14 अगस्त 2010

विवाह और सम्भोग

कल्प कल्प में उत्पत्ति और विनाश के कारण प्रजाएं आदि क्षीण होती रहती हैं । कलियुग में दान ही धर्म है । कलियुग में केवल पाप करने वाले का त्याग करना चाहिये । कलियुग में पाप तथा शाप ये दोनों एक ही वर्ष में फ़लीभूत हो जाते हैं । आचारवान ब्राह्मण तथा सच्चे संत इस कलियुग में दुर्लभ होते हैं । व्यक्ति का पतन अभक्ष्य भक्षण । चोरी और अगम्यागमन करने से निश्चित ही हो जाता है । चार मास तक का गर्भ नष्ट होने पर गर्भस्राव और छह मास के गर्भ के गिरने को गर्भपात कहते हैं । जो पत्नी यौवनावस्था में अपने सज्जन और सच्चरित्रवान पति का त्याग कर देती है । वह सात जन्मों तक स्त्री योनि प्राप्त कर बार बार विधवा होती है । ऋतुकाल में पत्नी के साथ सम्भोग न करने वाले पुरुष को बालहत्या का पाप लगता है । जो स्त्री खानपान की दृष्टि से भृष्ट होती है । वह अगम्या होती है । तथा जन्मान्तर में सूअर की योनि प्राप्त करती है । यदि बडा भाई कुबडा । बौना । नपुंसक । हकलाने वाला । मूर्ख । जन्मांध । बहरा । गूंगा हो । तो उसके विवाह न होने पर या उसके विवाह से पहले ही छोटे भाई द्वारा विवाह कर लेने पर कोई दोष नहीं होता । जिस कन्या का केवल विवाह ही हो सका हो और उसका पति यदि परदेश चला जाय । मर जाय । संयासी हो जाय । नपुंसक हो । या पतित हो गया हो । तो ऐसी कन्या का दूसरा विवाह कर देना चाहिये ।
विध्या अध्ययन की समाप्ति के बाद गुरु को दक्षिणा प्रदान कर शिष्य को ब्रह्मचर्य वृत को समाप्त कर देना चाहिये । इसके बाद सुलक्षणा । सुन्दर । आयु में छोटी । अरोगा । भिन्न प्रवर एवं गोत्र वाली कन्या से विवाह करे । अपने घर पर वर को बुलाकर उसे यथाशक्ति सम्मान आदि देकर अपनी कन्या देना ब्राह्म विवाह कहलाता है । ऐसे विवाह से उत्पन्न संतान दोनों कुलों की इक्कीस पीडियों को पवित्र करने वाली होती है । यग्य दीक्षित ब्राह्मण को अपनी कन्या देना दैव विवाह कहलाता है । वर से गौ आदि जोडा लेकर अपनी कन्या देना आर्ष विवाह कहलाता है । तुम इस कन्या के साथ धर्म आचरण करो । यह कहकर कन्या के पिता द्वारा वर को जब कन्या प्रदान की जाती है । ऐसे विवाह को काय या प्राजापत्य विवाह कहते हैं । कन्या के पिता या भाई आदि या स्वयं कन्या को ही यथाशक्ति धन देकर कोई विवाह करता है । उसे असुर विवाह कहते हैं । वर और कन्या के बीच पहले से सम्बन्ध हो और पारस्परिक सहमति से जो विवाह हो उसे गान्धर्व विवाह कहते हैं । कन्या की इच्छा नहीं है । फ़िर भी जबरदस्ती युद्ध अपहरण आदि के द्वारा विवाह करना राक्षस विवाह कहलाता है । सोती हुयी कन्या का धोखे से अपहरण करके जो विवाह किया जाता है । उसे पिशाच विवाह कहते हैं । इन उपरोक्त आठ विवाहों में से प्रथम चार प्राकार के विवाह ब्राह्मण वर्ण के लिये उपयुक्त हैं । गन्धर्व तथा राक्षस विवाह क्षत्रिय के लिये उपयुक्त हैं । असुर विवाह वैश्य के लिये और पिशाच विवाह शूद्र के लिये उपयुक्त हैं । कन्या एक बार दी जाती है । इसलिये कन्या को एक बार देकर पुनः उसका अपहरण करने वाला चोरी के समान दन्ड का भागी होता है । सौम्य सुशील पत्नी का त्याग करने पर पति दन्ड का भागी होता है । किन्तु अत्यन्त दुष्ट पत्नी का त्याग किया जा सकता है । यदि कन्या का किसी वर के साथ वाग्दान मात्र हुआ हो और उसका विवाह के पूर्व ही वर मर हो गया हो । तो कलियुग से अन्य युगों में ऐसी कन्या द्वारा पुत्र प्राप्त करने का उपाय ये है । कि उसका देवर अथवा कोई सपिन्ड या सगोत्री बडों की आग्या प्राप्त कर अपने सभी अंगों में घी का लेप कर ऋतुकाल में कन्या से तब तक सम्भोग कर सकता है । जब तक गर्भ धारण न हो जाय । गर्भ धारण के बाद वह फ़िर से सम्भोग करता है । तो पतित हो जाता है । जो स्त्री व्यभिचारिणी हो और दूसरे पुरुषों से सम्भोग करती हो । और बहुत प्रयत्न करने पर भी व्यभिचार से विरत न हो रही हो । उसको उसके घृणित जीवन के प्रति वैराग्य उत्पन्न करने के लिये अपने घर में ही रखते हुये समस्त अधिकारों से वंचित कर देना चाहिये । उसे मलिनदशा में रखते हुये उतना ही भोजन देना चाहिये । जिससे उसके प्राणों की रक्षा हो सके । उसके निंदनीय कर्म की सभी लोगों द्वारा बार बार भतर्स्ना करनी चाहिये । उसको भूमि पर ही सुलाना चाहिये । स्त्रियों को विवाह से पूर्व चन्द्रमा ने शुचिता । गन्धर्व ने सुन्दर मधुर वाणी । और अग्नि ने सब प्रकार की पवित्रता प्रदान की है । इसलिये स्त्रियां पवित्र ही होती हैं । इसलिये उनके लिये अतप प्रायश्चित की व्यवस्था है । पर इससे यह नहीं मानना चाहिये कि स्त्रियों में दोष संक्रमण नहीं होता ।
यदि कोई स्त्री केवल मन से ही पर पुरुष की इच्छा करती है । तो यह भी एक तरह का व्यभिचार ही है । ऐसे ही अन्य पुरुष से सम्पर्क का संकल्प कर लेने से व्यभिचार दोष लग जाता है । ऐसा व्यभिचार यदि प्रकाश में नहीं आया । तो इसका मार्जन स्त्री के ऋतुकाल में रजोदर्शन से हो जाता है । यदि स्त्री अन्य पुरुष से सम्भोग करके गर्भ धारण कर लेती है । तो इस पाप का प्रायश्चित उस स्त्री का त्याग ही है । ऐसे ही गर्भवध । पति का वध । ब्रह्म हत्या आदि महापातक से ग्रस्त होने पर । शिष्य आदि के साथ सम्भोग करने वाली स्त्री का भी त्याग कर देना चाहिये ।
शराब पीने वाली । बहुत समय की रोगिणी । द्वेष रखने वाली । बांझ । धन का नाश करने वाली । कठोर या अप्रिय बोलने वाली । कन्या को ही उत्पन्न करने वाली । एवं पति का अहित करने वाली पत्नी का त्यागकर दूसरा विवाह किया जा सकता है । पहली विवाहिता मगर तलाकशुदा स्त्री को भी दान मान सत्कार आदि के द्वारा भरण करना चाहिये । अन्यथा स्त्री के पति को महापाप होता है । यदि कोई पुरुष अपनी स्त्री का त्याग करता है । तो उस स्त्री को भरण पोषण के लिये अपनी सम्पत्ति का तीन भाग 30 % देना चाहिये । जिस घर में पति पत्नी के बीच किसी प्रकार का विरोध नहीं होता । उस घर में धर्म अर्थ और काम इनकी भरपूर वृद्धि होती है । जो स्त्री पति की मृत्यु के बाद अथवा जीवित रहते हुये भी अन्य पुरुष का आश्रय नहीं लेती । वह इस लोक में भी यश की भागी होती है और पातिवृत्य पुण्य के प्रभाव से परलोक में जाकर पार्वती के साहचर्य में आनन्द प्राप्त करती है । स्त्रियों को अपने पति की आग्या पालन करना चाहिये । यही स्त्री के लिये सबसे बडा धर्म है । स्त्रियों में ऋतुकाल अर्थात रजोदर्शन के पहले दिन से सोलह रात तक उनका ऋतुकाल होता है । इसलिये पुरुष को इन सोलह रात्रियों की युग्म रात में अपनी पत्नी के साथ पुत्र प्राप्ति हेतु सम्भोग करना चाहिये । इस नियम का पालन करने वाले को ब्रह्मचारी कहते हैं । पर्व की तिथियों यानी अष्टमी चतुर्दशी अमावस्या और पूर्णिमा तथा ऋतुकाल की प्रारम्भिक चार तिथियों में
सम्भोग नहीं करना चाहिये ।मघा और मूल नक्षत्र में भी सहवास नहीं करना चाहिये । जब स्त्री पुरुष की अपेक्षा दुर्बल हो तो ऐसी स्त्री से सम्भोग पुत्र प्राप्ति में सहायक होता है ।
स्त्रियों को इन्द्र ने जो वर ( एक बार स्त्रियों ने पुरुष की अपेक्षा अपनी आठ गुनी काम भावना से बाध्य होकर इन्द्र की शरण में जाकर अपने मनोभाव को स्पष्ट किया तब इन्द्र ने उन्हें वर दिया कि स्त्रियों की काम भावना हनन करने वाला पुरुष पातकी होगा । इस वर के अनुसार पत्नी की इच्छा अनुसार ऋतुकाल से अतिरिक्त सम्भोग की भी
बात कही गयी है । ) दिया था । उसे देखते हुये पुरुष यथाकामी अर्थात पत्नी की इच्छा अनुसार ऋतुकाल से
अतिरिक्त मगर अनिषिद्ध रात्रियों में सम्भोग कर सकता है । पुरुष के यथाकामी होने के दो कारण हैं । पुरुष को अपनी पत्नी में ही रति रखनी चाहिये । दूसरा स्त्रियों की हर तरह से रक्षा करना पुरुष का धर्म है । बाल्यावस्था में पिता । यौवनकाल में पति । वृद्धावस्था में पुत्र । पुत्र के न होने पर अन्य सम्बन्धियों द्वारा स्त्री की रक्षा करनी चाहिये । दिन हो या रात । कभी भी पत्नी अपने पति के बिना एकान्त निवास न करे ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "
" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
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