20 मार्च 2010

मेरे दर्शन का फ़ल अनोखा है...


मम दर्शन फल परम अनूपा
पाय जीव जब सहज सरुपा
अर्थात मेरे दर्शन का फल कभी व्यर्थ नहीं होता और ये सबसे अनोखा है लेकिन ये तभी संभव है जब जीव अपने सहज स्वरुप मैं स्थित हो जाय तो .
किसी भी जीव का सहज स्वरुप क्या है क्या ये शरीर जो हमें मिला है अथवा ये मन जिससे हम ये मानते है के वो हमारी माँ है वो हमारा पिता है वो हमारा भाई है वो हमारी पत्नी है पुत्र है मित्र है
जाहिर है के हम अपने शरीर और मन से ही सब कुछ तय करते है और जीवन जीते है फिर मृत्यु के बाद ये सम्बन्ध ये शरीर यहीं पड़ा रह जाता है
और हंस अकेला ही यहाँ से उड़ जाता है तो फिर जीव का सहज स्वरुप क्या है उसका अपनी आत्मा को जान लेना और गुरुकृपा से उसमें स्थित हो जाना यही जीव का सहज स्वरुप है क्योंकि जीव के कितने ही जन्म क्यों न हो जाय इसमें कोई वदलाव नहीं होता
इसी के लिए तुलसी ने कहा है
सन्मुख होय जीव मोय जबहीं
कोटि जन्म अघ नासों तबहीं
यानी जीव जैसे ही अपनी आत्मा मैं स्थित होता है अर्थात गुरु के द्वारा वह उसको जान लेता है वह परमात्मा के सन्मुख होने लगता है और कोटि जन्म अघ यानी करोड़ों जन्मों के पाप उसी तरह नष्ट होने लगते है जैसे बरसो से पड़े कूड़े के ढेर को माचिस की एक तीली जला कर राख कर देती है वास्तव मैं जीव सामान्य स्थित मैं मन के द्वारा भवसागर मैं बह रहा है सतगुरु युक्ति के द्वारा जीव का जीव गति से सम्बन्ध काटकर आत्मगति से जोड़ देते है और दारुण दुःख देने वाले भव सागर मैं बहता जीव परमानन्द के स्रोत आत्मज्ञान की तरफ जाने लगता है और अपनी यात्रा पूरी कर के सुखधाम पहुँच जाता है और जन्म मरण के चक्करों से छुटकारा पाकर मुक्ति को प्राप्त हो जाता है

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