30 जून 2011

आधी रात को सूरज भला कौन देखता है ?

कामि क्रोधि मनु दूजै लाइआ । सपने सुख ना ताहा हे ।
दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर जिनको नाम नहीं मिला । और जिन्होंने अन्दर का परदा नहीं खोला । वे पापी कुटिल मन के विषय विकार काम क्रोध के ही वश में बने रहे । ऐसे लोग सपने में भी वास्तविक सुख नहीं पाते । और जन्म जन्म से दुख दर्द में जलते हुये आते हैं । और जलते हुये ही चले जाते हैं ।
 हमारी आत्मा मन के अधीन हो गयी है । मन बलबती इन्द्रियों के अधीन है । इन्द्रियाँ भोगों के अधीन हैं ।  यही उल्टी बात हो गयी । जबकि मन इन्द्रियों भोगों को हमारा अधीन होना चाहिये था ।
कंचन देही सबदु भतारो । अनदिनु भोग भोगे हरि सिउ पिआरो ।
जिसका अन्दर का परदा खुल गया । और जिसकी रूह ( आत्मा ) आसमानी मंजिलों को पारकर परमात्मा से मिल गयी । उसकी महिमा क्या कही जाये । उसका शरीर तो सोने जैसा मूल्यवान हो गया । वह खुद भी मुक्त हो गया । और अपने परिचितों को भी सदमार्ग दिखाकर मुक्त करा दिया ।
जिस तरह एक मक्खी शहद के किनारे बैठकर उसको खाती है । वह शहद खाने का आनन्द भी प्राप्त करती है । और शहद खाकर उङ भी जाती है । लेकिन जो लालची मक्खी हवस के कारण शहद के बीचोंबीच ही जाकर बैठ जाती है । उसके पंखो में शहद चिपक जाता है । और वह वहीं मर जाती है । इस तरह शहद भी खाने को न मिला । और जान से भी हाथ धोना पङा ।

इसी तरह जो मनमुख मनुष्य है । और भोगों से बुरी तरह लिपटा हुआ है । वह भोग भी नहीं कर पाते हैं । और दुखी रहकर पशुवत मरकर चले जाते हैं । लेकिन जो गुरुमुख हैं । उन्होंने दुनियाँ का भी आनन्द निर्भयता से लिया । उनका जन्म मरण भी खत्म हो गया । और वे परमात्मा से भी मिल गये ।
महला अंदरि गैर महलु पाए । भाणा बुझि समाहा हे ।
मनुष्य के इस शरीर के अन्दर करोंङो महल हैं । असंख्य नदियाँ पहाङ हैं । अनगिनत चाँद तारे सूरज सभी हैं । और खुद खुदा भगवान गाड वाहिगुरु भी इसी में है ।
आलमे सगीर ( पिंड देह ) आलमे कबीर ( बृह्मांड सृष्टि ) का नक्शा नमूना तो ही है ।
मौलवी रूम साहब के पास अन्दरूनी असलियत से बेखबर कुछ दूसरे मौलवी आये । और वाद विवाद तर्क कुतर्क करने लगे ।

तब उन्होंने कहा - चूँ शवी महरिम कुशाइम बा तो लब । ता ब दीनी आफ़ताबे नीम शब ।
हे मौलवियो ! अगर तुम आधी रात को सूरज ( ध्यान अवस्था में दिखने वाला । आत्म ग्यान में दिन रात नहीं होती । ऊँची स्थिति वाले को बिना ध्यान के भी दिखता है । ) देखते हो । तो मेरे साथ बात करो । अगर तुम अन्दर नहीं गये हो । तो फ़िर इस बात को कैसे जानोगे ?
तब उन मौलवियों ने हैरान होकर पूछा - आधी रात को सूरज भला कौन देखता है ?
मौलवी रूम साहब ने इस पर फ़रमाया - जुज रूहाने पाक ऊ रा शर्क नै । दर तलूअश रोजो शब रा फ़र्क नै । 
हे मौलवियो ! वह सूरज सबके ही अन्दर है । मगर सिर्फ़ पाक रूहें ही उसे देख पाती हैं । अन्दर जाने पर दिन और रात का फ़र्क नहीं रहता ।
नानक साहब ने आधी रात के समय अपने पुत्रों से कहा था - सूरज चढा हुआ है ।
पर उनके पुत्रों को बात समझ में नहीं आयी । तब गुरु साहिब ने यही बात अंगद साहिब से कही । वे अन्दर आना जाना जानते थे ।
उन्होंने तुरन्त कहा - जी हाँ ! चढा हुआ तो है ।

तब नानक साहब ने उन्हें चादरें दी । और कहा - जाकर धो लाओ । और वे धो लाये ।
तब आगे उन अन्दरूनी भेद से अनजान मौलबियों ने मौलवी रूम साहिब से पूछा - अन्दर सिर्फ़ सूरज ही चढता है । या कुछ और भी है ?
तब मौलवी रूम साहिब बोले - अंदर आँ बहिरो बीअबानो जबाल । सकतह मे गरदद ओहामो खयाल ।
हे मौलवियो ! अन्दर बेशुमार नदियाँ जंगल पहाङ आदि सभी कुछ है । जिनकी हमारी बुद्धि कल्पना भी नहीं कर सकती । बल्कि इतनी कल्पना करते ही थरथर कांपने लगती है ।
तब उन मौलवियों ने फ़िर कहा - मगर ये सब हम कैसे देख सकते हैं ? और कैसे जान सकते हैं ?
मौलवी रूम साहिब बोले - नर्दबाँहा हस्त पिनहाँ दर जहाँ । पायह पायह ता इनाने आसमाँ ।
हे मौलवियो ! अन्दर जाने के लिये हरेक आसमान पर सीढी लगी हुयी है । इसी सीढी सीढी होकर चढ जाओ । जितने भी सन्त फ़कीर अन्दर गये हैं । सब एक ही तरीका बताते हैं । इंसान को चाहिये कि रब की रजा में राजी रहे । तब ही रब मिलेगा । लेकिन जब तक रब की दया न हो । कोई उसकी रजा में राजी नहीं रह सकता ।
आपे देवै देवणहारा । तिसु आगे नही किसै का चारा ।
जिसकी रजा है । जिसका ये सब भाणा है । हम उसे क्या कह सकते हैं ? कुछ नहीं ।
शेख सादी ने कहा है - चू रद्द मे नगरदद खदंगे कजा । सुपर नेस्त मर बन्दह रा जुज रजा ।
हे मनुष्यो ! जब उसकी रजा । उसकी कजा ( हुक्म । आदेश ) को किसी सूरत में टलना नहीं है । तो फ़िर हम सबको चाहिये कि उसके भाणे में रहते हुये उसके साथ प्यार करें ।
जय जय श्री गुरुदेव । जय गुरुदेव की ।

इसलिये सोचकर ही रूह थरथर काँपती है

गुरुमुखि होवे सु ततु बिलोबै । रसना हरि रस ताहा हे ।
अगर कोई गुरुमुख होकर इस निर्वाणी नाम का जाप करे । और तत्वों को देखे । अंतर के रहस्यों को जाने । तो ये आनन्द ही आनन्द में जीते जी मुक्ति को प्राप्त हो जाये ।
लेकिन कोई शिष्य असली गुरुमुख कब बनता है ? जब वह 9 दरबाजे ( का शरीर - 2 कान 2 आँख 2 नाक छिद्र 1 मुँह 1 लिंग या योनि द्वार 1 गुदा द्वार ) बन्द करके ( यानी ध्यान में शरीर को भुलाकर ) तुरीयापद अर्थात सहस्रदल कमल में पहुँचता है । फ़िर सहस्रदल कमल से बृह्म में । और बृह्म से पारबृह्म में पहुँचता है । वहाँ अमृतसर ( अमृत का तालाब ) है ।
तब उसमें नहाकर ये स्वयँ कहता है कि - मैं एक आत्मा हूँ ।
और तब इसे अपनी असली पहचान होती है । और जब तक अपनी ही ( आत्मा की ) पहचान नहीं होती । तब  तक

परमात्मा की पहचान कैसे हो सकती है ? इसलिये ये गुरुमुख होकर अंतर आकाशों पर मंजिलों पर जाये । तो इसका आना जाना ही सफ़ल हो जाये ।
घरि बथु छोङहि बाहरि धावहि । मनमुख अँधे साधु न पावहि ।
दुनियाँ के तमाम लोग घर गृहस्थी बाल बच्चों को छोङकर साधु हो जाते हैं । कोई दुनियाँ के रंग ढंग से ऊबकर साधु हो गया । किसी का मन धर्मगृंथों को पढकर वैराग्य से भर गया । पर जब तक कोई नाम अभ्यासी सच्चा महात्मा नहीं मिला । तब तक ऐसे झूठे वैराग्य से कुछ होने वाला नहीं ।
अपनी औरत का बना हुआ भोजन खाना छोङ दिया । अब बाहर की हजार औरतों का बना खाता है । अपना घर छोङ दिया । और संसार के घरों में घूमता है । ये सब बनाबटी साधुओं के काम हुये ।
लेकिन जो भजन अभ्यासी सच्चा साधु है । वह अपना हित भी बनाता है । और जिसके यहाँ भोजन करता है । उसे भी लाभ पहुँचाता है ।
पर मुश्किल ये होती है कि दुनियाँ के लोग बहुत चालाक बनते हैं । औरतें इस पुण्य को अपने बेटे बेटियों के सिर पर वार कर देती हैं । और उनकी यह भावना रहती है कि हमारी सब बलायें ये साधु महाराज ले जायें । कई दानदाता भावना कर लेते हैं कि हमें इस दान का फ़ल आगे मिल जायेगा । इस तरह लेन देन करने के स्वभाव से मजबूर वह नाम अभ्यासी साधु की अहैतुकी कृपा से वंचित रह जाते हैं ।

गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है - जो साधु किसी का खाकर उसके लिये भजन नहीं करता । वह मरकर या तो ऊँट बनता है । या कुत्ता । या फ़िर सुअर बनता है ।
इसलिये सबसे अच्छा है । साधु बनने के बजाये गृहस्थ रहकर ही भजन करो । भले ही गृहस्थी में भजन अभ्यास में थोङी रुकावटें आती हैं । सुमिरन ध्यान थोङा थोङा करके ही हो पाता है । मगर जो कुछ सुमिरन होता है । अपना तो रहता है । किसी बाहर वाले को तो नहीं देना ।

अनरस राती रसना फ़ीकी बोले । हरि रस मूल न ताहा हे ।
वह इस्मे आजम यानी वास्तविक नाम इस मनुष्य के अन्दर ही है । मगर यह नादान उसको बाहर खोजता फ़िरता

है । सदियों से खोज रहा है । इसलिये आंतरिक ग्यान के बिना ये मनुष्य ग्यानी होकर आध्यात्म की जितनी भी मीठी मीठी बातें करता हैं । वह फ़ीकी और बेस्वाद ही हैं ।
अगर सारा दिन मिठाई मिठाई चिल्लाते रहो । तो न तो मुँह ही मीठा होता है । न ही उससे पेट भरता है । लेकिन अगर मिठाई प्राप्त करके खा लो । तो पेट भी भरेगा । और मुँह को मीठा स्वाद भी आयेगा । इसलिये जो वास्तविक आवे हयात यानी हरि रस है । वह आपके अन्दर ही है । बाहर कहीं नहीं । जहाँ तुम खोज रहे हो ।
मनमुख देही भरमु भतारो । दुरमति मरै नित होइ खुआरो ।
जिन अभागो को मनुष्य जन्म पाकर भी गुरु नहीं मिला । निर्वाणी नाम नहीं मिला । उनका दीन ईमान क्या है ? उनका दीन ईमान बस ये कुटिल पापी मन ही है । मन की इच्छा से खाया पिया । मन की इच्छा से तमाम झूठ फ़रेव किये ।
ऐसे मनमुख इंसान मन का कहा मानकर खोटी खोटी 84 लाख योनियों में ही जाते हैं । और खोटे ही नीच जन्म

भी पाते हैं । उनका यही बुरा हाल रहता है । जनमें और मरे । फ़िर जनमे और फ़िर मरे । 84 लाख योनियों का बङा लम्बा चक्कर घनचक्कर है । अगर एक एक योनि का एक एक साल ही जोङा जाये । तो 84 लाख साल होते हैं । अगर वृक्ष और पहाङों की भी बात करें । जो हजारों साल जीते हैं । तो फ़िर करोंङो साल की बात हो जाती है । इसलिये सोचकर ही रूह थरथर काँपने लगती है । लेकिन फ़िर भी मनमुख 84 लाख योनियों के चक्कर में आ ही जाते हैं । और बारबार आते जाते हुये उस दुखदायी स्थिति को भोगते हैं ।

28 जून 2011

लोग समझते हैं कि मुक्ति मरने के बाद होती है

खिन महि हँस खिन महि रोवै । दूजी दुरमति कारज न होवै ।

दुनिया के सुख दुख जितने भी हैं । ये सब आने जाने वाले हैं । सुख में मनु्ष्य सुखी हो जाता है । दुख के समय दुखी हो जाता है । न यह आँखों के पीछे अन्दर के राज को जान पाया । न सच्चा नाम लेकर ही परदा ( third eye ) खोला । बस बाहर ही बाहर रहा । जो दौलत परमात्मा ने इसके लिये अन्दर रखी थी । उसको हाथ भी न लगाया । न जन्म मरण खत्म हुआ । न मुक्ति हुयी ।


संजोग विजोगु करतै लिखि पाए । किरतु न चलै चलाहा हे ।

जब तक हम अन्दर के इस रुहानी रहस्य को नहीं जानते । तब तक हम मन की प्रेरणा के अनुसार ठगी दुराचार चोरी हत्या झगङा फ़साद करते हैं । लेकिन जब मौत के बाद धर्मराय के दरबार में जाना पङता है । और वहाँ हिसाब खोला गया ।
तब वह धर्मराय पूछता है - क्या करके आये हो ?
अगर बुरे कर्म हैं । तो नरक में भेज दिया । अगर सब पुण्य ही हुये । तो स्वर्ग भेज दिया । अगर कुछ अच्छे कुछ बुरे हैं । तो दोनों मिले । मगर मुक्ति न हुयी । जब तक हम आत्मा को नाम के साथ नहीं जोङते । मुक्ति नहीं होती । यह नियम खुद वाहिगुरु ( परमात्मा ) का बनाया हुआ है । कोई इसे तोङ नहीं सकता । बदल नहीं सकता । मुक्ति का जो इंतजाम बनाया गया है । हमें उसी के जरिये जाना है । दूसरा कोई रास्ता नहीं है ।


जीवन मुकति गुरु सबदु कमाये । हरि सिउ सब हो रहै समाए ।

दुनियावी लोग ऐसा समझते हैं कि मुक्ति मरने के बाद होती है । लेकिन संत ऐसी मुक्ति को झूठा मानते हैं । मरने के बाद का क्या भरोसा । हमारे साथ क्या हो ? जो जीवन में नहीं पढ पाया । वह मरने के बाद भी बिना पढा ही रहेगा ।
लेकिन जो जिन्दगी में पढ लिया । वो मरा तो भी पढा लिखा ही होगा । इसलिये अगर जीते जी वाली मुक्ति प्राप्त करनी है । तो सदगुरु के पास जाओ । तब गुरु का उपदेश होगा कि - शब्द को पकङो । अर्थात निर्वाणी नाम ( दान लेकर ) का सुमरन करो । जब शब्द को भलीभांति पकङ ( ध्यान की परिपक्वता ) लेंगे । तो मुक्ति हो जायेगी । सन्त इसी मुक्ति को सच्ची मुक्ति समझते हैं । जब हमने मेहनत कर अन्दर का परदा (  third eye ) खोल लिया । परमात्मा से हमारी लिव ( लौ ) लग गयी । तो सब झगङा ही मिट गया । फ़िर कैसा आना । और कैसा जाना ।


गुरु किरपा ते मिले बडिआई । हउमै रोग न ताहा हे ।

जीते जी ये सरल सहज मुक्ति का रास्ता हमें सदगुरु की कृपा से मिलता है । अन्दर गुरु हर मंजिल पर नाम अभ्यासी की मदद करता है । वहाँ न शिष्य का शरीर यह शरीर है । न गुरु का शरीर ये शरीर है । शिष्य का असली रूप क्या है ? रूह या आत्मा । और गुरु का वास्तविक स्वरूप क्या है ? शब्द ।

और शब्द तो बहुत बङी चीज है । अगर किसी गुरु ने नूरी रूप भी प्रकट कर लिया है । तो वह भी साथ ही रहता है । शरीर रूप में तो बाहर है ही । अन्दर भी वह है ।
जैसे एक बच्चा होता है । जिसे मिश्री का स्वाद पता नहीं होता । तब तक उसे मिश्री की कदर नहीं होती । पर जब वह एक बार मिश्री खा लेता है । फ़िर उसे वह नहीं छोङ पाता ।
बहुत से लोग इतने पवित्र आत्मा वाले या पूर्वजन्म के चले हुये होते हैं । वे नाम लेते ही ( दीक्षा होते ही ) अच्छे अनुभव को प्राप्त करते हैं । परन्तु इतने साफ़ भाव के लोग कम होते हैं ।
इसलिये ये माल खजाना ये दौलत तो आप सभी के अन्दर है । पर उसे प्राप्त करना । और रुहानी मंजिलों की यात्रा सदगुरु के बगैर संभव नहीं है ।


जय गुरुदेव की । जय जय श्री गुरुदेव । सतिनामु वाहिगुरु ।

24 जून 2011

भक्त भगवान बातचीत फोन पर


भगवान - हेल्लो !  क्या आप मिस्टर . कुलश्रेष्ठ बोल रहे हैं ?
मैं - हाँ ! मैं . कुलश्रेष्ठ  ही बोल रहा हूँ । परन्तु आप कौन और कहाँ से बोल रहे है ?
भगवान - मैं भगवान बोल रहा हूँ । बैकुंठपुरम से ।
मैं - बैकुंठ पुरम से ? ये कहाँ है ? ये स्थान तो मै जानता ही नहीं हूँ । हां राजाजीपुरम और जानकीपुरम में तो मेरे रिश्तेदार रहते हैं । मैं समझा नहीं । चलिए होंगे । कहिये मुझसे क्या काम है ? दरअसल मैं   ऑफिस में काम करता हूँ । और मुझे एक मीटिंग में जाना है । तमाम ऑफिसों में तमाम कर्मचारियों ने लाखों और करोड़ों के गवन कर रखे हैं । बहुत काम है । आप ऐसा करें कि आप अपना मोबाइल नंबर दे दीजिए । मैं खुद ही आपको फुर्सत में रिंग कर दूँगा । ठीक है न ।
भगवान - बात ये है कि - आप रोज 2 मिनट की पूजा करते हैं । मैंने पूजा स्वीकार कर ली । और मुझे लगा कि - मुझे अपने भक्त से पूछना चाहिए कि उसे क्या कष्ट  है ? क्यों प्रार्थना करते हो ? मैंने आपकी प्रार्थना सुन ली । कहो क्या कष्ट है ?
 मैं - अरे अरे मुझे तो कोई कष्ट नहीं है । बस मैं तो अन्य रूटीन कार्यों की तरह मेरे शिडयूल में यह भी एक कार्य है । जैसे अन्य कार्य मशीन की तरह करता हूँ । उसी तरह प्रार्थना भी करता हूँ ।
भगवान - अच्छा आप बहुत ब्यस्त हैं ? क्यूँ ब्यस्त हैं ?
मैं - हाँ.. मैं बहुत ब्यस्त रहता हूँ । पर क्यों रहता हूँ ? पता नहीं । हाँ मेरे पास समय नहीं है । दिन भर भागमभाग लगी रहती है ।
भगवान - बास्तव में ? पर इससे तुमको क्या मिलता है ?
मैं - मैं समझता हूँ कि बहुत कुछ मिलता है । पहले मैं बहुत गरीबी में रहता था । परन्तु अब मेरे पास अच्छा बंगला है । 4 व्हीलर है । एसी में रहता हूँ ।  बेंक बेलेंस भी अच्छा खासा है । और इसके अलावा एक आदमी को क्या चाहिए ? खैर मुझे नहीं पता था कि आप बिना बताये ही मुझे यकायक डिस्टर्ब करेंगे । आपको मेरा मोबाइल नंबर किसने दिया ?

भगवान - अच्छा तो मैंने तुम्हें डिस्टर्ब किया ? चलो मैं माफ़ी मांगता हूँ । फिर भी मैं चाहता हूँ कि जब तुम डिस्टर्ब हो ही गए हो । तो तुम्हें कुछ काम की बातें बता दूँ । कुछ ज्ञान करा दूँ । सुनना चाहोगे ? अभी अभी आपने जो सुख प्राप्त करना बताये हैं । बे क्या हैं ? तुम तो जानते हो कि अब इंटरनेट का जमाना है  भाई । इसलिए मुझे तुम्हारा नम्बर पता करने में कोई दिक्कत नहीं हुई । आपने जो   अपना अकाउंट खोल रखा है । मैंने उसमें से ही प्राप्त कर लिया । अरे भाई मैं भी तो फुर्सत में कभी कभी बुक खोल लेता हूँ । खूब लिखते हो ।
 मैं - आप भी खूब हैं । दिलचस्प बातें करते हैं । चलो खैर.. मुझे एक मीटिंग में जाना था । कुछ देर बाद चला जाऊँगा । दीजिए ज्ञान । बताईए कि आज की जिंदगी इतनी कोम्प्लीकेटिड क्यों हो गई है ? एक रिक्शेवाले  से लेकर बड़े से बड़ा आदमी यही कहता है कि माफ़ करो मेरे पास समय नहीं है ।
भगवान -  देखो जिंदगी को विश्लेषण करके देखना बंद करो । और जिंदगी को उसके असली रूप में देखना सीखो । मुझे इतना नुकसान हो गया । मुझे आज इतना मिलना था ।  शेयर डूब रहें हैं । उसके पास सबसे महँगी गाड़ी है । इन्ही चिंताओं ने जिंदगी को बदसूरत बना रखा है ।
मैं - कृपया ये बताएं कि हमने  सुखों के सभी साधन  जुटा रखे हैं । फिर भी हम लोग दुखी हैं ?
भगवान - तुम सबको हमेशा चिंता सताती रहती है कि कल क्या होगा ? इसीलिए आज अभी सब कुछ जुटा लेना चाहते हो । कल हो न हो । केवल अपने पर भरोसा करना चाहते हो । मुझ पर कोई भरोसा नहीं है । इसके अलावा जो सर्वसम्पन्न हैं । वो इसलिए दुखी है कि - मेरे आसपास के लोग मुझसे अधिक सुखी क्यों है ? पड़ोसी के बेटे को शादी में बहुत पैसे मिले । जबकि मेरा बेटा भी उतनी ही अच्छी नौकरी करता है । फिजूल की बातों में चिंता करते रहना तुम्हारी आदत बन चुकी है । तो फिर दुखी तो रहोगे ही ।
मैं - आप तो अंतर्यामी और सर्वज्ञानी । आपको तो मालूम है । यहाँ प्रथ्वी पर सब जगह एक अनिश्चितता  का बाताबरण है । इसीलिए हम सोचते हैं कि कल हो न हो । जो धन  और सुबिधायें अपनी कड़ी मेहनत से प्राप्त की हैं । वो कल नष्ट न हों जाय । इसलिए आज आनंद ले लें ।
भगवान - अरे भाई अनिश्चितता ही तो निश्चित है । क्योंकि - चेंज इज द लौ आफ नेचर । जब इंसान निश्चिन्त होकर बैठ जाता है । और मेरा चिंतन करना भूल जाता है । तभी मैं उसे चेताबनी के तौर पर सुनामी । भूकंप । बाढ़ । सूखा भेजता हूँ । इसलिए चिन्ता करना छोड दो । और मेरा चिंतन किया करो । चिन्ता करना । और चिन्ता न करना दोनों विकल्प तुम्हारे पास हैं । तुम जो चाहो चुन सकते हो ।
मैं - परन्तु इन अनिश्चितताओं में बहुत दुःख समाहित हैं
भगवान - दर्द एक अमिट सत्य है । लेकिन दुःख वैकल्पिक है । आप चाहो तो दुःख चुन लो । या दुःख न चुनो । यह तुम्हारे ऊपर है ।
मैं - यदि दुःख वैकल्पिक है । तो सब दुखी क्यों हैं ? सब सुख ही क्यों नहीं चुन लेते हैं ?
भगवान - हीरे को बिना कटे । बिना टुकड़े किये सुन्दर और मूल्यवान नहीं बनाया जा सकता है । सोना आग में डाले बिना शुद्ध और सुन्दर नहीं होता है । प्रथ्वी पर सभी अच्छे होते हैं । और उन्हें परख ( ट्रायल ) से गुजारा जाता है । क्या हीरा या सोना कभी कहता है कि - उसे क्यों परखा / जलाया जा रहा है ? उनको तो परख में कोई तकलीफ नहीं होती है । तो तुम सबको क्यों तकलीफ होती है ? तुम तकलीफ को दुःख समझ लेते हो । इसीलिए दुखी हो । तकलीफ तुमको एक अनुभव देता है । जो तुमको पहले से बेहतर बनाता है । तुमको भविष्य के लिए अनुभव देता है ।

मैं - तो आपका कहना है कि - ये परख / ट्रायल  लाभदायक है । आप इसलिए कह रहे है कि आपको तो ये टेस्ट / ट्रायल देने नहीं पडते हैं । हम लोग घबराएँ क्यों नहीं ?कभी कभी तो ये टेस्ट.. टेस्ट सीरीज की तरह  जम जाते है । जैसे सचिन क्रीज़ पर जम जाते है । अब टेस्ट का नहीं बल्कि 20 - 20 और बन डे मैच का जमाना है । कहाँ तक मैं टेस्ट देता रहूँ ।
भगवान - जब तुम लोगों ने टेस्टमैच से 20 - 20 कर दिए हैं । तो तुम लोग दुःख भी 100 % कि बजाय 20 % कर सकते हो । क्या मुझे टेस्ट नहीं देने पड़े ? क्या बन में 14 वर्षों तक मारा मारा नहीं घूमता रहा ? मेरी पत्नी चोरी गयी । और पुलिस में रिपोर्ट लिखने के लिए कोई थाना नहीं था । सब कुछ अपने मित्रों  और भाई लखन के दम पर किया । क्या ये मुझ पर दुःख नहीं था ? रावण से मंकी पावर ( बन्दर सेना की मदद से ) युद्ध किया । क्या धोबी ने मेरा टेस्ट नहीं लिया था ? क्या सीता को दुबारा बन नहीं जाना पड़ा ? इन सभी दुखों और टेस्ट से मुझे लाभ मिला कि मेरे धैर्य और न्याय के लिए मुझे आप लोग आज भी याद करते हैं । अनुभव एक कठोर शिक्षक है । जो टेस्ट पहले लेता है । और पाठ बाद में पढाता है । जबकि स्कूल में पहले पाठ पढाया जाता है । बाद में टेस्ट लिया जाता है ।
मैं - लेकिन आपका जमाना दूसरा था । आपके ज़माने में सोलूशन नहीं थे । विकल्प नहीं थे । यदि विकल्प होते । तो  सीताजी को बन में भेजने से पहले अन्य विकल्प सोचते । यहाँ प्रथ्वी पर हर चीज का विकल्प है । तो लगातार इतने टेस्ट और टेंसन से क्यों गुजरें ?
भगवान - समस्याएं तो अच्छी होती हैं । जरुरत तो इनको धैर्य और सहनशक्ति से सुलझाना चाहिए ।
 मैं - परन्तु इन समस्यायों के इतने बड़े जाल होते हैं कि पता ही नहीं चलता है कि - जाना कहाँ है । मंजिल कहाँ है ?
भगवान - यदि आप बाहर ही झांकेंगे । तो आपको पता ही नहीं चलेगा कि - जाना कहाँ है ? लेकिन जब मन के अंदर झांकेंगे । तो साफ़ दिखाई देगा कि तुम्हारी मंजिल / रास्ता कहाँ है ?जब आप बाहर देखते हो । तो स्वप्न देखते हो । जब आप अंदर देखते हो । तो जाग रहे होते हो । क्योंकि मन अंतर्दृष्टि प्रदान करता है ।
मैं - कभी कभी सफलता का शीघ्र न मिलना । या बिलकुल न मिलना । ह्रदय को तोड़कर रख देता है । और फिर मार्ग पर कुछ भी दिखाई नहीं देता । कभी कभी सच्चे मन से प्रेम करते हैं । परन्तु प्रेम नहीं मिल पाता है । तब भी लगता है कि क्या करें । क्या न करें ?
भगवान - इस बारे में भी तुमको सही ज्ञान नहीं है । सफलता वो है । जिसे दूसरे लोग नापते हैं । जबकि संतुष्टी वह है । जो आप स्वयं महसूस करते हैं । किसी कार्य को पूर्ण कर लेना कोई सफलता मानता है । परन्तु आपका मन नहीं मानता है । किसी ने दो नंबर का काम कर करके बड़ी बिल्डिंग / सुख के सभी सामान जुटा लिए । लेकिन रात को सोने से पहले एक बार मन में अंतर्द्वंद जरुर चलता है । और दो मन में से एक मन कहता है कि तूने दूसरों का हक मारकर दूसरों को कष्ट देकर प्राप्त किया है । वो अच्छा नहीं किया । लेकिन वह व्यक्ति अपने अहम अपने स्वार्थ में सही मन की बात को एक झटके में अस्वीकार कर देता है कि सब ऐसा ही कर रहे हैं । तो मैंने ही क्या गलत कर दिया ? तुम लोग गलत कार्यों पर सही का ठप्पा अपने आप  लगाकर नकली खुशी पा लेते हो । सफलता वह नहीं है । जो तुमने प्राप्त की है । बल्कि सफलता वह है । जो और लोगों को सफलता प्राप्त करने में योगदान किया । दूसरों की मदद करने में जो खु्शी मिलती है । वही सही सफलता है ।

मैं - इतना भारी कम्पटीशन का जमाना है । और आप नारदजी वाले उपदेश दे रहे हैं । क्या कभी आपको  डी ऍम आफिस या कानूनगो से जमीन संबंधी कार्य । पुलिस में कोई रिपोर्ट लिखाने का कार्य । कभी राशन कार्ड बनबाने का कार्य आदि की जरूरत पडी ? क्या ऐसे कार्यों के लिए  सौ सौ चक्कर लगाने पड़े ? नहीं न । अगर लगाने पड़ते । तो ये जो उपदेश दे रहे हैं । सब भूल जाते । वहाँ उपदेश नहीं नोट चलते हैं । ऐसे में दूसरों को सफलता दिलाने में मदद करने की मोटीवेशन कहाँ से मिलती ? अपने इन कामों के लिए चक्कर लगाते लगाते ही नानी याद आ जाती है । तो दूसरों को मदद देने की तो बात ही याद नहीं आती है ।
भगवान - जो बात मैं कह रहा हूँ । वह उन कर्मचारियों पर भी तो लागू होती है । जो  सौ सौ चक्कर केवल नोट की खातिर और दूसरों को दुःख देने के लिए लगवाते हैं । ज़रा सोचो । क्या वह लोग बाकई में सुखी हैं ? हो सकता है । तुम्हें लगे कि - बे लोग सुखी हैं । पर ऐसा है नहीं । उनमें से कोई चीनी नही खा सकता है । कोई नमक नही खा सकता है । कोई दोनों ही चीजें नही खा सकता है । अगर तुमसे कहा जाय कि लाखों रुपये ले लो । और मीठा और नमकीन दोनों ही कभी मत खाओ । क्या तुम स्वीकार करोगे ? ऐसे लोगों को केवल क्रोसिन । माईसीन । टेरामैसिन आदि ही खाने को दी जाती हैं । क्योंकि वे सिन करते रहे । तो सिन नाम की दबाएँ ही खा रहे हैं । अब तुम सोचो कि - तुम्हें क्या चुनना है ? अच्छा या बुरा मार्ग ? हमेशा यह देखो कि मैंने( भगवान ) तुमको क्या क्या दिया है । न कि मैंने तुमको क्या क्या नहीं दिया है ।
मैं - आप जब भी अपनी प्रथ्वी लोक को देखते हैं । तो आश्चर्यपूर्ण क्या लगता है ?
भगवान - जिसे देखो । वही कहता है कि मैं तो बहुत दुखी हूँ । ये क्या किया रे दुनियां वाले । दुनिया के सभी गम तूने मुझको ही क्यों  दे डाले । लेकिन जो खूब सुखी है । जिनके पास गाड़ी है । बँगला है । बच्चे हैं । अच्छी पोस्ट पर हैं । वे यह नही कहते है कि - हे दुनियां वाले ! सभी सुख मुझे ही क्यों दे डाले ? मतलव इसका यह हुआ कि तुम लोग दुःख तो बांटना चाहते हो । दूसरों को देकर । लेकिन सुख नहीं बांटना चाहते हो । सांसदजी संसद में तो करोड़ों रुपयों की गड्डी लहराते हैं । कहते है कि वोट के एबज में दिए गए थे । लेकिन रास्ते में किसी भिखारी के माँगने पर कहते हैं कि - मेरे पास पैसे नहीं हैं । दुनिया में सब यही चाहते हैं कि सत्य उनकी तरफ रहे । परन्तु वह सत्य के साथ नहीं जाना चाहते हैं । प्रत्येक पत्नी चाहती है कि उसका पति राम के समान हो । परन्तु वह सीता के समान नहीं बनना चाहती है । प्रत्येक झूठ बोलने बाला भी कहता है कि सही सही बताना । कहो आश्चर्य समझ में आये कि नही ?
मैं - कभी कभी मैं खुद से पूछता हूँ कि जीवन का उद्देश्य क्या है ? मैं क्या हूँ ? मैं यहाँ क्यों हूँ ? लेकिन इसका उत्तर झाडियों में गिरी पतंग की तरह उलझ कर रह गया है ।
भगवान - पहले यह जानने कि कोशिश मत करो कि तुम क्या हो ? तुम यह जानो कि तुम क्या होना छाहते हो ? यहाँ पृथिवी पर आने का उद्देश्य तलाश मत करो । बल्कि उद्देश्य पैदा करो । जीवन टूटने की प्रक्रिया नहीं है । बल्कि जीवन निर्माण की  प्रक्रिया है ।
मैं - जीवन में सबसे अच्छा कैसे पाया जा सकता है ?
भगवान - अपने अतीत का सामना करने की हिम्मत रखो । यदि अतीत में गलती या गलतियां हुई हैं । तो उन पर खेद व्यक्त करो । सोरी बोलो । अगर तुम्हें लगे कि तुमसे भूल हुई थी । जान बूझ कर किसी को धोखा देने के इरादे से नहीं की थी । तो उसके लिए खेद ब्यक्त करते करते अपना वर्तमान  नष्ट मत करो । बल्कि प्राप्त किये गये अनुभबों और बिश्वासों से जीवन को सुखमय बनाओ । और भविष्य का निर्माण बिना किसी भय के करो । चिड़ियों के बच्चे कभी तुम्हारी तरह डरे डरे रहते हैं । चूजों को देखते हो । खुश रहते हैं । क्या तुम नहीं रह सकते हो ?
मैं - आपकी बातें तो बहुत अच्छी लगने लगी हैं । लेकिन यह तो समझाइये कि हम सब मंदिर । मस्जिद । गुरुद्वारे । चर्च जाते हैं । और आपकी न जाने कबसे आपकी पूजा करते आ रहे हैं ? फिर भी न तो आप दर्शन देते हैं । न प्रार्थना में माँगी गयी मनोकामना ही पूरी होती है । अर्थात प्रार्थना भी आप सुनते नहीं हैं । आपसे अच्छा तो एफ एम रेडियो स्टेशन है । जिसको किसी गाने की फरमाईस करें । और तुरंत गाना सुन लीजिए । क्या आपके यहाँ कोई ओनलाइन सिस्टम जल्दी जवाब देने का नहीं है ?
भगवान - ऐसी बात नहीं है । यदि ऑनलाइन सिस्टम नहीं होता । तो मैं आज तुमसे बातें क्यों करता ? कैसे कर पाता ? मेरे सिस्टम में ऐसी कोई आपकी प्रार्थना नहीं । जो सुनी नहीं जाती हो । कोई ऐसी प्रार्थना नहीं । जिसका जबाब नहीं दिया जाता हो । लेकिन हर प्रार्थना का जबाब “ हाँ ” में तो नहीं हो सकता है । और तुम सब लोग अपनी हरेक प्रार्थना का जबाब “ हाँ ” में ही चाहते हो । यही दिक्कत है । एक डकैत है । जो अपना काम अर्थात डकैती डालने जाता है । तो मेरे को माला हार फूल परसाद चढाता है । कभी कभी तो अपनी उंगली काटकर अपना खून तक चढ़ा जाता है । और मांगता है कि मुझे सफलता प्रदान करना । बहुत से डकैत मन से बुरे नहीं होते हैं । बहू बेटियों की तरफ कुदृष्टि नहीं रखते हैं । बल्कि कुछ अमीरों ने जो जनता के धन को लूटा है । उसे बे रात में लूटकर कई बेटियों की शादी में लगाते हैं । लेकिन अच्छे उद्देश्य को पाने के लिए अच्छे साधन भी काम में लिए जाने चाहिए । एक अपराध को खत्म करने के लिए दूसरा अपराध करना गलत है । यह मेरा काम है कि किस प्रार्थना को “ हाँ ” में सुनना है । और किस प्रार्थना को “ ना ” में सुनना है । मैं प्रार्थना करने बाले के दोनों पहलुओं को सुनता और मनन करता हूँ । तुम्हारे यहाँ भी तो सुप्रीम कोर्ट है । क्या वहाँ दोनों तरफ की बात सुने बिना ही फैसला कर दिया जाता है ? नहीं ।  कोर्ट दोनों को ही सुनता है । लेकिन एक पक्ष की ही तो “ हाँ ” में सुनबाई होती है । दोनों तो नहीं जीतते हैं । कोर्ट फैसला देने से पहले सुपात्र और कुपात्र की जांच करता है । यही बात मेरे न्यायतंत्र में लागू होती है । हाँ ! एक बात और भी महत्वपूर्ण है कि लोगों में यह भृम है कि - मैं मंदिर । मस्जिद । गुरुद्वारा और चर्च आदि जगहों में मिलता हूँ । मिल सकता हूँ । बास्तव में इन जगहों पर होता भी हूँ । और नहीं भी होता हूँ । मैं तो सर्वत्र हूँ । लेकिन आप लोग मुझे अज्ञानवश किसी विशेष जगह तलाश करते हैं । आप लोग मुझे “ शब्दों “ से नहीं रिझा / पा सकते हैं । मैं अच्छे काम करने बालों को बिना प्रार्थना के ही मिल जाता हूँ । दुनियाँ में जितनी भी भाषाएँ है । आप लोगों ने ही बनायीं हैं । मुझे तो आपकी तरह तरह की भाषायों की ग्रामर तो दूर । इनका साधारण ज्ञान भी नहीं है । और मेरे पास तो बहुभाषिया तो दूर दुभाषिया भी नही है । मैं तो केवल एक ही भाषा जानता हूँ । बह है “ प्रेम ” की भाषा । मुझे प्रेम करने वाला चाहे हिन्दीभाषी हो । अंग्रेजीभाषी हो । जापानीभाषी हो । चीनीभाषी हो । मुझे जो भी प्रेम से बुलाएगा । मैं उसे तुरंत मिल जाता हूँ । बल्कि दौड़ा चला आता हूँ । रैदास या मीरा कितने क्लास  पढ़े थे ? क्या कोई भाषा जानते थे ? नहीं वो केवल प्रेम की भाषा जानते थे । अब दौड दौड कर कहाँ तक आऊँ । मोबाइल का ज़माना है । कम्पूटर का ज़माना है । अतः मोबाइल से या ओनलाइन बातें / चेटिंग कर लेता हूँ ।

मैं - आपने प्रेम पर तो बहुत लेक्चर दे दिया है । क्या आप यह बताने का कष्ट करेंगे कि प्रेम क्या है ? प्रेम ही सब कुछ है । तो आपके द्वारा बनाई गई दुनिया में एक दूसरे के लिए नफरत  क्यों है ? स्वार्थ क्यों है ? गीता में आपने कहा है कि दुनिया में जो कुछ होता है । वो मेरे द्वारा ही किया या कराया जाता है । करता भी मैं हूँ । कारक और कारण भी मैं हूँ । तो इस दुनिया मैं ” सच्चा प्रेम ”करने वाले को प्रेम में मंजिल क्यों नही मिलती है ? क्यों वक्त / समय उनको अलग कर देता है । और वो जिंदगी भर तडपते रहते हैं । क्या आपको ऊपर बैठकर अपनी कुर्सी से यह सब दिखाई नही देता है ? इसका मतलब है कि सच्चा प्रेम करने वालों के बीच में आप ही बाधा बनते हैं ?
भगवान - वाह वाह ! बहुत अच्छे विचार रखते हो । क्या तुमने नही पढ़ा है कि “ ए लिटिल नोलेज इस ए  डेंजरस थिंग “ अर्थात अधूरा ज्ञान खतरनाक होता है । तुमको भी “ प्रेम ” के बारे में सही ज्ञान नहीं है । सच ये है कि “ प्रेम ”अत्यंत पवित्र चीज है । इसे शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता है । यह तो एक अहसास है । जो केवल आत्मा / रूह से महसूस किया जा सकता है । इसमें स्वार्थ और अहंकार का कोई स्थान नहीं है । प्रेम में कुछ भी “ लिया ” नहीं जाता है । बल्कि अपना सब कुछ देकर अपने को खाली कर दिया जाता है । प्रेम में देने वाला व्यक्ति देने में ही सब कुछ पा जाता है । मीरा ने । द्रोपदी ने । हीर ने । रांझा ने । भाई भरत ने । भाई लक्ष्मण ने । महात्मा गांधी आदि अनेकों  ने क्या लिया ? कुछ नहीं । बल्कि उन्होंने  प्रेम में सब कुछ देकर । देखा जाए तो सब कुछ पा लिया । जहाँ तक दुनिया में स्वार्थ और नफरत होने की बात है । तो ये ही तो वे रास्ते हैं । जिन पर तुमको नहीं चलना है । बल्कि बचकर निकलना है । और जहाँ तक हो सके । नफरत और स्वार्थ के दुनिया के इस तालाब में “ प्रेम ” के कमल खिलाओ । वरना तुममें और जानवर में क्या फर्क रहा ? यह  सही है कि दुनिया में जो कुछ हो रहा है । उसमें कारण । कारक और कर्ता मैं ही हूँ । लेकिन यह बहुत सूक्ष्म ज्ञान की बातें हैं । जिन्हें  जानने के लिए बाहरी दुनिया से अंदर की दुनिया में जाना होगा । जहाँ तक प्रेम करने वालों को मंजिल न मिलने की बात है । वह समय का फेर है । और फिर मंजिल न मिले । लेकिन सच्चे प्रेम की अनुभूति जीवन बिताने के लिए एक धरोहर होती है । जो बात प्रेम की तडफ में है । वह प्रेम के पा लेने में नहीं है । अगर पा ही लिया । तो फिर बचा ही क्या ? क्या यह सब तुम्हारे साथ ही होता है ? क्या मेरे साथ नहीं हुआ ? क्या मैं बन बन सीता के लिए नहीं घूमता फिरा ? क्या मैंने तड़प नहीं सही ? क्या वक्त  ने मुझ पर सितम नही किये ? क्या मैं गोकुल से मथुरा जाते समय राधा से नहीं बिछुड़ा ? हाँ बिछुडा और हमेशा हमेशा के लिए ?

क्या मैंने राधा का बिछोह नहीं सहा ? पर सोचो क्या मैं राधा से कभी एक पल के लिए भी अलग रह सका ? नहीं । क्योंकि राधा के प्रेम में न स्वार्थ था । न अहंकार । यदि कुछ था तो । सम्पूर्ण समर्पण । उसने मुझे सब कुछ देकर अपने को बिलकुल खाली कर रखा था । इसीलिए मैं उसमें पूर्ण रूप से मौजूद था । यही बात थी द्रोपदी में । यही बात थी रैदास में । तुम सब जब भी मुझसे कुछ मांगते हो । तो “ सुख सम्पति घर आवे कष्ट मिटे तन का ” माँगते हो । तुमको धन चाहिए । भगवान नहीं माँगते हो । और न हीं मेरा प्यार । मेरी पत्नी रुक्मणि को घमंड था कि राधा की तुलना में वह मुझे अधिक प्यार करती है । इसलिए मुझ पर राधा की बजाय उसका अधिक अधिकार है । बहुत समझाया । लेकिन नहीं मानी । तो मुझे ही सोने चांदी से तौलने लगी । क्या हुआ ? तुम सब जानते हो । एक पलड़े में राधा का प्रेम अर्थात मैं था । और  दूसरे में रुकमनी के सोने चांदी जवाहरात आदि । प्रेम ही जीता ।
मैं - आप इतना और बता दें कि - यहाँ प्रथ्वी पर जो स्त्री पुरुष विवाह में 7 फेरे लेकर 7 जन्मों तक साथ निभाने की कसमें खाते हैं । पर बहुत सारे तो 7 जन्मों की बात तो दूर । इसी 1 ही जन्म में डाइवोर्स / तलाक ले लेते हैं । और इसी जन्म में तलाक ले लेकर एक बार नहीं 7-7  बार विवाह / निकाह कर लेते हैं । कोई कोई तो तलाक लिए बिना ही तलाक पूर्ण जीवन जी रहे हैं ।  जीवन में उनके लिए न कोई रूप है । न कोई रंग है । यह क्या है ? ऐसा क्यों है ?
भगवान - मैंने पहले ही कहा कि तुम लोग नहीं जानते हो कि प्रेम क्या है ? प्रेम तो करते नहीं । प्रेम करने का दिखावा करते हो । फेरे चाहे 7 लो । या 700 । जब तक मन से प्रेम नही किया । तो सब बेकार । महत्वपूर्ण सगाई नही है । दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण है । प्रेम की सगाई । तुमको पता है न कि मीरा से यह मेरी प्रेम सगाई ही थी कि जब उसे बिना गलती के जहर दिया गया । तो मैं उसके जहर के प्याले में ही घुलमिल गया कि पीते ही अमृत हो गया । सबरी से मेरी प्रेम सगाई ही तो थी कि यह जानते हुए भी कि वह मुझे झूठे करके बेर खिला रही है । मैंने खाए । क्योंकि उनमें प्रेम की मिठास थी । अर्जुन से मेरी प्रेम सगाई ही तो थी कि मैं भगवान होते हुए भी उसके रथ का ड्राइवर बना ।
क्योंकि उसने मेरे सामने प्रेम समर्पण कर दिया था । और मैं अपनी चतुराई और ठकुराई भूल गया । सुदामा के साथ मेरी प्रेम की सगाई ही तो थी कि मैंने खुद उसके पैरों के कांटे निकाले । और उसके पैरों को अपने आंसुओं के जल से धोकर उसी पलंग पर बैठाया । और झोपडी को महलों में बदल दिया । रहने को । बस प्रेम करना सीख जाओ । सब प्रश्नों के जवाब खुद मिल जायेंगे । जिससे प्रेम करो । बस उसी के होकर रह जाओ । सच्चा प्रेम एक समय में / एक साथ 2 से हो ही नही सकता है । केवल मैं ही एक साथ असंख्य प्रेमियों के साथ प्रेम कर सकता हूँ । और हजारों गोपियों से प्रेम किया । क्योंकि वो सब मुझमें  समाई थी । और मैं उन सब में समाया हुआ था । इसके अलावा तुम मुझसे भी प्रेम करना चाहते हो । और धन संपत्ति से भी । धन चाहते हो । इसीलिए रूपए पैसे मुझे भेंट करते हो । यह भी भूल है । मुझे केवल सच्चे प्रेम से ही पा सकते हो ।
मैं - ऐसा क्यों होता है कि कई धर्मात्मा और आपके कई भक्त बद्रीनाथ । केदारनाथ । गंगा स्नान । तिरुपति बालाजी । प्रयाग । काशी । मथुरा आदि आपके धामों में जाते हैं । और सुनने में आता है कि रास्ते में दुर्घटना में उनमें से कई की मृत्यु हो जाती है । जबकि उनमें से कई तो कई बार पहले भी आपके धामों में आपके दर्शन करने जा चुके थे ।
भगवान - मैं पहले ही कह चुका हूँ कि लोग मुझे पाने के लिए जहां जहां जाते है । मैं बहाँ होता भी हूँ । और नहीं भी होता हूँ । लेकिन यह सौ फीसदी सही है कि मैं उन लोगों को कहीं भी दिख जाता हूँ । जो सत्य के मार्ग पर चलते हैं । दूसरों को दुःख नही देते हैं । बल्कि उनकी तकलीफों को दूर करने में जो कुछ भी मदद कर सकते हैं ।  मदद करते हैं । ऐसे लोगों को कहीं जाने की जरूरत नहीं । और बहुत लंबी चौडी पूजा करने की भी जरूरत नहीं है । जो कार्य तुमको करना चाहिए । उसे सच्चे मन से । ईमानदारी से । लगन से करो । बदनीयत मत रखो । यही मेरी पूजा है । जो लोग केवल  मेरी पूजा को ही अपना कार्य समझते हैं । वे धोखे में हैं । क्योंकि - वर्क इज बर्शिप एंड बर्शिप इस नाट बर्क  । मुझे 101 या 1001 बार जपने की जरूरत नहीं है । जरूरत है । सच्चे मन से अहंकार रहित समर्पण की भावना से केवल एक बार ही पुकार लेने की । मीरा ने जहर पीते वक्त । द्रोपदी ने चीरहरण के वक्त केवल एक बार ही तो सच्चे मन से वह भी मन के अंदर पुकारा था । बताओ क्या मैं पहुँचा कि नहीं । फिर भी तुम लोगों की आँखें नहीं खुलती हैं । तो मैं क्या करूँ ? रही बात अच्छे कार्य करने पर दुःख या मृत्यु प्राप्त होने की । तो यह तो ऐसा है कि जैसे तुम अपने आफिस में । फैक्ट्री में प्रत्येक होने बाले कार्य या लेनदेन के लिए लेज़र / बुक रखते हो । ताकि मालूम हो सके कि किस किसने कितने लेनदेन किये । और किसने कितना धन जमा किया । कितना निकाला ? उसी तरह मेरे कार्यालय में भी प्रथ्वी के प्रत्येक ब्यक्ति का हिसाब किताब रखा जाता है । लेकिन दूसरी तरह से । हमारे यहाँ यह नही है कि आपने पुण्य कर्म किये । तो जमा में आ गया । और पाप कार्य किये । तो पुण्य कार्यों के बैलेंस से घटा दिया जायेगा । ज्यादा पुण्य कार्य थे । और पाप कार्य कम थे । तो बैलेंस पुण्य कार्यों का होगा । ऐसा नहीं है । हमारे यहाँ तो पाप का हिसाब अलग । और पुण्य कार्यों का हिसाब अलग रखा जाता है । पुण्य कार्यों के लिए सुख मिलेगा । और पाप कार्यों के लिए दुःख अबश्य भोगना पडेगा । हमारे यहाँ समायोजन / एडजस्टमेंट नहीं होता है । रावण को तो जानते ही हैं । उसने मेरी ( शंकर ) पूजा की । तो ऐसा राजा बना कि देवता भी थरथर कांपते थे । और जो उसने धर्म / मर्यादा के खिलाफ़ कार्य किये । उसके लिए ही उसे मरना पड़ा । और आप लोग उसे हर साल जलाकर मारते हैं । दशरथ भी अपने पुण्य कार्यों के कारण चार महान पुत्रों के पिता बने । और यह उन्होंने श्रवणकुमार को बिना अपराध के मारा । तो उनको भी पुत्रवियोग में मरना पडा । अगर गंगास्नान से पुण्य मिलते । तो गंगा / संगम के किनारे रहने बाले तो रोज ही गंगा / संगम स्नान करते हैं । लेकिन क्या वे दुखी नहीं होते हैं ? फिर भी लोग गंगा स्नान करने इसी लिए जाते हैं कि वे पुण्य के अपने बैलेंस में बढोतरी कर रहे हैं । जबकि यह उनकी सबसे भारी भूल है । आप लोग जितने भी कर्म कांड और पूजा में औपचारिकताएं करते हैं । यह आपकी बनायी हुई हैं । मैंने नही कही हैं ।
इन सबको करने के लिए । फिर भी आप करते हैं । तो करें । मैं यह देखकर दुखी होता हूँ कि लोग लाउडस्पीकर लगवाकर मंदिर और मस्जिद में चिल्ला चिल्लाकर मुझे बुलाते हैं । जैसे कि मैं बहरा हूँ । कोई बडी बडी दाडी और जटा रख लेते हैं । जबकि ये तो स्वास्थय के लिए बहुत हानिकारक है । शरीर के हर अंग की सफायी रखना अति आवश्यक है । पता नहीं लोग कब और कैसे सुधरेंगे ?
मैं - आपको बहुत बहुत धन्यबाद । आपने कुछ ही समय में उन कई बातों / प्रश्नों के बारे जिनके उत्तर मैं न जाने कबसे जानने की इच्छा थी । समाधान कर दिया । वह भी मोबाइल पर । अपने खर्चे पर । वह भी रोमिंग चार्ज देकर । आप महान हैं । इस सुखद और ज्ञानवर्धक वार्ता के लिए मैं आपको बार बार धन्यबाद देता हूँ । और मैं सभी से कह सकता हूँ कि प्रार्थनायें  सुनी जाती हैं । चाहे जल्दबाजी में ही क्यों न की जाती हों । पर मन से और अहंकार त्यागकर समर्पण की भाबना से निस्वार्थ भावना से  की गयी हो । मक्का मदीना । रामेश्वरम । काशी । चर्च । मथुरा । वृंदावन । शिरडी । अयोध्या काशी कहीं जाने की जरूरत नहीं है ।
भगवान - मेरा शुभ आशीर्बाद तुम्हारे साथ है । बस विश्वास रखो । भय को त्यागो । अपने संदेहों पर विश्वास मत करो । बल्कि अन्धबिश्वासों पर संदेह करो । उन्हें दूर करो । जीवन एक रहस्य है । इसे जितना सुलझाने की कोशिश करोगे । उतने ही उलझोगे । इसमें उलझो मत । मेरी बात मानों । जीवन जो मैंने दिया है । यह बहुत सुन्दर है । बस जिंदगी जीने की कला जान लो । मुझे कभी भी फोन कर सकते हो । मेरे पास लाइफ टाइम इनकमिंग फ्री कॉल स्कीम का कनेक्शन है । गुड बाय !
अब आप फिर कब ज्ञान प्रदान करेंगे ?
भगवान - जब भी तुम मुझे चाहे भागते में ही सही मगर दिल से बुलाओगे ।
मैं - जी अच्छा । बैसे भी मेरा रिटायरमेंट बहुत जल्दी ही जनवर में होने जा रहा है । लगता है । तब आफिस के तमाम टेंसन से मुक्त हो जाऊंगा । तब आपको याद करने के लिए पर्याप्त समय होगा ।
आपका बहुत बहुत धन्यबाद । आपका आशीर्बाद चाहिए ।
आपका एक छोटा सा भक्त - कुलश्रेष्ठ


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कुलश्रेष्ठ जी ! इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिये आपका बहुत बहुत आभार ।

23 जून 2011

लुटेरा कामदेव

कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! साधना करते समय सबसे पहले साधु को चक्षु ( आँख ) इन्द्रिय को साधना चाहिये । यानी आँखों पर नियंत्रण रखे । वह किसी विषय पर इधर उधर न भटके । उसे भली प्रकार नियंत्रण में करे । और गुरु के बताये ग्यान मार्ग पर चलता हुआ सदैव उनके द्वारा दिया हुआ नाम भाव पूर्ण होकर सुमरन करे ।
5 तत्वों से बने इस शरीर में ग्यान इन्द्रिय आँख का संबंध अग्नि तत्व से है । आँख का विषय रूप है । उससे ही हम संसार को विभिन्न रूपों में देखते हैं । जैसा रूप आँख को दिखायी देता है । वैसा ही भाव मन में उत्पन्न होता है । आँख द्वारा अच्छा बुरा दोनों देखने से राग द्वेष भाव उत्पन्न होते हैं । इस मायारचित संसार में अनेकानेक विषय पदार्थ हैं । जिन्हें देखते ही उन्हें प्राप्त करने की तीवृ इच्छा से तन और मन व्याकुल हो जाते हैं । और जीव ये नहीं जानता कि ये विषय पदार्थ उसका पतन करने वाले हैं । इसलिये एक सच्चे साधु को आँख पर नियंत्रण करना होता है ।
सुन्दर रूप आँखों को देखने में अच्छा लगता है । इसी कारण सुन्दर रूप को आँख की पूजा कहा गया है । और जो दूसरा रूप कुरूप है । वह देखने में अच्छा नहीं लगता । इसलिये उसे कोई नहीं देखना चाहता । असली साधु को चाहिये कि वह इस नाशवान शरीर के रूप कुरूप को एक ही करके माने । और स्थूल देह के प्रति ऐसे भाव से उठकर इसी शरीर के अन्दर जो शाश्वत अविनाशी चेतन आत्मा है । उसके दर्शन को ही सुख माने । जो ग्यान द्वारा विदेह स्थिति में प्राप्त होता है ।

हे धर्मदास ! कान इन्द्रिय का संबंध आकाश तत्व से है । और इसका विषय शव्द सुनना है । कान सदा ही अपने अनुकूल मधुर शुभ शब्द को ही सुनना चाहते हैं । कानों द्वारा कठोर अप्रिय शब्द सुनने पर चित्त क्रोध की आग में जलने लगता है । जिससे बहुत अशांति होकर बैचैनी होती है । सच्चे साधु को चाहिये कि वह बोल कुबोल ( अच्छे - खराब वचन ) दोनों को समान रूप से सहन करे । सदगुरु के उपदेश को ध्यान में रखते हुये ह्रदय को शीतल और शांत ही रखे ।
हे धर्मदास ! अब नासिका यानी नाक के वशीकरण के बारे में भी सुनो । नाक का विषय गंध होता है । इसका संबंध प्रथ्वी तत्व से है । अतः नाक को हमेशा सुगंध की चाह रहती है । दुर्गंध इसे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती । लेकिन किसी भी स्थिर भाव साधक साधु को चाहिये कि वह तत्व विचार करता हुआ इसे वश में रखे । यानी सुगंध दुर्गंध में सम भाव रहे ।
हे धर्मदास ! अब जिभ्या यानी जीभ इन्द्रिय के बारे में जानो । जीभ का संबंध जल तत्व से है । और इसका विषय रस है । यह सदा विभिन्न प्रकार के अच्छे अच्छे स्वाद वाले व्यंजनों को पाना चाहती हैं । इस संसार में 6 रस मीठा कङवा खट्टा नमकीन चरपरा कसैला हैं । जीभ सदा ऐसे मधुर स्वाद की तलाश में रहती है । साधु को चाहिये कि वह स्वाद के प्रति भी सम भाव रहे । और मधुर अमधुर स्वाद की आसक्ति में न पङे । रूखे सूखे भोजन को भी आनन्द से गृहण करे ।
जो कोई पंचामृत ( दूध दही शहद घी और मिश्री से बना पदार्थ ) को भी खाने को लेकर आये । तो उसे देखकर मन में प्रसन्नता आदि का विशेष अनुभव न करे । और रूखे सूखे भोजन के प्रति भी अरुचि न दिखाये ।
हे धर्मदास ! विभिन्न प्रकार की स्वाद लोलुपता भी व्यक्ति के पतन का कारण बनती है । जीभ के स्वाद के फ़ेर में पङा हुआ व्यक्ति सही रूप से भक्ति नहीं कर पाता । और अपना कल्याण नहीं कर पाता ।
हे धर्मदास ! जब तक जीभ स्वाद रूपी कुँए में लटकी है । और तीक्ष्ण विष रूपी विषयों का पान कर रही है । तब तक ह्रदय में राग द्वेष मोह आदि बना ही रहेगा । और जीव सत्यनाम का ग्यान प्राप्त नहीं कर पायेगा ।
हे धर्मदास ! अब में पाँचवी काम इन्द्रिय यानी जननेन्द्रिय के बारे में समझाता हूँ । इसका संबंध जल तत्व से है । जिसका कार्य मूत्र वीर्य का त्याग और मैथुन करना होता है । यह मैथुन रूपी कुटिल विषय भोग के पाप कर्म में लगाने वाली महान अपराधी इन्द्री है । जो अक्सर इंसान को घोर नरकों में डलवाती है । इस इन्द्री के द्वारा जिस दुष्ट काम की उत्पत्ति होती है । उस दुष्ट प्रबल कामदेव को कोई बिरला साधु ही वश में कर पाता है ।
काम वासना में प्रवृत करने वाली कामिनी का मोहिनी रूप भयंकर काल की खानि है । जिसका गृस्त जीव ऐसे ही मर जाता है । और कोई मोक्ष साधन नहीं कर पाता । अतः गुरु के उपदेश से काम भावना का दमन करने के बजाय भक्ति उपचार से शमन करना चाहिये ।

स्पष्टीकरण - यहाँ बात सिर्फ़ औरत की न होकर स्त्री पुरुष में एक दूसरे के प्रति होने वाली काम भावना के लिये है । क्योंकि मोक्ष और उद्धार का अधिकार स्त्री पुरुष दोनों को ही समान रूप से है । अतः जहाँ कामिनी स्त्री पुरुष के कल्याण में बाधक है । वहीं कामी पुरुष भी स्त्री के मोक्ष में बाधा समान ही है । काम विषय बहुत ही कठिन विकार है । और संसार के सभी स्त्री पुरुष कहीं न कहीं काम भावना से गृसित रहते हैं । काम अग्नि देह में उत्पन्न होने पर शरीर का रोम रोम जलने लगता है । काम भावना उत्पन्न होते ही व्यक्ति की मन बुद्धि से नियंत्रण समाप्त हो जाता है । जिसके कारण व्यक्ति का शारीरिक मानसिक और आध्यात्मिक पतन होता है ।
हे धर्मदास ! कामी क्रोधी लालची व्यक्ति कभी भक्ति नहीं कर पाते । सच्ची भक्ति तो कोई शूरवीर संत ही करता है । जो जाति वर्ण और कुल की मर्यादा को भी छोङ देता है ।
कामी क्रोधी लालची इनसे भक्ति न होय । भक्ति करे कोई सूरमा जाति वर्ण कुल खोय ।
अतः काम जीवन के वास्तविक लक्ष्य मोक्ष के मार्ग में सबसे बङा शत्रु है । अतः इसे वश में करना बहुत आवश्यक ही है ।
हे धर्मदास ! इस कराल विकराल काम को वश में करने का अब उपाय भी सुनो । जब काम शरीर में उमङता हो । या कामभावना बेहद प्रबल हो जाये । तो उस समय बहुत साबधानी से अपने आपको बचाना चाहिये । इसके लिए स्वयँ के विदेह रूप को या आत्मस्वरूप को विचारते हुये सुरति ( एकाग्रता ) वहाँ लगायें । और सोचें कि मैं ये शरीर नहीं हूँ । बल्कि मैं शुद्ध चैतन्य आत्मस्वरूप हूँ । और सत्यनाम तथा सदगुरु ( यदि हों ) का ध्यान करते हुये विषैले काम रस को त्यागकर सत्यनाम के अमृतरस का पान करते हुये इसके आनन्ददायी अनुभव को प्राप्त करे ।
हे धर्मदास ! काम शरीर में ही उत्पन्न होता है । और मनुष्य अग्यानवश स्वयँ को शरीर और मन जानता हुआ ही इस भोग विलास में प्रवृत होता है । जब वह जान लेगा कि वह 5 तत्वों की बनी ये नाशवान जङ देह नहीं है । बल्कि विदेह अविनाशी शाश्वत चैतन्य आत्मा है । तब ऐसा जानते ही वह इस काम शत्रु से पूरी तरह से मुक्त ही हो जायेगा ।
मनुष्य शरीर में उमङने वाला ये काम विषय अत्यन्त बलबान और बहुत भयंकर कालरूप महाकठोर और निर्दयी है । इसने देवता मनुष्य राक्षस ऋषि मुनि यक्ष गंधर्व आदि सभी को सताया हुआ है । और करोंङो जन्मों से उनको लूटकर घोर पतन में डाला है । और कठोर नरक की यातनाओं में धकेला है । इसने किसी को नहीं छोङा । सबको लूटा है ।
लेकिन जो संत साधक अपने ह्रदय रूपी भवन में ग्यान रूपी दीपक का पुण्य प्रकाश किये रहता हो । और सदगुरु के सार शब्द उपदेश का मनन करते हुये सदा उसमें मगन रहता हो । उससे डरकर ये कामदेव रूपी चोर भाग जाता है ।
जो विषया संतन तजी मूढ ताहे लपटात । नर ज्यों डारे वमन कर श्वान स्वाद सो खात
कबीर साहब ने ये दोहा नीच काम के लिये ही बोला है । इस काम रूपी विष को जिसे संतों ने एकदम त्यागा है । मूरख मनुष्य इस काम से उसी तरह लिपटे रहते हैं । जैसे मनुष्यों द्वारा किये गये वमन यानी उल्टी या पल्टी को कुत्ता प्रेम से खाता है ।
Do you believe that forks are evolved from spoons ?

22 जून 2011

वो भी बता दें ..जो मेरे को नहीं पता ।

राजीव जी ! प्लीज साइड पर हो जाईये । मैंने बुलेट चलाना नया नया सीखा है । मुझे ठीक से अभी ब्रेक लगानी नहीं आती ।
नमस्ते राजीव जी ! ये तो मैं मजाक कर रही थी । मैं आज आपसे ये पूछना चाहती हूँ कि लास्ट टाइम जो आपने मेरे सवालों के जवाब दिये थे । उसमें आपने कहा था कि - वास्तव में शरीर भी पूरी तरह खत्म नहीं होता । सिर्फ़ उसका स्थूल आवरण ही उतरता है ।
मैं आपसे ये जानना चाहती हूँ कि - अगर किसी की मौत बम के विस्फ़ोट से भी हो जाये । अगर उसके चिथडे चिथडे भी हो जायें । क्या तो भी सिर्फ़ स्थूल आवरण ही नष्ट होता है ? क्या सूक्ष्म शरीर पर बिल्कुल भी प्रभाव नहीं पडता ?
ये जो अंतःकरण है । यानि मन । बुद्धि । चित्त और अहम । क्या ये अंतःकरण भी एक प्रकार का सूक्ष्म शरीर ही है ?
आपके अनुसार 6 शरीर होते हैं । क्या स्थूल शरीर के अन्दर एक से अधिक सूक्ष्म शरीर हैं । वो सब क्या हैं ? और कितने प्रकार के हैं ? स्थूल शरीर तो 5 तत्व का बना होता है । इसलिये इसको भूख । नींद । सेक्स आदि की जरूरत होती है ।
लेकिन क्या सूक्ष्म शरीर को भी भूख । प्यास । नींद । थकावट । सेक्स आदि की जरुरत होती है । सूक्ष्म शरीर की जरुरतें क्या क्या होती हैं ? जब तक कोई आत्मा सूक्ष्म शरीर में होती है ( स्थूल शरीर छूट जाने के बाद ) और जब तक उसको अगला जन्म नहीं मिल जाता । क्या तब तक उस सूक्ष्म शरीर के ( प्रतिबिम्ब के आधार पर ) आधार पर वो आत्मा अपने आपको वही व्यक्ति समझती है । जो वो पीछे छूट गये जन्म में थी ।

जैसे सत्यलोक या अमरलोक या सच्चखन्ड में स्थूल शरीर नहीं जा सकता । वो आत्म लोक है । वहाँ सिर्फ़ आत्मा ही जा सकती है । तो क्या वहाँ सूक्ष्म शरीर भी नहीं जा सकता ? क्या सूक्ष्म शरीर भी जब उतर जाता है । और आत्मा अपने वास्तविक शुद्ध स्वरूप में आ जाती है । क्या तब मोक्ष होता है । क्या सत्यलोक पहुँच जाना ही असली मोक्ष है ? क्या सत्यलोक ही हमारा ( आत्माओं का ) सच्चा । निज और अनादि लोक या घर है ?

ये भी बतायें कि - सत्यलोक की भाषा क्या है ? क्युँ कि इस संसार में तो अनेक भाषायें है । जो सब प्रकृति के आधार पर बनी हैं ( सामाजिक ढांचे के अनुसार )  क्या सत्यलोक की भाषा मौन है ? यानि साइलेंस । क्युँ कि कुछ लोग कह देते हैं कि - परमात्मा तो मौन की भाषा समझता है ।
बाकी ये तो मैंने आपके लेखों मे पढ ही लिया था कि - सत्यलोक या सच्चखन्ड में आत्मायें अमृत का आहार करती हैं । आखिर में ये भी बता दें कि - जैसे इस दुनियाँ को संसार बोला जाता है । उसी तरह क्या उस संसार ( सत्यलोक या सच्चखन्ड ) को महा संसार बोलना ठीक होगा ? क्या कही परम संसार भी होता होगा ?
मैं ये भी जानना चाहती हूँ । क्या जीवन ( अगर गहराई से समझें ) वाकई अनन्त है ? क्या वाकई जीवन का या जीवन की शुरुआत का वास्तव में न कोई आदि है । और न ही इसका अन्त । क्या जीवन आदि अन्त रहित है । क्या जीवन को भी अनादि और अनन्त कहना ठीक होगा । मेरा मतलब जन्म फ़िर मौत फ़िर जन्म ( लगातार जनम मरण । फ़िर जन्म का अन्तहीन सिलसिला ) आप मेरी इन सभी जिग्यासाओं का दिल खोलकर खुलासा कर दें । वो भी बता दें । जो मेरे को नहीं पता । क्युँ कि आपका संग करने से ही मेरा अग्यान मिटेगा । अगर आपने मेरी जिग्यासा दूर नहीं की । तो मैं फ़िर बुलेट चलाती हुई सीधा लुधियाना से आगरा पहुँच जाऊँगी । तब फ़िर आप चाय के साथ समोसे और रसगुल्ले तैयार रखना । ओ के जी ।

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मैं आपसे ये जानना चाहती हूँ कि - अगर किसी की मौत बम के विस्फ़ोट से भी हो जाये । अगर उसके चिथडे चिथडे भी हो जायें । क्या तो भी सिर्फ़ स्थूल आवरण ही नष्ट होता है ? क्या सूक्ष्म शरीर पर बिल्कुल भी प्रभाव नहीं पडता ?


- बम विस्फ़ोट तो मामूली चीज है । अगर जवालामुखी के खौलते लावे में इंसान गिर जाये । तो भी सूक्ष्म शरीर पर कोई असर नहीं होता । ये एक तरह से अहम केन्द्रक पर विचार के अणु परमाणु से निर्मित होता है ।
ये जो अंतःकरण है । यानि मन । बुद्धि । चित्त और अहम । क्या ये अंतःकरण भी एक प्रकार का सूक्ष्म शरीर ही है ?
- बिलकुल सही जबाब । आपको मिलते हैं 1 लाख । अगला सवाल 3 लाख के लिये । अंतःकरण ही सूक्ष्म शरीर है ?

आपके अनुसार 6 शरीर होते हैं । क्या स्थूल शरीर के अन्दर एक से अधिक सूक्ष्म शरीर हैं । वो सब क्या हैं ? और कितने प्रकार के हैं ? स्थूल शरीर तो 5 तत्व का बना होता है । इसलिये इसको भूख । नींद । सेक्स आदि की जरूरत होती है । लेकिन क्या सूक्ष्म शरीर को भी भूख । प्यास । नींद । थकावट । सेक्स आदि की जरुरत होती है । सूक्ष्म शरीर की जरुरतें क्या क्या होती हैं ?
- 6 शरीर कृमशः स्थूल । सूक्ष्म । कारण । महाकारण । कैवल्य । वास्तव में आपने ठीक से नहीं समझा । या अनुभव किया । स्थूल ( मोटा ) शरीर केवल एक यंत्र आकार है । असली इंजन सूक्ष्म शरीर ही है । कार के इंजन को पेट्रोल आयलिंग आदि की आवश्यकता होती है । न कि बाडी सीट आदि को । अतः ऊपर की जरूरतें असल रूप में स्थूल शरीर की न होकर सूक्ष्म की अधिक होती हैं । जो भी भोजन आदि का सार तत्व निकलता है । उसको सूक्ष्म शरीर ही लेता है । और इस सार में से भी जो अन्य रसायन आदि बनते हैं । वह बाडी को सप्लाई करता है । 5 तत्व की पूर्ति भी इसी तरीके से होती है । जैसे शरीर में पानी की कमी होने पर ग्लुकोज चढाना ।

जब तक कोई आत्मा सूक्ष्म शरीर में होती है ( स्थूल शरीर छूट जाने के बाद ) और जब तक उसको अगला जन्म नहीं मिल जाता । क्या तब तक उस सूक्ष्म शरीर के ( प्रतिबिम्ब के आधार पर ) आधार पर वो आत्मा अपने आपको वही व्यक्ति समझती है । जो वो पीछे छूट गये जन्म में थी ।
आत्मा पर यदि माया का परदा न हो । तो उसे न सिर्फ़ अपना सभी जन्मों का पूरा इतिहास पता होता है । बल्कि और भी बहुत कुछ पता होता है । सूक्ष्म शरीर में पिछला जन्म पता रहता है ।

जैसे सत्यलोक या अमरलोक या सच्चखन्ड में स्थूल शरीर नहीं जा सकता । वो आत्म लोक है । वहाँ सिर्फ़ आत्मा ही जा सकती है । तो क्या वहाँ सूक्ष्म शरीर भी नहीं जा सकता ?
- हरेक लोक में सूक्ष्म शरीर ही जाता है । परन्तु लोक उपाधि या जरूरत के अनुसार इनका आवरण कई तरह का होता है । जैसे संसार में ड्रेस होती है । कैदी । जेलर । पुलिसमेन । स्टूडेंट etc मुक्त आत्मा ( ओनली सोल ) कुछ अलग सा मैटर है । बहुत विलक्षण खेल है भाई ।

क्या सूक्ष्म शरीर भी जब उतर जाता है । और आत्मा अपने वास्तविक शुद्ध स्वरूप में आ जाती है । क्या तब मोक्ष होता है । क्या सत्यलोक पहुँच जाना ही असली मोक्ष है ? क्या सत्यलोक ही हमारा ( आत्माओं का ) सच्चा । निज और अनादि लोक या घर है ?
- सत्यलोक पहुँचकर जीव ( शब्द पर ध्यान दें ) मुक्त हो जाता है । सत्यलोक ही असली घर है । असली मोक्ष बहुत ऊपर है । जो किसी बिरला को ही मिलता है । सार शब्द जब आवे हाथा । तब तब काल नवावे माथा । यह असली मोक्ष है ।

ये भी बतायें कि - सत्यलोक की भाषा क्या है ? क्युँ कि इस संसार में तो अनेक भाषायें है । जो सब प्रकृति के आधार पर बनी हैं ( सामाजिक ढांचे के अनुसार )  क्या सत्यलोक की भाषा मौन है ? यानि साइलेंस । क्युँ कि कुछ लोग कह देते हैं कि - परमात्मा तो मौन की भाषा समझता है ।
- आप चिंता न करें । एक आटोमैटिक सिस्टम से हम ( साधक ) जहाँ भी पहुँचते है । वह भाषा खुद ही आ जाती है । जैसे आप मेरे ब्लाग को ही सिलेक्ट लेंगुएज ट्रान्सलेसन द्वारा कई भाषाओं में बदल सकते हैं । सत्यलोक में मौन नहीं है । आराम से बातचीत खेलकूद आदि सब आनन्दमय व्यवस्था है । परमात्मा से मैं रोज ही फ़ोन ( हाटलाइन पर भाई ) पर बात करता हूँ ।


जैसे इस दुनियाँ को संसार बोला जाता है । उसी तरह क्या उस संसार ( सत्यलोक या सच्चखन्ड ) को महा संसार बोलना ठीक होगा ? क्या कही परम संसार भी होता होगा ?
- संसार का निर्माण संशय भाव संशय बेस पर हुआ है । संशय का ही नाम संसार है । संशय से ही संसार बना है । सचखंड में संशय नाम की कोई चीज नहीं होती । वहाँ सिर्फ़ आनन्द ही आनन्द है । इसलिये उसे आनन्दधाम कहते हैं । परम का मामला विलक्षण है । वो VVIP क्षेत्र हरेक के लिये नहीं हैं । भले ही आपको खुद कबीर साहब या नानक साहब ने हँसदीक्षा क्यों न दी होती । उसके लिये खुद को मिटाना होता है । कबिरा खङा बजार में लिये लुकाठी हाथ । जो घर फ़ूकें आपना चले हमारे साथ । यह चीज हो ।

क्या जीवन ( अगर गहराई से समझें ) वाकई अनन्त है ? क्या वाकई जीवन का या जीवन की शुरुआत का वास्तव में न कोई आदि है । और न ही इसका अन्त । क्या जीवन आदि अन्त रहित है । क्या जीवन को भी अनादि और अनन्त कहना ठीक होगा । मेरा मतलब जन्म फ़िर मौत फ़िर जन्म ( लगातार जनम मरण । फ़िर जन्म का अन्तहीन सिलसिला )
- जीवन यात्रा का आदि अन्त दोनों ही है । भले ही आप करोंङों जन्म करोंङों योनियों में भटकते रहें । प्रलय और सृष्टि में नये सिरे से शुरूआत और विनाश हो जाता है । ग्यान के बिना और मुक्त न होने तक ये ऐसे ही चलता रहेगा ।


आप मेरी इन सभी जिग्यासाओं का दिल खोलकर खुलासा कर दें । वो भी बता दें । जो मेरे को नहीं पता । क्युँ कि आपका संग करने से ही मेरा अग्यान मिटेगा । अगर आपने मेरी जिग्यासा दूर नहीं की । तो मैं फ़िर बुलेट चलाती हुई सीधा लुधियाना से आगरा पहुँच जाऊँगी । तब फ़िर आप चाय के साथ समोसे और रसगुल्ले तैयार रखना । ओ के जी ।
वो भी बता दें । जो मेरे को नहीं पता - आपको ये नहीं पता कि ये बुलेट चल नहीं रही । बल्कि खङी है । और चाय के साथ रसगुल्ले खाने से चाय फ़ीकी लगती है । फ़िर भी खाना चाहो । तो आपकी मर्जी ।
सभी बँधुओं से - बस आप इतना ध्यान रखिये । मैं एक शुद्ध चैतन्य आत्मा हूँ । और परमात्मा परम और शाश्वत सत्य है । बाकी बना बिगङी प्रकृति में हो रही है । जिसको मन महसूस कर रहा है । आत्मा से इसका कोई लेना देना नहीं है ।

20 जून 2011

मन की कपट करामात

तब कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! जिस प्रकार कोई नट बंदर को नाच नचाता है । और उसे बंधन में रखता हुआ अनेक दुख देता है । इसी प्रकार ये मन रूपी काल निरंजन जीव को नचाता है । और उसे बहुत दुख देता है । यह मन जीव को भृमित कर पाप कर्मों में प्रवृत करता है । तथा सांसारिक बंधन में मजबूती से बाँधता है । मुक्ति उपदेश की तरफ़ जाते हुये किसी जीव को देखकर मन उसे रोक देता है ।
इसी प्रकार मनुष्य की कल्याणकारी कार्यों की इच्छा होने पर भी यह मन रोक देता है । मन की इस चाल को कोई बिरला पुरुष ही जान पाता है ।
यदि कहीं सत्यपुरुष का ग्यान हो रहा हो । तो ये मन जलने लगता है । और जीव को अपनी तरफ़ मोङकर विपरीत बहा ले जाता है । इस शरीर के भीतर और कोई नहीं है । केवल मन और जीव ये दो ही रहते हैं । पाँच तत्व और पाँच तत्वों की पच्चीस प्रकृतियाँ । सत रज तम ये तीन गुण और दस इन्द्रियाँ ये सब मन निरंजन के ही चेले हैं ।
सत्यपुरुष का अंश जीव आकर शरीर में समाया है । और शरीर में आकर जीव अपने घर की पहचान भूल गया है । पाँच तत्व । पच्चीस प्रकृति तीन गुण और मन इन्द्रियों ने मिलकर जीव को घेर लिया है । जीव को इन सबका ग्यान नहीं है । और अपना ये भी पता नहीं कि मैं कौन हूँ ? इस प्रकार से बिना परिचय के अविनाशी जीव काल निरंजन का दास बना हुआ है ।

जीव अग्यानवश खुद को और इस बंधन को नहीं जानता । जैसे तोता लकङी के नलनी यंत्र में फ़ँसकर कैद हो जाता है । यही स्थिति मनुष्य की है ।
जैसे शेर ने अपनी परछाईं कुँए के जल में देखी । और अपनी छाया को दूसरा शेर जानकर कूद पङा । और मर गया । ठीक ऐसे ही जीव काल माया का धोखा समझ नहीं पाता । और बंधन में फ़ँसा रहता है । जैसे काँच के महल के पास गया कुत्ता दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखकर भौंकता है । और अपनी ही आवाज और प्रतिबिम्ब से धोखा खाकर दूसरा कुत्ता समझकर उसकी तरफ़ भागता है । ऐसे ही काल निरंजन ने जीव को फ़ँसाने के लिये माया मोह का जाल बना रखा है ।
काल निरंजन और उसकी शाखाओं ( कर्मचारी देवताओं आदि ने ) ने जो नाम रखे हैं । वे बनाबटी हैं । जो देखने सुनने में शुद्ध माया रहित और महान लगते हैं । परबृह्म पराशक्ति आदि आदि । परन्तु सच्चा और मोक्षदायी केवल आदि पुरुष का आदिनाम ही है ।
अतः हे धर्मदास ! जीव इस काल की बनायी भूल भूलैया में पङकर सत्यपुरुष से बेगाना हो गये । और अपना भला बुरा भी नहीं विचार सकते । जितना भी पाप कर्म और मिथ्या विषय आचरण है । ये इसी मन निरंजन का ही है । यदि जीव इस दुष्ट मन निरंजन को पहचान कर इससे अलग हो जाये । तो निश्चित ही जीव का कल्याण हो जाय ।
यह मैंने मन और जीव की भिन्नता तुम्हें समझाई । जो जीव सावधान सचेत होकर ग्यान दृष्टि से मन को देखेगा । समझेगा ।  तो वह इस काल निरंजन के धोखे में नहीं आयेगा । जैसे जब तक घर का मालिक सोता रहता है । तब तक चोर उसके घर में सेंध लगाकर चोरी करने की कोशिश करते रहते हैं । और उसका धन लूट ले जाते हैं ।

ऐसे ही जब तक शरीर रूपी घर का स्वामी ये जीव अग्यानवश मन की चालों के प्रति सावधान नहीं रहता । तब तक मन रूपी चोर उसका भक्ति और ग्यान रूपी धन चुराता रहता है । और जीव को नीच कर्मों की ओर प्रेरित करता रहता है । परन्तु जब जीव इसकी चाल को समझकर सावधान हो जाता है । तब इसकी नहीं चलती ।
जो जीव मन को जानने लगता है । उसकी जागृत कला ( योग स्थिति ) अनुपम होती है । जीव के लिये अग्यान अँधकार बहुत भयंकर अँधकूप के समान है । इसलिये ये मन ही भयंकर काल है । जो जीव को बेहाल करता है ।
स्त्री पुरुष मन द्वारा ही एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं । और मन उमङने से ही शरीर में कामदेव जीव को बहुत सताता है । इस प्रकार स्त्री पुरुष विषय भोग में आसक्त हो जाते है । इस विषय भोग का आनन्द रस काम इन्द्री और मन ने लिया । और उसका पाप जीव के ऊपर लगा दिया । इस प्रकार पाप कर्म और सब अनाचार कराने वाला ये मन होता है । और उसके फ़लस्वरूप अनेक नरक आदि कठोर दंड जीव भोगता है ।
दूसरों की निंदा करना । दूसरों का धन हङपना । यह सब मन की फ़ाँसी है । सन्तों से वैर मानना । गुरु की निन्दा करना यह सब मन बुद्धि का कर्म काल जाल है । जिसमें भोला जीव फ़ँस जाता है ।
पर स्त्री पुरुष से कभी व्यभिचार न करे । अपने मन पर सयंम रखे । यह मन तो अँधा है । विषय विष रूपी कर्मों को बोता है । और प्रत्येक इन्द्री को उसके विषय में प्रवृत करता है । मन जीव को उमंग देकर मनुष्य से तरह तरह की जीव हत्या कराता है । और फ़िर जीव से नरक भुगतवाता है ।
यह मन जीव को अनेकानेक कामनाओं की पूर्ति का लालच देकर तीर्थ वृत तुच्छ देवी देवताओं की जङ मूर्तियों की सेवा पूजा में लगाकर धोखे में डालता है । लोगों को द्वारिकापुरी में यह मन दाग ( छाप ) लगवाता है । मुक्ति आदि की झूठी आशा देकर मन ही जीव को दाग देकर बिगाङता है ।
अपने पुण्य कर्म से यदि किसी का राजा का जन्म होता है । तो पुण्य फ़ल भोग लेने पर वही नरक भुगतता है । और राजा जीवन में विषय विकारी होने से नरक भुगतने के बाद फ़िर उसका सांड का जन्म होता है । और वह बहुत गायों का पति होता है ।
पाप और पुण्य दो अलग अलग प्रकार के कर्म होते हैं । उनमें पाप से नरक और पुण्य से स्वर्ग प्राप्त होता है । पुण्य कर्म क्षीण हो जाने से फ़िर नरक भुगतना होता है । ऐसा विधान है । अतः कामना वश किये गये यह पुण्य का यह कर्म योग भी मन का जाल है । निष्काम भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है । जिससे जीव का सब दुख द्वंद मिट जाता है ।
हे धर्मदास ! इस मन की कपट करामात कहाँ तक कहूँ । बृह्मा विष्णु महेश तीनों प्रधान देवता शेषनाग तथा तैतीस करोङ देवता सब इसके फ़ँदे में फ़ँसे और हार कर रहे । मन को वश में न कर सके । सदगुरु के बिना कोई मन को वश में नहीं कर पाता । सभी मन माया के बनाबटी जाल में फ़ँसे पङे हैं ।

19 जून 2011

गुरु शिष्य विचार - रहनी

तब धर्मदास बोले - हे साहिब ! आप गुरु हो । मैं आपका दास हूँ । अब आप मुझे गुरु और शिष्य की रहनी समझाकर कहो ।
कबीर साहब बोले - गुरु का वृत धारण करने वाले शिष्य को समझना चाहिये कि निर्गुण और सगुण के बीच गुरु ही आधार होता है । गुरु के बिना आचार । अन्दर बाहर की पवित्रता नहीं होती । और गुरु के बिना कोई भवसागर से पार नहीं होता । शिष्य को सीप के समान और गुरु को स्वाति की बूँद के समान समझना चाहिये । गुरु के सम्पर्क से तुच्छ जीव ( सीप ) मोती के समान अनमोल हो जाता है । गुरु पारस के और शिष्य लोहे के समान है । जैसे पारस लोहे को सोना बना देता है । गुरु मलयागिरि चंदन के समान है । तो शिष्य विषैले सर्प की तरह होता है । इस प्रकार वह गुरु की कृपा से शीतल होता है ।
गुरु समुद्र है । तो शिष्य उसमें उठने वाली तरंग है । गुरु दीपक है । तो शिष्य उसमें समर्पित हुआ पतंगा है । गुरु चन्द्रमा है । तो शिष्य चकोर है । गुरु सूर्य हैं । जो कमल रूपी शिष्य को विकसित करते हैं ।
इस प्रकार गुरु प्रेम को शिष्य विश्वास पूर्वक प्राप्त करे । गुरु के चरणों का स्पर्श और दर्शन प्राप्त करे । जब इस तरह कोई शिष्य गुरु का विशेष ध्यान करता है । तब वह भी गुरु के समान होता है ।
हे धर्मदास ! गुरु एवं गुरुओं में भी भेद है । यूँ तो सभी संसार ही गुरु गुरु कहता है । परन्तु वास्तव में गुरु वही है । जो सत्य शब्द या सार शब्द का ग्यान कराने वाला है । उसका जगाने वाला या दिखाने वाला है । और सत्य ग्यान के अनुसार आवागमन से मुक्ति दिलाकर आत्मा को उसके निज घर सत्यलोक पहुँचाये । गुरु जो मृत्यु से हमेशा के लिये छुङाकर अमृत शब्द ( सार शब्द ) दिखाते हैं । जिसकी शक्ति से हँस जीव अपने घर सत्यलोक को जाता है । उस गुरु में कुछ छल भेद नहीं है । अर्थात वह सच्चा ही है । ऐसे गुरु तथा उनके शिष्य का मत एक ही होता है । जबकि दूसरे गुरु शिष्यं में मतभेद होता है ।
संसार के लोगों के मन में अनेक प्रकार के कर्म करने की भावना है । यह सारा संसार उसी से लिपटा पङा है । काल निरंजन ने जीव को भृम जाल में डाल दिया है । जिससे उबर कर वह अपने ही इस सत्य को नहीं जान पाता कि वह नित्य अविनाशी और चैतन्य ग्यान स्वरूप है ।
इस संसार में गुरु बहुत हैं । परन्तु वे सभी झूठी मान्यताओं और अँधविश्वास के बनाबटी जाल में फ़ँसे हुये हैं । और दूसरे जीवों को भी फ़ँसाते है । लेकिन समर्थ सदगुरु के बिना जीव का भृम कभी नहीं मिटेगा । क्योंकि काल निरंजन भी बहुत बलबान और भयंकर है । अतः ऐसी झूठी मान्यताओं अँधविश्वासों एवं परम्पराओं के फ़ंदे से छुङाने वाले सदगुरु की बलिहारी है । जो सत्यग्यान का अजर अमर संदेश बताते हैं ।

अतः रात दिन शिष्य अपनी सुरति सदगुरु से लगाये । और पवित्र सेवा भावना से सच्चे साधु सन्तों के ह्रदय में स्थान बनाये । जिन सेवक भक्त शिष्यों पर सदगुरु दया करते हैं । उनके सब अशुभ कर्म बंधन आदि जलकर भस्म हो जाते हैं । शिष्य गुरु की सेवा के बदले किसी फ़ल की मन में आशा न रखे । तो सदगुरु उसके सब दुख बंधन काट देते हैं ।
जो सदगुरु के श्री चरणों में ध्यान लगाता है । वह जीव अमरलोक जाता है ।
कोई योगी योग साधना करता है । जिसमें खेचरी भूचरी चाचरी अगोचरी नाद चक्र भेदन आदि बहुत सी क्रियायें हैं । तब इन्हीं में उलझा हुआ वह योगी भी सत्य ग्यान को नहीं जान पाता । और बिना सदगुरु के वह भी भवसागर से नहीं तरता ।
हे धर्मदास ! सच्चे गुरु को ही मानना चाहिये । ऐसे साधु और गुरु में अंतर नहीं होता । परन्तु जो संसारी किस्म के गुरु हैं । वह अपने ही स्वार्थ में लगे रहते हैं । न तो वह गुरु है । न शिष्य । न साधु । और न ही आचार मानने वाला ।
खुद को गुरु कहने वाले ऐसे स्वार्थी जीव को तुम काल का फ़ँदा समझो । और काल निरंजन का दूत ही जानो । उससे जीव की हानि होती है । यह स्वार्थ भावना काल निरंजन की ही पहचान है ।
जो गुरु शाश्वत प्रेम के आत्मिक प्रेम के भेद को जानता है । और सार शब्द की पहचान मार्ग जानता है । और परम पुरुष की स्थिर भक्ति कराता है । तथा सुरति को शब्द में लीन कराने की क्रिया समझाता है । ऐसे सदगुरु से मन लगाकर प्रेम करे । और दुष्ट बुद्धि एवं कपट चालाकी छोङ दे । तब ही वह निज घर को प्राप्त होता है । और इस भवसागर से तर के फ़िर लौटकर नहीं आता ।
तीनों काल के बंधन से मुक्त सदा अविनाशी सत्यपुरुष का नाम अमृत है । अनमोल है । स्थिर है । शाश्वत सत्य से मिलाने वाला है । अतः मनुष्य को चाहिये कि वह अपनी वर्तमान कौवे की चाल छोङकर हँस स्वभाव अपनाये । और बहुत सारे पँथ जो कुमार्ग की ओर ले जाते हैं । उनमें बिलकुल भी मन न लगाये । और बहुत सारे कर्म भृम के जंजाल को त्याग कर सत्य को जाने । तथा अपने शरीर को मिट्टी ही जाने । और सदगुरु के वचनों पर पूर्ण विश्वास करे ।
कबीर साहब के ऐसे वचन सुनकर धर्मदास बहुत प्रसन्न हुये । और दौङकर कबीर के चरणों से लिपट गये । वे प्रेम में गदगद हो गये । और उनके खुशी से आँसू बहने लगे ।
फ़िर वह बोले - हे साहिब ! आप मुझे ग्यान पाने के अधिकारी और अनाधिकारी जीवों के लक्षण भी कहें ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! जिसको तुम विनमृ देखो । जिस पुरुष में ग्यान की ललक । परमार्थ और सेवा भावना हो । तथा जो मुक्ति के लिये बहुत अधीर हो । जिसके मन में दया शील क्षमा आदि सदगुण हों । हे धर्मदास ! उसको नाम ( हँसदीक्षा ) और सत्यग्यान का उपदेश करो ।
और हे धर्मदास ! जो दयाहीन हो । सार शब्द का उपदेश न माने । और काल का पक्ष लेकर व्यर्थ वाद विवाद तर्क वितर्क करे । और जिसकी दृष्टि चंचल हो । उसको ग्यान प्राप्त नहीं हो सकता । होठों के बाहर जिसके दाँत दिखाई पङें । उसको जानो कि कालदूत वेश धरकर आया है । जिसकी आँख के मध्य तिल हो । वह काल का ही रूप है । जिसका सिर छोटा हो । परन्तु शरीर विशाल हो । उनके ह्रदय में अक्सर कपट होता है । उसको भी सार शब्द ग्यान मत दो । क्योंकि वह सत्य पंथ की हानि ही करेगा ।
तब धर्मदास ने कबीर साहब को श्रद्धा से दंडवत प्रणाम किया

नानक नाम जहाज है ..चढे सो उतरे पार - नवरूप कौर

राजीव जी ! मेरे मन में कुछ और सवाल आये हैं । प्लीज उनका भी हल करें ।
परमात्मा को लोग भाषा के हिसाब से या अपनी अपनी समझ अनुसार या प्रेमवश अलग अलग नामों से पुकारते हैं । लेकिन मैं यहाँ बाकी नामों को छोडकर ये जानना चाहती हूँ कि परमात्मा को - अनन्त.. असीम या बेअन्त.. क्युँ बोला जाता है । इसको स्पष्ट करे ।
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अनंत - जिसका कोई अंत न हो । असीम - जिसकी कोई सीमा न हो । बेअंत - जिसका कोई अंत न हो । जाहिर है । ये उसकी खोज करने वालों ने कहा है । पर जानने वालों ने उसको जाना भी है । जिसमें हाल के लोगों ( शिष्यों ) में मीरा जी और विवेकानन्द जी का नाम प्रमाणित है । मेरे कहने का अर्थ है । ये महिमा जानी जा सकती है । पर इसको जानने वाला कोई बिरला ही होता है । जो कुछ है । वही है । और जो कुछ है । उसी से है । अन्य कोई नहीं है । इससे भी ऐसा कहा गया है ।
मैंने 1 बार पढा था कि - ग्यान तो असीम है । अनन्त है ।  ये कौन सा और कैसा ग्यान है ? ये इशारा किस ग्यान की तरफ़ है ? जिसको असीम और अनन्त कहा गया ।
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वैसे 14 कोटि ( करोङ ) ग्यान कहा गया है । पर असीम अनन्त अपनी सामर्थ्य अनुसार खोजियों ने कहा है । जब हर चीज एक नियम आदेश में बँधी है । एक सख्त आर्डर के तहत पूरी व्यवस्था स्वचालित ढंग से कार्य कर रही है । तो जाहिर है । इसके संचालक भी हैं । अब आप परमात्मा को संचालक मानों । तो ये बेहद गलत है । वह तो

सिर्फ़ साहिब है । उसे किसी से कुछ भी लेना देना नहीं हैं । जबकि सब कुछ उसी से है ।
परमात्मा को परम प्रकाश भी बोला जाता है । यहाँ न तो परमात्मा को रोशनी बोला गया । और न ही प्रकाश । बल्कि उसे परम प्रकाश बोला गया । इसके बारे में भी कुछ समझाये ।
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सिर्फ़ कुंडलिनी या सहज योग द्वारा ज्यों ज्यों जीवात्मा दिव्यता की ऊँचाई पर बढती है । तब आत्मा का प्रकाश स्थिति के अनुसार अलग अलग होता है । परमात्मा स्थिति पर परम प्रकाश देखा जाता है । परम का सही अर्थ सबसे परे है ।
ये महाजीवन या परमजीवन क्या होता है ?
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महाजीवन यानी बृह्मांड के वे क्षेत्र जहाँ आयु लाख वर्षों में है । अलग अलग प्रकार की महा आत्माओं का निवास स्थान । ऐसे क्षेत्र एक दो नहीं । बहुत से हैं । परम जीवन शब्द हो सकता है । किसी ने अग्यान से । या किसी ने भाव से जोङ दिया हो । लेकिन परम में जीवन नहीं होता । वह तो आनन्द की अमर स्थिति है । सदा ही है । इसलिये उसके लिये " जीवन " शब्द का प्रयोग करना ग्यान दृष्टि से उचित नहीं है ।
मैं आपसे कुछ पंक्तियों की भी व्याख्या जानना चाहती हूँ । मैंने 1 जगह पढा था कि - 1 नूर से सब जग उपजा । या शायद लिखा था कि 1 बिन्द से सब जग उपजा । इसका अर्थ भी समझायें ।
ये सभी सृष्टि नूर यानी प्रकाश से बनी है । इसलिये ऐसा कहा है । इसी विषय के नाद बिंद ग्यान पर एक बङा लेख कुछ समय बाद पढने हेतु थोङा इंतजार करिये ।
1 और पंक्ति मैंने पढी थी कि - तू जोत स्वरूप है । अपना मूल पहचान । प्लीज इसका अर्थ भी समझायें ।
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ये वैसे काल ग्यान है । अक्षर यानी ज्योति पर ही सब योनियों के शरीर बनते हैं । पर यह ही अंतिम सत्य नहीं है ।

ज्योति को जानने वालों को मुक्त वियोगी कहा गया है । अतः ये बात स्थिति के अनुसार ही कही गयी है । पर अक्षर को आंतरिक रूप से योग द्वारा जान लेना भी बहुत बङी बात है । लेकिन सन्त मत में इसका कोई महत्व नहीं है । इससे आत्मा काल के दायरे में ही रहती है ।

मैं आपसे कबीर जी कि इन पंक्तियों का भी अर्थ जानना चाहती हूँ - जिस मरने से जग डरे । मुझको मिले आनन्द । मरने ही से पाईये । पूर्ण परमानन्द । इन पंक्तियों में कबीर जी का इशारा क्या है ? क्युँ कि अक्सर लोग तो मरने से डरते हैं । मौत ही संसार का सबसे बडा दुख माना जाता है । अक्सर समाज । दुनियाँ और लोगों के अनुसार मौत के साथ जिन्दगी समाप्त यानि सब समाप्त समझा जाता है । लेकिन कबीर कह रहे है कि - उन्हें तो मौत के बाद ही असली आनन्द की प्राप्ति होगी । इस बात को जरूर समझायें ।
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कबीर शरीर की मौत के बाद के लिये नहीं कह रहे । दरअसल ध्यान या समाधि की क्रिया और मनुष्य की मौत की क्रिया बिलकुल एक समान है । दोनों में ही चेतना सभी पिंडी स्थानों से सिमटकर किसी स्थान के लिये गमन करती है । पर साधारण इंसान के लिये जहाँ ये परवशता की स्थिति है । क्योंकि वो तो मरने के बाद दुर्दशा को प्राप्त होता है । जबकि संत खंड बृह्मांड आदि में घूम घाम कर वापस शरीर में आ जाता है । वह अपनी मर्जी का मालिक होता है । जीव के लिये जीवन में एक ही बार होने वाली ये अत्यन्त कष्टदायक स्थिति है । पर किसी सच्चे संत के लिये ये रोज रोज होने वाली अति आनन्द की स्थिति । इसी लिये कबीर साहब ने ऐसा कहा है । सिर्फ़ दो महीने पुराने हमारे चंडीगढ के साधक कुलदीप जी अत्यन्त व्यस्त जीवन के बाद सहज ही ये स्थिति अनुभव कर रहे हैं ।

राजीव जी ! गीता में कृष्ण जी अर्जुन से कह रहे थे कि - आत्मा की यात्रा तो अनन्त है । और इसकी यात्रा के केवल 1 बिन्दु पर शरीर पीछे छूट जाता है । यहाँ पर आप कृष्ण जी की कही इस बात को अपने शब्दों में मेरे को समझायें । साथ में ये भी बतायें कि - आत्मा को भी अनन्त ही बोला जाता है । क्या हर आत्मा अनन्त है ?
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वैसे आप सीता गीता की बात दिमाग से निकाल ही दो । तो ज्यादा अच्छा है । श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा था । तू युद्ध कर । तुझे स्वर्ग प्राप्त होगा । पुण्य होगा । तेरी कीर्ति होगी । धरती का ऐश्वर्य पूर्ण राज्य भोगेगा । ऐसा

कहकर उससे बेचारे से युद्ध करवा लिया । बाद में कहा - युद्ध की हत्याओं से तुम्हें पाप लगा है । अतः यग्य करो । स्वर्ग तो क्या प्राप्त होता । अंतिम समय दाह संस्कार वाले भी नसीव नहीं हुये । खुद को तीरंदाज समझता था । भीलों ने घेर घेर कर मारा । और श्रीकृष्ण के खानदान की बची स्त्रियों को छीन ले गये । श्रीकृष्ण जो उस समय बहेलिये के तीर से मरणासन्न अवस्था में थे । ऐसी हालत होने पर वहाँ गुस्से में सब भाई पहुँचे ।
तब श्रीकृष्ण ने कहा - भाई ! अंत समय झूठ नहीं बोलूँगा । वो मैं नहीं था । उसको कराने वाला ( काल निरंजन ) कोई और ही था । इसलिये ये सीता गीता का डबल रोल में टाइम वेस्ट न करो । वही अच्छा है ।
वैसे श्रीकृष्ण से ये पूछो - आत्मा अचल है । फ़िर यात्रा कैसे हो सकती है ?

कृष्ण जी ने ये भी अर्जुन से कहा था कि - ऐसा समय कभी नहीं था । जब तुम नहीं थे । या मैं नहीं था । या ये सब लोग नहीं थे । और न ही ऐसा समय कभी होगा । जब तुम नहीं होगे । या मैं नहीं होऊँगा । या ये सब लोग नहीं होगे । हम थे भी । हैं भी । और होंगे भी ।  उन्होंने ये भी कहा था कि - आत्मा काल के दोनों तटों पर भी है । और काल के परे भी ।
ऐसी ही चटपटी बातें कर करके तो श्रीकृष्ण फ़ोकट का मक्खन खाते थे । लेकिन यहाँ सही बात कही है । ये बात आत्मा के लिये है । जीवन के लिये नहीं । मैं अपने सभी सिख भाईयों से निवेदन करूँगा कि श्री गुरु ग्रुँथ साहिब के रूप में आपके पास सबसे सर्वश्रेष्ठ और अनमोल ग्यान हैं । अतः आप सीता गीता रामायण महाभारत के चक्कर में न आयें । गृंथ साहिब में भी आप यदि सभी वाणियों के चक्कर में न पङकर कबीर और नानक साहब की वाणी ही सही रूप में समझ लें । तो इतने से ही आपका कल्याण हो जायेगा । जहाँ समझ ना आये । और प्रक्टीकल की बात हो । वहाँ ये आल इन वन राजीव बाबा है ही ।

राजीव जी ! क्या वाकई आत्मा यानि हमारा असली स्वरूप हमेशा अमर है । जिसका कभी नाश नहीं हो सकता । आत्मा ( यानि हमारा ) मुख्य निवास स्थान इस स्थूल शरीर में कहाँ पर होता है । क्या दोनों भौहों के बिल्कुल बीच अन्दर की तरफ़ ?
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अरे वाकई नवरूप जी ! आत्मा अमर ही है । आप जब चाहो । इसको देख सकती हो । ठीक उसी तरह । जैसे दर्पण

में खुद को देखते हैं । और इसको मजाक न मानकर सीरियस ही मानना । लेकिन अभी आपको इससे ज्यादा बताना ठीक नहीं है । आपकी नयी नयी शादी हुयी है । आप कहीं ज्यादा ग्यान से साधु सन्त बन गयीं । तो आपके देव पति मुझे गाली और देंगे ।

क्या आत्मा की चेतना ही पूरे शरीर ( पैरों के तलवों तक ) में फ़ैली होती है । जिस कारण हमारे शरीर में हलचल होती है । क्युँ कि देखा जाये तो अगर किसी जिन्दा शरीर ( जिसमें आत्मा है ) को चुटकी भी काटो । तो उसे पीडा महसूस होती है । लेकिन अगर किसी मुर्दा शरीर ( जिसमें आत्मा नहीं है ) काट भी दो । उसे पता ही नहीं चलता । वो तो किसी जड पदार्थ की तरह पडा रहता है । प्लीज इसको भी समझायें ।
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शरीर में क्या आपको जहाँ भी चेतना नजर आती है । वह आत्मा की चेतना ही होती है । क्योंकि चेतन गुण सिर्फ़ आत्मा में ही है ।
राजीव जी ! मैंने 1 बार किसी आत्म ग्यानी सन्त की वाणी में पढा था कि - मुझे होश ही नहीं था अपना । जब मैं जागा होश आया । अपनी असलियत को जब जाना । तब पाया कि मैं बादशाह होते हुये भी सपने में 1 भिखारी की जिन्दगी जी रहा था । इस बात को ठीक से अब आप ही सरल शब्दो में समझा सकते हैं ।
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ये जीव आत्मा अग्यान निद्रा में बेहोशी की स्थिति में जगत रूपी सपने को देख रहा है । मनुष्य शरीर में यदि यह अपना आत्मा रूपी पहचान ग्यान प्राप्त कर ले । तो बादशाह हो सकता है । जबकि अभी ये तुलनात्मक रूप से तुच्छ शक्तियों के अधीन होकर दुर्दशा को प्राप्त हुआ है । लेख बङा हो गया । आगे याद दिलाने पर इस सुन्दर सूत्र पर विस्त्रत रूप से लिखूँगा ।
राजीव जी ! 1 तो सच और झूठ होता है । लेकिन ये तो संसारी होता है । शायद वास्तव में दोनों को गहराई से देखा जाये । तो असत्य ही है । लेकिन आप मुझे बतायें कि - सत्य । महासत्य और परमसत्य क्या है ?
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सत्य - राजीव बाबा । महासत्य - महा राजीव बाबा । परम सत्य - परम राजीव बाबा ।
शाश्वत सत्य यानी परम सत्य - परमात्मा । इसमें कोई परिवर्तन नहीं होता । महासत्य - बृह्म और बृह्मांडी स्थितियाँ और लोक या स्थान । क्योंकि महा यानी एक बङे समय बाद इनकी प्रत्येक चीज में चेंज हो जाता है । और सत्य - ये कि तुम हमेशा रहते हो ।
मैंने आपके ब्लाग में  पढा है । और लोगों से भी सुना है कि - हम सब 1 परमात्मा की संतान हैं । यहाँ पर संतान का इशारा किसकी तरफ़ है । शरीर की तरफ़ । या आत्मा । या जीवात्मा की तरफ़ ?
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ये इशारा आत्मा की तरफ़ है । जब उसमें जीव भाव जुङ जाता है । तब वह जीवात्मा हो जाता है ।
राजीव जी ! अब अन्त में मैं आपसे " श्री गुरुनानक देव जी " की वाणी की कुछ पंक्तियों के अर्थ जानना चाहती हूँ । वो पंक्तियाँ ये हैं - नानक नाम जहाज है । चढे सो उतरे पार । जो चढदा चढदा रह गया । उसका भी बेडा पार
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इन पंक्तियों के अर्थ से पहले मैं आपको 5 वें गुरु अर्जुन देव जी के बारे में बता दूँ । इनका एक बहुत बूढा और लगभग अँधा मगर पूर्ण समर्पित शिष्य था । गुरु जी ने इस बेहद गरीब इंसान का झोंपङा और यहाँ तक लङकी और पत्नी को ( बिकबा दिया ) गुलामी में लगवा दिया था । और इसे सतसंग या ग्यान आदि सुनने के लिये कभी ढंग से बैठने भी नहीं दिया ।
इसके लिये आदेश था कि गुरुजी के लिये सुबह स्नान हेतु गंगा से पानी लाये । तब यह उल्टा चलता हुआ ( लगभग 3 किमी एक तरफ़ से सुना है ) गंगा से पानी लाता था । क्योंकि यदि जाते समय सीधा चलता । तो गुरु की तरफ़ पीठ हो जाती । ऐसे ही एक दिन अँधेरे में ठोकर खाकर यह धोबी की नाँद में गिर पङा ।
तब अचानक सतसंग करते अर्जुन देव जी उठकर भागे गये । और इसे उठाकर सीने से लगाते हुये कहा - आज तेरी गुरु भक्ति पूरी हुयी । तू जीवों का नाम जहाज ( उसको उपाधि दी गयी ) होगा । इसे कहते हैं गुरु भक्ति । ये प्रेरक घटना बहुत रोचक और शिक्षाप्रद है । आपको कहीं मिले । तो अवश्य पढें ।
वास्तव में इंसान की स्वांस चेतनधारा में नाम स्वतः गूँज रहा है । सच्चे संत इसको जागृत कर देते हैं । तब इसी नाम जहाज में बैठने ( रमण करने से ) से साधक शिष्य विभिन्न यात्रायें अनुभव आदि करता है । ये नाम रूपी ध्वनि जीव भाव जीते जीते स्थूल हो गयी है । ध्यान से ये सूक्ष्म हो जाती है । जो साधक स्वयँ को जितना सूक्ष्म कर लेता है । उसकी गति का विस्तार और तमाम लोकों में पहुँच उसी सूक्ष्मता के अनुपात से बढती है ।
लेकिन जो नाम कमाई द्वारा एक जीवन में ऐसा नहीं कर पाते । नियमानुसार गुरु उससे अगले जन्मों में उसे पार करा देते हैं । क्योंकि सच्चे अधिकारी गुरु और सच्चा नाम मिलने पर मनुष्य जीवन ही मिलता है ।
इसलिये - जो चढदा चढदा रह गया । उसका भी बेडा पार ।

राजीव जी ! मैं सच्ची बडी खुशी और उम्मीद से आपके पास ये सब प्रश्न लेकर आयी हूँ । आप अपने उचित समय अनुसार जब भी हो सके । मेरे इन सभी प्रश्नों को एक साथ किसी अच्छे से लेख में उत्तर दे दें ।
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बस हो सके । तो अगली बार मेरी एक बात का जबाब अवश्य देना । रूप कौर जी की कितनी बहनें और हैं ? ओ माय गाड ! व्हेयर आर यू ।
मजाक में कह रहा हूँ । सच मत मान लेना । सत श्री अकाल । सतनाम वाहिगुरु ।