11 जनवरी 2016

एक गधे की कब्र

 एक फकीर किसी बंजारे की सेवा से बहुत प्रसन्‍न हो गया । और उस बंजारे को उसने एक गधा भेंट किया । बंजारा बड़ा प्रसन्‍न था । गधे के साथ, अब उसे पैदल यात्रा न करनी पड़ती थी । सामान भी अपने कंधे पर न ढोना पड़ता था ।
और गधा बड़ा स्‍वामीभक्‍त था । लेकिन एक यात्रा पर गधा अचानक बीमार पङा और मर गया ।
दुःख में उसने उसकी कब्र बनायी और कब्र के पास बैठकर रो रहा था कि एक राहगीर गुजरा ।
उस राहगीर ने सोचा कि जरूर किसी महान आत्‍मा की मृत्‍यु हो गयी है । तो वह भी झुका कब्र के पास । इसके पहले कि बंजारा कुछ कहे । उसने कुछ रूपये कब्र पर चढ़ाये ।
बंजारे को हंसी भी आई आयी । लेकिन तब तक भले आदमी की श्रद्धा को तोड़ना भी ठीक मालूम न पङा । और उसे यह भी समझ में आ गया कि यह बड़ा उपयोगी व्‍यवसाय है ।
फिर उसी कब्र के पास बैठकर रोता, यही उसका धंधा हो गया । लोग आते । गांव गांव खबर फैल गयी कि किसी महान आत्‍मा की मृत्‍यु हो गयी । और गधे की कब्र किसी पहुंचे हुए फकीर की समाधि बन गयी । 
ऐसे वर्ष बीते । वह बंजारा बहुत धनी हो गया ।
फिर एक दिन जिस सूफी साधु ने उसे यह गधा भेंट किया था । वह भी यात्रा पर था और उस गांव के करीब से गुजरा ।
उसे भी लोगों ने कहा - एक महान आत्‍मा की कब्र है यहाँ, दर्शन किये बिना मत चले जाना ।
वह गया । देखा उसने इस बंजारे को बैठा । तो उसने कहा - किसकी कब्र है यहाँ, और तू यहाँ बैठा क्‍यों रो रहा है ।
उस बंजारे ने कहा - अब आपसे क्‍या छिपाना । जो गधा आपने दिया था । उसी की कब्र है । जीते जी भी उसने बड़ा साथ दिया । और मर कर और ज्‍यादा साथ दे रहा है । 
सुनते ही फकीर खिलखिला कर हंसने लगा । 
उस बंजारे ने पूछा - आप हंसे क्‍यों ?
फकीर ने कहा - तुम्‍हें पता है । जिस गांव में मैं रहता हूँ । वहाँ भी एक पहुँचे हुये महात्‍मा की कब्र है । उसी से तो मेरा काम चलता है ।
बंजारे ने पूछा - वह किस महात्‍मा की कब्र है । तुम्‍हें मालूम है ?
उसने कहा - मुझे कैसे नहीं, पर क्‍या आपको मालूम है । नहीं मालूम हो सकता । वह इसी गधे की मां की कब्र है ।
धर्म के नाम पर अंधविश्‍वासों का बड़ा विस्‍तार है । धर्म के नाम पर थोथे, व्‍यर्थ के क्रियाकांडों, यज्ञों, हवनों का बड़ा विस्‍तार है । फिर जो चल पड़ी बात, उसे हटाना मुश्‍किल हो जाता है । 
जो बात लोगों के मन में बैठ गयी । उसे मिटाना मुश्‍किल हो जाता है । और इसे बिना मिटाये 
वास्‍तविक धर्म का जन्‍म नहीं हो सकता । अंधविश्‍वास उसे जलने ही न देगा ।
सभी बुद्धिमान व्‍यक्‍तियों के सामने यही सवाल थे । और दो ही विकल्‍प है ।
एक विकल्‍प है नास्‍तिकता का, जो अंधविश्‍वास को इंकार कर देता है । और अंधविश्‍वास के साथ साथ धर्म को भी इंकार कर देता है । क्‍योंकि नास्‍तिकता देखती है । इस धर्म के ही कारण तो अंधविश्‍वास खड़े होते हैं । तो वह कूड़े करकट को तो फेंक ही देती है । साथ में उस सोने को भी फेंक देती है । क्‍योंकि इसी सोने की वजह से तो कूड़ा करकट इकठ्ठा होता है ।
न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी । ओशो ।
( जिन सूत्र - भाग 2, प्रवचन 3 )

ब्रह्म को अन्य की भांति लेना उपनिषदों के लिए असत्य है । नहीं कि दूसरा ब्रह्म नहीं है । सभी कुछ ब्रह्म है । दूसरा भी ब्रह्म ही है । लेकिन उपनिषद कहते हैं कि यदि तुम उसे अपने भीतर अनुभव नहीं कर सकते । तो उसे बाहर अनुभव करना असंभव है । क्योंकि निकटतम स्रोत भीतर है । बाहर तो बहुत दूर है । और यदि निकटतम नहीं जाना गया । तो तुम दूर को कैसे जान सकते हो ? यदि तुम उसे अपने भीतर ही महसूस नहीं कर सकते । तो तुम उसे दूसरों के भीतर कैसे महसूस कर सकते हो ? यह असंभव है ।
इसलिए पहली बात - उपनिषदों के लिए कोई प्रार्थना नहीं है । केवल ध्यान है । प्रार्थना दो के बीच संबंध है । जैसे कि प्रेम । ध्यान संबंध नहीं है दो के बीच । यह समर्पण की भांति है । ध्यान भीतर जाना है । स्वयं का स्वयं के प्रति समर्पण है । परिधि को नहीं पकड़ना है । बल्कि भीतर गहरे में केंद्र पर उतरना है । और जब तुम अपने केंद्र पर हो । तो तुम उसी में हो - तत ब्रह्म ।
दूसरी बात - जब उपनिषद उसे ‘वह’ कह कर पुकारते हैं । तो इसका अर्थ है कि वह स्रष्टा नहीं है । बल्कि वह सृजन है । क्योंकि जैसे ही हम कहते हैं कि ईश्वर स्रष्टा है । हमने उसे व्यक्ति बना दिया । और न केवल हमने उसे व्यक्ति बना दिया । हमने अस्तित्व को दो में बांट दिया - स्रष्टा और सृजन । द्वैत आ गया । उपनिषद कहते हैं कि - वह सृजन है । अथवा अधिक ठीक होगा कहना कि वह सृजनात्मकता है । सृजन की शक्ति है ।

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