31 जनवरी 2012

भक्ति में भी चमचागीरी का बोलवाला

राजीव भाई को ... हार्दिक बधाई । एक सच्चे गुरु से जुड़ने । और निज ज्ञान को । हम जैसे अभी तक निगुरों में बाँटने की । इसके साथ ही कोटिश: प्रणाम । ज्ञात हो द्वैत और अद्वैत में भेद की बात आप बताते हैं । पर मुझे तो इनमें कोई विशेष अन्तर दिखाई नहीं देता । द्वैत ( संसार ) में भी चमचागिरी करने वाले फलीभूत हो रहे हैं । और अद्वैत ( परमात्मा के राज ) में भी भक्ति का ही बोलबाला है । इसी तरह यहाँ भी दलालों के माध्यम से सब काम सुगमता से निपट जाते हैं । और वहां पर भी गुरुओं का ही साम्राज्य है ।
कृपा करके द्वैत और अद्वैत में इन समानताओं के अलावा कोई भेद हो । तो बताने की कृपा करेंगे ।
बहुत पहले अपनी तुच्छ समझ से गुरु के सम्बन्ध में कुछ विचार एक डायरी में मैंने कलमबंद किये थे । उसके कुछ अंश आपको भेज रहा हूँ । कृपया नीर क्षीर विवेक द्वारा मुझे अच्छी तरह समझाने का यत्न करेंगे । क्योंकि मन की गांठे इतनी आसानी से नहीं टूटती । पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार से हैं ।


तुम कहते हो । गुरु बिन ज्ञान नहीं । वे कहते हैं । हम स्वयं अपने गुरु हैं ।
आपमें से कौन सत्य कहता है ? कौन झूठ बोलता है ?
सच सिर्फ इतना है कि ज्ञान का सूर्य अहंकार के आवरण से ढका है ।
समर्पित कर दो अपने अहं को । किसी एक के चरणों में ।
उस एक को । चाहे तुम गुरु कहो । पुरषोत्तम कहो । या अंधकार को भगाने वाला सूर्य कहो ।
आवरण यदि हटा सकोगे । जिस किसी भी युक्ति से । तो पा जाओगे सूर्य को । ज्ञान के सूर्य को ।
मेरे एक परम मित्र थे । जो विचार धारा से साम्यवादी थे । और ईश्वर के अस्तित्व में उनका कोई विश्वास नहीं था । उनसे इस बारे में कई बार बहस भी होती थी । पर एक बात जो उनकी मुझे बहुत आकर्षित करती थी । वह ये कि अर्थशास्त्र के अच्छे ज्ञाता और नगर के प्रभावी व्यक्ति होते हुए भी उनमे गर्व का लेश मात्र भी कभी देखा नहीं गया । अब वे दिवंगत हो चुके । पर उनकी स्मृतियाँ अभी भी ताज़ी है । और उनके जीवन से मैंने ये जाना कि भले और सफल व्यक्तित्व के लिए ईश्वर वादी होना कोई जरुरी नहीं । इस सम्बन्ध में भी आपका मार्गदर्शन चाहूँगा । आशा है । आप मुझे निराश नहीं करेंगे । और मेरी जिज्ञासाओं का समुचित समाधान करेंगे ।
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UP में एक बङी मजेदार कहावत है - दे मढी में आग बाबा दूर भये । इसका मतलब होता है कि कहीं पर दस बीस 


व्यक्ति प्रेम से बातचीत कर रहे थे । तब किसी एक व्यक्ति ने कोई ऐसी बात छेङ दी । जिससे विवाद होने लगा । घमासान विवाद । और ये शुरू कराने वाला व्यक्ति पल्ला झाङकर खिसक गया । एक अन्य अर्थ में किसी व्यक्ति द्वारा कोई कार्य छेङ दिया गया । यानी उसमें दूसरों को उलझा दिया । और खुद नौ दो ग्यारह हुये ।
कुछ कुछ ऐसे ही होते हैं । आप सभी के प्रश्न । जिनका सामना मुझे प्रारम्भ से ही करना पङ रहा है । सोचिये एक बात । युगों युगों से जिस पर अरबों खरबों लोगों द्वारा निरन्तर शोध हो रहा है । तपस्या हो रही हैं । धार्मिक साहित्य का विविधता से पूर्ण भण्डार भरा पङा है । उसके बारे में कोई ठोस निर्णयात्मक अन्दाज में बात कहने से पहले । कोई तर्क रखने से पहले । उसके तुलनात्मक आपकी निजी योग्यता क्या है ? इस पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है । आपका जीव स्तर । और ईश्वर का ईश स्तर । क्या तुलना हो सकती है ? कविता में चन्द्रमा को चन्दा मामा कहा जाता है । जन मानस बहुत समय तक कहता रहा - बुङिया 


चरखा कात रही है । बैज्ञानिकों ने उसे जानकारियों सहित उपग्रह बताया ।
आज कोई बिज्ञान से अपरिचित व्यक्ति चन्द्रमा के बारे में कोई तथ्य बताये । उसकी बात का कोई महत्व होगा ? लेकिन अगर कोई बैज्ञानिक मौजूद तथ्यों से विपरीत भी कोई असंभव सी बात कहे । तो उसकी बात पर सभी गौर करेंगे । क्योंकि उसे बात कहने का अधिकार प्राप्त है । उसके शोध जानकारियों उपलब्धियों का इतिहास है ।
इसलिये मुझे बहुत हँसी आती है । जब अपनी ही कालोनी को भी ठीक से न जानने वाले विश्व के बारे में बङे विश्वास से बताते हैं । अपने ही घर को न संभाल पाने वाले । समाज को देश को संभालने का नारा देते हैं । आप अपने ही घर की बिजली ( बिज्ञान ) तक खराब होने पर ठीक नहीं कर पाते । और परमात्मा के ज्ञान बिज्ञान को जानने का दावा करते हैं । जिसमें अच्छे अच्छे धुरंधर सिर पटक कर चले गये । हाँ हमारे पास इसका एक समृद्ध इतिहास मौजूद न होता । ये प्रश्न आपने आदि मानव युग में किया होता । फ़िर कोई दिक्कत की बात नहीं थी । सोचिये । ये धर्म बिज्ञान क्यों लिखा गया है ?
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समर्पित कर दो अपने अहं को । किसी एक के चरणों में - किसके चरणों में करोगे ? कोई जान पहचान ? कोई नाम पता ठिकाना ? चलिये । आगरा में बहुत सी नामालूम सी बैंक खुली हैं । जो चार साल में पैसा दुगना करती हैं । जबकि स्थापित विश्वसनीय बैंक आठ साल में । डाल दीजिये । इसी में से किसी

एक में धन । डाल सकते हैं ? बहुत सी भाग भी चुकी हैं । लोग लुट कर हाय हाय कर रहे हैं । ऐसा कई बार हो चुका है । फ़िर भी खुद ही गर्दन कटवाने पहुँच जाते हैं ।
ऐसे ही आप जैसे कवि ह्रदय कोमल ह्रदय जब शरीरान्त के बाद काल कसाई के हाथों में पङते हैं । और वह तप्त शिला पर आपका चबैना भूनता है । तब चिल्लाते हैं - हमने तो तुझे ही समर्पण किया था । और वह एक ही बात कहता है - किस आधार पर ? उसके पीछे कोई ठोस वजह थी । कोई जानकारी थी ? या अन्धा समर्पण । मनमुखी समर्पण । ठीक यही बात ( जब रास्ते में जीवात्मा भूख प्यास और कष्ट की बात कहता है ) यमदूत भी कहते हैं - जो कुछ दान पुण्य़ करने का दावा करते हो । उसका कोई बिज्ञान था । या अपने मन से ही  धर्मात्मा

बन गये थे । बन गये थे । तो अब पता करो । वो सब कहाँ गया । यहाँ कोई लिखा पढी है ही नहीं उसकी । तेरा कोई खाता ही नहीं ।
सोचिये - आप मामूली सी 50 पैसे की टाफ़ी बच्चे को दिलवाते समय अच्छी बुरी सोचते हैं । आपकी पत्नी 2 रुपये का बैंगन खरीदते समय  50 उलट पलट निरीक्षण करती है । आपका नादान बच्चा भी दुकान में अपने लिये बङिया का चुनाव लर लेता है । इस हिसाब से भगवान और भक्ति की कीमत  50 पैसे भी नहीं मानी आपने । रद्दी के भाव भी तो नहीं कह सकता । वो भी 8 रुपया किलो है आजकल ।
खैर चलिये । अगले मेल तक चुन लीजिये । किसी एक को ? जिसको समर्पण करना चाहे ? मुझे सिर्फ़ उसका नाम बताईये । मैं आपको उसका प्रमाणित बायो डाटा बताऊँगा । समर्पण तो दूर । उसका नाम लेते भी कंपकंपी आ जायेगी ।
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और अद्वैत ( परमात्मा के राज ) में भी भक्ति का ही बोलबाला है - ये आपकी मिथ्या धारणा मात्र है । सच तो यह है । आप भक्ति शब्द का अर्थ भी नहीं जानते । आपने विभक्त शब्द सुना है । इसका मतलव होता है - अलग । जुदा । तब भक्त का सीधा अर्थ हुआ - जुङा हुआ । कनेक्टिड । यहीं पर योग और सहज योग का अन्तर भी समझ लें । द्वैत योग में प्राप्ति ( योग ) का मतलब होता है । ऊर्जा शक्ति का अपने योग और क्षमता अनुसार संग्रह कर लेना । जैसे विभिन्न उपयोग की बैटरी चार्ज करके ऊर्जा का संग्रह कर लेना । अब क्षमता का अर्थ है । जितनी ज्यादा और बङी बैटरी आप लेने की क्षमता रखते हैं । और फ़िर चार्ज करने की । यही कुण्डलिनी या द्वैत योग है ।
जबकि अद्वैत या सहज योग का मतलब है । उस अक्षय ऊर्जा स्रोत से ही कनेक्ट हो जाना । जिसके द्वारा ही सर्वत्र ऊर्जा का निरन्तर वितरण हो रहा है । और जाहिर है । द्वैत हो या अद्वैत । ऊर्जा की प्राप्ति बिना गुरु ( ज्ञान ) के नहीं हो सकती । और बाद में उसका उपयोग भी । यहाँ गुरु का अर्थ किसी व्यक्ति विशेष से करने के बजाय ज्ञान से करें । क्योंकि किसी भी ऊर्जा के उपयोग दुरुपयोग हेतु भी ज्ञान अति आवश्यक है ।
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इसी तरह यहाँ भी दलालों के माध्यम से सब काम सुगमता से निपट जाते हैं - एक स्थापित सत्य है कि आँखों

पर जिस रंग का चश्मा पहन लो । दुनियाँ वैसी ही नजर आने लगती है । दलालों की उत्पत्ति किसने की ? उनको पोषण कौन देता है ? दलाल शब्द वैश्यावृति के लिये बहुत प्रसिद्ध है । और जाहिर है । इसको नीचता की उपाधि मिली है । लेकिन फ़िर जो इनके माध्यम से वैश्या के पास जाते हैं । वो कौन होते हैं ? नाली के कीङे ।
लेकिन ये लिखते समय भी आपने परिपक्वता का परिचय नहीं दिया । दलाल - क्या वो मुफ़्त में कार्य करवायेगा ? दलाल - क्या वो नियम के विपरीत कार्य करवा सकता है ? अब बात वहीं आ जाती हैं । आप दलाल को अतिरिक्त फ़ीस दे रहें हैं । कार्य की नियम अनुसार फ़ीस दे रहें हैं । और फ़िर भी कार्य नियम से ही हो रहा है । तेरी सत्ता ( मर्जी ) के बिना । हिले ना पत्ता । खिले ना एक हू फ़ूल । हे मंगल मूल ।
तो आपको मेहनत और अतिरिक्त धन ( दलाल को ) तो फ़िर भी देना पङा । फ़िर सुगमता किस बात की ? मुझे बङी हैरानी और अफ़सोस भी है । जब भारतवर्ष का 60 वर्षीय व्यक्ति ऐसी नासमझी की बात कहता है - इसी तरह यहाँ भी दलालों के माध्यम से सब काम सुगमता से निपट जाते हैं । और वहां पर भी गुरुओं का ही साम्राज्य है । कृपा करके द्वैत और अद्वैत में इन समानताओं के अलावा कोई भेद हो । तो बताने की कृपा करेंगे ।
क्या जानते हैं । आप वहाँ के बारे में ? क्या अनुभव है आपको । इस बात के पीछे क्या आधार है ? क्या आपके 60 


वर्षीय जीवन में सूर्य एक मिनट भी अपनी डयूटी से टस से मस हुआ ? चन्द्र । मंगल आदि बृह्माण्डीय गतिविधियों में कोई मनमानी देखी । नदियाँ । वृक्ष । सागर । प्रथ्वी भयभीत से कितनी मुस्तैदी से डयूटी कर रहे हैं । इतना सख्त नियम है उसका कि महा शक्तियाँ भी अवज्ञा की सोच कर ही थरथरा उठती हैं । और ये तब है । जब उसे किसी से कोई मतलब नहीं । और उसके दर्शन ( इन महाशक्तियों को ) तक इनको कभी नहीं होते । फ़िर आपकी बात का कोई आधार ही नहीं । उसकी वजह सिर्फ़ अज्ञानता ही है ।
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कृपा करके द्वैत और अद्वैत में इन समानताओं के अलावा कोई भेद हो । तो बताने की कृपा करेंगे - बात वही है । आपने तो सिर्फ़ एक लाइन लिख दी । लेकिन लिखते समय तनिक भी विचार करने की आवश्यकता नहीं समझी । चलिये । मैं उलट कर आपसे पूछता हूँ । मेरे सभी ब्लाग्स में क्या लिखा है ? क्या आपने उसको ठीक से पढा है ? ध्यान रहे । ये प्रश्न मैं 60 वर्ष के व्यक्ति से कर रहा हूँ । अगले मेल में खास खास बिन्दु बतायें
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ईश्वर के अस्तित्व में उनका कोई विश्वास नहीं था । उनसे इस बारे में कई बार बहस भी होती थी । पर एक बात जो उनकी मुझे बहुत आकर्षित करती थी । वह ये कि अर्थशास्त्र के अच्छे ज्ञाता और नगर के प्रभावी व्यक्ति होते हुए भी उनमे गर्व का लेश मात्र भी कभी देखा नहीं गया - गौर से देखिये । 


अपने ही इन शव्दों को । मुझे बहुत हँसी आयी । ये इंसान सर्वोच्च अहंकारियों में से एक थे । और आप उनके अनुसरण कर्ता । एक साम्यवादी होना । वर्गीय अहंकार । साम्यवाद कोई स्थापित सिद्धांत नहीं । कोई ऐसा श्रेष्ठ समूह संगठन भी नहीं । जिसने उच्च विचार धारा का इतिहास रचा हो । कोई क्रांति की हो । कोई कीर्तिमान बनाया हो । मेरे निजी विचार से साम्यवाद एक खोखली सोच मात्र है । सच तो ये है । समाज में बहुत दूर की बात । देश में और भी दूर । एक घर में साम्यवाद नहीं चल सकता । कभी नहीं । नेवर । क्यों ? देखिये अपने आसपास । और मंथन करिये ।
लेकिन छोङिये । ये बहुत छोटा सा अहंकार था । अपने ही शब्द फ़िर से देखें - अर्थशास्त्र के अच्छे ज्ञाता । जाहिर है । आप उन्हें करीब से जानते थे । तब आप ये लिखते कि - ईश्वर विषय के अच्छे ज्ञाता । होने के बाबजूद  - ईश्वर के अस्तित्व में उनका कोई विश्वास नहीं था । तब बात विचारणीय थी । लेकिन 


इस मामले में तो वे 0 बटा 0 थे । अगर कुछ ‍% होते । तो वो महत्वपूर्ण तथ्य आपको बताते । और आपने निश्चय ही इसी मेल में उन्हें लिखा भी होता । अरबों धर्म बैज्ञानिकों के प्रमाणित शोध को उस स्थिति में नकारना । जबकि खुद को उसकी A B C D भी नहीं मालूम । विनमृता की गजब परिभाषा है ।
मुझसे बहुत से लोग कहते हैं कि - वह बहुत सज्जन है । विनमृ है । मैं कहता हूँ । किसी पर अहसान कर रहे हैं । झगङा करना । पंगा लेना । उनके बस की बात ही नहीं है । तब आप ही विनमृ हो जायेंगे । रास्ता चलते ऐसे विनमृ लोगों की पत्नी बहन बेटियों को देखकर अराजक तत्व अश्लील फ़िकरे कसते हैं । ऊल जुलूल हरकतें करते हैं । बहन बेटी अपमानित होकर रह जाती है । और विनमृ सिर झुकाये चले जाते हैं । जैसे पता ही न हो । इतने ज्यादा विनमृ हैं ? बताईये किस काम की ऐसी विनमृता ? इसलिये हर चीज समय अनुसार आवश्यक है । अहंकार । झगङा । शान्ति । सज्जनता । विनमृता । सभी उपयोगी हैं ।

26 जनवरी 2012

आध्यात्मिक जागरण

आरती सदगुरु देव नमामी । पारबृह्म सब जग के स्वामी ।
विधि हरि हर तुम्हरो यश गावे । शेष शारदा तुमको ध्यावे ।
राम कृष्ण गुरु के गुण गावे । जय शिवानन्द परधामी ।
भव के संकट तारन हारे । काल कर्म गति नाशन हारे ।
आये शरण तुम्हारे द्वारे । अलख अगोचर अगम अनामी ।
श्री गुरु चरण कमल की छाया । जाकी शरण जीव जो आया ।
करते दूर ताप त्रिय माया । करो दया गुरु अन्तर्यामी ।
सत्य नाम गुरु हमको दीना । चंचल मन निश्चल कर दीन्हा ।
पायो ज्ञान मोक्ष पद लीन्हा । परम भक्ति पद के अनुगामी ।
निशि दिन आरत करों तुम्हारी । सुन लीजे गुरु विनय हमारी ।
कहते सच्चिदानन्द पुकारी । बारम्बार सदगुरु देव नमामी ।

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कहते हैं । हर कार्य के लिये कोई न कोई निमित्त बन जाता है । जैसे ये सदगुरु देव जी की आरती । हमारे मण्डल के सदस्य विष्णु इसके निमित्त बन गये । वरना अभी तो दूर दूर तक मेरे ख्याल में आरती की बात नहीं थी । हमारे यहाँ के शिष्यों के लिये तो ये आरती लाभदायक है ही । अन्य दीक्षा प्राप्त या निगुरा जनों के लिये भी विशेष लाभकारी है । क्योंकि सभी सार्थक शब्द मन्त्र की भांति ही कार्य करते हैं । और स्थूल आवरण से बँधा जीव । स्थूल जगत से 


मोहित हुआ जीव सूक्ष्म ज्ञान को इतनी जल्दी आंतरिक रूप से गृहण नहीं कर पाता । तब शब्दों में बँधे भाव उसके लिये विशेष लाभकारी होते हैं । क्योंकि उन पर उनका विश्वास ज्यादा रहा है । और ऐसे ही स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर यात्रा भी शुरू हो जाती है ।
अक्सर बहुत लोग मुझसे पूछते रहे कि सदगुरु की खोज । सदगुरु की पहचान कैसे करें ? उनके लिये भी ये आरती एक अच्छा उपाय है । आप पूर्ण भक्ति भाव से इस आरती को गायें । और आत्मज्ञान के किसी भी सन्त का चित्र सामने रखें । कबीर साहब । रैदास जी । मीरा जी । रामकृष्ण परमहँस । स्वामी विवेकानन्द आदि इनमें से किसी का भी चित्र लगा लें । हमारे मण्डल के शिष्यों को इनकी कोई आवश्यकता ही नहीं । वे श्री महाराज जी का ही चित्र लगाये । क्योंकि अपने गुरु या समय के सदगुरु का ही महत्व होता है । अन्य लोगों के लिये विकल्प मैंने इसलिये दिया । क्योंकि लोगों में अभिमान बहुत होता है । लेकिन वे भी यदि हमारे प्रति भाव रखते हों । फ़िर कोई दिक्कत नहीं । वे आराम से श्री महाराज जी का चित्र प्रार्थना आरती ध्यान आदि के लिये लगा सकते हैं । इसके लिये आप श्री महाराज जी का जो भी चित्र अच्छा लगे । उस पर राइट क्लिक करके सेव इमेज एज.. आप्शन द्वारा चित्र को कम्प्यूटर में सेव कर लें । फ़िर पेन  ड्राइव आदि में डालकर प्रिंट निकलवा लें । जव तक संस्कारवश आपकी कहीं सतनाम दीक्षा नहीं हो पाती । यह क्रिया कुछ न होने की अपेक्षा बहुत लाभदायक है । हमारे बहुत से सदस्य जो भारत के विभिन्न स्थानों में थे । और परिस्थियों वश दीक्षा नहीं ले 


पा रहे थे । उनके आग्रह को देखते यही ध्यान दे दिया गया । इससे उन्हें दीक्षा के समय भी लाभ हुआ । और पूर्व में भी ।
इसी जिक्र पर मुझे एक घटना याद आ गयी । एक शिक्षिका जो हमारे यहाँ शिष्य हैं । वे चाहती थी कि उनके विधालय में श्री महाराज जी का एक चित्र हो । पर समस्या ये थी । दूसरा प्रधानाचार्य रिजर्व नेचर और हनुमान जी का भक्त था । वह विरोध कर सकता था । तव उन्हें एक उपाय सूझा । उन्होंने श्री महाराज जी और हनुमान जी का एक एक चित्र फ़्रेम कराया । और टेबल पर ले जाकर रख दिया । इससे वह प्रधानाचार्य बहुत खुश हुआ । और बोला - अब इनके लिये धूपबत्ती आदि भी तो लाओ । केवल फ़ोटो से क्या ।
शिक्षिका बहुत प्रसन्न हुयी । और धूपबत्ती के पैकेट भी ले जाकर रख दिये । इसीलिये मैं कहता हूँ । निमित्त कब कौन बन जाये । चमत्कार कैसे हो जाये । कुछ कहा नहीं जा सकता । वह प्रधानाचार्य वहीं पास से विधालय आता था । जबकि शिक्षिका लगभग 30 km से । जाहिर है । प्रधानाचार्य समय से पहले ही पहुँच जाते थे । आम शिक्षकों से हटकर कर्तव्यनिष्ठा अनुशासन आदि गुण इन प्रधानाचार्य में 100% थे । इसका एक उदाहरण देना चाहूँगा । उनकी सगी जबान बेटी की मृत्यु हो गयी । लेकिन उसका अन्तिम संस्कार स्कूल समय से पूर्व ही हो गया । और कोई होता । तो उस दिन क्या अगले 4-6 दिन स्कूल नहीं जाता । लेकिन ये प्रधानाचार्य उसी दिन अन्तिम संस्कार के तुरन्त बाद स्कूल आये । उनके अनुसार जो जाना था सो गया । बच्चों की शिक्षा का नुकसान क्यों किया जाये । 


कर्तव्य पालन आवश्यक है ।
ये उदाहरण देना आवश्यक भी था । वह आप आगे जान जायेंगे । ये अध्यापक बच्चों के आने से पहले ही स्कूल पहुँच जाते थे । और विधालय शुरू होने तक अन्य कार्य देखते । अब ऐसे सच्चे इंसान के प्रति प्रभु की लीला और प्रेरणा का खेल देखिये । ये तो सीधी सी बात है । ऐसा इंसान स्नान करके ही विधालय आयेगा ।
वह धूप बत्ती नियम से लगाने लगे । और शायद कोई भाव पूजा प्रार्थना भी करते हों । पर अभी भी एक संशय की बात थी । उन शिक्षिका को ये पता नहीं था कि ये दोनों ही चित्रों पर पूजा करते हैं । या सिर्फ़ हनुमान जी के चित्र पर । क्योंकि उनके पहुँचने तक पुष्प धूपबत्ती आदि लग चुकी होती थी । फ़िर एक दिन इसका भी पता लग गया । जब शिक्षिका जल्दी पहुँच गयीं । प्रधानाचार्य जी धूपबत्ती जला ही रहे थे । वे छुपकर देखने लगी । प्रधानाचार्य ने पहले श्री महाराज जी के चित्र पर धूपबत्ती को घुमाया । फ़िर हनुमान जी के । गुरु गोविन्द दोऊ खङे काके लागों पांय । इसके बाद नतमस्तक प्रणाम किया ।
अब चमत्कार ये था कि कुछ ही दिनों में उनके स्वभाव में बदलाव होने लगा । आध्यात्मिकता झलकने लगी । एक शान्ति सी उनके मुख पर दिखाई देने लगी । बातचीत के ढंग में परिवर्तन आ गया । और इसीलिये मैं कहता हूँ । कभी कभी पुण्य के मार्ग बहुत सरल और सस्ते हो जाते हैं । उन शिक्षिका के दो फ़ोटो अधिकतम 60 रुपये कीमत  ( सिर्फ़ एक बार ) और एक महीने की धूपबत्ती अधिकतम 50 रुपये । लेकिन एक व्यक्ति में सकारात्मक बदलाव हो गया । आध्यात्मिक जागरण ।
मगर बात इतनी ही नहीं । स्कूल लगभग रोज ही आना है । गौर से सोचिये । प्रधानाचार्य रोज स्नान करके आते

ही थे । सुबह सुबह कर्तव्य पालन के साथ साथ प्रतिदिन भक्ति पूजा भी होने लगी । और ये बात कोई छोटी बात नहीं हैं । कर्मपूजा आरम्भ होने से पूर्व ईश पूजा की तरंगे वातावरण में फ़ैल गयी । फ़िर उसी भाव से पूरा दिन गुजरा । शिक्षण कार्य उसी भावना में हुआ । जाहिर है । ऐसा व्यक्ति बच्चों में अच्छे संस्कार डालेगा । फ़ुरसत के क्षणों में आध्यात्मिक चर्चा के प्रति रुझान गया । अगर ध्यान से सोचें । तो उन प्रधानाचार्य का शेष पूरा जीवन ही उस शिक्षिका की संगति से बदल गया । संगति ही गुण ऊपजे । संगति ही गुण जाये । बांस फ़ांस और मिसरी एक ही भाव बिकाय ।
जबकि शायद उस शिक्षिका को भी पहले ये बोध न रहा होगा । मात्र अपने गुरु का चित्र लगाने की चाह इतना बङा परिवर्तन कर सकती हैं । पर मुझे इसका फ़ल पता है । थोङा समझने पर आप भी अन्दाजा लगा सकते हैं । यदि प्रधानाचार्य दस साल भी भक्ति कर गये । या आजीवन उनकी भक्ति भावना प्रगाङ होती चली गयी । तो उन्हें बहुत कुछ प्राप्त हो  जायेगा । और ये मैं कई बार बता चुका हूँ । किसी की भी आत्मिक उन्नति कराने का सभी पुण्यकर्मों से बङा फ़ल होता है । इस तरह उस शिक्षिका को अनजाने में ही कितना बङा लाभ हुआ । इसकी आप कल्पना भी नहीं  कर सकते । जबकि कर्म और व्यय नगण्य सा ही था । मान लीजिये । वो 2 महीने तक आध्यात्मिक चर्चा करके इसी स्थिति तक प्रधानाचार्य की मानसिकता बना पाती कि वो नित्य पूजा बत्ती आदि करें । तो भी  इतना ही फ़ल होता । जबकि मामूली से जतन से हो गया । इसीलिये भक्ति में बहुत शक्ति है । भक्ति स्वतन्त्र सकल सुख खानी । बिनु सतसंग न पावहि प्रानी ।
- आप सबके अंतर में विराजमान सर्वात्मा प्रभु आत्मदेव को  मेरा सादर प्रणाम ।

21 जनवरी 2012

महाराज जी ! मन में अकुलाहट होती है

67 प्रश्न - महाराज जी ! मन में अकुलाहट होती है । और अन्दर में मालिक का दर्शन और ऊपर के मण्डलों में रसाई में देर लग रही है । यह काम जल्दी कैसे हो ?
उत्तर - साधक जिज्ञासुओं को आन्तरिक अभ्यास के मामले में जल्दबाजी नहीं करना चाहिये । मालिक का भजन, ध्यान करते हुए बराबर प्रयत्नशील रहना चाहिये । शान्ति के साथ भजन, ध्यान के तार को बराबर मालिक से जोडे रखना चाहिये । जिज्ञासु का काम तो परमार्थ के पथ पर चलकर उस आध्यात्मिक योग विधा की प्राप्ति करना है । जो संसार की सारी विधाओं का मूल है । यदि इस काम में निरन्तर यत्नशील रहता है । तो यह आध्यात्मिक योग विधा जल्दी प्राप्त हो सकती है । यह तो बडी भारी दया सन्त सदगुरू देव जी महाराज की तथा परम पिता परमेश्वर की समझनी चाहिये कि वे इतनी थोडी मेहनत पर भी अपने अहैतुकी कृपा का बल देते हैं । यदि साधक अपने लगन में पक्का है । तो उस पर श्री सदगुरू देव जी महाराज अपने दया का हाथ बराबर लगाये रखते हैं । और आध्यात्मिक शीतलता, निर्मलता और प्रेम की रीति सदा अन्दर में जगाये रखते हैं । श्री सदगुरू देव जी महाराज ही तो आध्यात्मिक मण्डलों का ताला खोलने की कुन्जी हैं ।
गुरू कुन्जी जो बिसरे नाहीं । घट ताला छिन में खुल जाहीं । ताते शब्द किवाड । खोलो गुरू कुन्जी पकडाही ।
श्री सदगुरू देव जी महाराज के भजन, सुमिरन और ध्यान का अभ्यास बहुत ही सरल है । परन्तु जिज्ञासु के मन का बहाव संसारी होने के कारण अभ्यास करने वाले साधक थोडी कठिनाई अनुभव करते हैं । अभ्यासी को चाहिये कि सच्चे

मन से अपने इन्द्रियों को सांसारिक विषयों से हटाये । और जो लगन संसार की तरफ़ लगी है । उसे धीरे धीरे हटाता यानी छोडता जाय । और श्री सदगुरू देव जी महाराज के श्री चरणों में जोडता जाय । इस काम में सदा सतर्क रहकर अपने सुरत को श्री सदगुरू देव जी महाराज के भजन । ध्यान । सेवा । पूजा । दर्शन तथा आरती पूजा से जोडे रखे । इस काम में बराबर सतर्कता बनाये रखे । ताकि मन कहीं संसारी कामनाओं के भुलावे में न जाने पाये । जो तरंगे संसार की विषय वासनाओं की तरफ़ ले जाती है । और जो भजन, सुमिरन, ध्यान में बाधा पहुंचाती है । उन्हें रोके । और परमार्थ पथ पर चलने के लिये सदा प्रेरित करता रहे । तथा उन्हें प्रोत्साहित करता रहे ।
अपने मालिक से विनती करता रहे कि हे मालिक ! मैं आपसे यही बखशीश मांगता हूं कि मुझे अपने दासों का दास बना लें । मुझे गुरू का दास बना दें । यदि ऐसा हो गया । तो बाकी क्या रहा ? कुछ भी नहीं । गुरू की दया से सब कुछ मिल गया ।
हे मालिक आपसे यही । बख्शीश मांगता हूं । बना लो दास अपने चरणों का । यही आशीष चाहता हूं ।
सतगुरू सांचा दरबार आपका । होती हैं पूरी मुरादें जहां । जो द्वार पे आके फ़ैलाता । भरता है दमन उसका यहां ।
68  प्रश्न - महाराज जी ! यह तो समझ में आया कि भजन का अभ्यास ही शान्ति का खजाना है । और ऊपर के आध्यात्मिक मण्डलों में प्रवेश का एकमात्र उपाय है । परन्तु अभ्यास के समय मन की तरंगे और तरह तरह के भुलावन एक रस अभ्यास नहीं होने देते । हे प्रभु ! ये तरंगे कैसे रूकें ? रूक जायें । तो भजन में रस मिलने लगे ।
उत्तर - मन का तो ऐसा स्वभाव ही है कि वह हाव भाव, तडक भडक तथा कंचन कामिनी यानी हर समय विषय

चिन्तन में डूबा रहता है । संसारी सारी बातें बराबर सोचा करता है । सोते जागते हर वक्त यही बातें सोचता रहता है । इससे ऊपर उठकर कुछ अपने जीवन के कल्याण की बात को सोचना चाहिये कि मुझे मनुष्य शरीर केवल खाने, पीने और विषय वासना में आसक्त रहने के लिये नहीं मिला है । मिला तो है कि मन के अन्दर आध्यात्मिकता को जगाकर किसी योग्य सदगुरू को खोज कर उनसे नाम दान लेकर भजन, सुमिरन, ध्यान कर करके आध्यात्मिकता या रूहानियत के प्रति प्रगतिशील हो जाय । यही जीवन का उद्देश्य है । श्री सदगुरू देव जी महाराज के मुखारविन्द से उनकी अमृतमयी वाणी को सुन सुनकर और उनके बताये हुए नाम मन्त्र का नित्य और नियमित भजन, सुमिरन और ध्यान करने से अभ्यासी में ऐसी योग्यता अपने आप आ जाती है कि वह अपने मन की चाल पर निगाह रख सके । अर्थात अपनी आदत या अपने कर्मों की निरख परख सदा करने लगे । मालिक से दया की भीख की याचना करते रहना चाहिये । जब जब सांसारिक हिलोंरे मन के अन्दर उठती हुई दिखाई पडें । तो तुरन्त मालिक के भजन, सुमिरन और मालिक के ध्यान में मन को लगाना चाहिये । ऐसा करने से मन का भाव इन्द्रिय सुखों को छोडकर मालिक के भजन, सुमिरन, सेवा, पूजा, दर्शन, ध्यान में मग्न होकर प्रभु प्रेम के रस में विभोर हो जाता है । और सांसारिकता से बच जाता है ।
नाम के भजन, सुमिरन का रस तथा सदगुरू के स्वरूप के ध्यान का रस जिस विधि से श्री सदगुरू देव जी महाराज ने बताया हो । उस विधि से पाप्त करना चाहिये । शब्द

का आन्तरिक भजन, सुमिरन, ध्यान करने से साधक सहसदल कमल पर पहुंच कर श्री सदगुरू देव जी महाराज की दया से अमृत सरोवर में स्नान पान कर करके आगे के मण्डलों पर पहुंच जाता है । ऊंचे के मण्डलों पर जाने में इतना आनन्द आता है । यानी आकर्षण होता है कि यदि मन को पूरी तरह से भजन, सुमिरन, ध्यान, सेवा, पूजा, दर्शन में लगा दिया जाय । तो वह आनन्द मन की धार को संसार की ओर हटाकर अपनी तरफ़ खींच लेता है । मालिक के भजन, सुमिरन और ध्यान का सुरत को जैसे जैसे आनन्द या रस मिलता जायेगा । वैसे वैसे सुरत की धार आगे की तरफ़ यानी ऊपरी मण्डलों की तरफ़ बढती चली जायेगी । और जितनी देर वह जिस मुकाम पर ठहरेगी । उतना ही उसे रस या आनन्द खूब मिलता जायेगा ।
इस प्रकार अभास करने से सुरत का रूझान पूरी तरह से सांसारिक सुख छोडकर ऊपर की ओर हो जाता है । जिससे ऊंचे के मण्डलों के चढाई आसानी से चढी जा सकती है । यह सब श्री सदगुरू देव जी महाराज की असीम दया का ही फ़ल है ।
श्री सदगुरू अति दया कर । दिया नाम का दान । जपे जो श्रद्धा भाव से । चढता जय असमान ।
त्रिकुटी में गुरूदेव का । करे जो गुरूमुख ध्यान । यम किंकर का भय नहीं । पावे पद निर्वान ।
69 प्रश्न - आपकी दया से जब जब थोडा सा भी भजन हो पाता है । तो लगता है कि भीतर की बैटरी चार्ज हो गई । परन्तु बाहरी कामों का उलझाव कभी कभी इतना अधिक बढ जाता है कि अभ्यास के लिये समय ही नहीं मिल पाता ।

उत्तर - अभ्यास के लिये समय की कमी नहीं होती । अपनी चाह या रूझान की कमी होती है । बहुत व्यस्त होने पर भी आदमी शौच, भोजन और निद्रा के लिये समय निकाल ही लेता है । इसी तरह भजन के अभ्यास के लिये भी समय निकाल सकता है । श्री स्वामी जी महाराज समझाते हुए कहते हैं कि भजन, सुमिरन, ध्यान करने के लिये समय निश्चित कर ले । भजन, ध्यान करने का समय तो हर दिन, हर घडी है । पर सवेरे का बृह्म मुहूर्त का समय सबसे अच्छा है । उस समय भजन, ध्यान करने से मन लगता है । और अन्दर में ध्यान भी जमने लगता है । भजन, ध्यान में बैठने पर संसार के किन्हीं भी कामों का ख्याल मन में किसी भी प्रकार से नहीं आने देना चाहिये । अपने मन को हर वक्त श्री सदगुरू देव महाराज के भजन, ध्यान में बराबर लगाये रखें । ऐसा करने से भजन, ध्यान में रस मिलता है । मन दुनिया के ख्यालों से हटकर मालिक के श्री चरणों का भंवरा बन जाता है । अर्थात श्री सदगुरू देव महाराज के सम्मुख हो जाता है । प्रभु नाम के बिना सुख नहीं मिलता । और न ही आन्तरिक दुख दूर होता है ।
शारीरिक सुख के सामान तो संसार में बहुत हैं । परन्तु उनको प्राप्त करने पर आन्तरिक दुख तो दूर नहीं होता । आन्तरिक दुख तो तभी दूर होगा । और सच्चे सुख की प्राप्ति तभी होगी । जब साधक अपने अन्दर प्रभु के नाम को बसायेगा ।
जो साधक नियम पूर्वक प्रतिदिन भजन, सुमिरन, ध्यान का अभ्यास करते हैं । उनको आन्तरिक आनन्द का

अनुभव होने लगता है । और उनका चित्त प्रसन्न रहता है । कभी कभी ऐसा होता है कि भजन ध्यान में रस कुछ कम मिलता है । ऐसी स्थिति में अभ्यासी अपने चित्त में दुखी होते हैं । निराश होते हैं । जिस स्थिति में भजन व ध्यान में आनन्द व रस मिलता है । वह मालिक श्री सदगुरू देव जी महाराज की प्रत्यक्ष दया और कृपा है । परन्तु कभी कभी जब मन संसार की ओर जरा सा भी चला जाता है । तो भजन और ध्यान की प्रक्रिया बिगड सी जाती है । जैसे भजन बीच में टूट जाना । अन्दर में ध्यान का न आना शामिल है । उसको भी अपनी कमजोरी समझें । और मालिक से दया की याचना करे कि - हे मालिक ! मेरी कमी पर ध्यान न देकर मेरी गलती को सुधारने की दया करें। हे मालिक ! जो आनन्द व रस भजन ध्यान में मिल रहा था । वह उस समय रूक गया है । जिसकी वजह से मेरा आध्यात्मिक हास हो रहा है । ऐसा मन में लगता है कि हमारे लोक और परलोक के मालिक आप ही हैं । और आपके समान दयावान दूसरा कोई नहीं है । हे प्रभु ! मेरा भटकाव दूर करके मुझे सुमिरन, ध्यान के रास्ते में लगा लें ।
70  प्रश्न - महाराज जी ! आपकी कृपा से जब साधना का कृम नियमित रूप से चलता रहता है । तो भजन, ध्यान में खूब रस और आनन्द आता है । फ़िर कभी यह रस और आनन्द मिलना बन्द हो जाता है । और चित्त डावांडोल हो जाता है । इसका क्या कारण है ?
उत्तर - भजन और ध्यान में रस तथा आनन्द न आने के तीन कारण हो सकते हैं । पहला कारण है । कुसंग का

प्रभाव । यह प्रभाव दुर्जनों, निपट संसारियों, निन्दकों के संग से होता है । ऐसे लोग परमार्थ के विरोधी होते हैं । धर्म परमार्थ की हंसी उडाते हैं । व्यंग्य कसते हैं । ताने मारते हैं । और सन्तों की निन्दा करते हैं । इन बातों को सुनकर अभ्यासी के मन में भृम पैदा हो जाता है । अभ्यास करते समय साधक के सामने वही कटु वचन, भृम सामने आते रहते हैं । जिसकी वजह से प्रेम में ग्लानि आती है । सुरत का चढाव नीचे गिर जाता है । अभ्यास में रस व आनन्द की जगह निराशा आती है ।
दूसरा कारण भी संग का ही प्रभाव है । जगह जगह की सैर । संसार की ओर आकर्षण । धनवानों । उच्चकोटि के अधिकारियों की संगति से मन में संसारी भोग पदार्थों की इच्छा की जाग्रति होती है । बडे बडे पदों की इच्छा मन में जागने लगती है । यश, सम्मान प्राप्त करने की इच्छा मन में जागते लगती है । किन्तु इस प्रकार की इच्छा की पूर्ति न होने पर मन सुस्त हो जाता है । वह मन में सोच सोच कर उदास और परेशान हो जाता है । मेरा मालिक परम पिता परमेश्वर तो अत्यन्त दयालु हैं । वह क्षण भर में जो चाहे, चाहे जिसको दे सकता है । फ़िर मुझे यह धन, मान, सम्मान 


और पद प्रतिष्ठा क्यों नहीं देता ? औरों की हालत सुनकर, पढकर अभ्यासी साधक के मन में किन्हीं विशेष प्रकार के भोगों की तीव्र प्रकार की अभिलाषा पैदा हो । तो ऐसी दशा में वह सुस्त और दुखी हो जाता है । वह सोचने लगता है कि मैं भोगों में लिप्त क्यों हुआ ? इन्द्रियों को भोगों में क्यों लिप्त होने दिया ? ऐसी स्थिति में उसका चित्त चलायमान हो जाता है । और वह परेशान हो जाता है ।
तीसरा कारण प्रारब्ध से सम्बन्धित है । पिछले जन्म के और वर्तमान के जन्म के कर्मों के फ़लस्वरूप कोई रोग, व्याधि अभ्यासी को स्वयं लग जाती है । अपनी बीमारी या अपने घनिष्ठ सम्बन्धी की चिन्ता के कारण उसके मन व सुरत भजन व ध्यान में भली भांति नहीं लगते । उस समय वह घबरा जाता है । और श्री सदगुरू भगवान के श्री चरणों मे आतुर होकर पुकार करता है कि - हे मालिक ! इन सभी व्याधियों से अब बचा लें । यदि उसका आर्तभाव देखकर मालिक के द्वारा उसकी प्रार्थना तुरन्त सुन ली गयी । तो उसकी सारी व्याधि समाप्त हो जाती है । और वह प्रसन्न होकर ह्रदय से प्रभु को धन्यवाद देता है । और भजन, सुमिरन, ध्यान पूरी लगन के साथ करने लग जाता है ।
यदि ऐसा करते करते उसके मन में किसी भी प्रकार की कोई कमी आ गई । तो उसका मन दुखी और उदास हो जाता है । मन में मालिक की तरफ़ से असन्तोष हो जाता

है । सोचने लगता है कि श्री सदगुरू भगवान ने मेरे कर्मों को क्यों नहीं काट ( समाप्त कर ) दिया । मेरी सहायता अपने तरफ़ से क्यों नहीं कर दिया । इसी के कारण मेरा मन भजन, सुमिरन, ध्यान के अभ्यास में नहीं लगता है । हे मेरे मालिक ! यदि आप मेरे ऊपर तुरन्त दया नहीं करेंगे । तो मेरे द्वारा किये हुए कर्म कैसे कटेंगे  । और कैसे मैं इस कलिकाल के दुखों से छुटकारा पा सकूंगा ? सन्तों ने इन कारणों के निवारण के लिये अनेकों उपाय बताये हैं । जिनमें से कुछ उपाय यहां दिये जा रहे हैं ।
कुसंग का प्रभाव इसलिये तुरन्त होता है कि साधक की भक्ति में अभी कच्चापन है । श्री सदगुरू देव जी महाराज के वचनों को ध्यान देकर नहीं सुनता है । तथा उन्हें याद नहीं करता । उनकी बातों को समझने की कोशिश नहीं करता । उसे यह चाहिये कि श्री सदगुरू देव जी महाराज के वचनों पर ध्यान पूर्वक विचार करे । भक्ति की रीति पर ध्यान देना चाहिये । और निन्दक की बातों को अपने ह्रदय में प्रवेश ही न करने देने का प्रयास करना चाहिये । इसके साथ साथ ऐसी बातें कहने वाले लोगों को अज्ञानी या विरोधी समझना । तथा अपने भाग्य को इसलिये सराहना चाहिये कि मैंने श्रीसदगुरू महाराज की शरण ग्रहण की है । और अधिक से अधिक लगन से भजन, सुमिरन, ध्यान, पूजा, दर्शन की साधना में लग जाना चाहिये । यह तो रही साधक के अपने अभ्यास के पुरूषार्थ की बातें ।
यदि वह अपने को निर्बल व नि:सहाय पाता है । और पुरूषार्थ भी करता है । किन्तु दृढतापूर्वक विचार नहीं कर पाता है । तो उसके लिये यह आवश्यक है कि भक्ति भाव पूर्वक

सन्तों की अमृतमयी वाणी का अध्ययन करे । इसके साथ साथ अपने दशा को अपने बडे श्रेष्ठ सतसंगी से या जो पुराने अभ्यासी हों । और इन कठिनाईयों से गुजर चुके हों । उनके सम्मुख रखें । और उनसे सहायता लेकर अपने भृम का निवारण करे । ऐसा देखा गय है कि इन उपायों को करने से अवश्य सहायता मिलती है ।
इसके साथ साथ सबसे सरल और उत्तम उपाय यह है कि सम्पूर्ण रूप से अपने आपको श्री सदगुरू देव जी महाराज के श्री चरणों में समर्पित करके ( चाहे वह थोडी ही देर के लिये क्यों न हो ) सम्पूर्ण लगन से दया के लिये प्रार्थना करे । रोये । और गिडगिडाये । इतना करने के बाद अवश्य ही दया बढेगी । और कठिनाई दूर हो जायेगी । इस प्रकार की कठिनाई आने पर भी प्रभु की दया छिपी रहती है । मन के अन्दर जो भी कच्चापन और कसर गुप्त रूप से घर किये हुए है । वह भी कुसंगत के प्रभाव से प्रगट हो जाती है । और जब उपर्युक्त विधि से इसका इलाज हो जाता है । तो भविष्य के लिये वह दूर हो जाती है ।
दूसरी स्थिति यह है कि पहले सन्तों महात्माओं की बातों का मनन करे । सन्त महापुरूषों की वाणी में कहा गया है - मोह माया और संसारियों से मन को सावधान कर लो । चित्त की देखभाल करो । और सन्त महापुरूषों की वाणियों को पढो । और उस पर मनन कर उन पर अमल करो । बार बार अपने मन को उन्हीं वचनों की याद दिला दिलाकर समझावे । फ़ालतू बातों का चिन्तन न करके मालिक के नाम के

भजन, सुमिरन, ध्यान में मन को लगावे । उसमें कोई विघ्न न डालने पाये । बराबर मन में यह सोचे कि समस्त वस्तुओं को देने वाला भगवान है । जो सारी सृष्टि का मालिक व रचयिता है । इसलिये मालिक से मालिक को ही मांगना चाहिये । ऐसे सन्तों ने कहा है कि जितने भोग पदार्थ हैं । जितनी मान बडाई है । जितने सम्मान । धन । धान्य । स्वामित्व । प्रभुत्व आदि वस्तुयें हैं । सब उसी के अधिकार में हैं । पहले उसे प्रसन्न करो । फ़िर वही तुम्हारे लिये जो वस्तु अच्छी तथा हितकर समझेगा । स्वयं दे देगा । वह हमारा परम पिता परमेश्वर है । हम उसकी अज्ञानी सन्तान हैं । हमें क्या मालूम कि कौन सी वस्तु लेकर हमारा भला होगा । और कौन सी वस्तु लेकर नुकसान । वह परम पिता परमेश्वर हमें कदापि ऐसी वस्तु नहीं देगा । जिसमें हमारा अहित है । अत: यदि मनचाही वस्तुएं न प्राप्त हों । तो उदास व दुखी नहीं होना चाहिये । क्योंकि मालिक ने इसी में हमारी भलाई छिपा रखी है ।
यदि इस प्रकार के सोच विचार से मन न माने । तो बार बार यह चाह उठावे कि श्री सदगुरू देव जी महाराज की सेवा, भजन, ध्यान में उपस्थित रखकर दीन भाव से अपने मन की स्थिति को निवेदन करे । और वे जो कुछ अपने श्रीमुख से अपने मन के स्थिति को निवेदन करे । और वे जो कुछ अपने श्रीमुख से कहें । उसे ध्यान देखर सुने । तथा उसे तथा उसे कार्यरूप में परिणत करे । यदि श्री सदगुरू देव महाराज की शरण में न जा सके । तो अपने प्रेमी

सतसंगी भाइयों से, जो अभ्यास में अपने से बढकर हों । उनसे अपनी इस दशा को इशारों से या खुलकर कहे । जो उपाय वे बतावें । उन पर अमल करे । संसार के तुच्छ और नश्वर पदार्थों के लिये अपने भजन और ध्यान की बलि चढा देना । सच्चे आनन्द को खो देना । और प्यारे परम पिता परमेश्वर से विमुख होना । केवल मूर्खता है । और कुछ नहीं । जैसे जिस डाली पर बैठा हो । उसी डाली को काट रहा हो । अपने सुरत के कल्याण के पथ में आप ही रोडा बन रहे हो । अपनी प्रगति में स्वयं देर लगा रहे हो ।
सन्तों महापुरूषों का कहना है कि तुम सन्तों, महात्माओं की संगति में रहकर श्री सदगुरू के नाम के भजन, सुमिरन, ध्यान की धुन में रहो । और औरों को यही करने की प्रेरणा दो । इससे जन्मों जन्मों के कर्मों का मैल उतर जाता है । और मन से अभिमान जाता रहता है । इससे काम और क्रोध प्रभावी नहीं रह पाते । और लोभ, मोह, मत्सर रूपी श्वान मर जाते हैं । तात्पर्य यह है कि श्री सदगुरू के शरण में रहकर नाम का भजन, सुमिरन और अपने गुरू की सेवा, पूजा, दर्शन, ध्यान करने से मन के सभी विकार दूर हो जाते हैं । और मन पवित्र हो जाता है । इसके अतिरिक्त श्री सदगुरू की पावन संगति से यह लाभ भी होता है कि जीवों पर दया करने और सभी तीर्थों की यात्रा और स्नान तथा अन्य पुण्यकर्मों का फ़ल स्वत: प्राप्त हो जाता है । दया करके स्वयं श्री सदगुरू देव जी महाराज ऐसी सद्बुद्धि प्रदान करें । जिससे हम सभी उनके नाम के सुमिरन ध्यान, उनके सेवा, सन्त महात्माओं की संगति और जीव मात्र के प्रति प्रेम और दया के मार्ग पर आजीवन चलते रहें । सन्तों,

महापुरूषों के सत्संग के प्रभाव से जिन्हें अपने श्री सदगुरू देव जी महाराज से मिलन तथा उनकी अमृत वाणी सुनने, उनकी सेवा, पूजा, दर्शन करने का उत्तम संयोग उपलब्ध हुआ है । मैं उन पर कुर्बान जाता हूं कि वही परम पवित्र एवं पुण्य भागी जीव हैं । जिन पर श्री सदगुरू का कृपा पूर्ण हाथ है । ऐसे जीव ही मायाजाल से छूट सकने में सफ़ल हो जाते हैं ।
श्री सदगुरू सांचा दरबार आपका । होती हैं पूरी मुरादें यहां । जो द्वार पे आता आपके । पूरी होती है आश यहां ।
अपनी इस प्रेम निष्ठा तथा सम्पूर्ण श्रद्धा विश्वास के साथ दृढ निश्चय करके भजन, ध्यान के अभ्यास में लगे । ऐसा करने से प्रभु की दया और श्री सदगुरू की कृपा से शीघ्र दशा सुधर जायेगी । और आन्तरिक अभ्यास में रस तथा आनन्द का अनुभव होने लगता है ।
अभ्यासी को इस बात की परख हो जायेगी कि श्री सदगुरू भगवान अपने भक्त की किस प्रकार देखभाल व सम्हाल करते हैं । और उनके मन की मलिनता को किस प्रकार धीरे धीरे निकालते हैं । उनकी अज्ञानता को दूर करते हुए उनके में भजन भक्ति के प्रति प्रेम निष्ठा बढा देते हैं । तथा उन्हें परमार्थ पथ पर अग्रसर करते हुए अपने भजन ध्यान में आनन्द व भक्ति का रस प्रदान करते हैं । इसलिये कृपा करना मुझ पर । और वरदहस्त रखना सिर पर । और देना सद बुद्धि मुझे । मांगी मैं भक्ति का ही वर ।
71 प्रश्न - कभी कभी शारीरिक व्याधियां । कष्ट और काम, क्रोध आदि के वेग विचलित कर देते हैं । जिससे भजन 


ध्यान का अभ्यास कृम लडखडा सा जाता है । और मन में ग्लानि होती है । इसका क्या उपाय है ?
उत्तर - जो व्याधि और कष्ट पिछले कर्मों के फ़लस्वरूप आते हैं । उन्हें भोगते समय यदि भजन, सुमिरन तथा श्री सदगुरू का ध्यान करते हुए भोगा जाय । तो कष्ट कम होता है । पूर्ण शरणागत होने से श्री सदगुरू देव की दया साथ होती है । वह दया भोग की प्रक्रिया को बहुत कम कर देती है । अर्थात शूली से कांटा बना देती है । मन भर कष्ट को सेर भर बना देती है । इतिहास में ऐसे उदाहरणों के कोई कमी नहीं है । कभी कभी तो कष्ट या बीमारी की हालत में भी श्री सदगुरू की कृपा से भजन और ध्यान में अत्यन्त आनन्द और रस प्राप्त होता है । जिसके कारण अभ्यासी उस बीमारी आदि से स्वयं शीघ्र नहीं छूटना चाहते । बल्कि यदि कोई शारीरिक कष्ट होता है । तो उसका स्वागत करते हैं ।
सौ सौ बार काटिये । शीष कीजिये कुर्बान । नानक कीमत ना पवै । परिया दूर मकान ।
श्री सदगुरू की कृपा से इस जीव का जो कल्याण होता है । उसके बदले यदि सौ सौ बार वह जीव या साधक अपना दिर काट कर उन पर न्यैछावर करे । तो भी उनकी कृपा का मूल्य नहीं चुकेगा । समर्पण की ऐसी ऊंची भावना न रखने वाला अथवा उनसे उऋण होने की भावना रखने वाला व्यक्ति या साधक उनके श्री चरणों से बहुत दूर फ़ेका जायेगा । ऐसी बात को मन से निकाल कर पूरी श्रद्धा और भाव से श्री सदगुरू का भजन, सुमिरन, सेवा, पूजा, दर्शन ध्यान में लगने व करते रहने से जीते जी मुक्ति हो जाती है । सदगुरू की दया ही तो मुक्ति की खान होती है । यह बात साधक को पूरी तरह से समझ लेना चाहिये ।
जैसा तुमने पूछा है । वैसी दशा केवल उन अभ्यासियों की होती है । जो फ़िदाई ( जी जान से न्यौछावर ) होते हैं ।

जिन्होंने श्री सदगुरू की शरण ग्रहण की है । उन्हें विश्वास रखना चाहिये कि उनके कर्म भोग श्री सदगुरू की दया से सहज ही में कटते जायेंगे । अपने सम्बन्धियों को कष्ट में देखकर उन्हें यदि चिन्ता होती है । तो उसमें श्री सदगुरू की दया से सहायता मिलती है । और उन्हें दुख का अभ्यास कम होता है । यह है श्री सदगुरू भगवान की दया का अंग । उनकी दया की महिमा का स्मरण करके एक भक्त के उदगार हैं -
स्वरूपे स्थिरता लभ्या सदगुरोभर्जनाद यत: । अत: साष्टांग्ड्नत्याहं स्तुवत्रित्यं स्तुवत्रित्यं गुरूं भजे ।
श्री सदगुरू के स्वरूप में साधक की भावना भजन, सुमिरन, ध्यान करने से ही हो सकती है । यह बात जब श्री सदगुरू की दया से मेरी समझ में आ गयी । तो अब मैं नित्य श्री सदगुरू देव जी महाराज को साष्टांग प्रणाम तथा उनकी स्तुति करता हूं । और उनकी भजन भक्ति, सेवा पूजा, दर्शन ध्यान सदा करता रहूंगा । जिससे मुझे भजन, भक्ति, ध्यान का आनन्द का रस सदा सदा मिलता रहे ।
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- ये शिष्य जिज्ञासा से सम्बन्धित प्रश्नोत्तरी श्री राजू मल्होत्रा द्वारा भेजी गयी है । आपका बहुत बहुत आभार ।

17 जनवरी 2012

क्या गुरू कृपा होने पर कुण्डलिनी जागृत होती है ?

55 प्रश्न - श्री स्वामी जी ! मन कई बार सुमिरन, ध्यान करना नहीं चाहता । ऐसी हालत में पाठ इत्यादि करना उचित है । या बल पूर्वक भजन, ध्यान ही करना चाहिये ।
उत्तर - नियमित ध्यान जरूरी है । भजन । सुमिरन । ध्यान । सेवा । पूजा । दर्शन जितना ज्यादा से ज्यादा हो । करना चाहिये । यदि मन भागता है । तो पाठ इत्यादि कर सकते हैं । श्री सदगुरू देव जी महाराज द्वारा लिखी हुई पुस्तकों का अध्ययन करें । मन लगेगा । मन परिश्रम करना नहीं चाहता है । सब समय सुख ढूंढता है । कुछ पाने के लिये परिश्रम करना होगा । पहली अवस्था में अभ्यास दृढ करने के लिये श्री सदगुरू देव जी महारज के द्वारा मिले हुये गुरू मंत्र का बलपूर्वक जप, ध्यान आदि करना होगा । यदि बहुत समय तक बैठे रहने से कष्ट का अनुभव हो । तो लेटकर जप करना । नींद आने पर घूमते घूमते हुए भजन करना । कार्य करते रहो । सेवा करते हुए जप करना । इस प्रकार अभ्यास को सुदृढ बना लेना । और साधना कर लेना होगा । मन न लगे । तो क्या छोड देना चाहिये ? इस तरह चलने से तो कभी भी अभ्यास दृढ नहीं होगा । मन न लगे । तो भजन गुनगुनाना चाहिये । श्री सदगुरू देव जी महाराज की वाणी का स्मरण । मंदिर के बाग बगीचों । उपवन । गोशाला । भण्डार । समाधि की याद करना चाहिये । तपोभूमि का ध्यान वहां की पुस्तकें पढना चाहिये । ऐसा करने से मन एकाग्र होता है । इसके बावजूद यदि मन भागे । तो मन के साथ अच्छी खासी लडाई करनी होगी । इस प्रकार के प्रयत्न का नाम ही साधना है । मन को वश में करने के लिये श्री सदगुरू के श्री चरणों में बैठकर रोओ । रिझाओ । मनाओ । प्रार्थना करो । बिनती करो । करबद्ध प्रार्थना करो । दण्डवत प्रणाम करो । और कहो - प्रभु मेरा मन अपने श्री


चरण कमलों में लगाओ । भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान की दात दीजिये । मन को वश में लाना ही साधना का लक्ष्य है । मन श्री सदगुरू देव जी महाराज की दया से ही वश में हो सकता है ।
56 प्रश्न - श्री स्वामी जी महाराज ! पूजा - पाठ में कितना समय और जप । ध्यान में कितना समय बिताना है । नींद कितनी आवश्यक है ?
उत्तर - 24 घण्टे मे कम से कम दो तिहाई हिस्सा जप । ध्यान के लिये और बाकी एक तिहाई हिस्सा पूजा । पाठ । चिन्तन । नित्य कर्म और विश्राम के लिये रखना अच्छा है । स्वस्थ शरीर के लिये 4 घण्टे की नींद पर्याप्त है । किसी को 1 - 2 घण्टे अधिक नींद की आवश्यकता है । 5 घण्टे से अधिक नींद रोग की सूचक है । अधिक सोने से शरीर का विश्राम नहीं होता है । बल्कि वह खराब होता है । अनिष्ट करता है । साधक के लिये सोकर समय नष्ट करना ठीक नहीं । पहली उमृ में मन गढ लो । सोने के लिये समय बाद में बहुत पाओगे । खूब सुमिरन । भजन । ध्यान करो । सेवा करो । सोओ कम । जो श्री सदगुरू देव जी महाराज का ठीक - ठीक भजन, ध्यान करता है । उनकी समस्त इन्द्रियां इतने नियमित रूप से चलती हैं कि उसके लिये 4 घण्टे की नींद प्रर्याप्त है ।
साधारणतया अधिकांश लोग अनियमित रूप से जीवन बिताने के कारण शरीर और मन को इतना थका बैठते हैं कि 8, 10 घण्टे सोने पर भी विश्राम नहीं होगा । जीवन को नियमित करने की चेष्टा करो । घडी के समान चलना होगा । बिलकुल

नियमित रूप से श्री सदगुरू देव जी महाराज के दर्शन । पूजा । भजन । सुमिरन । चिन्तन । मनन । सेवा के लिये भरपूर समय दें । यही सच्ची पूंजी है । जो संग साथ जायेगी । घडी के समान अपना पूरा जीवन नियमित करके रखें । और उसका पालन करें । ऐसा करने से शरीर और मन बहुत अच्छे रहेंगे । कुछ करो । सिर्फ़ प्रश्न करने से क्या होगा ? उत्तर पर अमल करो । खूब भजन करो । सुमिरन, ध्यान करो । सेवा में लगाओ । तब देख पाओगे । समझ सकोगे ।
57 प्रश्न - श्री स्वामी जी ! मुझमें कुछ भी करने की सामर्थ्य नहीं है । आशीर्वाद दीजिये । जिससे आप पर दृढ विश्वास हो । और आपकी कृपा को समझने और उसे धारण करने के शक्ति आ जाए ।
उत्तर - आशीर्वाद मेरा सदा है । पर स्वयं पर अविश्वास मत लाना । श्री स्वामी जी महाराज सब सुविधायें जीवों के लिये ही सुलभ कराते हैं । हर पल जीवों की सहायता करते हैं । इस धरा धाम पर उन्होंने अवतार ही इसीलिये लिया है । यदि कोई सज्जन व्यक्ति तुम्हारी सहायता कर रहा है । तो यह भी श्री सदगुरू देव जी महाराज की इच्छा से ही हो रहा है । यह भी प्रभु की इच्छा है । ऐसा जानकर प्रभु पर विश्वास करो । प्रभु का नाम जपते जाओ । श्री स्वामी जी महाराज का दर्शन । पूजा । सेवा । भजन । सुमिरन । ध्यान । मनन । चिन्तन करते रहो । प्रभु स्वयं ही सब कुछ समझा देंगे । चंचल मत होना । नाम का भजन करो 


परिश्रम करो । सेवा, भक्ति करो । परिश्रम करते जाओ । दर्शन लाभ करोगे । विश्वास का लाभ पाओगे । विश्वास मन में स्वत: स्थान बना लेगा । व्यर्थ की चिन्ता । और बडे - बडे प्रश्नों में समय नष्ट मत करना । बहुत ही सुन्दर सुअवसर मिला है । इसे खोना मत । श्री सदगुरु देव जी महाराज की कृपा सभी पर है । श्री स्वामी जी महाराज के निकट सर्वथा प्रार्थना करना । ताकि मान, यश की इच्छा कभी भी मन में न आए । और सदा अपनी भक्ति के प्रति पूर्ण विश्वास तथा अटल भक्ति करने की प्रेरणा भरें । भाव भक्ति दें ।
58 प्रश्न - श्री स्वामी जी महाराज ! क्या गुरू कृपा होने पर कुण्डलिनी जागृत होती है ?
उत्तर - जो गुरू भक्त मालिक के सुमिरन । भजन । सेवा । पूजन । दर्शन । ध्यान में लीन रहता है । सत्संग की धारा में बराबर स्नान करता है । यानी भजन करते करते अपनी मन की दिशा यानी ख्याल को ध्यान के द्वारा ऊर्ध्वमुखी करने में नियमित रूप से लगा रहता है । उसकी कुण्डलिनी जागृत होती है । भक्ति योग की साधना से । तथा श्री सदगुरू देव जी महाराज की असीम दया, कृपा से कुण्डलिनी जाग्रत होती है ।
केवल कुण्डलिनी ही नहीं जागती । वरन सब कुछ हो जाता है । बृह्मज्ञान तक हो जाता है । परन्तु इसके लिये बहुत परिश्रम करना पडता है । कुण्डलिनी 1 दिव्य शक्ति है । जो प्रत्येक मानव के अन्दर रहती है । जब श्री सदगुरू स्वामी जी महाराज अपने शिष्य में अध्यात्म की शक्ति से शिष्य के अन्दर अपनी दया दृष्टि डालते हैं । तो शिष्य में वह कुण्डलिनी शक्ति क्रियाशील होकर कार्य करने लगती है । इसी का नाम है । कुण्डलिनी का अन्त:

क्रियाशील होना । और यही गुरूकृपा है । गुरू दीक्षा जो द्वारा मन्त्र श्री सदगुरू जी अपने शिष्य को देते हैं । उस मंत्र का भजन ध्यान करने से यह अध्यात्म शक्ति क्रियाशील हो जाती है ।
यही श्री सदगुरू देव जी महाराज की महिमा रूप, महाशक्ति ही श्री कुण्डलिनी है । इसे क्रियाशील कर देना ही कुण्डलिनी जागरण है । भक्त श्री सदगुरू देव जी महाराज के नाम का भजन । सुमिरन । पूजा । दर्शन । सेवा । ध्यान करते करते कुछ वर्षों में अर्थात 3, 6, 9, 12 वर्षों में अपनी दिव्यता का अनुभव करता जाता है । श्री सदगुरू देव जी महाराज का भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान के प्रभाव से दिनों दिन दिव्यानुभूति युक्त बनता जाता है । बस श्री सदगुरू देव जी महाराज की साधना पद्धति का अमल करो तो सही । सब सुलभ हो जाता है । श्री सदगुरू देव जी महाराज की दया से आध्यात्मिक शक्ति का संचार होता जाता है । और कुण्डलिनी शक्ति ह्रदय में जागृत होकर साधक को उन्नत प्रकार के दिव्य भावों की अनुभूति कराते हुए साधक को योगी बना देती है । मेरा विश्वास है कि श्री गुरू भक्ति से और श्री सदगुरू

देव जी महाराज के दया से ही ऐसा हो सकता है ।
59 प्रश्न - श्री स्वामी जी महाराज ! कपडे कितने रखने चाहिये ?
उत्तर - जरूरत भर के कपडे रखने चाहिए । अधिक सामान से मोह पैदा होता है । कपडा हो । या कोई अन्य वस्तु हो । जितनी जरूरत है । उतना ही रखना चाहिये । अधिक सामान का संग्रह साधक को साधना में अडचनें डालता है । कपडों का अधिक संग्रह नहीं करना चाहिये । अधिक से अधिक 3  जोडा कपडा रखना चाहिये । जितनी चीजें बिल्कुल आवश्यक हो । उतना ही रखें । अधिक लेना अनुचित है । चींजे अपने आप आए । तो भी लेना उचित नहीं है । विलासिता खराब है । अत्यधिक कपडों का या धन का संचय विलासिता है । और श्री सदगुरू देव जी महाराज के दर्शन । पूजा । सेवा । चिन्तन । ध्यान में बाधक है । मन उसी तरफ़ रहता है । वस्त्र कोई ले न ले । चोरी न हो जाए । खराब न हो जाए । तमाम तरह के व्यवधान आते हैं । जो भजन, साधना के लिये अच्छा नहीं है । रखना ही है । तो श्री सदगुरू देव जी महाराज के प्रति भाव रखो । भक्ति रखो । प्रेम रखो । ज्ञान रखो । ये सब साधन श्री सदगुरू देव जी महाराज तक पहुंचने के लिये साधन हैं । इनके बिना सब कुछ फ़ीका है । जैसा भाव । वैसा लाभ ।
60 प्रश्न - श्री स्वामी जी महाराज ! आहार के बारे में क्या करना उचित है ? जो मिले वही खाऊं । या खाने के बारे में विचार करूं ?
उत्तर - भजन के लिये भोजन पौष्टिक होना चाहिए । सात्विक होना चाहिये । साधना, भजन में थोडा सोच सम्हल कर आहार लेना चाहिये । यदि सम्भव हो । तो हल्का सुपाच्य और पौष्टिक भोजन करें । कुछ चीजें खाने से नींद बहुत अधिक बढ

जाती है । ऐसी चीजों से जहां तक हो सके । परहेज करना चहिये । अधिक मिठाई । खट्टी चीजें । उडद की दाल या उडद की बनी चीजें न खाना ही अच्छा है । ये सब वस्तुयें खाने से तमो गुण की वृद्धि होती है । हमेशा नींद आती है । न तो श्री सदगुरू देव जी महाराज की सेवा हो पायेगी । न जप, ध्यान कर पाओगो । जो सहज ही हजम होते है । ऐसे भोज्य पदार्थों से दो तिहाई पेट भर खाने से शरीर में ताकत की वृद्धि होती है । शरीर ह्रष्ट पुष्ट रहता है । बहुत ज्यादा खाने से हजम करने में ही सारी शक्ति खत्म हो जाती है । पेट में वायु भी होती है । पेट का एक तिहाई हिस्सा खाली रखें । ऐसा करने से पेट में वायु नहीं बनता । स्वस्थ शरीर साधन, भजन में सहायक होता है ।

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- ये शिष्य जिज्ञासा से सम्बन्धित प्रश्नोत्तरी श्री राजू मल्होत्रा द्वारा भेजी गयी है । आपका बहुत बहुत आभार ।

13 जनवरी 2012

मन तो सरसों की पोटली के समान है

51 प्रश्न - श्री स्वामी जी महाराज ! केवल जप - ध्यान लेकर रहना बहुत कठिन है । मैं तो अधिक दिन नहीं रह सका ।
उत्तर - कर्म और उपासना एक साथ करना चाहिये । 2 - 4 नहीं कर सके । इसका मतलब यह नहीं कि कर नहीं सकोगे । बारम्बार कोशिश करनी चाहिये । श्री सदगुरू देव जी महाराज प्रमाण देते हैं कि बछडा खडा होने की कोशिश करते हुए 100 बार गिरता है । तो भी छोडता नहीं । आखिर में दौडना सीख जाता है । पहले पहल कर्म में रहने से एक प्रकार की शिक्षा होती है । तब मन को साधन - भजन में लगाया जा सकता है । नहीं तो साधन - भजन के समय भी मन उसी प्रकार रहता है । 1 समय आता है । जब सब छोडकर सिर्फ़ जप - ध्यान ही लेकर रहने की इच्छा होती है । तब सारे कर्म अपने आप छूट जाते हैं । मन जब जागृत होता है । तभी ऐसा होता है । नहीं तो जबरदस्ती करने से 2-4 दिन तो अच्छा लगता है । परन्तु उसके बाद फ़िर अच्छा नहीं लगता है ।
बृह्मचर्य से खूब शक्ति आती है । एक व्यक्ति 25-25 व्यक्ति का काम कर सकता है । बृह्मचर्य के नियमों में जप । ध्यान । स्वाध्याय । सतसंग । श्री सदगुरू देव जी महाराज की श्री वाणी का अमल । सेवा । ध्यान । सुमिरन । चिन्तन । मनन सब शामिल है । खुद का किससे भला होगा । यह क्या सभी लोग जान सकते हैं ? इसीलिये गुरू - महात्माओं का संग करना पडता है । श्री स्वामी जी महाराज के श्री चरण कमल की शरण में आना पडता है । तुमको स्वाधीनता पूरी देता हूं । करके तो देखो । कितने दिन कर सकते

हो । 2-4  दिन । मन अभी कच्चा है । नियन्त्रित नहीं है । इसलिये सब गडबडी हो रही है । मन्द गति से काम बनने वाला नहीं है । आलसी होने से साधन, भजन नहीं होगा । जो भी करो 16 आने मन लगाकर करो । तब आनन्द है । कौशल है । श्री स्वामी जी महाराज बराबर यही कहा करते हैं कि लग जाओ । और काम समाप्त कर फ़िर से सेवा । चिन्तन । मनन । में प्रभु के उपदेशानुसार दिन बिताना चाहिये । श्री स्वामी जी महाराज कहते हैं कि काम करते - करते बीच में अवसर पाने पर श्री सदगुरू देव जी महाराज का स्मरण । चिंतन । मनन । भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा करना चाहिये । काम समाप्त कर फ़िर से प्रणाम करना चाहिये । जो भी कार्य शुरू करे । मालिक को दण्डवत प्रणाम करके करें । और समाप्त होने से प्रणाम करे । सब मालिक को अर्पण करके करें । सब सहज हो जायेगा । श्री सदगुरू चरणों में समर्पण भाव से निवदेन करके कार्य प्रारम्भ करें । कठिन से कठिन कार्य सरल हो जायेगा । सहज सुखद हो जायेगा ।
52  प्रश्न - हे मेरे श्री सदगुरू देव जी महाराज ! मन को शान्त कैसे करना होगा ?
उत्तर - भजन । श्री सदगुरू स्वामी जी महाराज के द्वारा मिले हुए गुरू मन्त्र का सुमिरन - ध्यान करके मन को शान्त किया जाता है । मन को शान्त करना होगा । जडत्व को स्थान न दें । स्थिर मन से मन को प्रशान्त करना होगा । नहीं तो प्रतिक्रिया को सम्भाला नहीं जा सकता । इसका परिणाम बुरा होता है । सेवा । पूजा । भजन । सुमिरन । दर्शन । ध्यान । चिन्तन । मनन के द्वारा इन्द्रियां और


मन आप ही आप संयमित हो जाता हैं । किन्तु पहले उसे वश में करने की कोशिश करनी चाहिये ।
1 आसन में बहुत देर तक जप, ध्यान करने की शक्ति धीरे - धीरे आती है । पहले - पहल दिन में 4 -5 बार बैठने का अभ्यास करना अच्छा रहता है । मन लगे । न लगे । जप करते रहना चाहिये । अभ्यास करते रहना चाहिये । जप करते जाना उचित हैं । क्योंकि कौन जाने मन कब एकाग्र हो जाय । इस तरह मन एकाग्र होने की सम्भावना अधिक रहती है । इसलिये इस शान्त भाव की प्राप्ति के लिये इच्छा न होते हुए भी सेवा । पूजा । भजन । सुमिरन । दर्शन । ध्यान किया जाना अच्छा है । श्री स्वामी जी महाराज श्री मुख से बताते हैं कि बचपन में गीली मिट्टी के समान स्वभाव रहता है । इसलिये जिसे सामने देखता है । उसी के लिये जिद जोर पकड लेती है । नरम मिट्टी से जो भी गढने की इच्छा हो गढ सकते हो । सभी वस्तुयें तैयार की जा सकती हैं । 1 वस्तु बना ली । फ़िर उसे तोडकर दूसरी वस्तु बना ली । जब तक मिट्टी गीली रहती है । तब तक जो भी इच्छा हो । गढ सकते हैं । परन्तु इस मिट्टी को आग में पकाने पर फ़िर वह नहीं गढी जा सकती है । तुम लोगों का मन अभी गीली मिट्टी के समान है । अभी जिस तरह से गढोगे । वैसा होगा । थोडी चेष्टा करने से श्री सदगुरू देव जी महाराज की तरफ़ चला जायेगा । अभी से मन को श्री सदगुरू देव भगवान में लगाये रखने से दूसरा कोई भाव उसमें प्रवेश नहीं कर पायेगा । श्री सदगुरू देव जी महाराज की श्री चरण-शरण में यदि मन 1 बार पक जाए । तो फ़िर कोई चिन्ता नहीं होगी । मालिक के भाव में खो जाओ । मन को संसार में बिखरने मत दो ।

मन तो सरसों की पोटली के समान है । सरसों की पोटली खुलकर सरसों बिखर जाने पर उसे समेटने जैसा कठिन है । उमृ हो जाने पर मन जब संसार में बिखर जायेगा । तब उसे समेटकर ईश्वर चिन्तन में लगाना भी वैसा ही कठिन है । इसलिये तुम लोगों से कहता हूं कि बिखर जाने से पहले मन को गढ डालो । श्री सदगुरू देव जी महाराज के भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान । चिन्तन । मनन रूपी खूंटे से बंध जाओ । यदि ऐसा न किया । तो उमृ अधिक हो जायेगी । और मन संसार में बिखर जायेगा । तब सच्चिदानन्द में मन को लगाने के लिये काफ़ी मेहनत करनी पडेगी । 26 से 30 वर्ष तक जो करना है । कर ही लेना चाहिये ।
अभी शरीर मन सतेज है । इस समय एक उद्देश्य निश्चित कर परिश्रम करना होगा । इस उमृ में मन में जो छाप पक्की होगी । वही सारे जीवन भर सम्बल होकर रहेगी । अभी से लग जाओ । ईश्वर लाभ ही एकमात्र जीवन का उद्देश्य है । श्री सदगुरू देव जी महाराज की आरती । पूजा । सेवा । भजन । सुमिरन । दर्शन । ध्यान । चिन्तन । मनन ही जीवन का उद्देश्य है । यह निश्चित कर सको । उसमें मन को ठीक - ठीक लगा सको । तो फ़िर तुम्हारा जीवन इतने सुन्दर रूप से गठित हो जायेगा कि संसार का दुख, कष्ट या अशान्ति किसी भी प्रकार तुम्हारा स्पर्श न कर सकेगी । बस आनन्द ही आनन्द रह जायेगा । आप अपार आनन्द के अधिकारी हो जाओगे ।


मन को संसार से समेट कर मालिक के भजन । ध्यान । दर्शन । सेवा । पूजा । चिन्तन । मनन में लगा देने से जीवन में सदा आनन्द ही आनन्द रहता है ।
53 प्रश्न - श्री स्वामी जी महाराज ! नाम जपना क्या जरूरी है ?
उत्तर - हां । अत्यन्त जरूरी है । श्री सदगुरू देव जी महाराज द्वारा प्राप्त गुरू मंत्र । गुरू नाम जपने से कल्याण । सुख समृद्धि मिलती है । नाम । नाम । नाम । केवल नाम का जाप करो । खूब कर्म करो । और नाम जपो । सब कर्मों के भीतर श्री सदगुरू देव जी महाराज का नाम जपो । तब तो सही है । श्री सदगुरू देव भगवान का नाम रूपी पहिया सब कर्मों के बीच चले । तब तो होगा । करके देखो । एक दम सारे ताप शान्त हो जायेंगे । कितने ही महा पातकी इस नाम का आश्रय ले श्री सदगुरू देव जी महाराज का नाम । भजन । ध्यान । दान । सेवा । पूजा । दर्शन । सुमिरन । चिन्तन करके शुद्ध मुक्त आत्मा हो गये ।
श्री सदगुरू स्वामी जी के ऊपर खूब विश्वास करो । दृढ विश्वास करो । नाम और नामी को 1 कर डालो । श्री सदगुरू स्वामी जी महाराज का नाम जपने वाले भक्त श्री सदगुरू देव जी महाराज के श्रीकमलवत चरणों में निवास करते हैं ।
श्री सदगुरू स्वामी जी महाराज को खूब पुकारते रहो । श्रद्धा भाव से निर्जन में अकेले में बैठकर उन्हें प्यार से पुकारते रहना चाहिये । और बीच - बीच में प्रार्थना करो कि मुझ पर कृपा करें । श्री सदगुरू देव जी महाराज मुझे

श्रद्धा । भक्ति दें । इतनी गहरी आन्तरिकता से पुकारो कि आंसुओं की धार बहने लगे । मन और मुख 1 करना होगा ।
संसार की सभी वस्तुओं को गुरूमय देखना । सोचना । मेरे श्री सदगुरू देव जी महाराज सर्व भूतों में, कण -कण में विराजमान है । ऐसा करते ही तृणदपि सुनीच’ हो जाओगे । सबके पास बैठना । पर सुनना केवल श्री सदगुरू देव जी महाराज की कथा । गुणगान करना । श्री सदगुरू देव जी महाराज का । यह जानना कि जिस स्थान में श्री सदगुरू देव जी महाराज का भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान । श्री सदगुरू देव जी महाराज की महिमा का वर्णन नहीं होता । वह स्थान शमशान के समान है । श्री सदगुरू भगवान के नाम-सुमिरन से । भजन । कीर्तन । सेवा ।


पूजा । दर्शन । ध्यान से । उनके गुणगान के प्रताप से शमशान तक के भूत भाग जाते हैं । भजन । सुमिरन । ध्यान । सेवा से भूतों का डेरा भी तप:स्थली बन जाता है ।
श्री सदगुरू देव जी महाराज का नाम जपो । श्री सदगुरू भगवान को श्रद्धा भाव से । आर्त भाव से पुकारो । श्री सदगुरू स्वामी जी तो अपने ही है । सच्चे साथी और जीवों के हितैषी एकमात्र श्री स्वामी जी का ही हैं । प्रभु दर्शन क्यों नहीं देंगें ? श्री सदगुरू स्वामी जी को सब कुछ करबद्ध होकर बतलाओ । प्रभु सही रास्ता दिखा देंगे । जिद करनी है । तो प्रभु से करो । वे सब पूर्ण कर देंगे ।
दीक्षा और क्या है ? श्री सदगुरू देव जी महाराज के श्री मुख से मिला हुआ गुरू मंत्र ही दीक्षा है । इस मंत्र को नाम कहते हैं । और सदगुरू यानी नाम रूपी मंत्र देने वाले । श्री सदगुरू देव जी महाराज ही नामी हैं । इसी नाम को रूचि 


पूर्वक विश्वास रख कर जपने से ही कल्याण होगा । केवल दीक्षा ले लेने से नहीं बनेगा । ध्यान-धारणा करनी होगी । दर्शन । ध्यान । सेवा । पूजा । सुमिरन । भजन करते हुए प्रभु को ह्रदय से पुकारना होगा ।
पहले अवस्था से लेकर । अन्तिम अवस्था तक । प्रार्थना करना अच्छा है । श्री सदगुरू देव जी महाराज की महिमा का स्मरण । और उनकी सेवा । दर्शन । ध्यान । चिन्तन । मनन । निरन्तर करते रहना चाहिये । चाहे हजारों काम रहें । प्रतिदिन दोनों समय । श्री सदगुरू देव जी महाराज का स्मरण । मनन । चिन्तन । भजन । ध्यान । सेवा । पूजा । दर्शन और आरती करना चाहिये । भोग लगाना चाहिये । प्रसाद ग्रहण करना चाहिये । यह सब करना । कभी भी भूलना नहीं चाहिये । शरीर मन को निर्मल और निष्पाप करने के लिये सदगुरू - नाम के जप । ध्यान । भजन । दर्शन । सुमिरन । चिन्तन छोड दूसरा कोई उपाय नहीं है । इसलिये श्री सदगुरू देव जी महाराज को अपना बना डालो । उन्हीं के हो जाओ । नाम जो नहीं जपेगा । वह व्यर्थ कर्मों में भटकेगा । नाम ही जगत में सार है ।
54  प्रश्न - श्री स्वामी जी महाराज ! 24 घण्टे में कितना समय - ध्यान करना उचित है । और कितना समय पूजा पाठ में लगाना चाहिये ।
उत्तर - भजन - ध्यान । दर्शन । पूजन में सेवा में जितना समय लगाया जा सके । उतना ही कल्याण होगा । जो लोग केवल साधन-भजन लेकर रहना चाहते हैं । उन्हें कम से कम 15-16 घण्टे जप - ध्यान करना चाहिये । अभ्यास के साथ समय और भी बढ जाएगा । मन जितना भीतर की ओर जाएगा । उतना ही आनन्द पाओगे । साधना - भजन में 1 बार आनन्द मिलने से किसी भी दशा में उसे फ़िर छोडने की इच्छा नहीं होगा । तब कितने समय तक क्या करना होगा ? इस प्रश्न की 


मीमांसा मन स्वयं ही कर देगा । जब तक मन की ऐसी अवस्था न हो । तब तक इसका विशेष प्रयत्न करना कि 24 घण्टे में कम से कम दो तिहाई समय जप, ध्यान में कटे । शेष समय में सदग्रन्थ का पाठ करना । और इसका चिन्तन करना कि जप ध्यान के समय मन में कितने प्रकार के विचार उठते हैं ? मन कितना स्थिर होता है आदि । सिर्फ़ आंख -कान बन्द कर 1 - 1 घण्टा जप - ध्यान करने से ही सब नहीं हो जाता । श्री सदगुरू देव जी महाराज के दर्शन और सेवा भी आवश्यक है । इस प्रकार चिन्तन करने पर मन की अवस्था अच्छी तरह से समझ में आ जाती है । और मन में जो सब बुलबुले उठते हैं । उन्हें त्याग देने की चेष्टा की जा सकती है । इस प्रकार क्रमश: मन शान्त अवस्था में आ जाता है । तभी ठीक - ठीक भजन  ध्यान होगा । जप । ध्यान । दर्शन । सेवा । पूजा का उद्देश्य मन को शान्त करना होता है । ध्यान । सुमिरन । चिन्तन करके भी मन शान्त न हो । आनन्द न मिले । तो समझना होगा कि सुमिरन - ध्यान ठीक नहीं हो रहा है ।
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- ये शिष्य जिज्ञासा से सम्बन्धित प्रश्नोत्तरी श्री राजू मल्होत्रा द्वारा भेजी गयी है । आपका बहुत बहुत आभार ।

12 जनवरी 2012

गुरु आज्ञा ले आवही गुरु आज्ञा ले जाय

उलटे सुलटे बचन के । शीष न माने दुख । कह कबीर संसार में । सो कहिये गुरुमुख । 
कहे कबीर गुरु प्रेम बस । क्या नियरे क्या दूर । जाका चित जासों बसे ।  सो तेहि सदा हजूर । 

भक्ति बीज पलटे नही ।  जो जुग जाय अनन्त । ऊँच  नीच घर अवतरे ।  होय सन्त का  सन्त । 
भक्ति भाव भादों नदी ।  सबे चली घहराय । सरिता सोई सराहिये ।  जेठ मास ठहराय ।  


गुरु आज्ञा ले आवही । गुरु आज्ञा ले जाय । कह कबीर सो सन्त प्रिय । बहु विधि अमृत पाय । 
गुरुमुख गुरु चितवत रहे । जैसे मणिहि भुजंग । कहे कबीर बिसरे नही । यह गुरु मुख के अंग । 
यह सब लच्छन चित धरे । अप लच्छन सब त्याग । सावधान सम ध्यान है । गुरु चरनन में लाग ।
ज्ञानी अभिमानी नही ।  सब काहू सो हेत । सत्यवार परमारथी । आदर भाव सहेत । 
दया धरम का ध्वजा । धीर जवान प्रमान । सन्तोषी सुख दायका । सेवक परम सुजान । 
शीतवन्त सुन ज्ञान मत । अति उदार चित होय । लज्जावान अति निछलता । कोमल हिरदा सोय । 
कबीर गुरु के भावते । दूरहि ते दीसन्त । तन छीना मन अनमना । जग से रूठ फिरन्त । 
कबीर गुरु सबको चहे । गुरु को चहे न कोय । जब लग आस शरीर की । तब लग दास न होय । 
सुख दुख सिर ऊपर सहे । कबहु न छोड़े संग । रंग न लागे और का । व्यापे सतगुरु रंग । 
गुरु समरथ सिर पर खड़े । कहा कमी तोहि दास । रिद्धि  सिद्धि सेवा करे ।  मुक्ति न छोड़े पास । 
लगा रहे सत ज्ञान सो । सबही बन्धन तोड़ । कह कबीर वा दास सो । काल रहे हथजोड़ । 
काहू को न संतापिये ।   जो सिर हन्ता होय । फिर फिर वाकू बन्दिये ।   दास लच्छन  सोय । 
दास कहावन कठिन है । मैं दासन का दास । अब तो ऐसा होय रहूँ । पांव तले की घास । 
दासातन हिरदे बसे । साधुन सो अधीन । कहै कबीर सो दास है ।  प्रेम भक्ति लवलीन । 
दासातन हिरदे नही । नाम धरावे दास । पानी के पीये बिना ।  कैसे मिटे पियास । 
भक्ति कठिन अति दुर्लभ । भेष सुगम नित सोय । भक्ति जु न्यारी भेष से ।  यह जाने सब कोय ।