02 जून 2011

कर्ता पुरुष किसे कहते हैं ?

हैलो सर ! मैंने कल कहा था न कि मैं तुरन्त आपके सामने सवाल लेकर आऊँगी । आपके नये वाले लेख में कबीर जी कह रहे है - धर्मदास । ये जीव सत्यपुरुष का अंश है । इसलिये जीव के आदि अन्त को कोई नहीं जानता है ।
राजीव जी ! क्या यहाँ पर " जीव " का अर्थ " आत्मा " से है ? अगर जीव यानि असल में आत्मा का अगर आदि अन्त नहीं है । तो फ़िर तो ये आदि अन्त रहित हुई । वैसे दुनिया में कोई चीज चाहे पैदा हो । या बनाई जाये । तो वो खत्म जरुर होती है । क्युँ कि पैदा हुई चीज मरेगी जरुर । और बनी हुई 1 दिन मिटेगी जरुर । तो क्या इसका मतलब इस अखिल सृष्टि में सिर्फ़ और सिर्फ़ आत्मा ही ऐसा तत्व है । जो न तो बनाया जा सके । और न ही पैदा किया जा सके ।
क्युँ कि गीता में भी श्रीकृष्ण जी अर्जुन से भी कह रहे थे कि - आत्मा तो अजन्मा है । मृत्यु तो उसकी होगी । जो पैदा हुआ हो । ( जैसे शरीर पैदा होता है । और फ़िर 1 दिन नष्ट हो जाता है )  इस बारे में आप अपने स्पष्ट विचार रखें ।
1 बात और पूछनी थी कि कर्ता पुरुष किसे कहते हैं ? या इसका असल तात्पर्य क्या है ?
राजीव जी ! आपको 1 बात और बताऊँ । मेरे मम्मी पापा में आपस में बहुत प्यार है । हम सबका ही आपस में बहुत प्यार है । हम एक दुसरे की भावनाओं का ख्याल रखते है । मेरे और मेरे मम्मी के कहने पर मेरे पापा भी तुरन्त खुशी खुशी आपका ब्लाग पढने को राजी हो गये । मेरे पापा 2 दिन से आपका ब्लाग पढ रहे है । वो अलग बात है कि वो मम्मी जितना टाइम नही दे पाते । वो अपने कामकाज में व्यस्त होने के कारण शाम को काफ़ी थके हुए आते हैं । अब मेरे परिवार में सिर्फ़ मेरा भाई रह गया है । जो आपके ब्लाग को नहीं जानता । अब जब छुट्टियों में हास्ट्ल से घर आयेगा । तो उसको कान से पकड कर आपके ब्लाग पर ले आऊँगी । आखिर मैं उसकी बडी बहन हूँ । मेरा भी तो कुछ हक बनता है ।

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क्या यहाँ पर " जीव " का अर्थ " आत्मा " से है ? अगर जीव यानि असल में आत्मा का अगर आदि अन्त नहीं है । तो फ़िर तो ये आदि अन्त रहित हुई । वैसे दुनिया में कोई चीज चाहे पैदा हो । या बनाई जाये । तो वो खत्म जरुर होती है । क्युँ कि पैदा हुई चीज मरेगी जरुर । और बनी हुई 1 दिन मिटेगी जरुर । तो क्या इसका मतलब इस अखिल सृष्टि में सिर्फ़ और सिर्फ़ आत्मा ही ऐसा तत्व है । जो न तो बनाया जा सके । और न ही पैदा किया जा सके ।

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धन्यवाद बनदीप जी ! आत्मा क्योंकि परमात्मा का अंश ही है । यहाँ अंश का मतलब उससे अलग न समझें । बल्कि ये हमेशा उसके साथ ही हैं । इसको प्रयोगात्मक रूप से समझने के लिये आप कम से कम 100 शेप की डिजायन वाला एक डायमंड ( परमात्मा ) लें । या इस बात की कल्पना कर लें । अब इस डायमंड को तेज लाइट या सूर्य के सामने लाने पर इसमें बहुत सी चमकीली किरणें ( आत्मा ) निकलेंगी । इन्ही किरणों में प्रकृति के विभिन्न रंग जुङने से ( तीन गुण - सत । रज । तम ) ये सृष्टि का पूरा खेल हो रहा है । परमात्मा और आत्मा दोनों ही ( इस माडल की तरह ) अचल स्थिर हैं । सिर्फ़ प्रकृति में हलचल ( बदलाव ) हो रहा है । इस बात को गहरायी से सोचते हुये समझने की कोशिश करें ।


क्युँ कि गीता में भी श्रीकृष्ण जी अर्जुन से भी कह रहे थे कि - आत्मा तो अजन्मा है । मृत्यु तो उसकी होगी । जो पैदा हुआ हो । ( जैसे शरीर पैदा होता है । और फ़िर 1 दिन नष्ट हो जाता है )  इस बारे में आप अपने स्पष्ट विचार रखें ।

***** वास्तव में श्रीकृष्ण ने यह आधी बात कही है । शरीर भी नष्ट नहीं होता । बल्कि उसका स्थूल आवरण उतर जाता है । मरने के बाद ऐसा नहीं लगता कि अब हमारा शरीर नहीं हैं । और न ही जीव को एक मिनट को भी ऐसा लगता है कि वह मर गया है । और न ही वह शरीर के बारे में कोई चेंज महसूस करता है । फ़िर मृत्यु के बाद उसकी गति के अनुसार शरीर ( जो बहुत प्रकार के होते हैं ) पहना दिया जाता है । ठीक उसी तरह । जिस तरह इंसान ड्रेस चेंज करता है ।

1 बात और पूछनी थी कि कर्ता पुरुष किसे कहते हैं ? या इसका असल तात्पर्य क्या है ?

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अखिल सृष्टि में एकमात्र कर्ता ( या कर्ता पुरुष ) मन या कालपुरुष या कालनिरंजन ही है । ये बात दूसरी है । ये ऐसा कर्ता है । जो खुद का काम दूसरे ( जीवात्मा ) से करवाता है । और उसकी सजा बेचारे अग्यानी और इसके जाल में फ़ँसे जीव को भुगतनी होती है ।
- यहाँ मैं एक विशेष रहस्य की बात बताना चाहूँगा । काल निरंजन - काम । क्रोध । लोभ । मोह । मद ( घमंड ) मत्सर ( जलन या ईर्ष्या ) ग्यान । वैराग्य सिर्फ़ इन 8 चीजों से जीव को भरमाता है । और करोङों जन्म से काल झूले में झुला रहा है ।
अतः सत्यपुरुष ने इसे प्रेम ( शाश्वत..न कि इंसान वाला स्वार्थ का प्रेम । इस प्रेम को आत्मिक प्रेम कहते हैं । इसमें स्त्री । पुरुष । जाति । पांति । धर्म आदि भेदभाव नहीं होता । ) और विवेक दो चीजें नहीं दीं । इन्हीं दो चीजों से काल निरंजन की चालाकी और आत्मा परमात्मा की सच्चाई पता चलती है । ये आत्मा के गुण हैं ।
उदाहरण - ये तो आप सब जानते ही हो कि ये मन 24 घंटे आपको कुछ न कुछ बात के लिये उलझाये ही रखता है । और कभी अच्छे कभी बुरे के लिये प्रेरित करता है । माया के प्रभाव से अग्यान यह है कि आपको लगता है । यह सब मैं सोच रहा हूँ । मेरे विचार है । ये " मैं " भाव आते ही यह जीव को मुजरिम बना देता है । अगर मन में कितने ही विचार आते रहें । पर जब तक आप इसको गति नहीं दोगे । ये एकदम असहाय है । तब ये मन और उसकी पत्नी माया ( जहाँ मन अटक जाय । वही माया होती है । न कि धन संपत्ति ) एकदम कमजोर हैं । अखिल सृष्टि का सबसे कमजोर । और जीव ( आत्मा ) बहुत शक्तिशाली ।

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