31 मई 2011

काल निरंजन का धोखा

तब धर्मदास बोले - हे साहिब ! यह रहस्य तो मैंने जान लिया । अब आगे का रहस्य बताओ । आगे क्या हुआ ?
कबीर साहब बोले - अष्टांगी ने विष्णु को प्यार किया । और कहा । मेरे बङे पुत्र बृह्मा ने तो व्यभिचार और झूठ से अपनी मान मर्यादा खो दी । हे पुत्र विष्णु ! अब सब देवताओं में तुम्ही ईश्वर होगे । सब देवता तुम्ही को श्रेष्ठ मानेंगे । और तुम्हारी पूजा करेंगे ।  जिसकी इच्छा तुम मन में करोगे । वह कार्य मैं पूरा करूँगी ।
फ़िर अष्टांगी शंकर के पास गयीं । और बोली - हे शिव ! तुम मुझसे अपने मन की बात कहो । तुम जो चाहते हो वह मुझसे मांगो । अपने दोनों पुत्रों को तो मैंने उनके कर्मानुसार दे दिया है ।
तब शंकर जी ने हाथ जोङकर कहा - हे माता ! जैसा तुमने कहा । वह मुझे दीजिये । मेरा यह शरीर कभी नष्ट न हो । ऐसा वर दीजिये ।
अष्टांगी ने कहा - ऐसा नहीं हो सकता । क्योंकि आदि पुरुष के अलावा कोई दूसरा अमर नहीं हुआ । तुम प्रेमपूर्वक प्राण पवन का योग संयम करके योग तप करो । तो चार युग तक तुम्हारी देह बनी रहेगी । तब जहाँ तक प्रथ्वी आकाश होगा । तुम्हारी देह कभी नष्ट नहीं होगी ।
विष्णु और महेश ऐसा वर पाकर बहुत प्रसन्न हुये । पर बृह्मा बहुत उदास हुये । तब वह विष्णु के पास पहुँचे । और बोले - हे भाई ! माता के वरदान से तुम देवताओं में प्रमुख और श्रेष्ठ हो । माता तुम पर दयालु हुयी । पर मैं उदास हूँ । अब मैं माता को क्या दोष दूँ । यह सब मेरी ही करनी का फ़ल है । तुम कोई ऐसा उपाय करो । जिससे मेरा वंश भी चले । और माता का शाप भी भंग न हो ।

तब विष्णु बोले - हे भाई बृह्मा !  तुम मन का भय और दुख त्याग दो कि माता ने मुझे श्रेष्ठ पद दिया है । मैं सदा तुम्हारे साथ तुम्हारी सेवा करूँगा । तुम बङे हो । और मैं छोटा हूँ । अतः तुम्हारा मान सम्मान बराबर करूँगा । जो कोई मेरा भक्त होगा । वह तुम्हारे भी वंश की सेवा करेगा ।
हे भाई ! मैं संसार में ऐसा मत विश्वास बना दूँगा कि जो कोई पुण्य फ़ल की आशा करता हो । और उसके लिये वह जो भी यग्य धर्म पूजा वृत आदि जो भी कार्य करता हो । वह बिना ब्राह्मण के नहीं होंगे । जो ब्राह्मणों की सेवा करेगा । उस पर महापुण्य का प्रभाव होगा । वह जीव मुझे बहुत प्यारा होगा । और मैं उसे अपने समान बैकुंठ में रखूँगा ।
यह सुनकर बृह्मा बहुत प्रसन्न हुये । विष्णु ने उनके मन की चिंता मिटा दी । बृह्मा ने कहा । मेरी भी यही चाह थी कि मेरा वंश सुखी हो ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! काल निरंजन के फ़ैलाये जाल का विस्तार देखो । उसने खानी वाणी के मोह से मोहित कर सारे संसार को ठग लिया । और सब इसके चक्कर में पङकर अपने आप ही इसके बंधन में बँध गये । तथा परमात्मा को । स्वयँ को । अपने कल्याण को भूल ही गये । यह काल निरंजन विभिन्न सुख भोग आदि तथा स्वर्ग आदि का लालच देकर सब जीवों को भरमाता है । और उनसे भांति भांति के कर्म करवाता है । फ़िर उन्हें जन्म मरण के झूले में झुलाता हुआ बहु भांति कष्ट देता है ।
** खानी और वाणी बँधन क्या है - स्त्री । पति । पुत्र । पुत्री । परिवार । धन संपत्ति आदि को ही सब कुछ मानना खानी बँधन है । तथा भूत । प्रेत । स्वर्ग । नरक । मान । अपमान आदि कल्पनायें करते हुये विभिन्न चिंतन करना वाणी का बंधन है । क्योंकि मन इन दोनों जगह ही जीव को अटकाये रखता है ।
सन्तमत में खानी बंधन को मोटी माया और वाणी बंधन को झीनी माया कहते हैं । बिना ग्यान के इन बंधनों से छूट पाना जीव के लिये बेहद कठिन होता है ।
खानी बंधन के अंतर्गत मोटी माया को त्याग करते तो बहुत लोग देखे गये हैं । आज भी करते हैं । परन्तु झीनी माया का त्याग विरले ही कर पाते हैं ।
- मोटी माया सब तजें । झीनी तजी न जाय । मान बङाई ईर्ष्या । फ़िर लख चौरासी 84 लाये ।
कामना वासना रूपी झीनी माया का बंधन बहुत ही जटिल है । इसने सभी को भृम में फ़ँसा रखा है । इसके जाल में फ़ँसा कभी स्थिर नहीं हो पाता । अतः यह काल निरंजन सब जीवों को अपने जाल में फ़ँसाकर बहुत सताता है ।
राजा बलि । हरिश्चन्द्र । वेणु । विरोचन । कर्ण । युधिष्ठर आदि और भी प्रथ्वी के प्राणियों का हित चिंतन करने वाले कितने त्यागी और दानी राजा हुये । इनको काल निरंजन ने किस देश में ले जाकर रखा ?? यानी ये सब भी काल के गाल में ही समा गये । काल निरंजन ने इन सभी राजाओं की जो दुर्दशा की । वह सारा संसार ही जानता है कि ये सब वेवश होकर काल के अधीन थे ।
संसार जानता है कि काल निरंजन से अलग न हो पाने के कारण उनके ह्रदय की शुद्धि नहीं हुयी । काल निरंजन बहुत प्रबल है । उसने सबकी बुद्धि हर ली है । ये काल निरंजन अभिमानी मन हुआ जीवों की देह के भीतर ही रहता है । उसके प्रभाव में आकर जीव मन की तरंग में विषय वासना में भूला रहता है । जिससे वह अपने कल्याण के साधन नहीं कर पाता । तब ये अग्यानी भृमित जीव अपने घर अमरलोक की तरफ़ पलटकर भी नहीं देखता । और सत्य से सदा अंजान ही रहता है ।
धर्मदास बोले - हे साहिब ! आपकी कृपा से मैंने यम यानी काल निरंजन का धोखा तो पहचान लिया है । अब आप बताओ कि गायत्री के शाप का आगे क्या हुआ ?
कबीर साहब बोले - हे प्रिय धर्मदास सुनो । मैं तुम्हारे सामने अगम ( जहाँ पहुँचना या जानना असंभव जैसा हो ) ग्यान कहता हूँ । गायत्री ने अष्टांगी द्वारा दिया हुआ शाप स्वीकार तो कर लिया । पर उसने भी पलटकर अष्टांगी माता को शाप दिया कि हे माता ! मनुष्य जन्म में जब मैं पाँच पुरुषों की पत्नी बनूँ । तो उन पुरुषों की माता तुम बनो ।
उस समय तुम बिना पुरुष के ही पुत्र उत्पन्न करोगी । और इस बात को संसार जानेगा । आगे द्वापर युग आने पर दोनों ने गायत्री ने द्रोपदी और अष्टांगी ने कुन्ती के रूप में देह धारण की । और एक दूसरे के शाप का फ़ल भुगता ।
जब यह शाप और उसका झगङा समाप्त हो गया । तब फ़िर से जगत की रचना हुयी । बृह्मा विष्णु महेश और अष्टांगी इन चारों ने अण्डज पिण्डज ऊष्मज और स्थावर इन चार खानियों को उत्पन्न किया । फ़िर 4 खानियों के अंतर्गत भिन्न भिन्न स्वभाव की 84 लाख योनियाँ उत्पन्न की ।
सबसे पहले अष्टांगी ने अण्डज - यानी अंडे से उत्पन्न होने वाले जीव खानि की रचना की । बृह्मा ने पिण्डज - यानी शरीर के अन्दर गर्भ से उत्पन्न होने वाले जीव खानि की  रचना की । विष्णु ने ऊष्मज - यानी मैल । पसीना । पानी आदि से उत्पन्न होने वाले जीव खानि की रचना की । शंकर ने स्थावर - यानी वृक्ष । जङ । पहाङ । घास । बेल आदि जीव खानि की रचना की । इस तरह से चारों खानियों को इन चारों ने रच दिया । और उसमें जीव को बँधन में डाल दिया ।
फ़िर प्रथ्वी पर खेती आदि होने लगी । तथा समयानुसार लोग कारण करण और कर्ता को समझने लगे । इस प्रकार चार खानों की चौरासी का विस्तार हो गया । इन चार खानियों को बोलने के लिये चार प्रकार की वाणी दी गयी । बृह्मा विष्णु महेश और अष्टांगी द्वारा सृष्टि रचना होने के कारण जीव उन्हीं को सब कुछ समझने लगे । और सत्यपुरुष की तरफ़ से भूले रहे ।

30 मई 2011

अष्टांगी का बृह्मा गायत्री और पुहुपावती को शाप देना

अष्टांगी को ये जानकर बेहद आश्चर्य हुआ कि बृह्मा ने निरंजन के दर्शन पा लिये हैं । जबकि अलख निरंजन ने तो ऐसी प्रतिग्या कर रखी है कि उसे कोई आँखों से देख नहीं पायेगा । फ़िर ये तीनों लबारी झूटे कपटी कैसे कहते हैं कि उन्होंने निरंजन को देखा है । तब उसी क्षण अष्टांगी ने ध्यान किया ।
इस पर निरंजन उसके ध्यान में बोला - मुझे सत्य बताओ ।
फ़िर निरंजन ने कहा - बृह्मा ने मेरा दर्शन नहीं पाया । उसने तुम्हारे पास आकर झूठी गवाही दिलवायी । उन तीनों ने झूठ बनाकर सब कहा है । वह सब मत मानों । वह झूठ है ।
अष्टांगी को यह सुनकर बहुत क्रोध आया । और उन्होंने बृह्मा को शाप दिया - हे बृह्मा ! तुमने मुझसे आकर झूठ बोला । अतः कोई तुम्हारी पूजा नहीं करेगा । एक तो तुम झूठ बोले । और दूसरे तुमने न करने योग्य कर्म यानी दुष्कर्म करके बहुत बङा पाप अपने सिर ले लिया है ।
आगे जो भी तुम्हारी शाखा संतति होगी । वह बहुत झूठ और पाप करेगी । तुम्हारी संतति ( बृह्मा के वंश अथवा बृह्मा के नाम से पुकारे जाने वाले ब्राह्मण ) प्रकट में तो बहुत नियम धर्म वृत उपवास पूजा शुचि आदि करेंगे । परन्तु उनके मन में भीतर पाप मैल का विस्तार रहेगा । वे तुम्हारी संतान विष्णु भक्तों से अहंकार करेंगी । इसलिये नरक को प्राप्त होंगी । तुम्हारे वंश वाले पुराणों की धर्म कथाओं को लोगों को समझायेंगे । परन्तु स्वयँ उसका आचरण न करके दुख पायेंगे । उनसे जो और लोग ग्यान की बात सुनेंगे । उसके अनुसार वे भक्ति कर सत्य को बतायेंगे । ब्राह्मण परमात्मा का ग्यान और भक्ति को छोङकर दूसरे देवताओं को ईश्वर का अंश बताकर उनकी भक्ति पूजा करायेंगे । औरों की निंदा करके विकराल काल के मुँह में जायेंगे ।
अनेक देवी देवताओं की बहुत प्रकार से पूजा करके यजमानों से दक्षिणा लेंगे । और दक्षिणा के कारण पशु बलि में पशुओं का गला कटवायेंगे । या दक्षिणा के लालच में यजमानों को बेबकूफ़ बनायेंगे । फ़िर वे जिसको शिष्य बनायेंगे । उसे भी परमार्थ या कल्याण का रास्ता नहीं दिखायेंगे । परमार्थ के तो वे पास भी नहीं जायेंगे । परन्तु स्वार्थ के लिये वे सबको अपनी बात समझायेंगे । वे आप स्वार्थी होकर सबको अपनी स्वार्थ सिद्ध का ग्यान सुनायेंगे । और संसार में अपनी सेवा पूजा मजबूत करेंगे । अपने आपको ऊँचा और औरों को छोटा कहेंगे । इस प्रकार हे बृह्मा ! तेरे वंशज तेरे ही जैसे झूठे और कपटी होंगे ।
अष्टांगी का ऐसा शाप सुनकर बृह्मा मूर्छित होकर गिर पङे ।

फ़िर अष्टांगी ने गायत्री को शाप दिया - हे गायत्री ! बृह्मा के साथ कामभावना से हो जाने से मनुष्य जन्म में तेरे पाँच पति होंगे । हे गायत्री ! तेरे गाय रूपी शरीर में वैल पति होंगे । और वे सात पाँच से भी अधिक होंगे । पशु योनि में तू गाय बनकर जन्म लेगी । और न खाने योग्य पदार्थ खायेगी । तुमने अपने स्वार्थ के लिये मुझसे झूठ बोला । और झूठे वचन कहे । क्या सोचकर तुमने झूठी गवाही दी ?
गायत्री ने अपनी गलती मानकर शाप को स्वीकार कर लिया । इसके बाद अष्टांगी ने सावित्री की ओर देखा । और बोली - तुमने अपना नाम तो सुन्दर पुहुपावती रखवा लिया । परन्तु झूठ बोलकर तुमने अपने जन्म का नाश कर लिया ।  हे पुहुपावती ! सुन । तुम्हारे विश्वास पर । तुमसे कोई आशा रखकर कोई तुम्हें नहीं पूजेगा । अब दुर्गंध के स्थान पर तुम्हारा वास होगा । काम विषय की आशा लेकर अब नरक की यातना भोगो । जान बूझकर जो तुम्हें सींचकर लगायेगा । उसके वंश की हानि होगी । अब तुम जाओ । और वृक्ष बनकर जन्मों । तुम्हारा नाम केवङा केतकी होगा ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! माता अष्टांगी के शाप के कारण तीनों बृह्मा गायत्री और सावित्री बहुत दुखी हो गये । अपने पापकर्म से वे बुद्धिहीन और दुर्बल हो गये । काम विषय में प्रवृत कराने वाली कामिनी स्त्री काल रूप काम ( वासना की इच्छा ) की अति तीवृ कला है । इसने सबको अपने शरीर के सुन्दर चर्म से डसा है । शंकर बृह्मा सनकादि और नारद जैसे कोई भी इससे बच नहीं पाये ।
हे धर्मदास ! इससे कोई बिरला ही सन्त साधक बच पाता है । जो सदगुरु के सत्य शब्दों को भली प्रकार अपनाता है । सदगुरु के शब्द प्रताप से ये काल कला मनुष्य को नहीं व्यापती । अर्थात कोई हानि नहीं करती । जो कल्याण की इच्छा रखने वाला भक्त मन वचन कर्म से सतगुरु के श्री चरणों की शरण गृहण करता है ।  पाप उसके पास नहीं आता ।
कबीर साहब आगे बोले - हे धर्मदास ! बृह्मा विष्णु महेश तीनों को शाप देने के बाद अष्टांगी माता मन में पछताने लगी । उसने सोचा । शाप देते समय मुझे बिलकुल दया नहीं आयी । अब न जाने निरंजन मेरे साथ कैसा व्यवहार करेगा ?

उसी समय आकाशवाणी हुयी - हे भवानी ! तुमने यह क्या किया ? मैंने तो तुम्हें सृष्टि की रचना के लिये भेजा था । परन्तु तुमने शाप देकर यह कैसा चरित्र किया ? हे भवानी ! ऊँचा और बलबान ही निर्बल को सताता है । और यह निश्चित है कि वह इसके बदले दुख पाता है । इसलिये जब द्वापर युग आयेगा । तब तुम्हारे भी पाँच पति होंगे ।
जब भवानी ने अपने शाप के बदले निरंजन का शाप सुना । तो मन में सोच विचार किया । पर मुँह से कुछ न बोली । वह सोचने लगी - मैंने बदले में शाप पाया । हे निरंजन राव ! मैं तो तेरे वश में हूँ । जैसा चाहो । व्यवहार करो ।
फ़िर अष्टांगी ने विष्णु को दुलारते हुये कहा - हे पुत्र ! तुम मेरी बात सुनो । सच सच बताओ । जब तुम पिता के चरण स्पर्श करने गये । तब क्या हुआ ? पहले तो तुम्हारा शरीर गोरा था । तुम श्याम रंग कैसे हो गये ?
विष्णु ने कहा - हे माता ! पिता के दर्शन हेतु जब मैं पाताललोक पहुँचा । तो शेषनाग के पास पहुँच गया । वहां उसके विष के तेज से मैं सुस्त ( अचेत सा ) हो गया । मेरे शरीर में उसके विष का तेज समा गया । जिससे वह श्याम हो गया ।
तब एक आवाज हुयी - हे विष्णु ! तुम माता के पास लौट जाओ । यह मेरा सत्य वचन है कि जैसे ही सतयुग त्रेतायुग बीत जायेंगे । तब द्वापर में तुम्हारा कृष्ण अवतार होगा । उस समय तुम शेषनाग से अपना बदला लोगे । तब तुम यमुना नदी पर जाकर नाग का मान मर्दन करोगे । यह मेरा नियम है कि जो भी ऊँचा नीचे वाले को सताता है । उसका बदला वह मुझसे पाता है । जो जीव दूसरे को दुख देता है । उसे मैं दुख देता हूँ । हे माता ! उस आवाज को सुनकर मैं तुम्हारे पास आ गया । यही सत्य है । मुझे पिता के श्री चरण नहीं मिले ।
भवानी यह सुनकर प्रसन्न हो गयी । और बोली - हे पुत्र सुनो ! मैं तुम्हें तुम्हारे पिता से मिलाती हूँ । और तुम्हारे मन का भृम मिटाती हूँ । पहले तुम बाहर की स्थूल दृष्टि ( शरीर की आँखें ) छोङकर । भीतर की ग्यान दृष्टि ( अन्तर की आँख । तीसरी आँख  ) से देखो । और अपने ह्रदय में मेरा वचन परखो ।
स्थूल देह के भीतर सूक्ष्म मन के स्वरूप को ही कर्ता समझो । मन के अलावा दूसरा और किसी को कर्ता न मानों ।

यह मन बहुत ही चंचल और गतिशील है । यह क्षण भर में स्वर्ग पाताल की दौङ लगाता है । और स्वछन्द होकर सब ओर विचरता है । मन एक क्षण में अनन्त कला दिखाता है । और इस मन को कोई नहीं देख पाता । मन को ही निराकार कहो । मन के ही सहारे दिन रात रहो ।
हे विष्णु ! बाहरी दुनियाँ से ध्यान हटाकर अंतर्मुखी हो जाओ । और अपनी सुरति और दृष्टि को पलटकर भृकुटि के मध्य ( भोहों के बीच आग्या चक्र ) पर या ह्रदय के शून्य में ज्योति को देखो । जहाँ ज्योति झिलमिल झालर सी प्रकाशित होती है ।
तब विष्णु ने अपनी स्वांस को घुमाकर भीतर आकाश की ओर दौङाया । और ( अंतर ) आकाश मार्ग में ध्यान लगाया । विष्णु ने ह्रदय गुफ़ा में प्रवेश कर ध्यान लगाया । ध्यान प्रकिया में विष्णु ने पहले स्वांस का संयम प्राणायाम से किया । कुम्भक में जब उन्होंने स्वांस को रोका । तो प्राण ऊपर उठकर ध्यान के केन्द्र शून्य 0 में आया । वहाँ विष्णु को अनहद नाद की गर्जना सुनाई दी । यह अनहद बाजा सुनते हुये विष्णु प्रसन्न हो गये । तब मन ने उन्हें सफ़ेद लाल काला पीला आदि रंगीन प्रकाश दिखाया ।
हे धर्मदास ! इसके बाद विष्णु को ..मन ने अपने आपको दिखाया । और ज्योति प्रकाश किया । जिसे देखकर वह प्रसन्न हो गये । और बोले - हे माता ! आपकी कृपा से आज मैंने ईश्वर को देखा ।
तब धर्मदास चौंककर बोले - हे सदगुरु कबीर साहब !  यह सुनकर मेरे भीतर एक भृम उत्पन्न हुआ है । अष्टांगी कन्या ने जो मन का ध्यान ? बताया । इससे तो समस्त जीव भरमा गये हैं ? यानी भृम में पङ गये हैं ?? ( इस बात पर विशेष गौर करें )
तब कबीर साहिब बोले - हे धर्मदास ! यह काल निरंजन का स्वभाव ही है कि इसके चक्कर में पङने से विष्णु सत्यपुरुष का भेद नहीं जान पाये । ( निरंजन ने अष्टांगी को पहले ही सचेत कर आदेश दे दिया था कि सत्यपुरुष का कोई भेद जानने न पाये । ऐसी माया फ़ैलाना  ) अब उस कामिनी अष्टांगी की यह चाल देखो कि उसने अमृतस्वरूप सत्यपुरुष को छुपाकर विष रूप काल निरंजन को दिखाया ।
जिस ज्योति का ध्यान अष्टांगी ने बताया । उस ज्योति से काल निरंजन को दूसरा न समझो । हे धर्मदास ! अब तुम यह विलक्षण गूढ सत्य सुनो । ज्योति का जैसा प्रकट रूप होता है । वैसा ही गुप्त रूप भी है । जो ह्रदय के भीतर है । वह ही बाहर देखने में भी आता है ।
जब कोई मनुष्य दीपक जलाता है । तो उस ज्योति के भाव स्वभाव को देखो । और निर्णय करो । उस ज्योति को देखकर पतंगा बहुत खुश होता है । और प्रेमवश अपना भला जानकर उसके पास आता है । लेकिन ज्योति को स्पर्श करते ही पतंगा भस्म हो जाता है । इस प्रकार अग्यानता में मतबाला हुआ वह पतंगा उसमें जल मरता है । ज्योति स्वरूप काल निरंजन भी ऐसा ही है । जो भी जीवात्मा उसके चक्कर में आ जाता है । क्रूर काल उसे छोङता नहीं ।
इस काल ने करोंङो विष्णु अवतारों को खाया । और अनेकों बृह्मा शंकर को खाया । तथा अपने इशारे पर नचाया । काल द्वारा दिये जाने वाले जीवों के कौन कौन से दुख को कहूँ ? वह लाखों जीव नित्य ही खाता है । ऐसा वह भयंकर काल निर्दयी है ।
तब धर्मदास बोले - हे साहिब ! मेरे मन में एक संशय है । अष्टांगी को सत्यपुरुष ने उत्पन्न किया था । और जिस प्रकार उत्पन्न किया । वह सब कथा मैंने जानी । काल निरंजन ने उसे भी खा लिया । फ़िर वह सत्यपुरुष के प्रताप से बाहर आयी ।
फ़िर उस अष्टांगी ने ऐसा धोखा क्यों किया कि काल निरंजन को तो प्रकट किया । और सत्यपुरुष का भेद गुप्त रखा ? यहाँ तक कि सत्यपुरुष का भेद उसने अपने पुत्रों बृह्मा विष्णु महेश को भी नहीं बताया । और उनसे भी काल निरंजन का ध्यान कराया । यह अष्टांगी ने कैसा चरित्र किया कि सत्यपुरुष को छोङकर काल निरंजन की साथी हो गयी । अर्थात जिन सत्यपुरुष का वह अंश थी । उसका ध्यान क्यों नहीं कराया ?
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास सुनो । नारी का स्वभाव जैसा होता है । वह अब तुम्हें बताता हूँ । जिसके घर में पुत्री होती है । वह अनेक जतन करके उसे पालता पोसता है । वह उसे पहनने को वस्त्र । खाने को भोजन । सोने को शैय्या । रहने को घर आदि सब सुख देता है । और घर बाहर सब जगह उस पर विश्वास करता है । उसके माता पिता उसके हित में यग्य आदि करा के विवाह करते हुये विधिपूर्वक उसे विदा करते हैं । माता पिता के घर से विदा होकर जब वह अपने पति के घर आ जाती है । तो उसके साथ सब गुणों में होकर प्रेम में इतनी मगन हो जाती है कि अपने माता पिता सबको भुला देती है ।
हे धर्मदास ! नारी का यही स्वभाव है । इसलिये नारी स्वभाववश अष्टांगी भी पराये स्वभाव वाली ही हो गयी । वह काल निरंजन के साथ होकर उसी की होकर रह गयी । और उसी के रंग में रंग गयी । इसीलिये उसने सत्यपुरुष का भेद प्रकट नहीं किया । और अपने पुत्र विष्णु को काल निरंजन का ही रूप दिखाया ।

29 मई 2011

बृह्मा और गायत्री का अष्टांगी से झूठ बोलना

इस प्रकार बहुत दिन बीत गये । तब अष्टांगी ने सोचा । मेरे गये हुये पुत्रों बृह्मा और विष्णु ने क्या किया । इसका कुछ पता नहीं लगा । वे अब तक लौटकर क्यों नहीं आये ।
तब सबसे पहले विष्णु लौटकर माता के पास आये । और बोले - पाताल में मुझे पिता के चरण तो नहीं मिले । उल्टे मेरा शरीर विष ज्वाला ( शेषनाग के प्रभाव से ) से श्यामल हो गया । हे माता ! जब मैं पिता निरंजन के दर्शन नहीं कर पाया । तो मैं व्याकुल हो गया । और फ़िर लौट आया । अष्टांगी यह सुनकर प्रसन्न हो गयी । और विष्णु को दुलारते हुये बोली - हे पुत्र ! तुमने निश्चय ही सत्य कहा है ।
उधर अपने पिता के दर्शनों के बेहद इच्छुक बृह्मा चलते चलते उस स्थान पर पहुँच गये । जहाँ न सूर्य था । न चन्द्रमा केवल शून्य 0 था । वहाँ बृह्मा ने अनेक प्रकार से निरंजन की स्तुति की । जहाँ ज्योति का प्रभाव था । वहाँ भी ध्यान लगाया । और ऐसा करते हुये बहुत दिन बीत गये । परन्तु बृह्मा को निरंजन के दर्शन नहीं हुये । शून्य 0  में ध्यान करते हुये बृह्मा को अब चार युग बीत गये ।
तब अष्टांगी को बहुत चिंता हुयी कि मैं बृह्मा के बिना किस प्रकार सृष्टि रचना करूँ ? और किस प्रकार उसे वापस लाऊँ ?
तब अष्टांगी ने एक युक्ति सोचते हुये अपने शरीर में उवटन लगाकर मैल निकाला । और उस मैल से एक पुत्री रूपी कन्या उत्पन्न की । उस कन्या में उन्होंने दिव्य शक्ति का अंश मिलाया । और इस कन्या का नाम गायत्री रखा ।
तब गायत्री उन्हें प्रणाम करती हुयी बोली - हे माता ! तुमने मुझे किस कार्य हेतु बनाया है ?  वह आग्या कीजिये ।
अष्टांगी बोली - हे पुत्री ! मेरी बात सुनो । बृह्मा तुम्हारा बङा भाई है । वह पिता के दर्शन हेतु शून्य 0 आकाश की ओर गया है । उसे बुलाकर लाओ । वह चाहे अपने पिता को खोजते खोजते सारा जन्म गवां दे । पर उनके दर्शन नही कर पायेगा । अतः तुम जिस विधि से चाहो । कोई उपाय करके उसे बुलाकर लाओ ।
तब गायत्री बताये अनुसार बृह्मा के पास पहुँची ।
तो उसने देखा - ध्यान में लीन बृह्मा अपनी पलक तक नहीं झपकाते थे । वह कुछ दिन तक यही उपाय सोचती रही कि किस विधि द्वारा बृह्मा का ध्यान से ध्यान हटाकर अपनी ओर आकर्षित किया जाय । फ़िर उसने अष्टांगी का ध्यान किया ।
तब अष्टांगी ने ध्यान में गायत्री को आदेश दिया कि अपने हाथ से बृह्मा को स्पर्श करो । तब वह ध्यान से जागेंगे । गायत्री ने ऐसा ही किया । और बृह्मा के चरण कमलों का स्पर्श किया ।
बृह्मा ध्यान से जाग गया । और उसका मन भटक गया । तब वह व्याकुल होकर बोला - तू ऐसी कौन सी पापी अपराधी है । जो मेरी ध्यान समाधि छुङायी । मैं तुझे शाप देता हूँ । क्योंकि तूने आकर पिता के दर्शन का मेरा ध्यान खंडित कर दिया ।

तब गायत्री बोली - मुझसे कोई पाप नहीं हुआ है । पहले तुम सब बात समझ लो । तब मुझे शाप दो । मैं सत्य कहती हूँ । तुम्हारी माता ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है । अतः शीघ्र चलो । तुम्हारे बिना सृष्टि का विस्तार कौन करे ।
बृह्मा बोले - मैं माता के पास किस प्रकार जाऊँ । अभी मुझे पिता के दर्शन भी नहीं हुये हैं ।
गायत्री बोली - तुम पिता के दर्शन कभी नहीं पाओगे । अतः शीघ्र चलो । वरना पछताओगे ।
तब बृह्मा बोला - यदि तुम झूठी गवाही दो कि मैंने पिता का दर्शन पा लिया है । और ऐसा स्वयँ तुमने भी अपनी आँखों से देखा है कि पिता निरंजन प्रकट हुये । और बृह्मा ने आदर से उनका शीश स्पर्श किया । यदि तुम माता से इस प्रकार कहो । तो मैं तुम्हारे साथ चलूँ ।
गायत्री बोली - हे वेद सुनने और धारण करने वाले बृह्मा । सुनो मैं झूठ वचन नहीं बोलूँगी । हाँ यदि मेरे भाई ! तुम मेरा स्वार्थ पूरा करो । तो मैं इस प्रकार की झूठ बात कह दूँगी ।
बृह्मा बोले - मैं तुम्हारी स्वार्थ वाली बात समझा नहीं । अतः मुझे स्पष्ट कहो ।
गायत्री बोली - यदि तुम मुझे रतिदान दो । यानी मेरे साथ कामक्रीङा करो । तो मैं ऐसा कह सकती हूँ ।
यह मेरा स्वार्थ है । फ़िर भी तुम्हारे लिये परमार्थ जानकर कहती हूँ ।
बृह्मा विचार करने लगे कि इस समय क्या उचित होगा ? यदि मैं इसकी बात नहीं मानता । तो ये गवाही नहीं देगी । और माता मुझे मुझे धिक्कारेगी कि न तो मैंने पिता के दर्शन पाये । और न कोई कार्य सिद्ध हुआ ।  अतः मैं इसके प्रस्ताव में पाप को विचारता हूँ । तो मेरा काम नहीं बनता । इसलिये रतिदान देने की इसकी इच्छा पूरी करनी ही चाहिये ।
ऐसा ही निर्णय करते हुये बृह्मा और गायत्री ने मिलकर विषय भोग किया । उन दोनों पर रतिसुख का रंग प्रभाव दिखाने लगा । बृह्मा के मन में पिता को देखने की जो इच्छा थी । उसे वह भूल गया । और दोनों के ह्रदय में काम विषय की उमंग बङ गयी । फ़िर दोनों ने मिलकर छलपूर्ण बुद्धि बनायी ।
तब बृह्मा ने कहा कि - चलो अब माता के पास चलते हैं ।
गायत्री बोली - एक उपाय और करो । जो मैंने सोचा है । वह युक्ति यह है कि एक दूसरा गवाह भी तैयार कर लेते हैं ।
बृह्मा बोले - यह तो बहुत अच्छी बात है । तुम वही करो । जिस पर माता विश्वास करे ।
तब गायत्री ने साक्षी उत्पन्न करने हेतु अपने शरीर से मैल निकाला । और उसमें अपना अंश मिलाकर एक कन्या बनायी । बृह्मा ने उस कन्या का नाम सावित्री रखवाया । तब गायत्री ने सावित्री को समझाया कि तुम चलकर माता से कहना कि बृह्मा ने पिता का दर्शन पाया है ।
सावित्री बोली - जो तुम कह रही हो । उसे मैं नहीं जानती । और झूठी गवाही देने में तो बहुत हानि है ।
अब बृह्मा और गायत्री को बहुत चिंता हुयी । उन्होंने सावित्री को अनेक प्रकार से समझाया । पर वह तैयार नहीं हुयी ।
तब सावित्री अपने मन की बात बोली - यदि बृह्मा मुझसे रति प्रसंग करे । तो मैं ऐसा कर सकती हूँ । तब गायत्री ने बृह्मा को समझाया कि सावित्री को रतिदान देकर अपना काम बनाओ ।
बृह्मा ने सावित्री को रतिदान दिया । और बहुत भारी पाप अपने सिर ले लिया । सावित्री का दूसरा नाम बदलकर पुहुपावती कहकर अपनी बात सुनाते हैं । ये तीनों मिलकर वहाँ गये । जहाँ कन्या आदि कुमारी अष्टांगी थी ।
तीनों के प्रणाम करने पर अष्टांगी ने पूछा - हे बृह्मा ! क्या तुमने अपने पिता के दर्शन पाये हैं ? और यह दूसरी स्त्री कहाँ से लाये ।
बृह्मा बोले - हे माता ! ये दोनों साक्षी है कि मैंने पिता के दर्शन पाये । इन दोनों के सामने मैंने पिता का शीश स्पर्श किया है ।
ब अष्टांगी बोली - हे गायत्री ! विचार करके कहो कि तुमने अपनी आँखों से क्या देखा है ? सत्य बताओ । बृह्मा ने अपने पिता का दर्शन पाया ? और इस दर्शन का उस पर क्या प्रभाव पङा ?
गायत्री बोली - बृह्मा ने पिता के शीश का दर्शन पाया है । ऐसा मैंने अपनी आँखों से देखा है कि बृह्मा अपने पिता निरंजन से मिले । हे माता ! यह सत्य है । बृह्मा ने अपने पिता पर फ़ूल चङाये । और उन्हीं फ़ूलों से यह पुहुपावती उस स्थान से प्रकट हुयी । इसने भी पिता का दर्शन पाया है । आप इससे पूछ के देखिये । इसमें रत्ती भर भी झूठ नहीं है ।
अष्टांगी बोली - हे पुहुपावती ! मुझसे सत्य कहो । और बताओ । क्या बृह्मा ने पिता के सिर पर पुष्प चङाया ।
पुहुपावती ने कहा - हे माता ! मैं सत्य कहती हूँ । चतुर्मुख बृह्मा ने पिता के शीश के दर्शन किये । और शांत एवं स्थिर मन से फ़ूल चङाये ।
इस झूठी गवाही को सुनकर अष्टांगी परेशान हो गयी । और विचार करने लगी ।

***** आगे जानने के लिये इन्हीं ब्लाग में देखें ।

त्रिदेव द्वारा प्रथम समुद्र मंथन

तब निरंजन ने गुप्त ध्यान से अष्टांगी को याद करते हुये समझाया । और कहा - बताओ समुद्र मथने में किसलिये देर हो रही है ? बृह्मा विष्णु और महेश हमारे तीनों पुत्रों को समुद्र मथने के लिये शीघ्र ही भेजो । और मेरे वचन दृढता से मानों । और अष्टांगी इसके बाद तुम स्वयँ समुद्र में समा जाना ।
तब अष्टांगी ने समुद्र मंथन हेतु विचार किया । और तीनों बालकों को अच्छी तरह समझा बुझाकर समुद्र मथने के लिये भेजा । उन्हें भेजते समय अष्टांगी ने कहा - समुद्र से तुम्हें अनमोल वस्तुयें प्राप्त होंगी । इसलिये तुम जल्दी ही जाओ । यह सुनकर बृह्मा विष्णु और महेश तीनों बालक चल पङे । और जाकर समुद्र के पास खङे हो गये । और उसे मथने का उपाय सोचने लगे ।
फ़िर तीनों ने समुद्र मंथन किया । तीनों को समुद्र से तीन वस्तुयें प्राप्त हुयीं । बृह्मा को वेद । विष्णु को तेज और शंकर को हलाहल विष की प्राप्ति हुयी । ये तीनों वस्तुयें लेकर वे अपनी माता अष्टांगी के पास आये । और खुशी खुशी तीनों वस्तुयें दिखायीं । अष्टांगी ने उन्हें अपनी अपनी वस्तु अपने पास रखने की आग्या दी । अष्टांगी ने कहा - अब फ़िर से जाकर समुद्र मथो । और जिसको जो प्राप्त हो । वह ले लो ।
उसी समय आदि भवानी ने एक चरित्र किया । उसने तीन कन्यायें उत्पन्न की । और अपनी उन अंश को समुद्र में प्रवेश करा दिया । जब इन तीनों कन्याओं को समुद्र में प्रवेश कराने के लिये भेजा । इस रहस्य को अष्टांगी के तीनों पुत्र नहीं जान सके । अतः उन्होंने जब समुद्र मंथन किया । तो समुद्र से तीन कन्यायें निकलीं । उन्होंने खुशी से तीनों कन्याओं को ले लिया । और अष्टांगी के पास आये ।
तब अष्टांगी ने कहा - पुत्रो तुम्हारे सब कार्य पूरे हो गये । अष्टांगी ने उन तीन कन्याओं को तीनों पुत्रों को बाँट दिया । बृह्मा को सावित्री । विष्णु को लक्ष्मी । और शंकर को पार्वती दी ।
तीनों भाई कामिनी स्त्री को पाकर बहुत आनन्दित हुये । और उन कामनियों के साथ काम के वशीभूत होकर उन्होंने देव और दैत्य दोनों प्रकार की संताने उत्पन्न की ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! तुम यह बात समझो कि जो माता थी  । वह अब स्त्री हो गयी । अष्टांगी ने फ़िर से अपने पुत्रों को समुद्र मथने की आग्या दी ।
इस बार समुद्र में से 14 रत्न निकले । उन्होंने रत्न की खान निकाली । और रत्न लेकर माता के पास पहुँचे ।
तब अष्टांगी ने कहा - हे पुत्रो । अब तुम सृष्टि रचना करो । अण्डज खान की उत्पत्ति स्वयँ अष्टांगी ने की । पिण्ड खाने को बृह्मा ने बनाया । ऊष्मज खान को विष्णु तथा स्थावर खाने को शंकर ने बनाया । उन्होंने 84 लाख योनियों की रचना की । और उनके अनुसार आधा जल आधा थल बनाया । स्थावर खान को एक तत्व का समझो । और ऊष्मज खान को दो तत्व । तीन तत्वों से अण्डज और चार तत्वों से पिण्डज का निर्माण हुआ । पाँच तत्वों से मनुष्य को बनाया । और तीन गुणों से सजाया संवारा ।
इसके बाद बृह्मा वेद पढने लगे । वेद पढते हुये बृह्मा को निराकार के प्रति अनुराग हुआ । क्योंकि वेद कहता है । पुरुष एक है । और वह निराकार है । और उसका कोई रूप नहीं है । वह शून्य 0 में ज्योति दिखाता है । परन्तु देखते समय उसकी देह दृष्टि में नहीं आती । उस निराकार का सिर स्वर्ग है । और पैर पाताल है । इस वेद मत से बृह्मा मतवाला हो गया ।
बृह्मा ने विष्णु से कहा - वेद ने मुझे आदि पुरुष को दिखा दिया है । फ़िर ऐसा ही उन्होंने शंकर से भी कहा । वेद पङने से पता चलता है कि - पुरुष एक है । और सबका स्वामी केवल एक निराकार पुरुष है । यह तो वेद ने बताया । परन्तु उसने ऐसा भी कहा कि - मैंने उसका भेद नहीं पाया ।
तब बृह्मा अष्टांगी के पास आये । और बोले - हे माता ! मुझे वेद ने दिखाया । और बताया कि सृष्टि की रचना करने वाला । हम सबका स्वामी कोई और ही है ? अतः हे माता ! हमें बताओ कि तुम्हारा पति कौन है ? और हमारा पिता कहाँ है ?
अष्टांगी बोली - हे बृह्मा सुनो । मेरे अतिरिक्त तुम्हारा अन्य कोई पिता नहीं है । मुझसे ही सब उत्पत्ति हुयी है । और मैंने ही सबको संभारा है ।
तब बृह्मा ने कहा - हे माता ! सुनो । वेद निर्णय करके कहता है कि पुरुष केवल एक है । और वह गुप्त है ।
अष्टांगी बोली -  हे पुत्र बृह्म कुमार ! मुझसे न्यारा सृष्टि रचियता और कोई नहीं है । मैंने ही स्वर्गलोक प्रथ्वीलोक और पाताललोक बनाये हैं । और सात समुद्रों का निर्माण भी मैंने ही किया है ।
यह सुनकर बृह्मा ने कहा - मैंने तुम्हारी बात मानी कि तुमने ही सब कुछ किया है । परन्तु पहले से ही पुरुष को गुप्त कैसे रख लिया ? जबकि वेद कहता है कि पुरुष एक है । और वह अलख निरंजन है । हे माता ! तुम कर्ता बनो । आप बनो । परन्तु पहले वेद की रचना करते समय यह विचार क्यों नहीं किया । और उसमें पुरुष को निरंजन क्यों बताया ? अतः अब तुम मेरे से छल न करो । और सच सच बात बताओ ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! जब इस तरह बृह्मा ने जिद पकङ ली । तो अष्टांगी ने अपने मन में विचार किया कि बृह्मा को किस प्रकार समझाऊँ । जो यह मेरी महिमा को..बङाई को नहीं मानता । जो यह बात निरंजन से कहूँ । तो यह किस प्रकार ठीक से समझेगा ?
निरंजन राव ने मुझसे पहले ही कहा था कि मेरा दर्शन कोई नहीं पायेगा । अब जो बृह्मा को अलख निरंजन के बारे में कुछ नहीं बताया । तो किस प्रकार उसे दिखाया जाये । ऐसा विचार कर अष्टांगी ने कहा - अलख निरंजन अपना दर्शन नहीं दिखाता ।
बृह्मा बोले - माता ! तुम मुझे सही सही स्थान बताओ । आगे पीछे की उल्टी सीधी बातें करके मुझे न बहलाओ । मैं ये बातें नहीं मानता । और न ही मुझे अच्छी लगती हैं ।
पहले तुमने मुझे बहकाया कि मैं ही सृष्टिकर्ता हूँ । और मुझसे अलग कुछ भी नहीं है । और अब तुम कहती हो कि अलख निरंजन तो है । पर वह अपना दर्शन नहीं दिखाता । क्या उसका दर्शन पुत्र भी नहीं पायेगा । ऐसी पैदा न होने वाली बात क्यों कहती हो । हे माता ! इसलिये मुझे तुम्हारे कहने पर भरोसा नहीं है । अतः इसी समय उस कर्ता का दर्शन करा दीजिये । और मेरे संशय को दूर कीजिये । इसमें जरा भी देर न करो ।
अष्टांगी बोली - हे पुत्र बृह्मा सुनो । मैं तुमसे सत्य ही कहती हूँ कि उस अलख निरंजन के सात स्वर्ग ही माथा है । और सात पाताल चरण हैं । यदि तुम्हें उसके दर्शन की इच्छा हो । तो हाथ में फ़ूल ले जाकर उसे अर्पित करते हुये प्रणाम करो । यह सुनकर बृह्मा बहुत प्रसन्न हुये ।
अष्टांगी ने अपने मन में विचार किया - ये बृह्मा मेरा कहा मानता नहीं है । ये कहता है कि वेद ने मुझे उपदेश किया है कि एक पुरुष निरंजन है । परन्तु कोई उसके दर्शन नहीं पाता है ।
अतः वह बोली - अरे बालक सुन । अलख निरंजन तुम्हारा पिता है । पर तुम उसका दर्शन नहीं पा सकते । यह मैं तुमसे सत्य वचन कहती हूँ ।
यह सुनकर बृह्मा ने व्याकुल होकर माँ के चरणों में सिर रख दिया । और बोले - मैं पिता का शीश स्पर्श व दर्शन करके तुम्हारे पास आता हूँ । यह कहकर बृह्मा उत्तर दिशा को चले गये ।
 अपनी माता से आग्या मांगकर विष्णु भी अपने पिता के दर्शनों हेतु पाताल चले गये । केवल शंकर का मन इधर उधर नहीं भटका । और वह माता की सेवा करते हुये कुछ नहीं बोले ।

वेद की उत्पत्ति

कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! तुम यह विचार करो । इसके पीछे ऐसा वर्णन हो चुका है कि अग्नि पवन जल प्रथ्वी और प्रकाश कूर्म के उदर से प्रकट हुये । उसके उदर से ये पाँचो अंश लिये । तथा तीनों सिर काटने से सत रज तम तीनों गुण प्राप्त हुये ।
इस प्रकार पाँच तत्व और तीन गुण प्राप्त होने पर निरंजन ने सृष्टि रचना की । फ़िर अष्टांगी और निरंजन के परस्पर रति प्रसंग से अष्टांगी को गुण एवं तत्व समान करके दिये । और अपने अंश उत्पन्न किये । इस प्रकार पाँच तत्व और तीन गुण को देने से उसने संसार की रचना की ।
वीर्य शक्ति की पहली बूँद से बृह्मा हुये । तब उन्हें रजोगुण और पाँच तत्व दिये । दूसरी बूँद से विष्णु हुये । उम्हें सतगुण और पाँच तत्व दिये । तीसरी बूँद से शंकर हुये । तब उन्हें तमोगुण और पाँच तत्व दिये । पाँच तत्व तीन गुण के मिश्रण से बृह्मा विष्णु महेश के शरीर की रचना हुयी । इसी प्रकार सब जीवों के शरीर की रचना हुयी ।  उससे ये पाँच तत्व और तीन गुण परिवर्तनशील और विकारी होने से बार बार सृजन और प्रलय यानी जीवन और मरण होता है । सृष्टि की रचना के इस आदि रहस्य को वास्तविक रूप से कोई नहीं जानता ।


हे धर्मदास ! तब निरंजन बोला - हे अष्टांगी कामिनी ! मेरी बात सुन । और जो मैं कहूँ । उसे मानों । अब जीव बीज सोहंग तुम्हारे पास है । उसके द्वारा सृष्टि रचना का प्रकाश करो । हे रानी सुन । अब मैं कैसे क्या करूँ । आदि भवानी ! बृह्मा विष्णु महेश तीनों पुत्र तुमको सौंप दिये । अब मैंने तो अपना मन सत्यपुरुष की सेवा भक्ति में लगा दिया है । तुम इन तीनों बालकों को लेकर राज करो । परन्तु मेरा भेद किसी से न कहना । मेरा दर्शन ये तीनों पुत्र न कर सकेंगे । चाहे मुझे खोजते खोजते अपना जन्म ही क्यों न समाप्त कर दें ।
सोच समझकर सब लोगों को ऐसा मत सुदृढ कराना कि सत्यपुरुष का भेद कोई प्राणी जानने न पाये । जब ये तीनों पुत्र बुद्धिमान हो जायँ । तब उन्हें समुद्र मंथन का ग्यान देकर समुद्र मंथन के लिये भेजना ।
इस तरह निरंजन ने अष्टांगी को बहुत प्रकार से समझाया । और फ़िर अपने आप गुप्त हो गया । उसने शून्य 0 गुफ़ा में निवास किया । वह जीवों के ह्रदयाकाश रूपी शून्य 0 गुफ़ा में रहता है । तब उसका भेद कौन ले सकता है ?
वह गुप्त होकर भी सबके साथ है । जो सबके भीतर है । उस मन को ही निरंजन जानों । जीवों के ह्रदय में रहने वाला यह मन निरंजन सत्यपुरुष परमात्मा के रहस्यमय ग्यान के प्रति संदेह उत्पन्न कर उसे मिटाता है । यह अपने मत से सभी को वशीभूत करता है । और स्वयं की बङाई प्रकट करता है ।
सभी जीवों के ह्रदय में बसने वाला यह मन काल निरंजन का ही रूप है । सबके साथ रहता हुआ भी ये मन पूर्णतया गुप्त है । और किसी को दिखाई नहीं देता । ये स्वाभाविक रूप से अत्यन्त चंचल है । और सदा सांसारिक विषयों की ओर दौङता है । विषय सुख और भोग प्रवृति के कारण मन को चैन कहाँ है ? यह तो दिन रात सोते जागते अपनी अनन्त इच्छाओं की पूर्ति के लिये भटकता ही रहता है । और मन के वशीभूत होने के कारण ही जीव अशांत और दुखी होता है । इसी कारण उसका पतन होकर जन्म मरण का बंधन बना हुआ है । जीव का मन ही उसके दुखों भोगों और जन्म मरण का कारण है । अतः मन को वश में करना ही सभी दुखों और जन्म मरण के बँधन से मुक्त होने का उपाय है ।
जीव तथा उसके ह्रदय के भीतर मन दोनों एक साथ है । मतवाला और विषयगामी मन काल निरंजन के अंग स्पर्श करने से जीव बुद्धिहीन हो गये ।  इसी से अग्यानी जीव कर्म अकर्म के करते रहने से.. तथा उनका फ़ल भोगते रहने के कारण ही.. जन्म जन्मांतर तक उनका उद्धार नहीं हो पाता । यह मन काल जीव को सताता है । यह इन्द्रियों को प्रेरित कर विभिन्न प्रकार के पापकर्मों में लगाता है । यह स्वयँ पाप पुण्य के कर्मों की काल कुचाल चलता है । और फ़िर जीव को दुख रूपी दण्ड देता है ।
उधर जब ये तीनों बालक बृह्मा विष्णु महेश सयाने और समझदार हुये । तो उनकी माता अष्टांगी देवी ने उन्हें समुद्र मथने के लिये भेजा । लेकिन वे बालक खेल खेलने में मस्त थे । अतः समुद्र मथने नहीं गये ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! उसी समय एक तमाशा हुआ । निरंजन राव ने योग धारण किया । उसमें उसने पवन यानी सांस खींचकर पूरक प्राणायाम से आरम्भ कर.. पवन ठहराकर कुम्भक प्राणायाम बहुत देर तक किया । फ़िर जब निरंजन कुम्भक त्यागकर रेचन क्रिया से पवन रहित हुआ । तब उसकी सांस के साथ वेद बाहर निकले । वेद उत्पत्ति के इस रहस्य को कोई विरला विद्वान ही जानेगा ।
वेद ने निरंजन की स्तुति की । और कहा - हे निर्गुण नाथ ! मुझे क्या आग्या है ?
तब निरंजन बोला - तुम जाकर समुद्र में निवास करो । तथा जिसका तुमसे भेंट हो । उसके पास चले जाना । वेद को आग्या देते हुये काल निरंजन की आवाज तो सुनायी दी । पर वेद ने उसका स्थूल रूप नहीं देखा । उसने केवल अपना ज्योतिस्वरूप ही दिखाया । उसके तेज से प्रभावित होकर आग्यानुसार वेद चले गये । फ़िर अंत में उस तेज से विष की उत्पत्ति हुयी । इधर चलते हुये वेद वहाँ जा पहुँचे । जहाँ निरंजन ने समुद्र की रचना की थी । वे सिंधु के मध्य में पहुँच गये । तब निरंजन ने समुद्र मँथन की युक्ति का विचार किया ।

अष्टांगी कन्या और काल निरंजन

सहज के द्वारा सत्यपुरुष के ऐसे वचन सुनकर निरंजन प्रसन्न होकर अहंकार से भर गया । और मानसरोवर चला आया । फ़िर जब उसने सुन्दर कामिनी अष्टांगी कन्या को आते हुये देखा । तो उसे अति प्रसन्नता हुयी । अष्टांगी का अनुपम सौंदर्य देखकर निरंजन मुग्ध हो गया । उसकी सुन्दरता की कला का अन्त नहीं था । यह देखकर काल निरंजन बहुत व्याकुल हो गया ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! काल निरंजन की क्रूरता सुनो । वह अष्टांगी कन्या को ही निगल गया । जब अन्यायी काल निरंजन अष्टांगी का ही आहार करने लगा । तब उस कन्या को काल निरंजन के प्रति बहुत आश्चर्य हुआ । जब वह उसे निगल रहा था । तो अष्टांगी ने सत्यपुरुष को ध्यान करके पुकारा कि काल निरंजन ने मेरा आहार कर लिया है ।
अष्टांगी की पुकार सुनकर सत्यपुरुष ने सोचा कि यह काल निरंजन तो बहुत क्रूर और अन्यायी है । इस कन्या की तरह ही पहले कूर्म ने ध्यान करके मुझे पुकारा था कि काल निरंजन ने मेरे तीन शीश खा लिये हैं । हे सत्यपुरुष ! आप मुझ पर दया कीजिये ।
कबीर साहब बोले - हे धर्मदास ! काल निरंजन का ऐसा क्रूर चरित्र जानकर सत्यपुरुष ने उसे शाप दिया कि वह प्रतिदिन लाख जीवों को खायेगा । और सवा लाख का विस्तार करेगा । फ़िर सत्यपुरुष ने ऐसा भी विचार किया कि इस कालपुरुष को मिटा ही डालें । क्योंकि अन्यायी और क्रूर काल निरंजन बहुत ही कठोर और भयंकर है । यह सभी जीवों का जीवन बहुत दुखी कर देगा ।
लेकिन अब वह मिटाने से भी नहीं मिट सकता था । क्योंकि एक ही नाल से वे सब 16 सुत उत्पन्न हुये थे । अतः एक को मिटाने से सभी मिट जायेंगे । और मैंने सबको अलग लोक दीप देकर जो रहने का वचन दिया है । वह डांवाडोल हो जायेगा । और मेरी ये सब रचना भी समाप्त हो जायेगी । अतः इसको मारना ठीक नहीं है । सत्यपुरुष ने विचार किया कि कालपुरुष को मारने से उनका वचन भंग हो जायेगा । अतः अपने वचन का पालन करते हुये उसे न मारकर यह कहता हूँ कि अब वह कभी हमारा दर्शन नहीं पायेगा ।
यह कहते हुये सत्यपुरुष ने योगजीत को बुलवाया । और सब हाल कहा कि किस तरह काल निरंजन ने अष्टांगी कन्या को निगल लिया । और कूर्म के तीन शीश खा लिये ।
उन्होंने कहा- हे योगजीत ! तुम शीघ्र मानसरोवर दीप जाओ । और वहाँ से निरंजन को मारकर निकाल दो । वह मानसरोवर में न रहने पाये । और हमारे देश सत्यलोक में कभी न आने पाये । निरंजन के पेट में अष्टांगी नारी है । उससे कहो कि वह मेरे वचनों का संभालकर पालन करे । निरंजन जाकर उसी देश में रहे । जो मैंने पहले उसे दिये हैं । अर्थात वह स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल पर अपना राज्य करे । वह अष्टांगी नारी निरंजन का पेट फ़ाङकर बाहर निकल आये । जिससे पेट फ़टने से वह अपने कर्मों का फ़ल पाये । निरंजन से निर्णय करके कह दो । वह अष्टांगी नारी ही अब तुम्हारी स्त्री होगी ।
योगजीत सत्यपुरुष को प्रणाम करके मानसरोवर दीप आये ।
काल निरंजन उन्हें वहाँ आया देखकर भयंकर रूप हो गया । और बोला - तुम कौन हो ? और किसने तुम्हें यहाँ भेजा है ।
योगजीत ने कहा - अरे निरंजन ! तुम नारी को ही खा गये । अतः सत्यपुरुष ने मुझे आग्या दी कि तुम्हें शीघ्र ही यहाँ से निकालूँ ।

योगजीत ने निरंजन के पेट में समायी हुयी अष्टांगी से कहा - अरे अष्टांगी ! तुम वहाँ क्यों रहती हो । तुम सत्यपुरुष के तेज का सुमिरन करो । और पेट फ़ाङकर बाहर आ जाओ ।
योगजीत की बात सुनकर निरंजन का ह्रदय क्रोध से जलने लगा । और वह योगजीत से भिङ गया । योगजीत ने सत्यपुरुष का ध्यान किया । तो सत्यपुरुष ने आग्या दी कि वह निरंजन के माथे के बीच में जोर से घूंसा मारे । योगजीत ने ऐसा ही किया । फ़िर योगजीत ने निरंजन की बाँह पकङकर उसे उठाकर दूर फ़ेंक दिया । तो वह सत्यलोक के मानसरोवर दीप से अलग जाकर दूर गिर पङा ।
सत्यपुरुष के डर से वह डरता हुआ सँभल सँभलकर उठा । फ़िर अष्टांगी कन्या निरंजन के पेट से निकली । वह काल निरंजन से बहुत भयभीत थी । वह सोचने लगी कि अब मैं वह देश न देख सकूंगी । मैं न जाने किस प्रकार यहाँ आकर गिर पङी । यह कौन बताये ।
वह निरंजन से बहुत डरी हुयी थी । और सकपका कर इधर उधर देखती हुयी निरंजन को शीश नवा रही थी ।
तब निरंजन बोला - हे आदि कुमारी ! सुनो । अब तुम मेरे डर से मत डरो । सत्यपुरुष ने तुम्हें मेरे काम के लिये रचा है । हम तुम दोनों एकमति होकर सृष्टि रचना करें । मैं पुरुष हूँ । और तुम मेरी स्त्री हो । अतः तुम मेरी यह बात मान लो ।
अष्टांगी बोली - तुम यह कैसी वाणी बोलते हो । मैं तो तुम्हें बङा भाई मानती हूँ । हे भाई ! इस प्रकार जानते हुये भी तुम मुझसे ऐसी बातें मत करो । जब से तुमने मुझे पेट में डाल लिया था ।  और उससे उत्पन्न होने पर अब तो मैं तुम्हारी पुत्री भी हो गयी हूँ । बङे भाई का रिश्ता तो पहले से ही था । अब तो तुम मेरे पिता भी हो गये हो । अब तुम मुझे साफ़ दृष्टि से देखो । नहीं तो तुमसे यह पाप हो जायेगा । अतः मुझे विषय वासना की दृष्टि से मत देखो ।
तब निरंजन बोला - हे भवानी सुनो । मैं तुम्हें सत्य बताकर अपनी पहचान कराता हूँ । पाप पुण्य के डर से मैं नहीं डरता । क्योंकि पाप पुण्य का मैं ही तो कर्ता ( कराने वाला ) हूँ । पाप पुण्य मुझसे ही होंगे । और मेरा हिसाब कोई नहीं लेगा । पाप पुण्य को मैं ही फ़ैलाऊँगा । जो उसमें फ़ँस जायेगा । वही मेरा होगा । अतः तुम मेरी इस सीख को मानों । सत्यपुरुष ने मुझे कह समझाकर तुझे दिया है । अतः हे भवानी ! तुम मेरा कहना मानों ।
निरंजन की ऐसी बातें सुनकर अष्टांगी हँसी । और दोनों एकमति होकर एक दूसरे के रंग में रंग गये । अष्टांगी मीठी वाणी से रहस्यमय वचन बोली । और फ़िर उस नीच बुद्धि स्त्री ने विषय भोग की इच्छा प्रकट की ।  उसके रति विषयक रहस्यमय वचन सुनकर निरंजन बहुत प्रसन्न हुआ । और उसके भी मन में विषय भोग की इच्छा जाग उठी । निरंजन और अष्टांगी दोनों परस्पर रति क्रिया में लग गये । तब कहीं चैतन्य सृष्टि का विशेष आरम्भ हुआ ।
हे धर्मदास ! तुम आदि उत्पत्ति का यह भेद सुनो । जिसे भृमवश कोई नहीं जानता । उन दोनों ने तीन बार रतिक्रिया की । जिससे बृह्मा विष्णु तथा महेश हुये । उनमें बृह्मा सबसे बङे । मंझले विष्णु और सबसे छोटे शंकर थे । इस प्रकार अष्टांगी और निरंजन का रति प्रसंग हुआ । उन दोनों ने एकमति होकर भोग विलास किया । तब उससे आदि उत्पत्ति का प्रकाश हुआ ।

28 मई 2011

राम नाम की उत्पत्ति

कबीर साहब बोले - धर्मदास भवसागर की ओर चलते हुये मैं सबसे पहले बृह्मा के पास आया । और बृह्मा को आदि पुरुष का शब्द उपदेश प्रकट किया । तब बृह्मा ने मन लगाकर सुनते हुये आदि पुरुष के चिह्न लक्षण के बारे में बहुत पूछा । उस समय निरंजन को संदेह हुआ कि बृह्मा मेरा बङा लङका है । और वह ग्यानी जी की बातों में आकर उनके पक्ष में न चला जाय । तब निरंजन ने बृह्मा की बुद्धि फ़ेरने का उपाय किया । क्योंकि निरंजन मन के रूप में सबके भीतर बैठा हुआ है । अतः वह बृह्मा के शरीर में भी विराजमान था । उसने बृह्मा की बुद्धि को अपनी ओर फ़ेर दिया । ( सव जीवों आदि के भीतर मन स्वरूप निरंजन का वास है । जो सबकी बुद्धि अपने अनुसार घुमाता फ़िराता है । )
बुद्धि फ़िरते ही बृह्मा ने मुझसे कहा - वह ईश्वर निराकार निर्गुण अविनाशी ज्योति स्वरूप और शून्य का वासी है । उसी पुरुष यानी ईश्वर का वेद वर्णन करता है । वेद आग्यानुसार ही मैं उस पुरुष को मानता और समझता हूँ ।
जब मैंने देखा कि काल निरंजन ने बृह्मा की बुद्धि को फ़ेर दिया है । और उसे अपने पक्ष में मजबूत कर लिया है । तो मैं वहाँ से विष्णु के पास आ गया । मैंने विष्णु को भी वही आदि पुरुष का शब्द उपदेश किया । परन्तु काल के वश में होने के कारण विष्णु ने भी उसे गृहण नहीं किया ।


विष्णु ने मुझसे कहा - मेरे समान अन्य कौन है ? मेरे पास चार पदार्थ यानी फ़ल हैं । धर्म अर्थ काम मोक्ष मेरे अधिकार में है । उनमें से जो चाहे । मैं किसी जीव को दूँ ।
तब मैंने कहा - हे विष्णु सुनो । तुम्हारे पास यह कैसा मोक्ष है ? मोक्ष अमरपद तो मृत्यु के पार होने से यानी आवागमन छूटने पर ही प्राप्त होता है । तुम स्वयँ स्थिर शांत नहीं हो । तो दूसरों को स्थिर शांत कैसे करोगे ? झूठी साक्षी.. झूठी गवाही से तुम भला किसका भला करोगे ? और इस अवगुण को कौन भरेगा ?
मेरी निर्भीक सत्य वाणी सुनकर विष्णु भयभीत होकर रह गये । और अपने ह्रदय में इस बात का बहुत डर माना । उसके बाद मैं नागलोक चला गया । और वहाँ शेषनाग से अपनी कुछ बातें कहने लगा ।
मैंने कहा - आदि पुरुष का भेद कोई नहीं जानता है । और सभी काल की छाया में लगे हुये हैं । और अग्यानता के कारण काल के मुँह में जा रहे हैं । हे भाई ! अपनी रक्षा करने वाले को पहचानो । यहाँ काल से तुम्हें कौन छुङायेगा । बृह्मा विष्णु और रुद्र जिसका ध्यान करते हैं । और वेद जिसका गुण दिन रात गाते हैं । वहीं आदि पुरुष तुम्हारी रक्षा करने वाले हैं । वहीं तुम्हें इस भवसागर से पार करेंगे । रक्षा करने वाला और कोई नहीं है । विश्वास करो । मैं तुम्हें उनसे मिलाता हूँ । साक्षात्कार कराता हूँ ।
लेकिन विष खाने से उत्पन्न शेषनाग का बहुत तेज स्वभाव था । अतः उसके मन में मेरे वचनों का विश्वास नहीं हुआ ।
जब बृह्मा विष्णु और शेषनाग ने मेरे द्वारा सत्यपुरुष का संदेश मानने से इंकार कर दिया । तब मैं शंकर के पास गया । परन्तु शंकर को भी सत्यपुरुष का यह संदेश अच्छा नहीं लगा । शंकर ने कहा - मैं तो निरंजन को मानता हूँ । और बात को मन में नहीं लाता ।
तब वहाँ से मैं भवसागर की ओर चल दिया ।
कबीर साहब आगे बोले - हे बुद्धिमान धर्मदास सुनो । जब मैं इस भवसागर यानी मृत्युमंडल में आया । तब मैंने यहाँ किसी जीव को सतपुरुष की भक्ति करते नहीं देखा । ऐसी स्थिति में सतपुरुष का ग्यान उपदेश किससे कहता ? जिससे कहूँ । वह अधिकांश तो यम के वेश में दिखायी पङे । विचित्र बात यह थी कि जो घातक विनाश करने वाला काल निरंजन है । लोगों को उसका तो विश्वास है । और वे उसी की पूजा करते हैं । और जो रक्षा करने वाला है । उसकी ओर से वे जीव उदास हैं । उसके पक्ष में न बोलते हैं । न सुनते हैं । जीव जिस काल को जपता है । वही उसे धरकर खा जाता है । तब मेरे शब्द उपदेश से उसके मन में चेतना आती है । जीव जब दुखी होता है । तब ग्यान पाने की बात उसकी समझ में आती है । लेकिन उससे पहले जीव मोहवश कुछ देखता समझता नहीं ।
तब ऐसा भाव मेरे मन में उपजा कि काल निरंजन की शाखा वंश संतति को मिटा डालूँ । और उसे अपना प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाऊँ । यम निरंजन से जीवों को छुङा लूँ । तथा उन्हें अमरलोक भेज दूँ । जिनके कारण मैं शब्द उपदेश को रटते हुये फ़िरता हूँ । वे ही जीव मुझे पहचानते तक नहीं । सब जीव काल के वश में पङे हैं । और सत्यपुरुष के नाम उपदेश रूपी अमृत को छोङकर विषय रूपी विष गृहण कर रहे हैं ।

लेकिन सत्यपुरुष का आदेश ऐसा नहीं है । यही सोचकर मैंने अपने मन में निश्चय किया कि अमरलोक उसी जीव को लेकर पहुँचाऊँ । जो मेरे सार शब्द को मजबूती से गृहण करे ।
हे धर्मदास ! इसके आगे जैसा चरित्र हुआ । वह तुम ध्यान लगाकर सुनो । मेरी बातों से विचलित होकर बृह्मा विष्णु शंकर और बृह्मा के पुत्र सनकादिक सबने मिलकर शून्य 0 में ध्यान समाधि लगायी । समाधि में उन्होंने प्रार्थना की - हे ईश्वर ! हम किस नाम का सुमरन करें ? और तुम्हारा कौन सा नाम ध्यान के योग्य है ?
हे धर्मदास ! जैसे सीप स्वाति नक्षत्र का स्नेह अपने भीतर लाती है । ठीक उसी प्रकार उन सबने ईश्वर के प्रति प्रेमभाव से शून्य 0 में ध्यान लगाया । उसी समय निरंजन ने उनको उत्तर देने का उपाय सोचा । और शून्य 0 गुफ़ा से अपना शब्द उच्चारण किया । तब इनकी ध्यान समाधि में रर्रा यानी रा शब्द बहुत बार उच्चारित हुआ । उसके आगे म अक्षर उसकी पत्नी माया यानी अष्टांगी ने मिला दिया । इस तरह रा और म दोनों अक्षरों को बराबर मिलाने पर राम शब्द बना । तब राम नाम उन सबको बहुत अच्छा लगा । और सबने राम नाम सुमिरन की ही इच्छा की । बाद में उसी राम नाम को लेकर उन्होंने संसार के जीवों को उपदेश दिया । और सुमिरन कराया । काल निरंजन और माया के इस जाल को कोई पहचान समझ नहीं पाया । और इस तरह राम नाम की उत्पत्ति हुयी । हे धर्मदास ! इस बात को तुम गहरायी से समझो ।
तब धर्मदास बोले - आप पूरे सदगुरु हैं । आपका ग्यान सूर्य के समान है । जिससे मेरा सारा अग्यान अंधेरा दूर हो गया है । संसार में माया मोह का घोर अंधेरा है । जिसमें विषय विकारी लालची जीव पङे हुये हैं । जब आपका ग्यान रूपी सूर्य प्रकट होता है । और उससे जीव का मोह अंधकार नष्ट हो जाये । यही आपके शब्द उपदेश के सत्य होने का प्रमाण है । मेरे धन्य भाग्य जो मैंने आपको पाया । आपने मुझ अधम को जगा लिया ।

24 मई 2011

तुम समूह में जीते हो

इसलिए तो विवाह का इतना आयोजन करना पड़ता है । उस आयोजन के पीछे बड़ा मनोविज्ञान है । मेरे पास लोग आते हैं । वे कहते हैं - क्या जरूरत कि घोड़े पर सवारी निकले दूल्हे की ? कभी तुम सोचते हो कि जिनको तुम अपना कहते हो । कैसे उन्हें मिल गए ? तुम्हारे पिता 1 ज्योतिषी के पास चले गए । तुम्हारी जन्मकुंडली लेकर । किसी स्त्री की जन्मकुंडली लेकर 1 दूसरे सज्जन ज्योतिषी के पास चले गए । उन्होंने जन्मकुंडली मिला ली । गणित बैठ गया । लक्षण पूरे हो गए । बैंड बाजे बज गए । तुम्हें 7 चक्कर लगवा दिए । यह पत्नी अपनी हो गयी । कल तक यह अपनी न थी । संयोग है । नदी नाव संयोग । यह किसी और की भी हो सकती थी । कोई अड़चन नहीं थी । किसी और की भी हो सकती थी । और तब भी इसी भ्रम में होती कि यह मेरा पति है । तुम्हारी पत्नी कोई और भी हो सकती थी । तब भी तुम इसी भ्रम में होते कि यह मेरी पत्नी है । दूसरी पत्नी से दूसरे बच्चे पैदा होते । तब वे तुम्हारे होते । अभी वे तुम्हारे नहीं हैं । अभी वे किसी और के घर में खेल रहे हैं । संयोग को सत्य मत मान लेना । राह पर मिल जाते हैं - 2 लोग । साथ हो लेते हैं । गपशप करते हैं । फिर राह अलग अलग हो जाती है । विदा हो जाते हैं । लेकिन हम बड़ी भ्रांति पैदा करवाते हैं । 
इसलिए तो विवाह का इतना आयोजन करना पड़ता है । उस आयोजन के पीछे बड़ा मनोविज्ञान है । मेरे पास लोग आते हैं । वे कहते हैं - क्या जरूरत कि घोड़े पर सवारी निकले दूल्हे की ? कि इतने बैंड बजें । फ़ुलझड़ी छूटें । बारात में खर्च हो ? इतने लोग आएं । जाएं ? इस सबकी क्या जरूरत है ? क्या सीधा साधा विवाह नहीं हो सकता ?
हो सकता है । लेकिन भ्रम पैदा होना मुश्बित होगा । सीधा साधा बिलकुल हो सकता है । कोई जरूरत नहीं है । तुम 1 स्त्री को मिल गए । लेकिन तुमको भी शक रहेगा कि ऐसे में यह अपनी हो कैसे गई ? उतना उपद्रव चाहिए भरोसा दिलाने के लिए कि भारी कुछ हो रहा है । कुछ ऐसा महत्वपूर्ण हो रहा है । जो दोबारा नहीं होगा । अब घोड़े पर तुम जो रोज तो बैठते नहीं । 1 दफा बैठेगा । इसलिए दूल्हा राजा । दूल्हा को हम कहते हैं - दूल्हा राजा । उसे राजा बना देते हैं । 1 दिन के राजा हैं वे । और कैसी फजीहत पीछे होने वाली है । कुछ पता नहीं ? मगर बैठे हैं अकड़ कर । कटारी वगैरह लटका रखी है । मुकुट वगैरह पहन रखा है । उधार कपड़े हों । कोई हर्जा नहीं । लेकिन आज डटकर साज सामान किया है । और बराती चल रहे हैं । फौज फाटा है । बड़े बड़ों को नीचे चला दिया है । सब नीचे चल रहे हैं । और दूल्हा राजा हो गया 1 दिन के लिए । यह उसके मन पर 1 छाप बिठानी है । 1 कंडीशनिंग है । 1 संस्कार है । बड़े कुशल लोग थे - पुराने लोग । उन्होंने पूरा हिसाब रखा है कि उसको यह भ्रांति पक्की हो जाए कि कोई गाढ़ संबंध पैदा हो रहा है । और ऐसा अनूठा हो रहा है । फिर यही घटना दोबारा नहीं घटने वाली । इसलिए पूरब के लोग तलाक के विपक्ष में हैं । क्योंकि पूरब के लोग ज्यादा चालाक हैं । पश्चिम अभी बचकाना है । उसे अभी अनुभव नहीं है आदमी के मन का । पूरब को हजारों साल का अनुभव है । क्योंकि अगर तलाक संभव है । तो विवाह कभी पूरा हो ही न पाएगा । अगर इस बात की संभावना है कि हम अलग हो सकते हैं । तो मिलता कभी भी पक्का नहीं हो पाएगा । जिससे अलग हो सकते हैं । उससे मिलना ऊपर ऊपर ही रहेगा । संसार बसेगा नहीं । भीतर बना ही रहेगा कि भीतर बना ही रहेगा कि कल चाहें । तो अलग हो सकते हैं । यह कोई अपनी पत्नी है । ऐसा कोई जरूरी नहीं । यह किसी और की भी हो सकती है । कोई और पत्नी हमारी भी हो सकती है । किसी और से हमारे बच्चे पैदा हो सकते हैं । हमारे बच्चे का कोई मामला नहीं है बड़ा । पश्चिम में उपद्रव पैदा हो गया है । संसार डगमगा गया है । मैंने सुना है । 1 अभिनेता हालीवुड में अपनी पत्नी के साथ बैठा है । और उनके बच्चे खेल रहे हैं । पत्नी ने कहा कि देखो, मैं हजार बार कह चुकी कि कुछ करना होगा । तुम्हारे बच्चे और मेरे बच्चे । हमारे बच्चों को मार रहे हैं । पश्चिम से संभव हो गया है । पति के बच्चे हैं किसी और पत्नी से । पत्नी के बच्चे हैं किसी और पति से । फिर दोनों के बच्चे हैं । तुम्हारे बच्चे और मेरे बच्चे मिलकर हमारे बच्चों को मार रहे हैं । इसको रोकना होगा । मगर जहां तुम्हारे बच्चे । हमारे बच्चे । और मेरे बच्चे । वहां हमारे का भाव अपने आप क्षीण हो जाएगा । क्या मेरा है ? सब रेत का घर मालूम पड़ता है । यहां कुछ मजबूत नहीं है । यहां कुछ पक्का नहीं है । 1 अभिनेत्री से एयरपोर्ट पर पूछा गया - विवाहित या अविवाहित ? उसने कहा - दोनों । कभी कभी । कभी विवाहित । कभी अविवाहित । दोनों । कभी कभी । जहां ऐसी रेत जैसी स्थिति हो जाए । पूरब के लोग चालाक हैं । उम्र चालाकी लाती है । बूढ़े बेईमान हो जाते हैं । होशियार हो जाते हैं । बच्चे निर्दोष होते हैं । उनको पता नहीं । जिंदगी का राग रंग क्या है ? तो पूरब ने पूरी व्यवस्था की कि संबंध ऐसे मजबूती से बनाए जाए कि पक्की भ्रांति हो जाए कि यह पत्नी मेरी है । और पूरब में समझा जाता है कि ऐसा कोई 1 ही जन्म का मामला नहीं है । पति पत्नी तो एक दूसरे का पीछा जन्म जन्मांतर तक करते रहते हैं । पत्नियां तो इससे बड़ी प्रसन्न होती हैं । पति जरा डरते हैं कि जन्म जन्मांतर तक ? 1 तक ही काफी है । 1  मगर अगल जन्म में भी इसी देवी से मिलना होगा ? लेकिन पत्नियां इससे बड़ी प्रसन्न होती हैं कि भागकर जाओगे कहां ? कोई छुटकारा नहीं है ।  ये प्रतीतियां बिठाई गई हैं । मानव शास्त्र की प्रतीतियां हैं । इससे तुम्हें लगता है मेरा । बच्चा तुमसे पैदा होता है । तुम सोचते हो मेरा । तुमसे क्या पैदा हो रहा है ? तुम केवल प्रयोगशाला हो । तुम्हारा शरीर केवल बच्चे के आगमन के लिए मार्ग हैं । इससे ज्यादा नहीं हैं । और अब तो विज्ञान भी कहता है कि टेस्ट टयूब में बच्चा पैदा हो सकता है । कोई मां के गर्भ की जरूरत नहीं ।
और विज्ञान कहता है कि अब तो आर्टिफिशियल इनसेमीनेशन की सुविधा है । तो हजारों साल तक व्यक्ति का वीर्णकण सुरक्षित बचाया जा सकता है । बर्फ में ढांककर । तुम मर जाओगे । 1000  साल बाद तुम्हारा लड़का पैदा हो सकता है । तुम्हारा वीर्णकण बचा लिया जाएगा । तो तुमसे संबंध रहा ? 10 000 साल बाद तुम्हारा लड़का पैदा हो सकता है । और तुम मर चुके 10 000 साल पहले । तुम्हारी रग रग मिट्टी में खो गई । फिर भी तुम्हारा बच्चा पैदा हो सकता है । तो तुमसे क्या संबंध रहा ? क्या लेना देना है ? तुम केवल मार्ग थे । अपना यहां कोई भी नहीं । यहां तुम अजनबी हो । यहां अपने का भरोसा करके राहत मिलती है । यह सच है । क्योंकि अगर तुम्हें यह पक्का पता चल जाए कि तुम बिलकुल अकेले हो । तो तुम घबड़ा जाओगे । बेचैन हो जाओगे । हाथ पैर काटने लगेंगे । रात अंधेरी है । रास्ता बीहड़ सुनसान है । कुछ आगे का पता नहीं । कुछ पीछे का पता नहीं । कुछ अपना पता नहीं । किसी का हाथ, हाथ में लेकर थोड़ा भरोसा आता है कि कोई साथ है । माना कि वह भी अंधा है । हम भी अंधे । तुमने देखा । नदियों में तीर्थयात्रा सर्दियों के दिन में स्नान करने जाते हैं । तो बड़े जोर जोर से हरे राम, हरे कृष्ण, पानी में डुबा मारते जाते हैं । और राम का नाम लेते जाते हैं । वे कोई राम का नाम नहीं लेते । वह सिर्फ राम की चिल्लाहट में ठंड ज्यादा नहीं लगती । पता नहीं चलता । मन यहां लगा है । हरे राम, हरे राम, जल्दी पानी लिया ।
क्योंकि मैंने अपने गांव में देखा कि पुरुषोत्तम का महीना आता है । तो मेरा घर नदी के किनारे ही है । पास ही है । तो स्त्रियां स्नान करने आती हैं । जल्दी सुबह आती हैं 5 बजे ब्रह्म मुहूर्त में । उन स्त्रियों को मैं भली भांति जानता हूं । जिनके मुंह से कभी हरे राम नहीं सुना गया । वे भी पानी में आकर एकदम हरे राम, हरे राम करने लगते हैं । तो मुझे लगा कि यह पानी बड़ा रहस्यपूर्ण मालूम पड़ता है । उन स्त्रियों को मैं भली भांति जानता हूं । इनमें से कोई हरे राम वाली नहीं है । 
यह अचानक क्या हो जाता है इनको । पानी में उतरते ही से ? तब मैंने पानी में उतरकर देखा 5 बजे । तब समझ में आया । नास्तिक भी कहेगा । ठंडा पानी । घबड़ाहट छूटती है । उस घबड़ाहट में कुछ भी बको । राहत मिलती है । अंधेरे में कुछ भी गुनगुनाने लगो । भरोसा आता है । अंधे अंधों का हाथ पकड़ लेते हैं । लेता है । कोई है । अकेला नहीं हूं । इसलिए तो तुम समूह में जीते हो । इसलिए तो तुम समूह बनाकर जीते हो । अकेले में डर लगने लगता है । समूह में निश्चित हो जाते हो । इतने लोग हैं । ठीक ही होगा । जहां भीड़ जाती है । वहां जाते हो । अकेला खड़ा होने की किसी की हिम्मत नहीं है । क्योंकि अकेले में पता चलता है । यहां कोई भी मेरा नहीं है । भयाक्रांत हो जाओगे । आत्मा कंपेगी । उस कंपन में जी न सकोगे । इसलिए जिसने भी अकेलेपन को जान लिया । वह परमात्मा की खोज में लग जाता है । जो समाज में समझता है कि सब पा लिया ? वह परमात्मा से वंचित रह जाता है । जो अकेला हो गया । वह खोजेगा ही । ओशो 

अ उ म यह 3 ध्वनियां ही सब कुछ

पागल बाबा । भगवान श्री को पहचानने वाले दूसरे जाग्रत गुरु । राजा 1 दिन नदी में तैर रहा था । ठीक वैसे ही जैसे कोई मछली तैरती है । पागल बाबा कुछ देर तक राजा को तैरते देखते रहे । एकटक । राजा ने काफी देर से किनारे पर खड़े बाबा को जब अपनी ओर ही ताकते पाया । तो वह तैरते हुये किनारे पर आया । पागल बाबा को देखने के बाद उसकी आँखे जैसे ही बाबा की आँखों से मिली । बाबा को जैसे विद्युत का 1 तीव्र झटका सा लगा । जैसे कपड़े वो पहने हुये थे । उन्हीं कपड़ो में वह भी नदी में कूद पड़े । लगभग 1 घंटा तैरने के बाद बाबा बोले - मैं बूढ़ा आदमी हूं । अब थक गया हूं । अब हम किनारे की ओर चलकर कुछ विश्राम करना चाहिये । राजा हंसकर बोला - आपने मुझसे पहले क्यों नहीं कहा ? मेरी तो आदत है । मैं तो नदी में 6-6 घंटे अकसर रोज तैरा करता हूं । किनारे पर आते ही यकायक पागल बाबा ने राजा के दोनों पैर अपने हाथों में लेकर उन पर माथा झुका दिया ।
राजा चौंककर पैर हटाने का प्रयास करते हुये बोला - बाबा । आप क्या कर रहे हैं ? कहाँ आपकी आयु । और कहाँ मैं एक 12 वर्ष का बच्चा । पैर तो मुझे आपके छूने चाहिये । पागल बाबा अश्रुपूरित नेत्रों से बोले - मैं अच्छी तरह जानता हूं कि मुझे क्या करना चाहिये । और क्या नहीं । वैसे समझ लो । मैं पागल हूं । सारी दुनिया मुझे पागल ही कहती है । राजा आँखे बंदकर चुपचाप बैठ गया । पागल बाबा भी मौन शांत बैठे रहे । उस मौन में जो घटा । उसे शब्दों द्वारा व्यक्त किया ही नहीं जा सकता । कुछ न कहते हुये भी दोनों एक दूसरे की भाषा अच्छी तरह समझ रहे थे । राजा जान गया । मग्गा बाबा ने जिन 2 बाबाओं से मिलने की 1 दिन भविष्यवाणी की थी । उनमें से दूसरे बाबा उसके सामने बैठे हैं । कुछ देर बाद उन्होंने अपने चोगे की जेब से बांसुरी निकाली । और वह उनके होठों से जा लगी । राजा को लगा । जैसे दूर किसी घाटी से कोयल कूकी हो । जैसे चीड़ के जंगल में नुकीले पत्तों को छूती हुई मस्त हवा गुजर गई हो । वह आँख बंद किए पीता रहा उस अमृत को । उसे लग रहा था । जैसे पूनम की चांदनी खिल गई हो । फिर स्वर क्रमशः तीव्र हुआ । और तीव्र होता ही चला गया । अब उसे महसूस हुआ कि मंद हवा तूफ़ान में बदल गई हो । चारो ओर मेघ गर्जने लगे हों । फिर स्वर धीमे धीमे शांत होने लगे । और फिर ऐसी करुण तान गूंजने लगी । जैसे हृदय को गहरे और गहरे छेदे जा रही हो । बाबा लगभग 30 मिनट तक बांसुरी बजाते रहे । और फिर यकायक तान थम गई । राजा ने आँख खोली । पागल बाबा मुस्करा रहे थे ।
राजा बोला - मुझे सिखायेगें आप बांसुरी बजाना ? बाबा मुस्करा कर बोले - तुझे बांसुरी सिखाने ही तो आया हूँ । 2-4  बातें बताकर बाबा ने बांसुरी उसके होठों से लगा दी । बीच बीच में कुछ निर्देश देते रहे । वह आधे घंटे बाद बोले - तू अभ्यास करना । बहुत जल्द मुझसे अच्छी बजायेगा । और आता तो है ही तुझे बजाना । सिर्फ सबक दोहरा रहा है । बस इतना याद रख ।
अ उ म यह 3 ध्वनियां ही सब कुछ हैं । इसी से । अर्थात ॐ का अनाहत नाद गुंजरित होने लगता है । यही सच्ची संगीत साधना है । गहन सन्नाटे में कोई ध्वनि नहीं होती । पर फिर भी 1 ध्वनि होती है । तुम दोनों कानो को दोनों उंगलियों से अच्छी तरह बंद कर लो । और फिर भी जो सुनाई देता है - वही अनाहत नाद है ।
************
जीवन पद्धति - हिंदुओं की जो जीवन पद्धति है । वह जीवन को घटाने की तरफ नहीं है । बढ़ाने की तरफ है । दोनों 1 अंत पर पहुंच जाते हैं । अगर जीवन बिलकुल घटकर शून्य हो जाए । तो आदमी विराट में प्रवेश कर जाता है । या जीवन बढ़कर बिलकुल पूर्ण हो जाए । तो भी आदमी विराट में प्रवेश कर जाता है । तो हिंदुओं ने जितने तीर्थ चुने हैं । जितने स्थान बनाए साधना के । वह जीवित पहाड़ चुने हैं । और अगर जीवित पहाड़ न मिला । तो नदी चुनी है । यह मजे की बात है कि कोई मुर्दा नदी नहीं होती । सभी नदियां जिंदा होती हैं । जहां जीवन मिल सकता था । हिंदुओं ने वहां । वहां वहां अपने साधना के स्थल चुने । जहां जीवन खो गया था । वहां वहां जैनों ने अपने साधना के स्थल चुने । ताकि वहां तप में और गहनता हो सके । तप में और गहरा उतरा जा सके । जैन पद्धति पूर्ण मृत्यु को उपलब्ध करने की पद्धति है । इसलिए " संघात " की आशा दी जा सकी । हिंदू पद्धति पूर्ण जीवन को पाने की पद्धति है । परिणाम 1 है ।

22 मई 2011

मूर्ख संयोग के हाथ में खिलौना होते हैं

मीरदाद - इस रात के सन्नाटे में मीरदाद परमात्मा परमात्मा की ओर जाने वाली राह पर कुछ प्रकाश कण विखेरना चाहता है । विवाद से बचो । सत्य स्वयं प्रमाणित है । उसे किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । जिसे तर्क और प्रमाण की आवश्यकता होती है । उसे देर सवेर तर्क और प्रमाण के द्वारा ही गिरा दिया जाता है । किसी बात को सिद्ध करना उसके प्रतिपक्ष को खंडित करना है । उसके प्रतिपक्ष को सिद्ध करना । उसका खंडन करना है । परमात्मा का कोई प्रतिपक्ष है ही नहीं । फिर तुम कैसे उसे सिद्ध करोगे । या कैसे उसका खंडन करोगे ? यदि जिह्वा को सत्य का वाहक बनाना चाहते हो । तो उसे कभी मूसल, विषदंत, वातसूचक, कलाबाज या सफाई करने वाला नहीं बनाना चाहिए ।
बेजबानों को राहत देने के लिये बोलो । अपने आपको राहत देने के लिये मौन रहो । शब्द जहाज हैं । जो स्थान के समुद्रों में चलते हैं । और अनेक बंदरगाहों पर रुकते हैं । सावधान रहो कि तुम उनमे क्या लादते हो ? क्योंकि अपनी यात्रा समाप्त करने के बाद वे अपना माल आखिर तुम्हारे द्वार पर ही उतारेंगे । घर के लिए जो महत्व झाड़ू का है । वही महत्व ह्रदय के लिए आत्मनिरीक्षण का है । अपने ह्रदय को अच्छी तरह बुहारो । अच्छी तरह बुहारा गया ह्रदय 1 अजेय दुर्ग है । जैसे तुम लोगों और पदार्थों को अपना आहार बनाते हो । वैसे ही वे तुम्हें अपना आहार बनाते हैं । यदि तुम चाहते हो कि तुम्हे विष न मिले । तो दूसरों के लिए स्वास्थ्य प्रद भोजन बनो । जब तुम्हे अगले कदम के विषय में संदेह हो । निश्छल खड़े रहो । जिसे तुम नापसंद करते हो । वह तुम्हे नापसंद करता है । उसे पसंद करो । और ज्यों का त्यों रहने दो । इस प्रकार तुम अपने रास्ते से 1 बाधा हटा दोगे । सबसे अधिक असहय परेशानी है किसी बात को परेशानी समझना । अपनी पसंद का चुनाव कर लो । हर वस्तु का स्वामी बनना है । या किसी का भी नहीं । बीच का कोई मार्ग सम्भव नहीं । रास्ते का हर रोड़ा 1 चेतावनी है । चेतावनी को अच्छी तरह पढ़ लो । और रास्ते का रोड़ा प्रकाश स्तम्भ बन जायेगा । सीधा टेढ़े का भाई है । 1 छोटा रास्ता है दूसरा घुमावदार । टेढ़े के प्रति धैर्य रखो । विश्वास युक्त धैर्य स्वास्थ्य है । विश्वास रहित धैर्य अर्धांग है । होना । महसूस करना । सोचना । कल्पना करना । जानना । यह हैं मनुष्य के जीवन चक्र के मुख्य पड़ावों का क्रम । प्रशंसा करने और पाने से बचो । जब प्रशंसा सर्वथा निश्छल और उचित हो तब भी । जहाँ तक चापलूसी का सम्बन्ध है । उसकी कपट पूर्ण कसमों के प्रति गूंगे और बहरे बन जाओ । देने का एहसास रखते हुए कुछ भी देना उधार लेना ही है । वास्तव में तुम ऐसा कुछ भी नहीं दे सकते । जो तुम्हारा है । तुम लोगों को केवल वही देते हो । जो तुम्हारे पास उनकी अमानत है । जो तुम्हारा है । सिर्फ तुम्हारा ही । वह तुम दे नहीं सकते । चाहो तो भी नहीं । अपना संतुलन बनाये रखो । और तुम मनुष्यों के लिए अपने आपको नापने का मापदण्ड और तौलने की तराजू बन जाओ । गरीबी और अमीरी नाम की कोई चीज नहीं है । बात वस्तुओं का उपयोग करने के कौशल की है । असल में गरीब वह है । जो उन वस्तुओं का जो उसके पास हैं । गलत उपयोग करता है । अमीर वह है । जो अपनी वस्तुओं का सही उपयोग करता है । बासी रोटी की सूखी पपड़ी भी ऐसी दौलत हो सकती है । जिसे आंका न जा सके । सोने से भरा तहखाना भी ऐसी गरीबी हो सकता है । जिससे छुटकारा न मिल सके । जहाँ बहुत से रास्ते 1 केंद्र में मिलते हों । वहाँ इस अनिश्चय में मत पड़ो कि किस रास्ते से चला जाये । प्रभु की खोज में लगे ह्रदय को सभी रास्ते प्रभु की ओर लेजा रहे हैं । जीवन के सब रूपों के प्रति आदर भाव रखो । सबसे तुच्छ रूप में सबसे अधिक महत्वपूर्ण रूप की कुंजी छुपी छिपी रहती है । जीवन की सब कृतियां महत्वपूर्ण हैं - हाँ, अदभुत, श्रेष्ठ और अद्वितीय । जीवन अपने आपको निरर्थक तुच्छ कामों में नहीं लगाता । प्रकृति के कारखाने में कोई वस्तु तभी बनती है । जब वह प्रकृति की प्रेम पूर्ण देखभाल और श्रम पूर्ण कौशल की अधिकारी हो । तो क्या वह कम से कम तुम्हारे आदर की अधिकारी नहीं होनी चाहिए ?
यदि मच्छर और चींटियां आदर के योग्य हों । तो तुम्हारे साथी मनुष्य उनसे कितने अधिक आदर के योग्य होने चाहिये ? किसी मनुष्य से घृणा न करो । 1 भी मनुष्य से घृणा करने की अपेक्षा । प्रत्येक मनुष्य से घृणा पाना कहीं अच्छा है । क्योंकि किसी मनुष्य से घृणा करना । उसके अंदर के लघु परमात्मा से घृणा करना है । किसी भी मनुष्य के अंदर लघु परमात्मा से घृणा करना । अपने अंदर के लघु परमात्मा से घृणा करना है । वह व्यक्ति भला अपने बंदरगाह तक कैसे पहुँचेगा । जो बंदरगाह तक ले जाने वाले अपने एकमात्र मल्लाह का अनादर करता हो ? नीचे क्या है ? यह जानने के लिये ऊपर दृष्टि डालो । ऊपर क्या है ? यह जानने के लिये नीचे दृष्टि डालो । जितना ऊपर चढ़ते हो । उतना ही नीचे उतरो । नहीं तो तुम अपना संतुलन खो बैठोगे । आज तुम शिष्य हो । कल तुम शिक्षक बन जाओगे । अच्छे शिक्षक बनने के लिये अच्छे शिष्य बने रहना आवश्यक है । संसार में से बदी के घांस पात को उखाड़ फेंकने का यत्न न करो । क्योंकि घास पात की भी अच्छी खाद बनती है । उत्साह का अनुचित प्रयोग बहुधा उत्साही को ही मार डालता है । केवल ऊँचे और शानदार वृक्षों से ही जंगल नहीं बन जाता । झाड़ियां और लिपटती लताओं की भी आवश्यकता होती है । पाखण्ड पर पर्दा डाला जा सकता है । लेकिन कुछ समय के लिए ही । उसे सदा ही परदे में नहीं रखा जा सकता । न ही उसे हटाया या नष्ट किया जा सकता है । दूषित वासनाएं अंधकार में जन्म लेती हैं । और वहीँ फलती फूलती हैं । यदि तुम उन्हें नियंत्रण में रखना चाहते हो । तो उन्हें प्रकाश में आने की स्वतन्त्रता दो । यदि तुम 1000 पाखण्डियों में से 1 को भी सहज ईमानदारी की राह पर वापस लाने में सफल हो हो जाते हो । तो सचमुच महान है तुम्हारी सफलता । मशाल को ऊँचे स्थान पर रखो । और उसे देखने के लिये लोगों को बुलाते न फिरो । जिन्हे प्रकाश कि आवश्यकता है । उन्हें किसी निमंत्रण की आवश्यकता नहीं होती । बुद्धिमत्ता अधूरी बुद्धि वाले के लिये बोझ है । जैसे मूर्खता मूर्ख के लिये बोझ है । बोझ उठाने में अधूरी बुद्धि वाले की सहायता करो । और मूर्ख को अकेला छोड़ दो । अधूरी बुद्धि वाला मूर्ख को तुमसे अधिक सिखा सकता है । कई बार तुम्हे अपना मार्ग दुर्गम, अंधकारपूर्ण और एकाकी लगेगा । अपना इरादा पक्का रखो । और हिम्मत के साथ कदम बढ़ाते जाओ । और हर मोड़ पर तुम्हें 1 नया साथी मिल जायेगा । पथ विहीन स्थान में ऐसा कोई पथ नहीं । जिस पर अभी तक कोई न चला हो । जिस पथ पर पदचिन्ह बहुत कम और दूर दूर हैं । वह सीधा और सुरक्षित है । चाहे कहीं कहीं उबड़ खाबड़ और सुनसान है । जो मार्गदर्शन चाहते हैं । उन्हें मार्ग दिखा सकते है । उस पर चलने के लिए विवश नहीं कर सकते । याद रखो - तुम मार्गदर्शक हो । अच्छा मार्गदर्शक बनने के लिये आवश्यक है कि स्वयं अच्छा मार्गदर्शन पाया हो । अपने मार्गदर्शक पर विश्वास रखो । कई लोग तुमसे कहेंगे - हमें रास्ता दिखाओ । किन्तु थोड़े ही बहुत ही थोड़े कहेंगे - हम तुमसे विनती करते हैं कि रास्ते में हमारी रहनुमाई करो । आत्मविजय के मार्ग में वे थोड़े से लोग उन कई लोगों से अधिक महत्व रखते हैं । तुम जहाँ चल न सको - रेंगो । जहाँ दौड़ न सको - चलो । जहाँ उड़ न सको - दौड़ो । जहाँ समूचे विश्व को अपने अंदर रोककर खड़ा न कर सको - उड़ो । जो व्यक्ति तुम्हारी अगुआई में चलते हुए ठोकर खाता है । उसे केवल 1 बार 2 बार या 100 बार ही नहीं । उठाओ । याद रखो कि तुम भी कभी बच्चे थे । और उसे तब तक उठाते रहो । जब तक वह ठोकर खाना बन्द न कर दे । अपने ह्रदय और मन को क्षमा से पवित्र कर लो । ताकि जो भी सपने तुम्हे आयें । वे पवित्र हों । जीवन 1 ज्वर है । जो हर मनुष्य की प्रवृति या धुन के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार का और भिन्न भिन्न मात्रा में होता है । और इसमें मनुष्य सदा प्रलाप की अवस्था में रहता है । भाग्यशाली हैं वे मनुष्य । जो दिव्य ज्ञान से प्राप्त होने वाली पवित्र स्वतंत्रता के नशे में उन्मत्त रहते हैं । मनुष्य के ज्वर का रूप परिवर्तन किया जा सकता है । युद्ध के ज्वर को शान्ति के ज्वर में बदला जा सकता है । और धन संचय के ज्वर को प्रेम का संचय करने के ज्वर में । ऐसी है दिव्य ज्ञान की वह रसायन विद्या । जिसे तुम्हें उपयोग में लाना है । और जिसकी तुम्हे शिक्षा देनी है । जो मर रहे हैं । उन्हें जीवन का उपदेश दो । जो जी रहे हैं । उन्हें मृत्यु का । किन्तु जो आत्मविजय के लिए तड़प रहे हैं । उन्हें दोनों से मुक्ति का उपदेश दो । वश में रखने और वश में होने में बड़ा अंतर है । तुम उसी को वश में रखते हो । जिससे तुम प्यार करते हो । जिससे तुम घृणा करते हो । उसके तुम वश में होते हो । वश में होने से बचो । समय और स्थान के विस्तार में 1 से अधिक पृथ्वियां अपने पथ पर घूम रहीं हैं । तुम्हारी पृथ्वी इस परिवार में सबसे छोटी है । और यह बड़ी हृष्ट पुष्ट बालिका है । 1 निश्चल गति - कैसा विरोधाभास है । किन्तु परमात्मा में संसारों की गति ऐसी ही है । यदि तुम जानना चाहते हो कि छोटी बड़ी वस्तुएं बराबर कैसे हो सकती हैं ? तो अपने हाथों की अँगुलियों पर दृष्टि डालो । संयोग बुद्धिमानों के हाथ में 1 खिलौना है । मूर्ख संयोग के हाथ में खिलौना होते हैं । कभी किसी चीज की शिकायत न करो । किसी चीज की शिकायत करना । उसे अपने आपके लिये अभिशाप बना लेना है । उसे भली प्रकार सहन कर लेना । उसे उचित दण्ड देना है । किन्तु उसे समझ लेना । उसे 1 सच्चा सेवक बना लेना है । प्रायः ऐसा होता है कि शिकारी लक्ष्य किसी हिरनी को बनाता है । परन्तु लक्ष्य चूकने से मारा जाता है । कोई खरगोश जिसकी उपस्थिति का उसे बिलकुल ज्ञान न था । ऐसी स्थिति में 1 समझदार शिकारी कहेगा - मैंने वास्तव में खरगोश को ही लक्ष्य बनाया था । हिरनी को नहीं । और मैंने अपना शिकार मार लिया । लक्ष्य अच्छी तरह से साधो । परिणाम जो भी हो । अच्छा ही होगा । जो तुम्हें पास आ जाता है । वह तुम्हारा है । जो आने में विलम्ब करता है । वह इस योग्य नहीं कि उसकी प्रतीक्षा की जाये । प्रतीक्षा उसे करने दो ।
जिसका निशाना तुम साधते हो । यदि वह तुम्हें निशाना बना ले । तो तुम निशाना कभी नहीं चूकोगे । चूका हुआ निशाना सफल निशाना होता है । अपने ह्रदय को निराशा के सामने अभेद्य बना लो । निराशा वह चील है । जिसे दुर्बल ह्रदय जन्म देते हैं । और विफल आशाओं के सड़े गले मांस पर पालते हैं । 1 पूर्ण हुई आशा कई मृत जात आशाओं को जन्म देती है । यदि तुम अपने ह्रदय को कब्रिस्तान नहीं बनाना चाहते । तो सावधान रहो । आशा के साथ उसका विवाह मत करो । हो सकता है । किसी मछली के दिए 100 अण्डों में से केवल 1 में से बच्चा निकले । तो भी बाकी 99 व्यर्थ नहीं जाते । प्रकृति बहुत उदार है । और बहुत विवेक है - उसकी विवेकहीनता में । तुम भी लोगों के ह्रदय और बुद्धि में अपने ह्रदय और बुद्धि को बोने में उसी प्रकार उदार और विवेक पूर्वक विवेकहीन बनो ।  किसी भी परिश्रम के लिए पुरस्कार मत माँगो । जो अपने परिश्रम से प्यार करता है । उसका परिश्रम स्वयं पर्याप्त पुरस्कार है । सृजनहार शब्द तथा पूर्ण संतुलन को याद रखो । जब तुम दिव्य ज्ञान के द्वारा यह संतुलन प्राप्त कर लोगे । तभी तुम आत्मविजेता बनोगे । और तुम्हारे हाथ प्रभु के हाथों के साथ मिलकर कार्य करेंगे । परमात्मा करे । इस रात्रि की नीरवता और शान्ति का स्पन्दन तुम्हारे अंदर तब तक होता रहे । जब तक तुम उन्हें दिव्य ज्ञान की नीरवता और शान्ति में डुबा न दो । यही शिक्षा थी मेरी नूह को । यही शिक्षा है मेरी तुम्हें । अध्याय 35  परमात्मा की राह पर प्रकाश कण

21 मई 2011

वासना की ऊर्जा करुणा बन जाती है

मैं खुद तो निःसंदेह मार्ग पर चल पड़ा हूं । और मार्ग ही मंजिल होता जा रहा है । लेकिन जब प्रवचन में बैठता हूं । तो जो कुछ आप कहते हैं । उसे दूसरों को बताने के लिए मेरा मन संगृहीत किए जाता है । दूसरों के सामने विशेषकर प्रियजनों के सामने । उसे प्रतिपादित करने की इतनी आतुरता मुझमें क्यों है ? 
- स्वाभाविक है । जिन्हें हम प्रेम करते हैं । उन्हें हम वह दे देना चाहते हैं । जो हमें मिला है । जिसमें हमने आनंद जाना है । जिसमें हमें सत्य की भनक मिली है । जो स्वाद हमने चखा है । वह अपने प्रियजनों को चखा देना चाहते । हम उन्हें साझीदार बनाना चाहते हैं । बिलकुल स्वाभाविक है । बांटो । जो तुम्हें लग रहा है ठीक । उसे तुम कहो । पता नहीं किसी को । और को भी । ठीक लग जाए । 1 ही बात खयाल रखना । बांटने की आतुरता तो ठीक है । आग्रह ठीक नहीं है । ऐसा किसी की छाती पर मत बैठ जाना कि हमने माना । तुम्हें भी मानना पड़ेगा । क्योंकि तू मेरी पत्नी है । अगर तू मेरी नहीं मानेगी । तो बस, ठीक नहीं है । या तू मेरा पति है । आग्रह मत करना - निराग्रह । वह माने । या न माने । इसकी पूरी स्वतंत्रता देना । लेकिन तुम्हारे हृदय में भाव उठता है । उसे भी दबाना मत । तुम्हें लगता है सुख । रस प्रतीत होता है । बांटो । उलीचो । जितना उलीच सको । उतना अच्छा है । इससे तुम्हारे हृदय का रस और बढ़ेगा । जितना तुम उलीचोगे । बांटोगे । जितनी आंखों में तुम्हारा रस झलकने लगेगा । उतना तुम्हारा रस भी बढ़ेगा । बस 1 ही बात खयाल रखना । किसी पर थोपना मत । आग्रह मत करना । और मजे की बात यह है । अगर तुम आग्रह करो । तो तू दूसरा दूर हटता है । अगर तुम निराग्रह भाव से कहो । दूसरा पास आता है । अगर दूसरा यह बात देख ले कि तुम्हारी कोई आकांक्षा किसी को "कन्वर्ट' करने की । किसी को अपने मार्ग पर लाने की नहीं है । तो दूसरे को तुम्हारे मार्ग पर आ जाना आसान हो जाता है । और जैसे ही तुम दूसरे को अपने मार्ग पर लाने की चेष्टा में रत हो जाते हो । वैसे ही दूसरे में 1 प्रतिरोध 1 रेसिस्टेंस खड़ा होता है । उसका अहंकार बचाव करने लगता है । बांटो जरूर । लेकिन कोई अगर न लेना चाहे । तो जबर्दस्ती किसी के कंठ मत उतारना । जबर्दस्ती दिया गया अमृत भी जहर हो जाता है । प्रेम सहजता से, जितना बन सके । इसमें कुछ बुरा मत मानना कि तुम्हारे मन में यह क्यों ऐसी वासना उठती है ? यह वासना नहीं । यही करुणा है । वासना का अर्थ है । जब तक तुम अपने लिए पाना चाहते हो । तब तक वासना । जब तुम दूसरे को बांटना चाहते हो । तब करुणा । साधक के जीवन में करुणा का क्षण भी आएगा । मेरे पास जब तुम पहली दफा आना शुरू होते हो । तब तुम वासना से ही आना चाहते हो । तुम अपने लिए पाना चाहते हो । तुम्हारी खोज स्व केंद्रित है । लेकिन जैसे जैसे तुम्हें प्रतीति होगी । जैसे जैसे तुम्हारा अनुभव बढ़ेगा । जैसे जैसे तुम थोड़े जागोगे । होश सधेगा । वैसे वैसे तुम्हें लगेगा कि जो तुम्हें मिला है । इसे बांट देना है । यह करुणा का जन्म है । वासना की ऊर्जा करुणा बन जाती है । इसलिए बांटो । बेफिक्री से बांटो । निश्चिंत होकर बांटो । बस बांटते वक्त 1 ही खयाल सदा रखना । किसी पर बोझ न पड़े । ओशो
**********
भारत में सर्वाधिक गहन दर्शन - सांख्य दर्शन है । और सांख्य कहता है कि सभी कृत्य प्रकृति के हैं । तुम्हारी तो केवल चेतना है । सारे कृत्य । अच्छे या बुरे । सारे कर्म प्रकृति के हैं। तुम्हारी तो सिर्फ चेतना है । उस चेतना को पा लो । उस परम के साथ 1 हो जाओ । और सारे पाप नष्ट हो जायेंगे । और तुम ब्रह्म में स्थित हो जाओगे । 

18 मई 2011

क्या " एमिल रोस " मानसिक पागल थी ? या वाकई प्रेतबाधा थी ?

ये परकाया प्रवेश क्या होता है ? क्या किसी मुर्दे शरीर में भी कोई प्रेत आत्मा घुस सकती है ? ( चाहे वो शरीर इनसान का हो । या जानवर का )  क्या कोई साधक भी जब उसकी शरीर से निकलने की स्थिति आ जाये । तो क्या वो भी किसी और शरीर में घुस सकता है ?

******* जी हाँ ! योगी टायप के लोग । समर्थ साधु और कुछ खास प्रेत आदि आत्मायें ये कार्य कर सकती हैं । जिसके अलग अलग नियम हैं । मतलब तरीका सिद्धांत आदि भिन्न हैं । किसी भी जीवित या मृत काया में प्रवेश करना ही परकाया प्रवेश है । ये बहुत सरल तरीका है । बस इस ऊँचाई पर पहुँचना कठिन है ।

ये भी बतायें कि मुर्दा शरीर के अलावा क्या किसी जिन्दा शरीर ( जिस शरीर में पहले से किसी आत्मा का निवास हो ) में भी घुस सकती है । अगर घुस सकती है । तो इस तरह से तो 1 ही शरीर में 2 आत्माओं का वास हो गया ।

******* जी हाँ जिन्दा शरीर में भी घुस सकती है । और लम्बे समय तक रह सकती है । 1 क्या कई आत्मायें एक शरीर में रह सकती हैं । इसका एक सरल उदाहरण गर्भवती स्त्री के 8-8 तक बच्चे होते देखे गये हैं । तो जब एक शरीर में 8 अन्य शरीर विद आत्मा हो सकते हैं । तो आत्मायें होना और इजी है । क्योंकि गर्भ स्थिति में भी तो आत्मा लम्बे समय तक रहती है । कई पशु 15 बच्चों तक को एक समय में जन्म देते हैं ।

क्या पहली वाली आत्मा को इस बारे में पता नही चलता कि कोई और भी उसके शरीर के अन्दर आ गया है ( चाहे किसी दूसरी आत्मा का निवास थोडी देर के लिये ही क्युँ न हो )

******* शुरूआत में भारीपन । बेहद थकान । सर उखङा उखङा आदि लगता है । लेकिन नयी चीज होने से यह पता नहीं लगता कि यह किसी आत्मा के वजह से है । लेकिन बाद में कुछ और कई ऐसे अनुभव होते हैं । जिससे पता चल जाता है कि कोई अन्य भी इसी शरीर में है । तब जो पावरफ़ुल है । वह दूसरे पर हावी हो जाता है । शरीर का मालिक या परजीवी आत्मा ।

अब मेरे मन में ये सवाल उठे कि क्या " एमिल रोस " मानसिक पागल थी ? या वाकई प्रेतबाधा थी ?

******* एमिली रोज वाकई प्रेतवाधा से गृस्त थी । डाकटर या आम या खास लोग थोङा भी ध्यान से देखें । तो प्रेतवाधा और मानसिक पागलपन में बहुत फ़र्क होता है । हालांकि प्रेतवाधा के लोग कभी कभार ही देखने को मिलते हैं । लेकिन पागल अक्सर आपको जिस समय चाहो । मिल जायेंगे ।
यदि इन दोनों का वीडियो शूट किया जाय । तो पागल के व्यवहार में पागल होने के बाद भी सामान्य इंसानी भावों की ही झलक होगी । पर प्रेत प्रभावित इंसान का शरीर । बोली । खिंचाव आदि सब कुछ अलग और भयानकता लिये होगा । सामान्य आँखों  से देखने पर यह अंतर आपकी पकङ में कम आता है । ( क्योंकि उस वक्त हम परीक्षण दृष्टि के बजाय कौतूहल दृष्टि से देख रहे होते हैं ) पर कैमरे की निगाहों से इस अंतर को स्पष्ट देखा जा सकता है ।

क्या वाकई 6 प्रेतों ने उस पर हमला किया ? लेकिन उस पर ही क्युँ ? उसके बाकी परिवार पर क्युँ नहीं ?

******* अब ओबामा जी ही राष्ट्रपति क्यों बने ? उनके घरवाले क्यों नहीं ? जो उस नियम में आ गया । उसके साथ घटित हो गया । एमिली रोज क्योंकि दिवंगत है । अतः अब उसके बारे में ये कहना ठीक नहीं । पर वह गलत थी ।

अगर 2 प्रेत पादरी थे । तो क्या पादरी भी अगले जनम में प्रेत बन सकता है ? जो पादरी उसको ठीक करने में लगे हुए थे । वो उसको बचा क्युँ नहीं पाये ?

******* पादरी तो बहुत छोटी चीज है । देवता तक इस चपेटे में आ जाते हैं । अप्सरायें आ जाती हैं । मैंने कई बार कहा । कानून सबके लिये समान है । और ये किसी पर रहम नहीं करता । वैसे प्रेत होने का मतलब अगला जन्म नहीं होता । वे उसको इसलिये नहीं बचा पाये । क्योंकि वे कामचलाऊ पादरी थे । तांत्रिक नहीं । वैसे भी प्रेतबाधा उपचार प्रार्थना आदि से हल नहीं होती । ये मंत्र तंत्र या इससे उच्च ग्यान चाहती है । खासतौर पर जब केस लाइलाज हो । परन्तु ऐसे केसों का सही ट्रीटमेंट होते मैंने कम ही देखा है । नौटंकी ज्यादा देखी है । वास्तव में प्रेत बहुत दुख में होते है । बस उनको सही से समझने की जरूरत है ।..लेकिन इसके बाद भी आप लोग प्रेतों की तरफ़ आकर्षित न हों ।

अगर " एमिल रोस " भारत में होती । तो क्या उसका बचना सम्भव था ? ( क्युँ कि भारत में अलौकिक ग्यान और साधना वाले महात्माओं की भरमार है ) ?
राजीव जी ! ये " एमिल रोस " की घटना 100% सच्ची है । इसका सबूत आपको गूगल में सर्च करने से भी मिल जायेगा ।

***** अगर सही जगह पहुँच जाती । तो कोई बहुत बङा हौआ नहीं था । लेकिन भारत में भी ठगों की भरमार अधिक है । आप गूगल छोङकर मेरे साथ एक दिन प्रेतलोक चलिये । वहाँ सब एमिली रोज जैसे ही मिलेंगे । साधकों के जीवन में ऐसी घटनाओं से परिचय आम बात है । लेकिन गूगल पर नहीं गैलेक्सी में ।

साथ में मैं ये भी जानना चाहती हूँ कि मैंने सुना है कि इस वकत दुनिया में 3 जुडवाँ बच्चे ऐसे हैं । जिनके शरीर आपस में जुङे हुए हैं । उनको आपरेशन से अलग करने में खतरा है । जो वो 2 शरीर जुङे हुए हैं । और उनमें से 1 जोङे का तो दिमाग भी 1 ही है । तो क्या उनमें 2 आत्मायें हैं ? उन 2 आत्माओं ने अपने अपने पिछ्ले जन्म में ऐसा क्या कर्म कर दिया कि उनको  2 एक साथ जुङे हुए जिस्म लेकर पैदा होना पङा ?
‌‍******* देखिये ! मैं फ़िर कहूँगा । साधु संतो ने इस सृष्टि को " चित्र विचित्र " कहा है । मतलब जो अनोखा से भी अनोखा लगे । वह सब संभव है । अतः ऊपर की बात में एक ही आत्मा पर दो शरीर । या दो जुङे शरीर दो आत्मा । या एक दिमाग दो आत्मा दो शरीर कुछ भी हो सकता है ।
ये अत्यन्त जटिल पापमय संस्कार और लगभग शापित या किसी की हाय लगी हुयी कंडीशन होती है । इसको सशरीर नरक भी कहते हैं । इसको ऐसे शरीर वाले तो भोगते ही हैं । उनके संस्कारों में किसी भी रूप में शामिल रहे परिवार वाले भी दूसरी तरह से अपने हिस्से का पाप भोगते हैं ।
काया से जो पातक होई । बिनु भुगते छूटे नहीं कोई ।

11 मई 2011

हर गलती का दन्ड निश्चित ही मिलता है ।

नमस्ते राजीव जी ! मैं आपका गुमनाम पाठक । दिल्ली से । जो अकसर आपका ब्लाग रात के 12 बजे के बाद ही पढता है । आज मैं गुमनामी खतम कर रहा हूँ । मैं भी आज आपको अपना पूरा परिचय देना चाहता हूँ । और अगर हो सका । तो शायद आपसे मिलने कभी आगरा भी आ जाऊँ ।
मेरा नाम पप्पू पाण्डे है । मैं दिल्ली में अपने परिवार के साथ रहता हूँ । मैं दिल्ली से थोडा दूर 1 प्राईवेट नौकरी करता हूँ । मैं आज आपसे अपनी तरफ़ से कोई सवाल नहीं पूछ्ना चाहता ।
आपके 1 पिछ्ले लेख " ये छिपकली जब इन्सान थी " में आपने लिखा था कि - लेख अब बडा होता जा रहा है । इसलिये कुछ बातें अगली बार अगले लेख में लिखेंगे ।

तो राजीव जी मेरी बिनती भी है । और जिग्यासा भी कि उस लेख में जो बातें अधूरी रह गयी थी । आप उन्हें आज नये लेख द्वारा पूरा करें । जैसे - दायाँ पैर कटी गाय का प्रसंग । महाभारत युद्ध में । रण्क्षेत्र में टिटहरी चिडिया के बच्चे कैसे बचे ? आपके द्वारा पाले गये जानवर.. हिरण । खरगोश और 3 कुत्तों के बारे में । जिन्दगी के पहले 13 साल की आयु तक आपके द्वारा हुई नादानी में हुई 3 हत्या 2 मेंढक और 1 गिलहरी और उनका फ़ल । जो इसी जन्म में आपको मिला ।
इन सब घटनाओं का मानव जीवन से क्या सम्बन्ध है । इसके आध्यात्मिक पहलू क्या हैं ? हमारी मामूली सी गलती क्या परिणाम देती है ? आप इन सभी के सभी प्रश्नों का विस्तार सहित उत्तर अपने आने वाले लेख में देने की कोशिश करें । मुझे बेसब्री से आपके लेख का इन्तजार रहेगा ।
मैं आज अपनी फ़ोटो भी भेज रहा हूँ । जिसमें मैं..मेरी पत्नी और बेटी है । ये भी बताये कि आपने कहा था कि आपके अब अगले भोग जनम हैं ही नहीं । ये कैसे ? और ये भी बतायें कि आपको हँसदीक्षा लिये हुये 8 साल हो चुके । तो क्या अब आपको परमहँस दीक्षा मिल गयी है । या मिलने वाली है । दिल्ली से.. पप्पु पाण्डे ।
*********


महाभारत युद्ध में । रण्क्षेत्र में टिटहरी चिडिया के बच्चे कैसे बचे ?
- यह बङा रोचक ऐतहासिक धार्मिक और प्रेरणादायी सच्चा और महत्वपूर्ण प्रसंग है । महाभारत युद्ध की घोषणा हो चुकी थी । { अभी विस्तार से बचने हेतु थोङी देर के लिये मान ही लें  कि पशु पंछी भी ऐसी बातों का न सिर्फ़ अहसास करते हैं । उन्हें बहुत कुछ पता भी होता है । } चिङिया युद्ध  को लेकर बहुत चिंतित थी । उसके अंडे ठीक युद्धभूमि में थे । और बङे हो जाने से शिफ़्ट नहीं हो सकते थे । अतः वह बेहद दुख में डूबने लगी । यहीं उसकी फ़रियाद कबूल हो गयी । यह भी पूरा अलग ही और बङा मामला है ।
युद्ध  के समय एक बङा गज घंटा हाथी के गले से टूटकर इस तरह अंडो पर गिरा कि पूरे युद्ध में मजबूत कवच का काम करता रहा । पूरे युद्ध में हजारों योद्धा रथ हाथी घोङे उसके ऊपर से गुजरे । पर अंडे सेफ़ रहे । युद्ध के  बाद एक मुनि उधर से गुजर रहे थे । उन्होंने तब तक निकल आये बच्चों की चहचहाहट सुनकर उन्हें बचा लिया ।


नादानी में हुई 3 हत्या 2 मेंढक और 1 गिलहरी - कक्षा 9 में मैंने साइंस बायोलोजी ली थी । जिसमें पहले बङी कक्षा द्वारा डिसेक्सन द्वारा बाद में रासायनिक लेप लगी बची हुयी हड्डियों  को टीचर कक्षा में बाँट देता था । और उनके नाम पूछता था । इसी उद्देश्य हेतु मैंने कूँये के एक मेंढक को ऊपर से ईंट मार मार कर मार डाला । बाद में बाल्टी से निकालकर उसे उबाला । और हड्डियाँ निकाली । दूसरा ऐसा ही मेंढक  प्रोग्राम मैंने दोस्तों हेतु स्टायल में आकर किया ।
गिलहरी - कंजङ जाति के कुछ लोग जब मैं नदी पर गया हुआ था । अचानक आकर गुलेल से गिलहरियों को मारने लगे । गिलहरियाँ उन्हें देखते ही चीं चीं करके भागने लगी । पर सामान्य बच्चों से उन्हें  डर नहीं लगता था । और बाद में कंजङों ने एक पैनी पत्ती से उनकी पूँछ  काटकर बाकी शरीर नदीं में फ़ेंक दिया । मेरे साथी ने बताया ।  पूँछ से ब्रुश बनाया जाता है । मुझे भी लालच आ गया । और मैंने दीवाल के  छेद में बैठी गिलहरी को मार डाला । फ़िर उन लोगों की ही तरह मैंने उसकी  पूँछ काटने की बेहद कोशिश की । पर ये काम मुझसे न हुआ । अन्त में मैंने उस गिलहरी को ऐसे ही दफ़ना दिया । मैंने उसे एक आलमारी में छुपा दिया था । और रोज देखता था । इन हत्याओं को याद करके मैं बेहद रोता था । पर जो होना था । हो चुका था । इसका मुझे भयंकर दन्ड मिला । हर गलती का दन्ड निश्चित ही मिलता है ।
अब अगले भोग जनम हैं ही नहीं - सच्चे योग में किसी भी साधक को अपनी स्थिति पता होती है । वाल्मीक नारद घट जोनी । निज निज मुखन कही निज होनी । ये अनुभव की बात अधिक है । बजाये बताने के  ।
क्या अब आपको परमहँस दीक्षा मिल गयी है - जमाना गुजर गया । ये सब स्पष्ट बताया नहीं जाता । समझने की कोशिश करें ।
 इसके आध्यात्मिक पहलू - इंसान के द्वारा जो भी होता है । अच्छा या बुरा । उसका फ़ल हर सूरत में भोगना होता है । इसलिये एक एक कदम सोच समझकर उठाना चाहिये । शेष फ़िर कभी । धन्यवाद ।
 नोट - की बोर्ड में कुछ प्राब्लम आ गयी है । अतः सभी उत्तरों में बिलम्ब हो सकता है ।

10 मई 2011

यह तुम्हें मिटाने का उपाय है

यह जो माला तुम्हारे गले में डाल दी है । यह कोई फांसी से कम नहीं है । यह तुम्हें मिटाने का उपाय है । ये जो वस्त्र तुम्हारे गैरिक अग्नि के रंगों में रंग दिए । ये ऐसे ही नहीं हैं । यह तुम्हारी चिता तैयार है । तुम मिटोगे । तो ही तुम्हारे भीतर परमात्मा का आविर्भाव होगा । संन्यास साहस है - अदम्य साहस है । और मेरा संन्यास तो और भी । क्योंकि इसके कारण तुम्हें कोई समादर न मिलेगा । इसके कारण तुम्हें कोई पूजा, शोभा यात्रा, कोई जुलूस, कुछ भी न होगा । इसके द्वारा तो तुम जहां जाओगे । वहीं अड़चन, वहीं झंझट होगी । पत्नी, बच्चे, पिता, मां, परिवार, दूकान, ग्राहक ।  जहां तुम जाओगे ।  वहीं अड़चन होगी । यह तो मैं तुम्हारे लिए सतत उपद्रव खड़ा कर रहा हूं । लेकिन इस उपद्रव को अगर तुम शातिपूर्वक झेल सके । तो इसी से साक्षी का जन्म हो जाएगा । इस उपद्रव को अगर तुम मेरे प्रेम के कारण झेलने को राजी रहे । तो इसी से भक्ति का जन्म हो जाएगा ।
*************
पूजा - जो भी हम पूजते हैं । वह सिर्फ 1 खेल है । वह अच्छा है । यदि तुम्हें पूजा करना अच्छा लगता है । ठीक है । खेल अच्छा है । और मैं कभी भी किसी के खेल को बिगाड़ने में उत्सुक नहीं हूं । यदि तुम पूजा करने में रस लेते हो । और चर्च जाते हो । तो यह अच्छा है । जाते रहो । लेकिन याद रखो कि तुम बुनियादी बात चूक रहे हो कि वह आत्यंतिक पूजा करने वाले के भीतर छिपा है । इसलिए जब पूजा करो । तो अपनी आंखों को पूजा की जाने वाली वस्तु पर ही मत टिकाये रखना । अपने को भीतर पूजा करने वाले पर केंद्रित करना । वहां वह प्रगट होगा । वहीं वह छिपा है ।
********
विज्ञान शब्द का अर्थ ही होता है - जानना । और यदि कुछ अज्ञेय है । तो विज्ञान उसके लिए सहमति नहीं देगा । विज्ञान उससे राजी नहीं होगा । विज्ञान का अर्थ होता है - वह । जिसे जाना जा सकता है । इसलिए विज्ञान रहस्यपूर्ण नहीं है । वह निरर्थक बातों में नहीं पड़ता । विज्ञान के लिए आत्मज्ञान शब्द ही निरर्थक है । परंतु फिर भी धर्म अर्थपूर्ण है । क्योंकि जानने का 1 दूसरा आयाम भी है ।
*********
खेलपूर्ण - तुम्हारी प्रौढ़ता झूठी है । क्योंकि वह तुम्हारे बचपन के विरुद्ध है । 1 बच्चा पैदा हुआ था । प्रौढ़ता निर्मित की गई है । बच्चा प्राकृतिक था । तुम कृत्रिम हो । संस्कारित हो । तम्‍हें अपने बचपन की ओर लौटना पड़ेगा । स्रोत की ओर लौटना पड़ेगा । जहां से कि विकास संभव है । इसलिए तुम्हारे खेलपूर्ण होने पर मेरा इतना जोर है ।
*****
मैं - महान ईसाई संत मिस्टर इकहार्ट ने कहा है कि सिर्फ परमात्मा ही " मैं " कह सकता है । कोई व्यक्ति वस्तुत: नहीं कह सकता है - मैं । क्योंकि मैं का संबंध समग्र से है । मेरा हाथ नहीं कह सकता है - मैं । क्योंकि हाथ तो मेरा है । मेरा पांव नहीं कह सकता - मैं । क्योंकि पांव तो मेरा है । मेरा पांव । मेरा हाथ । मेरी आंखें । वे नहीं कह सकते - मैं । क्योंकि वे सब हिस्से हैं । 1 वृहत इकाई के अंग हैं । तुम भी अपने आप में 1 इकाई नहीं हो । तुम 1 विराट समग्रता के हिस्से हो । तुम सिर्फ 1 अंश हो । 1 आणविक कोष हो समग्र के । तुम नहीं कह सकते - मैं ।
*********
बुद्धपुरुष - विवेकानंद ने कहा है । और वह बात बहुत सच है कि बुद्धपुरुष, कृष्ण और क्राइस्ट जिन्हें कि हम जानते हैं । वे असली प्रतिनिधि नहीं हैं । वे केंद्र नहीं हैं । वे सिर्फ परिधि पर हैं । जो केंद्र की घटना है । वस्तुत: वह तो इतिहास के लिए अज्ञात ही रही । जो लोग इतने मौन हो गये कि वे हमसे कोई बात न कर सके । वे तो अज्ञात ही रहे । उन्हें जाना भी नहीं जा सकता । उन्हें जानने का कोई मार्ग भी नहीं है । 1 अर्थ में विवेकानंद सही हैं । किंतु जो लोग इतने मौन हो गये कि उन्होंने अपने अनुभव के बारे में कुछ भी बोला । उन्होंने हमारी कोई सहायता नहीं की । वे हमारे प्रति करुणाजनक भी नहीं रहे । 1 अर्थों में वे पूरी तरह स्वार्थी ही रहे ।
*******
मन 1 उपाय है । साधन है । बाहर के संसार में जीने के लिए । उसकी भीतर कोई जरूरत नहीं है । और यदि तुम उसे भीतर ले गए । तो तुम भीतर प्रवेश नही कर सकते । मन के साथ तुम बाहर जा सकते हो । तुम भीतर नहीं जा सकते । मन को गिरा दो । उसे अलग रख दो । कह दो - अब तुम्हारी जरूरत नहीं है । मैं भीतर की यात्रा पर जा रहा हूं । वहां तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है ।
**********
यत्र यत्र मनो देही धारयेत सकलं धिया ।
स्नेहाद द्वेषाद भयाद वापि याति तत्सरूपताम ।
- यदि कोई मनुष्य प्रेम से या द्वेष से अथवा भय से या जानबूझ कर ही एकाग्र रूप से किसी वस्तु ( अथवा देवी, देवता, प्रेत आदि ) में अपना मन लगा दे । तो उसे उसी वस्तु का स्वरूप प्राप्त हो जाता है । श्रीमदभागवत, एकादश स्कन्ध, अध्याय 9 श्लोक 22