25 अप्रैल 2010

इस हँसी का क्या रहस्य है


एक बार राजा भोज की पत्नी भोज को स्नान करा रही थी दोनों आनन्द का अनुभव कर रहे थे . भोज बार बार अपनी पत्नी से आग्रह करते कि पानी और डालो इस पर उनकी पत्नी जोर जोर से हंसने लगी . राजा ने पूछा कि तुम क्यों हंस रही हो इस पर उसने कहा कि ये बताने की बात नहीं है . लेकिन राजा अङ गया कि तुम्हें बताना होगा . तब उसने कहा कि ये बात तुम्हें मैं नहीं मेरी बहन बतायेगी उल्लेखनीय है कि भोज की पत्नी उस ग्यान को जानती थी जिसमें पूर्वजन्म का ग्यान होता है .उसकी बहन भी इस ग्यान को जानती थी पर क्योंकि इस ग्यान का संसार के नातों से कोई सम्बन्ध नहीं होता इसलिये कितना भी सगा हो उसे ये ग्यान नहीं बताते . बताने पर ये ग्यान नियम विरुद्ध हो जाने से चला जाता है .

राजा भोज अपनी भारी जिग्यासा के चलते अपनी साली के घर पहुँचा वहाँ उस वक्त कोई कार्यक्रम चल रहा था अतः राजा बात न पूछ सका फ़िर फ़ुरसत मिलते ही राजा ने वह प्रश्न अपनी साली से कर दिया तब उसने कहा कि तुम्हारी बहन ने कहा है कि बार बार पानी डालने की बात पर हंसने का रहस्य मेरी बहन बतायेगी..तब राजा की साली ने कहा कि आज आधी रात को बच्चे को जन्म देते ही मेरी मृत्यु हो जायेगी इसके अठारह साल बाद मेरे पुत्र जिसका आज जन्म होगा उसकी पत्नी तुम्हें ये राज बतायेगी .
राजा ने बहुत हठ किया पर इससे ज्यादा बताने से उसने इंकार कर दिया .ठीक वैसा ही हुआ पुत्र को जन्म देकर भोज की साली मर गयी..राजा ने अठारह साल तक बेसब्री से इंतजार किया

और फ़िर वो दिन आ ही गया जब उस पुत्र का विवाह हुआ राजा उसी बात का इंतजार कर रहा था सो जैसे ही उसे
वधू से मिलने का मौका मिला . उसने कहा मैं अठारह साल से इस समय का इंतजार कर रहा हूँ....और भोज ने पूरी
बात बता दी . वधू ने कहा कि पहले तो आप ये बात न ही पूछो तो बेहतर है और अगर पूछते ही हो तो मेरे पति से कभी इसका जिक्र न करना..अन्यथा वो पति धर्म से विमुख हो जायेगा और इससे विधान में खलल पङेगा..राजा मान गया .

तब उस वधू ने कहा कि आज जो मेरा पति है अठारह साल पहले इसे मैंने ही जन्म दिया था ...तुम्हारी पत्नी इस लिये हंस रही थी कि इससे पहले के जन्म में जब तुम उसके पुत्र थे वह तुम्हें बाल अवस्था में नहलाने के लिये पकङती थी तब तुम नहाने से बचने के लिये बार बार भागते थे..और आज स्वयं तुम पानी डालने को कह रहे थे..इसलिये उस जन्म की बात याद कर वो हस रही थी ..उसने या मैंने उसी समय तुम्हें ये बात इसलिये नहीं बतायी कि वैसी अवस्था में तुम उसे पत्नी मानने के धर्म से विमुख हो सकते थे...यह बात सुनते ही राजा में गहरा वैराग्य जाग्रत हो गया . यही प्रभु की अजीव लीला है .

20 अप्रैल 2010

जिन्दगी का हिसाब किताब


मैं आपसे कहूँ कि 36 500 रु कितने है अधिक या कम . तो आप कहेगे कि क्या अजीव प्रश्न है ये प्रश्न आपकी जिन्दगी से बहुत बङा ताल्लुक रखता है . अगर आप 100 बरस की निर्विघ्न आयु जीते है तो इंसान की जिंदगी इतने ही दिनों की होती है , अब आप एक और हिसाब लगाओ यदि आप 8 घन्टे सोते और सुबह शाम 2 -2 घन्टे आपके खाने पीने स्नान आदि दिनचर्या में निकल जाते हैं जो कि अमूमन हरेक के निकल ही जाते हैं तो आपके कुल 12 घन्टे ऐसे हुये जिनमें आप को मजबूरन समय देना ही पङेगा . इसका मतलब यह हुआ कि 24 घन्टे में से

आपके 12 घन्टे प्रतिदिन अर्थहीन जानें ही हैं और इसका सीधा सा अर्थ ये हुआ कि आपकी एक्टिव लाइफ़ सिर्फ़ 50 बरस की रह गयी वो भी तब जब आप 100 बरस तक निरोग जिंये अन्यथा आप स्वयं अन्दाजा लगा सकते हैं .

अब इसमें सोचिये कि 18 या 20 तक तो हमें ठीक से समझ ही नहीं आ पाती .फ़िर जब कुछ समझते भी हैं तो अम्मा अब्बा वो अजीव लड्डू खिला देते हैं जिसको खाने वाला भी पछताता है और न खाने वाला भी

" रघुनन्दन फ़ूले न समाये लगुन आयी हरे हरे.." समझ गये .

अब थोङा ग्यान ध्यान की तरफ़ रुख जाता भी तो कामिनी या कन्त पीछा नहीं छोङते..इस ख्वावम ख्यालम से पिंड छूटता है तब तक आंगन में "हुआ हुआ" होने लगती है..पहले लिपिस्टिक पाउडर की चिंता वाला अब टाफ़ी चाकलेट की फ़िक्र में जुट जाता है......

after 60 year of life ..

अरे लुट गयो रे ..काहे चक्कर में पङ गयो में..क्योंकि तब तक सुहावनी (डरावनी) लगने लगती है .बच्चा यदि नेह करता भी है तो उसके पास टाइम नहीं है ...कहने का अर्थ ये कि 60 तक की लाइफ़ अमूमन इसी तरह निकल जाती है . धीरे धीरे शरीर जर्जर होने लगता है और आपको लगता है कि कुछ ऐसा है जो कहीं खो गया है और जिसकी आपको तलाश है कुछ ही समय बाद काल झपट्टा मार देता है और आपको 84 में डाल दिया जाता है विचार कर देखो दोष किसका था .

एक भरम था जो जीया मैंने एक भरम था जो खाया मैंने
एक भरम था जो पीया मैंने सच यह है किसी और को नहीं
खुद को था धोखा दिया मैंने

18 अप्रैल 2010

हिन्दू कहत हैं राम हमारा मुसलमान रहमाना ,

हिन्दू कहत हैं राम हमारा मुसलमान रहमाना ,
आपस में दोऊ लङे मरत है मरम काहु न जाना
अवलि अलह नूर उपाइया ,कुदरत के सभ बंदे ,
एक नूर ते सभ जग उपजया को भले को मंदे
दादू दावा दूर कर विन दावा दिन काट,
केते सौदा कर गये पंसारी की हाट
काम तजे ते क्रोध ना जाई ,क्रोध तजे ते लोभा,
लोभ तजे अहंकार न जाई मान बङाई शोभा
आप आप को आप पिछानो , कहा और का नेक न मानों
इन्द्रिन के बस मन रहे, मन के बस रहे बुद्धि ,
कहो ध्यान कैसे लगे ऐसो जहाँ विरुद्ध
कोटि जतन से यह नही माने, धुन सुन कर मन समझाई
जोगी जुक्ति कमावे अपनी ग्यानी ग्यान कराई
तपसी तप कर थाक रहे हैं,जती रहे जत लाई
ध्यानी ध्यान मानसी लावे, वह भी धोखा खाई
पंडित पढ पढ वेद बखाने, विधा बल सब जाई
बुद्धि चतुरता काम न आवे,आलस रहे पछिताई
और अमल का दखल नहीं है,अमल शब्द लों लाई
गुरु मिले जब धुन का भेदी,शिष्य विरह धर आई
सुरत शब्द की होय कमाई,तब मन कछु ठहराई
सोता मन कस जागे भाई,सो उपाय में करूँ बखान
तीर्थ करे वर्त भी राखे,विद्धा पढ के हुये सुजान
जप तप संजम बहु विध धारे,मौनी हुये निदान
अस उपाय हम बहुतक कीन्हे ,तो भी ये मन जगा न आन
खोजत खोजत सतगुरु पाये,उन यह जुक्ति कही परमान
सतसंग करो संत को सेवो, तन मन करो कुरवान
सतगुरु शब्द सुनो गगना चढ, चेत लगाओ अपना ध्यान
जागत जागत अब मन जागा , झूठा लगे जहान
मन की मदद मिली सुरत को, दोनों अपने महल समान
बिना सबद यह मन नहीं जागे , करो चाहे कोई अनेक विधान
जिन्होने मार ये मन डाला , उन्ही को सूरमा कहना
बङा वैरी ये मन घट में इसी का जीतना कठिना
पङो तुम इसही के पीछे और सब जतन तजना
गुरु की प्रीत कर पहले , बहुर घट शब्द को सुनना
मान लो बात ये मेरी करो मत और कुछ जतना
शबदे धरती सबद अकास ,शबदे शबद भया परगास
सगली स्रस्ट शबद के पाछे ,नानक सबद घटे घट आछे
जबहि नाम हिरदे धरा ,भया पाप का नास
मानो चिनगी आग की परी पुरानी घास

चौथे महल पुरुष एक स्वामी


चौथे महल पुरुष एक स्वामी । जीव अंश वह अंतरजामी ।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी । चेतन अमल सहज सुखराशी ।
करम प्रधान विश्व रचि राखा । जो जस करे सो तस फ़ल चाखा ।
पसु पक्षी सुर नर असुर । जलचर कीट पतंग । सबही उतपति करम की । सहजो नाना रंग ।
धनवन्ते सब ही दुखी । निर्धन है दुख रूप । साध सुखी सहजो कहे । पायो भेद अनूप ।
तन धर सुखिया कोई न देखा । जो देखा सो दुखिया हो ।
उदय अस्त की बात कहतु है । सबका किया विवेका हो ।
घाटे बाढे सब जग दुखिया । क्या गिरही बैरागी हो ।
शुकदेव अचरज दुख के डर से । गर्भ से माया त्यागी हो ।
जोगी दुखिया । जंगम दुखिया । तपसी का दुख दूना हो ।
आसा तृष्ना सबको व्यापे  । कोई महल न सूना हो ।
साँच कहौ तो कोई न माने । झूठ कहा नहि जाई हो ।
बृह्मा विष्नु महेसर दुखिया । जिन यह राह चलाई हो ।
अबधू दुखिया । भूपति दुखिया । रंक दुखी विपरीती हो ।
कहे कबीर सकल जग दुखिया । संत सुखी मन जीती हो ।
कोई तो तन मन दुखी । कोई चित्त उदास । एक एक दुख सभन को । सुखी संत का दास ।
भीखा भूखा कोई नहीं । सबकी गठरी लाल । गिरह खोल न जानही । ताते भये कंगाल ।
नीच नीच सब तर गये । संत चरन लौलीन । जातहि के अभिमान से । डूबे बहुत कुलीन ।
बङे बङाई पाय कर । रोम रोम हंकार । सतगुरु के परचे बिना । चारों वरन चमार ।
पलटू ऊँची जाति को । जन कोई करे हंकार । साहेब के दरबार में । केवल भक्ति प्यार ।
ज्यों तिल माँही तेल है । ज्यों चकमक में आग । तेरा साईं तुझ में है । जाग सके तो जाग ।
ज्यों नैनन में पूतरी । यों खालिक घट माँहि । मूरख लोग न जानहीं । बाहर ढूँढन जाँहि ।
जा कारन जग ढूँढया । सो तो घट ही माँहि । परदा दिया भरम का । ताते सूझे नाहिं ।
दूध मध्य ज्यों घीव है । मिहंदी माँही रंग । जतन बिना निकसे नहीं । चरनदास सो ढंग ।
जो जाने या भेद कूँ । और करे परवेस । सो अविनासी होत है । छूटे सकल कलेस ।
दादू जीव न जाणे राम को । राम जीव के पास । गुरु के सबदो बाहिरा । ताते फ़िरे उदास ।
दूर कहे ते दूर है । राम रहया भरपूर । नैनहूँ बिन सूझे नहीं । ता थे रवि कत दूर ।
कोई दौङे द्वरिका । कोई काशी जाहि । कोई मथुरा को चले । साहिब घट ही मांहि ।
सब घट माहें राम रहया । बूझे बिरला कोइ । सोई बूझे राम को । जो राम सनेही होय ।
काँकर पाथर जोर के । मसजिद लयी चुनाय । या चढ मुल्ला बांग दे । क्या बहरा हुआ खुदाय ।
मुल्ला चढ किलकारिया । अलख न बहिरा होय । जेहि कारन तू बांग दे । सो दिल ही अंदर जोय ।
तुर्क मसीते हिन्दू  । देहरे आप आपको धाय । अलख पुरुष घट भीतरे । ता का द्वार न पाय ।

15 अप्रैल 2010

हरि इच्छा भावी बलवाना


मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावे साखा॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदय बिचारत संभु सुजाना॥
संकर सहज सरुप सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा
बीते संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं
जो बिनु बोले जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥
जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहु न संदेहा॥
तदपि बिरोध मान जहं कोई। तहाँ गए कल्यानु न होई॥
भांति अनेक संभु समुझावा। भावी बस न ग्यानु उर आवा॥
जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब ते कठिन जाति अवमाना॥
समरथ कहु नहिं दोषु गोसाई। रबि पावक सुरसरि की नाईं
तपबल रचइ प्रपंच बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥
तपबल संभु करहिं संघारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा॥
तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तपु अस जिय जानी॥
मातु पिता गुर प्रभु के बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥
गुर के बचन प्रतीति न जेही। सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेही॥
मनु थिर करि तब संभु सुजाना। लगे करन रघुनायक ध्याना
पर हित लागि तजइ जो देही। संतत संत प्रसंसहिं तेही॥
ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना॥
सदाचार जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटकु सब भागा॥
सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥

तब सिव तीसर नयन उघारा। चितवत कामु भयउ जरि छारा
तात अनल कर सहज सुभाऊ। हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ॥
जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥
पर घर घालक लाज न भीरा। बांझ कि जान प्रसव के पीरा॥
अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥
करम लिखा जो बाउर नाहू। तो कत दोसु लगाइअ काहू॥
कत बिधि सृजी नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहु सुखु नाहीं॥
सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहु न सोहाहीं॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥
सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥
पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥
राम चरित अति अमित मुनीसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥
हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तह सपनेहु नहिं जाहीं॥
प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहु ब्रह्म अनादी॥
सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनंग आराती॥
रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥
गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जंह पावहिं॥
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी
पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥
औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
जेहि जाने जग जाइ हेराई। जागे जथा सपन भ्रम जाई॥
मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥
जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥
नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥
ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥
जिन्ह हरिभगति हृदय नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥३॥
कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥
रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥
अग्य अकोबिद अंध अभागी। काई बिषय मुकर मन लागी॥
लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहु संतसभा नहिं देखी॥
जिन्ह के अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥
बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥
जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना॥
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसे। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसे॥
जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा॥
निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी
सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
जासु सत्यता ते जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥
जो सपनें सिर काटे कोई। बिनु जागे न दूरि दुख होई॥
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
असि सब भांति अलौकिक करनी।महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥

बिबसहु जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥
सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं
राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥
तदपि संत मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना
जब जब होइ धरम के हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा
राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक ते एका॥
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करे अन्यथा अस नहिं कोई॥
अति प्रचंड रघुपति के माया। जेहि न मोह अस को जग जाया
सुनु मुनि मोह होइ मन ताके। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाके
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहू साधा॥
जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदय तुरंत बिश्रामा॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरे। असि परतीति तजहु जनि भोरे॥
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥
हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस ते नाना॥३॥
ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥
जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई॥
सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी

आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया
कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहु जिन्ह के धरम न दाया॥
जाके हृदय भगति जसि प्रीति। प्रभु तहं प्रगट सदा तेहि रीती॥
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहि मैं जाना॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥
अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहे।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहे॥
जीव चराचर बस के राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे॥
भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही॥
मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥
देखरावा मातहि निज अद्भुत रुप अखंड। रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड॥
अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन॥
काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥
देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी॥
देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥
गुरगृह गए पढ़न रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥
तब रिषि निज नाथहि जिय चीन्ही। बिद्यानिधि कहु बिद्या दीन्ही॥
जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा
जिन्ह के रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥
मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।
महामत्त गजराज कहु बस कर अंकुस खर्ब॥

जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥
का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुके पुनि का पछितानें
लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई॥

मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन।

मूक होइ बाचाल पंगु चढइ गिरिबर गहन। जासु कृपा सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन..
बंदउ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि। महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर
बंदउ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू
सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किए तिलक गुन गन बस करनी
श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हिय होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू

उघरहिं बिमल बिलोचन हिय के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहं जो जेहि खानिक
जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान। कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥
सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा
अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥
मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करे जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥
बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥
मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहु बेद न आन उपाऊ॥
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला॥
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥५॥
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
उदय केत सम हित सबही के। कुंभकरन सम सोवत नीके॥३॥
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहु कि कागा॥
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई
भलो भलाइहि पे लहइ लहइ निचाइहि नीचु। सुधा सराहिअ अमरता गरल सराहिअ मीचु
उधरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू
किएहु कुबेष साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारी
आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥
सीय राममय सब जग जानी। करउ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥
प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागहि फीकी॥
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी
बिधुबदनी सब भांति संवारी। सोह न बसन बिना बर नारी
धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥
जो अपने अवगुन सब कहऊ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊ॥
ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महु जानिहहिं सयाने॥
एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥
कबि न होउ नहिं चतुर कहावउ। मति अनुरूप राम गुन गावउ॥
सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना
कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मंत्र जाल जिन्ह सिरिजा॥
अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥
महाबीर बिनवउ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥
महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासी मुकुति हेतु उपदेसू
महिमा जासु जान गनराउ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ
जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू
सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेईं पिय संग भवानी
नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को
सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥
समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी
को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू
देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना
नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥
नाम जीह जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीह जपि जानहिं तेऊ
साधक नाम जपहिं लय लाए। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाए
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी
राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥
चहू चतुर कहु नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा
चहु जुग चहु श्रुति नाम प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ
सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
नाम सुप्रेम पियूष हद तिन्हहु किए मन मीन
अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मोरे मत बड़ नामु दुहू ते। किए जेहिं जुग निज बस निज बूते॥
उभय अगम जुग सुगम नाम ते। कहेउ नामु बड़ ब्रह्म राम ते॥
ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन आनंद रासी
निरगुन ते एहि भांति बड़ नाम प्रभाउ अपार।
कहउ नामु बड़ राम ते निज बिचार अनुसार
नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा॥
राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥
सहित दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा॥
राम सुकंठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ॥
नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥
राम भालु कपि कटकु बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥
नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं
ब्रह्म राम ते नामु बड़ बर दायक बर दानि।
रामचरित सत कोटि महं लिय महेस जिय जानि
नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥
सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी
नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू
ध्रुव सगलानि जपेउ हरि नाऊं। पायउ अचल अनूपम ठाऊ॥
सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई
चहु जुग तीनि काल तिहु लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥
नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥
भाय कुभाय अनख आलसहू। नाम जपत मंगल दिसि दसहू॥
नाना भांति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा
चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजे तनु नहिं संसारा
मन करि विषय अनल बन जरई। होइ सुखी जौ एहिं सर परई
अति खल जे बिषई बग कागा। एहिं सर निकट न जाहिं अभागा॥
आवत एहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई
गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला
सकल बिघ्न ब्यापहि नहिं तेही। राम सुकृपा बिलोकहिं जेही
सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई
जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई
काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥
सादर मज्जन पान किए ते। मिटहिं पाप परिताप हिए ते
राम नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा
संतत जपत एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा
नारि बिरह दुखु लहेउ अपारा। भयहु रोषु रन रावनु मारा
जपत उमा संग संभु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥
प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।
सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि
जैसे मिटे मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद

रामायण सार दोहे

राम चरित सत कोटि अपारा। श्रुति सारदा न बरने पारा।।
राम चरित जे सुनत अघाहीं। रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं।।
नर सहस्त्र महं सुनहु पुरारी। कोउ एक होइ धर्म ब्रतधारी।।
धर्मसील कोटिक महं कोई। बिषय बिमुख बिराग रत होई।।
कोटि बिरक्त मध्य श्रुति कहई। सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई।।
ग्यानवंत कोटिक महं कोऊ। जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ।।
तिन्ह सहस्त्र महुं सब सुख खानी। दुर्लभ ब्रह्मलीन बिग्यानी।।
धर्मसील बिरक्त अरु ग्यानी। जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी।।
सब ते सो दुर्लभ सुरराया। राम भगति रत गत मद माया।।
माया कृत गुन दोष अनेका। मोह मनोज आदि अबिबेका।।
तबहि होइ सब संसय भंगा। जब बहु काल करिअ सतसंगा।।
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा। किए जोग तप ग्यान बिरागा।।
कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा। समुझइ खग खगही के भाषा।।
मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही।।
तृषना केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा।।
मोह न अंध कीन्ह केहि केही। को जग काम नचाव न जेही।।
तृषना केहि न कीन्ह बौराहा। केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा।।
ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।
केहि के लोभ बिडंबना कीन्हि न एहि संसार।।

श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि। मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि।।
गुन कृत सन्यपात नहि केही। कोउ न मान मद तजेउ निबेही।।
जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा। ममता केहि कर जस न नसावा।।
मच्छर काहि कलंक न लावा। काहि न सोक समीर डोलावा।।
चिंता सांपिनि को नहिं खाया। को जग जाहि न ब्यापी माया।।
कीट मनोरथ दारु सरीरा। जेहि न लाग घुन को अस धीरा।।
सुत बित लोक ईषना तीनी। केहि के मति इन्ह कृत न मलीनी।।
यह सब माया कर परिवारा। प्रबल अमिति को बरने पारा।।
सिव चतुरानन जाहि डेराहीं। अपर जीव केहि लेखे माहीं।।
ब्यापि रहेउ संसार महु माया कटक प्रचंड।। सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाखंड।।
सो दासी रघुबीर के समुझे मिथ्या सोपि। छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउ पद रोपि।।
जो माया सब जगहि नचावा। जासु चरित लखि काहु न पावा।।
सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा। नाच नटी इव सहित समाजा।।
माया बस्य जीव अभिमानी। ईस बस्य माया गुनखानी।।
परबस जीव स्वबस भगवंता। जीव अनेक एक श्रीकंता।।
मुधा भेद जद्यपि कृत माया। बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया।।
ऐसेहि हरि बिनु भजन खगेसा। मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा।।
हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या।।
भगति हीन गुन सब सुख ऐसे। लवन बिना बहु बिंजन जैसे।।
मम माया संभव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा।।
सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए।।
भगति हीन बिरंचि किन होई। सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई।।
भगतिवंत अति नीचउ प्रानी। मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी।।
अखिल बिस्व यह मोर उपाया। सब पर मोहि बराबरि दाया।।
तिन्ह मंह जो परिहरि मद माया। भजे मोहि मन बच अरू काया।।
पुरूष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ। सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ।।
कबहू काल न ब्यापिहि तोही। सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही।।
तब ते मोहि न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया।।
निज अनुभव अब कहउ खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहि कलेसा।।
राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई।।
जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती।।
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल के चिकनाई।।
बिनु संतोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहु नाहीं।।
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल बिहीन तरु कबहु कि जामा।।
बिनु बिग्यान कि समता आवइ। कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ।।
श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई। बिनु महि गंध कि पावइ कोई।।
बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा। जल बिनु रस कि होइ संसारा।।
सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई। जिमि बिनु तेज न रूप गोसाई।।
निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा। परस कि होइ बिहीन समीरा।।
कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा।।
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहि न राम।
राम कृपा बिनु सपनेहु जीव न लह बिश्रामु।।
कहेउ न कछु करि जुगुति बिसेषी। यह सब मैं निज नयनन्हि देखी।।
गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई। जो बिरंचि संकर सम होई।।
अग जग जीव नाग नर देवा। नाथ सकल जगु काल कलेवा।।
कवन जोनि जनमेउ जहं नाहीं। मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं।।
बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।।
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुसासन।।
मारग सोइ जा कहु जोइ भावा। पंडित सोइ जो गाल बजावा।।
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहु संत कहइ सब कोई।।
सोइ सयान जो परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी।।
जो कह झूठ मसखरी जाना। कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना।।
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी।।
जाके नख अरु जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला।।
नारि बिबस नर सकल गोसाई। नाचहिं नट मर्कट की नाई।।
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी।।
सौभागिनी बिभूषन हीना। बिधवन्ह के सिंगार नबीना।।
गुर सिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा।।
हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महु परई।।
मातु पिता बालकन्हि बोलाबहिं। उदर भरे सोइ धर्म सिखावहिं।।
नारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं सन्यासी।।
सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा।।
कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ।।
भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म।
सुनु हरिजान ग्यान निधि कहंउ कछुक कलिधर्म।।
सुत मानहिं मातु पिता तब लों। अबलानन दीख नहीं जब लों।।
ससुरारि पिआरि लगी जब तें। रिपरूप कुटुंब भए तब तें
सुख चाहहि मूढ़ न धर्म रता। मति थोरि कठोरि न कोमलता।।
नर पीड़ित रोग न भोग कहीं। अभिमान बिरोध अकारनहीं।।
लघु जीवन संबतु पंच दसा। कलपांत न नास गुमानु असा।।
कलिकाल बिहाल किए मनुजा। नहिं मानत कोऊ अनुजा तनुजा।
नहिं तोष बिचार न सीतलता। सब जाति कुजाति भए मगता।।
तनु पोषक नारि नरा सगरे। परनिंदक जे जग मो बगरे।।
सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार।
गुनउ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार
कृतजुग त्रेता द्वापर पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग
कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी।।
त्रेता बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं।।
द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा।।
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा।।
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना।।
सोइ भव तर कछु संसय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं।।
कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा।।
नित जुग धर्म होहि सब केरे। हृदय राम माया के प्रेरे।।
सुद्ध सत्व समता बिग्याना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना।।
सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा। सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा।।
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस। द्वापर धर्म हरष भय मानस।।
तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहु ओरा।।
हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं।।
अधम जाति मैं बिद्या पाए। भयउ जथा अहि दूध पिआए।।
जेहि ते नीच बड़ाई पावा। सो प्रथमहि हति ताहि नसावा।।
धूम अनल संभव सुनु भाई। तेहि बुझाव घन पदवी पाई।।
रज मग परी निरादर रहई। सब कर पद प्रहार नित सहई।।
मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई। पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई।।
सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा। बुध नहिं करहिं अधम कर संगा।।
कबि कोबिद गावहिं असि नीती। खल सन कलह न भल नहिं प्रीती।।
जे सठ गुर सन इरिषा करहीं। रौरव नरक कोटि जुग परहीं।।
जेहि पूछउ सोइ मुनि अस कहई। ईस्वर सर्ब भूतमय अहई।।
अति संघरषन जो कर कोई। अनल प्रगट चंदन ते होई।।
कबहु कि दुख सब कर हित ताके। तेहि कि दरिद्र परस मनि जाके।।
परद्रोही की होहिं निसंका। कामी पुनि कि रहहिं अकलंका।।
बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हे। कर्म कि होहि स्वरूपहि चीन्हे।।
काहू सुमति कि खल संग जामी। सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी।।
भव कि परहिं परमात्मा बिंदक। सुखी कि होहि कबहु हरिनिंदक।।
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें। अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें।।
पावन जस कि पुन्य बिनु होई। बिनु अघ अजस कि पावइ कोई।।
लाभु कि किछु हरि भगति समाना। जेहि गावहि श्रुति संत पुराना।।
हानि कि जग एहि सम किछु भाई। भजिअ न रामहि नर तनु पाई।।
अघ कि पिसुनता सम कछु आना। धर्म कि दया सरिस हरिजाना।।
राम भगति जिन्ह कें उर नाहीं। कबहु न तात कहिअ तिन्ह पाहीं।।
जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं।।
जे असि भगति जानि परिहरहीं। केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं।।
ते जड़ कामधेनु गृह त्यागी। खोजत आकु फिरहिं पय लागी।।
सुनु खगेस हरि भगति बिहाई। जे सुख चाहहिं आन उपाई।।
ग्यानहि भगतिहि अंतर केता। सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता
मोह न नारि नारि के रूपा। पन्नगारि यह रीति अनूपा।।
माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ। नारि बर्ग जानइ सब कोऊ।।
पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी। माया खलु नर्तकी बिचारी।।
भगतिहि सानुकूल रघुराया। ताते तेहि डरपति अति माया।।
तेहि बिलोकि माया सकुचाई। करि न सकइ कछु निज प्रभुताई।।
सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनइ न जाइ बखानी।।
ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।
सो मायाबस भयउ गोसाईं। बंध्यो कीर मरकट की नाई।।
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई।।
तब ते जीव भयउ संसारी। छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी।।
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई।।
जीव हृदय तम मोह बिसेषी। ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी।।
अस संजोग ईस जब करई। तबहु कदाचित सो निरुअरई।।
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा।।
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा।।
प्रबल अबिद्या कर परिवारा। मोह आदि तम मिटइ अपारा।।
तब सोइ बुद्धि पाइ उजिआरा। उर गृह बैठि ग्रंथि निरुआरा।।
छोरन ग्रंथि पाव जो सोई। तब यह जीव कृतारथ होई।।
छोरत ग्रंथि जानि खगराया। बिघ्न अनेक करइ तब माया।।
रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धहि लोभ दिखावहिं आई।।
कल बल छल करि जाहि समीपा। अंचल बात बुझावहि दीपा।।
होइ बुद्धि जो परम सयानी। तिन्ह तन चितव न अनहित जानी।।
जो तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी। तो बहोरि सुर करहिं उपाधी।।
इंद्री द्वार झरोखा नाना। तहं तहं सुर बैठे करि थाना।।
आवत देखहिं बिषय बयारी। ते हठि देही कपाट उघारी।।
जब सो प्रभंजन उर गृह जाई। तबहिं दीप बिग्यान बुझाई।।
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा। बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा।।
इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई। बिषय भोग पर प्रीति सदाई।।
ग्यान पंथ कृपान के धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा।।
जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई।।
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई। कोटि भांति कोउ करे उपाई।।
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई। रहि न सकइ हरि भगति बिहाई।।
अस बिचारि हरि भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति लुभाने।।
भगति करत बिनु जतन प्रयासा। संसृति मूल अबिद्या नासा।।
परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती।।
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा।।
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई। हारहिं सकल सलभ समुदाई।।
खल कामादि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं।।
गरल सुधासम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई।।
ब्यापहिं मानस रोग न भारी। जिन्ह के बस सब जीव दुखारी।।
राम भगति मनि उर बस जाके। दुख लवलेस न सपनेहु ताके।।
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीं।।
भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मनि सब सुख खानी।।
मोरे मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।।
सब कर फल हरि भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहू पाई।।
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा। राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा।।
नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।।
नरग स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी।।
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर। होहिं बिषय रत मंद मंद तर।।
काँच किरिच बदले ते लेही। कर ते डारि परस मनि देही।।
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। संत मिलन सम सुख जग नाहीं।।
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया।।
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। पर निंदा सम अघ न गरीसा।।
हर गुर निंदक दादुर होई। जन्म सहस्त्र पाव तन सोई।।
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि। जग जनमइ बायस सरीर धरि।।
सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी। रौरव नरक परहिं ते प्रानी।।
होहिं उलूक संत निंदा रत। मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत।।
सब के निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं।।
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा।।
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
प्रीति करहिं जो तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई।।
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना।।
ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई।।
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई।।
तृषना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी।।
राम कृपा नासहि सब रोगा। जो एहि भांति बने संयोगा।।
सदगुर वैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय के आसा।।
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी।।
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं।।
कमठ पीठ जामहिं बरु बारा। बंध्या सुत बरु काहुहि मारा।।
फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला। जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला।।
तृषा जाइ बरु मृगजल पाना। बरु जामहिं सस सीस बिषाना।।
अंधकारु बरु रबिहि नसावे। राम बिमुख न जीव सुख पावे।।
हिम ते अनल प्रगट बरु होई। बिमुख राम सुख पाव न कोई।।
बारि मथे घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल।।
मसकहि करइ बिंरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन।।
श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी। राम भजिअ सब काज बिसारी।।
सत संगति दुर्लभ संसारा। निमिष दंड भरि एकउ बारा।।
संत बिटप सरिता गिरि धरनी। पर हित हेतु सबन्ह के करनी।।
संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहे न जाना।।
निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता।।
जहं लगि साधन बेद बखानी। सब कर फल हरि भगति भवानी।।
सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई। राम कृपा काहू एक पाई।।
सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा। जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा।।
राम कथा के तेइ अधिकारी। जिन्ह कें सतसंगति अति प्यारी।।
अति हरि कृपा जाहि पर होई। पाउ देइ एहिं मारग सोई।।
कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं। ते गोपद इव भवनिधि तरहीं।।
एहिं कलिकाल न साधन दूजा। जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा।।
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि। संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि।।
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।।

06 अप्रैल 2010

ये मन आखिर है कहाँ ?


ये बङा साधारण सा लगने वाला प्रश्न लगता अवश्य है पर है नहीं . आप विचार करे कि मन शब्द का प्रयोग पूरे विश्व में होता है .लेकिन ये कोई नहीं जानता कि मन आखिर है कहाँ किसको मन कहा जाता है .हमारे शरीर में उसकी क्या और कहाँ स्थिति है .अध्यात्म चर्चा में कई बार मेरे साथ यह शीर्षक बहस और विवाद का विषय रहा है .जब मैं यह बात कहता हूँ तो लोग अक्सर सिर की तरफ़ इशारा करते हैं और कोई कोई दिमाग या मस्तिष्क को मन बताते हैं आप ठंडे दिमाग से सोचे तो यह दोंनों ही बात गलत हैं और ये एक आश्चर्यजनक सत्य है

कि वर्तमान मेडीकल सांइस में जितनी खोज हो चुकी है उसके आधार पर कोई भी अभी भी नहीं बता सकता कि मन आखिर है क्या और हैं कहाँ .हांलाकि इस तरह की बात कहना उचित नहीं है फ़िर भी आगामी सौ साल बाद , हजार साल बाद भी ये प्रश्न का उत्तर ज्यों का त्यों ही रहेगा .

आज मान लीजिये कि नासा के प्रोजेक्ट देख कर संसार हैरत में है और नासा का सबसे बङा मिशन है . ऐसे किसी दूसरे ग्रह की तलाश जिस पर किसी भी प्रकार का जीवन हो या फ़िर हमारी तरह की मनुष्य सभ्यता वहाँ निवास करती हो . इस पर अरबों डालर का खर्च आता है .अब जरा आप बहुत लोकप्रिय पुस्तक तुलसी की रामायण का उत्तरकाण्ड खोलकर देंखे तो नासा की तमाम खोज तमाम प्रयास आपको बचकाने लगेगें . या फ़िर आपको तुलसी झूठे लगेगें . इसमें तुलसी ने काकभुसुन्डी के माध्यम से अनेको स्रष्टियों का वर्णन किया है . अगर आप तुलसी को झूठा मानते है तो आपका धर्म आपका पूरा जीवन असत्य हो जाता है . यहाँ एक तर्क दिया जा सकता है कि भाई काकभुसुन्डी ने ही तो देखा अन्य किसी ने नहीं देखा..जरा ठहरिये..आप ने संतमत की पुस्तकें शायद अभीतक नहीं देखी . जो बङी सरलता से कह रही है कि शंकर का तीसरा नेत्र खुल सकता है तो आपका भी खुल सकता है . अर्जुन अगर विराट रूप देख सकता है तो अन्य भी देख सकते हैं अर्जुन में कोई अलग से तो खासियत थी नहीं..वेद कह रहे हैं कि आप उसको ( परमात्मा ) को नहीं जान सकते हैं . संत कह रहे हैं कि परमात्मा को जानने से सरल कोई काम ही नहीं हैं तुमने उसको कठिन बना रखा है..ये भी सत्य है कि बेहद सरल होते हुये भी कोई बिरला ही पहुँच पाता है क्योंकि तुमने खुद को खुद ही कैद कर रखा है..
तो वास्तव में मन है पर वहाँ कहीं नहीं जहाँ तुम समझते हो उसी तरह जैसे हवा है पर कभी उसको देखा नही जा सकता है.. संतमत के जानकार मुझे क्षमा करें क्योंकि वे भलीभांति जानते है हवा को देखना अत्यन्त सरल है लेकिन मेरी ये बात आम लोंगों के लिये है खास लोगों के लिये नहीं .

अगर आपको उपरोक्त लेख उलझा हुआ सा लगा हो तो आप संत मत की किताबें पढें . विशेष तौर पर कबीर को पढें अग्यात और अलौकिक रहस्य आपके सामने खुली किताब की तरह से होंगे . यही नहीं जीवन के रहस्य खुलेंगे सो खुलेंगे ही आप के अपने रहस्य खुलने लगेंगे .

वाल्मीक नारद घट जोनी , निज निज मुखन कही निज होनी .

ज्यों तिल माँही तेल है ज्यों चकमक में आग ,तेरा साईं तुझ में है जाग सके तो जाग

ज्यों नैनन में पूतरी यों खालिक घट माँहि ,मूरख लोग न जानहीं बाहर ढूँढन जाँहि

जा कारन जग ढूँढया , सो तो घट ही माँहि ,परदा दिया भरम का ताते सूझे नाहिं

दूध मध्य ज्यों घीव है मिहंदी माँही रंग, जतन बिना निकसे नहीं चरनदास सो ढंग

जो जाने या भेद कूँ और करे परवेस , सो अविनासी होत है छूटे सकल कलेस

मूर्ख राजा ! तू ये क्या कर रहा है ??

जड भरत के नाम से एक महान संत हुये हैं । पूर्वजन्म में जब ये एक ऋषि थे । एक हिरन के बच्चे में इनकी गहरी आसक्ति हो गयी थी । जिसके कारण इनको हिरण की योनि में जन्म लेना पङा । पूर्वजन्म में जब ये ऋषि थे । इनके आश्रम के निकट ही बाघ के भय से भागती एक गर्भिणी मृगी ने एक शिशु को जन्म दिया और उसी अवस्था में नवजात शिशु को छोङकर भाग गयी । ऋषि ने दया कर उस बच्चे को पाल लिया । और अधिक से अधिक उसकी देखभाल करने लगे । इसी तरह कुछ समय बाद उनका अंत आ गया । पर उनका पूरा ध्यान उस हिरण के बच्चे में ही रहा कि इसकी देखभाल किस तरह होगी ? और इसी चिन्ता में उनके प्राण पखेरू उङ गये । हिरण के बच्चे में आसक्ति होने से ही उनको यही योनि प्राप्त हुयी ।..जहाँ आसा तहाँ वासा । यही है खेल तमाशा ??
लेकिन पूर्वजन्म के ग्यानी होने की वजह से वो शीघ्र ही जान गये कि हिरण के बच्चे में घोर आसक्ति रखकर उन्होने भारी गलती की है । जो इस योनि में उन्हें आना पङा । अतः ग्यानियों वाला आचरण अपनाते हुये उन्होनें खाना पीना छोङ दिया ।  क्योंकि अब इस देह से छुटकारा पाने का यही एकमात्र तरीका था । फ़िर प्यास से अत्यन्त व्याकुल होने पर । जब वह निकट के सरोवर में जल पीने गये । तो कमजोरी के कारण वहीं गिर पङे । और उनका देहान्त हो गया । फ़िर इनका जन्म मनुष्य योनि में हुआ । क्योंकि इनको हरदम याद रहा कि मैं एक मनुष्य ही था । दूसरे जन्म में भरत जी एक अच्छे परिवार में पैदा हुये थे । और बेहद हष्टपुष्ट शरीर के मालिक थे । लेकिन संसार के किसी काम में इनकी कोई रुचि नहीं थी । जबकि घरवाले चाहते थे कि ये काम में रुचि लें ।
एक दो बार घरवालों ने जबरन इनका मन संसार के कामों में लगाना चाहा । पर भरत जी से वो कार्य बिगङ ही गया । तब हारकर इनके पिता ने इन्हें खेती की रखवाली पर लगा दिया । भरत जी ने वह कार्य भी ठीक से नहीं किया । और सारी फ़सल चिङियों को चुगा देते थे ।
 वे खेत की रखवाली के वजाय कहते । राम की चिरैया । राम का खेत । चुग लो चिरैया । भर भर पेट । तब घरवालों ने ये सोचकर कि इसका सुधरना मुश्किल है । इन्हें मार पीटकर घर से निकाल दिया । भरत जी यों ही रास्ते आदि में मस्ती में पङे रहते थे ।
उन्हीं दिनों की बात हैं । एक दिन राजा रहूगण पालकी में बैठकर काली देवी को मनुष्य की बलि चङाने जा रहा था । तभी रास्ते में अचानक एक कहार की तबियत खराब हो गयी । और वह पालकी उठाने में असमर्थ हो गया ।
तब दूसरे आदमी की तलाश में राजा के कर्मचारियों की नजर भरत जी पर गयी । और उन्हें राजा की पालकी उठाने का आदेश दे दिया गया । भरत जी ने बिना किसी प्रतिवाद के वह बात मान ली । और पालकी उठा के चलने लगे । परन्तु एक तो वह शरीर के मोटे थे । दूसरी बात वो चलते समय चींटियों को बचाकर चल रहे थे । और रास्ते में जहाँ चींटियों का झुन्ड आता था । भरत जी कूद जाते थे । इससे पालकी डगमगा जाती थी । इस पर राजा ने बिगङकर कहा ।  कौन मूरख है । जो पालकी को ढंग से नहीं चला रहा है ? सेवकों ने तत्काल उत्तर दिया ।  महाराज ये नया कहार गङबङ कर रहा है । दुबारा फ़िर ऐसा ही हुआ ।  तो राजा ने पालकी से उतरकर भरत जी के चांटा मार दिया ।
 भरत जी ने कहा । राजा तू मुझे कभी चांटा नहीं मार सकता । ये तो तूने मेरे स्थूल शरीर को चांटा मारा है ?? और ये मैं नहीं हूँ ?? राजा ये उत्तर सुनकर चकित रह गया । खैर..किसी तरह पालकी देवी के मन्दिर पहुँची । और होनी की बात वहाँ भी बलि हेतु लाये गये युवक की तबियत बिगङ गयी । और बलि के नियमानुसार अस्वस्थ इंसान की बलि नहीं दी जा सकती थी । तब फ़िर लोगों का ध्यान भरत जी की और गया । और इन्हीं की बलि चङाने का निश्चय हुआ ।
भरत जी ने अब भी कोई प्रतिवाद नहीं किया । और इनको स्नान आदि कराके फ़ूल आदि के हार पहना के बलि स्थल पर लाकर खङा कर दिया गया । लेकिन जैसे ही राजा ने खडग ( कटार ) उठाकर बलि देनी चाही । काली देवी तत्काल प्रकट हो गयी । और बोली । मूर्ख राजा । तू ये क्या करने जा रहा है ?? ये महान शक्ति है । तेरा तो सर्वनाश होगा ही । मैं भी रसातल को चली जाऊँगी । राजा ये दृश्य देखकर थरथर काँपने लगा  । और भरत जी के पैरों पर गिरकर रोने लगा ।
चौथे महल पुरुष एक स्वामी । जीव अंश वह अंतरजामी । ईश्वर अंश जीव अविनाशी । चेतन अमल सहज सुखराशी । करम प्रधान विश्व रचि राखा । जो जस करे सो तस फ़ल चाखा । पसु पक्षी सुर नर असुर । जलचर कीट पतंग । सबही उतपति करम की । सहजो नाना रंग । धनवन्ते सब ही दुखी । निर्धन है दुख रूप । साध सुखी सहजो कहे । पायो भेद अनूप ।

भाग्यवान तूने बाँट अच्छा कर दिया !!.


संत तुकाराम जी एक अच्छे संत हुये हैं । इनकी पत्नी बङे कर्कश स्वभाव की थी । और उसकी एक वजह ये भी थी कि तुकाराम जी का संसार के कार्यों में मन नहीं लगता था । इस बात को लेकर वह अक्सर झुँझलाया करती थी । एक बार की बात है कि गाँव के सब लोगों ने ईख ( गन्ना ) की खेती की । तो तुकाराम की पत्नी ने तुकाराम से कहा कि वो भी ईख कर लें । जिससे बच्चों के खाने हेतु गन्ने हो जांयेगे । भजन की मस्ती में मस्त रहने वाले तुकाराम जी ये कार्य कर नहीं पाये । और ईख बोने का समय निकल गया ।
 इस पर  उनकी पत्नी बहुत क्रोधित हुयी । गाँव में अन्य लोगों की ईख लहलहाने लगी । तब एक दिन तुकाराम जी की पत्नी ने कहा कि ईख तो तुमने की नहीं । जाओ किसी के यहाँ से कुछ गन्ने ही ले आओ । तो हम लोग गन्ने ही खा लें । तुकाराम जी चल दिये । उनकी पत्नी घर की छत से खङी खङी ये देखती रही कि देखें ये काम भी ये ठीक से करते हैं या नहीं ? तुकाराम जी एक खेत वाले के पास पहुँचे । तो उसने उन्हें आदरपूर्वक बैठा लिया । और तुकाराम जी सत्संग करने लगे । बाद में चलते समय उसने खुद ही गन्नों का एक गठ्ठर तुकाराम जी को ये कहकर दे दिया कि महाराज जी बच्चों के लिये ले जाओ । तुकाराम जी पीठ पर गन्ने लेकर आ रहे थे । तो रास्ते में गाँव के बच्चों ने एक एक कर गन्ना पीछे से खींच लिया । लेकिन तुकाराम जी ने उनसे कुछ नहीं कहा ।
तुकाराम जी की पत्नी छत से ये नजारा देखकर क्रोधित हो रही थी । घर आते आते तुकाराम के पास केवल एक ही गन्ना शेष रहा । जिसे तुकाराम की पत्नी ने अत्यन्त गुस्से से निकाला । और अत्यन्त क्रोध से ही उनकी पीठ में दे मारा । जिससे गन्ने के दो टुकङे हो गये । तुकाराम जी हँसते हुये बोले । अच्छा हुआ भाग्यवान तूने बाँट ठीक से कर दिया ।
दरिया सुमरे राम को । करम भरम सब खोय । पूरा गुरु सिर पर तपे । विघन न लागे कोय । नाम जपत कुष्ठी भला । चुइ चुइ परे जो चाम । कंचन देहि केहि काम की । जा मुख नाही नाम ।जीवित माटी हवे रहे । साई सनमुख होय । दादू पहले मर रहै । पीछे तो सब कोय । दरिया गुरु गरुवा मिला । करम किया सब रद्द । झूठा भरम छुङाय कर । पकङाया सत शब्द ।

04 अप्रैल 2010

एक आध्यात्मिक मंच

जय जय श्री गुरुदेव । प्रातः स्मरणीय सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज । परमहँस ।
परमानन्द शोध संस्थान आगरा ( उप्र. ) भारत । Parmanand Research Institute Agra (u.p ) India । मुख्यालय- सतगुरु आश्रम । आगरा । Head office-satguru aashram । agra । 
blog- satguru-satykikhoj.blogspot.com । shrishivanandjimaharaj.blogspot.com ।
निवेदन- समस्त विश्व समुदाय के भाई बहनों से निवेदन है कि हम विश्वस्तर पर एक । आध्यात्मिक मंच । का गठन करना चाहते हैं । जिसमें विश्व का कोई भी नागरिक अपनी भागीदारी कर सकता है । यह पूर्णतया निशुल्क और गैर लाभ उद्देश्य की । आपस में भाईचारा और आध्यात्मिक विचारों का आदान प्रदान । करने हेतु प्रारम्भ की गयी एक सीधी और सरल योजना है ।
उद्देश्य- आज के समय में विश्व में अनेकों मत और धर्म प्रचलित है । लेकिन अधिकतर लोग असन्तुष्ट हैं । प्रत्येक को अपने धर्म में अच्छाई और बुराई दोनों ही नजर आती है । लेकिन हमें इससे कोई लेना देना नहीं हैं । एक मनुष्य होने के नाते हमारे कर्तव्य । हमारे अपने विचार क्या हैं ? ये उससे अधिक महत्वपूर्ण हैं । वास्तव में मनुष्य के रूप में हम एक ही है । और सबकी आत्मा का एक ही धर्म है । सनातन धर्म । आज अगर समाज के अंदर से बुराईयों का समूल नाश करना है । तो इस विचार से ही । इस भावना से ही हो सकता है कि हम एक ही मालिक की संतान है । क्या आप मुझसे सहमत हैं ? यदि हाँ । तो हम अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिये क्या कर रहें हैं ?? हमारे ग्यान का अन्य को क्या लाभ है ? और क्या लाभ हो सकता है ? इस पर एक । साझामंच । बनाने में हमारी यथासंभव मदद करें । यदि आप सहमत हैं ।तो कृपया निम्न जानकारी भरकर भेंजे । और इसके अतिरिक्त आप कोई अन्य उत्तम विचार रखते हों । तो कृपया अवश्य बतायें  ।
आपका नाम.................................माता । पिता का नाम..........................................
लिंग- स्त्री । पुरुष....................आयु................धर्म- यदि बताना चाहें.........................................
विवाहित । अविवाहित । विधवा । विधुर ..............................................................................
शहर । ग्राम...........................जिला.......................राज्य......................देश.......................
स्थायी पता .....................................................................................................................
वर्तमान पता..................................................................................................................
कार्य । नौकरी । व्यवसाय....................................फ़ोन नम्बर,std कोड सहित.............................
मोबायल नम्बर...............................................
क्या आपने गुरुदीक्षा ली हैं......................यदि हाँ । तो किससे....................................................
( अधिक गुरुओं से दीक्षा ली होने पर पाँच गुरुओं तक के नाम बताएं । जो आपको श्रेष्ठ लगे हों । )
1-.........................................................2-....................................................................
3-..........................................................4-...................................................................
5-...........................................................6-..................................................................
( क्षमा करें । पर हमें और आपको भी ऐसे कई लोगों से वास्ता पङा होगा । जो कई गुरुओं की शरण में जा चुके हैं । और ये सच है कि जब तक सच्चे संत । सच्चे गुरु न मिल जायं । हमें अपनी तलाश जारी रखनी चाहिये । कार्तिकेय जी ने कई गुरु किये थे । जब हम ग्यान को अक्सर थोङा ही समझते हैं । तो अक्सर साधारण बाबा पुजारी आदि को गुरु बना लेते हैं । और फ़िर अधिक समझ आने पर ऊँचा या पहुँचा हुआ गुरु बनाते हैं । ये उसी तरह से है । जब तक बीमारी कट न जाय । हम डाक्टर बदलते रहते हैं । इस सम्बन्ध में अधिक जाननें के लिये ब्लाग देखें । फ़ोन करें । व्यक्तिगत मिलें ।
आपके गुरु ने जो मन्त्र दिया । उसमें अक्षरों की संख्या (गिनती ) कितनी थी । (मन्त्र न बताएं )..............
.......................यदि इस प्रश्न का उत्तर न देना चाहें । तो कोई बात नहीं ।
विशेष- इस प्रश्न का उद्देश्य मात्र इतना ही है कि आप उस महामन्त्र को जानते हैं । जो सिर्फ़ ढाई अक्षर का है । और मुक्ति और आत्मकल्याण का इकलौता मन्त्र है । और सतगुरु द्वारा दिये जाने पर बहुत जल्द प्रभाव दिखाता है । कबीर । मीरा । दादू । पलटू । हनुमान जी । बुद्ध । शंकरजी । रामकृष्ण परमहँस । तुलसीदास । नानक । वाल्मीक आदि ने जिसको जपा है । और वर्तमान में भी कई संत जिसका उपदेश कर रहें है । आप को उस मन्त्र का ग्यान है । या नहीं ???
निम्न प्रश्नों का उत्तर हाँ या ना में ही दें । यदि नही देना चाहते । तो भी कोई बात नहीं । हमारा उद्देश्य आपको वास्तविक ग्यान से परिचय कराना ही है ।
1- दीक्षा के बाद आपको कोई अलौकिक अनुभव हुआ । हाँ । नहीं .............................
2-कितने दिन में हुआ..हाँ । नहीं.....................................................................
3-आपने सूक्ष्मलोकों या लोक लोकांतरों के भ्रमण का अनुभव किया या नहीं..हाँ । नहीं................
4-आपको प्रकाश दिखता है । या नहीं...हाँ । नहीं...................................
5-आप मानते हैं । मुक्ति जीते जी ही होती है । मरने के बाद नही..हाँ । नही..................
6-आपको चेतन समाधि का अनुभव हुआ ..हाँ । नहीं ...................................
7-आपका ध्यान कितनी देर तक लग जाता है.. 1 घन्टे 2 घन्टे 3 घन्टे........................................
8- अन्य कोई अनुभव, यदि हो-......................................................................................
9-आपका कोई सुझाव-...................................................................................................
10-जो बात इस संदेश में आपको पसंद न आयी हो-...............................................................
विनीत-समस्त परमानन्द शोध संस्थान साधक संघ ।
विशेष- हमारा उद्देश्य न तो किसी प्रकार का विवाद फ़ैलाना है । और न ही किसी व्यक्ति या धर्म को ठेस पहुचाँना है । बल्कि हमारा उद्देश्य ऐसे व्यक्तियों और साधकों से परिचय तथा संवाद करना है । जो हमारी जैसी सोच रखते है । तथा आत्मकल्याण हेतु । सुरती शब्द साधना । सहज योग या राजयोग साधना कर रहें हैं । और अन्य जीवों को चेताने में विश्वास रखते हैं । फ़िर भी यदि किसी को कोई बात आपत्तिजनक लगती हो । तो कृपया हमें Email - GOLU224@yahoo.com पर करें । हम आपकी भावनाओं का सम्मान करते हुये अपनी कमीं अवश्य दूर करेंगे ।
बुरा जो देखन में चलया । बुरा न मिलया कोय । जो दिल खोजा आपना । मुझसे बुरा न कोय ।
कबीर सब ते हम बुरे । हम ते भले सब कोय । जिन ऐसा कर बूझिया । मित्र हमारा सोय । धन्यवाद ।