महामद से कहा ।<br />
<br />
<span style="color: purple;">19 माया ते निर्मिता धूर्त नृपम्हन हेतवे । हनिष्यामि दुराचारं वाहीकं पुरुषाधमम ।</span><br />
- हे धूर्त ! तूने नृप ( राजधर्म ) से मोह न करने हेतु माया रची है । दुष्ट आचार वाले पुरुषों में अधम वाहीक को मैं तेरा नाश कर दूंगा ।<br />
<br />
<span style="color: red;">20 इत्युक्त्वा स द्विजः श्रीमान नवार्ण जप तत्परः । जप्त्वा दशसहस्रं च तद्दशांशं जुहाव सः।</span><br />
- यह कह श्रीमान ब्राह्मण ( कालिदास ) ने नर्वाण मंत्र में तत्परता की । नर्वाण मंत्र का दश सहस्त्र जाप किया और उसके दशाश जप किया ।<br />
<br />
<span style="color: blue;">21 भस्म भूत्वा स मायावी म्लेच्छदेवत्वमागतः । भयभीतस्तु तच्छिष्या देशं वाहीकमाययुः।</span><br />
- वह मायावी भस्म होकर मलेच्छ देवत्व अर्थात मृत्यु को प्राप्त हुआ । भयभीत होकर उसके शिष्य वाहीक देश में आ गए ।<br />
<br />
<span style="color: purple;">22 गृहीत्वा स्वगुरोर्भस्म मदहीनत्वमागतम । स्थापितं तैश्च भूमध्ये तत्रोषुर्मदतत्पराः ।</span><br />
- उन्होंने अपने गुरु ( महामद ) की भस्म को ग्रहण कर लिया और और वे मदहीन को गए । भूमध्य में उस भस्म को स्थापित कर दिया । और वे वहां पर ही बस गए ।<br />
<br />
<span style="color: red;">23 मदहीनं पुरं जातं तेषां तीर्थं समं स्मृतम । रात्रौ स देवरूपश्च बहुमायाविशारदः ।</span><br />
- वह मदहीन पुर हो गया और उनके तीर्थ के सामान माना जाने लगा । उस बहुमाया के विद्वान ( महामद ) ने रात्रि में देवरूप धारण किया ।<br />
<br />
<span style="color: blue;">24 पैशाचं देहमास्थाय भोजराजं हि सोऽब्रवीत । आर्यधर्म्मो हि ते राजन सर्व धर्मोतमः स्मृतः ।</span><br />
- आत्मा रूप में पैशाच देह को धारण कर भोजराज आकर से कहा - हे राजन ( भोजराज ) ! मेरा यह आर्य समस्त धर्मों में अति उत्तम है ।<br />
<br />
<span style="color: purple;">25 ईशाज्ञया करिष्यामि पैशाचं धर्मदारुणम । लिंगच्छेदी शिखाहीनः श्मश्रुधारी स दूषकः ।</span><br />
- अपने ईश की आज्ञा से पैशाच दारुण धर्म मैं करूँगा । मेरे लोग लिंगछेदी ( खतना किये हुए ) शिखा ( चोटी ) रहित, दाढ़ी रखने वाले दूषक होंगे ।<br />
<br />
<span style="color: red;">26 उच्चालापी सर्वभक्षी भविष्यति जनो मम । विना कौलं च पशवस्तेषां भक्ष्या मता मम ।</span><br />
- ऊंचे स्वर में अलापने वाले और सर्वभक्षी होंगे । हलाल ( ईश्वर का नाम लेकर ) किये बिना सभी पशु उनके खाने योग्य न होगा ।<br />
<br />
<span style="color: blue;">27 मुसलेनैव संस्कारः कुशैरिव भविष्यति । तस्मात मुसलवन्तो हि आतयो धर्मदूषकाः ।</span><br />
- मूसल से उनका संस्कार किया जायेगा । और मूसलवान हो इन धर्मदूषकों की कई जातियां होंगी ।<br />
<br />
<span style="color: purple;">28 इति पैशाच धर्मश्च भविष्यति मयाकृतः । इत्युक्त्वा प्रययौ देवः स राजा गेहमाययौ ।</span><br />
- इस प्रकार भविष्य में मेरे ( मायावी महामद ) द्वारा किया हुआ यह पैशाच धर्म होगा । यह कहकर वह वह ( महामद ) चला गया और राजा अपने स्थान पर वापस आ गया ।<br />
<br />
<span style="color: red;">29 त्रिवर्णे स्थापिता वाणी सांस्कृती स्वर्गदायिनी । शूद्रेषु प्राकृती भाषा स्थापिता तेन धीमता ।</span><br />
- उसने तीनों वर्णों में स्वर्ग प्रदान करने वाली सांस्कृतिक भाषा को स्थापित किया और विस्तार किया । शूद्र वर्ण हेतु वहां प्राकृत भाषा के का ज्ञान स्थापित/विस्तार किया ( ताकि शिक्षा और कौशल का आदान प्रदान आसान हो ) ।<br />
<br />
<span style="color: blue;">30 पञ्चाशब्दकालं तु राज्यं कृत्वा दिवं गतः । स्थापिता तेन मर्यादा सर्वदेवोपमानिनी ।</span><br />
- राजा ने पचास वर्ष काल पर्यंत राज ( शासन ) करते हुए दिव्य गति ( परलोक ) को प्राप्त हुआ । तब सभी देवों की मानी जाने वाली मर्यादा स्थापित हुई ।<br />
<br />
<span style="color: purple;">31 आर्यवर्तः पुण्यभूमिर्मध्यंविन्ध्यहिमालयोः । आर्य्य वर्णाः स्थितास्तत्र विन्ध्यान्ते वर्णसंकराः ।</span><br />
- विन्ध्य और हिमाचल के मध्य में आर्यावर्त परम पुण्य भूमि है । अर्थात सबसे उत्तम ( पवित्र ) भूमि है, आर्य ( श्रेष्ठ ) वर्ण यहाँ स्थित हुए । और विन्ध्य के अंत में अन्य कई वर्ण मिश्रित हुए ।<br />
<br />
<b><span style="color: red;">भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व, खण्ड 3, अध्याय 3 श्लोक 1 -31</span></b><br />
<br />
<a href="https://www.youtube.com/watch?v=22-ijJLWbs0">https://www.youtube.com/watch?v=22-ijJLWbs0</a><br />
<br />
<span style="color: blue;">हिंदुओं को भ्रमित करने के लिए दावा कि हिन्दू धर्मग्रन्थ "भविष्य पुराण" में मुहम्मद का वर्णन है, उसको अवतार बताया है । </span><br />
<span style="color: red;">ब्यौरा इस वीडियो में -</span><br />
<br />
<a href="https://www.youtube.com/watch?v=-iKiyg46Iy4">https://www.youtube.com/watch?v=-iKiyg46Iy4</a></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-64262991058816888842016-06-24T03:39:00.000-07:002016-06-24T03:39:04.155-07:007 जन्म तक 1 ही सास <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://3.bp.blogspot.com/-xx81eHW_RTk/V20NWpKRTvI/AAAAAAAARjQ/iVj_zIKqYTsidyJ3unnLZznA5OpuaXmlgCLcB/s1600/namo.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="303" src="https://3.bp.blogspot.com/-xx81eHW_RTk/V20NWpKRTvI/AAAAAAAARjQ/iVj_zIKqYTsidyJ3unnLZznA5OpuaXmlgCLcB/s400/namo.jpg" width="400" /></a></div>
<span style="color: red;">पंडितों के मोहल्ले में एक ठाकुर साहब रहते थे । जो हर रोज चिकन बनाकर खाते थे । चिकन की खुशबू से परेशान होकर पंडितों ने महंत से शिकायत की ।</span><br />
<span style="color: red;">महंत ने ठाकुर साहब को कहा कि - आप भी ब्राह्मण धर्म स्वीकार कर लो । </span>जिससे किसी को आपसे कोई समस्या ना हो ।<br />
ठाकुर साहब मान गए ।<br />
तो महंत ने ठाकुर साहब पर गंगा जल छिङकते हुए संस्कृत में कहा - तुम पैदा राजपूत हुए थे । पर अब तुम ब्राह्मण हो ।<br />
अगले दिन फिर ठाकुर साहब के घर से चिकन की खुशबू आई । तो सब पंडितों ने महंत से उसकी फिर शिकायत की ।<br />
<span style="color: blue;">अब महंत पंडितों को साथ लेकर ठाकुर साहब के घर में गए । तो देखा, ठाकुर साहब चिकन पर</span><br />
<span style="color: blue;">गंगा जल छिडक रहे थे । और कह रहे थे - तुम पैदा मुर्गे हुए थे । पर अब तुम आलू हो ।</span><br />
<br />
😂 😂 😂 😂 😂 😂 😂 😜 😜 😜 😜 😜 😜 😜 😜<br />
<br />
एक दिन चित्रगुप्त ने ब्रह्मा से प्रार्थना की - प्रभु, ये करवाचौथ के व्रत से सात जन्म तक एक ही पति मिलने वाली योजना बंद कर दी जाए ।<br />
ब्रह्मा - क्यों ?<br />
<span style="color: purple;">चित्रगुप्त - प्रभु, मैनेज करना कठिन होता जा रहा है । औरत सातों जन्म वही पति मांगती हैं । लेकिन पुरुष हर बार दूसरी औरत मांगता है । बहुत दिक्कत हो रही है समझाने में ।</span><br />
ब्रह्मा - लेकिन यह स्कीम आदिकाल से चली आ रही है । इसे बंद नहीं किया जा सकता ।<br />
तभी नारद मुनि आ गए । उन्होंने सुझाव दिया कि पृथ्वी पर नरेन्द्र मोदी नाम के एक महान विचारक रहते हैं । उनसे जाकर सलाह ली जाये ।<br />
<span style="color: red;">चित्रगुप्त मोदी के पास गए । मोदी ने एक पल में समस्या का समाधान कर दिया - जो भी औरत सातों जन्म वही पति डिमांड करे । उसे दे दो । लेकिन शर्त ये लगा दो कि यदि पति वही चाहिए । तो “सास” भी वही मिलेगी ।</span><br />
"डिमांड बंद.."<br />
<b><span style="color: blue;">पत्नियां shocked</span></b><br />
<b><span style="color: blue;">मोदी rocked </span></b></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-33121284891505565222016-06-19T21:06:00.003-07:002016-06-19T21:06:38.513-07:00दिव्य साधना - खेचरी मुद्रा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-VNS-MYWJgiQ/V2dq-bEFuHI/AAAAAAAARgw/6AwuoGtAU18ElcWLCn2EdrhPc4N2qyG3wCLcB/s1600/yogi%2B5.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://1.bp.blogspot.com/-VNS-MYWJgiQ/V2dq-bEFuHI/AAAAAAAARgw/6AwuoGtAU18ElcWLCn2EdrhPc4N2qyG3wCLcB/s400/yogi%2B5.jpg" width="372" /></a></div>
<span style="color: red;">मध्यजिव्हे स्फारितास्ये मध्ये निक्षिप्य चेतनाम ।</span><br />
<span style="color: red;">होच्चारं मनसा कुर्वस्ततः शान्ते प्रलियते । ( धारणा - 57 श्लोक 80 )</span><br />
सामान्य लगने वाली इस खेचरी मुद्रा साधना का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि इससे अनेकों शारीरिक, मानसिक, सांसारिक एवं आध्यात्मिक लाभ उपलब्ध होने का शास्त्रों में वर्णन है । लेकिन इस मुद्रा के साथ साथ भाव संवेदनाओं की अनुभूति अधिकतम गहरी होनी चाहिए ।<br />
यह मुद्रा लगभग बारह वर्ष में सिद्ध होती है । <span style="color: blue;">इसका अभ्यास किसी सक्षम गुरू के मार्गदर्शन एवं अनुशासन में ही करना चाहिए । स्वयं किसी प्रकार की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए । साधना के समय ब्रह्मचर्य के पालन से साधना की सफलता की संभावना प्रबल होती है । सफलता हेतु धैर्य अति आवश्यक है । </span><br />
खेचरी मुद्रा साधना की सफलता के परिणाम स्वरूप मुख्य नाङियों के अवरूद्ध मार्ग खुल जाते हैं । साधक ब्रह्मरन्ध्र से स्त्रावित सुधा का पान तथा समाधि स्थिति का अनुभव करता है । भूख, प्यास, निद्रा, आलस्य आदि आवेगों से छुटकारा पाकर दीर्घायु होता है ।<br />
<span style="color: purple;">तस्मार्त्सवप्रयत्नेन प्रबोधपितुमीश्वरीम । ब्रह्मरन्ध्रमुखे सुप्तां मुद्राभ्यासं समाचरेत ।</span><br />
<span style="color: purple;">( शिवसंहिता चतुर्थ पटल श्लोक - 23 )</span><br />
ब्रह्मरन्ध्र के मुख में रास्ता रोके सोती पड़ी कुण्डलिनी को जागृत करने के लिए सर्व प्रकार से प्रयत्न करना चाहिए । और खेचरी अभ्यास करना चाहिए ।<br />
<span style="color: red;">अमृतास्वादनं पश्चाज्जिव्हाग्रं संप्रवर्तते । रोमांचश्च तथानन्दः प्रकर्षेणोपजायते । </span><br />
<span style="color: red;">योग रसायनम । 255</span><br />
जिव्हा ( जीभ ) में अमृत सा स्वाद अनुभव होता है । रोमांच तथा आनन्द उत्पन्न होता है ।<br />
<span style="color: blue;">प्रथमं लवण पश्चात क्षारं क्षीरोपमं ततः । द्राक्षारससमं पश्चात सुधासारमयं ततः । योग रसायनम ।</span><br />
उस ( रस ) का स्वाद पहले लवण ( नमक ) जैसा, फिर क्षार जैसा, फिर दूध जैसा, फिर द्राक्षारस ( अंगूर ) जैसा और तदुपरान्त अनुपम सुधा ( अमृत ) रस सा अनुभव होता है ।<br />
<span style="color: purple;">आदौ लवण क्षारं च ततस्तिक्तं कषायकम । </span><br />
<span style="color: purple;">नवनीतं घृतं क्षीरं दधितक्रमधूनि च ।</span><br />
<span style="color: purple;">द्राक्षारसं च पीयूषं जायते रसनोदकम ।</span><br />
<span style="color: purple;">( घेरण्ड संहिता तृतीयोपदेश श्लोक - 31-32 )</span><br />
जिव्हा को क्रमशः नमक, क्षार, तिक्त, कषाय, नवनीत, घृत, दूध, दही, द्राक्षारस, पीयूष, जल जैसे रसों की अनुभूति होती है ।<br />
<span style="color: red;">अमृतास्वादनाछेहो योगिनो दिव्यतामियात । जरारोगविनिर्मुक्तश्चिर जीवति भूतले । योग रसायनम</span><br />
अमृत जैसा स्वाद मिलने पर योगी के शरीर में दिव्यता आ जाती है । वह रोग और वृद्धावस्था से मुक्त होकर दीर्घकाल तक जीवित रहता है ।<br />
<span style="color: blue;">तालु मूलोर्ध्वभागे महज्ज्योति विद्यतें तर्द्दशनाद अणिमादि सिद्धिः । योग सूत्र</span><br />
तालु के ऊर्ध्व भाग में महाज्योति स्थित है । उसके दर्शन से अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त होती है ।<br />
<span style="color: purple;">ब्रह्मरंध्रे मनोदत्वा क्षणार्द्धं यदि तिष्ठति । सर्वपापविनिर्मुक्तः स याति परमां गतिम ।</span><br />
<span style="color: purple;">अस्मिन लीनं मनो यस्य स योगी मयि लीयते ।</span><br />
<span style="color: purple;">अणिमादिगुणान भुक्तवा स्वेच्छया पुरुषोत्तमः ।</span><br />
<span style="color: purple;">एतद्रन्ध्रध्यानमात्रेण मर्त्यः संसारेऽस्मिन वल्लभो मे भवेत्सः ।</span><br />
<span style="color: purple;">पापान जित्वा मुक्तिमार्गाधिकारी ज्ञानं दत्वा तारयत्यदभूतं वै ।</span><br />
<span style="color: purple;">( शिवसंहिता पंचम पटल श्लोक - 173-174-175 )</span><br />
- ब्रह्मरन्ध्र में मन लगाकर खेचरी साधना करने वाला योगी आत्मनिष्ठ हो जाता है । पाप मुक्त होकर परम गति को प्राप्त करता है । इसमें मनोलय होने पर साधक ब्रह्मलीन होकर अणिमा आदि सिद्धियों का अधिकारी बनता है ।<br />
<span style="color: red;">न च मूर्च्छा क्षुधा तृष्णा नैवालस्यं प्रजायते । न च रोगो जरा मृत्युर्देवदेहः स जायते ।</span><br />
<span style="color: red;">( घेरण्ड संहिता तृतीय उपदेश श्लोक-28 )</span><br />
खेचरी मुद्रा की निष्णात देव देह को मूर्च्छा, क्षुधा ( भूख ) तृष्णा ( प्यास ) आलस्य, रोग, जरा ( वृद्धावस्था ) मृत्यु का भय नहीं रहता ।<br />
<span style="color: blue;">लावण्यं च भवेद गात्रे समाधिर्जायते ध्रुवम । कपालवक्त्र संयोगे रसना रसमाप्नुयात । </span><br />
<span style="color: blue;">( घेरण्ड संहिता तृतीय उपदेश श्लोक-30 )</span><br />
शरीर सौंदर्यवान बनता है । समाधि का आनन्द मिलता है । रसों की अनुभूति होती है ।<br />
<span style="color: purple;">ज्रामृत्युगदध्नो यः खेचरी वेत्ति भूतले । ग्रन्थतश्चार्थतश्चैव तदभ्यास प्रयोगतः । </span><br />
<span style="color: purple;">तं मुने सर्वभावेन गुरु गत्वा समाश्रयेत - योगकुन्डल्युपनिषद</span><br />
ग्रन्थ से, अर्थ से और अभ्यास प्रयोग से इस जरा मृत्यु व्याधि निवारक खेचरी विद्या को जानने वाला है । उसी गुरु के पास सर्वभाव से आश्रय ग्रहण कर इस विद्या का अभ्यास करना चाहिए ।<br />
अपने मुख को क्षमतानुसार फैलाकर जिव्हा को उलटकर उपर तालु प्रदेश मे ले जाकर स्थिर करके मुख बन्द करने से खेचरी मुद्रा बनती है ।<br />
<span style="color: red;">इस मुद्रा मे चित्त को स्थिर करके केवल अनच्क - अर्थात स्वर रहित ( केवल मानसिक रूप से ) ‘हकार’ का उच्चारण परम शान्ति प्रदायक होता है । तथा निरंतर अभ्यास से साधक का शान्त स्वरूप अभिव्यक्त हो जाता है ।</span><br />
प्राण की उच्छ्वास दशा में स्वाभाविक रूप से ‘ह’ का उच्चारण तथा निश्वास दशा मे ‘सः’ का उच्चारण निर्बाध रूप से अविरत होता रहता है ।<br />
अर्थात यह प्राण श्वास लेते हुए ‘हकार’ के साथ शरीर में प्रविष्ट होता है । तथा ‘सकार’ के साथ शरीर से बाहर निकल जाता है ।<br />
<span style="color: blue;">इस प्रकार प्राण की श्वास प्रश्वास प्रक्रिया में ‘हं सः सो हं’ इस अजपा गायत्री का स्वाभाविक रूप से दिन रात अनवरत जप चलता रहता है ।</span><br />
<span style="color: blue;">किन्तु खेचरी साधना में जिव्हा के तालु प्रदेश में ही स्थिर रहने से ‘सकार’ का बहिर्गमन अवरुद्ध हो जाता है । जिसके परिणाम स्वरूप ‘सकार’ का उच्चारण भी नही होता ।</span><br />
अतः खेचरी मुद्रा की इस अवस्था में केवल स्वर रहित ‘हकार’ के उच्चारण का ही विकल्प होता है ।<br />
खेचरी साधना की इस अवस्था में साधक को दृढता पूर्वक भ्रूमध्य में अपनी दृष्टि को स्थिर रखना पङता है ।<br />
<span style="color: purple;">कपालकुहरे जिव्हा प्रविष्टा विपरितगा ।</span><br />
<span style="color: purple;">भ्रुवोरन्तर्गता दृष्टिर्मुद्रा भवति खेचरी । विवेकमार्तण्ड</span><br />
- जब जिव्हा को उलटकर तालु प्रदेश में विद्यमान कपाल कुहर में प्रविष्ट करके दृष्टि को भ्रूमध्य मे स्थिर कर दिया जाता है । तो वह खेचरी मुद्रा कहलाती है ।<br />
खेचरी मुद्रा की साधना के लिए साधक जिव्हा को लम्बी करके ‘काकं चंचु’ तक पहुँचाने के लिए जिव्हा पर काली मिर्च, शहद, घृत का लेपन करके उसे थन की तरह दुहते, खीचते हैं । और लम्बी करने का प्रयत्न करते हैं ।<br />
खेचरी मुद्रा का भावपक्ष ही वस्तुतः उस प्रक्रिया का प्राण है । मस्तिष्क मध्य को - ब्रह्मरंध्र अवस्थित सहस्रार को अमृत कलश माना गया है । और वहाँ से सोमरस स्रवित होते रहने का उल्लेख है ।<br />
जिव्हा को जितना सरलता पूर्वक पीछे तालु से सटाकर जितना पीछे ले जा सकना सम्भव हो । उतना पीछे ले जाना चाहिए ।<br />
<b><span style="color: red;">प्रारंभ मे ‘काक चंचु’ से बिलकुल न सटकर कुछ दूरी पर रह जाए । तो भी धर्य के साथ निरंतर अभ्यास से धीरे धीरे जिव्हा काकचंचु तक पहुंचने लगती है ।</span></b><br />
तालु और जिव्हा को इस प्रकार सटाने के उपरान्त भ्रूमध्य मे दृष्टि स्थिर करके यह ध्यान किया जाना चाहिए कि तालु छिद्र से निरंतर सोम अमृत का सूक्ष्म स्राव टपकता है । और जिव्हा इन्द्रिय के गहन अन्तराल में रहने वाली रस तन्मात्रा द्वारा उसका पान किया जा रहा है ।<br />
इसी संवेदना को अमृतपान की अनुभूति कहते हैं । प्रत्यक्षतः कोई मीठी वस्तु खाने आदि जैसा कोई स्वाद तो नहीं आता । परन्तु आनन्दित करने वाले कई प्रकार के दिव्य रसास्वादन उस अवसर पर हो सकते हैं । यही आनन्द और उल्लास की अनुभूति खेचरी मुद्रा की मूल उपलब्धि है ।<br />
<span style="color: blue;">तालुस्था त्वं सदाधारा विंदुस्था बिंदुमालिनी । मूले कुण्डलीशक्तिर्व्यापिनी केशमूलगा । </span><br />
<span style="color: blue;">देवीभागवत पुराण</span><br />
- अमृतधारा सोम स्राविनी खेचरी रूप तालु में, भ्रूमध्य भाग आज्ञाचक्र में बिन्दु माला और मूलाधार चक्र में कुण्डलिनी बनकर आप ही निवास करती है । और प्रत्येक रोमकूप में भी आप ही विद्यमान है ।<br />
<span style="color: purple;">ये खेचरी मुद्रा विज्ञानं भैरव में है । जो शिव शक्ति को बताते है । </span><br />
<span style="color: red;">साभार - जीरो सूत्र</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-4791971714370207992016-06-19T04:26:00.000-07:002016-06-19T04:26:06.130-07:00It takes us no where<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-masTsidye1I/V2aA69QuN9I/AAAAAAAARgM/uvxpOCMG1aAWk8HVJZtzU2gcjw3bVFtfQCLcB/s1600/baby.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://1.bp.blogspot.com/-masTsidye1I/V2aA69QuN9I/AAAAAAAARgM/uvxpOCMG1aAWk8HVJZtzU2gcjw3bVFtfQCLcB/s400/baby.jpg" width="333" /></a></div>
<span style="color: red;">In a mother’s womb were two babies. </span><br />
<span style="color: red;">One asked the other - Do you believe in life after delivery ? </span><br />
The other replied - Why, of course. There has to be something after delivery. Maybe we are here to prepare ourselves for what we will be later.<br />
<span style="color: blue;">- Nonsense. said the first - There is no life after delivery. What kind of life would that be ?</span><br />
<span style="color: blue;">The second said - I don’t know, but there will be more light than here. Maybe we will walk with our legs and eat from our mouths. Maybe we will have other senses that we can’t understand now.</span><br />
The first replied - That is absurd. Walking is impossible. And eating with our mouths ? Ridiculous ! The umbilical cord supplies nutrition and everything we need. But the umbilical cord is so short. Life after delivery is to be logically excluded.<br />
<span style="color: purple;">The second insisted - Well I think there is something and maybe it’s different than it is here. Maybe we won’t need this physical cord anymore.</span><br />
The first replied - Nonsense. And more over if there is life, then why has no one has ever come back from there ? Delivery is the end of life, and in the after-delivery there is nothing but darkness and silence and oblivion. It takes us no where.<br />
<span style="color: red;">- Well, I don’t know. said the second - but certainly we will meet Mother and she will take care of us.</span><br />
<span style="color: red;">The first replied - Mother ? You actually believe in Mother ? That’s laughable. If Mother exists then where is She now ?</span><br />
The second said - She is all around us. We are surrounded by her. We are of Her. It is in Her that we live. Without Her this world would not and could not exist.<br />
<span style="color: blue;">Said the first - Well I don’t see Her, so it is only logical that She doesn’t exist.</span><br />
To which the second replied - Sometimes, when you’re in silence and you focus and you really listen, you can perceive Her presence, and you can hear Her loving voice, calling down from above.<br />
<b><span style="color: red;">- Utmutato a Leleknek</span></b></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-36059380733435630872016-06-16T19:50:00.001-07:002016-06-16T19:50:19.076-07:00देश का प्रधानमंत्री कौन है ?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://4.bp.blogspot.com/-aF6fDHf2QyY/V2NkoNx7lmI/AAAAAAAARfk/x_TOUnsRSQ4qqDNZPDd5DvSdQMmNJIFsQCLcB/s1600/tt%2B6.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://4.bp.blogspot.com/-aF6fDHf2QyY/V2NkoNx7lmI/AAAAAAAARfk/x_TOUnsRSQ4qqDNZPDd5DvSdQMmNJIFsQCLcB/s400/tt%2B6.jpg" width="384" /></a></div>
<span style="color: red;">आज विद्यालय में बहुत चहल पहल है । सब कुछ साफ-सुथरा, एकदम सलीके से ।</span><br />
<span style="color: red;">सुना है निरीक्षण को कोई साहब आने वाले हैं । पूरा विद्यालय चकाचक । नियत समय पर साहब विद्यालय पहुंचे ।</span><br />
ठिगना कद, रौबदार चेहरा, और आँखें तो जैसे जीते जी पोस्टमार्टम कर दें ।<br />
पूरे परिसर के निरीक्षण के बाद उन्होंने कक्षाओं का रुख किया ।<br />
कक्षा पांच के एक विद्यार्थी को उठाकर पूछा - बताओ, देश का प्रधानमंत्री कौन है ?<br />
बच्चा बोला - जी रामलाल ।<br />
साहब बोले - बेटा प्रधानमंत्री ?<br />
बच्चा - रामलाल ।<br />
साहब गुस्साए - अबे तुझे पांच में किसने पहुंचाया ? पता है मैं तेरा नाम काट सकता हूँ ।<br />
<span style="color: blue;">बच्चा - कैसे काटोगे ? मेरा तो नाम ही नहीं लिखा है । मैं तो बाहर बकरी चरा रहा था । इस मास्टर ने कहा कक्षा में बैठ जा दस रूपये मिलेंगे ।</span><br />
<span style="color: blue;">तू तो ये बता रूपये तू देगा या मास्टर ?</span><br />
<br />
साहब भुनभुनाते हुये मास्टर जी के पास गए, कङक आवाज में पूछा - क्या मजाक बना रखा है ।<br />
फर्जी बच्चे बैठा रखे हैं । पता है मैं तुम्हे नौकरी से बर्खास्त कर सकता हूँ ।<br />
<br />
गुरूजी - कर दे भाई । मैं कौन सा यहाँ का मास्टर हूँ । मास्टर तो मेरा पड़ोसी दुकानदार है । वो दुकान का सामान लेने शहर गया है । कह रहा था एक खूसट साहब आएगा, झेल लेना ।<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://3.bp.blogspot.com/-U7lGATaaq4A/V2NlV6C0b2I/AAAAAAAARfw/9FBQKSzoDFwj6w8Oj4HajoW2SHXBRWKBQCLcB/s1600/teacher.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="385" src="https://3.bp.blogspot.com/-U7lGATaaq4A/V2NlV6C0b2I/AAAAAAAARfw/9FBQKSzoDFwj6w8Oj4HajoW2SHXBRWKBQCLcB/s400/teacher.jpg" width="400" /></a></div>
<br />
<span style="color: purple;">अब तो साहब का गुस्सा सातवें आसमान पर । पैर पटकते हुए प्रधानाध्यापक के सामने जा पहुंचे</span><br />
<span style="color: purple;">। चिल्लाकर बोले - क्या अंधेरगर्दी है, शरम नहीं आती । क्या इसी के लिए तुम्हारे स्कूल को सरकारी इमदाद मिलती है । पता है, मैं तुम्हारे स्कूल की मान्यता समाप्त कर सकता हूँ</span><br />
<span style="color: purple;">जवाब दो प्रिंसिपल साहब ।</span><br />
<br />
प्रिंसिपल ने दराज से एक सौ की गड्डी निकाल कर मेज पर रखी और बोला - मैं कौन सा प्रिंसिपल हूँ प्रिंसिपल तो मेरे चाचा हैं । प्रॉपर्टी डीलिंग भी करते हैं आज एक सौदे का बयाना लेने शहर गए हैं । कह रहे थे, एक कमबख्त निरीक्षण को आएगा, उसके मुंह पे ये गड्डी मारना और दफा करना ।<br />
.<br />
.<br />
.<br />
<span style="color: red;">साहब ने मुस्कराते हुए गड्डी जेब के हवाले की और बोले - आज बच गये तुम सब । अगर आज</span><br />
<span style="color: red;">मामाजी को सड़क के ठेके के चक्कर में शहर ना जाना होता और अपनी जगह वो मुझे ना भेजते तो तुम में से एक की भी नौकरी ना बचती ।</span><br />
😂😜😝<br />
<b><span style="color: blue;">This is real situation of India ऐसे मे ही तो #फर्जी topper बनेंगे!!!!</span></b><br />
<div>
<br /></div>
</div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-90202302429799648902016-06-14T07:25:00.004-07:002016-06-14T07:25:51.026-07:00कबीर धर्मदास का प्रथम मिलन <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-z7f_6nMZGxE/V2ATlx1IYLI/AAAAAAAARfU/kx_j2RtM6E4bTdtBJ1say8P8wXIGdg0eQCLcB/s1600/kabir%2Bdharmadas.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://1.bp.blogspot.com/-z7f_6nMZGxE/V2ATlx1IYLI/AAAAAAAARfU/kx_j2RtM6E4bTdtBJ1say8P8wXIGdg0eQCLcB/s400/kabir%2Bdharmadas.jpg" width="300" /></a></div>
<span style="color: red;">धर्मदास वैष्णव थे । और ठाकुर पूजा किया करते थे । अपनी मूर्ति पूजा के कृम में धर्मदास मथुरा आये । जहाँ उनकी भेंट कबीर से हुयी । धर्मदास दयालु व्यवहारी और पवित्र जीवन जीने वाले इंसान थे । अत्यधिक धन संपत्ति के बाद भी अहंकार उन्हें छूआ तक नहीं था । वे अपने हाथों से स्वयं भोजन बनाते थे । और पवित्रता के लिहाज से जलावन लकङी को इस्तेमाल करने से पहले धोया करते थे । </span><br />
एक बार जब वह मथुरा में भोजन तैयार कर रहे थे । उसी समय कबीर से उनकी भेंट हुयी । उन्होंने देखा कि भोजन बनाने के लिये जो लकङियाँ चूल्हे में जल रही थीं । उसमें से ढेरों चींटियां निकल कर बाहर आ रही थी । धर्मदास ने जल्दी से शेष लकङियों को बाहर निकाल कर चींटियों को जलने से बचाया । उन्हें बहुत दुख हुआ । वे अत्यन्त व्याकुल हो उठे । लकङियों में जलकर मर गयी चींटियों के प्रति उनके मन में बेहद पश्चाताप हुआ ।<br />
वे सोचने लगे । आज मुझसे महा पाप हुआ है । अपने इसी दुख की वजह से उन्होंने भोजन भी नहीं खाया । उन्होंने सोचा कि जिस भोजन के बनने में इतनी चींटियां जलकर मर गयी हों । उसे कैसे खा सकता हूँ । वह दूषित भोजन खाने योग्य नहीं था । अतः वह भोजन उन्होंने किसी दीन हीन साधु महात्मा आदि को कराने का विचार किया ।<br />
<span style="color: blue;">वो भोजन लेकर बाहर आये । तो उन्होंने देखा । कबीर साहब एक घने शीतल वृक्ष की छाया में बैठे हुये थे । धर्मदास ने उनसे भोजन के लिये निवेदन किया ।</span><br />
<span style="color: blue;">इस पर कबीर ने कहा - हे सेठ धर्मदास । जिस भोजन को बनाते समय हजारों चींटियां जलकर मर गयीं । उस भोजन को मुझे कराकर ये पाप तुम मेरे ऊपर क्यों लादना चाहते हो । तुम तो रोज ही ठाकुर जी की पूजा करते हो । फ़िर उन्हीं भगवान से क्यों नहीं पूछ लिया था कि इन लकङियों के अन्दर क्या है ?</span><br />
धर्मदास को बेहद आश्चर्य हुआ कि इस साधु को ये सब बात कैसे पता चली । उस समय तो धर्मदास के आश्चर्य का ठिकाना न रहा । जब कबीर ने चींटियां भोजन से जिंदा निकलते हुये दिखायीं । इस रहस्य को वे समझ न सके ।<br />
उन्होंने दुखी होकर कहा - बाबा । यदि मैं भगवान से इस बारे में पूछ सकता । तो मुझसे इतना बङा पाप क्यों होता ।<br />
धर्मदास को पाप के महा शोक में डूबा देखकर कबीर ने अध्यात्म ज्ञान के गूढ रहस्य बताये । जब धनी धर्मदास ने उनका परिचय पूछा । तो कबीर ने अपना नाम कबीर और निवासी अमरलोक ( सत्यलोक ) बताया । इसके कुछ देर बाद कबीर अंतर्ध्यान हो गये ।<br />
<span style="color: purple;">धर्मदास को जब कबीर बहुत दिनों तक नहीं मिले । तो वो व्याकुल होकर जगह जगह उन्हें खोजते फ़िरे । उनकी स्थिति पागल समान हो गयी । </span><br />
<span style="color: purple;">तब उनकी पत्नी ने सुझाव दिया - तुम ये क्या कर रहे हो ? उन्हें खोजना बहुत आसान है । जैसे कि चींटी चींटा गुङ को खोजते हुये खुद ही आ जाते हैं ।</span><br />
धर्मदास ने कहा - क्या मतलब ?<br />
उनकी पत्नी ने कहा - खूब भंडारे कराओ । दान दो । हजारों साधु अपने आप आयेंगे । जब वह साधु तुम्हें दिखे । तो उसे पहचान लेना ।<br />
धर्मदास को बात उचित लगी । और वे ऐसा ही करने लगे । उन्होंने अपनी सारी संपत्ति खर्च कर दी । पर वह साधु ( कबीर ) नहीं मिले ।<br />
<span style="color: red;">बहुत समय भटकने के बाद उन्हें कबीर काशी में मिले । परन्तु उस समय वे वैष्णव वेश में थे । फ़िर भी धर्मदास ने उन्हें पहचान लिया । और उनके चरणों में गिर पङे ।</span><br />
<span style="color: red;">और बोले - सदगुरु महाराज मुझ पर कृपा करें । मुझे अपनी शरण में लें । हे गुरुदेव मुझ पर प्रसन्न हों । मैं उसी समय से आपको खोज रहा हूँ । आज आपके दर्शन हुये हैं ।</span><br />
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास तुम मुझे कहाँ खोज रहे थे । तुम तो चींटी चींटो को खोज रहे थे । सो वे तुम्हारे भन्डारे में आये । ( इस पर धर्मदास को अपनी मूर्खता पर बङा पश्चाताप हुआ । तब उसे प्रायश्चित भावना में देखकर कबीर ने फ़िर कहा )<br />
लेकिन तुम बहुत भाग्यशाली हो । जो तुमने मुझे पहचान लिया । अब तुम धैर्य धारण करो । मैं तुम्हें जीवन के आवागमन से मुक्त कराने वाला मोक्ष ज्ञान दूँगा ।<br />
<span style="color: blue;">इसके बाद धर्मदास निवेदन करके कबीर को अपने साथ बाँधोगढ ले आये ।</span><br />
<span style="color: blue;">इसके बाद तो बाँधोगढ में कबीर के श्रीमुख से आलौकिक आत्मज्ञान सतसंग की अविरल धारा ही बहने लगी । दूर दूर से लोग सतसंग सुनने आने लगे । धर्मदास और उनकी पत्नी आमिन ने दीक्षा ली कबीर साहब ने धर्मदास को सुयोग्य शिष्य जानते हुये मोक्ष का अनमोल ज्ञान दिया । </span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-79035283203487499652016-06-14T07:19:00.005-07:002016-06-14T07:19:50.901-07:00खुदा का तरीका<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://4.bp.blogspot.com/-r-imUBM-3jY/V2ASPpUN76I/AAAAAAAARfE/0EOm4wn-Rn4pWqcuTTcIjDI-yAQZ5MOdgCLcB/s1600/khuda.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://4.bp.blogspot.com/-r-imUBM-3jY/V2ASPpUN76I/AAAAAAAARfE/0EOm4wn-Rn4pWqcuTTcIjDI-yAQZ5MOdgCLcB/s400/khuda.jpg" width="400" /></a></div>
<span style="color: red;">एक अमीर इंसान था । उसने समुद्र में अकेले घूमने के लिए एक नाव बनवाई । छुट्टी के दिन वह नाव लेकर समुद्र की सैर करने निकला । आधे समुद्र तक पहुँचा ही था कि अचानक एक जोरदार</span><br />
<span style="color: red;">तूफान आया । उसकी नाव पूरी तरह से </span>तहस नहस हो गई । लेकिन वह लाइफ जैकेट की मदद से समुद्र में कूद गया । जब तूफान शांत हुआ । तब वह तैरता तैरता एक टापू पर पहुँचा । लेकिन वहाँ भी कोई नही था ।<br />
टापू के चारो ओर समुद्र के अलावा कुछ भी नजर नहीं आ रहा था । उस आदमी ने सोचा कि जब मैंने पूरी जिंदगी में कभी किसी का बुरा नही किया । तो मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ ?<br />
उस इंसान को लगा कि खुदा ने मौत से बचाया । तो आगे का रास्ता भी खुदा ही बताएगा । वह वहाँ पर उगे झाङ फल पत्ते खाकर दिन बिताने लगा ।<br />
<span style="color: blue;">धीरे धीरे उसकी आस टूटने लगी । खुदा से उसका यकीन उठने लगा । फिर उसने सोचा कि अब पूरी जिंदगी यहीं इस टापू पर ही बितानी है । तो क्यों न एक झोपङी बना लूँ ?</span><br />
<span style="color: blue;">उसने झाङ की डालियों और पत्तों से एक छोटी सी झोपङी बनाई ।</span><br />
और मन ही मन कहा कि - आज से झोपडी में सोने को मिलेगा । आज से बाहर नहीं सोना पङेगा ।<br />
रात हुई ही थी कि अचानक मौसम बदला । बिजली जोर जोर से कड़कने लगी । तभी अचानक बिजली उस झोपङी पर आ गिरी । और झोपङी धधकते हुए जलने लगी ।<br />
यह देखकर वह इंसान टूट गया । आसमान की तरफ देखकर बोला - या खुदा ये तेरा कैसा इंसाफ है ? तूने मुझ पर अपनी रहम की नजर क्यों नहीं की ?<br />
<span style="color: purple;">वह हताश होकर रो रहा था कि अचानक एक नाव टापू के पास आई । नाव से उतर कर दो आदमी बाहर आये । और बोले कि - हम तुम्हें बचाने आये हैं । दूर से इस वीरान टापू में जलता हुआ झोपङा देखा । तो लगा कि कोई उस टापू पर मुसीबत में है । अगर तुम अपनी झोपङी नही जलाते । तो हमे पता नही चलता कि टापू पर कोई है ।</span><br />
<span style="color: purple;">उस आदमी की आँखो से आँसू गिरने लगे । उसने खुदा से माफी माँगी और बोला कि - या रब मुझे</span><br />
<span style="color: purple;">क्या पता कि तूने मुझे बचाने के लिए मेरी झोपङी जलाई थी । यक़ीनन तू अपने बन्दों का हमेशा ख्याल रखता है । तूने मेरे सब्र का इम्तहान लिया । लेकिन मैं उसमें फ़ेल हो गया । मुझे माफ़ कर दे ।</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-33804511763803450962016-06-14T07:15:00.001-07:002016-06-14T07:15:09.856-07:00लालच की चक्की<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-hk_2lw9IlJY/V2AQUkbHuII/AAAAAAAARe4/walGr766lGomcF_CgBxr6GIzdlvv0CWnACLcB/s1600/greedy.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="297" src="https://1.bp.blogspot.com/-hk_2lw9IlJY/V2AQUkbHuII/AAAAAAAARe4/walGr766lGomcF_CgBxr6GIzdlvv0CWnACLcB/s400/greedy.jpg" width="400" /></a></div>
<span style="color: red;">एक शहर में एक बहुत ही लालची आदमी रहता था । उसने सुन रखा था कि अगर साधु संतों की सेवा करें । तो बहुत ज्यादा धन प्राप्त होता है । यह सोचकर उसने साधु संतों की सेवा करना प्रारम्भ कर दी । </span><br />
एक बार उसके घर बड़े चमत्कारी संत आये । उन्होंने उसकी सेवा से प्रसन्न होकर उसे चार दिये दिए । और कहा - इनमें से एक दिया जला लेना । और पूरब दिशा की ओर चले जाना । जहाँ यह दिया बुझ जाये । वहाँ की जमीन खोदना । वहाँ तुम्हें काफी धन मिल जायेगा ।<br />
<span style="color: blue;">अगर तुम्हें फ़िर धन की आवश्यकता पड़े । तो दूसरा दिया जला लेना । और पश्चिम दिशा की ओर चले जाना । जहाँ यह दिया बुझ जाये । वहाँ की जमीन खोद लेना । तुम्हें मनचाही माया मिलेगी । </span><br />
<span style="color: blue;">फिर भी संतुष्टि न हो तो तीसरा दीया जला लेना । और दक्षिण दिशा की ओर चले जाना । उसी प्रकार दीया बुझने पर जब तुम वहाँ की जमीन खोदोगे । तो तुम्हे बेअन्त धन मिलेगा ।</span><br />
तब तुम्हारे पास केवल एक दीया बचेगा और एक ही दिशा रह जायेगी । तुमने यह दीया न ही जलाना है और न ही इसे उत्तर दिशा की ओर ले जाना है । यह कहकर संत चले गए ।<br />
लालची आदमी उसी वक्त पहला दीया जलाकर पूरब दिशा की ओर चला गया । दूर जंगल में जाकर दीया बुझ गया । उस आदमी ने उस जगह को खोदा । तो उसे पैसों से भरी एक गागर मिली । वह बहुत खुश हुआ । उसने सोचा कि इस गागर को फिलहाल यहीं रहने देता हूँ । फिर कभी ले जाऊंगा । पहले मुझे जल्दी ही पश्चिम दिशा वाला धन देख लेना चाहिए ।<br />
<span style="color: purple;">यह सोचकर उसने दूसरे दिन दूसरा दीया जलाया और पश्चिम दिशा की ओर चल पड़ा । दूर एक उजाड़ स्थान में जाकर दीया बुझ गया । वहाँ उस आदमी ने जब जमीन खोदी । तो उसे सोने की मोहरों से भरा एक घड़ा मिला । उसने घड़े को भी यही सोचकर वही रहने दिया कि पहले दक्षिण दिशा में जाकर देख लेना चाहिए । जल्दी से जल्दी ज्यादा से ज्यादा धन प्राप्त करने के लिए वह बेचैन हो गया । </span><br />
अगले दिन वह दक्षिण दिशा की ओर चल पड़ा । दीया एक मैदान में जाकर बुझ गया । उसने वहाँ की जमीन खोदी । तो उसे हीरे मोतियों से भरी दो पेटिया मिली ।<br />
वह आदमी बहुत खुश था । वह सोचने लगा । अगर इन तीनों दिशाओं में इतना धन पड़ा है । तो चौथी दिशा में इससे भी ज्यादा धन होगा । फिर उसके मन में ख्याल आया की संत ने उसे चौथी दिशा की ओर जाने के लिए मना किया है ।<br />
<span style="color: red;">दूसरे ही पल उसके मन ने कहा - हो सकता है । उत्तर दिशा की दौलत संत अपने लिए रखना चाहते हो । मुझे जल्दी से जल्दी उस पर भी कब्ज़ा कर लेना चाहिए । ज्यादा से ज्यादा धन प्राप्त करने की लालच ने उसे संतो के वचनों को द्वारा सोचने ही नहीं दिया । अगले दिन उसने चौथा दीया जलाया । और जल्दी जल्दी उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा । </span><br />
दूर आगे एक महल के पास जाकर दीया बुझ गया । महल का दरवाज़ा बंद था । उसने दरवाज़े को धकेला । तो दरवाज़ा खुल गया । वह बहुत खुश हुआ। उसने मन ही मन में सोचा कि यह महल उसके लिए ही है । वह अब तीनों दिशाओं की दौलत को भी यहीं ले आकर रखेगा और ऐश करेगा । वह आदमी महल के एक एक कमरे में गया । कोई कमरा हीरे मोतियों से भरा हुआ था । किसी कमरे में सोने के कीमती आभूषण भरे पड़े थे । इसी प्रकार अन्य कमरे भी बेअन्त धन से भरे हुए थे । वह आदमी चकाचौंध होता जाता । और अपने भाग्य को शाबासी देता ।<br />
<span style="color: blue;">वह और आगे बढ़ा । तो उसे एक कमरे में चक्की चलने की आवाज़ सुनाई दी । वह उस कमरे में दाखिल हुआ । तो उसने देखा कि एक बूढ़ा आदमी चक्की चला रहा है । </span><br />
<span style="color: blue;">लालची आदमी ने बूढ़े से कहा - तू यहाँ कैसे पहुँचा ? </span><br />
बूढ़े ने कहा - ऐसा कर यह जरा चक्की चला । मैं सांस लेकर तुझे बताता हूँ ।<br />
लालची आदमी ने चक्की चलानी प्रारम्भ कर दी । बूढ़ा चक्की से हट जाने पर ऊँची ऊँची आवाज से हँसने लगा । लालची आदमी उसकी ओर हैरानी से देखने लगा ।<br />
<span style="color: purple;">वह चक्की बंद ही करने लगा था कि बूढ़े ने खबरदार करते हुए कहा - न न चक्की चलानी बंद ना कर । </span><br />
<span style="color: purple;">फिर बूढ़े ने कहा- यह महल अब तेरा है । परन्तु यह उतनी देर तक खड़ा रहेगा । जितनी देर तक तू चक्की चलाता रहेगा । अगर चक्की चलनी बंद हो गयी । तो महल गिर जायेगा । और तू भी इसके नीचे दब कर मर जायेगा । </span><br />
कुछ समय रुक कर बूढ़ा फिर कहने लगा - मैंने भी तेरी ही तरह लालच करके संतो की बात नहीं मानी थी । और मेरी सारी जवानी इस चक्की को चलाते हुए बीत गयी ।<br />
वह लालची आदमी बूढ़े की बात सुनकर रोने लगा ।<br />
<span style="color: red;">फिर कहने लगा - अब मेरा इस चक्की से छुटकारा कैसे होगा ?</span><br />
<span style="color: red;">बूढ़े ने कहा - जब तक मेरे और तेरे जैसा कोई आदमी लालच में अंधा होकर यहाँ नही आयेगा । तब तक तू इस चक्की से छुटकारा नहीं पा सकेगा । </span><br />
<span style="color: red;">तब उस लालची आदमी ने बूढ़े से आखरी सवाल पूछा - तू अब बाहर जाकर क्या करेगा ? </span><br />
बूढ़े ने कहा - मैं सब लोगों से ऊँची ऊँची आवाज में कहूँगा..लालच बुरी बला है ।</div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-55371133094581702492016-06-12T21:32:00.003-07:002016-06-12T21:33:02.494-07:00इंसान और भगवान <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://2.bp.blogspot.com/-PaCYSr-4szA/V143E_zcV4I/AAAAAAAARdI/QN5U9_IPPCk39_TMMsD3o0uYzFrMVNXUwCLcB/s1600/shrikrishna.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://2.bp.blogspot.com/-PaCYSr-4szA/V143E_zcV4I/AAAAAAAARdI/QN5U9_IPPCk39_TMMsD3o0uYzFrMVNXUwCLcB/s400/shrikrishna.jpg" width="262" /></a></div>
<span style="color: red;">एक दयालु व्यक्ति था । एक दिन उसके पास एक निर्धन आदमी आया । और बोला कि मुझे अपना खेत कुछ साल के लिये उधार दे दीजिये । मैं उसमे खेती करूंगा और खेती करके कमाई करूंगा ।</span><br />
उस व्यक्ति ने निर्धन व्यक्ति को अपना खेत दे दिया । साथ में पांच किसान भी सहायता के रूप में खेती करने को दिये । और कहा कि - इन पांच किसानों को साथ में लेकर खेती करो । खेती करने में आसानी होगी । इससे तुम और अच्छी फसल की खेती करके कमाई कर पाओगे ।<br />
<span style="color: blue;">निर्धन आदमी ये देखकर बहुत खुश हुआ कि उसको उधार में खेत भी मिल गया और साथ में पांच सहायक किसान भी मिल गये ।</span><br />
वह आदमी इसी ख़ुशी में खोया रहा । और वह पांच किसान अपनी मर्ज़ी से खेती करने लगे । जब फसल काटने का समय आया तो देखा कि फसल बहुत ही ख़राब हुई थी । उन पांच किसानों ने खेत का उपयोग अच्छे से नहीं किया था । न ही अच्छे बीज डाले । जिससे अच्छी फसल हो सके ।<br />
<span style="color: purple;">जब दयालु व्यक्ति ने अपना खेत वापस मांगा । तो वह निर्धन व्यक्ति रोता हुआ बोला कि - मैं बर्बाद हो गया । मैं अपनी ख़ुशी में डूबा रहा और इन पांच किसानो को नियंत्रण में न रख सका । न ही इनसे अच्छी खेती करवा सका ।</span><br />
<b><span style="color: red;">दयालु व्यक्ति - भगवान</span></b><br />
<b><span style="color: blue;">निर्धन व्यक्ति - इंसान</span></b><br />
<b><span style="color: red;">खेत - शरीर</span></b><br />
<b><span style="color: blue;">पांच किसान - इन्द्रियां.. आंख, कान, नाक, जीभ और मन ।</span></b><br />
प्रभु ने हमें यह शरीर रुपी खेत अच्छी फसल ( कर्म ) करने को दिया है । हमें इन पांच किसानों अर्थात इन्द्रियों को नियंत्रण में रख कर कर्म करने चाहिये । जिससे वो दयालु प्रभु जब ये शरीर वापस मांग कर हिसाब करें । तो हमें रोना न पड़े ।<br />
<b><span style="color: orange;">-------------</span></b><br />
<span style="color: blue;">हृदय भीतर आरसी, मुख देखा नहिं जाय ।</span><br />
<span style="color: blue;">मुख तो तबही देखि हो, जब दिल की दुविधा जाय । बीजक साखी 29 </span><br />
- परमात्मा को देखने के लिए हृदय के भीतर आरसी तुल्य जीवात्मा का वास है । परंतु परमात्मा का साक्षात्कार नहीं किया जाता । क्योंकि परमात्मा को तभी देखा जा सकता है । जब दिल से दुविधा - देहाध्यास नष्ट न हो जाए ।</div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-79006730098881158572016-05-28T21:19:00.001-07:002016-05-28T21:19:07.377-07:00वैश्या वासवदत्ता<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://3.bp.blogspot.com/-gMlpfQzWmqQ/V0ptUDb_Q0I/AAAAAAAARX8/dg_cRnFDmFAiZuXzel7F1OIraVxfJJGoACLcB/s1600/vasavdatta.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="398" src="https://3.bp.blogspot.com/-gMlpfQzWmqQ/V0ptUDb_Q0I/AAAAAAAARX8/dg_cRnFDmFAiZuXzel7F1OIraVxfJJGoACLcB/s1600/vasavdatta.png" width="400" /></a></div>
<span style="color: red;">प्राचीनकाल की बात है । मथुरा नगरी में वासवदत्ता नामक एक वेश्या रहती थी । उसका रूप वैभव किसी महारानी से कम न था । देश देशों के राजा उसके दरवाजे पर खाक छानने आते थे । जिस पर वह मुस्कुरा देती वही अपने को धन्य समझने लगता ।</span> ऐसी थी वह उर्वशी की अवतार वासवदत्ता ।<br />
एक दिन वह सोने चाँदी से झिलमिलाते हुए रथ में बैठ कर नगर की सैर करने निकली । उसका वैभव कोई साधारण सा थोड़े ही था । जिस बाजार में उसकी दासी भी निकल जाती वह इत्रों की सुगंध से महक जाते । जब उसका झिलमिलाता हुआ रथ निकलता तो नगर निवासी अपना अपना काम छोड़ कर सड़क के किनारे उसकी शोभा देखने खड़े हो जाते । उस दिन वह सैर को निकली थी । दर्शकों की भारी भीड़ सड़क के किनारे पंक्तिबद्ध होकर खड़ी थी । सबके मुख पर उसी के रूप वैभव की चर्चा थी ।<br />
<span style="color: blue;">नगर के एक पुराने खंडहर मुहल्ले की एक टूटी झोंपड़ी में एक युवक रहता था । नाम था उसका उपगुप्त । उसने गेरुए कपड़े नहीं पहने, फिर भी वह संन्यासी था । भिक्षा उसने नहीं माँगी, फिर भी आकाशी वृत्ति पर उसका भोजन निर्भर था । प्रेत की तरह घूमता, यक्ष की तरह गाता, बैताल की तरह कार्य करता और जनक की तरह कर्मयोग की साधना करता । जन्म भूमि तो उसकी कहीं दूर देश थी, पर अब रहता यहीं था । बहुत कम लोग </span>उसके बारे में कुछ जानते थे, पर इतना सब जानते थे कि यह आदर्शवादी युवक निर्मल चरित्र का है, ईश्वर भक्ति में लीन रहना और प्रेम का प्रचार करना इसका कार्यक्रम है ।<br />
<span style="color: purple;">उस दिन उपगुप्त अपनी झोंपड़ी के दरवाजे पर बैठा हुआ तन्मय होकर कुछ गा रहा था । आत्मविभोर होकर वह कुछ ऐसा कूक रहा था कि सुनने वालों के दिल हिलने लगे । मधुर स्वर के साथ मिली हुई आत्मानुभूति पुष्प के पराग की तरह फैलकर दूर दूर तक के लोगों को मस्त बनाये दे रही थी ।</span><br />
वासवदत्ता की सवारी सन्ध्या होते होते उस खंडहर मुहल्ले में पहुँची । गोधूलि वेला में उस दरिद्र उपनगर की झोंपड़ियों में दीपक टिमटिमाने लगे थे । वेश्या उन्हें उपेक्षा भाव से देखती जा रही थी कि उसके कानों में संगीत की वह मधुर लहरें जा पहुँची । वह कला की पारखी थी । इतना उच्चकोटि का गायन आज तक उसने न सुना था । उसकी आँखें वह स्थान तलाश करने लगीं । जहाँ से यह ध्वनि आ रही थी । सवारी धीरे 2 आगे बढ़ रही थी । स्वर क्रमशः निकट आ रहा था । आगे चलकर उसने देखा कि फूस की एक जीर्ण शीर्ण झोंपड़ी का सुन्दर युवक आत्मविभोर होकर गा रहा है । वेश्या रथ में से उतर पड़ी, उसने निकट जाकर देखा कि देवताओं जैसे सुन्दर स्वरूप वाला एक भिक्षुक फटे चिथड़े पहने मिट्टी की चबूतरी पर बैठा है और बेसुध होकर गा रहा है । वेश्या ने कुछ कहना चाहा पर देखा कि यहाँ सुनने वाला कौन है । वह उलटे पाँवों वापिस लौट आई ।<br />
<span style="color: red;">वासवदत्ता अपने शयन कक्ष में पड़ी हुई थी । बहुत रात बीत चुकी, पर नींद उसकी आँखों के पास न झाँकी । भिखारी का स्वर और स्वरूप उसके मन में बस गया था । इधर से उधर करवटें बदल रही थी पर चैन कहाँ ? अब तक वह बड़े बड़े कहलाने वाले अनेकों को उंगलियों पर नचा चुकी थी, पर आज जीवन में पहली बार उसने जाना कि जी की जलन क्या होती है । क्षण बीत रहे थे, उसका मन काबू से बाहर हो रहा था । युवक के चरणों पर अपने </span>को समर्पण करने के लिए उसके सामने तड़फने लगे ।<br />
रात के दो बज चुके थे । वेश्या चुपचाप दासी को लेकर घर से बाहर निकल पड़ी । गली कूचों को पार करती हुई वह खंडहर मुहल्ले की उसी टूटी झोंपड़ी में पहुँची । युवक चटाई का फटा टुकड़ा बिछाये हुए जमीन पर सोया हुआ था ।<br />
दासी ने धीरे से उसे जगाया और कहा - इस नगर की वैभवशालिनी अप्सरा वासवदत्ता आपके दर्शनों के लिये आई हैं ।<br />
<span style="color: blue;">उपगुप्त ने आँखें मलीं और चटाई पर बैठा हो गया । वासवदत्ता का ऐश्वर्य वह सुन चुका था । मुझ दरिद्र के यहाँ वह वैभवशालिनी आई है ? क्यों आई है ? मुझसे क्या प्रयोजन ? एकबारगी अनेक प्रश्नों का ताँता उसके सामने उपस्थित हो गया ? उसके मन में अविश्वास की भावना आई । कहीं स्वप्न तो नहीं देख रहा हूं ? उपगुप्त बारबार आँखें मल कर सामने खड़ी दो मूर्तियों को देखने लगा ।</span><br />
वासवदत्ता ने कहा - प्यारे, सन्देह मत करो । बड़े बड़े राजा महाराजा जिसके चरणों पर लोटते हैं, वही वासवदत्ता आपको अपना हृदय समर्पण करने आई है । मेरा सारा वैभव आप के लिए समर्पित है । मैं आपकी दासी बनना चाहती हूँ । मेरे टूटे हुए दिल को जोड़ कर कृत-कृत्य कर दीजिए ।<br />
युवक को मानो साँप सूँघ गया हो, वह सन्न रह गया ।<br />
<span style="color: purple;">उसने कहा - माता, तुम यह क्या कह रही हो । तुम्हारे मुख से यह कैसे शब्द निकल रहे हैं । मेरी आँखें स्त्री जाति को माता के ही रूप में देख सकती हैं । आपका पाप प्रस्ताव मुझे स्वीकार नहीं हो सकता ।</span><br />
<span style="color: purple;">वेश्या बोलने में बड़ी पटु थी । नाना प्रकार के तर्क और प्रलोभनों से उपगुप्त को प्रस्ताव स्वीकार कर लेने को समझाने लगी, परन्तु युवक टस से मस भी न हुआ । उसका जीवन एक साधना थी, उसमें इधर उधर हिलने के लिए कोई गुँजाइश न थी । कोई प्रलोभन उसे डिगा न सका । वेश्या खिन्न होती हुई लौट आई ।</span><br />
एक अरसा बीत गया । वेश्या के शरीर में कोढ़ फूट गया । उसके अंग गल-गल कर गिरने लगे । अतुलित वैभव कुछ ही समय में न जाने कहाँ पलायन कर गया । उस पर मरने वालों में से कोई उधर आँख उठा कर भी नहीं देखता । यह दुरवस्था अधिक बढ़ी । उपचार के अभाव में उसके अंग सड़ने लगे । घावों में से कीड़े झरना आरम्भ हो गया ।<br />
ऐसी अवस्था में कौन उसके पास जाता परन्तु उपगुप्त था, जो उसकी सेवा कर रहा था । दुर्गन्ध के मारे वहाँ जाने में नाक फटती थी, पर वह प्रसन्नता पूर्वक उसके घाव बाँधता, कपड़े धोता, मल-मूत्र उठाता । सगी माता की तरह उसने वेश्या की एकनिष्ठ सेवा की ।<br />
<span style="color: red;">आज बीमारी बहुत बढ़ गई थी । वासवदत्ता मृत्यु के मुख में जा रही थी । उपगुप्त बैठा पंखा झल रहा था । </span><br />
<span style="color: red;">रोगिणी ने अधखुले नेत्रों से उपगुप्त की ओर देखा और कहा - पुत्र, तेरा स्वर और संगीत मैंने जैसा परखा था, आज वैसा ही देख लिया । </span><br />
उपगुप्त ने उसके चरणों की धूलि मस्तक पर चढ़ाते हुए कहा - माता, तेरा सौंदर्य जैसा मैंने समझा था, आज तेरा पुत्र भाव पाकर वैसा ही पा लिया ।<br />
<b><span style="color: blue;">साभार - अज्ञात ( फ़ेसबुक पेज से )</span></b></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-11977419117654003382016-05-28T21:12:00.002-07:002016-05-28T21:12:15.168-07:00सूर्पनखा के वंशज <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-_gu8_Yu_6Ro/V0pr0YMWuhI/AAAAAAAARXw/x2Z6VWoMCS8hEMtnAPUAEZ3vyneBuYvRQCLcB/s1600/surpankhan.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="375" src="https://1.bp.blogspot.com/-_gu8_Yu_6Ro/V0pr0YMWuhI/AAAAAAAARXw/x2Z6VWoMCS8hEMtnAPUAEZ3vyneBuYvRQCLcB/s400/surpankhan.png" width="400" /></a></div>
<span style="color: red;">रामायण में सभी राक्षसों का वध हुआ लेकिन सूर्पनखा का वध नहीं हुआ । उसकी नाक और कान काट कर छोड़ दिया गया था । वह कपङे से अपने चेहरे को छुपाकर रहती थी । रावण के मर जाने के बाद वह अपने पति के साथ </span>शुक्राचार्य के पास गयी और जंगल में उनके आश्रम में रहने लगी ।<br />
राक्षसों का वंश ख़त्म न हो इसलिए शुक्राचार्य ने शिव की आराधना की । शिव ने अपना स्वरुप शिवलिंग शुक्राचार्य को देकर कहा कि जिस दिन कोई वैष्णव इस पर गंगाजल चढ़ा देगा । उस दिन राक्षसों का नाश हो जायेगा ।<br />
उस आत्म लिंग को शुक्राचार्य ने वैष्णव मतलब हिन्दुओं से दूर रेगिस्तान में स्थापित किया । जो आज अरब में मक्का मदीना में है ।<br />
<span style="color: blue;">सूर्पनखा जो उस समय चेहरा ढक कर रहती थी । वो परंपरा को उसके बच्चों ने पूरा निभाया । आज भी मुस्लिम औरतें चेहरा ढकी रहती हैं । सूर्पनखा के वंशज आज मुसलमान कहलाते हैं । क्योंकि शुक्राचार्य ने इनको जीवनदान दिया । इसलिए ये शुक्रवार को विशेष महत्व देते हैं ।</span><br />
पूरी जानकारी तथ्यों पर आधारित सच है ।<br />
------------<br />
जानिए इस्लाम कैसे पैदा हुआ ?<br />
असल में इस्लाम कोई धर्म नहीं है । एक मजहब है । दिनचर्या है । मजहब का मतलब अपने कबीलों के गिरोह को बढ़ाना ।<br />
<span style="color: purple;">- यह बात सब जानते हैं कि मोहम्मदी मूलरूप से अरबवासी है । अरब देशो में सिर्फ रेगिस्तान पाया जाता है । वहां जंगल नहीं हैं । पेड़ नहीं है । इसीलिए वहां मरने के बाद जलाने के लिए लकड़ी न होने के कारण ज़मीन में दफ़न कर दिया जाता था ।</span><br />
- रेगिस्तान में हरियाली नहीं होती । ऐसे में रेगिस्तान में हरा चटक रंग देखकर इंसान चला आता जो कि सूचक का काम करता था ।<br />
- अरब देशो में लोग रेगिस्तान में तेज़ धूप में सफ़र करते थे । इसीलिए वहां के लोग सिर को ढकने के लिए टोपी पहनते थे । जिससे बीमार न पड़ें ।<br />
- अब रेगिस्तान में न खेत थे, न फल । तो खाने के लिए वहाँ अनाज नहीं होता था । इसीलिए वहाँ के लोग जानवरों को काट कर खाते थे । और अपनी भूख मिटाने के लिए इसे क़ुर्बानी का नाम दिया गया ।<br />
- रेगिस्तान में पानी की बहुत कमी रहती थी । इसीलिए लिंग ( मूत्रमार्ग ) साफ़ करने में पानी बर्बाद न हो जाये । इसीलिए लोग खतना ( अगला हिस्सा काट देना ) कराते थे ।<br />
<span style="color: red;">- सब लोग एक ही कबीले के खानाबदोश होते थे । इसलिए आपस में भाई बहन ही निकाह कर लेते थे ।</span><br />
<span style="color: red;">- रेगिस्तान में मूर्ति बनाने को मिट्टी मिलती नहीं थी । इसलिए मूर्ति पूजा नहीं करते थे ।</span><br />
<span style="color: red;">- खानाबदोश जीवन होने से एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ता था । इसलिए कम बर्तन रखते थे और एक थाली में पांच लोग खाते थे ।</span><br />
- कबीले की अधिक से अधिक संख्या बढ़े । इसलिए हर एक को चार बीवी रखने की इज़ाजत दी ।<br />
इस्लाम कोई धर्म नहीं मात्र एक कबीला है । और इसके नियम असल में इनकी दिनचर्या है ।<br />
इस्लाम_की_सच्चाई<br />
अजमेर के ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती को 90 लाख हिंदुओं को इस्लाम में लाने का गौरव प्राप्त है । मोइनुद्दीन चिश्ती ने ही मोहम्मद गोरी को भारत लूटने के लिए उकसाया और आमंत्रित किया था । ( सन्दर्भ - उर्दू अखबार पाक एक्सप्रेस, न्यूयार्क 14 मई 2012)<br />
--------<br />
<span style="color: blue;">अजमेर दरगाह वाले ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने किस तरह इस्लाम कबूल न करने पर पृथ्वीराज चौहान की पत्नी संयोगिता को मुस्लिम सैनिकों के बीच बलात्कार करने के लिए निर्वस्त्र करके फेंक दिया था और फिर पृथ्वीराज चौहान की वीर पुत्रियों ने आत्मघाती बनकर मोइनुद्दीन चिश्ती को 72 हूरों के पास भेजा था । </span><br />
<span style="color: red;"><b>साभार - एक फ़ेसबुक पेज से</b></span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com61tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-85587839158259204062016-05-28T21:06:00.003-07:002016-05-28T21:06:24.104-07:00केवल दो हाथ न होने से <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://3.bp.blogspot.com/-7Gby8dGZWJ8/V0pqgqZ3YQI/AAAAAAAARXg/TTkCMr6xL-cAKHvLUC-9hPYiKLQz9BiLACLcB/s1600/water.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="265" src="https://3.bp.blogspot.com/-7Gby8dGZWJ8/V0pqgqZ3YQI/AAAAAAAARXg/TTkCMr6xL-cAKHvLUC-9hPYiKLQz9BiLACLcB/s400/water.png" width="400" /></a></div>
<span style="color: red;">एक बाग में एक फ़क़ीर रहता था । उस बाग़ में मच्छर बहुत थे । मैंने कई बार देखा उस फ़क़ीर को । उसके दोनों बाज़ू नहीं थे । आवाज़ देकर, माथा झुकाकर वह पैसा माँगता था । </span><br />
एक बार मैंने उस फ़क़ीर से पूछा - पैसे तो माँग लेते हो, रोटी कैसे खाते हो ?<br />
उसने बताया - जब शाम उतर आती है । तो उस नानबाई को पुकारता हूँ..ओ जुम्मा । आके पैसे ले जा, रोटियाँ दे जा । वह भीख के पैसे उठा ले जाता है, रोटियाँ दे जाता है ।<br />
मैंने पूछा - खाते कैसे हो बिना हाथों के ?<br />
<span style="color: blue;">वह बोला - खुद तो खा नहीं सकता । आने जाने वालों को आवाज़ देता हूँ..ओ जाने वालों । प्रभु तुम्हारे हाथ बनाए रखे । मेरे ऊपर दया करो । रोटी खिला दो मुझे, मेरे हाथ नहीं हैं । हर कोई तो सुनता नहीं, लेकिन किसी किसी को तरस आ जाता है । वह प्रभु का प्यारा मेरे पास आ बैठता है । ग्रास तोड़कर मेरे मुँह में डालता जाता है, मैं खा लेता हूँ । </span><br />
सुनकर मेरा दिल भर आया । मैंने पूछ लिया - पानी कैसे पीते हो ?<br />
उसने बताया - इस घड़े को टांग के सहारे झुका देता हूँ । प्याला भर जाता है । तब पशुओं की तरह झुककर पानी पी लेता हूँ ।<br />
मैंने कहा - यहाँ मच्छर बहुत हैं । यदि मच्छर लड़ जाए तो क्या करते हो ?<br />
<span style="color: purple;">वह बोला - तब शरीर को ज़मीन पर रगड़ता हूँ । पानी से निकली मछली की तरह लोटता और तड़पता हूँ । </span><br />
<span style="color: purple;">हाय । केवल दो हाथ न होने से कितनी दुर्गति होती है ।</span><br />
<span style="color: purple;">अरे, इस शरीर की निंदा मत करो । यह तो अनमोल रत्न है । शरीर का हर अंग इतना कीमती है कि संसार का कोई भी खज़ाना उसका मोल नहीं चुका सकता । परन्तु यह भी तो सोचो कि यह शरीर मिला किसलिए है ? </span>इसका हर अंग उपयोगी है । इनका उपयोग करो ।<br />
स्मरण रहे कि ये आँखे पापों को ढूँढने के लिए नहीं मिलीं ।<br />
कान निंदा सुनने के लिए नहीं मिले ।<br />
हाथ दूसरों का गला दबाने के लिए नहीं मिले ।<br />
मन अहंकार में डूबने या मोह माया में फंसने को नहीं मिला ।<br />
<span style="color: red;">आँख सच्चे पातशाह वाहेगुरू की खोज के लिये मिली है । जो हमें परमात्मा के बताये मार्ग पर चलने सिखाये ।</span><br />
<span style="color: red;">हाथ प्राणी मात्र की सेवा करने को मिले हैं ।</span><br />
<span style="color: red;">पैर उस रास्ते पर चलने को मिले हैं । जो परम पद तक जाता हो ।</span><br />
कान उस संदेश सुनने को मिले हैं । जिसमें परम पद पाने का मार्ग बताया जाता हो ।<br />
जिह्वा वाहेगुरू का गुणगान करने को मिली है ।<br />
मन उस वाहेगुरू का लगातार शुक्र और सुमिरन करने को मिला है ।</div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-37200798962468389962016-05-28T21:01:00.001-07:002016-05-28T21:01:05.556-07:00सेवा जप तप से बड़ा कर्म <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://3.bp.blogspot.com/-M15e0ZSAFjQ/V0ppS-DrQGI/AAAAAAAARXU/3iQI22ZxEmQZrE_Fz-CjdoFKq0Lzp9c3wCLcB/s1600/seva.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://3.bp.blogspot.com/-M15e0ZSAFjQ/V0ppS-DrQGI/AAAAAAAARXU/3iQI22ZxEmQZrE_Fz-CjdoFKq0Lzp9c3wCLcB/s400/seva.png" width="265" /></a></div>
<span style="color: red;">एक प्रसिद्ध संत मृत्यु के बाद जब स्वर्ग के दरवाजे पर पहुंचे तो चित्रगुप्त उन्हें रोकते हुए बोले - रुकिए महाराज, अंदर जाने से पहले लेखा जोखा देखना पड़ता है । </span><br />
चित्रगुप्त की बात संत को अच्छी नहीं लगी ।<br />
वह बोले - आप यह कैसा व्यवहार कर रहे हैं ? बच्चे से लेकर बूढ़े तक सभी मुझे जानते हैं ।<br />
<span style="color: blue;">चित्रगुप्त बोले - आपको कितने लोग जानते हैं । इसका लेखा जोखा हमारी बही में नहीं होता । इसमें तो केवल कर्मों का लेखा जोखा होता है । </span><br />
इसके बाद वह बही लेकर संत के जीवन का पहला हिस्सा देखने लगे ।<br />
संत बोले - आप मेरे जीवन का दूसरा भाग देखिए । क्योंकि जीवन के पहले हिस्से में तो मैंने लोगों की सेवा की है । उनके दुख दूर किए हैं । जबकि जीवन के दूसरे हिस्से में मैंने जप तप <span style="color: purple;">और ईश्वर की आराधना की है । दूसरे हिस्से का लेखा जोखा देखने पर आपको वहां पुण्य की चर्चा अवश्य मिलेगी । </span><br />
<span style="color: purple;">संत की बात मानकर चित्रगुप्त ने उनके जीवन का दूसरा हिस्सा देखा । तो वहां उन्हें कुछ भी नहीं मिला । सब कुछ कोरा था । वह फिर से उनके जीवन के आरंभ से उनका लेखा जोखा देखने लगे । आरंभ का लेखा जोखा </span>देखकर वह बोले - महाराज, आपका सोचना उल्टा है । आपके अच्छे और पुण्य के कार्यों का लेखा जोखा जीवन के आरंभ में है ।<br />
संत आश्चर्यचकित होकर बोले - यह कैसे संभव है ?<br />
चित्रगुप्त बोले - जीवन के पहले हिस्से में आपने मनुष्य की सेवा की । उनके दुख दर्द कम किए । उन्हीं पुण्य के <span style="color: red;">कार्यों के कारण आपको स्वर्ग में स्थान मिला है । जबकि जप तप और ईश्वर की आराधना आपने अपनी शांति के लिए की है । इसलिए वे पुण्य के कार्य नहीं हैं । यदि केवल आपके जीवन के दूसरे हिस्से पर विचार किया जाए । तो आपको स्वर्ग नहीं मिलेगा ।</span><br />
चित्रगुप्त की बात सुनकर संत समझ गए कि - जीवन में जप तप से बड़ा कर्म है । सच्चे मन से मनुष्य की सेवा ।</div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-43701491938621078752016-05-28T20:57:00.002-07:002016-05-28T20:57:27.077-07:00चोर और पुजारी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://2.bp.blogspot.com/-DEEm9KJGx_A/V0pobx9WyTI/AAAAAAAARXM/mAUwn9bombAc1HqwKi6hyZeNs4Fa6eB-gCLcB/s1600/krishna.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="307" src="https://2.bp.blogspot.com/-DEEm9KJGx_A/V0pobx9WyTI/AAAAAAAARXM/mAUwn9bombAc1HqwKi6hyZeNs4Fa6eB-gCLcB/s400/krishna.png" width="400" /></a></div>
<span style="color: red;">किसी शिव मंदिर में नित्य एक पंडित और एक चोर आते थे । पंडित अत्यंत भक्तिभाव से शिवलिंग पर फल फूल और दूध चढ़ाकर पूजा करता था । वहीं बैठकर शिवस्तोत्र का पाठ करता और घंटों श्रद्धा से शिव का ध्यान करता । </span>दूसरी ओर उसी शिव मंदिर में एक चोर भी प्रतिदिन आता था । वह आते ही शिवलिंग पर डंडे मारना शुरू कर देता और अपने भाग्य को कोसता हुआ भगवान को अपशब्द कहता । अपनी विपन्नता का सारा दोष वह भगवान शिव पर मढ़ता और उन्हें अन्यायी व पक्षपाती ठहराता ।<br />
<span style="color: blue;">एक दिन पंडित और चोर साथ साथ ही मंदिर में आए और अपनी प्रतिदिन की प्रक्रिया दोहराई । काम भी दोनों का साथ ही खत्म हुआ और दोनों का साथ ही बाहर आना हुआ । तभी चोर को द्वार के बाहर सोने की अशर्फियों से भरी थैली मिली और पंडित के पैर में लोहे की कील से गहरा घाव हो गया ।</span><br />
अशर्फियां मिलने से चोर को अत्यंत प्रसन्नता हुई, लेकिन पैर में गहरा घाव होने के कारण पंडित बड़ा दुखी हुआ और रोने लगा ।<br />
तभी भगवान शिव वहां प्रकट हुए और पंडित से बोले - पंडितजी, आज के दिन आपके भाग्य में फांसी लगनी लिखी थी । किंतु मेरी पूजा करके अपने सत्कर्म से फांसी को आपने केवल एक गहरे घाव में बदल दिया । इस चोर को आज के दिन राजा बनकर राजसिंहासन पर बैठना था । किंतु इसके कर्मो ने इसे केवल स्वर्णमुद्रा का ही अधिकारी बनाया । जाओ अपना कर्म करो ।<br />
<span style="color: purple;">वस्तुतः अपना भाग्य निर्माता मनुष्य स्वयं ही होता है । यदि वह अच्छे कर्म करेगा । तो सुपरिणाम के रूप में बेहतर भाग्य पाएगा । और दुष्कर्मो का फल दुर्भाग्य का पात्र बनाता है ।</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-455552592032809062016-05-28T20:53:00.002-07:002016-05-28T20:53:19.874-07:00धनवान होना बुरा नहीं <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://3.bp.blogspot.com/-b6P0_6tbxdU/V0pnaFUwgCI/AAAAAAAARXA/0Dg4yTDkR6MlJg7i58qiRcvOoFO2PbvGwCLcB/s1600/richy.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="333" src="https://3.bp.blogspot.com/-b6P0_6tbxdU/V0pnaFUwgCI/AAAAAAAARXA/0Dg4yTDkR6MlJg7i58qiRcvOoFO2PbvGwCLcB/s400/richy.png" width="400" /></a></div>
<span style="color: red;">एक बार महर्षि नारद ज्ञान का प्रचार करते हुए किसी सघन वन में जा पहुँचे । वहाँ उन्होंने एक बहुत बड़ा घनी छाया वाला सेमर का वृक्ष देखा और उसकी छाया में विश्राम करने के लिए ठहर गये </span>। नारद को उसकी शीतल छाया में आराम करके बड़ा आनन्द हुआ । वे उसके वैभव की भूरिभूरि प्रशंसा करने लगे ।<br />
उन्होंने उससे पूछा - वृक्षराज तुम्हारा इतना बड़ा वैभव किस प्रकार सुस्थिर रहता है ? पवन तुम्हें गिराती क्यों नहीं ?<br />
सेमर के वृक्ष ने हंसते हुए ऋषि के प्रश्न का उत्तर दिया - भगवान, बेचारे पवन की कोई सामर्थ्य नहीं कि वह मेरा बाल भी बाँका कर सके । वह मुझे किसी प्रकार गिरा नहीं सकता ।<br />
<span style="color: blue;">नारद को लगा कि सेमर का वृक्ष अभिमान के नशे में ऐसे वचन बोल रहा है । उन्हें यह उचित प्रतीत न हुआ और झुँझलाते हुए सुरलोक को चले गये ।</span><br />
सुरपुर में जाकर नारद ने पवन से कहा - अमुक वृक्ष अभिमान पूर्वक दर्प वचन बोलता हुआ आपकी निन्दा करता है । सो उसका अभिमान दूर करना चाहिए ।<br />
<span style="color: purple;">पवन को अपनी निन्दा करने वाले पर बहुत क्रोध आया और वह उस वृक्ष को उखाड़ फेंकने के लिए बड़े प्रबल प्रवाह के साथ आँधी तूफान की तरह चल दिया ।</span><br />
सेमर का वृक्ष बड़ा तपस्वी परोपकारी और ज्ञानी था । उसे भावी संकट की पूर्व सूचना मिल गई । वृक्ष ने अपने बचने का उपाय तुरन्त ही कर लिया । उसने अपने सारे पत्ते झाड़ डाले और ठूंठ की तरह खड़ा हो गया । पवन आया । उसने बहुत प्रयत्न किया । पर ठूंठ का कुछ भी बिगाड़ न सका । अन्ततः उसे निराश होकर लौट जाना पड़ा ।<br />
<span style="color: red;">कुछ दिन पश्चात नारद उस वृक्ष का परिणाम देखने के लिए उसी वन में फिर पहुँचे । पर वहाँ उन्होंने देखा कि वृक्ष ज्यों का त्यों हरा भरा खड़ा है । नारद को इस पर बड़ा आश्चर्य हुआ ।</span><br />
<span style="color: red;">उन्होंने सेमर से पूछा - पवन ने सारी शक्ति के साथ तुम्हें उखाड़ने की चेष्टा की थी पर तुम तो अभी तक ज्यों के त्यों खड़े हुए हो । इसका क्या रहस्य है ?</span><br />
वृक्ष ने नारद को प्रणाम किया और नम्रतापूर्वक निवेदन किया - ऋषिराज, मेरे पास इतना वैभव है पर मैं इसके मोह में बँधा हुआ नहीं हूँ । संसार की सेवा के लिए इतने पत्तों को धारण किये हुए हूँ । परन्तु जब जरूरत समझता हूँ । इस सारे वैभव को बिना किसी हिचकिचाहट के त्याग देता हूँ और ठूँठ बन जाता हूँ । मुझे वैभव का <span style="color: purple;">गर्व नहीं था । वरन अपने ठूँठ होने का अभिमान था । इसीलिए मैंने पवन की अपेक्षा अपनी सामर्थ्य को अधिक बताया था । आप देख रहे हैं कि उसी निर्लिप्त कर्मयोग के कारण मैं पवन की प्रचंड टक्कर सहता हुआ भी यथा पूर्व खड़ा हुआ हूँ ।</span><br />
नारद समझ गये कि संसार में वैभव रखना, धनवान होना कोई बुरी बात नहीं है । इससे तो बहुत से शुभ कार्य हो सकते हैं । बुराई तो धन के अभिमान में डूब जाने और उससे मोह करने में है । यदि कोई व्यक्ति धनी होते हुए <span style="color: red;">भी मन से पवित्र रहे । तो वह एक प्रकार का साधु ही है । ऐसे जल में कमल की तरह निर्लिप्त रहने वाले कर्मयोगी साधु के लिए घर ही तपोभूमि है ।</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-1320149274285090592016-05-28T20:49:00.001-07:002016-05-28T20:49:05.439-07:00सही फैसला <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://3.bp.blogspot.com/-1zmhUZOdwxM/V0pmek6Xz_I/AAAAAAAARW4/yHw58o4mnE0CG7jA3hjZKwnNMbaAsc_HQCLcB/s1600/parrot.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://3.bp.blogspot.com/-1zmhUZOdwxM/V0pmek6Xz_I/AAAAAAAARW4/yHw58o4mnE0CG7jA3hjZKwnNMbaAsc_HQCLcB/s400/parrot.png" width="360" /></a></div>
<span style="color: red;">एक कुम्हार माटी से चिलम बनाने जा रहा था । उसने चिलम का आकार दिया । थोड़ी देर में उसने चिलम को बिगाड़ दिया । </span><br />
माटी ने पूछा - अरे कुम्हार, तुमने चिलम अच्छी बनाई । फिर बिगाड़ क्यों दिया ?<br />
कुम्हार ने कहा - अरी माटी, पहले मैं चिलम बनाने की सोच रहा था । किन्तु मेरी मति ( दिमाग ) बदली और अब मैं सुराही बनाऊंगा ।<br />
<span style="color: blue;">ये सुनकर माटी बोली - रे कुम्हार, मुझे खुशी है । तेरी तो सिर्फ मति ही बदली । मेरी तो जिंदगी ही बदल गयी । चिलम बनती । तो स्वयं भी जलती और दूसरों को भी जलाती । अब सुराही </span>बनूँगी तो स्वयं भी शीतल रहूंगी और दूसरों को भी शीतल रखूंगी ।<br />
यदि जीवन में हम सभी सही फैसला लें । तो हम स्वयं भी खुश रहेंगे । एवं दूसरों को भी खुशियाँ दे सकेंगे ।<br />
<span style="color: orange;">-----------</span><br />
<span style="color: purple;">- भोग और रोग साथी है और ब्रह्मचर्य आरोग्य का मूल है । बुद्ध</span><br />
<span style="color: purple;">- जैसे दीपक का तेल-बत्ती के द्वारा ऊपर चढक़र प्रकाश के रूप में परिणित होता है । वैसे ही ब्रह्मचारी के अन्दर का वीर्य सुषमणा नाड़ी द्वारा प्राण बनकर ऊपर चढ़ता हुआ ज्ञान दीप्ति में परिणित हो जाता है । स्वामी रामतीर्थ</span><br />
पति के वियोग में कामिनी तड़पती है और वीर्यपतन होने पर योगी पश्चाताप करता है ।<br />
<span style="color: red;">- इस ब्रह्मचर्य के प्रताप से ही मेरी ऐसी महान महिमा हुई है । भगवान शंकर</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-40921505176128321362016-05-28T20:12:00.001-07:002016-05-28T20:12:17.667-07:00सन्तोषी सदा सुखी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-keDdRBOzuFM/V0pdxnnxj2I/AAAAAAAARVs/1KP59JFJBegW76i1s8U-uspiGyh5kJ6SACLcB/s1600/crow.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="333" src="https://1.bp.blogspot.com/-keDdRBOzuFM/V0pdxnnxj2I/AAAAAAAARVs/1KP59JFJBegW76i1s8U-uspiGyh5kJ6SACLcB/s400/crow.png" width="400" /></a></div>
<span style="color: red;">एक कौआ अपनी जिंदगी से खुश और संतुष्ट था । एक बार वह तालाब पर पानी पीने रुका । वहां पर उसने सफ़ेद रंग के पक्षी हंस को देखा । उसने सोचा मैं बहुत काला हूँ और हंस इतना सुन्दर हैं इसलिए शायद हंस इस दुनियां का सबसे खुश पक्षी होगा ।</span><br />
कौआ हंस के पास गया और बोला - क्या आप दुनियां के सबसे खुश पक्षी हो ?<br />
हंस बोला - मैं भी यही सोचा करता था कि मैं दुनियां का सबसे खुश पक्षी हूँ । जब तक कि मैंने तोते को न देखा था । तोते को देखने के बाद मुझे लगता हैं कि तोता ही दुनियां का सबसे खुश पक्षी हैं । क्योंकि तोते के दो खूबसूरत रंग होते हैं । इसलिए वही दुनियां का सबसे खुश पक्षी है ।<br />
<span style="color: blue;">कौआ तोते के पास गया और बोला - क्या आप ही इस दुनियां के सबसे खुश पक्षी हो ?</span><br />
<span style="color: blue;">तोता ने कहा - मैं पहले बहुत खुश था और सोचा करता था कि मैं ही दुनियां का सबसे खुबसूरत पक्षी हूँ । लेकिन जबसे मैंने मोर को देखा है । मुझे लगता है कि वो ही दुनियां का सबसे खुश पक्षी है । क्योंकि उसके कई तरह के रंग हैं और वह मुझसे भी खूबसूरत है ।</span><br />
कौआ चिड़ियाघर में मोर के पास गया और देखा कि सैकड़ों लोग मोर को देखने के लिए आए हैं । कौआ मोर के पास गया और बोला - क्या आप दुनियां के सबसे सुन्दर पक्षी हो ?<br />
हजारों लोग आपको देखने के लिए आते हैं । इसलिए आप ही दुनियां के सबसे खुश पक्षी हो सकते हो ।<br />
मोर ने कहा - मैं हमेशा सोचता था कि मैं दुनियां का सबसे खूबसूरत और खुश पक्षी हूँ लेकिन मेरी खूबसूरती के कारण मुझे यहाँ पिंजरे में कैद कर लिया गया है । मैं खुश नहीं हूँ और मैं अब यह चाहता हूँ कि काश मैं भी कौआ होता तो मैं आज आसमान में आजाद उड़ता ।<br />
<span style="color: purple;">चिड़ियाघर में आने के बाद मुझे यही लगता हैं कि कौआ ही सबसे खुश पक्षी होता है ।</span><br />
<b><span style="color: orange;">-----------------------</span></b><br />
हम लोगों की जिंदगी भी कुछ ऐसी ही है । हम अपनी तुलना दूसरों से करते हैं और दूसरों को देखकर हमें लगता है कि वो शायद हमसे अधिक खुश या सुख में है । इस कारण हम दुखी हो जाते हैं ।<br />
हम उनका आनंद नहीं उठा पाते । जो हमारे पास पहले से है । और उन वस्तुओं के पीछे भागने लगते हैं । जो हमारे पास नहीं है । और इसी चक्कर में समय निकलता जाता है । और बाद में हम सोचते हैं कि पहले हम अधिक खुश थे ।<br />
<span style="color: red;">दुनियां में हर व्यक्ति के पास अन्य व्यक्तियों से कुछ वस्तुएँ अधिक और कुछ वस्तुएँ कम होगी ही ।</span><br />
<span style="color: red;">इसलिए दुनियां में सबसे अधिक खुश वह है । जो अपने आप से सन्तुष्ट हैं ।</span><br />
<span style="color: red;">कहा भी गया है - सन्तुष्टम परम सुखम । सन्तोषी सदा सुखी । </span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-37336694677595059502016-05-28T20:08:00.003-07:002016-05-28T20:08:36.828-07:00आत्महत्या क्यों ?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-oaVn3DexzOw/V0pc9n57QNI/AAAAAAAARVk/zxMIqBsQTpAU4RhG6TCNVlynD9XsNI_QgCLcB/s1600/pecock.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="265" src="https://1.bp.blogspot.com/-oaVn3DexzOw/V0pc9n57QNI/AAAAAAAARVk/zxMIqBsQTpAU4RhG6TCNVlynD9XsNI_QgCLcB/s400/pecock.png" width="400" /></a></div>
<span style="color: red;">एक व्यक्ति जीवन में आने वाली परेशानियों से बहुत दुखी था । उसे अपने दुखों के बीच जीने का कोई अर्थ समझ नहीं आ रहा था । वह डूबकर आत्महत्या करने नदी किनारे पहुंच गया । वह नदी में कूदने ही वाला था कि किसी ने उसे पकड़कर पीछे खींच लिया ।</span><br />
उस व्यक्ति को आत्महत्या से रोकने वाले उस नदी किनारे झोपड़ी में रहने वाले एक साधु थे ।<br />
युवक क्रोधित होते हुए साधु से बोला - आपने मुझे क्यों बचा लिया ? इतने दुखों के बीच मैं जिंदा नहीं रह सकता ।<br />
साधु ने उस व्यक्ति की बात कोई जवाब नहीं दिया और कहा - तुम पानी पियो ।<br />
<span style="color: blue;">साधु ने एक कटोरी निकाली । उसमें पानी भरा और एक चुटकी नमक डाल दिया ।</span><br />
<span style="color: blue;">पानी का एक घूंट पीकर युवक ने कहा - यह मैं नहीं पी सकता । इसमें बहुत नमक है ।</span><br />
<span style="color: blue;">साधु ने कहा - चलो, फिर नदी का पानी पी लो । लेकिन जरा ठहरो ।</span><br />
<span style="color: blue;">यह कहकर साधु ने नदी में एक चुटकी नमक डाल दिया ।</span><br />
युवक ने पानी पिया, साधु ने पूछा - कैसा था पानी ?<br />
युवक बोला - यह तो मीठा है ।<br />
अब साधु ने उसे समझाया - जिन दुखों से डरकर तुम आत्महत्या करने जा रहे थे । वे तो बस चुटकी भर नमक की तरह हैं । लेकिन अभी तुम कटोरी की तरह हो । जिसमें यह नमक ज्यादा लग रहा है ।<br />
<span style="color: purple;">जिस दिन तुम नदी बन जाओगे । यह दुखों का नमक तुम्हें नगण्य लगने लगेगा ।</span><br />
<span style="color: purple;">हमें खुद को इतना योग्य और बड़ा बनाना होगा । ताकि दुखों का हमारे ऊपर प्रभाव न पड़ सके ।</span><br />
<b><span style="color: orange;">------------</span></b><br />
छोटी सी मछली पानी के उल्टे बहाव में भी आगे निकल जाती है । जबकि एक बड़ा हाथी तक उस बहाव में बह जाता है ।<br />
<span style="color: red;">क्योंकि मछली पानी की शरण में है ।</span><br />
<span style="color: red;">ऐसे ही जो प्रभु की शरण में हैं । वे विपरीत परिस्थिति में भी इस भवसागर से तर जाते हैं।</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-64008681295135913872016-05-28T20:03:00.003-07:002016-05-28T20:03:20.142-07:00बुद्ध और देवकन्या<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-KkdgZYzOgvU/V0pbz5m5QQI/AAAAAAAARVY/-UwdDRHfJHYm2paQlVsy1dKTjNnj3SW3QCLcB/s1600/budhdha.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://1.bp.blogspot.com/-KkdgZYzOgvU/V0pbz5m5QQI/AAAAAAAARVY/-UwdDRHfJHYm2paQlVsy1dKTjNnj3SW3QCLcB/s400/budhdha.png" width="300" /></a></div>
<span style="color: red;">बोधिसत्व एक दिन सुन्दर कमल के तालाब के पास बैठे वायु सेवन कर रहे थे । कमल की मनोहारी छटा ने उन्हें अत्यधिक आकर्षित किया । तो वे चुप बैठे न रह सके उठे और सरोवर में उतरकर निकट से जलज गंध का पान कर तृप्ति लाभ करने लगे ।</span><br />
तभी किसी देवकन्या का स्वर सुनाई पड़ा - तुम बिना कुछ दिए ही इन पुष्पों की सुरभि सेवन कर रहे हो । यह चौर कर्म है । तुम गन्ध चोर हो ।<br />
तथागत उसकी बात सुनकर स्तम्भित रह गये । तभी एक व्यक्ति आया और सरोवर में घुसकर निर्दयतापूर्वक कमल पुष्प तोड़ने लगा । बड़ी देर तक उस व्यक्ति ने पुष्पों को तोड़ा मरोड़ा पर रोकना तो दूर किसी ने उसे मना तक भी न किया ।<br />
<span style="color: blue;">तब बुद्धदेव ने उस कन्या से कहा - देवि । मैंने तो केवल गन्धपान ही किया था । पुष्पों का अपहरण तो नहीं किया था । तोड़े भी नहीं । फिर भी तुमने मुझे चोर कहा और यह मनुष्य कितनी निर्दयता के साथ फूलों को तोड़कर तालाब को अस्वच्छ तथा असुन्दर बना रहा है । तुम इससे कुछ नहीं कहतीं ? </span><br />
तब वह देवकन्या गम्भीर होकर कहने लगी - तपस्वी, लोभ तथा तृष्णाओं में डूबे संसारी मानव धर्म तथा अधर्म में भेद नहीं कर पाते । अतः उन पर धर्म रक्षा का भार नहीं है । किन्तु जो धर्मरत है । सदअसद का ज्ञाता है । नित्य अधिक से अधिक पवित्रता तथा महानता के लिए सतत प्रयत्नशील है । उसका तनिक सा पथभ्रष्ट होना एक बड़ा पातक बन जाता है ।<br />
<span style="color: purple;">1 ज्ञानी के उत्तरदायित्वों की तुलना अज्ञानी के उत्तरदायित्वों से नहीं की जा सकती ।</span><br />
<span style="color: purple;">2 जिनके ऊपर समाज को दिशा और प्रेरणा देने का उत्तरदायित्व है । उनके छोटे से छोटे आचरण भी शुद्धतम होने चाहिए ।</span><br />
<br /></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-78797608164805470402016-05-28T05:13:00.003-07:002016-05-28T05:13:29.240-07:00गरीब आदमी की वासना <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://4.bp.blogspot.com/-w-aF9gGLWpA/V0mK7l5KloI/AAAAAAAARVE/fZ4Tgj0QijcQcd4zG-Za7V4cD37hIYsiwCLcB/s1600/poor%2Bman.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://4.bp.blogspot.com/-w-aF9gGLWpA/V0mK7l5KloI/AAAAAAAARVE/fZ4Tgj0QijcQcd4zG-Za7V4cD37hIYsiwCLcB/s400/poor%2Bman.png" width="321" /></a></div>
<span style="color: red;">एक अरबपति महिला ने एक गरीब चित्रकार से अपना चित्र बनवाया, पोट्रट बनवाया । चित्र बन गया तो वह अमीर महिला अपना चित्र लेने आयी । वह बहुत खुश थी । </span><br />
चित्रकार से उसने कहा - क्या उसका पुरस्कार दूं ?<br />
चित्रकार गरीब आदमी था । गरीब आदमी वासना भी करे तो कितनी बड़ी करे । मांगे भी तो कितना मांगे ?<br />
हमारी मांग, सब गरीब आदमी की मांग है परमात्मा से । हम जो मांग रहे हैं । वह क्षुद्र है । जिससे मांग रहे हैं । उससे यह बात मांगनी नहीं चाहिए ।<br />
उसने सोचा कि - सौ डालर मांगूं । दो सौ डालर मांगूं । पांच सौ डालर मांगूं । फिर उसकी हिम्मत डिगने लगी । इतना देगी, नहीं देगी । फिर उसने सोचा कि बेहतर यह हो कि इसी पर छोड़ दूं । शायद ज्यादा दे । डर तो लगा मन में कि इस पर छोड़ दूं, पता नहीं दे या न दे, या कहीं कम दे और एक दफा छोड़ दिया तो फिर । तो उसने फिर भी हिम्मत की ।<br />
<span style="color: blue;">उसने कहा कि - आपकी जो मर्जी । तो उसके हाथ में जो उसका बैग था, पर्स था । </span><br />
<span style="color: blue;">उसने कहा - तो अच्छा तो यह पर्स तुम रख लो । यह बडा कीमती पर्स है ।</span><br />
<span style="color: blue;">पर्स तो कीमती था । लेकिन चित्रकार की छाती बैठ गयी कि पर्स को रखकर करूंगा भी क्या ? माना कि कीमती है और सुंदर है, पर इससे कुछ आता जाता नहीं । इससे तो बेहतर था कुछ सौ डालर ही मांग लेते । </span><br />
तो उसने कहा, नहीं - नहीं, मैं पर्स का क्या करूंगा । आप कोई सौ डालर दे दें ।<br />
उस महिला ने कहा - तुम्हारी मर्जी ।<br />
उसने पर्स खोला । उसमें एक लाख डालर थे । उसने सौ डालर निकाल कर चित्रकार को दे दिये और पर्स लेकर चली गयी ।<br />
चित्रकार अब तक छाती पीट रहा है और रो रहा है - मर गये, मारे गये, अपने से ही मारे गये ।<br />
आदमी करीब करीब इस हालत में है । परमात्मा ने जो दिया है । वह बंद है । छिपा है । और हम मांगे जा रहे हैं - दो-दो पैसे, दो-दो कौड़ी की बात । और वह जीवन की जो संपदा उसने हमें दी है । उस पर्स को हमने खोलकर भी नहीं देखा है ।<br />
<span style="color: purple;">जो मिला है । वह जो आप मांग सकते हैं । उससे अनंत गुना ज्यादा है । लेकिन मांग से फुरसत हो, तो दिखायी पड़े । वह जो मिला है । भिखारी अपने घर आये । तो पता चले कि घर में क्या छिपा है । वह अपना भिक्षापात्र लिये बाजार में ही खड़ा है । वह घर धीरे धीरे भूल ही जाता है । भिक्षा पात्र ही हाथ में रह जाता है । इस भिक्षापात्र को लिये हुए भटकते भटकते जन्मों जन्मों में भी कुछ मिला नहीं । कुछ मिलेगा नहीं ।</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-87238038852497636022016-05-28T05:07:00.003-07:002016-05-28T05:07:52.270-07:00भीष्म पितामह के उपदेश<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://3.bp.blogspot.com/-RPmJHqpbMtQ/V0mJwIayjQI/AAAAAAAARU4/ZAwFhx0jju0gD-zKbQ7IkiwVwEJT24i8QCLcB/s1600/raidas.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="351" src="https://3.bp.blogspot.com/-RPmJHqpbMtQ/V0mJwIayjQI/AAAAAAAARU4/ZAwFhx0jju0gD-zKbQ7IkiwVwEJT24i8QCLcB/s400/raidas.png" width="400" /></a></div>
<span style="color: red;">महाभारत में शरशैय्या पर पडे भीष्म पितामह ने पाण्डवों को बहुत ही प्रेरणास्पद धर्मोपदेश किए थे । उनमें से उन्होंने मृत्यु को जीतने के उपाय भी बताए थे । यदि व्यक्ति वेदानुकूल आचरण करे । </span>जीवन को छल कपट और अहिंसा से रहित करे । तो वह मृत्यु को जीत सकता है । इनमें से कुछ उपाय पढें<br />
हिंसा का त्याग - यदि कोई मनुष्य हिंसा का त्याग कर अहिंसा को अपने जीवन में अपना ले । तो वह व्यक्ति अपने सम्पूर्ण जीवन में सदैव सुखी रहेगा । किसी को मारना, अपशब्द कहना, आँखें दिखाना, किसी के साथ मारपीट करना या किसी के साथ हिंसा करना इस प्रकार के व्यक्ति ऐसा कर दूसरों को तो चोट पहुंचाते हैं । साथ ही वे खुद भी इसकी चपेट में आ जाते हैं । और अपने आपको नुकसान पहुंचा बैठते हैं ।<br />
<span style="color: blue;">जो व्यक्ति सदैव दूसरे के साथ प्रेम पूर्वक व्यवहार करता है । तथा दूसरों की मदद के लिए सदैव तत्पर रहता है । ऐसे व्यक्ति हमेशा भगवान को प्रिय होते हैं । तथा वे उनकी रक्षा करते हैं । इस प्रकार के गुण को अपनाने वाले व्यक्ति की आयु निश्चित ही लम्बी होती है । </span><br />
वेद, पुराणों और अन्य धर्मग्रंथों में अहिंसा को मनुष्य का परम धर्म बताया गया है ।<br />
अहिंसा परमो धर्मः । अतः हमें इन तीनों ( मन, वचन, कर्म ) प्रकार की हिंसा से सदैव बचकर रहना चाहिए । मन से हिंसा का अभिप्राय किसी के बारे में बुरे विचार सोचने से है । वचन से अभिप्राय दूसरे के बारे में बुरा बोलने व कर्म से अभिप्राय किसी को शारीरिक कष्ट पहुंचाने से है ।<br />
<br />
<span style="color: purple;">कभी झूठ न बोलना - मनुष्य को सदैव सत्य बोलना चाहिए । क्योंकि असत्य के सहारे वह कुछ पल के लिए अपने आपको मुसीबत से बचा तो लेता है । परन्तु आगे चलकर उसको इस झूठ का बहुत भयंकर परिणाम झेलना पड़ता है । समाज के सामने ऐसे व्यक्ति की छवि धूमिल होने के साथ ही साथ वह व्यक्ति अपने परिवार का प्रेम और विश्वास भी खो बैठता है । असत्य बोलने वाला व्यक्ति सदैव भयभीत और बेचैन रहता है । तथा इसका प्रभाव उसके स्वास्थ पर भी पड़ता है । जिस कारण उसकी आयु कम हो जाती है । यदि मनुष्य अपनी लम्बी उम्र चाहता है । तो उसे सदैव सत्य बोलना चाहिए । </span>क्योंकि असत्य का सहारा लेने पर वह सदैव उस असत्य के कारण अंदर से भयभीत रहेगा । तथा उसे बहुत सी बीमारियाँ आ घेरेंगी व अंत में वह अपनी पूर्ण आयु जीये बिना ही मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा ।<br />
<br />
छल कपट न करना - जो व्यक्ति सदैव सदाचार का पालन कर अपना जीवन व्यतीत करता है । तथा हमेशा छल कपट की भावना से दूर रहता है । इस प्रकार के व्यक्ति का मन सदैव प्रसन्न रहता है । मनुष्य को छल-कपट की भावना से बचते हुए अपने आपको ईश्वर भक्ति और समाज की भलाई के कार्यो में लगाना चाहिए । ऐसा कर मनुष्य के मन को बहुत शांति महसूस होती है । और शांत मन के कारण मनुष्य को कभी कोई बीमारी नहीं होती । कहा भी है कि शांत मन स्वस्थ शरीर की निशानी होती है । इस गुण का पालन कर मनुष्य अधिक समय तक जीवित रह सकता है ।<br />
<br />
<span style="color: red;">क्रोध न करना - क्रोध को मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु बताया गया है । क्योंकि क्रोध किसी भी मनुष्य के सोचने समझने की क्षमता को हर लेता है । तथा क्रोध के आवेश में मनुष्य अनेक बार ऐसा कार्य कर देता है । जिसका उसे अपनी पूरी जिंदगी पछतावा होता है । बगैर किसी कारण हर बार गुस्सा करने से मनुष्य के मस्तिष्क ( मन ) में बुरा प्रभाव पड़ता है । और दिन प्रतिदिन उसकी आयु कम होती जाती है ।</span><br />
क्रोध धीरे धीरे मनुष्य के स्वभाव को हिंसक बना देता है । तथा वह मन और शरीर दोनों प्रकार से अस्वस्थ होने लगता है । क्रोध न करने वाले व्यक्ति का मन सदैव शांत बना रहता है । और उसका स्वास्थ्य उत्तम होता है । उसकी आयु भी बहुत लम्बी होती है ।</div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-89842087170184109442016-05-28T04:56:00.001-07:002016-05-28T04:56:07.881-07:00सत्यभामा का गर्व<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://3.bp.blogspot.com/-0eKmJ2CRP5c/V0mHExt4zpI/AAAAAAAARUg/QjLWQys0z0Ee0_sVBvu5eneGgp2yJcNmQCLcB/s1600/shrikrishna.png" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://3.bp.blogspot.com/-0eKmJ2CRP5c/V0mHExt4zpI/AAAAAAAARUg/QjLWQys0z0Ee0_sVBvu5eneGgp2yJcNmQCLcB/s400/shrikrishna.png" width="270" /></a></div>
<span style="color: red;">भगवान श्रीकृष्ण की 8 रानियाँ थीं । जिनमें 2 पहली रानियों के नाम सत्यभामा और रुक्मणी थे । दोनों ही भगवान कृष्ण से बहुत प्रेम करते थीं । परन्तु सत्यभामा को अपने पिता के धन पर बहुत घमंड था । उसके पिता के पास स्यमन्तक नामक 1 मणि थी । जो उन्हें सूर्यदेव ने दी थी । वह मणि रोज 1 किलो सोना देती थी । श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा के घमंड को तोड़ने के लिए एक लीला रची ।</span><br />
एक बार नारद द्वारिका पधारे । सत्यभामा ने उनका खूब आदर सत्कार किया । जब नारद वहाँ से जाने लगे ।<br />
तब सत्यभामा ने नारद को रोकते हुए कहा - आप ब्रह्मचारी हैं, आपको किये दान से असंख्य पुण्यों की प्राप्ति होती है । अतः कृपया मेरे द्वारा दान ग्रहण कीजिये ।<br />
<span style="color: blue;">नारद ने सत्यभामा से कहा - देवी आप रहने दीजिये । मेरे द्वारा मांगी गई वस्तु आप दान नहीं कर पाएंगी । </span><br />
<span style="color: blue;">सत्यभामा को धन का बहुत घमंड था । अतः उन्होंने कहा - ऐसी कोई भी वस्तु नहीं, जो में दान न कर सकूँ । फिर भी मैं हाथ में जल लेकर आपको वचन देती हूँ । आप जो भी दान मांगोगे । मैं आपको दूंगी </span>।<br />
नारद ने तुरंत श्रीकृष्ण को ही दान में मांग लिया । वचन से बंधे होने के कारण सत्यभामा ने श्रीकृष्ण को दान में दे दिया ।<br />
फिर क्या श्रीकृष्ण और नारद ने अपनी लीला शुरू कर दी । नारद श्रीकृष्ण को जैसा आदेश देते कृष्ण कहे अनुसार ही करते जाते । कभी वे नारद के पैर दबाते । तो कभी उनके लिए भोजन पकाते । नारद के कहे पर वे उठते और बैठते थे । सारी रानियाँ कृष्ण की यह दशा देख दुखी हो गई । अंत में सत्यभामा रोते हुए नारद के चरणों में गई । तथा उनसे श्रीकृष्ण के बदले में कुछ अन्य वस्तु मांगने की प्रार्थना करने लगी । परन्तु नारद ने श्रीकृष्ण को वापस करने के बदले में एक शर्त रखी की । सत्यभामा आपको श्रीकृष्ण के वजन के बराबर स्वर्ण का दान करना होगा ।<br />
<span style="color: purple;">तब एक तुला मंगाई गई जिसके एक छोर के पलड़े पर कृष्ण बैठे थे । तथा दूसरे पलड़े पर रानियों ने अपने सभी आभूषण डाले । सत्यभामा ने अपने सभी खजाने खोल दिए । और कृष्ण को उनसे तोलने लगी । परन्तु कृष्ण वाला पलड़ा अपनी पूर्व स्थिति में ही बना रहा । तब रुक्मणी ने भगवान कृष्ण को अपने मन में याद किया । और सारे आभूषणों को हटाकर उसकी जगह 1 तुलसी का पत्ता रखा । रुक्मणी के प्रेम से भरे उस पत्ते के भार से वह तराजू का पलड़ा भारी हो गया । और कृष्ण वाला पलड़ा उपर उठ आया । तब सत्यभामा को अपने घमंड का अहसास हुआ । और उन्होंने रुक्मणी, भगवान कृष्ण और नारद से क्षमा मांगी ।</span></div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-17079454861993783762016-05-21T21:05:00.001-07:002016-05-21T21:05:46.465-07:00बुद्ध और कबीर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://2.bp.blogspot.com/-1n22Ks34DuM/V0EvV6I2v3I/AAAAAAAARUQ/UFXBnCptnDMJAHJw2lajvrHGWkALyVVZACLcB/s1600/opportunities.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://2.bp.blogspot.com/-1n22Ks34DuM/V0EvV6I2v3I/AAAAAAAARUQ/UFXBnCptnDMJAHJw2lajvrHGWkALyVVZACLcB/s400/opportunities.jpg" width="302" /></a></div>
<b><span style="color: red;">बुद्ध - संसार में सब कुछ परिवर्तनशील है ।</span></b><br />
कबीर जो दिन आज है, सो दिन नाहिं काल ।<br />
चेत सके तो चेत ले, सिर ठाडे है काल ।<br />
आज काल दिन एक में, अस्थिर नाहिं शरीर ।<br />
कहै कबीर कस राखियो, काचे बासन नीर ।<br />
<br />
<b><span style="color: blue;">बुद्ध - आत्मा किसी लोक से उतरा या किसी ब्रह्म का अंश नहीं है ।</span></b><br />
जागृत रुपी जीव है, शब्द सोहागा सेत ।<br />
जर्द बूंद जल कुकही, कहैं कबीर कोई देख ।<br />
<br />
<b><span style="color: red;">बुद्ध - जङ तत्व चार हैं यथा - पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि ।</span></b><br />
अग्नि कहे में ई तन जारो, पानी कहै में जरत उबारो ।<br />
धरती कहै मोहि मिली जाए, पवन कहै संग लेऊ उडाई । कबीर<br />
<br />
<b><span style="color: blue;">बुद्ध - सुख दुख कर्मों के अनुसार मिलते हैं, किसी भगवान या खुदा द्वारा नहीं ।</span></b><br />
तौ लौ तारा जगमगे, जौ लौ उगे न सूर ।<br />
तौ लौ जीव कर्मवश डोले, जौ लौ ज्ञान न पूर । कबीर<br />
<br />
<b><span style="color: red;">बुद्ध - जन्म और मृत्यु दोनों दुखदायी है ।</span></b><br />
सुर नर मुनी औ देवता, सात द्वीप नौ खण्ड ।<br />
कहहिं कबीर सब भोगिया, देह धरे का दण्ड ।<br />
<br />
<b><span style="color: blue;">बुद्ध - दुख का कारण अज्ञान, द्वेष और मोह है ।</span></b><br />
जो तू चाहे मुझ को, छोड सकल की आस ।<br />
मुझ ही जैसा हो रहो, सब सुख तेरै पास । कबीर<br />
<br />
<b><span style="color: red;">बुद्ध - दुख का निराकरण अकुशल संस्कारों को न बनने देना है और यह संभव है विवेक धारण पर ।</span></b><br />
मन सायर मनसा लहरी, बूढे बहुत अचेत ।<br />
कहहिं कबीर ते बाचिं है, जाके हृदय विवेक ।<br />
<br />
<b><span style="color: blue;">बुद्ध - इच्छाएं कभी स्थिर नहीं रहती है ।</span></b><br />
ई मन चंचल ई मन चौर, ई मन शुद्ध ठगहार ।<br />
मन मन करते सुर नर मुनि जहडे, मन के लक्ष द्वार । कबीर<br />
<br />
<span style="color: red;"><b>बुद्ध - मन अगर निर्मल हो तो जीव को दुख नहीं होता है ।</b></span><br />
यह मन तो निर्मल भया,जैसे गंगा नीर ।<br />
पीछे पीछे हरि फिरे, कहत कबीर कबीर ।<br />
<br />
<span style="color: blue;"><b>बुद्ध - अज्ञान एवं तृष्णा के रहते मोक्ष संभव नहीं है ।</b></span><br />
अमृत वस्तु जाने नहीं, मगन भया सब लोय ।<br />
कहहिं कबीर कामों नहीं, जीव ही मरण न होय ।</div>
सहज समाधि आश्रमhttp://www.blogger.com/profile/12983359980587248264noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-518573499783121054.post-41233312103961319652016-05-20T20:34:00.000-07:002016-05-20T20:34:13.047-07:00कामवासना - ओशो<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/-MH0g5-_35do/Vz_W04olMDI/AAAAAAAARTM/sAMp_Y4oJFkNBociXU8i0G1N3tjtoLB6ACLcB/s1600/osho.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://1.bp.blogspot.com/-MH0g5-_35do/Vz_W04olMDI/AAAAAAAARTM/sAMp_Y4oJFkNBociXU8i0G1N3tjtoLB6ACLcB/s400/osho.jpg" width="311" /></a></div>
<span style="color: red;">काम ! अंश है प्रेम का, अधिक बड़ी संपूर्णता का । प्रेम उसे सौंदर्य देता है । अन्यथा तो यह सबसे अधिक असुंदर क्रियाओं में से एक है । इसलिए लोग अंधकार में काम की ओर बढ़ते है । वे स्वयं भी इस क्रिया का प्रकाश में संपन्न किया जाना पसंद नहीं करते है । तुम देखते हो कि मनुष्य के अतिरिक्त सभी पशु संभोग करते है दिन में । कोई पशु रात में कष्ट नहीं उठाता ।</span> रात विश्राम के लिए होती है । सभी पशु दिन में संभोग करते है । केवल आदमी संभोग करता है रात्रि में । एक तरह का भय होता है कि संभोग की क्रिया थोड़ी असुंदर है । और कोई स्त्री अपनी खुली आंखों सहित कभी संभोग नहीं करती है । क्योंकि उनमें पुरूष की अपेक्षा ज्यादा सुरुचि संवेदना होती है । वे हमेशा मूंदी आंखों सहित संभोग करती है । जिससे कि कोई चीज दिखाई नहीं देती । स्त्रियां अश्लील नहीं होती है, केवल पुरूष होते है ऐसे ।<br />
इसीलिए स्त्रियों के इतने ज्यादा नग्न चित्र विद्यमान रहते है । केवल पुरूषों का रस है देह देखने में । स्त्रियों की रूचि नहीं होती इसमें । उनके पास ज्यादा सुरुचि संवेदना होती है । क्योंकि देह पशु की है । जब तक कि वह दिव्य नहीं होती । उसमें देखने को कुछ है नहीं । प्रेम सेक्स को एक नयी आत्मा दे सकता है । तब सेक्स रूपांतरित हो जाता है । वह सुंदर बन जाता है । वह अब काम का भाव न रहा, उसमें कहीं पार का कुछ होता है । वह सेतु बन जाता है ।<br />
<span style="color: blue;">तुम किसी व्यक्ति को प्रेम कर सकते हो । इसलिए क्योंकि वह तुम्हारी ‘कामवासना’ की तृप्ति करता है । यह प्रेम नहीं, मात्र एक सौदा है । तुम किसी व्यक्ति के साथ कामवासना की पूर्ति कर सकते हो इसलिए क्योंकि तुम प्रेम करते हो । तब काम भाव अनुसरण करता है छाया की भांति, प्रेम के अंश की भांति । तब वह सुंदर होता है । तब वह पशु-संसार का नहीं रहता । तब पार की कोई चीज पहले से ही प्रविष्ट हो चुकी होती है । और यदि तुम किसी व्यक्ति से बहुत गहराई से प्रेम किए चले जाते हो, तो धीरे धीरे कामवासना तिरोहित हो जाती है । </span>आत्मीयता इतनी संपूर्ण हो जाती है कि कामवासना की कोई आवश्यकता नहीं रहती । प्रेम स्वयं में पर्याप्त होता है । जब वह घड़ी आती है तब प्रार्थना की संभावना तुम पर उतरती है ।<br />
ऐसा नहीं है कि उसे गिरा दिया गया होता है । ऐसा नहीं है कि उसका दमन किया गया, नहीं । वह तो बस तिरोहित हो जाती है । जब दो प्रेमी इतने गहने प्रेम में होते है कि प्रेम पर्याप्त होता है । और कामवासना बिलकुल गिर जाती है । तब दो प्रेमी समग्र एकत्व में होते है । क्योंकि कामवासना, विभक्त करती है । अंग्रेजी का शब्द ‘सेक्स’ तो आता ही उस मूल से है जिसका अर्थ होता है, विभेद । प्रेम जोड़ता है; कामवासना भेद बनाती है । कामवासना विभेद का मूल कारण है । जब तुम किसी व्यक्ति के साथ कामवासना की पूर्ति करते हो, स्त्री या पुरूष के साथ, तो तुम सोचते हो कि सेक्स तुम्हें जोड़ता है । क्षण भर को तुम्हें भ्रम होता है एकत्व का, और फिर एक विशाल विभेद अचानक बन आता है । इसीलिए प्रत्येक काम क्रिया के पश्चात एक हताशा, एक निराशा आ घेरती है । व्यक्ति अनुभव करता है कि वह प्रिय से बहुत दूर है । कामवासना भेद बना देती है । और जब प्रेम ज्यादा और ज्यादा गहरे में उतर जाता है तो और ज्यादा जोड़ देता है तो कामवासना की आवश्यकता नहीं रहती । तुम इतने एकत्व में रहते हो कि तुम्हारी आंतरिक ऊर्जाऐं बिना काम के मिल सकती है ।<br />
<span style="color: purple;">जब दो प्रेमियों की कामवासना तिरोहित हो जाती है तो जो आभा उतरती है तुम देख सकते हो उसे । वह दो शरीरों की भांति एक आत्मा में रहते है । आत्मा उन्हें घेरे रहती है । वह उनके शरीर के चारों और एक प्रदीप्ति बन जाती है । लेकिन ऐसा बहुत कम घटता है । लोग कामवासना पर समाप्त हो जाते है । ज्यादा से ज्यादा जब इकट्ठे रहते है । तो वे एक दूसरे के प्रति स्नेहपूर्ण होने लगते है, ज्यादा से ज्यादा यही होता है । लेकिन प्रेम कोई स्नेह का भाव नहीं है, वह आत्माओं की एकमायता है, दो ऊर्जाऐं मिलती है । और संपूर्ण इकाई हो जाती है ।</span> जब ऐसा घटता है, केवल तभी प्रार्थना संभव होती है । तब दोनों प्रेमी अपनी एकमायता में बहुत परितृप्त अनुभव करते है । बहुत संपूर्ण कि एक अनुग्रह का भाव उदित होता है । वे गुनगुनाना शुरू कर देते है प्रार्थना को । - ओशो<br />
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<span style="color: red;">बाधामुक्त होकर धन-पुत्रादि की प्राप्ति के लिये</span><br />
सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वित: ।<br />
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय: ॥ ( अ॰ 12, श्लो॰ 13 )</div>
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