29 फ़रवरी 2012

कुछ और भूतिया बातें

मैंने अपने लेखों में कई बार जिक्र किया है । होनी वो शक्ति है । जो बङी बङी महाशक्तियों को नचा देती है । इसके आगे किसी की नहीं चलती । यही वो शक्ति है । जो सिर्फ़ परमात्मा का आदेश मानती है । मुझे अन्य सच्चे अलौकिक अनुभवों के साथ साथ होनी  से जुङी घटनाओं में भी बेहद दिलचस्पी रही है । होनी हो के रहती है । होनी टलती नहीं । होनी होनी थी । आदि सूत्र वाक्य प्रसिद्ध कहावतों की तरह सुनने में आते हैं । तुलसीदास भी होनी के आगे समर्पण करना ही उचित समझते हैं । इसलिये कहते हैं - तुलसी भरोसे राम के । निर्भय होकर सोय । अनहोनी होनी नहीं । होनी होय सो होय ।
क्योंकि ये बहुत बङी शक्ति है । मुझे इसकी घटनाओं के अध्ययन में हमेशा ही उत्सुकता रही । इत्तफ़ाकन अभी मेरी जानकारी में एक खास घटना आयी । जो होनी के साथ साथ प्रेतत्व से भी जुङी है । बात एक ग्रामीण युवक की है । जो लगभग 30 साल का था । और जीवन के प्रति बहुत आशान्वित था । मरना उसे कतई पसन्द नहीं था । और वह अपनी  हालिया जिन्दगी को पूरे उल्लास से जीता था । कुछ ही वर्ष पूर्व विवाहित भी हुआ था ।
यह युवक एक दिन साइकिल पर बाजार आया हुआ था । भीङ बहुत थी । और एक स्थान पर जाम की स्थिति बनी हुयी थी । जाम में जहाँ ये फ़ँसा हुआ था । इसके ठीक आगे एक बङा ट्रक था । और आसपास भी तमाम तरह के छोटे बङे वाहन फ़ँसे हुये थे । कहने का मतलब । स्थिति ये नहीं थी कि कोई भी अपनी जगह से हिल सके ।
इसी समय घुर्र घुर्र करते वाहन अपने को आगे पीछे एडजस्ट करते हुये जाम खत्म होते ही निकलने को बेकरार थे

। ऐसे ही समय में जाम में जैसे ही दो तीन फ़ुट की सांस पैदा हुयी । ट्रक वाले ने ट्रक को थोङा सा पीछे लिया । और ये युवक एक टांग सहित लोड ट्रक के नीचे दब गया । साइकिल गिर गयी । और उसकी टांग उस भारी ट्रक के पहिये के नीचे दबी हुयी थी । बाकी शरीर सुरक्षित था । कमाल की बात थी । अपनी अपनी धुन और व्यस्तता में व्यस्त आसपास के बहुत कम लोग इस बात को जान पाये । क्योंकि शोर भी बहुत था । युवक बेतहाशा सहायता के लिये चिल्ला रहा था । तब एक सामने की दुकान वाले का ध्यान उस पर गया । ड्राइवर की खिङकी उसके सामने पङ रही थी । हङबङाहट में उसने कहा - तुम्हारे ट्रक के पहिये से आदमी दब गया । काफ़ी शोरगुल में ट्रक वाला अभी भी वस्तुस्थिति नहीं समझ पाया । पर दुकानदार के मुँह पर आते भावों और उसके इशारे से उसने स्थिति की गम्भीरता का अन्दाजा लगाया । और हङबङाहट में ही उसने बिना सोचे समझे ट्रक को और भी गुंजाइश भर पीछे कर दिया । दरअसल वह समझा । अगले पहिये से कोई दबा है । रहा सहा वह युवक पूरी तरह ट्रक के नीचे दब गया । गौर से समझें । ये सब अधिकतम दस मिनट से भी कम समय में हो गया ।
खैर..एक इंसान का मामला था । तुरन्त हल्ला मच गया । जगह आदि करके युवक को निकाला गया । ट्रक को 


कोतवाली भेज दिया । ( ध्यान दें । इस मत्यु को कानूनन हत्या नहीं माना जाता । और एक ट्रक बस ड्राइवर से इस तरह के सात एक्सीडेंट उसके प्रारम्भिक समय में माफ़ होते हैं । सजा आदि नहीं होती ) युवक को अस्पताल भेजा गया । उसके परिजनों को तुरन्त सूचना दी गयी ।
जैसा कि मैंने ऊपर कहा । युवक हौसले मन्द था । जीवन के प्रति उल्लसित और आशा पूर्ण था । अतः डाक्टर और घरवाले उसे ठीक होने की कोई दिलासा देते । वह उल्टे उन्हें ही जोश से कहता रहा - तुम लोग फ़िक्र न करो । मुझे कुछ नहीं होगा । मैं एकदम ठीक हो जाऊँगा । वह फ़िर फ़िर बार बार इस बात को दोहराता । और तब मौत ने उस पर झपट्टा मारा । और उसके प्राण पखेरू अज्ञात को उङ गये ।
हम जाने थे खायेंगे । बहुत जिमि बहु माल । ज्यों का त्यों ही रह गया  । पकर ले गया काल । 
काची काया मन अथिर । थिर थिर कर्म करन्त । ज्यों ज्यों नर निधड़क फिरे । त्यों त्यों काल हसन्त । 
- बार बार यही कहते रहे । उसकी पत्नी आँसू बहाते हुये बोली - तू चिंता न कर । मुझे कुछ नहीं होगा । कुछ नहीं होगा । मैं बिलकुल ठीक हो जाऊँगा ।
बङी सहानुभूति दुख अपनत्व आदि मिश्रित भावों से उसकी अब तक बात सुनती हुयी सामने बैठी महिला एकाएक चौंकी । उसके दिमाग से पूरी बातें 


निकल गयी । और वो हल्की सी स्याह उस आकृति को देख रही थी । जो मृतक की पत्नी के ठीक पीछे आभासित हो रही थी । दूसरी महिला के शरीर में मोबायल फ़ोन के वायव्रेशन के समान हल्का मगर आंतरिक रूप कंपन होने लगा ।
- मुझे ऐसा लगा । वह मुझसे बोली - यकायक मुझे सर्दी सी लगने लगी हो । मुझे ये भी पता था कि वहाँ कोई आकृति नहीं है । पर साफ़ साफ़ ऐसा लग रहा था । वहाँ आकृति जैसा कुछ है । और मेरे शरीर के  सभी रोंगटे खङे हो चुके थे । निसंदेह वह एक्सीडेंट में मृतक हुआ उसका पति ही था । मेरी सारी सहानुभूति एकदम फ़ुर्र हो गयी । और मैं सचेत हो गयी । मृतक की पत्नी अपनी रौ में बोले जा रही थी । पर मैं प्रभु को एकाग्रता से याद करने लगी । और धीरे धीरे मेरी स्थिति सामान्य हुयी । फ़िर मैंने वहाँ रुकना उचित न समझा । और हाँ हूँ करती हुयी जल्दी का बहाना बनाकर विदा हो गयी ।
- लेकिन ये मेरा दूसरा भूतिया अनुभव था । महिला ने फ़िर कहा - इससे पहले भी अज्ञात अदृश्य बाधा से मेरा सामना हुआ था । मैं गाँव के ही एक रास्ते पर वृक्ष के नीचे किसी परिचित के इंतजार में खङी थी । उस वृक्ष से कुछ ही फ़ासले पर हिन्दू शमशान था । चिताओं के अक्सर जलते रहने से जमीन पर मनुष्याकार काले निशान मौजूद थे । और उस समय भी एक चिता अंतिम अवस्था में जलती हुयी सुलग रही थी । मुझे एक तेज झुरझुरी सी आयी । खबर नहीं पल की । तू बात करता कल की । मनुष्य जीवन का अन्त ये है - खाक हो जाना । कौन  होगा ये इंसान ? जो कुछ ही घण्टों में राख के ढेर में बदल गया । एक दिन ऐसा होयगा । कोय काहु का नांहि । घर की नारी को कहे । तन की नारी जांहि । 
आप समझ सकते हैं । लाश शमशान और चिता मनुष्य में क्षणिक ही सही वैराग उत्पन्न कर देते हैं । गर्मियों की

लगभग दोपहर का समय था । स्वाभाविक ही मेरा जुङाव उस चिता में जल चुके मृतक से हो गया । मरने के बाद कहाँ गया होगा वह ? आगे क्या हुआ होगा ? आदि आदि ।
पर वहाँ से हटते ही मैं ये बात भूल गयी । लेकिन शाम को फ़ारिग होकर जब मैं लेटने लगी । मेरे पैरों ( पिण्डलियों ) में तेज ऐंठन शुरू हुयी । अजीव सी । और बहुत तेज ऐंठन । ऐसा लगा । देह टूट सी रही हो । मैंने उसका कारण जानना चाहा । पर मुझे कुछ समझ में नहीं आया । मुझे तो नहीं हुआ । पर दूसरे कुछ लोगों के अनुभव मुझे पता थे कि - यदि गधा घोङा खच्चर के जमीन पर लोटने के स्थान के ऊपर से कोई गुजर जाये । तो पैरों में ऐसी ही ऐंठन ऐसा ही दर्द होता है । और उसका टोटका ये होता है कि किसी विवाहित मगर सुहागिन स्त्री का चुटीला या फ़ीता मांगकर पैरों में बाँध दिया जाये । कुछ लोगों ने इस आजमाये हुये उपाय को सही भी बताया । मैंने ध्यान किया । क्या आज दिन में मेरे रास्ते में कोई ऐसा स्थान आया था ? लेकिन इससे पहले मैं किसी निष्कर्ष पर पहुँचती । मुझे स्वतः ही वह लगभग जल चुकी चिता याद हो आयी । और स्व स्फ़ूर्त प्रेरणा से ही मुझे लगने लगा कि - मेरी अचानक ऐंठन का उसी स्थान से कोई सम्बन्ध है । तब शान्त मनन से सारी तस्वीर साफ़ होने लगी । मैं आस्तिक हूँ । प्रभु में मेरी सच्ची आस्था है । मैं पूर्ण भाव से प्रभु से प्रार्थना करने लगी । और धीरे धीरे सामान्य हो गयी । लेकिन आज तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ । जब मुझे लगा । एक्सीडेंट में मृतक की छाया सी मुझे दिखायी दे रही है ।
- ये बातें किसी अखबार के लिये एक महत्वहीन समाचार की तरह है । मैंने सोचा - या फ़िर आम लोगों के लिये

रोजमर्रा के अनुभव । पर एक्सीडेंट की घटना ऐसी थी । जिस पर एक पूरी महत्वपूर्ण किताब ही लिखी जा सकती है ।
आस पास जोधा खड़े । सबे बजाबे गाल । मंझ महल से ले चला । ऐसा परबल काल ।
चहुं दिस ठाढ़े सूरमा । हाथ लिये हथियार । सबही यह तन देखता  । काल ले गया मार । 
सब जग डरपे काल सों । बृह्मा  विष्णु महेश । सुर नर मुनि ओ लोक सब । सात रसातल सेस ।
मौत कहाँ देखती है कि जो वह करने जा रही है । उससे इंसान पर क्या अच्छा बुरा होगा । शहनाई बज रही हो । मंगल गान होता हो । बारात आती हो । या अर्थी उठती हो । मरने लायक माहौल हो । या न हो । मौत को अपने काम से मतलब । वह 1 घण्टा क्या 1 मिनट भी नहीं बख्शती । ऊपर मैंने " होनी " की बात की । इसी को होनी कहते हैं । मरने की कोई वजह ही नहीं थी । कोई गलती ही नहीं थी । ट्रक और ड्राइवर के रूप में मौत ने उसे हथियार बनाया । ऐसा भी नहीं था कि कोई अनियन्त्रित स्थिति थी । सब कुछ शान्त सा ही था । मगर शतरंजी मोहरों की तरह विवश । बचाव के लिये कोई स्थान ही नहीं ।
- और मौत ने जैसे खिला खिलाकर ( खेल करते हुये ) मारा । मृतक की पत्नी महिला से बोली - यदि वह दोबारा में 


ट्रक पीछे न लेता । तो शायद अधिक से अधिक एक टांग ही कट जाती । पर इंसान तो बच जाता । मौत ने एक सफ़ल बाजी की तरह इस खेल को खेला । उसने दुकानदार को भी मोहरा बना लिया । उससे बचाव की चाल चलवाते हुये भी कुशलता से बाजी को पलट दिया । सोचने वाली बात है । उसकी सहानुभूति ही घातक हुयी ।
- मैं विचार करती हूँ । वह महिला मुझसे बोली - अक्सर लोग कहते हैं । ऐसा था । वैसा था । कोई सहायता उपलब्ध न थी । रात थी । सुनसान था । जंगल था । शेर था । जहरीला नाग था । कातिल थे । ये गलती  हुयी । वो गलती हुयी । पर यहाँ तो कुछ भी नहीं था । हाँ एक बात सोची जा सकती है । यदि जाम सघन न होता । तो साइकिल आगे पीछे लेकर बचा जा सकता था । पर दूसरे बहुत से अन्य उदाहरण इस  संभावना को भी खत्म कर देते हैं । तव तरीका कोई और रूप ले लेता । इसलिये शायद होनी इसी को कहते हैं । होनी । जो हर हालत में हो के रहती है ।

28 फ़रवरी 2012

प्राणायाम से प्राण संकट

अभी सुबह के लेख में ही मैंने इस बात का जिक्र किया कि बहुत कम लिख पाने की कई वजहें हैं । उनमें फ़ोन काल्स की भी बात है । दैहिक दैविक भौतिक परेशानियों से जूझते । आत्म ज्ञान की तलाश में लगे । सत्य को खोजते । लोगों को जब लगता है कि उन्हें मेरे पास कोई हल मिल सकता है । तो फ़िर एक लम्बी बातचीत का सिलसिला शुरू हो जाता है । अपनत्व जुङते ही और भी ढेरों बातें ।
मेरी कोशिश यथासंभव उन्हें सही राह दिखाने की होती है । ये और बात है कि वे फ़िर कहीं जाना ही नहीं चाहते । हमारे ही होकर रह जाते हैं । कहते हैं - जीवन का भटकाव समाप्त हो गया ।
अभी आज ही 4 बजे की बात है । किसी जानकारी पर कोई लेख लिखने का मन बना रहा था । तभी एक फ़ोन आ गया । फ़ोन बङा खास था । इसलिये दूसरे विषय पर लिखने का  इरादा त्याग दिया । और इसी विषय पर आपको जानकारी देने की इच्छा  हुयी ।
आपको याद होगा । मैंने बहुत पहले ही लिखा था । गायक सोनू निगम प्राणायाम अनुलोम विलोम और  ध्यान का अच्छा अभ्यास करते थे । और करते हुये काफ़ी समय हो गया था । फ़िर ऐसा हुआ कि उनको अजीव अजीव अनुभव होने लगे । कुछ डरावने से । सोनू ने बहुत जानकारों बाबाओं से मशविरा लिया । पर शायद कोई उनकी समस्या हल नहीं कर पाया । और फ़िर एक जगह स्टेज पर कार्यकृम करते समय उन्हें काफ़ी डरावना अनुभव हुआ । जिसमें शायद स्टेज के तख्ते टूटना और डरावनी आकृतियाँ प्रकट होना शामिल थी । सोनू बेहद डर गये  । और मुश्किल से नियन्त्रित हुये । यह समाचार - अमर उजाला अखबार में सोनू के साक्षात्कार सहित छपा था ।
बात बहुत छोटी सी थी । मेरे नियमित पाठकों के लिये तो बहुत मामूली । डरावने दिखने वाले अशरीरी गाना गाने

नृत्य करने आये थे । पर सोनू डर गये । राजीव बाबा होते । तो उनका भी कार्यकृम शामिल करवा देते । बस इतनी सी बात थी ।
खैर..बदायूँ के प्रमोद शर्मा बहुत परेशान थे । और अभी अभी पतंजलि हरिद्वार से निराश होकर लौटे थे । और नेट पर कुण्डलिनी जागरण शब्द सर्च गूगल कर रहे थे । तो उनको विश्व प्रसिद्ध राजीव बाबा का नम्बर मिल गया । ध्यान रहे । वो ब्लाग तक नहीं आ पाये । बल्कि कुण्डलिनी जागरण शब्द के साथ ही मेरा नाम और फ़ोन नम्बर उन्हें सर्च रिजल्ट में ही मिल गया । एक उम्मीद सी बँधी । और तुरन्त उन्होंने मेरा फ़ोन मिलाया । हालांकि जो उन्होंने बताया । उसमें मेरे लिये कोई हैरान होने वाली बात नहीं थी । फ़िर भी मुझे बहुत हैरानी हुयी । OH MY GOD ! WHERE ARE YOU ?
आईये प्रमोद शर्मा ने जो बताया । उसको जानते हैं । प्रमोद की आयु 32 वर्ष है । और वो गुटखा बहुत खाते थे । इससे लगभग 2 साल पहले उनके गले में बहुत दिक्कत हुयी । यहाँ तक कि थूक पानी निगलने में परेशानी होने लगी । और जाहिर है । आजकल अनुलोम विलोम बाबा रामदेव ऐसे मामलों के एक्सपर्ट है । प्रमोद पतंजलि गये । और दवा तथा अनुलोम विलोम आदि नाङी शोधन प्राणायाम शुरू किया ।
मृत्यु को करीब देखता आदमी बङे लगन से उपाय करता है । वही प्रमोद ने भी किया । सुबह शाम 3 से चार घन्टे तक अनुलोम विलोम । और वो भी पूरी लगन आस्था से ।
मैं खुद 100% इस बात से सहमत हूँ । किसी भी शारीरिक या मानसिक रोग में भी अनुलोम विलोम नाङी शोधन प्राणायाम बेहद लाभकारी है । इसको सही तरीके से करने पर प्रारम्भिक और जटिल स्थिति को छोङकर दवा की 


भी आवश्यकता नहीं । प्रारम्भिक से मेरा आशय है । जब अनुलोम विलोम प्रभावी होने लगे तव तक । दवा खाना जरूरी है ।
खैर .. प्रमोद जी को भी लाभ हुआ । उन्होंने बीच में छोङ दिया । और अभी फ़िर से करने लगे । लेकिन अब जो हुआ ? वहाँ बाबा रामदेव की दाल नहीं गलती । हुआ ये कि जैसी कि मैंने बहुत पहले ही आशंका जतायी थी कि अधिक अनुलोम विलोम और गहराई से ध्यान अभ्यास करने पर योग क्रियायें जागृत हो सकती हैं । वही हुआ । प्रमोद जी की कुण्डलिनी जागरण की शुरूआती अवस्था बनने लगी । उनके माथे पर कई स्थानों पर गुदगुदी । स्पंदन । ह्रदय । नाभि आदि चक्रों पर तेज आनन्ददायी कंपन महसूस होने लगा । रीढ की हड्डी में सुन्नता और रेंगन सी मालूम पङी ।
प्रमोद बोले - गुरुजी वो मेरी ऐसी अवस्था थी कि मैं न उसे रोक पाता । न ही और कुछ कर पाता । मजा भी आता । और डर भी लगता । अब ये बताईये । ये सब क्या है ? और इसमें कोई खतरा तो नहीं है ।
हाँ गुरूजी ! मैं अभी पतंजलि हरिद्वार गया । तो मैंने उन्हें ये अनुभव या परेशानी बताये । तो वो बोले - अरे ये सब कुछ नहीं । फ़ालतू बातें हैं । कुण्डलिनी वगैरह कुछ नहीं होता । इस तरह कुण्डलिनी से सब होने लगे । तो दवायें

ही बन्द हो जायें । तुम फ़ालतू भृम ? से ध्यान हटाकर ये दवायें ले जाकर खाओ । उसी से सब सही होगा ।
अब जो आदमी परेशान है । उसको तसल्ली कैसे आये । आपने तो कह दिया । सब ठीक हो जायेगा । प्रमोद को कोई रास्ता नहीं सूझा । अपने परिचित भाईयों आदि से बात की । तो उन्होंने मौखिक रूप से थोङी सी जानकारी बता दी । कोई ठोस बात वे भी नहीं जानते थे । तब परेशान प्रमोद ने नेट पर सर्च किया । और थोङी ही देर में मेरे फ़ोन की घण्टी बजने लगी ।
मुझे उनकी बात सुनकर बेहद हैरानी हुयी । जो स्थिति वो बता रहे थे । इसके लिये कुण्डलिनी वाले लोग कितना ही  जतन करते हैं । पर प्राप्त नहीं होती । और उन्हें अपनी ही स्थिति के बारे में पता नहीं था ।
खैर ..मैंने कहा - अगर आप अपनी स्थिति को नियन्त्रण ( कुण्डलिनी जागरण की स्थिति बनने पर ) कर सके । तो यह बहुत बङी उपलब्धि हुयी । आपकी आशा कल्पना से भी अधिक । और नहीं कर पाये । तो पागलपन । मृत्यु । या मृत्यु सम कष्ट ।
अब जाहिर है । कोई इंसान नियन्त्रण तो तभी कर पायेगा । जब कोई सपोर्ट कोई सम्बन्धित ज्ञान उसके पास होगा । अगर ऐसा उनके पास होता । फ़िर मुझे फ़ोन ही क्यों करते ? फ़िर और भी बहुत सी बातें हुयी । और अंततः उन्होंने पूछा - इसका स्थायी समाधान कैसे होगा ?
- समर्थ गुरु द्वारा । मैंने उत्तर दिया । बाकी बहुत सी जानकारी मेरे  ब्लाग्स पर मौजूद है ही ।

22 फ़रवरी 2012

संसार की आसक्ति कैसे दूर हो ?

प्रश्न - भजन करते समय सुरत ऊपर की ओर नहीं जा पाती । और अनेक प्रकार की तरंगों में फ़ंस जाती है । लगता है कि मुझमें संसार की प्रबल आसक्ति डेरा जमाये है । संसार की यह आसक्ति कैसे दूर हो ?
उत्तर - कुछ अभ्यासी ऐसे होते हैं । जिनकी दुनियां की आसक्ति इतनी प्रबल होती है कि जब वे भजन । ध्यान करने बैठते हैं । तो बुरी बुरी तरंगे मन में आती है । जो साधक के भजन । सुमिरन । ध्यान में विघ्न बाधा उत्पन्न करती हैं । जिज्ञासु उन्हीं के प्रवाह में बहने लगता है । न तो वे भजन । सुमिरन का आनन्द ले पाते हैं । और न ही श्री सदगुरू के स्वरूप के ध्यान का ही आनन्द ले पाते हैं । ऐसे अभ्यासी स्वयं उन तरंगो को रोकने में असमर्थ हो जाते हैं । या विषयों के ख्याल में इतने डूब जाते हैं कि उन तरंगो को रोकना उनके वश में नहीं होता है । इससे यह स्पष्ट होता है कि - उनकी दुनियां की आसक्ति बहुत प्रबल है । या दूसरे शब्दों में यह कि उनके मन में सांसारिक तथा विषय भोगों के पदार्थों की चाह इतनी गहरी जड पकडे हुए है  कि भजन । सुमिरन । ध्यान के समय भी वे उसी भोग विलास के चिन्तन में डूबे रहते हैं । सन्त महापुरूषों ने कहा है कि ऐसे अभ्यासियों को चाहिये कि वे अपने अभ्यास को धीरे धीरे चलने दें । बन्द न करें ।
बल्कि भजन । सुमिरन । ध्यान के साथ साथ । कुछ कुछ गुरू के साथ बिताये हुए समय के तथा स्थान का ख्याल करते हुए गान करते रहें । और उसके सारांश पर ध्यान देते रहें । बीच बीच में समय देख देख कर भजन । सुमिरन । ध्यान का अभ्यास जारी रखें । ऐसा करते रहने से कुछ दिनों के अभ्यास के द्वारा मन और सुरत में कुछ निर्मलता आने लग जायेगी । तब धीरे धीरे भजन सुमिरन और ध्यान की साधना के अभ्यास में समय बढाते

जाना चाहिये । ऐसा सदा करते रहने से मन का रूझान भजन ध्यान की सुरति में सराबोर होता जायेगा । और माया तथा संसार की तरफ़ से मन हटता जायेगा ।
परन्तु साधक को सदैव सतर्क रहना चाहिये कि वह माया के आकर्षण वाली वस्तुओं के प्रभाव में न जकडे । सदा उधर से मन मोडे रहे । श्री सदगुरू देव जी महाराज के भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान में मन को सदा जोडे रहे । तथा बुरे कार्यों से सदा डरा करे । जिससे मन । वचन । कर्म से कोई बुरा पाप कर्म न बन पडे । ऐसा सोच विचार । निरख परख सदैव करते रहना चाहिये । यदि ऐसा न हुआ । तो परमार्थ की कमाई में यानी भजन । भक्ति में । तथा भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान में बडी हानि होती है । जब मन की बिखरी हुई शक्ति की किरण भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन और ध्यान से एकत्रित होती है । तब साधक या जिज्ञासु चमत्कारी कार्य कर सकते हैं ।
गुरू केवल दो अक्षरों से निर्मित एक शब्द ही नहीं है । अपितु पूर्ण रूप से आन्तरिक अन्धकार को दूर करने का

एकमात्र समर्थ और सशक्त माध्यम है । मानव के ह्रदय में जो माया का अन्धकार छाया हुआ है । उसको दूर करने का केवल यही के उपाय है । जिसे गुरू शब्द का भजन । सुमिरन । ध्यान कहा गया है । केवल एक ही उपाय है कि हम बहुत श्रद्धापूर्वक अपने ह्रदय से गुरू शब्द का सुमिरन करें । और केवल इन दो अक्षरों का स्मरण ही पूरे शरीर को आन्तरिक उज्ज्वलता से भर देता है ।  गंगा जल से स्नान करा देता है । पूरे आकाश में उडने की क्षमता प्रदान कर देता है । अर्थात विहंगम मार्गी बना देता है । क्योंकि ये केवल दो अक्षरों का शब्द ही नहीं । अपितु चेतना युक्त मंत्र शक्ति का संस्कार है । वेदों का सार तत्त्व है । उपनिषदों का निचोड है । जीवन का सार भूत तत्त्व है ।
1 गुरू भक्ति योग का मत है कि - भजन । सुमिरन । ध्यान । तथा समाधि । एवं आत्म साक्षात्कार करने हेतु ह्रदय शुद्धि प्राप्त करने के लिये गुरू सेवा पर खूब जोर देना चाहिये ।
2 सच्चा शिष्य गुरू भक्ति योग के यानी भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान । व आज्ञा के पालन के अभ्यास में लगा रहता है ।
3 पहले भक्ति योग की महत्ता । और उसकी उपयोगिता को समझो । और उसका आचरण करो । आपको सफ़लता अवश्य मिलेगी ।
4 तमाम दुर्गुणों को निर्मूल करने का एकमात्र असर कारक उपाय है । गुरू भक्ति योग को आचरण करना ।
82 प्रश्न - यह प्रसिद्ध है कि गुरू के दर्शन से पाप नष्ट होते हैं । बाहर दर्शन से भीतर सुरत पर जमी हुई पापों की मैल कैसे दूर होती है ? कृपया समझा कर कहिये ।
उत्तर - गुरू के दर्शन करने मात्र से ही जीवन के सारे पाप अपने आप कटने लग जाते हैं । चाहे गुरू बोले । चाहे आप

कुछ पूछें । या ना पूछें । मगर जिस प्रकार से । यदि सूखी लकडी चन्दन के पास में । या सम्पर्क में रहे । तो चन्दन की सुगन्ध उस लकडी में अपने आप चली जाती है । ठीक इसी प्रकार गुरू के दर्शन मात्र से ही जीवन के सारे पाप ताप स्वत: कटने लग जाते हैं ।
जब साधक के पुण्य कर्म का उदय होता है । तो जीवन में उच्च कोटि की भावना जागृत होने लग जाती है । और श्री सदगुरू देव के दर्शन पाते ही जीवन अपने आप में निर्मल और चेतन होने लग जाता है । तब वह अपने ह्रदय में गुरू को स्थापित करता है । साधक निश्चय कर लेता है कि - मुझे सबसे पहले श्री सदगुरू देव जी महाराज के दर्शन व गुरू दीक्षा प्राप्त करनी है । क्योंकि जब तक गुरू के दर्शन का लाभ नहीं मिल पाता । तथा दीक्षा प्राप्त नहीं हो पायेगी । तब तक गुरू और शिष्य का सम्बन्ध एक अलग बात है । गुरू दर्शन । गुरू दीक्षा । पैसे से प्राप्त नहीं की जा सकती है । गुरू दीक्षा तो जब हम गुरू के दर्शन कर गुरू के श्री चरणों में बैठते हैं । गुरू के श्री

मुख की अमृत वाणी सुनते हैं । गुरू की सेवा करते हैं । उनकी आज्ञा का पालन करते हैं । तो गुरू प्रसन्न हो जाते हैं । तब हमें अपने ह्रदय से लगा लेते हैं । और गुरू दीक्षा प्रदान कर हमें इस जन्म मृत्यु से छुटकारा दिलाने का प्रयास करते हैं । अर्थात एक पग आगे बढा देते हैं ।
जब ऐसी स्थिति आ जाती है । तब वह स्थिति पैदा हो जाती है । जब शिष्य की आंखों में निरन्तर गुरू की छवि बसी रहती है । सोते जागते । उठते बैठते । उसकी आंखों के सामने से गुरू का स्वरूप हटता ही नहीं । फ़िर उसे हनुमान चालीसा याद नहीं रहता । फ़िर उसे राम की स्तुति याद नहीं रहती । उसे कृष्ण की लीला याद नहीं आती । उसके ह्रदय में केवल गुरू शब्द की स्मृति रहती है ।
दूसरे शब्दों में सन्तों ने कहा है कि - परमेश्वर अन्तर्यामी हैं । और घट घट वासी है । जो उसके सच्चे सेवक हैं । उन्हें वह अपनी ओर खींचते हैं । अपने श्री चरणों में उसकी प्रीति और प्रतीति को द्रढ करने तथा उसे आध्यात्मिक पथ पर बढाने के लिये परमेश्वर अपने मौज से जब तब गुरू रूप में दर्शन देते हैं । भजन । सुमिरन । ध्यान में भी दर्शन देते हैं । यानी अभ्यास करते समय अन्दर में दर्शन देते रहते हैं । और स्वपन में भी दर्शन होता रहता है । सोते समय भजन । सुमिरन । ध्यान करते हुए सोये । इसका परिणाम यह होता है कि - मन और सुरत का सिमटाव अन्दर की तरफ़ हो जाता है । और देह तथा इन्द्रियों की तरफ़ झुकाव नहीं होता । जब वह सुरत घट के अन्दर प्रवेश करती है । तो घट वासी के दर्शन गुरू रूप में होते हैं । क्योंकि वही इष्ट है । इष्ट के लिये जो भावना होती है । वह सोई पडी रहती है । भजन । सुमिरन । ध्यान की साधना से सुरत निर्मल हो जाती है । सुरत की निर्मलता से वह भावना जागृत रूप में आ जाती है । साधक व अभ्यासियों का इष्ट उनका सदगुरू होता है । अत: वह उसी भावना को लेकर अपनी साधना में सदा रत रहते हैं । और मालिक उन्हें सदगुरू रूप में ही दर्शन देता है । जब वे पूरी तरह अपने आपको श्री सदगुरू में लय कर देते हैं । तब मालिक के दर्शन अनेकानेक रूपों में होने लग जाते हैं । जो वर्णनातीत हैं । उस समय श्री सदगुरु महाराज पुश्ते यानी पीठ पीछे रहकर शिष्य की सहायता करते रहते हैं ।
सन्तो का कथन है कि - इस प्रकार के दर्शन हाड मांस के शरीर के नहीं हैं । वरन चैतन्य अर्थात रूहानी हैं । और श्री सदगुरू देव जी महाराज की तरफ़ से सेवक को अपनी पहचान कराने के लिये धारण किये जाते हैं । वैसे तो मालिक बिना कोई रूप धारण किये ही अरूप तौर पर अन्दर में दया का परिचय दे सकते हैं । परन्तु ऐसी दशा में सेवक को उस दया की पहचान नहीं होगी । और जब पहचान नहीं होगी । तो वह यह कैसे समझेगा कि - मेरे मालिक ने मेरे ऊपर दया व कृपा की है । जब कभी ऐसे दर्शन हों । तो अभ्यासी को चाहिये कि वह अपने भाग्य को सराहे । अहंकार को न आने दे । और श्री सदगुरू देव जी महाराज के स्वरूप का ध्यान बारम्बार मन में लाकर उनके श्री चरण कमलों में ख्याली तौर पर अपना माथा टेकता रहे । ऐसे दर्शनों का फ़ायदा ज्यादा से ज्यादा उठाना चाहिये । वह इस तरह होगा कि - जब जब भजन । सुमिरन । ध्यान के समय । या इसके अलावा भी ऐसे श्री सदगुरू के दर्शन की याद आयेगी । तब तब अवश्य थोडा बहुत प्रेम मालिक के प्रति हिलोरें लेगा । और उस हिलोर की टक्कर से मन और इन्द्रियां नीची पड जायेंगी । तथा भजन । सुमिरन । ध्यान के अभ्यास में विघ्न नहीं डालेंगी ।
शर्त एक ही है । उस गुरू के प्रति साधक के अन्दर में प्रेम होना चाहिये । प्रयासों से जो नहीं हो पाता । प्रेम से सहज ही हो जाता है । एक स्थिति ऐसी आती है । जब यह आन्तरिक गुरू स्वत: मातृवत सक्रिय होकर साधक की बांह पकड लेता है । और ऊपर खींच कर अपने में समाहित कर लेता है । उस गुरू तत्त्व में लय होते ही साधक इस प्रश्न का उत्तर बन जाता है कि - मैं क्या हूं ?
पांल ब्रंटन का अनुभव है कि - यह आन्तरिक गुरू साधना के कृम में मुखर नहीं होता । भजन । सुमिरन । ध्यान । और चिन्तन के सायास क्षणों के परे वह अकस्मात आदेश देने लग जाता है । और उसके आदेश कभी भी गलत सिद्ध नहीं होते । बस उन आदेशों को अपने अहम की प्रेरणा से अलग करके सुनने और समझने की सामर्थ्य होनी चाहिये । ज्ञातव्य है कि - यह श्रम साध्य नहीं है । यह कृपा साध्य है । परन्तु प्रयासों से कृपा के अवतरण में सहायता मिलती है । इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता ।
सन्तों का कथन है कि - श्री सदगुरू स्वरूप और उनके भजन । सुमिरन । ध्यान की महिमा का फ़ायदा अधिक इसलिये है कि अन्तर्यामी परमेश्वर सेवक पर दया करने के लिये । तथा उसकी प्रीति और प्रतीति बढाने के लिये । स्वयं उस स्वरूप को धारण करके घट में ही दर्शन दे देते हैं । जहां तक रूप रंग रेखा की पहुंच है । वहां तक यह स्वरूप सूक्ष्म से सूक्ष्म होता हुआ । सेवक के सदा साथ रहेगा । और अन्तर में सहायता करता रहेगा । आगे चलकर अभ्यासी गुरू में लय होता हुआ । ऊंचे स्थानों में पहुंचेगा । यह स्वरूप निराकार का भी परिचय कराता जायेगा । इसी को पीठ पीछे रहकर सहायता करना कहा गया है । इसलिये प्रत्येक अभ्यासी को चाहिये कि - जब कभी ऐसे दर्शन अभ्यास के समय । या स्वपन में हों । तो उसे मालिक के ही स्वरूप का दर्शन समझ कर उस स्वरूप में प्रीति और भक्ति भाव लावे । यह भली भांति समझ लेना चाहिये कि - इस प्रकार के दर्शन अभ्यासी के अधिकार की बात नहीं है कि जब वह चाहे । तभी ऐसे दर्शन प्राप्त कर ले । यह तो मालिक की मौज है । वह जब चाहि तब दर्शन दे । जब कभी मालिक की ऐसी मौज हो कि - वह भजन । सुमिरन । ध्यान करते समय । या स्वपन में दर्शन दें । तो यह उनकी महान दया का परिचायक है । इसी प्रसंग में श्रीकृष्ण कहते हैं कि -
अनन्याश्र्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते । तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम  ।
जो अनन्य प्रेमी भक्त जन मुझ परमेश्वर को निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से भजते हैं । उन नित्य निरन्तर मेरा चिन्तन करने वाले भक्तों का योग और क्षेम मैं स्वयं वहन करता हूं ।
अपना हरि बिनु और न कोई । मातु पिता सुत बंधु कुटुंब सब स्वारथ ही के होई ।
श्री सदगुरू भगवान के बिना इस संसार में अपना हितैषी अन्य कोई नहीं है । माता । पिता । पुत्र । भाई । और कुटुम्ब । कबीला । ये सब स्वार्थ के ही मीत या दोस्त हैं । सन्तों महापुरूषों का कहना है कि - श्री सदगुरू देव जी महाराज की कृपा से जिन्हें संसार की वास्तविकता का ज्ञान हो गया है । उन्हें सदैव मालिक का ही ओट आसरा तथा उन्हीं की टेक रहती है ।
एक भरोसा एक बल । एक आस विश्वास । स्वाति सलिल सतगुरू चरण । चातिक तुलसीदास  ।
जो भक्त श्री सदगुरू का ओट आसरा ग्रहण कर लेता है । और अपने ह्रदय में उन्हीं की आस और उन्हीं का विश्वास रखते हैं । उनके सभी प्रकार के दुख दूर हो जाते हैं ।
दैहिक दैविक भौतिक तापा । राम राज काहू नहिं ब्यापा ।
अर्थात श्री सदगुरू की दया से सभी प्रकार के दुख दूर हो जाते हैं । उनके मन के सारे विकार । सम्पूर्ण पाप ताप अपने आप दूर होकर मालिक के श्रीचरण कमलों में प्यार हो जाता है । श्री सदगुरू देव जी महाराज के नाम का भजन । सुमिरन । और ध्यान का तन । मन के स्वास्थय पर भी धनात्मक प्रभाव पडता है । नाम के सुमिरन । भजन । ध्यान के महत्त्व के सम्बन्ध में सत्संग के दौरान हमारे परम आराध्य श्री स्वामी जी महाराज परमहंस ने परमार्थ के गूढ रहस्यों की चर्चा करते हुए यह भी कहा था कि - नाम का भजन । सुमिरन । ध्यान करते रहने से तन और मन दोनों स्वस्थ रहते हैं ।
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ये शिष्य जिज्ञासा की सुन्दर प्रश्नोत्तरी श्री राजू मल्होत्रा जी द्वारा भेजी गयी है । आपका बहुत बहुत आभार ।

08 फ़रवरी 2012

ये कैसा सत्य पुरुष है ? जिसके काबू में कुछ नहीं

आदरणीय राजीव जी को सप्रेम नमस्ते । कहिये श्रीमान कैसे हो ? आशा है । मौज में ही होंगें । सत्यकीखोज पर मैंने ये पढ़ा है कि सत्य पुरुष के पांचवें शब्द से काल निरंजन पैदा हुआ । जिसने आज तक सभी प्राणियों को दुखी कर रखा है ।
अगर सत्य पुरुष ने इसे पैदा नहीं किया होता । तो आज बिचारे प्राणी दुखी ना होते । तो काल निरंजन को क्यों दोष दिया जावे ? सारा बखेडा तो सत्य पुरुष का फैलाया हुआ है । या फिर ये कहें कि सत्य पुरुष के वश में नहीं था कि वो काल निरंजन को पैदा नहीं करे । तो ये कैसा सत्य पुरुष है ? जिसके काबू में कुछ नहीं । और यदि वश में था । और जानते बूझते काल निरंजन को उत्पन्न किया । तो फिर सारा दोष सत्य पुरुष का है । अब आप सत्य पुरुष की पैरवी करते है । और दोष काल निरंजन का बताते हैं । तो यह तो शुद्ध  राजनीति हुई कि पहले तो खुद जनता को दुखी करो । और फिर कहो कि हमारे मत को मानो वरना । कृपया इस गुत्थी को अपने सत्य ज्ञान से सुलझायेंगे । कोटि कोटि नमन के साथ । आपका कृष्ण मुरारी ।
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मुख्य अभियुक्त कौन ? काल पुरुष या सत्य पुरुष । शीर्षक ई मेल सबजेक्ट के साथ ।

सबसे पहले तो यही जानिये कि - सत्य पुरुष कौन हैं ? आत्मा की जो मूल और कतई निर्विकारी स्थिति ( उसे स्थिति कहना भी गलत है । क्योंकि जब कहीं कुछ था ही नहीं । और वही  सार तत्व था । तो वह कोई स्थिति नहीं हुयी । बल्कि वह तो है । लेकिन समझाने  हेतु ऐसा कहा जाता है । ) है । उसी को पहुँचें हुये सन्तों ने संकेत में सत्य पुरुष कहा है । अब यहाँ एक विशेष बात है । who am i की खोज में आखीर तक पहुँचे सन्तों ने जब शाश्वत सत्य को जाना । और स्वयँ को हर स्थिति उपाधि से रहित पाया । तब उन्होंने उसे एकमात्र सत्य होने से ( मगर वास्तव में खुद को ही ) सत्य पुरुष कहा । क्योंकिं वहाँ तक पहुँचने पर उसे नीचे हुये पूर्व अनुभवों से पता चला कि - ये सब सत्य नहीं हैं । कल्पित हैं । ये सब मेरी ही कल्पना है । अहं बृह्मास्मि .. ये भी एक स्थिति है । जब योगी साधक के मुँह से वहाँ स्थिति होने पर स्वयं ही निकलता है । या बोध होता है - अरे ये सब क्या है ? मैं ही वो बृह्म हूँ । अहं बृह्मास्मि । ऐसे ही आत्मा को ही योगियों सन्तों ने अपने अपने भाव अनुसार - आत्मा । परमात्मा । सत्य पुरुष । बृह्म । अल्लाह । नूर । रब्ब आदि कहा है ।

अब आगे की बात - जब आत्मा ( सार तत्व ) में सर्व प्रथम विचार उत्पन्न हुआ । तो पहली ध्वनि " हुं " थी । ये कोई बहुत बङा रहस्य नहीं है । कोई भी । आज भी जब विचारशील होता है । तो जैसे उसके द्वारा ध्वनि " हुं " और आंतरिक क्रिया ( संकुचन ) होती है । ठीक वैसे ही हुयी । आप स्थिर । गम्भीर । गहन स्थिति में आँख बन्द करके अभी भी उस समय का कुछ कुछ अनुभव कर सकते हैं । तो जब आप अभी भी ध्वनि " हुं " करेंगे । तो आपके अन्दर एक संकुचन सा होगा । करके देखिये । इसके ठीक बाद । दूसरी स्थिति बनी - मैं कौन हूँ ? । who am i ? गौर से सोचिये । ये प्रश्न अपने लिये ही था । यानी अपने को ही जानने की इच्छा । बस ये ही वो अहम रूप झीना पर्दा बन गया । जो आज तक कायम है । आत्मा और जीव ( विभिन्न स्थितियाँ ) के बीच झीना सा । और मिथ्या पर्दा । इसीलिये हरेक कोई आज तक यही सोचता है - मैं कौन हूँ ? । who am i ?
बस यही से खेल शुरू हो गया । तब प्रथम जो महा " शब्द " प्रकट हुआ । यही गुप्त है । इसके साथ ही मूल प्रकृति आदि निर्माण शुरू हो गया । धर्मा तोहे लाख दुहाई । सार शब्द बाहर नहिं जाई ।

इसके बाद विभिन्न स्थितियाँ बनी । जिनसे अलग अलग उपाधियाँ निर्मित हुयीं । तब अन्त में मनुष्य बना । ये " सोहम " मूल का था । अर्थात - वही मैं हूँ । फ़िर से ध्यान दें । ये भाव जहाँ अभिन्न 1 का भी बोधक है । वहीं आश्चर्यजनक रूप से 2 की भी ध्वनि देता है - जो तू है । वही मैं हूँ । इसमें एक  मिथ्या " मैं " भाव जुङ गया । मिथ्या ।
काल पुरुष - जैसा कि मैं कई बार बता चुका । यही मन भी है । यानी माना हुआ कल्पनात्मक सृजन करने वाला । अष्टांगी से मिलने से पहले इसका नाम धर्मराय था । और क्रूरता से उसको निगल जाने के कारण इसे यमराय कहा जाने लगा । इसने कई बार 64 युग एक पैर खङे होकर सृष्टि मूल " सोहंग " जीव बीज प्राप्त किया । क्योंकि ये मन रूप था । सो जैसी आज भी मन की दशा होती है । वैसे ही ये जीव को मोहरा बनाकर । आधार बनाकर । विभिन्न वासनाओं की पूर्ति करने लगा । और माया के वशीभूत जीव समझने लगा - ये सब मैं कर रहा हूँ । अब काल निरंजन की खास बात ये है कि इसे किसी प्रकार का दोष नहीं लगता । फ़िर ये जीव को पाप पुण्य के कर्म भरम जाल में उलझाकर दुखी करने लगा । तब सत्य पुरुष ने इसे शाप दिया कि - तू प्रतिदिन 1 लाख जीवों का भक्षण करेगा । और सवा लाख उत्पन्न करेगा ।
और देखिये - सृष्टि दो प्रकार की बनी । एक परमात्म सृष्टि । या सत्य पुरुष सृष्टि । या बृह्माण्ड की चोटी से ऊपर सचखण्ड सृष्टि । यह सत्य ज्ञान युक्त है । और दूसरी - काल निरंजन और माया की सृष्टि । ये काल ( समय के अधीन रचना ) और माया ( विभिन्न वासनात्मक कल्पनाओं

का साकार रूप ) की रचना है । और अज्ञान युक्त है । इसलिये यहाँ के वासियों के लिये सब कुछ रहस्यमय है । जबकि परमात्म सृष्टि की आत्माओं के लिये कुछ भी रहस्य नहीं है ।
नीचे से यह कृम इस प्रकार है - जीवात्मा । बृह्मात्मा । शिवात्मा । परमात्मा । आत्मा ।
इसी तरह यह भी है - स्थूल ( जीव ) सूक्ष्म । कारण । महाकारण । तुरीया । तुरीयातीत ।
अब आईये । आपकी जिज्ञासा पर बात करते हैं ।
सत्य पुरुष के वश में नहीं था कि वो काल निरंजन को पैदा नहीं करे - जब पहली बार कबीर जीवों की करुण पुकार पर मान सरोवर तप्तशिला पर आये । तो उन्हें काल निरंजन द्वारा जीवों पर अत्याचार करते हुये देखकर बङा क्रोध आया । और उन्होंने यही सोचा कि - इसको अभी समाप्त करके सब जीवों को मुक्त कर दूँ । लेकिन काल निरंजन ने उन्हें तपस्या से प्राप्त किया था । और ये प्राप्ति उसे सत्य पुरुष से हुयी थी । तब यहाँ दोनों के बीच एक समझौता हुआ कि - जो भी जीव इस माया वासना से तंग आकर सत्य पुरुष को पुकारेगा । तब वहाँ से कोई प्रतिनिधि आकर उसे माया से रहित सत्य ज्ञान का बोध करायेगा । और सत नाम देगा । उस सत्य नाम के ध्यान सुमरन से जीव काल जाल से मुक्त हो जायेगा । इस तरह त्रिलोकी सृष्टि का खेल चलता रहेगा ।
अब ठीक से समझने की कोशिश करें । अभी भी आप आत्मा हो । काल ये मन ही है । इसी को काबू में करना है । 


और ये सोहम से बना है । अतः सोहम को जानने या सोहम की रगङ से काबू हो जाता है । या नष्ट हो जाता है ।  ओहम ॐ से काया बनी । सोहम से मन होय । ओहम सोहम से परे जाने बिरला कोय यानी बहुत झंझट में न पङें । तो शरीर और मन के बाद आत्मा ही शेष है । इन्हीं का संयुक्त रूप पूरा खेल है । शरीर और मन से आप बखूबी परिचित हो ही । सिर्फ़ आत्मा को जानना है ।
अब बात ये है कि - सत्यपुरुष काल निरंजन को पैदा ही नहीं करते । एक बात बताईये । करोंङों माँ बाप अपनी सन्तान को पैदा करते हैं । और वह प्रतिकूल निकल जाती है । तब वे उसे पैदा ही क्यों करते हैं ? या ऐसा होने पर उसे काबू में क्यों नहीं कर पाते ? या मार क्यों नहीं डालते ? जाहिर है । ये सब स्थितियों के संस्कार वश बना खेल मात्र है । मन का खेल । जो अज्ञान वश सत्य प्रतीत हो रहा है ।
और ये बात - सत्य पुरुष के सिर्फ़ उसी समय की नहीं है । आज भी हर इकाई ( जीव ) द्वारा यही खेल है । सत्य पुरुष ( आत्मा ) प्रथम स्थिति । काल निरंजन ( मन ) दूसरी स्थिति । शरीर ( माया कृत या प्रकृति ) तीसरी स्थिति । बस उस 1 से यही 2 बात पैदा होती है । 1 वह स्वयं । 2 मन ( विचार वायु । वासना वायु )  और 3 शरीर ( चेतन शक्ति से निज वासना का प्रकृति द्वारा स्थूल रूप होना )
नाम - इस चेतन धारा से सृजन की विभिन्न स्थितियाँ हैं । सहस्रार चक्र ( सिर के मध्य ) से नाभि तक ये शब्द ध्वनि ऊपर से कृमशः नीचे तक स्थूल और स्थूल होती गयी है । इसी डोरी या सीङी पर चढते चले जाना है ।

अब सार बात - मैंने तरीका आपको बता दिया । आप इस काल निरंजन ( मन ) को अधीन कर सके । तो ये आपको दुखी नहीं कर पायेगा । फ़िर आप ही सत्य पुरुष हो । और काल माया ( प्रकृति ) आपके आधीन । सार शब्द जब आवे हाथा । तब तब काल नवावे माथा । इस  तरह ये खेल ही है । लेकिन आप इसके उलट मन और माया के अधीन हो जाते हो । तब यही जीव है । कबीर साहब ने इसी को कहा है - एक अचम्भा मैंने देखा । नैया में नदिया डूबी जाये । यानी ये मन ( काल ) और माया ( प्रकृति ) आपके ( आत्मा ) होने से ही कार्य कर रहे हैं । वरना ये जङ ही हैं । और हैरानी ये है कि - आप इन्हीं को सब कुछ मान बैठे । राजा गुलाम हो गया । और गुलाम राजा ।
- वैसे ये बातें थोङी जटिल हैं । फ़िर भी मैंने यथासंभव सरलता से समझाने की पूरी कोशिश की है । फ़िर भी किसी बिन्दु पर अस्पष्टता लगने पर निसंकोच पुनः पूछ सकते हैं ।

06 फ़रवरी 2012

दीक्षा और शक्तिपात का रहस्य

78 प्रश्न - भजन के समय अपने मालिक का अपने अन्दर स्पष्ट दर्शन नहीं हो पाता । जिससे असन्तोष बना रहता है । मालिक के स्वरूप के दर्शन में चित्त कैसे स्थिर हो ? कृपा कर समझाने का कष्ट करें ।
उत्तर - भजन । सुमिरन । ध्यान के अभ्यास के समय श्री सदगुरू देव जी महाराज की कृपा से अन्दर में श्री सदगुरू का दर्शन यदा कदा होता रहता है । यदि श्री सदगुरू के स्थूल रूप का ध्यान करता है । तो श्री सदगुरू के स्थूल रूप के दर्शन होते हैं । श्री सदगुरू के नाम के भजन । ध्यान के अभ्यासी को अन्दर में मालिक का दर्शन हो । तो साधक अपने को धन्य धन्य मानने लगता है । गुरू मूर्ति का दर्शन ध्यान तथा गुरू के नाम का जप । गुरू की आज्ञा का पालन करना सदा कर्त्तव्य है । तथा गुरू के सिवाय और किसी का चिन्तन करना अनुचित है । 


मन में थोडा बहुत प्रेम उनके प्रति उत्पन्न हो सकता है । गुरू स्वरूप का तो उनके सामने जाने से साक्षात दर्शन होता है । यदि गुरू का ध्यान कोई साधक अन्दर में करे । तो सूफ़ी भाषा में इसे सदव्वुरे शेख कहते हैं । यह योग है । योग का अभ्यास गुरू के सानिध्य में करना चाहिये । विशेषत: तंत्र योग के बारे में यह बात अत्यन्त आवश्यक है कि सचमुच में योग्यता वाला शिष्य नम्रता पूर्वक गुरू के पास आता है । गुरू को आत्म समर्पण करता है । गुरू की सेवा करता है । और गुरू के सान्निध्य में योग सीखता है । साधक की उन्नति के लिये विश्व में अवतरित परात्पर सत्ता सदगुरू ही हैं । गुरू को परमात्मा मानो । और उन्हीं के ध्यान में डूबे रहो । तभी आपको वास्तविक लाभ होगा । गुरू की अथक सेवा । भजन । सुमिरन । ध्यान करो । वे स्वयं ही आप पर ध्यान में जो दर्शन होने की कामना है । उसको पूरा करने के लिये सर्वश्रेष्ठ आशीर्वाद की बरसात करेंगे । सन्तोष रूपी अमृत से तृप्त ( सन्तुष्ट ) एवं शान्त चित्त वाले साधकों को जो सुख प्राप्त है । वह धन के लोभ से इधर उधर दौडने वाले लोगों को कहां प्राप्त हो सकता है ? गुरू अपने शिष्य को अपनी अमृत मयी वाणी की वर्षा कर करके । उसे आन्तरिक ज्ञान समझा समझा कर । अन्दर में ध्यान के द्वारा दर्शन की महिमा को बतला बतलाकर आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कराते हैं । तभी तो पापों का विनाश होता है । जिस प्रकार एक ज्योति से दूसरी ज्योति प्रज्ज्वलित होती है । उसी प्रकार श्री सदगुरू देव जी महाराज अपने मंत्र के भजन, सुमिरन और ध्यान में दर्शन देने के रूप में अपने दिव्य शक्ति शिष्य में संक्रमित करते हैं । शिष्य सन्तुष्ट होकर

अभ्यास करता है । बृह्मचर्य का पालन करता है । और शान्त चित्त होकर श्री सदगुरू के मंत्र के सदा सदा भजन । सुमिरन । ध्यान में सदगुण स्वरूप का दर्शन कर अपने जीवन को शीलवान, सन्तोषवान बनाता है । सन्तोष ही जीवन का सबसे बडा सुख है । अत: सुख चाहने वाले साधक सदा सन्तोष करते हैं । श्री सदगुरू देव जी महाराज के भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान में ही तो सारा सुख है । सुख शान्ति पूर्वक जीवन व्यतीत करना मनुष्य या जिज्ञासु की मौलिक इच्छा है ।
जग का जीना है भला । जब लग हिरदय नाम । नाम बिना जग जीवना । सो दादू किस काम ।
जीव को यह जो मनुष्य जन्म मिला है । तो इस जन्म को पा करके उसका फ़ायदा क्या है ? लाभ क्या है ? अगर साधक ने अपने ह्रदय में मालिक का नाम व रूप बसा लिया । यानी अन्दर में मालिक के नाम के सुमिरन और ध्यान में श्री सदगुरू देव जी महाराज का दर्शन कर लिया । तो समझो मालिक की भक्ति कर 


लिया । और उसका जीवन सार्थक हो गया । साधक के जीवन की सार्थकता श्री सदगुरू देव जी महाराज के भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान तथा मालिक की भक्ति करने में ही है । क्योंकि साधक ने भक्ति का सच्चा धन जमा कर लिया है । जो कि लोक परलोक का संगी साथी है । भक्ति का सच्चा धन साधक के लिये सदगुरू का भजन, भक्ति तथा अन्दर में ध्यान के माध्यम से सदगुरू का दर्शन पाना ही है । और इसके करने से ही चित्त शुद्ध, पवित्र तथा निर्मल हो जाता है । चित्त के शुद्ध व पवित्र हो जाने पर श्री सदगुरू देव जी महाराज की कृपा व दया से मन सहज ही एकाग्र चित्त हो जाता है । और एकाग्रता को पाप्त हुआ मन अपने ही ह्रदय में स्थित श्री

सदगुरू के दर्शन कर आत्म ज्ञान सम्पन्न हो जाता है । मन को एकाग्र होकर जब आत्मा की ओर अग्रसर होने लगता है । तो कर्म आपसे आप छूटने लग जाते हैं । जिस अनुपात में ज्ञान उपलब्ध होता जाता है । उसी अनुपात में कर्म के बन्धन शिथिल होते जाते हैं ।
गुरू कृपा के बिना कुछ भी सम्भव नहीं हो पाता है । इसलिये सभी सन्त आन्तरिक दर्शन के लिये गुरू शरणागति की अनिवार्यता पर जोर देते हैं । यदि कभी कभार गुरू स्वरूप ध्यान में प्रगट न भी हो । तो उसकी कोशिश करके ध्यान पर ध्यान लगाते रहने से ह्रदय में मालिक के प्रति प्रेम, श्रद्धा की प्रगाढता बढती है । यह बात भली भांति समझ लेना चाहिये कि जो श्री सदगुरू का स्वरूप खुली आंखों के सामने देखते हैं । वह पंच महा भूतों का बना है । किन्तु जिस सदगुरू स्वरूप के अन्दर में दर्शन होते हैं । वह पंच महा भूतों का बना हुआ नहीं है । वरन वह चैतन्य है । चैतन्य मण्डल में अन्तर्यामी प्रभु अपने भक्तजनों के लिये श्री सदगुरू स्वरूप का आकार धारण करते हैं । कहा है  - जाकी रही भावना जैसी । प्रभु मूरति देखी तिन तैसी ।

वह चैतन्य आकार स्वरूप बराबर अभ्यासी के साथ साथ पथ प्रदर्शक बनकर सहायता करता रहेगा । और जितना जितना अभ्यासी ऊंचे चक्रों का ध्यान करेगा । उतना ही स्वरूप भी ऊंचे चक्रों में अधिक से अधिक निर्मल चैतन्य और ज्योतिर्मय होता जायेगा ।
सारांश यह है कि श्री सदगुरू देव जी महाराज के स्वरूप का दर्शन । भजन और ध्यान के माध्यम से अन्दर होता रहे । तो शब्द स्वरूप । प्रकाश स्वरूप । गुरू स्वरूप अभ्यासी के साथ साथ रहेगा । और रास्ते में मन तथा सुरत के मिटाव और चढाई में बराबर सहाय के रूप में सदा साथ साथ रहेगा ।
श्री सदगुरू के ध्यान में सतत लीन रहने वाला शिष्य गुरू में उसी प्रकार विलीन हो जाता है । जिस प्रकार भृंग की पकड में आ जाने वाला कीडा भय वश उसी का निरन्तर ध्यान करता करता भृंगी बन जाता है ।
ध्यातव्य है कि शिष्य की परिस्थिति । मन स्थिति और पात्रता को द्रष्टि गत रखकर श्री सदगुरू भगवान अपने शिष्य को गुरू शरणागति और भजन । सुमिरन । ध्यान । साधना द्वारा आत्म साक्षात्कार का यानी अन्दर में दर्शन करने का उपदेश देते हैं । और साथ साथ श्री सदगुरू का भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान तथा भक्ति करने का उपदेश देते हैं ।
जिस साधक अभ्यासी का जिन श्री सदगुरू में सच्चा भाव और लगन है । तो वही स्वरूप सदा उसके संग साथ रहता है । यह सत्य है कि उस दिव्य स्वरूप के सामने कोई विघ्न मन व माया का ठहर नहीं सकता है । सच्ची लगन । सच्चे

स्नेह के साथ भजन । सुमिरन । सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान की साधना में भक्ति के साथ लगे रहने से अन्दर में ध्यान के जरिये जो श्री सदगुरू का दर्शन होता है । वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है ।
79 प्रश्न - आध्यात्मिक ग्रन्थों में दीक्षा और शक्तिपात की चर्चा देखने को मिलती है । कृपया इन शब्दों का रहस्य समझाने का कष्ट करें ।
उत्तर - श्री सदगुरू देव जी महाराज के नाम का भजन । सुमिरन । दर्शन करने में सत्संग और ध्यान की प्रगाढता बढ जाती है । श्री सदगुरू का दर्शन कर उनके श्री मुख से जो अमृत वचन निकलते हैं । उसे ही सतसंग कहते हैं । श्री सदगुरू देव जी महाराज के सत्संग सुनने से साधक के मन की मनोदशा एकदम बदल जाती है । अन्दर में प्रेम उमड पडता है । सांसारिक विचार उसके पास नहीं फ़टकने पाते । जब तक श्री सदगुरू देव जी महाराज के सम्मुख साधक उपस्थित रहता है । तब तक उसका मन और सुरत श्री सदगुरू भगवान के दर्शनों में अथवा उनके श्री मुख से निकले हुए अमृत वचनों को सुनने में लगे रहते हैं । साधक के अन्दर में मन और सुरत का खिंचाव ऊपर की ओर बढता चला जाता है । जब ऐसी अभ्यासी श्री सदगुरू के सत्संग के समय के अतिरिक्त कभी भी अपने अन्दर में गुरू के स्वरूप का ध्यान का ख्याल करेगा । तो उसकी वही हालत हो जायेगी । जिससे मन में प्रेम उमडेगा । और सांसारिक विचार तथा इच्छायें दूर खडी रहेगी । जब तक साधन की 


ऐसी दशा रहेगी । तब तक साधक को भजन । सुमिरन । ध्यान में रस व आनन्द निर्विघ्न मिलता रहेगा । आन्तरिक सुगमता के साथ प्रगट होता रहेगा । ऐसी स्थिति में साधक भजन । सुमिरन । ध्यान में तन्मय होकर रस व आनन्द में निमग्न रहता है । श्री सदगुरू की कृपा से जब कभी भी ऐसी हालत गुजरे । उस समय उस भाव को अपने ह्रदय में फ़ैलने दे । ऐसी हालत अभ्यासियों की प्राय: तब होने लगती है । जब साधक का आन्तरिक सम्बन्ध श्री सदगुरू भगवान से जुड जाता है । सूफ़ियों में इसे निखत कायम होना कहते हैं ।
बिना गुरू कृपा के साधक । शिष्य । जिज्ञासु की सुरत ऊपर उठ नहीं सकती । और साधना में अग्रसर नहीं हो सकती । इसलिय कहा गया है  - मोक्षमूलं गुरो कृपा ।
श्री सदगुरू देव जी महाराज की दया दृष्टि से ही तो सुषुप्त शक्तियां जाग्रत होती है । जिसका सहारा लेकर साधन प्रगति की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है । तंत्र शास्त्र में इसी गुरू कृपा को शक्तिपात कहकर अभिहित किया गया है ।
इसमें शिष्य को अपनी तरफ़ से कोई क्रिया नहीं करनी पडती । इसमें गुरू अपनी दया से शिष्य के शरीर में प्रविष्ट होकर भक्ति की शक्ति को जाग्रत कर देता है । और उसे उठाकर गुरू रूप में परिवर्तित कर देता है ।
गुरू अपने शिष्य को अपने सम्मुख बैठाकर अपने प्रज्ज्वलित संकल्प से शिष्य के कु संस्कारों को दग्ध करता है । और उसे यानी शिष्य को गुरू की श्रेणी में स्थिर कर देता है ।

जहां गुरू और शिष्य के बीच भौगोलिक दूरी होती है । वहां गुरू को शिष्य के स्मरण से काम लेना पडता है । हजारों कोस की दूरी पर बैठा हुआ गुरू अपने आत्मबल अथवा मनोबल से शिष्य के मल को हटाता है । और अपनी शुद्ध आध्यात्मिक शक्ति शिष्य के अन्दर पहुंचाता है । इस क्रिया में श्री सदगुरू देव जी महाराज की असीम दया की प्रधानता है । इस क्रिया में गुरू और शिष्य दोनों अभ्यास में मिलकर एक हो जाते हैं । और फ़िर ऊंची चढाई चढते हैं । इसलिये इसे यौगिक क्रिया कहा गया है । इसमें भजन । सुमिरन । ध्यान तथा गुरू के प्रति शिष्य की निष्ठा । श्रद्धा । प्रेम की ही विशेष से भी विशेष महत्ता है ।
इसमें श्री सदगुरू अपनी विशेष दया से या दया की शक्ति से शिष्य के सारे कर्मों को काटकर छिन्न भिन्न करके अपने शिष्य को भजन । सुमिरन । ध्यान ।

सेवा । पूजा । दर्शन । ध्यान का बोध कराकर भक्ति की शक्ति बढाता रहते हैं । और उसके यौगिक चक्रों को बेध डालता है । अन्तर की सुषुप्त पडी हुई कलाओं की अपनी असीम कृपा से चलायमान कर श्री सदगुरू देव जी महाराज इस विशेष क्रिया द्वारा शिष्य को शक्ति सम्पन्न बना डालते हैं ।
जीव काज के हेतु ही । तजा अनामी लोक । परमहंस बन आये हैं । हरने दुख अरू शोक ।
सदगुरू कृपा कटाक्ष से । बिगडी सब बन जाय । जीव सुखमय होत है । विपदा सकल बिलाय ।
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ये शिष्य जिज्ञासा की सुन्दर प्रश्नोत्तरी श्री राजू मल्होत्रा जी द्वारा भेजी गयी है । आपका बहुत बहुत आभार