27 जून 2010

मन और शरीर के दस वायु..

हमारे शरीर में दस प्रकार की वायु होती है । जिनमें पाँच प्रमुख होती हैं ।
1--प्राण वायु--इसका कार्य स्वांस को गति देना है । इसका स्थान दिल है । इसका देवता सूर्य है । इसकी गति बारह अंगुल बाहर तक है ।इसका स्वभाव गर्म है । और इसका स्वरूप लाल है ।
2--अपान वायु--इसका कार्य मल त्याग करना है । इसका स्थान गुदा है ।इसका देवता गणपति है । इसकी गति बाहर से अन्दर है । इसका स्वभाव ठंडा है । और इसका स्वरूप शीतल है ।
3--समान वायु--इसका कार्य शरीर में रस पहुँचाना है । इसका स्थान नाभि है । इसका देवता सम्पति है ।
4--उदान वायु--इसके द्वारा ब्रह्मकुन्ड से अमृत प्राप्त करके । समान वायु तक पहुँचाता है ।इसका स्थान गले से चोटी तक है । और इसका देवता इन्द्र है ।
5--व्यान वायु--इसका काम रस को निर्मल करके पहुँचाना और हरकत करना है ।पूरा शरीर इसका स्थान है ।और दिग्पाल इसका देवता है ।
6--करकल वायु--इसका काम भोजन को हजम करना है ।शरीर में इसका स्थान पेट है । और इसका देवता मन्द या जठराग्नि होता है ।
7--कूरम वायु--इसके द्वारा आँख की पलकें खुलती और बन्द होती हैं । शरीर में इसका स्थान आँख है। और इसका देवता ज्योति अथवा प्रकाश है ।
8---नाग वायु--इसका कार्य डकार लाना है । इसका स्थान गला है । तथा इसका देवता शेष है ।
9---देवदत्त वायु--इसके द्वारा जम्हाई आती है । स्तन में दूध पैदा होता है । शरीर में इसका स्थान छाती के नीचे है । और इसका देवता कामदेव है ।
10---धनंजय वायु--मृत्यु के पश्चात शरीर को फ़ुलाना इसका कार्य है । और शरीर की शोभा आदि इसके अन्य कार्य है ।
इस प्रकार ये दस वायु होते हैं । जिनके बारे में संक्षेप में लिखा गया है । आईये थोङा सा मन के बारे में भी जानें । मन इस शरीर का राजा और सामान्य जीव अवस्था में नियंत्रणकर्ता है । यह अष्टदल कमल पर चक्कर काटता रहता है । और विषय विकारों में फ़ँसा होने के कारण एकाग्र नहीं होता । विकारों में प्रवृति होने के कारण यह जीव को भक्ति मार्ग की और मुङने नहीं देता । और नाना प्रकार के पाप कर्मों में उलझाये रखता है । अष्टदल कमल की जिस पत्ती पर ये होता है । जीव को उसी के अनुसार कर्म में प्रवृत्त करता है । अष्टदल कमल की ये आठ पत्तिंया कृमशः1- काम 2- क्रोध 3- लोभ 4-मोह 5- मद (घमंड ) 6-मत्सर (जलन) 7-ग्यान 8- वैराग हैं । मन की शेप लगभग इतनी बङी o बिंदी जैसी होती है । इसमें मन , बुद्धि , चित्त , अहम चार छिद्र होते हैं । जिनसे हम संसार को जानते और कार्य करते हैं । मन शब्द प्रचलन में अवश्य है । पर इसका वास्तविक नाम " अंतकरण " है । ये चारों छिद्र कुन्डलिनी क्रिया द्वारा जब एक हो जाते हैं तब उसको सुरती कहते है । इसी " एकीकरण " द्वारा प्रभु को जाना जा सकता है । अन्य कोई दूसरा मार्ग नहीं हैं । मन को बिना चीर फ़ाङ के ध्यान अवस्था में देखा जा सकता है । नियन्त्रित किया जा सकता है । इसका स्थान भोंहों के मध्य एक डेढ इंच पीछे है । जीवात्मा का वास इससे " एक इंच " दूर बांयी तरफ़ है । हमारे शरीर के अंदर पाँच तत्वों की पच्चीस प्रकृतियाँ ( एक तत्व की पाँच ) हैं । तो
25 प्रकृति + 5 ग्यानेन्द्रिया + 5 कर्मेंन्द्रियां + 5 तत्वों के शरीर का नियंत्रणकर्ता और राजा मन है । इसी आधार पर 40 kg weight को एक मन कहने का रिवाज हुआ था ।
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