20 मार्च 2010

हमारी गलतफ़हमियां

हमारी गलतफहमियां क्या है ?
हजारों बरसों से आत्मज्ञान गुप्त होने से समाज के लोग कई ग़लतफ़हमी का शिकार होते हैं .
मीरा हमेशा ही कृष्ण की भक्ति करती रही ?
गलत, मीरा ने रैदास जी से ज्ञान लिया था और उन्हें गुरु धारण किया था उन्हें महामंत्र की दीक्षा श्री रैदास जी के द्वारा हुई थी तब ही उन्होंने कहा था ..पायो जी मैंने नाम रतन धन पायो .
हनुमान जी हमेशा दशरथ पुत्र राम के भक्त थे ?
गलत, त्रेता युग मैं कबीर साहेब ज़ब मुनीन्द्र स्वामी के नाम से प्रकट हुए थे तब उनसे हनुमान जी की मुलाकात हुई थी कबीर साहेब ने उनसे कहा के तुम असली राम को जानते हो तब कबीर साहेब ने उनको असली राम के बारे मैं बताया और नाम का ज्ञान कराया ..नाम रसायन तुम्हारे पासा सदा रहो रघुपति के दासा रामसेतु के समय पत्थरों पर "राम"लिखा गया था ?
गलत , राम लिखने से पत्थर तैरते तो किसी के द्वारा आज भी तैरते यह अत्यंत रहस्य की बात है जिसे ज्ञान मैं ऊंची स्थित होने पर ही बताया जाता है
महर्षि वाल्मिक ने मरा मरा जपा था ?
गलत , वास्तव मैं नाम गुप्त होने के कारण नहीं खोला गया यदि मरा मरा जपने से कोई वाल्मिक जैसा (एक चोर से) हो सकता है तो आजकल भी लोग मरा मरा जप कर वाल्मिक हो सकते हैं क्या आपने कभी सोचा है के आज तक कोई दूसरा वाल्मिक पैदा नहीं हुआ ये भी बेहद रहस्य की बात है हाँ ये बात बताई जा सकती है कि वाल्मिक को संतों ने उसी नाम का ज्ञान दिया था जो ढाई अक्षर का महा मंत्र है शंकर जिसका जाप करते है मीरा जिसका जाप करती थी हनुमान जिसका जाप करते थे तुलसी को दुसरे गुरु के द्वारा ये नाम मिला था और उन्होंने बालकाण्ड और उत्तरकाण्ड मैं इसका विस्तार से वर्णन किया है
इसी नाम के प्रभाव से पत्थर पानी पर तेरे थे ,इसी नाम के प्रभाव से कोई भी राक्षसी शक्ति प्रहलाद का बाल्वांका नहीं कर सकी थी इसी नाम से ध्रुव को अमरता प्राप्त हुई थी यही नाम ईसामसीह के पास था यही नाम मुहम्मद साहेब के पास था
वास्तव मैं इस नाम के अतिरिक्त किसी मैं ये शक्ति नहीं है के वो जीव को आत्मज्ञान करा सके जितने भी जीव आजतक तारे या तारे गए है वो इसी ढाई अक्षर के महामंत्र जिसको संतो कि भाषा मैं नाम भी कहते है के द्वारा ही तारे गए है

भक्ति क्या है ?


भक्ति क्या है ?
भक्ति स्वतंत्र सकल सुख खानी
बिनु सत्संग न पावहिं प्राणी .
भक्ति शब्द का अर्थ जाने भक्ति कौन करता है
भक्ति करने वाले को भक्त कहते है भक्त याने जुदा हुआ भक्त शब्द संस्कृत भाषा का है थोडा सा भी अधिक पड़े लोग जानते होंगे के विभक्त का अर्थ अलग होना है भक्त जुड़ा विभक्त अलग
सीधी सी बात है के भक्ति समस्त सुखों को देने वाली है परन्तु विना सत्संग के इसको प्राप्त नहीं किया जा सकता है . सत्संग का अर्थ है सत्य का संग और सत्य केवल परमात्मा ही है रामायण मैं स्पष्ट लिखा है
ब्रह्माण्ड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति वेद कहे .
मंदोदरी भी कहती है
सुन रावण ब्रह्माण्ड निकाया पाय जासु बल विचरत माया
अर्थात ये समस्त ब्रह्माण्ड आदि माया से निर्मित है यानी बनावटी है और परमात्मा सत्य है उसी सत्य का संग करने से भक्ति होती है अगर कोई प्रश्न हो तो ०९८३७३६४१२९ पर संपर्क करें .

मेरे दर्शन का फ़ल अनोखा है...


मम दर्शन फल परम अनूपा
पाय जीव जब सहज सरुपा
अर्थात मेरे दर्शन का फल कभी व्यर्थ नहीं होता और ये सबसे अनोखा है लेकिन ये तभी संभव है जब जीव अपने सहज स्वरुप मैं स्थित हो जाय तो .
किसी भी जीव का सहज स्वरुप क्या है क्या ये शरीर जो हमें मिला है अथवा ये मन जिससे हम ये मानते है के वो हमारी माँ है वो हमारा पिता है वो हमारा भाई है वो हमारी पत्नी है पुत्र है मित्र है
जाहिर है के हम अपने शरीर और मन से ही सब कुछ तय करते है और जीवन जीते है फिर मृत्यु के बाद ये सम्बन्ध ये शरीर यहीं पड़ा रह जाता है
और हंस अकेला ही यहाँ से उड़ जाता है तो फिर जीव का सहज स्वरुप क्या है उसका अपनी आत्मा को जान लेना और गुरुकृपा से उसमें स्थित हो जाना यही जीव का सहज स्वरुप है क्योंकि जीव के कितने ही जन्म क्यों न हो जाय इसमें कोई वदलाव नहीं होता
इसी के लिए तुलसी ने कहा है
सन्मुख होय जीव मोय जबहीं
कोटि जन्म अघ नासों तबहीं
यानी जीव जैसे ही अपनी आत्मा मैं स्थित होता है अर्थात गुरु के द्वारा वह उसको जान लेता है वह परमात्मा के सन्मुख होने लगता है और कोटि जन्म अघ यानी करोड़ों जन्मों के पाप उसी तरह नष्ट होने लगते है जैसे बरसो से पड़े कूड़े के ढेर को माचिस की एक तीली जला कर राख कर देती है वास्तव मैं जीव सामान्य स्थित मैं मन के द्वारा भवसागर मैं बह रहा है सतगुरु युक्ति के द्वारा जीव का जीव गति से सम्बन्ध काटकर आत्मगति से जोड़ देते है और दारुण दुःख देने वाले भव सागर मैं बहता जीव परमानन्द के स्रोत आत्मज्ञान की तरफ जाने लगता है और अपनी यात्रा पूरी कर के सुखधाम पहुँच जाता है और जन्म मरण के चक्करों से छुटकारा पाकर मुक्ति को प्राप्त हो जाता है

महामन्त्र क्या है ?


महामंत्र क्या है ?
महामंत्र क्या है . इस सम्बन्ध मैं बहुत से लोग मुझसे पूछते रहते है . मेरे मोब ..०९८३७३६४१२९ पर कई बार लोगों के इस तरह के जिज्ञासा भरे काल आये के आखिर ये महामंत्र कोन सा है . त्तुलसी रामायण मैं त्तीसरे चोथे पेज पर ही इस महामंत्र का वर्णन है .
नाम परम लघु जासु वश विध हरि हर सुर सर्व
मदमत्त गजराज को अंकुश कर ले खर्व
अर्थात वो नाम केवल ढाई अक्षर का है जिसके वश मैं ब्रह्मा विष्णु शंकर और सभी देवता हैं जैसे मतवाले हाथी को छोटा सा अंकुश वश मैं रखता है वैसे ही छोटी से लेकर बड़ी से बड़ी शक्तियां उसी नाम के अधीन हैं .
कबीर साहेब ने कहा है .
पोथी पड़ पड़ जग मुआ पंडित भया न कोय .
ढाई अक्षर प्रेम के पड़े सो पंडित होय
संसार के ज्यादातर ज्ञानी लोग भी यही समझते है के कबीर साहेब ने प्रेम को ढाई अक्षर का बताया है क्योंकि प्रेम शब्द मैं ढाई अक्षर ही होते है लेकिन ये सत्य नहीं है क्योंकि प्रेम करने से कोई पंडित (ज्ञानी )नहीं हो सकता वास्तव मैं परमात्मा से प्रेम कराने का माध्यम ये ढाई अक्षर का महामंत्र है जिसका कबीर साहेब ने इशारा किया है
इशारा इसलिए क्योंकि परमात्मा के नियम के अनुसार मुक्ति ज्ञान को गुप्त रखा गया है श्रीकृष्ण भी कहते है के मुक्ति देने वाला ये ज्ञान गुड रहस्य ही है इसके लिए हे अर्जुन तू समय के तत्ववेत्ता किसी महापुरुष के पास जा वो तुझे इसका ज्ञान कराएँगे
बहुत लोग जानते हैं के राम कृष्ण परमहंस काली देवी से साक्षात कर लेते थे और घंटों उनसे बात करते रहते थे एक बार रामकृष्ण ने काली देवी से पूछा के माँ मेरी मुक्ति कैसे होगी .देवी ने विल्कुल श्रीकृष्ण वाला उत्तर ही दिया के इसके लिए तू इस समय के किसी आत्मज्ञानी संत के पास जा वही तुझे मुक्ति का मार्ग दिखा सकते है किसी देवी या देवता मैं ये शक्ति नहीं होती .
तुलसी रामायण मैं लिखा है .
कलयुग केवल नाम अधारा ..सुमिर सुमिर नर उतरहि पारा
बहुत लोग ये समझते हैं के कलियुग मैं जीव किसी भी वाणी से लिए जाने वाले नाम जैसे राम कृष्ण शंकर देवी आदि का नाम ले ले और उसकी मुक्ति हो जायेगी ये कितने आश्चर्य की बात है के जिस मुक्ति के लिए इतने ढेरों ग्रन्थ है और ऋषि मुनि हिमालय आदि पर्वतों मैं अपने को कष्टदायक साधना से शरीर तक को गला देते है वो मात्र राम का नाम लेने से हो जायेगी . वास्तव मैं तुलसी ने ये संकेत किया है के सतयुग त्रेता आदि मैं यज्ञ मंत्र कुण्डलिनी जागरण के अनेकों ज्ञाता होते थे यानी मुक्ति का मार्ग दिखने वाले कई महापुरुष उपलव्ध होते थे पर प्रत्येक कलयुग मैं इनका अभाव हो जाता है और लोग कठिन साधनाएँ नहीं कर पाते है तब केवल ये महामंत्र ही उनका तारणहार होगा .वास्तव मैं ये महामंत्र बताने की चीज नहीं है इसको गुप्त रखने का ही विधान है परन्तु जब जिज्ञासु सत्संग सुन सुनकर परमात्मा के विषय मैं जानने को उतावला हो जाता है तब उसके अन्दर इस ज्ञान को लेने की पात्रता पैदा हो जाती है और गुरु मे श्रद्धा उत्पन्न होने पर वह इस ज्ञान को लेने का अधिकारी हो जाता है तब समय के सतगुरु उसको विधिवत दीक्षा देकर उसको नाम का ज्ञान का बोध करते है और उसकी आत्मा मे प्रकाश पैदा करते है अगर आपके मन मैं कुछ और प्रश्न हों तो आप ०९८३७३६४१२९ पर संपर्क कर सकते है .

भागवत सप्ताह का मतलव क्या है ?

आजकल धर्म में जो चीज सबसे ज्यादा देखने को मिल रही है । वो है भागवत सप्ताह  । कभी कभी मेरे दिमाग में यह बात आती है कि हम लोग ज्यादातर मामलों में भेडचाल क्यों हैं ? खासतौर पर धर्म के मामलों में ?? कभी मुझे यह भी लगता है कि धर्म के मामलों में हम श्रद्धा वाले न होकर भयभीत ही है । हम प्रेम भक्ति कम करते हैं । अनिष्ट के डर की आंशका से डरकर भक्ति अधिक करते हैं । 
कभी आपने भागवत सप्ताह ध्यान से सुना है ?? अगर सुना या पढा होगा । तो आपको मालूम होगा कि पहला भागवत सप्ताह या जिसे मुक्ति कथा भी कहते हैं  द्वापर युग के अंत में और कलियुग के प्रारम्भ में उस समय हुई थी । 
जब राजा परीक्षित की गलती से ऋषिकुमार ने उसे शाप दे दिया कि सात दिन में तुझे तक्षक काट लेगा । तक्षक बेहद जहरीला सांप होता है । और इस प्रकार राजा परीक्षित की मृत्यु निश्चित थी । 
दरअसल राजा परीक्षित को मृत्यु की इतनी चिंता नहीं थी । जितनी चिंता उसे अपनी मुक्ति की थी । उस समय के लोग भलीभांति जानते थे कि मुक्ति कैसे होती है ?
और धार्मिक माहौल की अधिकता से वे ये भी जानते थे कि इसका तरीका क्या होता है ?? 
वास्तव में इस मनुष्य शरीर में ही मुक्ति हो सकती है । इसके लिए किशोरावस्था में ही पहुंचे हुये समर्थ गुरु से दीक्षा ले ली जाती थी । और फिर उस मुक्ति मंत्र के जाप से अपनी आत्मा से जुड़े कलेशों का नाश किया जाता था । 


परीक्षित को क्या मालूम था कि उसके साथ ये घटना घट जायेगी । और तब तक वो मनुष्य जीवन के इस एकमात्र और महान लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाया था । 
तो अब उसकी ये चिंता थी कि उसे कोई ऐसा संत मिले । जो सात दिन के अल्प समय में उसकी आत्मा को काल सीमा से ऊपर उठा सके । वो ऐसे बन्दी छोड मुक्तिदाता संत की तलाश में नैमिषारण्य पहुंचा । 
शास्त्र में लिखा है कि उस समय वहां 88000 साधू मौजूद थे । उसने कहा कि कोई ऐसे संत को जानता है ?? जो मुक्तिज्ञान से मुक्ति कराने में सक्षम हो ?? 
 ये बड़े आश्चर्य की बात है कि 88000 साधुओं ने हाथ जोड़कर विनमृता से मना कर दिया । क्योंकि पहले के साधू आजकल के साधुओं की तरह झूठ नहीं बोलते थे । सबने कहा कि किशोरावस्था के श्री शुकदेव जी ही इस ग्यान के एकमात्र अधिकारी है ??? 
जरा सोचिये कि वो कौन सा ज्ञान था ?? जिसके लिए अनेकों बुजुर्ग साधुओं ने मना कर दिया । जाहिर है । कोई ख़ास ज्ञान ही रहा होगा ??? और एक बात भी तय है कि भागवत कथा सुनने या कराने से मुक्ति नहीं होती । वरना परीक्षित भी आजकल की तरह किसी से भी कथा करा लेता । और मुक्त हो जाता । 
जाहिर सी बात है कि मुक्ति का ये सौदा इतना सस्ता भी नहीं है । इसके लिये किसी पहुंचे हुये साधु की तलाश । और अविनाशी नाम ( या ढाई अक्षर मन्त्र का जाप ) की दीक्षा अति आवश्यक है । 
परीक्षित उस वक्त मौत के भय से भयभीत था । और पूरी तरह एकाग्र चित्त हो चुका था । शुकदेव जी ने उसकी दीक्षा आदि विधान पूरा करके सात दिन के अन्दर उसकी आत्मा को काल सीमा से बाहर निकाल दिया ।  मौत के भय से स्वतः जागृत हुयी एकाग्रता ने इसमें बडी सहायता की । 


सोचिये जिस कथा के लिये 88000 साधुओं ने मना कर दिया । उसे हरेक कोई कैसे कर सकता है ??? और परीक्षित को कथा केवल इसीलिये सुनाई जा रही थी कि उसकी सुरति की एकाग्रता बनी रहे । 
वास्तव में शुकदेव जी ने उसकी सुरति को ऊपर चढाया था । 
जरा  सोचिये । असली  भागवत कथा क्या है ?? और उसका क्या मतलब हो सकता है ? 
कबीर साहब ने कहा है । भोजन कहे भूख जो भाजे । जल कह तृषा बुझाई..अर्थात भूख लगने पर । कह दो । भोजन । और भूख मिट जाय । इसी तरह पानी कह देने से प्यास बुझ जाय । तो राम ( मुंह से कहने पर ) राम कहने से भी आदमी तर जायेगा । 
वास्तव में तरने का तरीका दूसरा ही है । जिसको सुरति शब्द साधना कहते हैं ।

15 मार्च 2010

एक संत और राजा में फ़र्क ?

एक राजा की किसी भी प्रकार के धर्म कार्यों में रूचि नहीं थी । उसका ये मानना था कि जो लोग कमजोर होते हैं । और ऐशो आराम के साधन नहीं जुटा पाते । बे हारकर भक्ति नामक पाखंड में लग जाते है । वो ये मानने को तयार नहीं था कि भोगविलास के साधन मौजूद होने पर भी किसी की उनमें रूचि ही न हो । लेकिन इसके विपरीत उसकी प्रजा भक्ति भाव वाली थी । 
कुछ लोगों ने राजा से कहा - राजन यहाँ से कुछ दूर जंगल के पास एक संत रहते हैं । उन्हें जरा भी किसी चीज का लोभ आदि नहीं है ।
राजा ने कहा - अरे पागल लोगो ! इस संसार में ऐसा कोई नहीं होता । जिसको सुख साधनों की.. सुख भोगने की इच्छा नहीं होती है ।
इस पर प्रजा ने बड़े ही दृढ भाव से कहा - महाराज वो संत इस प्रकार के नहीं हैं ।
लेकिन राजा को विश्वास ही नहीं हुआ । उसने कहा कि मैं अपनी भोली प्रजा को ये दिखाकर रहूँगा कि संत हो या कोई अन्य । सुख भोगने की कामना सभी के अन्दर होती है ।
ये सोचकर राजा संत के पास गया । और बोला - चलिए महाराज ! मैं आपको राजमहल ले जाने के लिये आया हूँ ।
संत उसके मन की बात समझ चुके थे ।
उन्होंने कमंडल उठाते हुए कहा - चलो । 
राजा का विश्वास और भी पक्का हो गया कि देखो ये संत महलों के लिए कितनी जल्दी तैयार हो गये । अब मेरी प्रजा को संतों की असलियत मालूम हो जायेगी । उसने संत को बहुत बढ़िया तरीके से महल में ठहरा दिया । उनके लिए सुन्दर दासियों पकवानों भोगविलास के सब साधनों की व्यवस्था भी कर दी । लेकिन इसके अलावा उसने संत से कुछ नहीं कहा ।
इस प्रकार 6 महीने गुजर गए । तब एक दिन राजा संत के पास पहुंचा । 
और बोला - मुझे आपसे कुछ नहीं पूछना । लेकिन मैं एक बात कहना चाहता हूँ । अब मुझमें और आपमें क्या फर्क है ?

संत ने कहा - ओ..हो राजा ! तुमने इस बात के लिए 6 महीने खराव कर दिये । तुम पहले ही पूछ लेते कि मुझमें और तुम में क्या फर्क है । लेकिन इसका उत्तर थोड़ी दूर जंगल में है । 
राजा उत्तर की जिज्ञासा में जंगल जाने के लिये तैयार हो गया ।
संत ने कहा - लेकिन राजन उत्तर जानने के लिये । तुम्हें मेरे साथ अकेले जंगल की तरफ चलना होगा । वो भी पैदल । राजा तैयार हो गया । इस तरह आगे आगे संत । और पीछे पीछे राजा चलते हुए काफी दूर निकल आये ।
घने जंगल में एक जगह रूककर राजा ने कहा - अब आप मुझे उत्तर बतायें ।
 संत ने कहा - उत्तर बस थोड़ी ही आगे है । इस तरह राजा बार बार उत्तर पूछता । और संत कह देते कि बस थोड़ी दूर और चलना होगा । 
वे दोनों लोग जंगल में बहुत आगे तक निकल आये थे । अँधेरा बड़ने लगा था । और जंगल भी घना होता जा रहा था । संत अपनी मस्ती में आगे चले जा रहे थे । तब एक जगह राजा रुक गया ।
और बोला - आपको उत्तर बताना हो । तो बताओ । अब मैं आगे नहीं जाऊँगा । 
संत मुस्कराकर बोले - राजन मुझमें और तुममें यही फर्क है । तुमने मुझे 6 महीने भोगविलास में उलझाकर ये समझा कि मैं उनका आदी हो गया । देखो तुमको अपना राज्य छोड़े अभी कुछ ही घंटे हुये है । और तुम राज्य के लिए किस कदर परेशान हो गये । और मुझ पर तुम्हारे राज्य छोड़ने का कोई प्रभाव नहीं है । मैं जंगल और राज्य में एक समान ही रहता हूँ ।
अब बात राजा की समझ में आ गई । और वो संत के पैरों में गिर पड़ा ।

राजा जनक को आत्मग्यान की प्राप्ति...1


त्रेतायुग की बात है । मिथिला नामक देश में एक महाप्रतापी राजा हुए । उनका नाम महाराज जनक था । ये भगवन राम की पत्नी सीता के पिता थे । महाराज जनक को आत्मज्ञान के बारे में बहुत जिज्ञासा थी । और इस पर चर्चा के लिए उनके दरबार में हमेशा विद्वानों की महफ़िल बनी रहती थी । पर राजा जनक को जिस आत्मज्ञान की तलाश थी । उसके बारे में कोई विद्वान उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाता था । उन्हीं दिनों की बात है । राजा जनक ने एक रात में सोते हुए एक सपना देखा कि वो अपने बहुत सारी सेना के साथ जंगल में शिकार खेलने के लिए गए हुए हैं । एक जंगली सूअर का पीछा करते करते राजा जनक बहुत दूर तक निकल गए । उनकी सारी सेना पीछे छूट गयी । और वह  सूअर घने जंगल मैं बहुत दूर जाकर अदृश्य हो गया । राजा थककर चूर हो चूका था । उसकी पूरी सेना का कोई पता नहीं था । अब राजा को बहुत तेज भूख प्यास लगने लगी थी । बेचैन होकर राजा ने इधर उधर नजर दौड़ाई । तो कुछ ही दूर पर उन्हें एक झोपड़ी नजर आई । जिसमें से धुआं उठ रहा था । राजा ने सोचा कि वहां कुछ खाने पीने के लिए मिल जायेगा । वो झोपड़ी में गये । तो  देखा कि झोपड़ी के अन्दर एक बुढ़िया औरत बठी हुई थी । राजा ने कहा । मैं एक राजा हूँ । और मुझे खाने की लिए कुछ दो । मैं बहुत भूखा हूँ । बुढिया ने कहा कि इस समय खाने के लिए कुछ नहीं है । और मुझसे काम नहीं होता । लेकिन यदि तुम चाहो तो वहां थोड़े से चावल रखे है । तुम उनको पकाकर खा सकते हो । राजा ने सोचा । इस समय इसके अतिरिक्त और कोई उपाय भी तो नहीं है । राजा ने बड़ी मुश्किल से चूल्हा जलाकर किसी तरह भात को पकाया । फिर जैसे ही राजा एक केले के पत्ते पर रखकर उस भात को खाने लगा । तभी तेजी से दौड़ता हुआ एक सांड आया । और पूरे भात पर धूल गिर गई । उसी समय राजा की आँख खुल गई । और वो राजा आश्चर्यचकित होकर चारों और देखने लगा । उसके मन में ख्याल आया कि मैंने एक राजा होकर इस तरह का स्वप्न क्यों देखा ?? यही सोचते हुए राजा को पूरी रात नींद नहीं आई ।
दूसरी सुबह राजा ने एक एलान अपने राज्य मैं कर दिया कि मेरे दो प्रश्न हैं । जो कोई मेरे पहले प्रश्न का जवाब देगा । उसे मैं अपना आधा राज्य दूंगा । और यदि नहीं दे पाया । तो बदले में आजीवन कारावास मिलेगा । तथा जो मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर देगा । उसे मैं पूरा राज्य दूंगा । और यदि नहीं दे पाया तो उसे फांसी की सजा होगी । राजा ने ये दोनों सजाएँ इसलिए तय कर दी थी कि वही लोग उसका उत्तर देने आये जिनको वास्तविक ज्ञान हो । ऐसा न करने पर फालतू लोगों की काफी भीड़ हो सकती थी ।
..आगे की कहानी जानने से पहले हमें महान संत अष्टावक्र के बारे में जानना होगा । अष्टावक्र जी उन दिनों मां के गर्भ में थे । और संत होने के कारण उन्हें गर्भ में भी ज्ञान था । एक दिन की बात है । जब अष्टावक्र के पिता शास्त्रों का अध्ययन कर रहे थे । अष्टावक्र ने कहा । पिताजी । जिस परमात्मा को तुम खोज रहे हो । वो शास्त्रों में नहीं है । वो तो तुम्हारे अन्दर ही है । अष्टावक्र के पिता शास्त्रों के ज्ञाता थे । उन्हें अपने गर्भ स्थिति पुत्र की बात सुनकर बहुत क्रोध आया । उन्होंने कहा । तू मुझ जैसे ज्ञानी से ऐसी बात कहता है । जा मैं तुझे शाप देता हूँ कि तू आठ जगह से टेढा पैदा होगा । इस तरह ज्ञानी अष्टावक्र विकृत शरीर के साथ पैदा हुए थे । उधर क्या हुआ कि अष्टावक्र के पिता को धन की कमी हो गई । तो वे राजा जनक के आधे राज्य के इनाम वाला उत्तर देने चले गए । और उत्तर ठीक से नहीं दे पाए । अतः आजीवन कारावास में डाल दिए गए । इस तरह 12 साल गुजर गए । अष्टावक्र अब 12 साल की आयु के हो गए थे । और लगभग विकलांग जैसे थे । एक दिन जब अष्टावक्र अपने साथियों के साथ खेल रहे थे । सब अपने अपने पिता के बारे में बात करने लगे । तो अष्टावक्र भी करने लगे । अब क्योंकि बच्चों ने उनके पिता को जेल मैं पड़े होने के कारण कभी देखा नहीं था । इसलिए सब बच्चों ने उन्हें झिड़क दिया कि झूठ बोलता है । तेरा पिता तो कोई है ही नहीं । हमने उन्हें कभी नहीं देखा ।
अष्टावक्र जी अपनी माँ के पास आये । और बोले कि माँ आज तुम्हे बताना ही होगा कि मेरे पिता कहाँ गए हैं ?? वास्तव में जब भी बालक अष्टावक्र अपने पिता के बारे में पूछता । तो उसकी माँ जवाव देती कि वे धन कमाने बाहर गए हुए है । आज अष्टावक्र जी जिद पकड़ गए कि उन्हें सच बताना ही होगा कि उनके पिता कहाँ हैं ?? तब हारकर उनकी माँ ने उन्हें बताया कि वे राजा जनक की जेल में पड़े हुए है । बालक अष्टावक्र ने कहा कि वे अपने पिता को छुडाने जायेंगे । और राजा के दोनों प्रश्नों का जवाव भी देंगे । उनकी माँ ने बहुत कहा कि यदि राजा ने तुझे भी जेल में डाल दिया । तो फिर मेरा कोई सहारा नहीं रहेगा । लेकिन अष्टावक्र जी ने उनकी एक न सुनी । और वे कुछ बालकों के साथ राजा जनक के महल के सामने पहुँच गए । एक बालक को महल की तरफ घुसते हुए देखकर दरबान ने उन्हें झिड़का ।  ऐ बालक कहाँ जाता है ??
अष्टावक्र जी बोले । मैं राजा जनक के प्रश्नों का उत्तर देने आया हूँ । मुझे अन्दर जाने दो । दरबान ने बालक जानकर उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की । तब अष्टावक्र ने कहा कि वो राजा से उसकी शिकायत करेंगे । क्योंकि राजा ने ये घोषणा कराइ है कि कोई भी उनके प्रश्नों का उत्तर दे सकता है । ये सुनकर दरबान डर गया । वो समझ गया कि ये बालक तेज है । यदि इसने मेरी शिकायत कर दी । तो राजा मुझे दंड दे सकता है । क्योंकि ये बालक सच कह रहा है । उसने अष्टावक्र को अन्दर जाने दिया । अन्दर राजा की सभा जमी हुई थी । अष्टावक्र जी जाकर सीधे उस कुर्सी पर बैठ गए । जिस पर बैठने बाले को राजा के दुसरे प्रश्न का जवाव । और इनाम में पूरा राज्य मिलता । तथा जवाव न दे पाने की दशा में उन्हें फांसी की सजा मिलती ।  एक बालक को ऐसा करते देखकर सब आश्चर्यचकित रह गए । और फिर पूरी सभा जोर जोर से हंसी । उनके चुप हो जाने के बाद अष्टावक्र जोर से हँसे । राजा जनक ने कहा कि सभा के विद्वान क्यों हँसे ? ये तो मेरी समझ में आया । पर तुम क्यों हँसे ? ये मेरी समझ में नहीं आया ।
अष्टावक्र ने कहा । राजा मैं इसलिए हंसा कि मैंने सुना था । आपके यहाँ विद्वानों की सभा होती है । पर मुझे तो इनमें एक भी विद्वान नजर नहीं आ रहा । ये सब तो चमड़े की पारख करने वाले चर्मकार मालूम होतें हैं । अष्टावक्र के ये कहते ही राजा जनक समझ गए कि ये बालक कोई साधारण बालक नहीं हैं । लेकिन अष्टावक्र के द्वारा विद्वानों को चर्मकार कहते ही सभा में मौजूद विद्वान भड़क उठे । उन्होंने कहा । ये चपल बालक हमारा अपमान करता है । कृमशः ।

13 मार्च 2010

राजा जनक को आत्मग्यान की प्राप्ति...2


अष्टावक्र ने कहा । मैं किसी का अपमान नहीं करता । पर आप लोगों को मेरा विकलांग शरीर दिखाई देता है । विकलांग शरीर होने से क्या इसमें विराजमान परमात्मा भी विकलांग हो गया । क्या किसी भी ज्ञान का शरीर से कोई सम्बन्ध है ? उनकी ये बात सुनकर पूरी सभा में सन्नाटा हो गया । राजा जनक ने उनकी बात का समर्थन किया । अष्टावक्र ने कहा । राजन कार्यवाही आगे बढाई जाए । तब राजा का एक अनुचर एक प्रश्नपट्टिका लेकर अष्टावक्र के पास आया । और बोला । पहला प्रश्न है..?
अष्टावक्र ने उसे डांट दिया । क्या यहाँ कोई मुकद्दमा चल रहा है ? जो कोई प्रश्न पूछेगा । और कोई उत्तर देगा । अगर जनक को अपने प्रश्नों का उत्तर चाहिए । तो क्या उन्हें इसकी मर्यादा मालूम नहीं है । ये सच का दरबार है । या झूठों की अदालत ?? राजा को यदि उत्तर चाहिए ।  तो वो स्वय आयें । राजा जनक समझ गए कि बालक के रूप में ये कोई महान ज्ञानी आया है । ये बोध होते ही जनक अपने सिंहासन से उठकर कायदे से अष्टावक्र के पास पहुंचे । और उन्हें दंडवत प्रणाम किया । अष्टावक्र बोले । पूछो क्या पूछना है ?? जनक ने अपना पहला प्रश्न किया । उन्होंने अपने सूअर के शिकार वाला स्वप्न सुनाया । और कहा कि स्वप्न व्यक्ति की दशा और सोच पर आधारित होते हैं । कहाँ मैं एक चक्रवर्ती राजा । और कहाँ वो दीनदशा दर्शाता मेरा स्वप्न ? जिसमें मैं लाचारों की तरह परेशान था । इनमें क्या सच है ? एक चक्रवर्ती राजा या वो स्वप्न ..? अष्टावक्र हंसकर बोले । न ये सच है । न वो स्वप्न सच था । वो स्वप्न 15 मिनट का था । और जो ये तू राजा है । ये स्वप्न 100 या 125 साल का है । इन दोनों में कोई सच्चाई नहीं है । वो भी सपना था । ये जो तू राजा है । ये भी एक सपना ही है । क्योंकि तेरे मरते ही ये सपना भी टूट जायेगा..?? इस उत्तर से पूरी सभा दंग रह गई । इस उत्तर ने सीधे राजा की आत्मा को हिला दिया । और वे संतुष्ट हो गए । आधा राज्य अष्टावक्र जी को दे दिया गया । पर क्योंकि अष्टावक्र जी पूरे राज्य के इनाम वाली कुर्सी पर बैठे थे । इसलिए बोले बताओ । राजन तुम्हारा दूसरा प्रश्न क्या है ?? जनक ने कहा । मैंने शास्त्रों में पढा है । और बहुतों से सुना है कि यदि कोई सच्चा संत मिल जाय । तो परमात्मा का ज्ञान इतनी देर में हो जाता है । जितना घोड़े की एक रकाब से दूसरी रकाब में पैर रखने में समय लगता है । अष्टावक्र बोले । बिलकुल सही सुना है । राजा बोले ठीक है । फिर मुझे इतने समय में परमात्मा का अनुभव कराओ । अष्टावक्र जी बोले । राजन तैयार हो जाओ । लेकिन इसके लिए हमें वनप्रांत की तरफ जाना होगा । राजा सहर्ष तैयार हो गया । कृमशः ।

राजा जनक को आत्मग्यान की प्राप्ति...3

राजा जनक आत्मज्ञान के लिए अष्टावक्र जी के साथ जंगल की और चल दिए । मार्ग में अष्टावक्र जी ने कहा । राजन तुम मुझसे परमात्म ज्ञान प्राप्त करना चाहते हो । लेकिन इसके बदले में मुझे क्या दोगे ? जनक बोले । महाराज जी मेरा सारा राज्य आपका । अष्टावक्र जी बोले । राज्य तो तुझे भगवान का दिया है । इसमें तेरा क्या है ? जनक बोले । महाराज जी मेरा ये शरीर भी आपका । अष्टावक्र जी बोले । तूने तन तो मुझे दे दिया । लेकिन तेरा मन अपनी चलाएगा । तब जनक बोले  । महाराज जी । मेरा ये मन भी आपका हुआ । अष्टावक्र जी बोले । अब ठीक है । अब घोड़े की रकाब में पैर फंसा । और जहाँ मैं कहता हूँ । वहां ध्यान लगा । जनक ने ऐसा ही किया । और उनकी घोड़े पर ही समाधि लग गई । तीन दिन तक समाधि लगी रही । उधर जनक के मंत्री आदि जनक को खोजते हुए जंगल पहुंचे । उन्होंने जनक से कहा । महाराज राज्य में चलिए । जनक ने कहा । राज्य तो अब गुरु महाराज जी का हो गया । तब अष्टावक्र जी ने कहा कि जनक तुम राज्य को मेरा मानकर व्यवस्था करो । इस तरह अष्टावक्र जी ने अपने पिता और सभी कैदियों को रिहा करवा दिया । राजा जनक ने उन्हे गुरु का स्थान दिया । और आत्मज्ञान प्राप्त किया ।

दीक्षा की तैयारी ?


एक बार एक सच्चे आत्मग्यानी संत थे । बहुत लोग उनकी सेवा करते थे । एक दूधवाला भी उनकी सेवा में रोजाना दूध पहुँचाता था । उसने देखा कि बहुत से लोग संत से ज्ञान ( दीक्षामंत्र ) लेते हैं । इससे प्रभावित होकर उसने सोचा कि मुझे भी संत से हँसदीक्षा लेनी चाहिये ।
उसने संत से कई बार कहा - महाराज जी ! मुझे भी दीक्षा देने की कृपा करें । मैं भी ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त करना चाहता हूँ ।
संत ने उत्तर दिया - अभी तुम्हें इंतजार करना होगा । अभी तुम्हारा समय नहीं आया है । ऐसा कहते कहते बहुत समय बीत गया । तब एक दिन दूधबाले ने हठ पकड़ ली कि महाराज जी आखिर मुझमें क्या कमी है ? जो आप मुझे दीक्षा नहीं देते हैं ।
आपको कृपा करके मुझे आज हँसदीक्षा देनी ही होगी । आज मैं आपकी कोई बात नहीं मानूँगा ।
संत ने कहा - ठीक है । मैं कल तुम्हें उत्तर दूँगा ।
संत रोजाना सुबह जब शौच आदि के लिए जाते थे । तो लौटते समय दूधवाले का घर पड़ता था । संत ने उस दिन अपने लोटे में थोडा सा गोबर डाल लिया । और उन्होंने दूधबाले के पास पहुंचकर कहा कि मेरे लोटे में थोङा दूध डाल दे ।

दूधवाला जब संत को दूध देने लगा । तब उसने देखा कि लोटे में गोबर पड़ा हुआ है ।
उसने कहा - महाराज जी ! आपके लोटे में तो गोबर पड़ा हुआ है । इसमें दूध कैसे डालूँ ?
संत ने कहा - कोई बात नहीं । तुम इसी में डाल दो ।
दूधबाला बोला - महाराज जी ! आप कैसी बात करते हो । इस तरह तो सारा दूध ख़राब हो जायेगा ।
संत ने फिर कहा - अरे कोई बात नहीं । तुम इसी में डाल दो ।
इस तरह दूधवाला बारबार कहने लगा कि महाराज गोबर में दूध डालना ठीक नहीं होगा । और संत जिद करते रहे कि इसी लोटे में दूध डालो ।
तब दूधबाला झुंझलाकर बोला - गोबर में दूध डालने से पूरा दूध ख़राब हो जायेगा ।
इस पर संत ने हँसकर कहा - इसी तरह से तेरे मन में संसार की गन्दगी रूपी गोबर भरा हुआ है । इसमें मैं अपना अनमोल प्रभु का आत्मज्ञान कैसे डाल दूँ ।
जब तक तेरे मन की सफाई नहीं हो जाती । तब तक तुझे ज्ञान कैसे दिया जा सकता है ?
अब दूधवाले की समझ में सारी बात आ गई । और वो संत के चरणों में गिर पड़ा । संत ने उसको आशीर्वाद दिया । और कहा - बेटा ! अब तेरी बुद्धि साफ़ हो गई । और अब तू ज्ञान लेने लायक हो गया ।

09 मार्च 2010

परमात्मा कहाँ रहता है.?

न मथुरा में ना काशी में । ना मैं कावा कैलाश में ।

मुझको कहाँ खोजे है बन्दे । मैं तो तेरे पास में । 
ना मैं तीरथ ना मैं मूरत । ना मैं वरत उपवास में । 
मुझको कहाँ खोजे है बन्दे । मैं तो तेरे पास में । 
आप सारे शास्त्रों वेद पुराणों का अध्ययन कर लें । गीता । रामायण । भागवत । महापुराण आदि का अध्ययन करेंगे । तो उन सबका एक ही निष्कर्ष निकलेगा कि यदि जीव को आत्मज्ञान की तलाश है । तो उसका एक ही मार्ग है । चक्रों का ध्यान करना । चक्रों को जगाना । जिसे ज्ञान की भाषा में कुण्डलिनी जागरण भी कहा जाता है ।
वास्तव में चक्रों के इस ध्यान को हलके से नहीं लिया जाना चाहिए । और न ही कोई किताब आदि पढकर कोई छोटी या बड़ी साधना करनी चाहिए । क्योंकि इसमें साधक पागल भी हो सकता है । और उसकी मौत भी हो सकती है । मेरे अनुभव में कई लोग ऐसे आये । जिन्होंने मनमाने तरीके से त्राटक । गहरा ध्यान । या मंत्र तंत्र आदि साधना की । और भयंकर दुर्गति को प्राप्त हुए ।
वास्तव में ये साधनायें बहुत सरल हैं । पर इनको सक्षम गुरु की देखरेख में ही करना चाहिये ।
चक्रों की साधना में बहुत तरीके हैं । और इसको सही तरीके से समझने के लिए कम से कम 6 महीनों का सतसंग लेना बेहद जरूरी होता है । बाद में गुरु को समर्पण होकर विधिवत
दीक्षा लेकर साधना आरम्भ करनी चाहिए । तभी साधक मुक्तिमार्ग की यात्रा कर सकता है । एक बात ये भी है कि आत्मा के उद्धार के लिए इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग भी नहीं है ।