08 जुलाई 2011

संसार में दो ही हस्तियाँ हैं जो पूजा के योग्य हैं

किसी श्रद्धालु सतसंगी ने सतसंग के मध्य प्रश्न किया - महाराज ! मैंने ऐसा सुना है कि निर्वाणी सत्य नाम अभ्यास के दौरान स्थिति बनने पर किसी किसी साधक भक्त को भय भी लगता है । ऐसा क्यों ?
उत्तर - हरेक इंसान ने अब तक हुये करोंङो जन्मों में वासनाओं के वशीभूत होकर जाने अनजाने में बहुत पाप किये हैं । वे पाप रूपी संस्कार उस साधक के सामने जब प्रकट होते हैं ।
उस नयी स्थिति का अभ्यस्त न होने के कारण साधक भक्त डर जाता है । वास्तव में तो वे पाप संस्कार प्रकट होकर योग द्वारा जलते हैं ।
जब इस आत्मा को सच्चे सदगुरु के शरणागत हो जाने पर काल तक हाथ नहीं लगा सकता । यमदूत हाथ नहीं लगा सकते । ऋद्धियाँ सिद्धियाँ अन्य शक्तियाँ इसको प्रणाम करती हैं । तो फ़िर अन्य कौन है । जो डरायेगा । वास्तव में ये अपने पापकर्मों की आवृति को योगस्थ स्थिति में प्रकट देख डर जाता है । पर ऐसा भी अनुभव सभी को नहीं होता । सहज योग आनन्ददायी योग है । इसमें भय काल कलेश का कोई स्थान ही नहीं है ।
सदगुरु इसको सन्तमत की शिक्षा देकर पारबृह्म में ले जाकर गुरुमुख बनाते हैं । अब गुरु क्या करता है ।
इसके बारे में अर्जुन देव जी ने कहा है - जब किसी शिष्य का जीवन पूरा होकर उसका अन्त समय आ जाता है । तो गुरु आकर उस शिष्य को अपने साथ ले जाते हैं । जिसको ये निर्वाणी नाम ( हँसदीक्षा ) मिल चुका है । उसे अन्य जीवात्माओं की तरह लेने भयंकर डरावने यमदूत नहीं

आते । इसी के भय से उनको देखकर ज्यादतर लोगों का डर की वजह से मलमूत्र निकल जाता है ।
लेकिन बृह्मांड पलट जाये । पर सच्चे गुरु का वचन कभी नहीं पलटता । उसके शिष्य को यमदूत छोङो । स्वयँ काल भी नहीं छू सकता ।
जहाँ नाम है । वहाँ ये काम क्रोध लोभ मोह आदि विरोधी ताकतें नहीं आ सकती ।
जिस तरह जहाँ बाज पक्षी आ जाता है । वहाँ चिङिया वगैरा नहीं आते । सदगुरु के साथ हमारा यही नाता है ।
बाकी जो सुख दुख हम पूर्व कर्मों के अनुसार भाग्य में लिखाकर आये हैं । वह तो हमें भोगना ही होगा ।
काया से जो पातक होई । बिनु भुगते छूटे नहीं कोई ।
उघरै अन्त न होत निबाहू । कालनेमि जिमि रावन राहू ।
हम पर मुकद्दमें भी आने हैं । बीमारियाँ भी कर्म अनुसार आयेंगी । और तकलीफ़ें भी आयेंगी । सदगुरु का उनके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । उनका सम्बन्ध तुम्हें नियमानुसार नाम भक्ति से मुक्त कराना ही है । उन्हें हमारे शरीर के सुख दुख से कम आत्मा के उद्धार से अधिक मतलब होता है ।
सगल दुख का डेरा भंना संत धूरि मुखि लाई ।

इस नाम के भजन अभ्यास को करते हुये दोनों आँखों के बीच तक शरीर को खाली करें । दसवां रास्ता खोलें । ऊपर बृह्म के देश में जायें । और फ़िर बृह्म से पारबृह्म के देश को जायें । तो वहाँ संतो की मंडलियाँ हैं । हरेक मनुष्य के अन्दर करोंङो देश करोंङो खण्ड बृह्माण्ड हैं । ईश्वर है । परमेश्वर है । पारबृह्म के देश में सन्तों की चरण धूलि है । जब हम उसमें स्नान करेंगे । तो हमारे जन्मों जन्मों के करोंङो पाप नष्ट हो जायेंगे । यह सच्चे सन्त सदगुरु से मिलने का बहुत बङा फ़ायदा है ।
इस संसार में दो ही हस्तियाँ हैं । जो सच्चे परोपकारी है । पूजा के योग्य हैं । एक तो सच्चे सन्त । और दूसरे चौथे अविनाशी राम या परमात्मा ।
कबीर साहब ने कहा है -
कबीर सेवा को दोय भले । एक सन्त एक राम । राम जो दाता मुकति का । सन्त जपावै नाम ।
पतित पुनीत कीए खिन भीतरि । अगिआनु अंधेरु बंजाई ।
जिस तरह आग की एक चिंगारी करोंङो मन लकङी को जला देती है । इसी तरह से निर्वाणी सत्य नाम की थोङी सी भी कमाई करोंङो पापों को जला देती है । वेदों शास्त्रों गृंथों पोथियों के बारबार पढते रहने से मुक्ति नहीं मिलती । मुक्ति नाम जप नाम सुमिरन से मिलती है ।

जिस वक्त नाम की कमाई की । अन्दर का परदा खुल गया । और सारे पाप नष्ट हो गये ।
ये भरम में भूली हुयी दुनियाँ आँखों के बाहर ही बैठी हुयी है । अन्दर नहीं गयी । जैसे कुत्ते बिल्ली आदि पशु पेट भर भरकर चले गये । वैसे ही यह दुनियाँ जा रही है । हमारा खाना पीना सोना आदि जीवन क्रियायें सब पशुओं के समान ही तो हैं । बाहर अग्यान ही है ।
इसलिये जब गुरु से नाम लेकर ऊपर चङोगे । तब ग्यान हो जायेगा । अग्यान जाता रहेगा । सो गुरु के मिलाप का एक फ़ायदा तो यही है ।
दूसरे गुरु जो नाम उपदेश देते हैं । जपने की युक्ति बताते हैं । उससे सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ।

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