06 अप्रैल 2011

ये दो प्रमुख ?? अवतार लेने वाली शक्ति कौन सी है ?

जब मैंने ब्लाग शुरू ही किया था और अपने कुछ लेखों में इस बात का जिक्र कर दिया कि राम और कृष्ण , प्रमुख रूप से निरंजन उर्फ़ कालपुरुष के अवतार थे न कि विष्णु जी के । इस बात पर देश विदेश से त्वरित तीखी प्रतिक्रियायें मिलीं । क्योंकि ज्यादातर शास्त्रों में । लोगों की जानकारी में ये दोनों अवतार विष्णु के हुये थे । आईये । क्या है ? इसके पीछे की असली कहानी ? इस पर चर्चा करते हैं ।
सबसे पहले अपनी धर्म नालेज को समझें - एक साधारण धार्मिक जानकारी रखने वाले को ज्यादातर इतना ही पता होता है । प्रमुख शक्तियाँ सिर्फ़ तीन हैं । बृह्मा  विष्णु और शंकर जी । और ये अजन्मा है । अविनाशी हैं आदि आदि..। जबकि इस तरह की ज्यादातर बातें गलत हैं । एक और प्रमुख शक्ति देवियों के बारे में लोगों के विचार अलग अलग हैं । इस मामले में ज्यादातर लोग कन्फ़्यूज हैं । कोई किसी देवी को बङा बताता है । कोई किसी देवी को । देवी उपासकों की ये भी धारणा हैं कि देवी इन त्रिदेवों से भी बङी शक्ति है । और आदिशक्ति भी है । यानी सबसे पहले शुरूआत में । यह बात सही भी है । आदि का मतलब ही शुरूआत है । और इसीलिये उसे आदिशक्ति कहा जाता है । ध्यान रहे आदि.. न कि अनादि ??
अब क्योंकि इस लेख का विषय अवतारवाद पर चर्चा करना है । अतः उसी बात पर आते हैं । तो इतना आप स्वीकार करते हो कि प्रमुख शक्तियों में आप बृह्मा विष्णु शंकर और देवी को ही जानते थे । बाकी राम । कृष्ण । वामन । नरसिंह । वराह आदि हस्तियों को विष्णु का अवतार बता दिया जाता था । हनुमान आदि कोई शंकर के अंश से । कोई और कहीं से । विस्तार से नहीं कह रहा । इसलिये संक्षेप में इतना समझिये कि जिसको हिन्दू धर्म कहते हैं । उसका ज्यादातर ग्यान इन्हीं के इर्द गिर्द घूमता है । अब कोई इन्ही में विष्णु को परमात्मा बताता है । कोई शंकर को ।
अवतार का रहस्य - जैसा कि आपने गीता में श्रीकृष्ण के मुँह से सुना होगा कि ..धर्म संस्थापनाये..युगे युगे..यानी मेन बात ये कि श्रीकृष्ण धर्म संस्थापना के लिये युग युग में अवतार लेते हैं । ये कहीं नहीं सुना होगा कि मैं विष्णु धर्म संस्थापना के लिये कृष्ण रूप में अवतार लूँगा । या राम रूप में अवतार लूँगा । राम ने भी यही कहा कि - मैं असुरों का दमन और नाश करके ऋषियों मुनियों को सुख चैन से यग्यादि और धरा को पापरहित करने के लिये अवतार लेता हूँ । अब सवाल ये है कि ये दो प्रमुख ?? अवतार लेने वाली शक्ति कौन सी है ?
पहले तो शास्त्रों में इस बात को टालमटोल के अन्दाज में घुमाने की पूरी पूरी कोशिश की गयी । लेकिन खोजियों ने । छिद्रान्वेषियों ने जब बात की तह को पकङ लिया । तो इसे घुमा फ़िराकर विष्णु के ऊपर डाल दिया गया । जो कि आंशिक रूप से सच भी है ।
अब जरा आप सोचिये - विष्णु और लक्ष्मी का अपना अपना मंत्रालय है । अपनी डयूटीज है । यदि वे इस अवतार के लिये फ़ुल फ़ोर्म में यहाँ आ जायँ । तो उस अनुपस्थिति की अवधि में मन्त्रालय का कार्य कैसे होगा ?
दूसरी बात शास्त्र के ही अनुसार - यदि विष्णु को ही अवतार लेना है । तो नारद जी तो मानों हर दूसरे तीसरे दिन विष्णु जी के चाय पीने पहुँच जाते हैं । सभी देवता विष्णु के लोक से परिचित हैं । उनका आना जाना मिलना बैठना भी होता रहता है । फ़िर अवतार की चिंता की क्या बात है ?
जब भी अवतार होता है । सभी देवता लालायित होकर विभिन्न वेशों में प्रथ्वी पर आ जाते हैं कि प्रभु ?? अवतार लेने वाले हैं । अक्सर ही विष्णु जी के साथ रहने वाले देवताओं को आखिर विष्णु के रूप बदलकर अवतार लेने पर क्या आकर्षण हो सकता है ? अगर लीला देखने वाला प्वाइंट रखो । तो अवतार से बङिया लीलायें देवलोकों में होती रहती हैं ।
यदि आप शास्त्रों की सामान्य से थोङी अधिक जानकारी रखते हैं । तो सभी राक्षस विष्णु से वैर मानते हैं । असुरों को उनसे कोई खास भय भी नहीं लगता । और युद्ध आदि भी करते रहते हैं । जहाँ देवताओं के गुरु बृहस्पति है । असुरों के शुक्राचार्य । और इन सबकी मीटिंग । खुफ़िया प्लानिंग । एक दूसरे की रणनीति राजनीति आदि के बारे में जानकारी की बातें होती ही रहती हैं । आम हैं । तो ये विष्णु किसी और रूप में आ जायँ । इससे उन्हें क्या असर पङेगा ?
आप तुलसी रामायण को ही देखिये - रावण का आतंक और प्रथ्वी पर पाप का अत्यधिक बोझ । प्रथ्वी गाय का रूप रखकर देवताओं के पास जाती हैं । सभी देवता जिनमें बृह्मा विष्णु ?? शंकर भी थे । विचार करते हैं कि क्या किया जाय ? प्रभु कहाँ रहते हैं ?? कैसे उनसे अवतार की प्रार्थना की जाय ??
मुख्य बात ये है कि विष्णु को ही ये कार्य करना था । तो फ़िर इस सब झमेले की क्या आवश्यकता थी ?? वे तो साथ में ही मौजूद थे उस वक्त । गहराई से सोचिये ??
खैर..तब उसी समय शंकर जी कहते हैं - हरि व्यापक सर्वत्र समाना । प्रेम से प्रगट होत " मैं " जाना ।
इसका भी लोग गलत अर्थ लगा लेते हैं । सही यह है - प्रभु सभी जगह मौजूद हैं । जब इंसान का मैं ? यानी अहम चला जाता है । और प्रेम रह जाता है । तो प्रभु प्रगट हो जाते हैं ।
ठीक इसी तरह की उलझन कृष्ण अवतार से पहले होती है । जिसकी बेहद लम्बी चौङी भूमिका बनती है । प्रश्न वही ? यदि ये मामला विष्णु का ही है । तो फ़िर इस सबकी कोई आवश्यकता ही नहीं । अब आप इन बिंदुओं के आधार पर नये सिरे से विचार करें ।
अब प्रसंगवश एक और महत्वपूर्ण चौपाई देखिये -
जाके प्रिय न राम वैदेही । तजिये ताहि कोटि वैरी सम । जधपि परम सनेही ।
प्रचलित अर्थ - जिसको दशरथी राम सीता ( वैदेही ) प्रिय न हों । उसे चाहे वो कितना ही स्नेही प्रिय हो । करोङों वैरियों के समान त्याग देना चाहिये ।
सही अर्थ - वैदेही स्थिति ( यानी जब तन मन का होश न रहे ) में ग्यात होने वाले राम ! जिसको प्रिय न हों । उसे करोङों वैरियों के समान त्याग देना चाहिये । और दशरथ के राम मन से ही पता हैं । बच्चा बच्चा जानता है ।
ध्यान रहे । सीता के पिता जनक जी को भी वैदेही कहा जाता है । और सीता जी को भी वैदेही कहा जाता है । जनक जी योग की इस उच्च स्थिति में निपुण थे । सीता...सिर्फ़ राम का चिंतन इस उच्च स्थिति में करती थीं । इसलिये उन्हें वैदेही कहा गया है । वैदेही यानी बे - देही यानी बिना देह ( जिसमें मन भी शामिल है ) की स्थिति । यानी योग की उच्च स्थिति ! जिसमें शरीर का भान नहीं रहता ।
अब इस लेख की मुख्य बात - सच तो ये है कि हर समय यानी जब अवतार हो चुका होता है । राम ( दशरथ पुत्र ) अपने रामलोक में रहते हैं । ठीक उसी समय ( यानी हर समय ही ) श्रीकृष्ण अपने गोलोक में होते हैं । ठीक उसी समय विष्णु और शंकर भी अपने अपने लोक में होते हैं । याने पूर्णरूपेण ये लोग अपना लोक नहीं छोङ सकते । पहले तो छोङने की कोई आवश्यकता ही नहीं । और छोङे । तो किसके भरोसे छोङें ?
तब अवतार कौन लेता है - सन्तों की भाषा में अवतार आधा होता है ।..इसको इस तरह समझें कि जरूरत के मुताबिक एक नया माडल बनाया जाता है । जिसमें एक स्पेशल चेस पर.. इंजन किसी का । बाडी किसी की । पावर किसी की । ऊर्जा किसी की । सर्किट किसी का । सिस्टम किसी का आदि आदि । ( आपको दधीचि की हड्डियों का वजृ याद ही होगा ) इस तरह प्रमुख शक्तियाँ अवतार को अपनी अपनी शक्ति का अंश उस वक्त की जरूरत के अनुसार दे देती हैं । देती रहती हैं । ( जिस तरह विश्व में किन्हीं देश में युद्ध होने पर एक अस्थायी अड्डा बनाकर वहाँ आवश्यक चीजें पहुँचायीं जातीं हैं ) अवतार का कार्य समाप्त होने पर ये सभी शक्ति अंश जहाँ के तहाँ चले जाते हैं । अब क्योंकि राम और कृष्ण के अवतार में मुख्य भूमिका निरंजन और कालपुरुष की होती है । ( क्योंकि चालाक राक्षस वरदान मांग लेते हैं कि वे किसी देवता से कभी भी न मारे जायँ । और राम । कृष्ण । विष्णु आदि सभी किसी न किसी एंगल से देवताओं की श्रेणी में आते हैं । निरंजन इनमें से किसी उपाधि से युक्त नहीं हैं । राक्षसों के लिये अपरिचित है । त्रिलोकी की सर्वोच्च सत्ता है । अतः इन अवतारों का आधार वही होता है ) उससे कम विष्णु की । इन्द्र की..और अन्य देवताओं की ।
अब क्योंकि काल निरंजन सदैव ही अदृश्य और गुप्त शक्ति है । अतः ये बात विष्णु के लिये कह दी जाती है । ( क्योंकि ज्यादातर अवतारों का जिम्मा उन्हीं का है । दूसरे आखिर किसी को तो मानेंगे । अन्यथा ये समस्या पैदा हो जायेगी कि ये गुप्त भगवान आखिर कौन हैं ? ) क्योंकि निरंजन कभी नहीं चाहता कि कोई उसको जाने । अतः निरंजन का सिर्फ़ दो बेस राम और कृष्ण के रूप में अवतार होता है । जब राम रूप में होता है । तब राम के ( अंश अधिक ) सव यथोचित गुण होते हैं । और कृष्ण रूप में - तब कृष्ण के ( अंश अधिक ) सभी गुण होते हैं । अतः शास्त्र अवतार के बारे में कोई सटीक बात नहीं कहते । इसलिये प्रसंग अनुसार ( और कालपुरुष की इच्छानुसार महामाया के खेल से ) यह बात विष्णु के लिये भी कह दी जाती है । जो आंशिक ही सही सच है ।
हालांकि मैंने आपको साधारण तरीके से मोटे अन्दाज में बात समझाने की कोशिश अवश्य की है । वास्तव में रियल मैटर थोङा और अधिक जटिल है ।
विशेष - समयाभाव की वजह से लेख में कोई भाव कभी कभी अधूरा रह जाता है । कभी कभी कोई प्वाइंट मिस भी हो जाता है । अतः एकदम कोई धारणा न बनायें । यदि कोई प्रश्न उठता है । तो चर्चा करें ।

2 टिप्‍पणियां:

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत गहन चिंतन..सोचने को मज़बूर कर देता आलेख..आभार

बेनामी ने कहा…

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