31 जुलाई 2011

क्या डायन चुडैल से अधिक पावरफ़ुल होती है - नूनी थापा

हैलो सर ! मैं नूनी थापा । नेपाल से । मैंने कल आपकी लिखी कहानी " डायन " पढी । कहानी अच्छी लगी । नये पहलू पता लगे । अब तक तो पता नहीं था कि डायन 2 किस्म की होती है । आपकी कहानी पढकर पता लगा कि डायन साधारण भी होती है । और डायन गण भी होती है । क्या इसका मतलब डायन अन्य सभी किस्म की प्रेतात्माओं से अधिक पावरफ़ुल होती है ?
आपकी इससे पिछली कहानी जो चुडैल पर आधारित थी । वो भी ठीक थी । क्या डायन चुडैल से अधिक पावरफ़ुल होती है । आपकी प्रेत कहानियों में द्वैत के साधक ( योगी ) जैसे प्रसून और नीलेश जैसे लोगों का जिकर आता है । इन जैसे साधकों की देह त्यागने के बाद क्या गति होती है ? ये लोग किस लोक में जाते हैं ?
आपके किसी पुराने लेख में आपने अन्धेरे लोक का जिकर किया था । मैं जानना चाहती हूँ कि उजाले लोक क्या होते हैं ? इस बारे में जरुर कुछ बतायें । मैंने आपकी इस वाली कहानी में महन्त शब्द पढा है । सन्तों के बारे में तो सुना है । लेकिन ये महन्त कौन होते हैं ? ये किस प्रकार की उपाधि है ?
बाकी जो आपने इस डायन वाली कहानी में भगवान " श्रीकृष्ण " के  श्रीमदभगवत गीता  में से लिये महावाक्यों को कहानी के बीच व्याख्या सहित लिखा । ये आपने बहुत ही अच्छा काम किया
लेकिन आपको 1 बात बताऊँ । ये कहानी मैं शाम को सूर्यास्त के समय पढ रही थी । जब कहानी के शुरू में ये जिकर आया कि डायन खिडकी पर आकर बैठ गयी है । तो मैंने भी डर से अपने कमरे की खिडकी की तरफ़ देखा था । क्या ये सम्भव है कि कई भूत या प्रेत इतने पावरफ़ुल होते है कि उनको याद करने से या उनकी बात करने से वो आपके आसपास पहुँच जाते है ।

क्या मैं ये जान सकती हूँ कि अब अगली कहानी कब पढने को मिलेगी ? साथ में ये भी बताये कि अगली कहानी किस पर आधारित होगी ?
अगर आप बुरा न मानें । तो मैं 1 सलाह दूँ । आप अगली कहानी किसी पिशाच पर लिखें । मेरे ख्याल से शायद पिशाच " वैम्पायर " को कहते है । वैसे वैम्पायर पर विदेशों में बहुत अधिक फ़िल्में बनती हैं । लेकिन सबको पता ही है कि फ़िल्मों में तो सब झूठ ही होता है । अगर आप अगली कहानी पिशाच पर लिखें । तो उम्मीद है कि डायन की तरह इसके भी अलग और असली पहलूओं का पता लगे । जो आमतौर पर लोगों की जानकारी से बाहर है । मुझे आपके जवाबों का इन्तजार रहेगा । नूनी थापा । नेपाल से ।
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1 - क्या इसका मतलब डायन अन्य सभी किस्म की प्रेतात्माओं से अधिक पावरफ़ुल होती है ?
क्या डायन चुडैल से अधिक पावरफ़ुल होती है ।
- डायन वाकई पावरफ़ुल होती है । लेकिन सब प्रेत आत्माओं से पावरफ़ुल नहीं । ये मृत्युकन्या के परिवार या स्टाफ़ में महत्वपूर्ण कार्य करती हैं । और नीच गणों को पोषण देती है । वैसे अपनी अपनी जगह सभी की पावर महत्वपूर्ण है । क्योंकि चुङैल वाले कार्य चुङैल ही कर सकती है । डायन नहीं । वास्तव में ये सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं । मतलव अतृप्त आत्मायें ।
2 - आपकी प्रेत कहानियों में द्वैत के साधक ( योगी ) जैसे प्रसून और नीलेश जैसे लोगों का जिकर आता है । इन जैसे साधकों की देह त्यागने के बाद क्या गति होती है ? ये लोग किस लोक में जाते हैं ?

- इसमें भी दो तरह का मामला बन जाता है । एक भक्ति टायप के समर्पित योगी या सिद्ध होते हैं । जो ग्यान तो प्राप्त करते हैं । पर उनका भाव ये होता है कि सर्वशक्तिमान प्रभु की ये लीला है । और जो कुछ प्राप्त होता है । सब उसी की कृपा है । ये त्व अस्मि भाव होता है ।
जाहिर है । ऐसे भाव वाला भक्त योगी अहम रहित होगा । और भलाई के कार्य ही करेगा । अतः ये योगी अपनी पढाई और चढाई के अनुसार सिद्ध लोक या किसी भी भगवान के लोक देवलोक इत्यादि में जा सकते हैं । स्वतन्त्र रूप से भी अपना स्थान बना सकते हैं । सब कुछ उनके तप और प्राप्ति पर निर्भर है । विश्वामित्र आदि ऐसे बहुत से योगी हुये हैं । इनकी अच्छी गति होती है ।
दूसरे प्रकार के योगी अहम भक्ति करते हैं । उनमें स्वार्थ भाव होता है । वे भी अपनी साधना परिणाम अनुसार स्थान प्राप्त करते हैं । लेकिन भक्तों के तुलना में बेहद तुच्छ ।
लेकिन जो सिद्ध टायप के लोग अपने ग्यान का मनमाना प्रयोग करते हैं । उससे लोगों को दुख पहुँचाते हैं । कामवासना आदि की पूर्ति करते हैं । वे निश्चय ही घोर नरक में जाते हैं ।
प्रसून और नीलेश भलाई का कार्य करते हुये निरंतर ग्यान सीखने के इच्छुक हैं । अतः अभी तक ( की कहानियों ) के आधार पर इनका स्थान सिद्ध लोक ( जिसका स्थान दिमाग के दांये भाग में बृह्माण्ड में है ) या देव लोक बनता है ।

3 - आपके किसी पुराने लेख में आपने अन्धेरे लोक का जिकर किया था । मैं जानना चाहती हूँ कि उजाले लोक क्या होते हैं ? इस बारे में जरुर कुछ बतायें ।
- अंधेरे लोक का मतलब घुप्प रात जैसा काला अंधेरा नहीं है । बल्कि गहराती शाम या लाल पीली काली आँधी के समय जैसा प्रकाश रह जाता है । वैसे ही होते हैं । इनकी स्थिति विराट में हमारी जाँघों से पिंडलियों तक होती है । इनकी सरंचना समझना भी अधिक कठिन नहीं है । दरअसल 12 सूर्यों का वृताकार घेरा और फ़िर विभिन्न ग्रहों नक्षत्रों की ऊपर नीचे की स्थिति के अनुसार यहाँ तक बहुत कम प्रकाश जा पाता है । अतः ये अंधेरे में रहते हैं । जिस प्रकार प्रथ्वी पर रात होने का कारण चन्द्रमा है । और उसका घूमना है । वरना रात क्यों होती । जैसे ध्रुवों पर महीनों तक रात नहीं होती । या दिन नहीं होता ।
बाकी उजाले लोक कोई स्पेशल नहीं है । प्रथ्वी चन्दमा स्वर्ग आदि जहाँ समुचित प्रकाश है । ये उजाले लोक ही हैं ।

4 - मैंने आपकी इस वाली कहानी में महन्त शब्द पढा है । सन्तों के बारे में तो सुना है । लेकिन ये महन्त कौन होते हैं ? ये किस प्रकार की उपाधि है ?
- महन्त पुजारी से बङे होते हैं । इसका पूरा नियम तो मुझे सटीक रूप पता नहीं हैं । पर ये पुजारी के बाद हुआ प्रमोशन ही होता है । जिसमें नियमानुसार लगातार कथा भागवत आदि पूजा कार्य करवाते रहने से महन्त की पदवी प्राप्त होती है । महन्त किसी मन्दिर आश्रम आदि का मुख्य अधिकारी ( चीफ़ ) होता है । पूरा चार्ज इसी के पास होता है ।
5 - क्या ये सम्भव है कि कई भूत या प्रेत इतने पावरफ़ुल होते है कि उनको याद करने से या उनकी बात करने से वो आपके आसपास पहुँच जाते है ।
- ऐसा वाकया ठीक मेरे घर में मेरे सामने ही घटित हुआ । हमारा एक किरायेदार था । उसकी पत्नी पर कोई प्रेतबाधा थी । उनकी नयी नयी शादी हुयी थी । प्रेतबाधा में संभोग नहीं करना चाहिये । पर वे नहीं मानते थे । अतः पत्नी के द्वारा पति भी आवेशित हो गया ।
एक दिन एक तांत्रिक ने ग्यारह बजे दिन के समय आकर लोंग से लोंग को उठाकर प्रेतवायु को चेक किया । उस समय काम के लिये घर से कुछ दूर तक निकल गया वह आदमी आवेशित स्थिति में मुँह टेङा किये हुये वापस घर लौट आया । बहुत लम्बी कहानी है । बाद में प्रेतवायु का शिकार होकर उसकी पत्नी स्वयँ आग लगाकर मर गयी । उस तांत्रिक से मेरी अच्छी पहचान थी । मैं उसे ये सब करने के लिये मना करता था । कुछ साल बाद हट्टा कट्टा वह जवान तांत्रिक भी मर गया ।
इसलिये बिलकुल ऐसा होना सम्भव है । क्योंकि विराट और मनुष्य एक ही स्थिति है । अतः जिस प्रकार एक मोबायल फ़ोन से की गयी काल विभिन्न जगहों से गुजरती हुयी वांछित जगह पहुँच जाती है । उसी तरह प्रेतवायु भी सम्पर्की हो जाती हैं । जिस प्रकार मुम्बई का कोई आदमी अपने मुम्बई कनेक्शन वाले मोबायल के साथ आगरा आये । और मैं आगरा में अपने पास ही बैठे उस व्यक्ति को उसी मोबायल पर काल करूँ । तो वह विभिन्न टावरों सैटेलाइट आदि से होकर मुम्बई जाकर वापस आगरा मेरे पास उस आदमी के पास पहुँच जायेगी । लगभग यही सिस्टम प्रत्येक अलौकिक आवेश पर कार्य करता है ।
6 - क्या मैं ये जान सकती हूँ कि अब अगली कहानी कब पढने को मिलेगी ? साथ में ये भी बताये कि अगली कहानी किस पर अधारित होगी ?
- आप लोगों के काफ़ी मेल यकायक प्राप्त हुये । वरना 10 दिन में दूसरी कहानी प्रकाशित हो जाती । ये कहानी - कर्ण पिशाचिनी पर आधारित होगी । जल्दी ही लिखूँगा ।
7 - आप अगली कहानी किसी पिशाच पर लिखें ।
- पिशाच आमतौर पर डायरेक्ट इंसानी जिन्दगी को बेहद कम प्रभावित करते हैं । फ़िर भी देखो । कुछ लिखने की कोशिश करूँगा ।

30 जुलाई 2011

माँ को याद करके अकेले में रो लेता हूँ - विनोद त्रिपाठी

मेरे राजीव राजा ! मेरे दिलदार राजा ! मेरे अलताफ़ राजा ! तुम्हारी और तुम्हारे पाठकों की जोरदार माँग पर आज मैं ये लेख अपनी निजी जिन्दगी पर लिख रहा हूँ । तो फ़िर आज खोल दो खिडकी । और तोड दो दरवाजा ।
मेरा नाम है - विनोद त्रिपाठी । मेरी उमर इस साल 51 हो जायेगी । मैं पिछ्ले 25 साल से हिन्दी का प्रोफ़ेसर हूँ । लेकिन लडकियों के कोलेज में । वैसे मेरी किशोरावस्था से 1 ही इच्छा थी कि मैं पुलिस अफ़सर बनूँ ।
खैर..ये इच्छा पूरी नहीं हो सकी । इस बारे में मैं अब बात नहीं करना चाहता । मेरा कद 6 फ़ुट है । और रंग काला ही समझो । जवानी में 400 बैठक और 250 डण्ड लगा लेता था । जवानी में दिन में 2 बार कसरत भी कर लेता था । दौड भी लगाता था । कभी कभी तो रविवार वाले दिन भी कसरत की छुट्टी नहीं करता था । जवानी में सिर्फ़ पहलवानों और बलवानों से दोस्ती रखता था ।
जब 26 साल की उमर में नौकरी शुरू की । उसके 1 साल बाद शादी हो गयी ( धिक्कार है... ) फ़िर धीरे धीरे देसी कसरत कम कर दी । शराब और सिगरेट के शौकीन हो गये ( लेकिन सीमा में रहते हुये ) उसके बाद भी अब तक मैं कभी न कभी कसरत करता ही रहता हूँ । लेकिन शहरी जिम में ।
लेकिन 1 घन्टा सैर ( कभी सुबह कभी शाम ) रोज करता हूँ । खाने पीने का मैं शौकीन हूँ । लेकिन ताकत वाली देसी और शाकाहारी चीजें ही खाता हूँ । सिगरेट मैं सारा दिन नहीं पीता ।

दिन में कभी कभी थोडी सी चुस्ती लाने के लिये बस ऐसे हल्का सा कश लगा लेता हूँ ।
शराब मैं देसी और अंग्रेजी कोई भी पी लेता हूँ । रोज रात को 8 बजे सिर्फ़ 3 मोटे पैग । मैं पुलिस अफ़सर नहीं बन सका । कोई बात नहीं । मेरे कोई औलाद नहीं है । कोई बात नहीं ।
लेकिन मैं भगवान से बिलकुल भी नाराज नही हूँ । उसकी दुनिया है । जैसे मरजी चलाये । मेरे इस वर्तमान जीवन में जो भी दुख, रोग या शोक आदि अगर किसी को नजर आता है ।
तो उसका 1 ही जवाब है कि - भई ! उसका जिम्मेदार असल में मैं खुद ही हूँ । ये सब मुझे मेरे ही पिछ्ले जन्मों में किये हुये कर्मों का फ़ल मिला है ।
मेरे घर मे मेरे पिताजी हैं । उनका नाम हैं - जगन्नाथ त्रिपाठी उर्फ़ जग्गा सेठ ।
उनकी उमर इस साल 76 हो जायेगी । 1 नम्बर के लुच्चे आदमी हैं कि - इतना लुच्चा आदमी मैंने अपनी पूरी जिन्दगी में न सुना । और न देखा । राम राम । वो भी किसी छोटी मोटी सरकारी नौकरी से रिटायर हुए थे ।
मेरी माँ बस ये ही 1 मेम्बर थी । जो सही थी । गाँव की रहने वाली साधारण । कम पढी लिखी । बेहद धार्मिक महिला थी । लेकिन बेचारी कब की मर चुकी बस उसको ही याद करके अकेला कभी कभी रो लेता हूँ ।

मेरी 1 पत्नी है । थू थू थू लानत है । कितने साल हो गये शादी को । अब तक अपना नाम लिखते टाइम अपने आपको " राकेश कुमारी " लिखती है ।
मेरे सास ससुर के 2 बेटियाँ और 1 बेटा है । सास ससुर तो मर चुके हैं । उनकी बडी बेटी यानि मेरी पत्नी अपने बाप पर गयी है ( शक्ल से )  मेरी साली मेरी सास पर गयी है ( शक्ल से )
साला मेरा बीच का है ।
मेरा ससुर देखने में बदसूरत था । और सास मेरी खूबसूरत थी । इसलिये मेरी साली सुन्दर है । और मेरी पत्नी ठीक नहीं है । मेरी शादी से पहले मेरा बाप अक्सर कहता रहता था - बहू तो जैसी मर्जी आ जाये । लेकिन समधन हेमामालिनी जैसी होनी चाहिये ।
बस फ़िर वो ही हो गया ।
हमारे घर में हमारा 1 नौकर है । जो पिछ्ले कुछ साल से हमारे घर काम करता है । उसका नाम है - पान्डु । उसका पूरा नाम है - पान्डू राम पान्डा ।

वो साल में 11 महीने हमारे घर काम करता है । और सिर्फ़ 1 महीने के लिये अपने घर अपने गाँव छुटी को जाता है । तब तक 1 महीना हम लोग कोई काम वाली बाई को लगा लेते हैं ।
कोलेज में मेरे 3 दोस्त हैं । वेदप्रकाश शर्मा ( ये राजनीति शास्त्र का प्रोफ़ेसर है ) पी के सिंगला ( ये इतिहास का प्रोफ़ेसर है )  कान्ती शाह ( ये भूगोल का प्रोफ़ेसर है )
मेरा 1 और दोस्त है । उसका नाम है - मुरलीधर । वो पहले नगर पालिका में नौकरी करता था । लेकिन अब उसने नौकरी छोड दी । अब वो शराब का ठेका चलाता है ।
" बटुक नाथ लल्लन प्रसाद " अखाडे का मालिक भी मेरा दोस्त है । जहाँ मैं कभी कभी जाता रहता हूँ । मुझे 2 जगहों पर घूमना अच्छा लगता है । 1 तो बडी सब्जी मन्डी । और दूसरा नगर पालिका का बनाया सरकारी पार्क ।
रोज रात को मैं । मेरा बाप । और नौकर पान्डु । हम तीनों इकठ्ठे बैठकर शराब पीते हैं ।
मैं 3 मोटे पैग । मेरा बाप सिर्फ़ 2 पैग ( उसको चढ जाती है । इसलिये मैं उसे अधिक नहीं पीने देता ) और पान्डु को भी मैं 1 अच्छा खासा मोटा पैग दे देता हूँ (

बेचारा सारा दिन मेहनत करता है । सेवा करता है ) गर्मियों के मौसम में तो हम लोग अलताफ़ राजा के गाने सुनते हैं । कभी कभी मेरे बाप के कहने पर उसका मनपसन्द गाना " तू चीज बडी बडी है मस्त मस्त " भी लगा लेते हैं ।
सर्दियों में कभी कभी शराब पीते समय मैं " जगजीत सिंह " की गजलें भी लगा लेता हूँ । लेकिन इससे मेरा बाप और नौकर बोर होने लग जाते हैं । मेरी पत्नी घर के काम के अलावा. बाकी समय केबल टी वी पर रोने धोने वाले टी वी सीरीयल देखती रहती है ।
राजीव राजा ! तुम्हारी इस आण्टी के अलावा तेरी 1 और आन्टी भी है । लेकिन 

वो गैर-सरकारी है । मेरा बाप देखने में हिन्दी फ़िल्मों का पुराना विलेन लगता है । बिलकुल जीवन ( फ़िल्मों का पुराना विलेन ) जैसा है ।
हमारा नौकर पान्डु भी देखने में किसी कार्टून से कम नहीं । मोहल्ले वाले भी ठीक ठाक हैं ।
अब मैं तुम्हें अपने बचपन की 1 शरारत बताता हूँ । तुम्हें बेशक ये बात अटपटी लगे । लेकिन मैंने ये शरारत की थी । मैं उस समय सिर्फ़ 10 साल का था । मैं गाँव गया हुआ था । मैं तालाब के पास पडोसी की लडकी के साथ खेल रहा था । वो मेरे से उमर में थोडा सा बडी थी । खेलते खेलते हम दोनों झगड पडे । उस लडकी ने मुझे कोई गाली निकाली । तो मैंने गुस्से में आकर अपनी निक्कर ( हाफ़ पैन्ट ) नीचे करके अपनी नूनी ( लिंग ) के दरशन उसको करवा दिये । वो हँसते हुये भाग गयी ।
पता नहीं कहाँ से उसी समय मेरा बाप पीछे से आ गया । मैंने फ़टाफ़ट अपनी निक्कर ऊपर कर ली ।
मेरा बाप थोडा नकली गुस्से से बोला - ओये क्या कर रहा था ।
मैंने कहा - मैंने तो कुछ नहीं किया ।
तब वो बोला - मैंने देख लिया था । तूने शरारत की थी ।
मैंने कहा - नहीं नहीं । मैंने कोई शरारत नहीं की ।
तब वो मेरा उपहास उडाने के अन्दाज में बोला - तू मुझे क्या सिखायेगा । मैं सब जानता हूँ । 4 आँखें हैं मेरी ।

पता नहीं कैसे उस समय मेरे मुँह से अचानक ही निकल गया - क्या 4 आँखें है । 2 तो मुँह पर लगी हैं । 2 क्या ग... पर लगी हैं ।
राजीव राजा ! तुम अन्दाजा लगा लो कि उस समय मेरी कितनी पिटाई हुई होगी ।
खैर.. ये मेरी जिंदगी की शानदार शरारत थी ।
बातें तो अब पूरी जिन्दगी भर की लिखने लग जाओ । तो पूरी किताब भी कम पडेगी ।
बस जाते जाते पाठकों को सन्देश देना चाहता हूँ कि - मेरे लिखे लेख आपको थोडा अधिक खुले हुए लगते हैं । उन लेखों को छापने से पहले राजीव राजा, उनकी एडिटिंग करता है ( तब जाकर छापने योग्य बनते हैं )  लेकिन राज की बात ये है कि - राजीव को लेख मैं बहुत सन्कोच से लिखता हूँ । जिनको ये बेचारा मुश्किल से छापने योग्य बनाकर फ़िर छापता है । वो भी आप लोगों को थोडे से वो वाले लगते हैं । अगर मैं सचमुच दिल खोलकर लिख दूँ । और राजीव राजा उन्हें ज्यों का त्यों छाप दे  । तो फ़िर तो इस ब्लाग के ही चटाके पटाके हो जायेंगे ।

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प्रस्तुतकर्ता - प्रोफ़ेसर श्री विनोद त्रिपाठी । भोपाल । मध्य प्रदेश । ई मेल से ।
- आपका बहुत बहुत धन्यवाद त्रिपाठी जी । मेरा ख्याल है । हमारे तमाम पाठकों को आपके वारे में जानकर अच्छा लगेगा ।
इस लेख में जो आपने आत्मा की आवाज -  ( ...मैं पुलिस अफ़सर नहीं बन सका । कोई बात नहीं । मेरे कोई औलाद नहीं है । कोई बात नहीं ।
लेकिन मैं भगवान से बिलकुल भी नाराज नही हूँ । उसकी दुनिया है । जैसे मरजी चलाये । मेरे इस वर्तमान जीवन में जो भी दुख, रोग या शोक आदि अगर किसी को नजर आता है ।
तो उसका 1 ही जवाब है कि - भई ! उसका जिम्मेदार असल में मैं खुद ही हूँ । ये सब मुझे मेरे ही पिछ्ले जन्मों में किये हुये कर्मों का फ़ल मिला है । )
.......कही । यह मुझे बहुत अच्छी लगी । क्योंकि ये बहुत ही बङा सत्य है । हम अपनी किसी बात को भगवान को दोष देते हैं । जबकि सब किया धरा हमारा ही होता है । फ़िर जब ऐसा बोध होने लगता है । यानी उसकी रजा में हमारी रजा हो जाती है । और हम समर्पण हो जाते हैं । तब - उसकी रजा में रजा । तो कट गयी सजा । और - उसकी रजा से ना रजा । तो बङ गयी सजा ।
आप एक बार उसके बनाये - सत्य दया ईमान दान आदि थोङे ही गुण अपनाकर देखिये । कुछ दिन तो कष्ट महसूस होता है । फ़िर जीवन की बगिया में फ़ूल खिल उठते हैं । सुन्दर रंग बिरंगे फ़ूल ।

28 जुलाई 2011

बल्ले बल्ले मौजा ही मौजा - त्रिपाठी जी इज ग्रेट

बल्ले बल्ले भापा जी बल्ले बल्ले । क्या हाल है सर जी । मौजा ही मौजा । 
सर जी ! हम तो मेहनत मजदूरी करके रोटी खाने वाले आदमी हैं । लेकिन आपके ब्लाग से हमें मुहब्बत हो गयी है । मौका लगते ही आपके ब्लाग पर आ ही जाते हैं । मैं पिछले कुछ दिन से आपका ब्लाग पढ पढ कर हँस हँस कर लोटपोट हो रहा हूँ । विनोद त्रिपाठी जी के हास्य लेख पढ कर मेरे तो हँस हँस कर पाद ही निकल गये । इतनी नेचरल कोमेडी मैंने पहली बार पढी है । वाकई सर जी मजा आ गया । उनका दिल्ली दर्शन तो बहुत बढिया था । मैं तो कभी कभी अकेला बैठा भी हँसने लग जाता हूँ । उनके हास्य लेखों की कोई बात याद करके । पता नहीं बाकी पाठक कितना हँसते होंगे । 
मुझे आप ये बताओ कि विनोद त्रिपाठी जी आपके लगते क्या हैं ? मेरा मतलब क्या रिश्तेदारी है आपकी उनसे । वो आपके चाचा । मामा । फ़ूफ़ा । मौसा आदि में से क्या है । क्युँ कि आपके ब्लाग पर बार बार पढने को मिलता है कि वो आपके रिश्तेदार है । आपके अंकल है ।
मैं खुशमिजाज आदमी हूँ । इसलिये त्रिपाठी जी जैसे दिलखुश लोगों से मिलकर बहुत खुश होता हूँ । आप त्रिपाठी जी के बारे में कुछ बताईये । आप इन जैसे दिलखुश बन्दे को छुपा के मत रखो । इन पर तो स्पेशल लेख लिखना चाहिये । पर त्रिपाठी जी भी छुपे रुस्तम लगते हैं । कई बार उनकी बातों में हँसी के साथ कोई छिपी हुई गहराई होती है । त्रिपाठी जी इज ग्रेट । आपको पता ही है कि मैंने इस बार दोबारा इंडिया आना है । आप मुझे त्रिपाठी जी से जरुर मिलवाना 

। मैं आपके साथ और आपके अंकल त्रिपाठी जी के साथ 1 यादगार फोटो खींचवाकर आस्ट्रेलिया लेकर जाऊँगा । क्युँ कि पता नहीं कि फ़िर कब वापिस आऊँगा । ठीक है सर जी ! अब जल्द ही मिलने की उम्मीद है । फ़िर मैं, आप और त्रिपाठी जी भांगडा करेंगे । बल्ले बल्ले । बस अब आप अपने ब्लाग में अपने अंकल त्रिपाठी जी से मेरी दोस्ती करवा दो । इस लेख के जरिये । बल्ले बल्ले ।

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जैसा कि मैंने श्री त्रिपाठी जी के ही एक लेख में अपना वक्तव्य जोङा था कि - शुरू में जब मैंने त्रिपाठी जी को छापा था । तो मुझे हल्की सी आलोचना मेल और फ़ोन द्वारा हुयी कि - आपका ब्लाग धार्मिक प्रतिष्ठा वाला है । इसकी इमेज लोगों के दिलों में सम्मान वाली हैं । अतः ऐसे लेख उचित समझें । तो न छापा करें । मैंने उन्हें तो खैर सही उत्तर दे ही दिया ।
पर मैं लाला लाजपत राय नगर - भोपाल के निवासी । हिन्दी के प्रोफ़ेसर । श्री विनोद त्रिपाठी जी की अहमियत से भलीभांति वाकिफ़ था । हालांकि ड्रिंक के शौकीन त्रिपाठी जी ने मुझे दो तीन बार गालियों के हार भी भेंट किये । और शुरूआत में इनके मेल खालिस हिंसक और नानवेज टायप के होते हैं । जिन्हें 30% एडिट करना मजबूरी ही थी ।
साले..बहन..द..मादर..द इस टायप के तङका आयटम उनके लेख में यथास्थान अवश्य होते थे । लेकिन मैं इनको 


धैर्य से छापता गया । यहाँ मैं आपको रहस्य की एक बात और भी बता दूँ । ब्लाग stats में त्रिपाठी जी के लेख पढने वालों की रेटिंग धुँआधार थी । और इस लेख को लिखते समय आज दोपहर में मुझे 6 के लगभग मेल आये हैं । उनमें भी त्रिपाठी जी का जिक्र है ।
तो आखिरकार मेरी सोच सही साबित हुयी । और त्रिपाठी जी एक जिम्मेदार नागरिक का सामाजिक कर्तव्य समझते हुये अपना हरसंभव योगदान करने लगें । उनके लेखों में विषयों की विभिन्नता । और अश्लीलता के स्थान पर चुटीलापन सामाजिक व्यवस्था पर व्यंग्य आदि साफ़ नजर आने लगा
मैंने श्री त्रिपाठी जी का अब तक सिर्फ़ 1 प्रश्नात्मक मेल नहीं छापा । जिसमें स्वाभावनुसार त्रिपाठी जी ने एक सुन्दर भरे अंगों वाली सुन्दर पत्नी की प्राप्ति ( अगले जन्म में ) और उसके साथ सेक्स से भरपूर आनन्दमय जीवन कैसे प्राप्त हो । इसके लिये क्या साधना होती है ? ये पूछा था ।
ये प्रश्न एक उत्तेजक पोर्न स्टोरी के समान था । और इसको एडिट करने की भी गुंजाईश नहीं थी ।
खैर..इस लेख को लिखने तक ( अन्य मेल के भी आधार पर ) त्रिपाठी जी को इन ब्लाग पर लेखक का दर्जा मिल ही गया है । और स्वयं त्रिपाठी जी भी कुछ न कुछ आपके लिये लिखते ही रहते हैं । अब और भी बेहतर लिखने की कोशिश करेंगें
जहाँ तक मेरे रिश्तेदार होने की बात है । इसका बहुत सटीक उत्तर कामिनी जी ने अभी नये मेल में दिया है - अब आजकल जो आपके ब्लाग का हाल है । उसे देखते हुये लगता है कि हम किसी आश्रम में किसी साधु की शादी में आये हुये हैं । आपका ब्लाग अब ब्लाग न रहकर 1 बहुत बडा परिवार

हो गया है । जहाँ हर किस्म का पाठक अपनी अपनी जिग्यासा बडे अपनत्व से आपके पास ला रहा है । कभी कभी ऐसा लगता है कि हम सब ( आपके ब्लाग पाठक ) आपस में रिश्तेदार ही हैं । बस यूँ समझिये कि आप ( राजीव बाबा ) लाबी में बैठे हैं । कोई मेम्बर आपको ड्राइंग रूम से बैठा सवाल कर रहा है । कोई रसोई में ही खडा कुछ पूछ रहा है । कोई अपने बेडरूम में ही लेटा हुआ आपसे बात कर रहा है । कोई काम पर जाते हुये आपको बाय बाय कर रहा है । कोई काम से वापिस आते हुये आपका हालचाल पूछ रहा है । कोई शायद बाथरूम में बैठा भी आपसे बात कर रहा होगा ( मजाक कर रही हूँ )
आपके अंकल ( रिश्तेदार) श्री विनोद त्रिपाठी जी तो हर बार अपने लेख में धोती को फ़ाडकर रुमाल बना देते हैं ( सारी मजाक कर रही हूँ । इसलिये उनके स्टायल में बोल गयी )
****** सलिये आप सब ही मेरे आत्मिक रिश्तेदार हो । जैसे आप सब हैं । वैसे ही त्रिपाठी जी भी हैं । यानी सांसारिक सम्बन्धों के रूप में मेरी उनसे कोई रिश्तेदारी नहीं हैं ।
अन्त में - मैं त्रिपाठी जी से आग्रह करूँगा कि वे स्वयँ अपने बारे में पाठकों को रोचक मजाकिया अन्दाज में बतायें । जिसके कि उनके ( त्रिपाठी जी के ) पाठक दीवाने हैं

19 जुलाई 2011

जब लगि करता मेरी मेरी तब लगि बात बने ना तेरी

जब लगि जानै मैं कुछ करता । तब लगि गर्भ जोनि में फ़िरता ।
यह जीव जब तक ऐसा सोचता है कि - मैं ही सब कुछ करने वाला हूँ । तब तक वह 84 लाख योनियों में ही भटकता है । और गर्भ में वास करता है । अर्थात मुक्त नहीं हो सकता ।
जब लगि करता मेरी मेरी । तब लगि बात बने ना तेरी ।
जव तक यह मोह माया और मेरा मेरा करता रहता है । तब तक कभी सदगति को प्राप्त नहीं होता ।
सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिमि हरि शरण न एक हू बाधा ।
जिस तरह समुद्र के समान बहुत सा जल होने पर मछली सुख को प्राप्त होती है । उसी प्रकार प्रभु की भक्ति से भी जीवन में कोई कष्ट बाधा उत्पन्न नहीं होती ।
भाव कुभाव अनख आलस हू । नाम जपत मंगल सब दिस हू ।
भाव से कुभाव से आलस्य से बेमन से भी जो इस सत्यनाम को जपता है । उसके लिये हर तरफ़ आनन्द मंगल ही हो जाता है ।
पानि जोरि आगे भइ ठाढ़ी । प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी ।
- ये प्रसंग शबरी का है । जब राम उसके आश्रम में पहुँचे । तो वह हाथ ( पानि ) जोङकर उनके आगे खङी हो गयी । और राम को देखकर उसके दिल में अत्यन्त प्रेम उत्पन्न हुआ ।
केहि बिधि अस्तुति करौ तुम्हारी । अधम जाति मैं जड़मति भारी ।
तब वह बोली - हे नाथ ! किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ । मैं नीच जाति में उत्पन्न हुयी हूँ । और मुझे अधिक बुद्धि ग्यान भी नहीं हैं ।
अधम ते अधम अधम अति नारी । तिन्ह मह मैं मतिमंद अघारी ।
हे नाथ ! मैं नीच में भी और भी नीच प्रकार की हूँ । और उस पर एक औरत हूँ । ( शास्त्र सामान्यतः औरत को भक्ति के मामले में बुद्धिहीन और पापी मानते हैं ) उनमें भी मैं बुद्धिहीन और पापिनी हूँ ।
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता । मानउ एक भगति कर नाता ।
तब राम बोले - हे प्रिये ! सुनों । मैं सिर्फ़ एक भक्ति का ही भाव देखता हूँ । अन्य बातों से मुझे कोई मतलब नहीं हैं ।
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई । धन बल परिजन गुन चतुराई ।
हे शबरी ! जाति कुल खानदान धर्म प्रतिष्ठा बङाई मान सम्मान धनी शक्तिशाली भरा पूरा परिवार गुण और चतुरता  ( इनसे मुझे कोई मतलब नहीं हैं )
भगति हीन नर सोहइ कैसा । बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ।
हे शबरी ! ये सब होते हुये भी ( ऊपर लिखी चीजें ) भक्तिहीन ( भक्ति न करने वाला ) इंसान उसी प्रकार शोभा पाता है । जैसे बिना पानी का बादल । अर्थात ये सब मेरे लिये बेकार है ।
नवधा भगति कहउ तोहि पाही । सावधान सुनु धरु मन माही ।
इसलिये हे शबरी ! मैं तुझसे नवधा भक्ति ( 9 प्रकार की भक्ति ) कहता हूँ । उसे तू सावधानी से सुनते हुये मन में याद रखना ।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा । दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ।
हे शबरी ! पहली भक्ति संतो का संग करना यानी उनके साथ सतसंग में कुछ समय बिताना है । और दूसरी मेरी कथाओं यानी भक्ति वर्णन को प्रेम से सुनना है ।
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान । चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ।
गुरु के चरणों का ध्यान और भक्ति भाव से बिना किसी अभिमान के उनकी सेवा करना हे शबरी तीसरे प्रकार की भक्ति है । तथा बिना किसी कपट चालाकी के सरल ह्रदय से मेरे गुणों का वर्णन करना मेरी चौथी भक्ति है ।
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा । पंचम भजन सो बेद प्रकासा ।
हे शबरी ! दृण विश्वास से मेरे निर्वाणी महामंत्र का जाप मेरी पाँचवी भक्ति है । जिसको वेदों में बताया गया है ।
छठ दम सील बिरति बहु करमा । निरत निरंतर सज्जन धरमा ।
निरंतर सज्जनों के धर्म का आचरण करते हुये बहुत सी व्यर्थ की कामनाओं का दमन तथा स्वभाव में शीलता और बहुत से कर्मों से विरत होना ( दूर रहना ) हे शबरी मेरी छठवीं भक्ति है ।
सातव सम मोहि मय जग देखा । मोते संत अधिक करि लेखा
हे भामिनी ! इस संसार के सभी जीवों में मुझे ही देखना और साधु सन्तों को मुझसे भी बङकर मानना मेरी सातवीं भक्ति है ।
आठव जथा लाभ संतोषा । सपनेहु नहिं देखइ परदोषा ।
हे शबरी ! जितना भी लाभ धन सुख साधन हो । उसी में संतोष रखे । और स्वप्न में भी दूसरे के दोष पर विचार न करे । ये मेरी आठवीं भक्ति है ।
नवम सरल सब सन छलहीना । मम भरोस हिय हरष न दीना ।
हे शबरी ! सबके साथ सरल और छल कपट रहित व्यवहार करते हुये । और मुझ पर ही अटल विश्वास रखते हुये अपने ह्रदय में सुख और दुख दोनों में समान ही रहे । व्यथित न हो । ये मेरी नवीं भक्ति है ।
नव महु एकउ जिन्ह के होई । नारि पुरुष सचराचर कोई ।
हे शबरी ! इन नौ भक्ति में से एक भी जिसके अन्दर होती है । वह इस सकल सृष्टि में स्त्री पुरुष कोई भी क्यों न हो ।
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे । सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे ।
हे भामिनी ! वह मुझे अत्यन्त प्रिय ही है । फ़िर तुझ में तो यह सभी की सभी ही हैं ।
मम दरसन फल परम अनूपा । जीव पाव निज सहज सरूपा ।
हे शबरी ! मेरे दर्शन का फ़ल परम अनुपम है । जब कोई भी जीव अपने सहज स्वरूप ( आत्म स्वरूप ) में स्थित होने लगता है । तब वह मेरा दर्शन पाता है ।
परहित बस जिन्ह के मन माही । तिन्ह कहु जग दुर्लभ कछु नाही ।
जो दूसरे का भला ही सोचते हैं । और जिनके मन में बस परमार्थ की ही भावना है । उनके लिये इस संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।
कोमल चित अति दीनदयाला । कारन बिनु रघुनाथ कृपाला ।
उन दीनदयाल प्रभु का अति कोमल ह्रदय है । वे रघुनाथ जी बिना कारण ही सब पर कृपा करते हैं ।
सुनहु उमा ते लोग अभागी । हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी ।
इसलिये हे पार्वती ! ( शंकर जी बोले ) वे लोग अत्यन्त अभागे ही हैं । जो ऐसे दयालु प्रभु से मन हटाकर विषय वासनाओं में पङे जीवन को बरबाद करते हैं ।
अब प्रभु कृपा करहु यहि भांती । सब तजि भजन करहु दिन राती ।
सुग्रीव बोला - हे प्रभु ! अब आप ऐसी कृपा करिये कि मैं सब इच्छाओं वासनाओं को त्याग कर निरंतर आपका ही भजन करूँ ।
सनमुख होय जीव मोहि जबही । कोटि जन्म अघ नासो तबही ।
आत्मस्वरूप में स्थित होकर जैसे ही जीव मेरे सन्मुख होता है । मैं उसके करोंङो जन्मों के पाप नष्ट कर देता हूँ ।

17 जुलाई 2011

भगवान इनका भला करे जिसका कोई चांस नहीं है

बुल्ला । बुल्ला । बुल्ला... खत लिखे हैं । खून से स्याही मत समझना । शरीर की मौत को । हमेशा का बिछोडा न समझना ।
राजीव राजा ! तुमने कल मेरे लिखे राशन पर भाशन को छाप कर मजा दिला दिया । जीयो राजा जीयो । अब शायद फ़िर से बन्टी या बन्टी जैसे नौजवान लाला लाजपत राय के नाम पर बने सरकारी पार्कों में दौड लगानी शुरु कर दें । कल की तरह आज मैं फ़िर फ़ालतू का हँसी मजाक न करते हुये । कुछ जरुरी बात ही लेकर

आया हूँ । आज पूछ्ना कुछ नहीं है । सिर्फ़ बताना ही है । राजा ! तुम अपनी तरफ़ से बेशक कोई सलाह पाठकों को दे सकते हो ।
जिन्दगी में कई तरह के लोग मिलते हैं । लेकिन आज मैं तुम्हें अपने निजी अनुभव के आधार पर 2 आदमियों की बात सुनाना चाहता हूँ । राजीव राजा और पाठको ! इस बार मैं 1% भी कल्पना का सहारा नहीं ले रहा । आज मैं जो लिखने जा रहा हूँ । ये

मेरा निजी 100%  सच्चा अनुभव है । ये जो 2 आदमी हैं । 1 तो अपने आपको बहुत बडा आस्तिक समझता है । और दूसरा अपने आपको बहुत बडा नास्तिक और तर्कशील समझता है । पहले किसकी बात करे । आस्तिक की । या नास्तिक की । चलो फ़िर फ़टा पोस्टर और निकला हीरो । पहले आस्तिक की ही बात करते हैं ।
राजीव राजा ! तुम्हारा ब्लाग जनता जनार्दन के लिये है । इसलिये मैं किसी की प्राईवेसी भंग नही करुँगा । इसलिये मुझे जो बहुत बडा आस्तिक मिला था । मैं उसका नाम या पता न बताते हुये

सीधा सीधा काम की ही बात करता हूँ ।
मैं पिछ्ले कुछ साल से 1 ऐसे आदमी को जानता हूँ । जो दुनिया की हर चीज को मानता है । मेरा मतलब हर धर्म । मजहब । सम्प्रदाय । मन्डली । मन्दिर । मस्जिद । तीर्थ । पन्डित । ज्योतिष । तान्त्रिक । सपेरे और पता नहीं क्या क्या । क्या विश्वास और क्या अंधविश्वास । उसने सब गुड-गोबर किया हुआ है । लेकिन उसने अभी तक कोई भी साधना नहीं की । और

न ही आज तक कभी किसी को अपना गुरु बनाया । न द्वैत वाले बाबा को । और न ही अद्वैत वाले बाबा को ।
मैंने 1 दिन वैसे ही पूछ लिया कि - आप पिछले 20 या 25 साल से अलग अलग किस्म के बाबाओं के पास जाते हो । अलग अलग जगहों पर जाते हो । आपको आज तक इनमें से सबसे सही या यूँ कह लीजिये कि पूर्ण बाबा या पूरा गुरु कौन नजर आया ?
तो वो आस्तिक जी बोले - सभी पूर्ण हैं । सभी पूर्ण हैं । सभी उसी का रूप है ।

मैं सुनकर चुप कर गया । लेकिन मैं ये बात सोचता रहा कि - ये कैसे हो सकता है ? सभी में फ़र्क है । जरुर है ।
मैं हैरान था कि इस आदमी को अब तक 20 - 25 साल हो गये । धर्म का ढोंग करते हुये । क्या इसे अधूरे बाबा और पूरे सन्त में क्या फ़र्क है । इसकी पहचान नहीं हुई ?
खैर..अब बात आयी नास्तिक और तर्कशील मेंढक की । ये जो नास्तिक और तर्कशील है । ये मेरे पडोस में रहता है । ये

किसी स्कूल में पी टी मास्टर है । ये कहते हैं कि - न कोई पूरा है । और न कोई अधूरा है । सब एक जैसे ही है ।
मैं तुमको सच्ची उदाहरण भी दे देता हूँ । 1 बार मैं दोपहर को लेटा लेटा टी वी देख रहा था । वो आदमी ( नास्तिक ) मेरे पास बैठा था । कोई फ़िल्म आ रही थी । जब फ़िल्म के बीच में मसहूरी आयी । तो मैंने चैनल चेंज कर दिया । उस समय अचानक किसी धार्मिक चैनल पर राधा-स्वामियों का कोई प्रोग्राम चल रहा था । वो प्रोग्राम मैंने पहले भी देखा हुआ था ( पुराने बाबा चरन सिह का प्रोग्राम था )
मैंने जानबूझ कर वो वाला चैनल ही लगा रहने दिया । मुझे उम्मीद थी कि ये प्रोग्राम शायद इसको अच्छा लगे (

वो नास्तिक आदमी हिन्दू है । लेकिन सिख गेटअप में रहता है । इसका राज भी बता देता हूँ ) वो प्रोग्राम सिर्फ़ सत्यनाम के चर्चा पर था । गुरु ग्रन्थ साहिब की वाणी की व्याख्या की जा रही थी ।
लेकिन उस आदमी के चेहरे का रंग ही उड गया । जैसे एकदम शोक में आ गया हो । चेहरे पर नफ़रत के भाव आ गये ।
मैंने उसे कहा कि - ये बाबा सही बात कहते हैं । जो गुरु नानक जी ने कही थी । ये भी वो वाली बात ही कहते हैं ।
इतने में ही जैसे उसे किसी कीडे ने काट लिया हो । वो कहने लगा - ऐसे कितने चैनल आते हैं । केबल टी वी पर ?
मैंने कहा - 4 आते हैं ।
उसने फ़िर कहा - उन 4 चैनल्स पर जितने किस्म के भी धार्मिक प्रोग्राम आते हैं । आप सब देख लेना । सब 1 ही बात बोलते हैं । इन लोगों के पास कहने को कुछ नहीं । सब 1 ही बात बोलते हैं ।
उस समय मेरे मन में जो उसके प्रति भाव आया । वो मैं तुमको बताऊँगा नही । क्युँ कि तुम कहोगे - अंकल जी ऐसी बात ब्लाग पर छापनी उचित नहीं । क्युँ कि ब्लाग को महिलायें भी पढती हैं ।
फ़िर वो आदमी किसी काम का बहाना बनाकर वहाँ से खिसक गया । असल में वो खिसका इसलिये था । क्युँ जो उसे धार्मिक बातें सुननी न पडे । लेकिन मैं उस दिन गुस्से से भरा रहा । लेकिन बोला कुछ नहीं । सोचता रहा कि वो हराम का ढक्कन ! बिल्कुल गलत बात बोलकर गया है ।

कोई उससे पूछे कि - 4 धार्मिक चैनल्स पर कई किस्म के प्रोग्राम आते हैं । कोई सत्यनाम प्रचार का । कोई द्वैत साधना पर । कोई शारीरिक योगा का । कोई ज्योतिष पर । कोई शिव योग पर । कोई बृह्मकुमारियों का । कोई पन्डा पुजारियों का । कोई आयुर्वेद पर । कभी भागवत कथा । कोई कुछ । कोई कुछ......बस अपने आप समझ लो । कई प्रकार के प्रोग्राम आते हैं ।
अब सबकी बात बिलकुल अलग अलग है । अलग अलग होनी भी चाहिये । सबकी अपनी अपनी सीमा रेखा है । लेकिन उस असली .... की औलाद ने ये कैसे कह दिया कि - सब 1 ही बात कहते हैं ।
दूसरी सच्ची उदाहरण भी सुन लो । 1 बार सुबह सुबह मैं चाय पीते हुए टी वी पर भगवत गीता की व्याख्या सुन रहा था । तब अचानक वो नास्तिक फ़िर आ गया । शान से टहलता हुआ आ रहा

था ( वैसे उसका कद 5 फ़ीट 2 इंच है सिर्फ़ )
अचानक टी वी पर निगाह पडते ही कि कोई धार्मिक प्रोग्राम आ रहा है । 1 सैकिन्ड में पीठ करके घूम गया । और बोला - त्रिपाठी जी ! आईये बाहर बैठते हैं । मैं तो आपके पास चाय पीने आया था ।
मैंने टी वी बन्द किया । और अपनी चाय उठाकर बाहर बरामदे की तरफ़ चल पडा । अब राजीव राजा ! यहाँ जो नोट करने वाली बात है । वो ये है कि उस आदमी ने

सिर्फ़ टी वी पर सुबह सुबह भगवे रंग के कपडे वाले आदमी को देखते ही वापिस पीछे को दौड लगा ली ।
उसकी नास्तिकता आधारहीन है । बिना सुने कि वो क्या बोल रहा है ? फ़ैसला कर लिया कि - सब धार्मिक बातों को एक समान बोलकर गलत का लेबल लगा दिया ।
1 खास बात और उसने कहा था कि - सब 1 ही बात करते हैं । यहाँ उसका इशारा सिर्फ़ केबल टी वी के 4 चैनल नहीं थे । उसका इशारा पूरे विश्व की आस्तिकता पर था । मैं उससे पूछूँ - बेटा ! क्या तूने ये 4 चैनल के सारे प्रोग्राम देखे हैं ।

अगर देखे होते । और अगर 2 पैसे की भी अक्ल होती । तो तू ये कभी न कहता कि - सब 1 ही बात बोलते हैं ।
देखा राजीव राजा ! आजकल के विद्वान । तर्कशील । आगे की सोच रखने वाले । प्रेक्टिकल और बुद्धिजीवी लोग । जो बिना सुने । बिना पढे । बिना सोचे । बिना कोई खोज या रिसर्च किये बडे बडे फ़ैसले हाँ या ना में कर डालते है ।
खैर..भगवान इनका भला करे । जिसका कोई चांस नहीं है ।
राजीव राजा ! उसके घर में केबल टी वी तक नहीं है । उसके बच्चे पडोसी के घर टी

वी देखते हैं । मेरे पास वो फ़्री टाइम में पुरानी फ़िल्में ( जो ZEE क्लासिक  चैनल पर आती हैं ) देखने आता है । राज कपूर । मनोज कुमार । हेमा मालिनी आदि की । इनको तो इतने चाव से देखता है कि ऐसा लगता है कि इन्हें देखता हुआ कहीं खो गया है ( लेकिन मेरे को 1 ही फ़िल्म अच्छी लगती है । जिसका नाम था " गुंडा " जिसमें हीरो था । मिथुन दादा )  साला कुत्ते का....!  हेमा मालिनी और जीनत अमान का तो पुराना भक्त है । ( लेकिन मैं तो सिर्फ़ माधुरी दीक्षित का ही फ़ैन हूँ ) अब उसके हिन्दू होने के बावजूद सरदार गेटअप धारण करने का राज भी सुन लो । वो आदमी हिन्दू है । हिन्दू ब्राह्मण । उसने किसी सेकिंड हैंड मुसलमान

औरत से लव मैरिज की हुई है । वो भी किसी स्कूल में मास्टरनी है । लेकिन वो औरत 5 फ़ीट 4 इंच की है । अपने पति से उमर में 2 या 3 साल बडी भी है । शादी के बाद हिन्दू ने हिन्दू धर्म छोड दिया । अपने नाम के पीछे कुमार हटाकर सिंह लिखना शुरु कर दिया । साथ में पगडी भी बाँधने लगा । मास्टरनी ने इस्लाम छोड कर सरदारनी का गेटअप बना लिया । साथ में अपना इस्लामी नाम ( जो बचपन का था ) बदल कर परवीन बाबी ( असली नाम मैंने जानबूझ कर नहीं लिखा ) रख लिया । उनके 2 बेटिया हैं । उनके नाम उन्होंने ईसाइयो वाले रखे है ।

देखा राजीव राजा ! पति हिन्दू । पत्नी मुस्लिम । मजहब सिख । बच्चे ईसाई । ये हुई प्रेक्टिकल एकता । हाँ एक बात और । वो महात्मा गाँधी और जवाहर लाल नेहरू को अपना आदर्श मानता है । मुझे वो अक्सर कहता है कि - त्रिपाठी जी ! गाँधी जी प्रेक्टिकल आदमी थे । आप गाँधी जी और जवाहर लाल नेहरू जी की बदौलत ही आजाद देश में बैठे हो ।
मैंने मन में सोचा - बेटे तू 5 फ़ीट 2 इंच है । और मैं पूरा 6 फ़ीट । ऊपर से मैं आधा पागल भी हूँ । परवीन बाबी से मुझे लुच्चा इश्क अगर न होता । तो तेरी तो मैं ........." ( वैसे उसकी पत्नी की जवानी भी ढलती ही जा रही है ।

वैसे तुमने भी किसी पुराने 2010 के लेख में लिखा था कि - औरत बिना भरपूर सम्भोग के जल्दी बूढी हो जाती है ) इसलिये मैं रोज कुँआ खोदता हूँ । और रोज पानी पीता हूँ । बातें वो भी बडी बडी आदर्शवाद की करता है । वो कामरेड थ्योरी के पक्ष में है । उसके हिसाब से समाज में घोडे और गधे का बराबर सम्मान होना चाहिये । कलेक्टर और चपरासी को 1 ही टेबल पर साथ साथ बैठकर नाश्ता करना चाहिये । बातें बहुत बडी बडी करता है । आदर्शवाद की । लेख अधिक लम्बा न हो जाये । इसलिये अब उस चूहे के बारे में और क्या लिखना । अगली बार फ़िर अपने सच्चे और निजी अनुभवों के साथ फ़िर आऊँगा ।
तुम्हारा अंकल । विनोद त्रिपाठी । चोली के पीछे क्या है । चोली के.... क्या है । चोली के नीचे क्या है । चोली के अन्दर क्या है । ... राम जी .. हाय .. कु कु कु कु कु कु कु कु .....( जाते जाते सुनो । गुंडा फ़िल्म का मशहूर डाय़लाग । ये डायलाग फ़िल्म में मेन विलेन बार बार बोलता रहता है -मेरा नाम है बुल्ला । रखता हूँ ....) तुम सब लोग ये फ़िल्म देख ही लो ।

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प्रस्तुतकर्ता - श्री विनोद त्रिपाठी जी । प्रोफ़ेसर । भोपाल । मध्य प्रदेश । ई मेल से । त्रिपाठी जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद ।
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प्रोफ़ेसर त्रिपाठी जी के बारे में - त्रिपाठी जी का फ़ुल आरीजनल मैटर ठीक उसी तरह होता है । जैसे किसी घोर शाकाहारी प्याज लहसुन भी न खाने वाले इंसान के सामने तन्दूरी मुर्गा रख दिया जाय । जैसे कोई बकरा सामने ही हलाल करके पकाया जाय । इनके प्योर नान वेज लेख को मैं काफ़ी हद तक यथासंभव सामान्य बनाते हुये तब पोस्ट करता हूँ । ( तब इतना बचता है )
कई बार मेरे पाठकों ने फ़ोन और मेल पर यह भी कहा - आप त्रिपाठी जी को क्यों छापते हो ?

आप लोग जानते ही हो । हर बात पर मेरा दृष्टिकोण और नजरिया थोङा सामान्य से अलग होता है ।
-हमारे समाज में हर तरह के लोग हैं । जो प्रेम की ग्यान की साधुता की भाषा नहीं समझते । इसलिये मेरे दृष्टिकोण से जहाँ हमारे युवा साथी सुभाष रजत जी आदि मंडली का अपना महत्व है । जहाँ सुश्री रूप कौर जी जैसी सभ्रांत महिलाओं का अपने वर्ग में महत्व है । जहाँ सुशील कुमार कामिनी जी रोमा जी आदि आफ़िस में कार्य करने वालों का अपना महत्व है । जहाँ सभी अन्य सहयोगियों का अपना महत्व है ।

उसी तरह इन " कुत्ते की दुम " ( जो बारह साल नली में रहने के बाद भी टेङी ही निकली ) टायप आदमियों को सही रास्ता दिखाने हेतु । तथा और लोगों को उनके द्वारा भटकाने से बचाने हेतु " श्री त्रिपाठी जी " जैसे लोगों का ( एक दृष्टि से ) आप लोगों से भी अधिक महत्व है ।
क्योंकि अक्सर आपने अपने मेल्स में खुद स्वीकार किया है कि - आप लोग ऐसे हठी लोगों के सामने से अलग ही हो जाते हो कि वो जाने । उसका काम जाने ।
पर ऐसा कहने से बात नहीं बनती । ऐसे मूढ लोग ( इस मेल में बताये गये ) भी समाज का हिस्सा होते है । और वे समाज को फ़िजा को बिगाङने की पूरी पूरी कोशिश करते हैं ।

मैंने अक्सर देखा है । और आप सबने भी कई बार देखा होगा कि - अपने को जेंटलमेन मानने वाले । समाज में खुद का उच्च स्थान मानने वाले । जब कभी अपनी बहन बेटी के साथ बाजार आदि जाते हैं । और अराजक तत्व टायप लोग जब उन महिलाओं पर अश्लील फ़ब्तियाँ कसते हैं । तब वे अनदेखा करके या सिर झुकाये हुये गुजर जाते हैं । वास्तव में ( मेरी निगाह में ) इनका खून पानी हो गया है । ऐसे ही लोगों ने इन टपोरियों को बङाबा दिया है ।
जबकि इसी स्थान पर कोई गर्म खून वाला । कोई टपोरियों का मिजाज समझने वाला । उसके 32 दाँतों में से 2 तो कम कर ही देता है ।
खुद मेरे सामने ऐसी स्थिति कई बार हुयी । जब धार्मिक वार्ता में कुतर्क करने वाले मुझको कमजोर समझते हुये असभ्य भाषा पर उतर आये । तब मैंने एक संवाद बोला - निरा बाबा ही तो नहीं समझता तू । मैं तेरी भाषा भी बोलना जानता हूँ । ( खग जाने खग ही की भाषा )
बस इतने से ही उसको आयडिया हो गया । पंगा गलत जगह हो गया । बाबा डबल रोल वाला है । और वह बेसुरा अकङ ढीली कर शान्त हो जाता ।
इसलिये आप अनुमान लगा सकते हैं । श्री विनोद त्रिपाठी जी जैसे लोगों का भी अपना खासा महत्व है । आम सबको अच्छा लगता है । पर बबूल का भी अपना अलग महत्व है । क्योंकि काँटे से ही काँटा निकाला जाता है । लोहा ही लोहे को काटता है ।
इसी मेल के पात्र के अनुसार - त्रिपाठी जी ! गाँधी जी प्रेक्टिकल आदमी थे । आप गाँधी जी और जवाहर लाल नेहरू जी की बदौलत ही आजाद देश में बैठे हो ।
उस भले आदमी से ये पूछो - चन्द्रशेखर आजाद । भगत सिंह जी । लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल । झाँसी की रानी आदि तमाम महान शहीदों ने फ़िर क्या किया था ? मेरे दृष्टिकोण से तो देश अभी भी गुलाम ही है । और इस गुलामी का पूरा श्रेय इन्हीं दोनों हस्तियों को है । जिसका उस ग्यानी ने जिक्र किया था । ये 2 भले आदमी उन महान क्रांतिकारियों के काम में फ़ालतू की टांग न अङाते । तो आजादी का स्वरूप ही कुछ और होता ।
उदाहरण - अमेरिका पाकिस्तान के अन्दर घुसकर लादेन को पकङकर मार देता है । सद्दाम को उसके देश में ही घुसकर पकङता है । और नेस्तनाबूद करता है । इस तरह जङ ही काट देता है । और आजाद भारत महान भारत अपने हिस्से के कश्मीर पर भी सिर्फ़ शान्ति वार्तायें करता रहता है । सोचिये - कितने आजाद और महान हैं हम ।  अभी मैं कैसे कहूँ - आय लव माय इंडिया ।

कसरत करने से मौत के समय तकलीफ़ - कभी नहीं

कबड्डी कबड्डी कबड्डी कबड्डी ....( जय श्रीराम ) लाला आजा तुमसे 1 बहुत जरुरी बात पूछनी है ( मेरा गाँव मेरा देश...जय किसान जय किसान )
लेकिन बात पूछने से पहले कुछ बताना जरूरी है कि - ये सवाल आया कहाँ से । तो सुनो ।
हमारे पडोसी ( जिनसे हम दूध लेते हैं ) का लडका इस साल 14 साल का हो गया है । वो नौवीं कक्षा में पढता है । उसने अपना कद भी 5.10 इंच निकाल लिया है ।
3 महीने पहले वो मुझे 1 दिन अकेला शाम को कहीं मिल गया । तो मैंने अपनी आदत अनुसार उसको कुछ शिक्षा दी । अब जो मुझे आता है । या मैंने सीखा है । मैं तो वो ही सिखाऊँगा ।

तो मैंने उसे कहा - बन्टी तुम सारी कालोनी को तो भैंस का दूध पिलाते हो । और तुम खुद बकरी जैसे हो । मैंने कहा - भारत देश में भीमसेन जैसे महाबली और बाहुबली लोग हुए है  ( ये देश है वीर जवानों का । पहलवानों का । हनुमानों का । इस देश का यारो क्या कहना । ये देश है दुनियाँ का गहना )
मैंने उसे कहा - तुम्हारे घर दूध की कमी नहीं । तुम सुबह उठकर सरकारी पार्क में जाकर दौड लगाया करो । मैंने उसे कहा - शाम को किसी अखाडे या जिम आदि में जाकर कसरत करो । नहीं तो घर में ही शाम को डण्ड बैठक लगा लिया करो ।
मैंने उसे कुछ देसी कसरतें करके भी सिखाई । छाती की । जाँघों की । पिन्डलियों की । कमर की । कन्धों की । उसने भी बात को समझा ।
मैंने उसे कहा - इससे तुम्हे नींद ठीक समय पर आयेगी । तुम ठीक समय रात को 10 बजे से पहले सो जाया करो । और सुबह 5 बजे से पहले उठ जाया करो । तुम्हे टट्टी

भी खुलकर आयेगी । नहीं तो राजेश खन्ना की तरह कब्ज की शिकायत रहने लग जायेगी । बस राजीव राजा ! तुम यूँ समझो कि मैंने उसे अच्छी बातें समझाई । पूरा 1 घन्टा उसको मैंने भाषण दिया । वो भी अगले दिन से लग गया
लेकिन पिछ्ले महीने से उसने कसरत छोड दी । मुझे भी शक हो गया । वो मेरा पडोसी है । बात कितनी देर तक छुप सकती थी । उपर से मैं विनोद त्रिपाठी सपुत्र जगन्नाथ त्रिपाठी बहुत वो हूँ । मैं तो भाँप लेता हूँ कि - चिङिया किस खेत से दाना चुग कर आयी है ।
जब मैंने उसे अकेले में प्यार से पूछा कि - कसरत करनी क्यूँ छोड दी ?

तो उसने जो बात बताई । वो मैं तुम्हें बताता हूँ । जून के महीने में बन्टी स्कूल में छुट्टियाँ होने के कारण गाँव गया हुआ था । वहाँ उसका ताऊ खेती करता है । वहाँ पर बन्टी के ताऊ का लडका जो है ।
उसने बन्टी को कहा - कसरत वसरत मत किया करो । इससे कुछ नहीं होता । जो लोग कसरत करते हैं । उन्हें मौत के समय बहुत तकलीफ़ होती है । कसरत करने वालों की आत्मा मौत के समय शरीर से बहुत मुश्किल से निकलती है ।
अब ये बात राजीव राजा मेरे मन में अटक गयी । मैं उस बन्टी के ताऊ के लडके से पूछना चाहता हूँ कि -बेटा हराम के ढक्कन ! ये बात तूने किस आधार पर कही ।
बस राजीव राजा ! ये ही आज का 1 सवाल है । जिसको धोती फाड कर रूमाल कर दो । मेरा मतलब है कि इसका बिल्कुल सही जवाब दे दो । क्युँ कि मेरे हिसाब से जो सन्त । महात्मा या योगी होते हैं । मेरे कहने का मतलब है । जिनकी अन्दरूनी पहुँच दसवें द्वार तक होती है । सिर्फ़ उनको मौत के समय कोई तकलीफ़ नहीं होती होगी । लेकिन ये कौन सी थ्योरी है कि - सिर्फ़ कसरत करने वालों को मौत के समय बहुत तकलीफ़ होती है । इस हिसाब से तो औरतों का जिस्म नरम होता है । तो क्या उन सबकी आत्मा मौत के समय बिना तकलीफ़ निकलती है ?
मेरे हिसाब से हर निरे संसारी और निगुरे को मौत के समय आत्मा निकलते समय लगभग तकलीफ़ का समान अनुभव ही होता होगा

। तुम मुझे अच्छी तरह से ये बात समझा दो । मुझे बहुत गुस्सा चडा हुआ है । मैं उस साले हराम के ढक्कन । बन्टी के ताऊ के लडके के हगनीकुन्ड में आग लगा दूँगा ।
बन्टी के ताऊ के लडके को मैंने देखा हुआ है । साला किसी बेकार के सरकारी कालेज से M.A कर रहा है । हमेशा थर्ड डिवीजन में पास होता है । साला बातें ऐसी करता है । जैसे बहुत बडा जानकार हो । कहता रहता है कि - अब ये सरकार बदल जायेगी । वो सरकार आ जायेगी । अब फ़लाँ आदमी मुख्यमन्त्री बनेगा । या फ़लाँ आदमी का ये होगा । या वो होगा ।
असल में वो साला महानालायक है । मेरी

नजर में तो वो वो वाला कुत्ता है । जिसे कुत्ता भी कुत्ता कहे । मेरे हिसाब से तो वो वो वाला आदमी है । जो अपने ही बाप के दामाद होते हैं । सुबह 10 बजे सोकर उठता है । चेहरे पर मूँछे ऐसे रखी हैं । जैसे साला अपने आपको दक्षिण भारतीय सुपर स्टार रजनीकान्त उर्फ़ रजनीदेवा समझता हो । साला रंग बिरंगी कमीज पहनता है ( बाप उसका हमेशा पुराना कुर्ता पजामा ही पहनता है )
शरीर साले का बिलकुल औरतों जैसा है नरम नरम । साला जब शहर आता है । तो नूडल्स खाता है । साथ में कोल्ड काफ़ी पीता है ।
मैंने बन्टी से भी कहा था कि - तेरे घर में भैंस है । तू ताजा दूध पीया कर । ताजी मलाई खाया कर । ताजा दही खाया कर । मैंने उसे ये भी कहा कि - तू ये सब फ़ास्ट फ़ूड और बाजारी खाने खाना कम कर दे । बिल्कुल मन मत मार । कभी कभी खा लिया कर । लेकिन असली देसी खुराक खानी चाहिये । आईस क्रीम की जगह तुझे ताजे दूध की खीर खानी चाहिये ।
लेकिन वो साला बन्टी के ताऊ का लडका

आकर बन्टी को थूक का दुरुपयोग सिखा गया । मैं मानता हूँ कि बडे शहरों में ताजे दूध या देसी शुद्ध खाने पीने की कमी है । इसलिये वहाँ के रहने वाले माडर्न लोगों की तो वो है । लेकिन छोटे शहरों या गाँव में रहने वाले लोगों ( जो मध्य वर्गीय या उच्च वर्गीय हैं ) को तो इन बातों का ख्याल रखना चाहिये ।
भारत में ज्वार । मक्की । बाजरा । काले चने का आटा भी मिलता है । अलग अलग किस्म का अनाज है । उसे खाओ । साले टमाटर सौस को चाटते रहेंगे । उससे अच्छा तो ताजी पुदीने की चटनी खाओ । फ़िल्मी हीरो भी साले कैपसूल खा खाकर बाडी दिखाते रहते हैं । कहाँ महाभारत

वाला भीमसेन ( वाह भई वाह ) और कहाँ साले आजकल के नौजवान ( लानत है ) नौजवान नायकों को अपना आदर्श मानते हैं - थू थू थू । बातें और भी लिखने को दिल कर रहा है । लेकिन इससे लेख अधिक बडा हो जायेगा । बस तुम इस लेख के निचोड के रूप में जो 1 प्रश्न है । उसका उत्तर दे दो । क्युँ कि मेरा दिमाग खराब हो चुका है । अब अगली बार जब भी बन्टी के ताऊ का लडका जिस दिन मेरे को नजर आ गया ( उसने अब तक थोडा बहुत गाय या भैंस का ही दूध पीया होगा ) अब मैं उसे सांड का दूध पिलाऊँगा । पूरा 1 लीटर । एक साथ । बिल्कुल ताजा ।
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आपका बहुत बहुत धन्यवाद त्रिपाठी जी । आज आपके लेख में वाकई एक शिक्षक । एक भारतीय सभ्यता संस्कृति को जङों से जानने वाला सच्चा इंसान नजर आया । जो अपने देश के युवाओं के पिचके गाल और सूखी कमर देखकर व्यथित है । और उन्हें सही रास्ता दिखाने के लिये प्रयत्नशील भी है । मेरा एक उद्देश्य इसी गौरवशाली परम्परा को  पुनर्जीवित करना भी है ।

कहना आवश्यक नहीं । मैं आपकी अधिकांश बातों से सहमत हूँ । गलत दिशा देने वाले के प्रति । भटकाने वाले के प्रति किसी सच्चे इंसान का आक्रोश स्वाभाविक है ।
मैं अपने सभी पाठकों को बताना चाहूँगा कि मैंने प्रयोग के लिये एक बार लगभग सभी चीजों को इस्तेमाल किया । परन्तु अपनाया नहीं । इसलिये मैंने आज तक कोक पेप्सी आदि नहीं पी ( वही  इक्का दुक्का प्रयोग भावना छोङकर ) पिज्जा नूडल्स जैसी वाहियात चीजें कभी नहीं खायीं ।
बल्कि मैं तो पक्का ठेठ भारतीय हूँ । जो प्याज को भी सलाद के रूप में न काटकर सीधा सीधा छीलकर मुँह से ही काट काट कर खाता हूँ । आप एक बार ऐसे खाकर देखना । प्याज खाने का असली लाभ इसी तरह मिलता है । फ़ल भी काटने के बजाय सीधा मामाजी ( बन्दर ) की स्टायल में अधिक खाता हूँ ।


मैंने कभी चिङिया बल्ला क्रिकेट आदि नहीं खेला । बल्कि कबड्डी । पैंता ( लम्बी कूद ) गुल्ली डंडा । कंचा । नदी में तैरना आदि ही खेले हैं । गुल्ली डंडा का तो मैं उस्ताद था । हिट्टा ( डंडे की चोट ) पङते ही गुल्ली सनसनाती हुयी छक्का ही मारती थी ।
4 किलो तक पुदीना हमारे एक सीजन में खाया जाता है । जो मैं ज्यादातर ताजा दही में नमक मिर्च सूखा पुदीना डालकर नियमित दोनों समय खाता हूँ । जैसा कि प्रोफ़ेसर साहब ने बताया । गेंहूँ और चना मिलाकर पिसाये आटे की रोटी बहुत लाभदायक और स्वास्थयवर्धक भी है । जो लोग असली बाडी बनाना चाहते हैं । वो गेंहू जौ चना की मिक्स रोटी खायें । आपका ये प्रोटीन पाउडर कैप्सूल आदि

उसके सामने कुछ भी नहीं हैं । मोटा अनाज और मोटी रोटी ( हाथ की । जिसे बेलने के बजाय हथेली से बनाते हैं ) ये स्वस्थ शरीर का मूल मन्त्र हैं ।
जिम की मशीनों के बजाय हमारे कसरत के भारतीय तरीके - मुगदर घुमाना । डण्ड बैठक । कबड्डी । कुश्ती लङना आदि ही सर्वश्रेष्ठ हैं । जिम से दिखाऊ बाडी तो बन जाती है । पर अप्राकृतिक रूप से विकसित की गयीं मांसपेशियाँ अभ्यास छोङते ही और बुङापे में बहुत दुखदायी होती हैं । ये W W F के नकली पहलवान बाद में बहुत परेशान होकर मरते हैं । युद्ध कलाओं में चीन जापान आदि के मार्शल आर्ट । जिमनास्ट । कराटे । कुंगफ़ू । समुराई आदि भी बेहतरीन हैं ।
खैर..मैं मुख्य बात पर आता हूँ ।

- जो लोग कसरत करते हैं । उन्हें मौत के समय बहुत तकलीफ़ होती है । कसरत करने वालों की आत्मा मौत के समय शरीर से बहुत मुश्किल से निकलती है ।
*** इन अक्ल के अंधों से ये पूछो । भगवान श्रीकृष्ण के भाई । शेषनाग के अवतार । दाऊ भैया । बलराम जी क्या पागल थे । जो यही सब अभ्यास करते थे । बलदाऊ जी ही दुर्योधन और भीमसेन आदि के मल्ल विध्या के गुरु थे । स्वयँ श्रीकृष्ण भगवान ने कंस को मारने से पूर्व जाने माने पहलवानों को मल्ल युद्ध द्वारा मारा था । उस समय उनकी अवस्था 13 वर्ष से भी कम थी । पर वे पिज्जा नूडल्स की बजाय शुद्ध मलाई मक्खन दूध छाछ ही खाते थे । और स्वयँ यही सब कसरत करते थे ।

भगवान राम लक्ष्मण आदि चारों भाई भी कसरत करते थे । और यही अभ्यास करते थे । हनुमान । बलबान बाली । सुग्रीव यहाँ तक कि तमाम राक्षस रावण आदि भी इसको जरूरी मानते हुये करते थे ।
बहुत से लोगों की यह धारणा है कि - साधु तो बस बस राम राम ही जपते हैं । लेकिन मैं आपको बता दूँ कि - तमाम सन्त महात्मा योगी यती सन्यासी  ये सभी कसरत आदि और तमाम प्रकार के योगाभ्यास ( शारीरिक स्वास्थय हेतु किये जाने वाले ) को बहुत आवश्यक मानते थे हैं ।
हमारे महाराज जी भी अवसर स्थान मिलने पर सुबह सुबह लम्बी दौङ लगाते हैं । और सबसे आगे रहते हैं ।

मृत्यु के समय तकलीफ़ होने का कसरत से कोई सम्बन्ध नहीं है । बल्कि कसरत से तो दिल दिमाग शुद्ध रहता है । इसलिये शुद्ध दिलोदिमाग से हमारे विचार आचरण भी शुद्ध रहते हैं । इसलिये अच्छे स्वास्थय और अच्छे विचारों वाला इंसान कुंठित जीवन नहीं जीता । क्योंकि वह अपने जीवन के कई पक्षों से संतुष्टि प्राप्त करता है । जबकि जीवन से असंतुष्ट इंसान तमाम तरह की हीन भावना के शिकार होकर बहुत से पापमय कार्यों में लिप्त होकर अपने संस्कारों को जटिल बना लेते हैं ।
वास्तव में यही जटिल संस्कार जटिल और दुखदायी मौत का कारण होते हैं । जरूरी नहीं हरेक इंसान दसवाँ द्वार जानने वाला ही हो । भले इंसानों का आचरण करने वाला । और बिना दीक्षा के भी सच्चे मन से प्रभु भक्ति करने वाला । इनको भी मृत्यु के समय कष्ट नहीं होता ।
असहायों । गरीव । जरूरतमन्द । और समय पर हरेक की यथासंभव सहायता करने वालों को भी मौत के समय

कष्ट नहीं होता । प्राणीनामा निकलने से लेकर... यमराज के सामने पहुँचने तक । जो जीवात्मा आनन्दपूर्वक खाती पीती हुयी शीतल छाँह युक्त मार्ग से यात्रा करती है । वे वही होते हैं । जिन्होंने वास्तविक जरूरतमन्द भूखों को भोजन और प्यासों को पानी पिलाया हो ।
यमदूतों के भी बहुत प्रकार हैं । भले इंसानों के लिये भले और बुरे इंसानों के लिये बुरे यमदूत आते हैं । अन्नदान ( भोजन कराना ) जो महादान है । उसके दानी को मृत्यु समय यमदूत झुककर प्रणाम करते हैं । बल्कि संक्षिप्त में यूँ समझिये कि - ऐसे दानी और सज्जनों की मृत्यु समय अगुवाई के लिये विष्णु आदि देवताओं के गण आते हैं ।
इसलिये मेरे भाईयो ! जागो । यह मैं अपने फ़ायदे के लिये नहीं आपके फ़ायदे के लिये ही कह रहा हूँ । श्री अमिताभ बच्चन जी की तरह किसी विनायक उर्फ़ धनायक । रानी मुखर्जी की तरह किसी शिरडी को दान मत करो । ये मोटी मोटी तोंदो में फ़ालतू ही जाता है । इसका आपको कोई लाभ नहीं मिलता । बन्द करो । ये मन्दिर पंडों पुजारी को दान । और आत्मदेव ( भूखे गरीबों ) को तृप्त करो । इससे 33 करोङ देवता एक बार में ही सहज तृप्त होते हैं
मैं यह भी नहीं कहता । इसके लिये स्पेशल भंडारा लंगर आदि चलाओ । बस आप बाजार आफ़िस आदि जाते समय जो भी असली भूखा भिखारी बच्चा औरत आदि नजर आये

। उसको वहीं कहीं से उपलब्ध पाँच दस रुपये की ठेल पर बिकने वाली पूङी कचौङी सब्जी आदि खिला दो । भूखे आवारा पशुओं को भी कुछ खिला सकते हैं । पूङी आदि न मिलने पर ब्रेड या अन्य कुछ भी जो मिले । लेकर खिला सकते हो । यही महादान है ।
मैं आपको एक छोटा प्रसंग बताता हूँ । एक आदमी ने जरूरत अनुसार दान का महत्व समझ लिया था । उसने देखा कि - बहुत से भिखारी या पागल टायप लोग बाल नहीं कटा पाते थे । उनके बालों में बेहद धूल और अन्य गन्दगी से लबालब रहते थे । जिससे वे बेहद परेशानी का अनुभव करते थे । पर क्या करें ।
तब उसने नाई को दस पाँच रुपये देकर उस्तरा से उनका घोटा करवाकर उन्हें नहाने को प्रेरित किया । आप सोचिये - उस दिन उस दीन को कितना सुख महसूस हुआ होगा । फ़िर उससे प्रेरित होकर कुछ नाई भी मुफ़्त में ही ऐसे जरूरतमन्दों पर यह उपकार करने लगे । आप खुद सोचिये । जब आपके बाल बङे हो जाते हैं । और गन्दे होने पर उनको एक दिन न धोया जाय । तो कितना अजीब सा लगता है । जो चीज आपको कष्ट पहुँचाती है । वैसा ही दूसरों का कष्ट अनुभव करते हुये उसका कष्ट दूर करना ही सच्चा परमार्थ और दान पुण्य कहा गया है इसी का श्रेष्ठ फ़ल मिलता है । जयहिन्द । जय भारत ।

15 जुलाई 2011

सवाल ये है बच्चों को ब्लाग पर लाया कैसे जाये ?

सारे जहाँ से अच्छा । हिन्दुस्तान हमारा । 
मुसाफ़िर है यहाँ सब । सिर्फ़ सतलोक है हमारा । 

अब मैं कहूँ कि न कहूँ......... कसम सब्जी मन्डी की...... आज कह ही देता हूँ । 
राजीव राजा ! तुम्हारे ब्लाग पर पुरुष भी आते हैं । और महिलाएं भी आती हैं । जवान भी आते हैं । और बूढे भी आते हैं ( मेरी बात अलग है )
कमी है तो सिर्फ़ बच्चों की । मैं बिलकुल भी छोटे बच्चों की बात नहीं कर रहा । बचपन बचपन ही होता है । छोटे बच्चों की अधिक दिलचस्पी खेलकूद में होती है ।
लेकिन जो कुमार अवस्था है । जो 13 साल की आयु से शुरु होती है । तो वो बच्चे जो 13 साल के हो चुके हैं । या 13 से अधिक आयु के हैं । वो तो तुम्हारा ब्लाग पढ भी सकते हैं । और कोशिश करने पर समझ भी सकते हैं ।
कोई बात समझ न आये । तो घर का कोई बडी आयु का सदस्य समझा सकता है
लेकिन अब सवाल ये है । इन बच्चों को तुम्हारे ब्लाग पर लाया कैसे जाये । तो इसका भी जवाब मौजूद है ।
जो लोग भी तुम्हारे नियमित पाठक है । उन्हें चाहिये कि वो अपने बच्चों ( स्कूल की बङी कक्षाओं में पढने वाले । या कालेज जाने वालों ) को तुम्हारे ब्लाग के बारे में बतायें ।
बच्चे 1 बार आ जायेंगे । उसके बाद कभी कभी आ जायेंगे

फ़िर शायद रोज रोज आने लगे । इस तरह फ़िर वो अपने अन्य मित्रों या सहेलियों से भी बात कर सकते हैं । अगर किसी के बच्चे ये ब्लाग पढते भी हैं । तो ठीक है ।
तो फ़िर उन्हें अपने पङोसियों या अन्य रिश्तेदारो के बच्चों को इस ब्लाग के बारे में बताना चाहिये । इस तरह चुपचाप हाथ पर हाथ रख कर बैठने से कुछ नहीं होगा ।
मैंने नोटिस किया है कि - तुम कभी कभी बहुत बढिया जानकारी की बात छापते हो । लेकिन लोग ससुरे पढ कर गुलटी हो लेते है । कोई ब्लाग पर टिप्पणी आदि भी पोस्ट नहीं करता । जितनी टिप्पणी प्रकाशित होती हैं । वो कम हैं ।
खैर.. हींग लगे न फ़टकडी और रंग आवे चोखा । 
जब बात बच्चों पर ही चली है । तो मैंने 20वीं सदी के हिन्दी कार्टून कामिक्स के सबसे लोकप्रिय नायक " चाचा चौधरी " के उपर 1 बहुत ही छोटा सा गाना लिखा है । 
वो तुम्हे सुनाता हूँ । ये गाना मैंने अभी तक किसी और को नहीं सुनाया ।
लेकिन तुम्हें जरुर सुनाऊँगा । क्यूँ कि तुम तो मेरे अपने हो । 
तो सुनो -
चा चा चा च च चा चा चा 

दुनिया देख रह जाती दंग । ताकत और अक्ल की जंग । 
देसी रंग और देसी राग । कम्पयूटर से भी तेज दिमाग ।
अक्ल की खेती हरी भरी । बात सुनाये खरी खरी । 
चाचा चौधरी चाचा चौधरी चाचा चौधरी ।
हाथ छडी सिर पर है पगडी । मूँछे भी हैं तगडी तगडी । 
अजब गजब चाचा के चक्कर । बङों बङों से लेते टक्कर ।
साथ में है मिस्टर साबू । जो आता नही किसी के काबू
चाची के भी अलग कमाल । देखो राकेट की भी चाल ।
इनके सामने रह जाती है । हर चालाकी धरी धरी । 
चाचा चौधरी चाचा चौधरी ।
चा चा चा चा...

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प्रस्तुतकर्ता - श्री विनोद त्रिपाठी जी । प्रोफ़ेसर । भोपाल । मध्य प्रदेश । ई मेल से । त्रिपाठी जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद ।

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मैं श्री त्रिपाठी जी की बात से सहमत हूँ । मैं अपने

बचपन के अनुभव से जानता हूँ । हमारे समय में कामिक्स का इतना चलन नहीं था ।  बच्चों के लिये बहुत कम कितावें छपती थी । और जो छपती भी थी । वह आफ़सेट के बजाय पुराने ढंग के छापाखाना - जिनमें रबर के फ़ांट कम्पोज करके एक खाँचे में सैट कर दिये जाते थे ।
किताब में कोई भी चित्र जोङने के लिये चित्र का ब्लाक बनाया जाता था । वह ब्लाक उसी खाँचे में सही जगह एडजस्ट कर दिया जाता था । इस तरह किताबें आकर्षक नहीं होती थी ।
फ़िर भी त्रिपाठी जी ने 13 साल की आयु से जो बच्चों को ग्यानवर्धक चीजों से जोङने की बात कही है । उस पर मेरा नजरिया थोङा अलग है । आज 5वीं क्लास में जो अध्ययन कराया जाता है । उतना पुराने समय में 10वीं क्लास में था । कक्षा 6 से तो A B C D सिखायी जाती थी ।
आज छोटे बच्चे भी सूटेड बूटेड टाई आदि लगाकर अपडेट होकर स्कूल जाते हैं । उस समय बङे बङे तक अधिकतर अण्डरवियर ( वो भी मेन जगह पर फ़टे ) बनियान पहनकर जाते थे ।
तब कोई दूसरा तीसरे को बताता हुआ मि. पारनेकर को सचेत करता - ओ रे वू देख नंगो ।
तब तो ( लगभग 11 - 12  साल के ) पारनेकर जी को पता चलता । उनकी दुकान का शटर खुला  है । फ़िर वो झेंपने के बजाय हँसते हुये उस पर शर्ट का परदा डाल लेते थे ।

मुँह धोने की जरूरत ही नहीं समझते थे । अम्मा का रात को लगाया मोटा मोटा काजल आधे चेहरे पर आ जाता था ।
अधिकतर क्लास ( पढाई ) के बीच लेट्रीन के लिये भागते थे - मास्साब मोय टट्टी लग रई ए
कमबख्तों को 9 बजे के लगभग....आती थी । तब तक बुरी तरह से " वायु प्रदूषण " फ़ैलाने में भरपूर योगदान करते थे ।
( यह सब मैं इसलिये भी बता रहा हूँ कि - आज बहुत से माता पिता का ख्याल है कि अच्छे शिक्षा संस्थानों से ही बच्चे ग्यान प्राप्त कर सकते हैं । जबकि राजीव बाबा जैसे ग्यानी " पादोपादम शिक्षा संस्थान -ऊसराहार " से शिक्षा प्राप्त हैं । वहीं मुझे.. पाद पादनम पादाभ्यामि.. के बङे बङे महत्व पता चले । )
खैर..मेरे ताऊ जी ने बाबा के लिये कल्याण आदि बहुत सी धार्मिक पुस्तकें और गीता प्रेस से श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं की कामिक्स स्टायल पुस्तकें बङी संख्या में खरीदी थी ।
उन्हीं से आकर्षक रंगीन चित्रों ( जिनमें भगवान राक्षस आदि को मार रहे थे ) के साथ थोङा थोङा विवरण पङते हुये मैं पूरी पूरी लायब्रेरी को चाटने वाला पढाकू बना । उस समय मेरी आयु सात आठ साल की थी । नौ साल तक तो मैं पढने का अभ्यस्त हो चला था ।
शेष फ़िर कभी ...