22 अगस्त 2010

फ़क्कडानन्द बाबा



फ़क्कडानन्द बाबा से मेरी मुलाकात लगभग सवा दो साल पहले हुयी थी । उस समय मैं राजीव कुमार कुलश्रेष्ठ इत्तफ़ाक से गुरुजी के पास सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज...परमहँस ही बैठा था । जैसा कि मेरा कई बार का अनुभव है । एक साधु दूसरे साधु से हमेशा भारी अहम के साथ ही मिलता है । बशर्ते श्रद्धा का कोई कारण न जुडा हो । वह अपने मत अपने ग्यान अपने ध्यान को ही श्रेष्ठ मानता है । फ़क्कड संत मत sant mat का दीक्षित बाबा था । इस बात ने मेरी रुचि फ़क्कड से बातचीत में बडाई । हांलाकि अदैत ग्यान आत्म दर्शन में सत्रह साल के लगभग गुजारने के बाद मुझे तन्त्र मन्त्र ढोंगी अघोरी कैसा भी पंथ कोई भी मत हो । सब बाबाओं से बात करने में मजा ही आता है । लेकिन आत्मग्यान या संत मत sant mat की बात ही कुछ और है । तुरन्त ही बात ध्यान और उसकी उपलब्धि पर आ गयी । फ़क्कड ने कुछ अहंकार के साथ बताया कि उसके मंडल के इतने लोग दिव्य साधना DIVY SADHNA ध्यान की ऊंची अवस्था में है । इसको ये दिखता है । उसको वो दिखता है । महाराज जी उसकी बात सुनकर मुस्कराये । सच बात का अन्दाज ही कुछ और होता है । और झूठ का खोखलापन स्वयं ही साफ़ नजर आता है । जाहिर था कि फ़क्कड अग्यानतावश झूठ बोल रहा था । मैंने कहा । औरों की बात छोडो । तुम बताओ । तुम्हें क्या अनुभव हुये ? या अब तक क्या प्राप्त हुआ ? क्योंकि आठ साल की दीक्षा और ध्यान का अभ्यास मामूली बात नहीं होती ।
फ़क्कड ने फ़िर सुना सुनाया झूठ बोला । आकाश दिखायी दिया । पहाड दिखाई दिये । मैंने कहा । उस पहाड के पीछे बरगद के नीचे एक यक्षिणी मिलती है । वो बताओ । मोटी है या पतली ? और नये आदमी से पहली बार मिलने पर क्या कहती है ?
ये सुनते ही फ़क्कड झूठ के आसमान से हकीकत की जमीन पर उतर आये और बोले । महाराज सच कहूं तो मुझे कोई अनुभव नहीं है । बस http://satguru-satykikhoj.blogspot.com/ के लिये भटक रहा हूं । आप अगर कोई सहायता कर सकते हों तो अवश्य कृपा करे । मैंने कहा । आठ साल कहां लगते है ? पात्र में ललक और लगन हो तो तुरन्त का ही काम है । परमात्मा कहीं खोया नहीं है । उल्टे तुम नशे में हो । तुम खोये हुये हो । फ़िर फ़क्कड की महाराज जी सतगुरु श्री शिवानन्द जी महाराज...परमहँस से बात होने लगी । महाराज जी स्वभाव अनुसार ही कम बोलते हैं । उन्होंने कहा । तुम्हारे घर में ( शरीर ) बिजली बगैरा सब फ़िट हो चुकी है । केवल कुछ बल्ब लगाने हैं । और खम्बे ( चेतनधारा ) से तार जोडकर करेंट चालू कर देना हैं । फ़क्कड ने महाराज जी के पैर पकड लिये । और बोला । तो जोडिये महाराज जी । देर किस बात की । मैं कब से इसी की तलाश में घूम रहा हूं । उस समय शाम के सात बजे थे । महाराज जी ने सुबह फ़क्कड को बुलाया । दूसरे दिन सुबह आठ बजे जब मैं महाराज जी के कक्ष में गया । तो फ़क्कड अति प्रसन्न मुद्रा में मुझे मिले । वह सुबह चार बजे ही आ चुके थे । और महाराज जी के ध्यान आदि द्वारा उनकी बिजली जुड चुकी थी । फ़क्कडानन्द आज महाराज जी के शिष्यों में शामिल है । और बिलकुल झूठ नहीं बोलते हैं ।

15 अगस्त 2010

परमात्मा ने सृष्टि का निर्माण क्यों किया ????

लेखकीय - ये हैं । कुछ comments । परमात्मा ने सृष्टि का निर्माण क्यों किया ???? ये प्रश्न मेरे सामने मेरे साधु जीवन में सैकडों बार आया । और अलग अलग विचार के लोगों या साधुओं से इस पर कई बार चर्चा हुयी । वास्तव में इस प्रश्न का उत्तर बेहद सरल और फ़िर बेहद कठिन भी है ?
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हमारीवाणी.कॉम के सभी सदस्यों को हमारीवाणी टीम की ओर से हार्दिक शुभकामनाएँ ! आइये इस शुभावसर पर अंग्रेजों की गुलामी को छोड़कर अपनी देश की राष्ट्रभाषा "हिंदी" के प्रचार एवं प्रसार की शपथ लें । तथा इसके उत्थान में सहयोगी बनें । इस शुभ अवसर पर हमें यह बताते हुए ख़ुशी हो रही है कि आपका अपना ब्लॉग संकलक "हमारीवाणी.कॉम" एकदम सही और सुचारू रूप से प्रगति के पथ पर बढ़ रहा है । हम आपको भरोसा दिलाते हैं कि भविष्य में और भी मुस्तैदी के साथ हमारीवाणी टीम कार्य करेगी । आप आप हमारीवाणी.कॉम का लोगो अपनी साईट पर लगा सकते हैं । जिससे कि जैसे ही आपकी पोस्ट पब्लिश हो तो तुरंत ही हमारीवाणी.कॉम पर भी प्रदर्शित हो जाए ।
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Rajeev पोस्ट " वैसी ही उसकी परलोक गति भी होती है । " पर ।जय गुरूदेव की । राजीव जी मुझे आज तक यह समझ नहीं आया ।परमात्मा ने सृष्टि का निर्माण क्यों किया ? इसका उत्तर मुझे कहीं नही मिला ? और इस विषय पर मेने मेरे ब्लाग में एक लेख भी लिखा है। लेकिन अभी शायद उसको खोलने पर वायरस मिलेगा। क्योंकि अभी हमारी वाणी .काम में अभी वायरस है ।
Sonal पोस्ट " वैसी ही उसकी परलोक गति भी होती है । " पर ।anootha lekh..shukriya share karne ke liye
Rajeev ने " वैतरणी नाम की महा नदी " पर ।जय गुरूदेव की । सुन्दर लेख । Sonal पोस्ट " आज के ज्योतिष में कितना दम है ? " पर ।कलियुग की आयु 28 000 बरस है । ye kaise sidh hota hai ???Meri Nayi Kavita aapke Comments ka intzar Kar Rahi hai .
Deepak Shukla पोस्ट " ये माया तेरी अजब निराली है । " पर ।राजीव भाई । आपने मेरे ब्लॉग पर आ कर मुझे मान दिया है । और अपने शब्दों से अलंकृत किया है इसके लिए में दिल से आभारी हूँ । दीपक ।Aaj pratham baar main bhi aapke blog par aaya hun aur aakar bahut achha anubhav hua hai.Eshwar aapke aatmgyan ko badhaye...aur apni sharan main le.aapke aalekhon tak sada meri pahunch rahe eske liye aaj se main aapka anusarn kar raha hun...aap bhi agar mere blog ka anusaran karenge to mujhe atyant khushi hogi . ******** ये मामूली नही । प्रत्येक मनुष्य के लिये बहुत बडा प्रश्न है ??
राजीव जी मुझे आज तक यह समझ नहीं आया । परमात्मा ने सृष्टि का निर्माण क्यों किया ???? इसका उत्तर मुझे कहीं नही मिला ???? और इस विषय पर मेने एक मेरे ब्लाग में एक लेख भी लिखा है ।
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इस प्रश्न का उत्तर । यानी मेरी बात ।
आईये इस प्रश्न को एक दूसरे अंदाज में सोचते हैं । अगर आप राजा या प्रधानमंत्री होते तो क्या करते ? आप कोई भी कडी हार जीत । कडी प्रतिस्पर्धा वाला । बडे इनाम वाला खेल भी खेलते हैं तो क्या होता है ? आप अपने छोटे से बच्चे को जिंदगी के तमाम अनुभवों से गुजारकर एक सफ़ल इंसान क्यों बनाना चाहते हैं । अगर आप भगवान होते । तो इस सृष्टि को कैसा बनाते और वर्तमान के अनुसार इसमें क्या सुधार करते ? सृष्टि के रहस्य और उन पर विजय पाने का ग्यान वास्तव में ( किसी भी काल में ) था ही नहीं । या महज विषय वासनाओं में डूवे रहकर आपने उस पर ध्यान देने की जरूरत ही नहीं समझी । अगर आप अशिक्षित रहकर इस दुनियां के मजे ठीक से नहीं ले पा रहे तो ये आपका दोष है या आपके प्रधानमंत्री का ? आज कोई भी फ़िल्म निर्माता एक फ़िल्म बनाता है । तो उसमें जीवन के सभी रंग । सुख दुख । प्यार सेक्स । हिंसा धोखा । बदला बलिदान । त्याग ममता । परिवार अकेलापन । मिलन जुदाई । जैसे रंग क्यों डालता है ? इन प्रश्नों और इन जैसे ही संभावित अन्य प्रश्नों का आप चिंतन रूप में आत्मा से उत्तर प्राप्त करने की कोशिश करेंगे । तो निश्चय ही आपको उत्तर प्राप्त होगा । वैसे इस प्रश्न का उत्तर मैं कुछ ही दिनों में दूंगा ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "
" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं । सम्पर्क.. 09808742164

14 अगस्त 2010

विवाह और सम्भोग

कल्प कल्प में उत्पत्ति और विनाश के कारण प्रजाएं आदि क्षीण होती रहती हैं । कलियुग में दान ही धर्म है । कलियुग में केवल पाप करने वाले का त्याग करना चाहिये । कलियुग में पाप तथा शाप ये दोनों एक ही वर्ष में फ़लीभूत हो जाते हैं । आचारवान ब्राह्मण तथा सच्चे संत इस कलियुग में दुर्लभ होते हैं । व्यक्ति का पतन अभक्ष्य भक्षण । चोरी और अगम्यागमन करने से निश्चित ही हो जाता है । चार मास तक का गर्भ नष्ट होने पर गर्भस्राव और छह मास के गर्भ के गिरने को गर्भपात कहते हैं । जो पत्नी यौवनावस्था में अपने सज्जन और सच्चरित्रवान पति का त्याग कर देती है । वह सात जन्मों तक स्त्री योनि प्राप्त कर बार बार विधवा होती है । ऋतुकाल में पत्नी के साथ सम्भोग न करने वाले पुरुष को बालहत्या का पाप लगता है । जो स्त्री खानपान की दृष्टि से भृष्ट होती है । वह अगम्या होती है । तथा जन्मान्तर में सूअर की योनि प्राप्त करती है । यदि बडा भाई कुबडा । बौना । नपुंसक । हकलाने वाला । मूर्ख । जन्मांध । बहरा । गूंगा हो । तो उसके विवाह न होने पर या उसके विवाह से पहले ही छोटे भाई द्वारा विवाह कर लेने पर कोई दोष नहीं होता । जिस कन्या का केवल विवाह ही हो सका हो और उसका पति यदि परदेश चला जाय । मर जाय । संयासी हो जाय । नपुंसक हो । या पतित हो गया हो । तो ऐसी कन्या का दूसरा विवाह कर देना चाहिये ।
विध्या अध्ययन की समाप्ति के बाद गुरु को दक्षिणा प्रदान कर शिष्य को ब्रह्मचर्य वृत को समाप्त कर देना चाहिये । इसके बाद सुलक्षणा । सुन्दर । आयु में छोटी । अरोगा । भिन्न प्रवर एवं गोत्र वाली कन्या से विवाह करे । अपने घर पर वर को बुलाकर उसे यथाशक्ति सम्मान आदि देकर अपनी कन्या देना ब्राह्म विवाह कहलाता है । ऐसे विवाह से उत्पन्न संतान दोनों कुलों की इक्कीस पीडियों को पवित्र करने वाली होती है । यग्य दीक्षित ब्राह्मण को अपनी कन्या देना दैव विवाह कहलाता है । वर से गौ आदि जोडा लेकर अपनी कन्या देना आर्ष विवाह कहलाता है । तुम इस कन्या के साथ धर्म आचरण करो । यह कहकर कन्या के पिता द्वारा वर को जब कन्या प्रदान की जाती है । ऐसे विवाह को काय या प्राजापत्य विवाह कहते हैं । कन्या के पिता या भाई आदि या स्वयं कन्या को ही यथाशक्ति धन देकर कोई विवाह करता है । उसे असुर विवाह कहते हैं । वर और कन्या के बीच पहले से सम्बन्ध हो और पारस्परिक सहमति से जो विवाह हो उसे गान्धर्व विवाह कहते हैं । कन्या की इच्छा नहीं है । फ़िर भी जबरदस्ती युद्ध अपहरण आदि के द्वारा विवाह करना राक्षस विवाह कहलाता है । सोती हुयी कन्या का धोखे से अपहरण करके जो विवाह किया जाता है । उसे पिशाच विवाह कहते हैं । इन उपरोक्त आठ विवाहों में से प्रथम चार प्राकार के विवाह ब्राह्मण वर्ण के लिये उपयुक्त हैं । गन्धर्व तथा राक्षस विवाह क्षत्रिय के लिये उपयुक्त हैं । असुर विवाह वैश्य के लिये और पिशाच विवाह शूद्र के लिये उपयुक्त हैं । कन्या एक बार दी जाती है । इसलिये कन्या को एक बार देकर पुनः उसका अपहरण करने वाला चोरी के समान दन्ड का भागी होता है । सौम्य सुशील पत्नी का त्याग करने पर पति दन्ड का भागी होता है । किन्तु अत्यन्त दुष्ट पत्नी का त्याग किया जा सकता है । यदि कन्या का किसी वर के साथ वाग्दान मात्र हुआ हो और उसका विवाह के पूर्व ही वर मर हो गया हो । तो कलियुग से अन्य युगों में ऐसी कन्या द्वारा पुत्र प्राप्त करने का उपाय ये है । कि उसका देवर अथवा कोई सपिन्ड या सगोत्री बडों की आग्या प्राप्त कर अपने सभी अंगों में घी का लेप कर ऋतुकाल में कन्या से तब तक सम्भोग कर सकता है । जब तक गर्भ धारण न हो जाय । गर्भ धारण के बाद वह फ़िर से सम्भोग करता है । तो पतित हो जाता है । जो स्त्री व्यभिचारिणी हो और दूसरे पुरुषों से सम्भोग करती हो । और बहुत प्रयत्न करने पर भी व्यभिचार से विरत न हो रही हो । उसको उसके घृणित जीवन के प्रति वैराग्य उत्पन्न करने के लिये अपने घर में ही रखते हुये समस्त अधिकारों से वंचित कर देना चाहिये । उसे मलिनदशा में रखते हुये उतना ही भोजन देना चाहिये । जिससे उसके प्राणों की रक्षा हो सके । उसके निंदनीय कर्म की सभी लोगों द्वारा बार बार भतर्स्ना करनी चाहिये । उसको भूमि पर ही सुलाना चाहिये । स्त्रियों को विवाह से पूर्व चन्द्रमा ने शुचिता । गन्धर्व ने सुन्दर मधुर वाणी । और अग्नि ने सब प्रकार की पवित्रता प्रदान की है । इसलिये स्त्रियां पवित्र ही होती हैं । इसलिये उनके लिये अतप प्रायश्चित की व्यवस्था है । पर इससे यह नहीं मानना चाहिये कि स्त्रियों में दोष संक्रमण नहीं होता ।
यदि कोई स्त्री केवल मन से ही पर पुरुष की इच्छा करती है । तो यह भी एक तरह का व्यभिचार ही है । ऐसे ही अन्य पुरुष से सम्पर्क का संकल्प कर लेने से व्यभिचार दोष लग जाता है । ऐसा व्यभिचार यदि प्रकाश में नहीं आया । तो इसका मार्जन स्त्री के ऋतुकाल में रजोदर्शन से हो जाता है । यदि स्त्री अन्य पुरुष से सम्भोग करके गर्भ धारण कर लेती है । तो इस पाप का प्रायश्चित उस स्त्री का त्याग ही है । ऐसे ही गर्भवध । पति का वध । ब्रह्म हत्या आदि महापातक से ग्रस्त होने पर । शिष्य आदि के साथ सम्भोग करने वाली स्त्री का भी त्याग कर देना चाहिये ।
शराब पीने वाली । बहुत समय की रोगिणी । द्वेष रखने वाली । बांझ । धन का नाश करने वाली । कठोर या अप्रिय बोलने वाली । कन्या को ही उत्पन्न करने वाली । एवं पति का अहित करने वाली पत्नी का त्यागकर दूसरा विवाह किया जा सकता है । पहली विवाहिता मगर तलाकशुदा स्त्री को भी दान मान सत्कार आदि के द्वारा भरण करना चाहिये । अन्यथा स्त्री के पति को महापाप होता है । यदि कोई पुरुष अपनी स्त्री का त्याग करता है । तो उस स्त्री को भरण पोषण के लिये अपनी सम्पत्ति का तीन भाग 30 % देना चाहिये । जिस घर में पति पत्नी के बीच किसी प्रकार का विरोध नहीं होता । उस घर में धर्म अर्थ और काम इनकी भरपूर वृद्धि होती है । जो स्त्री पति की मृत्यु के बाद अथवा जीवित रहते हुये भी अन्य पुरुष का आश्रय नहीं लेती । वह इस लोक में भी यश की भागी होती है और पातिवृत्य पुण्य के प्रभाव से परलोक में जाकर पार्वती के साहचर्य में आनन्द प्राप्त करती है । स्त्रियों को अपने पति की आग्या पालन करना चाहिये । यही स्त्री के लिये सबसे बडा धर्म है । स्त्रियों में ऋतुकाल अर्थात रजोदर्शन के पहले दिन से सोलह रात तक उनका ऋतुकाल होता है । इसलिये पुरुष को इन सोलह रात्रियों की युग्म रात में अपनी पत्नी के साथ पुत्र प्राप्ति हेतु सम्भोग करना चाहिये । इस नियम का पालन करने वाले को ब्रह्मचारी कहते हैं । पर्व की तिथियों यानी अष्टमी चतुर्दशी अमावस्या और पूर्णिमा तथा ऋतुकाल की प्रारम्भिक चार तिथियों में
सम्भोग नहीं करना चाहिये ।मघा और मूल नक्षत्र में भी सहवास नहीं करना चाहिये । जब स्त्री पुरुष की अपेक्षा दुर्बल हो तो ऐसी स्त्री से सम्भोग पुत्र प्राप्ति में सहायक होता है ।
स्त्रियों को इन्द्र ने जो वर ( एक बार स्त्रियों ने पुरुष की अपेक्षा अपनी आठ गुनी काम भावना से बाध्य होकर इन्द्र की शरण में जाकर अपने मनोभाव को स्पष्ट किया तब इन्द्र ने उन्हें वर दिया कि स्त्रियों की काम भावना हनन करने वाला पुरुष पातकी होगा । इस वर के अनुसार पत्नी की इच्छा अनुसार ऋतुकाल से अतिरिक्त सम्भोग की भी
बात कही गयी है । ) दिया था । उसे देखते हुये पुरुष यथाकामी अर्थात पत्नी की इच्छा अनुसार ऋतुकाल से
अतिरिक्त मगर अनिषिद्ध रात्रियों में सम्भोग कर सकता है । पुरुष के यथाकामी होने के दो कारण हैं । पुरुष को अपनी पत्नी में ही रति रखनी चाहिये । दूसरा स्त्रियों की हर तरह से रक्षा करना पुरुष का धर्म है । बाल्यावस्था में पिता । यौवनकाल में पति । वृद्धावस्था में पुत्र । पुत्र के न होने पर अन्य सम्बन्धियों द्वारा स्त्री की रक्षा करनी चाहिये । दिन हो या रात । कभी भी पत्नी अपने पति के बिना एकान्त निवास न करे ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "
" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं । सम्पर्क.. 09808742164

09 अगस्त 2010

जीवन से मृत्यु तक 1


स्त्रियां ऋतुकाल में चार दिनों के लिये त्याज्य होती हैं । इसका कारण ये है कि प्राचीनकाल में ब्रह्मा ने वृ्त्रासुर के मारे जाने पर इन्द्र को जो ब्रह्महत्या लग गयी थी । उसका एक चौथाई भाग स्त्रियों को दे दिया था । इसलिये ऋतुकाल के आरम्भ में चार दिन स्त्रियां अपवित्र मानी गयीं हैं । स्री को ऋतुकाल के पहले दिन चान्डाली । दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी । तीसरे दिन रजकी मानना चाहिये । चौथे दिन वह शुद्ध हो जाती है । एक सप्ताह में वह पूजा के योग्य ( पूजा कर सकती है ) हो जाती है । प्रथम सप्ताह के बीच स्त्री जो गर्भधारण करती है । उसकी उत्पत्ति मतिम्लुच से होती है । वीर्य स्थापन के समय माता पिता की जैसी कल्पना होती है । वैसे ही गर्भ का जन्म होता है । युग्म तिथि वाली रात में सम्भोग करने से पुत्र और अयुग्म रात में सम्भोग करने से पुत्री का जन्म होता है । मासिक के पहले सप्ताह को छोडकर । दूसरे सप्ताह की युग्म तिथियों में सहवास करना चाहिये ।
 सामान्य अवस्था में स्त्रियों का ऋतुकाल सोलह रात का होता है । यदि चौदहवी रात में सम्भोग कर गर्भाधान किया जाय । तो उस गर्भ से गुणवान । भाग्यवान । धनवान । धर्मनिष्ठ पुत्र का जन्म होता है । लेकिन वह रात सामान्य लोगों को प्राप्त नहीं हो पाती । अक्सर स्त्री में गर्भ उत्पत्ति आठवीं रात के बीच ही हो जाती है । मासिक के पांच दिन बाद । स्त्रियों को कडवे । तीखे और सूखे भोजन को त्यागकर मधुर और सरस भोजन करना चाहिये । वहीं पुरुष पुष्प चन्दन आदि से सुवासित होकर स्वच्छ सुन्दर वस्त्र धारण करे । और शुद्ध मन से स्त्री को शय्या पर लिटाये । वीर्य स्थापित करते समय जो माहौल और भाव होगे । संतान भी वैसी ही होगी । प्रारम्भ में शुक्र (रज वीर्य ) और रक्त के संयोग से जीव पिन्ड रूप होता है और फ़िर क्रम से चन्द्रमा के समान वृद्धि करता है । शुक्र में चैतन्य बीज रूप में स्थित होता है । जब काम चित्त और शुक्र एक भाव हो जाता है । उस समय स्त्री गर्भ में जीव निश्चित रूप लेकर पूर्व अवस्था में आ जाता है । रज अधिक होने पर कन्या । और शुक्र अधिक होने पर पुत्र होता है ।
जब दोनों समान होते हैं तो संतान नपुंसक होती है । शुक्र रज पहले दिन रात में कलल । पांचवे दिन बुदबुद । चौदहवें दिन मांसरूप हो जाता है । इसके बाद वह घनीभूत हुआ मांस बीस दिन तक पिन्ड रूप बडता है । पच्चीसवें दिन उसमें शक्ति और पुष्टता आने लगती है । एक महीने में वह पंच तत्वों से युक्त हो जाता है । दूसरे महीने मे त्वचा और मेदा । तीसरे मांस में अस्थि और मज्जा । चौथे महीने में केश उंगली । पांचवे महीने में कान नाक वक्षस्थल । छठे महीने में कन्ठ रन्ध्र उदर । सातवें महीने में गुह्य भाग । आठवें महीने में सब अंग प्रत्यंग से पूर्ण हो जाता है । आठवें मास में जीव गर्भ में बार बार चलने लगता है । नवें महीने में गर्भ का ओजगुण पूर्ण होता है । गर्भवास समय बीत जाने पर उसका जन्म होता है ।
जीव का पंच भौतिक शरीर मज्जा । अस्थि । शुक्र । मांस । रोम । रक्त इन छह कोशों से बना पिन्ड है । प्रसव के समय । प्रसवकालीन विशेष वायु से प्रभावित । पीडा से बैचेन । माता की सुष्मणा से मिलती शक्ति से पुष्ट वह जीव गर्भ से शीघ्र निकलने को आतुर होता है । प्रथ्वी । हवि । जल । भोक्ता । वायु । आकाश इन छह भूतों से पीडित जीव स्नायु तंत्रिकाओं से बंधा रहता है । ये ही मूलभूत तत्व हैं । ये शरीर में फ़ैली सात नाडियों के बीच में रहते हैं । त्वचा अस्थि रोम नाडी मांस ये प्रथ्वी तत्व से आते हैं । लार मूत्र शुक्र मज्जा रक्त ये जल तत्व से आते हैं । भूख प्यास नींद आलस्य कान्ति ये अग्नि तत्व से आते हैं । राग द्वेश लज्जा मोह भय ये वायु तत्व से आते हैं । शरीर की गति चलना बैठना फ़ैलना सिकोडना बोलना ये भी वायु तत्व से हैं । शब्द चिंता गाम्भीर्य सुनना आदि आकाश तत्व से हैं । पांच कर्मेंन्द्रिया । पांच ग्यानेन्द्रिया होती हैं । इडा । पिंगला । सुष्मणा । गान्धारी । गजजिह्या । पूषा । यषा । अलम्बुषा । कुहू । शंखिनी । ये दस प्रधान नाडियां शरीर के मध्य स्थित रहती हैं । प्राण अपान समान उदान व्यान नाग कूर्म कृकर देवदत्त धनज्जय ये दस वायु प्राणी के शरीर में स्थित रहते हैं । खाया हुआ अन्न शरीर को पुष्ट करता है । प्राणवायु ही अन्न को शरीर तथा उसकी संधियों में पहुंचाता है । भोजन रूप में लिया गया आहार वायु के द्वारा दो रूपों में विभक्त कर दिया जाता है । प्राणवायु गुदाभाग में प्रविष्ट होकर अन्न और जल को अलग अलग कर देता है । प्राणवायु ही अग्नि के ऊपर जल को और जल के ऊपर अन्न को पहुंचाकर स्वयं अग्नि के नीचे रहते हुये अग्नि को धीरे धीरे उद्दीप्त करता रहता है । वायु से उद्दीप्त किया हुआ अग्नि अन्न के रस भाग को अलग और शुष्क भाग को अलग कर देता है । यही शुष्क भाग बारह प्रकार के मलों के रूप में शरीर से बाहर आता है । कान नेत्र नाक जीभ दांत नाभि गुदा नाखून ये सब मल के आश्रय हैं । विष्ठा मूत्र शुक्र पसीना आदि रूप से ये मल अनन्त प्रकार के हैं । क्रमशः

जीवन से मृत्यु तक 2


मनुष्य के शरीर में साढे तीन करोड रोम । सिर में बालों की संख्या सात लाख । बीस नाखून । बत्तीस दांत ( सामान्य स्थिति में ) होते हैं । शरीर में एक हजार पल मांस । सौ पल रक्त । दस पल मेदा । दस पल त्वचा । बारह पल मज्जा । तीन पल महारक्त । दो कुडव ( बारह मुठ्ठी ) शुक्र । एक कुडव रज ( स्त्री में ) होता है । इसी प्रकार छह प्रकार के कफ़ । छह प्रकार की विष्ठा ( मल ) छह प्रकार के मूत्र और तीन सौ साठ से अधिक अस्थियां होती हैं । इसे ही शरीर का वैभव कहते हैं । इसके अतिरिक्त शरीर में कुछ नहीं है ।
कर्म अनुसार ही मनुष्य को सुख दुख भय कल्याण मिलता है । क्योंकि कर्म शरीर से ही सम्भव है । इसलिये शरीर का महत्व है । इस शरीर से ही जीव ऊंची से ऊंची या नीची से भी नीची स्थिति को प्राप्त करता है । वायु जीव को गर्भ से बाहर लाता है ।जन्म के समय उसके दोनों पैर ऊपर और मुंह नीचे की ओर होता है । गर्भ में जीव माता के द्वारा खाये गये अन्न जल फ़ल दूध घी आदि आहार से पुष्ट होता है । जीव की नाभि से शक्तिवर्धिनी आप्यायिनी नाम की नाडी जुडी रहती है । इसका सम्बन्ध गर्भधारिणी औरत के आंत छिद्र से होता है । गर्भ में जीव को पूर्व में अनुभूत अनेक विषयों की स्मृति होती है । जिससे वह खिन्न होता है । और पीडा का अनुभव करता हुआ गर्भ में गति करता हुआ ( बैचेन ) यही विचार दोहराता है । एक बार इस कष्टदायी गर्भ से निकलकर मैं फ़िर से ऐसा कुछ नहीं करूंगा । जिससे मुझे पुनः गर्भ में आना पडे ।
यह सोचता हुआ जीव अपने सैकडों पूर्वजन्मों का स्मरण करता है । जिसमें उसने देव योनि । तिर्यक योनि आदि नाना प्रकार की योनियों में सुख दुख का अनुभव किया था । इसके बाद वह जीव नौवे या दसवें मास मे उल्टा होकर गर्भ से बाहर आता है । प्राजापत्य वायु के प्रभाव से निकलता हुआ वह जीव अत्यन्त कष्ट महसूस करता हुआ । दुख से विलाप करता हुआ बाहर आता है । उदर से बाहर होते हुये जीव को असह्य कष्ट देने वाली मूर्छा आ जाती है । किन्तु कुछ ही क्षणों में वह पुनः चेतन हो उठता है । और वायु के स्पर्श से सुख महसूस करता है । इसके बाद समस्त प्राणियों को मोहित करने वाली विष्णु की माया उसके ऊपर अपना परदा डाल देती है । उस माया से विमोहित हुये जीव का पूर्वग्यान नष्ट हो जाता है । ग्यान नष्ट होते ही वह जीव बाल भाव को प्राप्त हो जाता है । फ़िर उसे कौमार्य यौवन बुडापा प्राप्त होता है । उसके बाद फ़िर से उसी प्रकार मरता है । और फ़िर से जन्म लेता है । इस संसार चक्र में वह कुम्हार के चाक के समान चक्रयन्त्र पर अत्यन्त कष्ट में घूमता रहता है । कभी वह स्वर्ग जाता है । तो कभी नरक को पाता है ।
स्वर्ग और नरक में कर्मफ़ल का भोग करके जीव कभी कभी थोडे से शेष पाप पुण्य का भोग करने प्रथ्वी पर आ जाता है । जो आत्माएं स्वर्ग में रहती हैं । उनको यह सब दिखाई देता है कि नरक में प्राणियों को बहुत दुख है । लेकिन स्वर्ग को प्राप्त हुआ जीव जबसे विमान में चडकर ऊपर की और प्रस्थान करता है । तभी से उसके मन में यह स्थायी भाव पैदा हो जाता है । कि पुण्य समाप्त होने पर मैं फ़िर से नीचे आ जाऊंगा । अतः स्वर्ग में भी दुख है । नरकवासियों को देखकर उसे महान दुख होता है । क्योंकि वह सोचता है ।
 मेरी भी इसी प्रकार की गति होगी । यही चिन्ता उसे रात दिन लगी रहती है । गर्भवास में जीव को योनिजन्य ( यानी जिस प्रकार की योनि के गर्भ में है ) अनेक कष्ट होते हैं । योनि से पैदा होते समय दुख है । बालपन में दुख है । काम क्रोध ईर्ष्या के कारण युवावस्था में अनेक दुख हैं ।असमर्थता रोग आदि के कारण बुडापा दुखदायी है । मृत्यु के समय तो असहनीय दुख है । यमदूतों द्वारा बलपूर्वक खीचकर ले जाये जा रहे जीव को नरक में अधोगति प्राप्त होती है । इस तरह पूर्वजन्म में किये गये पाप पुण्य से बंधे जीव बार बार इस संसार में आवागमन का दुख भोगते हैं । हजारों प्रकार के दुख से व्याप्त इस संसार में रंचमात्र भी सुख नहीं है ।इसलिये मनुष्य को साबधानी से मुक्ति का निरंतर प्रयास इसी जीवन में कर लेना चाहिये क्योंकि ये ( मनुष्य ) जीवन फ़िर कब मिले । इसका पता नहीं । कब समाप्त हो जाय इसका पता नहीं ?

शरीर में ब्रह्माण्ड की स्थिति

इस ब्रह्माण्ड में जो गुण विधमान हैं । वे मनुष्य शरीर में भी हैं । सूर्यादि ग्रह । आकाश पाताल । पर्वत लोक दीप । समुद्र । सब ग्रह ये सब कुछ शरीर में है । पैर के नीचे तललोक । पैर के ऊपर वितललोक । दोनों
जानुओं में सुतललोक । सक्थि प्रदेश में महातल लोक है । उरु भाग में तलातल लोक । गुह्य स्थान में रसातल लोक है । कटि प्रदेश में पाताल लोक । नाभि के मध्य में भूर्लोक । उसके ऊपर भुवर्लोक । ह्रदय में स्वर्गलोक । कण्ठदेश में महर्लोक । मुख में जनलोक । मस्तक में तपोलोक । महारन्ध्र में सत्यलोक है । इसी प्रकार मनुष्य़ के इसी शरीर में चौदह भुवन विधमान है । शरीर के त्रिकोण में मेरु । अधकोण में मन्दर । दक्षिण में कैलाश । वामभाग में हिमालय । ऊर्ध्वभाग में निषध । दक्षिण में गन्धमादन । और वामरेखा में मलय पर्वत इस प्रकार इन सात पर्वतों की स्थिति है । शरीर के अस्थिभाग में जम्बू दीप । मज्जा में शाक दीप । मांस में कुश दीप । शिराओं में क्रौंच दीप । त्वचा में शाल्मलि दीप । रोम समूह में प्लक्ष दीप । नखों में पुष्कर दीप । स्थित हैं । इसके बाद सागरों की स्थित है । मूत्र में क्षारोद सागर । शरीर के क्षार तत्व में क्षीर सागर । श्लेष्मा में सुरोदधि सागर । मज्जा में घृत सागर । रस में रसोदधि सागर । रक्त में दधि सागर । काक में लटकते हुये मांस में स्वादूदक सागर । शुक्र में गर्भोदक सागर है । इसी प्रकार नादचक्र में सूर्य । बिन्दुचक्र में चन्द्रमा । नेत्र में मंगल । ह्रदय में बुध । विष्णुस्थान मे गुरु । शुक्र में शुक्र । नाभि में शनि । मुख में राहु । पायु में केतु माना जाता है । मनुष्य के सिर से लेकर पूरा शरीर इसी सृष्टि के रूप में विभक्त है ।
भूख प्यास क्रोध जलन मूर्छा । बिच्छू के डंक और सर्प के दंश के समान सब कष्ट भी इसी शरीर में ही रहते हैं । समय पूरा हो जाने पर सब की मृत्यु निश्चित है । यमलोक में गये हुये जीव के आगे आगे वही लोग दौडते हैं । जो पापी हैं । अधम हैं । दया धर्म से दूर हैं । जम दूत उनको बाल पकडकर घसीटते हुये रेगिस्तान के समान तपती हुयी भूमि में दहकते हुये अंगारों के बीच से ले जाते है । इन पापियों को यमलोक की झोंपडियों में तब तक रहना पडता है । जब तक पुनर्जन्म नहीं होता । जीव कर्मानुसार जन्म लेता और मरता है । आयु कर्म धन विधा और मृत्यु ये पांचों प्राणी के गर्भ में रहने के समय ही निश्चित हो जाती है । उत्तम प्रकृति वाला व्यक्ति अपने सतकर्म से ऊंचे कुल में पैदा होता है । और सुख भोगता है । किन्तु ज्यों ज्यों उसकी दुष्कर्म में प्रवृति होती जाती है । वैसे वैसे ही उसका जन्म भी नीच कुल में होने लगता है । और फ़िर उसी के प्रभाव से वह दरिद्रता । रोग । मूर्खता आदि अन्य कई दुखों को भोगता है । इस तरह पूर्वजन्म में किये गये पाप पुण्य से बंधे जीव बार बार इस संसार में आवागमन का दुख भोगते हैं । हजारों प्रकार के दुख से व्याप्त इस संसार में रंचमात्र भी सुख नहीं है । इसलिये मनुष्य को साबधानी से मुक्ति का निरंतर प्रयास इसी जीवन में कर लेना चाहिये क्योंकि ये ( मनुष्य ) जीवन फ़िर कब मिले । इसका पता नहीं । कब समाप्त हो जाय इसका पता नहीं ?
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "
" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
विशेष--अगर आप किसी प्रकार की साधना कर रहे हैं । और साधना मार्ग में कोई परेशानी आ रही है । या फ़िर आपके सामने कोई ऐसा प्रश्न है । जिसका उत्तर आपको न मिला हो । या आप किसी विशेष उद्देश्य हेतु कोई साधना करना चाहते हैं । और आपको ऐसा लगता है कि यहाँ आपके प्रश्नों का उत्तर मिल सकता है । तो आप निसंकोच सम्पर्क कर सकते हैं । सम्पर्क.. 09837364129

सार असार निर्णय

जामुन के फ़ल पूरी तरह पकने के बाद चार दिन में असार हो जाते हैं । एक महीने के बाद कटहल असार हो जाता है । छह माह के बाद खजूर बेकार हो जाता है । नारियल फ़ोडने के बाद एक दिन रात में असार हो जाता है । परन्तु सूखे नारियल और खजूर में यह दोष नहीं होता । एक वर्ष के बाद सुपाडी । एक घडी यानी 24 मिनट के बाद ताम्बूल ( पान ) तीन घन्टे के बाद पका हुआ अन्न । तीन पक्ष के बाद तेल में पकाया गया पदार्थ । बारह घन्टे के बाद घी में पकाया हुआ पदार्थ असार हो जाता है । नौ घन्टे के बाद शाक निसार हो जाता है । जम्बीरी नीबू । श्रंगबेर । आंवला । कपूर तथा आम एक वर्ष बाद सार रहित हो जाते हैं । लेकिन तुलसी सदा सार युक्त रहती है । एकादशी के दिन गीली या सूखी या फ़िर जल के साथ तुलसी का सेवन करना चाहिये । एकादशी के दिन अन्न सारहीन हो जाता है । एकादशी के दिन हरि भक्ति बेहद सार होती है । आषाड महीने में शाक । भादों में दही । आश्विन महीने में दूध निःस्सार हो जाता है । इसी तरह प्रभु के नाम का उच्चारण न करने वाला मुख । और प्रभु को नैवेध रूप में बिना अर्पित किये हुये बना हुआ समस्त भोजन निःस्सार हो जाता है । तीन दिन में अलसी का फ़ूल । एक पहर में मल्लिका । आधे पहर के बाद चमेली सार रहित हो जाती है । तीन वर्ष के बाद केसर । दस वर्ष के बाद कस्तूरी । तथा एक वर्ष के बाद कपूर सारहीन हो जाता है । लेकिन चन्दन सदैव सारवान रहता है ।
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05 अगस्त 2010

सृष्टि और प्रलय का चक्कर


जो इस सृष्टि और प्रलय का चक्कर समझ जाते हैं । वे तीन तापों । आध्यात्मिक । आधिदैविक । आधिभौतिक ।को जानकर इनसे परे । ग्यान । वैराग्य का मार्ग अपनाते है । और मोक्ष को सत्य को अपनाते है । लेकिन इससे पहले संसार चक्र का जानना जरूरी होता है । जिसको जाने बिना मोक्ष का पुरुषार्थ संभव ही नहीं है । जब मृत्यु के समय प्राणी इस शरीर का त्याग करके दूसरे सूक्ष्म शरीर में प्रविष्ट होता है । इस मृत्युलोक से मृत्यु के बाद जीव को यमराज के दूत दिन की अवधि में यमलोक ले जाते हैं । यमलोक के मार्ग में जीव अपने परिजनों द्वारा दिये पिण्डदान और तिलोदक को खाता है । पाप करने वाला नरक । और पुण्य
करने वाला स्वर्ग में जाता है । इसके बाद पाप या पुण्य का फ़ल खत्म हो जाने पर । वह जीव फ़िर से गिरा दिया जाता है । लौटकर आया हुआ ये जीव स्त्रियों के गर्भ में आता है । और वहां नष्ट न होकर वह दो बीजों के आकार को धारण करता है । उसके बाद वह कलल । फ़िर बुदबुदाकार बन जाता है । इसके बाद बुदबुदाकार रक्त से मांसपेशी का निर्माण होता है । मांसपेशी से अण्डाकार मांस बन जाता है । वह एक पल ( परिमाण या तौल ) के बराबर होता है । उस अण्डे से अंकुर बनता है । उस अंकुर से अंगुली नेत्र । नाक । मुख । कान आदि अंग और उप अंग पैदा होते हैं । इसके बाद उस विकसित हो चुके अंकुर में उत्पादक शक्ति का संचार होता है । और उसके हाथ पैरों की उंगलियों में नाखून । शरीर में त्वचा । रोम । तथा बाल निकलने लगते हैं । इस प्रकार गर्भ में बढता हुआ ये जीव नौ महीने तक उल्टा लटका हुआ । अनेकों कष्ट भोगने के बाद । दसवें महीने में जन्म लेता है । जन्म लेते ही संसार में व्याप्त माया उस पर परदा डाल देती है । और गर्भकाल में प्रभु भक्ति द्वारा अबकी बार मोक्ष प्राप्त करने का वह खुद का ही निश्चय भूल जाता है । वह नरक स्वर्ग की याद भी भूल जाता है । जो उसे गर्भकाल में याद थी ।
फ़िर यह जीव बाल अवस्था । कुमार अवस्था । युवा अवस्था और अंत में वृद्ध अवस्था को प्राप्त होने के बाद पुनः मृत्यु को प्राप्त होता है । इस प्रकार यह जीव संसार चक्र में घटीयंत्र के समान घूमता हुआ विवश हो जाता है । नरक भोग के बाद जीव पाप योनि में जाता है । ये कृमि आदि योनियां हैं । दूसरे की निंदा करने वाला । कृतघ्न । दूसरे की मर्यादा नष्ट करने वाला । निर्दयी । नीच कार्यों में रुचि । पराई औरत के साथ सम्भोग । पराये धन का लालच । अपवित्र रहने की आदत । देव निंदा । मर्यादा रहित अशिष्ट व्यवहार । कंजूसी । तथा मनुष्यों को मारने वाला । ये नरक भोगने के पश्चात जन्म लिये हुये मनुष्य के लक्षण हैं ।
दया । सज्जन वार्तालाप । परलोक सुधारने की चेष्टा । सतकर्म । सत्य धर्म का पालन । परहित । मुक्ति हेतु चिंतन । मुक्ति हेतु साधना । वेद प्रामाणिक बुद्धि । साधु संत । गुरुजन की सेवा । साधुओं के बताये नियम का पालन । सब के साथ प्रेम भाव । ये स्वर्ग से आये जीवों के लक्षण हैं ।
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" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "
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प्राकृतिक प्रलय

चार हजार युगों का एक कल्प होता है । ये ब्रह्मा का एक दिन माना जाता है । कृतयुग यानी सतयुग । त्रेता । द्वापर । कलियुग । ये चार युग होते हैं । सतयुग में धर्म के चार पाद होते हैं । सत्य । दान । तप । दया । सतयुग में मनुष्य़ की आयु चार हजार वर्ष होती होती है । सतयुग के अंत में धर्म पालन की दृष्टि से क्षत्रिय उच्च स्थिति में होते हैं ।
त्रेतायुग में धर्म के तीन पाद रह जाते हैं ।सत्य । दान । दया । यानी तप का लोप हो जाता है । मनुष्य की आयु एक हजार वर्ष की होती है । इस काल के मनुष्य यग्य परायण होते हैं । इस काल में क्षत्रियों द्वारा राक्षसों का संहार होता है ।
द्वापर में धर्म के दो पाद रह जाते हैं । सत्य । दान । दया का लोप हो जाता है । इस युग में लोगों की आयु चार सौ वर्ष होती है । इसी युग में विष्नु ने वेदव्यास के रूप में । एक ही वेद को चार भागों में विभक्त किया । तथा अपने प्रमुख शिष्यों को इनका अध्ययन कराया । ऋग्वेद की शिक्षा । पैल नामक शिष्य को । सामवेद की शिक्षा । जैमिन को । अथर्ववेद की । सुमन्तु को । यजुर्वेद की । महामुनि वैशम्पायन को । दी ।
वेदांगो तथा पुराणों का अध्ययन सूत जी को कराया । ये अठारह प्रमुख पुराण निम्न है । पुराण के पांच लक्षण होते है । सर्ग । प्रतिसर्ग । वंश । मन्वन्तर । वंशानुचरित । ब्रह्म । पदम ।विष्नु । शिव । भागवत । भविष्य । नारद । स्कन्द । लिंग । वराह । मार्कण्डेय । अग्नि । ब्रह्म वैवर्त । कूर्म । मत्स्य । गरुण । वायु । ब्रह्माण्ड पुराण ।ये अठारह पुराण है ।
कलियुग में धर्म का एक ही पैर रह जाता है । मनुष्य में सत रज तम ये तीनों गुण दिखायी देने लगते हैं । काल की प्रेरणा से ये गुण मन में उत्पन्न होते हैं और परिवर्तित होते रहते हैं ।
प्रलय -- चार हजार युगों के बीतने पर ब्रह्मा का नैमत्तिक प्रलयकाल होता है । तब कल्प के अंत में सौ वर्षों तक भयंकर बरसात होती है । आकाश में प्रचंड रूप से तपने वाले सात सूर्य उदय हो जाते हैं । इनकी भयंकर तपन से सम्पूर्ण जलराशि सूख जाती है । भूर्लोक । भुवर्लोक । स्वर्लोक । महर्लोक । जनलोक । तथा पाताल लोक की समस्त चराचर सृष्टि जलकर नष्ट हो जाती है । इसके बाद संवर्तक नाम का मेघ अन्य मेघों के साथ सौ वर्षों तक बरसता है । वायु अत्यन्त तेज गति से सौ वर्ष तक चलती है । ये नैमत्तिक प्रलय होती है ।
प्राकृतिक प्रलय - ब्रह्मा के सौ वर्ष बीत जाने पर । ब्रह्मा और ब्रह्मलोक में स्थिति प्राणी श्री हरि में लीन हो जाते हैं । उस समय बरसात करने वाले सूर्यों से सम्पन्न मेघ होते है । जो सौ बरस तक मूसलाधार बरसते हैं । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जल से भर जाता है । और भारी जलराशि के कारण ब्रह्माण्ड फ़ट जाता है । ब्रह्मा की आयु पूर्ण होते ही सब जल में लय हो जाता है । कुछ भी शेष नहीं रहता । जीवों को आधार देने वाली ये प्रथ्वी उस अगाध जलराशि में डूब जाती है । उस समय । जल अग्नि में । अग्नि वायु में । वायु आकाश में । और आकाश महतत्व में प्रविष्ट हो जाता है । महतत्व प्रकृति में । प्रकृति पुरुष में लीन हो जाती है ।
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